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________________ चंद्रिका टीका चोखीसको श्लोक १२१ नहीं है क्योकि गुरु के स्वरूप का यह कथन अनिच्याप्त है । यतुर्यगुणस्थानवी असंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य में भी सुगुरु के उन विशेषणों का प्रभाव पाया जाता है परन्तु यह गुरु पाखण्डि नहीं है क्यों कि वह न तो विषयाशावशातीत है न निरारम्भ है और न अपरिग्रह ही है। फिर भी वह कुगुरु नहीं है। अतएव कुगुरु अर्थात् पाखरिख का स्वरूप स्पष्टतया पक्षाने के लिये इस कारिकाका निर्माण अत्यन्त इजिन और पावश्यक था। इसके सिवाय इस कारिका में प्रयुक्त पाखण्डि के विशेषणों का कारिका नं० १० में दिये गये सुगुरु के विशेषशोंके साथ मिलान करने और उस पर विचार करनेसे मारम होगा कि सुशुरु के मावोंसे पाखण्डिके भावोंमें बिलकुल प्रत्यनीकता तो दिखाई गई सापही उन मावों के निर्देशका क्रम भी बिलकुल विपरीत है । सुगुरु के स्वरूप को बताते हुए सबसे पहले पपेन्द्रिों . विषयोंसे रहित होना, उसके बाद प्रारम्भरहित होना, और उसके भी बाद अपरिग्रही होगा बताया गया है । जब कि यहांपर पाखण्डिका स्वरूप बताते हुए इन तीनों ही उण्टे दान मागोंको एकही वाक्य द्वारा किंतु विपरीत कमसे दिखाया गया है । जैसे कि पहले अन्य फिर भारम्भ इसके बाद हिंसा अर्थात् इन्द्रियों से सावध विषयों का सेवन एक 'समन्थारंभहिसाना' इस पदके द्वारा बताया गया है। कारण यह कि जहांतक इन्द्रियोंके विषयोंकी वासना नहीं कटी है, उनके सेवन करने की अंतरंगमें सकपाय भावना यादीनता बनी हुई है वहांतक उनका किसी न किसी रूपमें भोगोपभोग भी बना ही रहता है। तथा उसकी सिद्धि के लिए परिवा मी रखना ही पड़ता है, तथा प्रारम्भ भी करने पड़ते है । तथा इन कार्योक राते हुए हिंसा व सावधताका सम्बन्ध भी किसी न किसी रूपसे बना ही रहता है। इसके विरुद्ध इन्द्रियों के विषयोका परित्याग कर देने पर न तो प्रारंभ एवं परिग्रह की आवश्यकता ही रह जाती है और न उनका परित्याग फिर दुष्कर ही होता है। "संसारापर्सवर्तिना" पद भी "धानध्यानतपोरक्तः" इस पद में उलिखित समीचीन मात्मसाधना के भावोंके प्रत्वनीक-मिथ्योपदेश पंचामि तप जटाधारक पशहोमादि कर्म पशुपालन घेताचेली या संतानोत्पादन रक्षण एवं विवाहादि करना अधिक स्या महाशाखा शारख-उनका उपयोग तथा खेती प्रादि उन कामों को प्रगट करता है जो कि सापद्य और हिंसासे संबन्धित हैं। इन कार्योंको करते हुए भी जो अपने को साधु सन्यासी प्रगट करता है यह मनस्यही पाखंडी है। ऐसे पाखंडियों के पुरस्कार से अपना सम्यग्दर्शन मलिन होता है और सामान्य मोचमार्गका भादर्श भी भ्रष्ट होता है । भतएव समषु शिवकी सम्यग्दृष्टि का कर्तव्य है कि उनका पुरस्कार न करे क्यों कि वे वास्तवमें गुरु नहीं है जैसा कि कहा भी है किसर्वामिलापियः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः२ । अनमचारिणो मिष्योपदेशा गुरषो न तु॥ अन्तर विषय बासना वर्ते, गाहिर खोक लाज भय भारी । तातें परम दिगम्बर मुद्रा परि नदि सकहिं दीन अंसारी॥ २-०.२-१ की टीकामत ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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