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________________ ........................................ रस्नकरण्श्रावकाचार का करनेवाला है और उस क्रिया करने में स्वतन्त्र है उसको कर्चा कहते हैं और कर्चा के द्वारा जो किया जाय अथवा कर्ताक द्वारा जिसमें क्रिया की जाय, यद्वा क्रियाका फल जिसमें रहे उसको कहते हैं कर्म । श्लोकमें पूर्वार्ध और उत्तरार्थके दो भिन्न २ पद है । दोनोंकी क्रियाएं भिन्न २ हैं। पूर्वार्धका दर्शनशब्दउपाश्नुते क्रियाका क पद है । जिसका कर्म है "साथिमानम्" मतलब यह कि दर्शन–सम्यग्दर्शन साधिमाको निकट रहकर भी सबसे प्रथम और विशेषरूपसे व्यास करता है। ज्ञानचारित्रात्--यहांपर ज्ञान और चारित्र शब्दका समाहार द्वन्द्व समास हुया है। शान च चारित्रं च तयोः समाहारः तस्मात् । मतलब यह कि ज्ञान और चारित्र दोनोंसे, अथवा दोनोंकी। साथिमानम्-~-साधु शब्दसे भाव अर्थमें इमम् प्रत्यय होकर यह शब्द बना है। और कर्म कारक होनेके कारण द्वितीया विभक्तीका इसमें प्रयोग हुआ है। साधयति इति साधुः, तस्य भावः साथिमा, तम् । अर्थात् साधुता | यह निरुक्त्यर्थ है । कोषके अनुसार इस शब्दके अनेक अर्थ होते हैं । कुलीन, सुन्दर, मनोहर, उचित, मुनि, जिनदेव, वीतराग, व्यापारी आदि । यहांपर इस शब्दसे समीचीनता-सुन्दरता, उत्कृष्टता और उपादेयता अर्थ ग्रहण करना चाहिये । मतलब यह कि सम्यग्दर्शन इन समीचीनता आदिको ज्ञान चारित्रकी अपेक्षा पहले और प्रधानतया प्राप्त या व्याप्त करता है। उपाश्नुते--- उप उपसर्गपूर्वक स्वादिगणकी व्याप्त्यर्थक अश धातु के वर्तमान काल अन्य पुरुष एक वचनका यह प्रयोग है । जिसका अर्थ होता है कि समीप पहुंचकर व्यास करता है। क्योंकि सम्यग्दर्शन सबसे प्रथम समीचीनताके पास पहुँचता है और वह उसको व्याप्त करता है। ज्ञान चारित्रमें जो समीचीनता पाई जाती है वह तो दर्शनकी समीचीनताको अनयायिनी अनुसरण करनेवाली है साथही वह व्याप्य है । दर्शनकी समीचीनता व्यापक है । और वह झानचारित्रकी समीचीनताका अनुसरण नहीं करती, उसपर वह जीवित नहीं रहती. वह स्वतन्त्र है। यह बात भी यहां ध्यानमें रहनी चाहिये कि दर्शनकी समीचीनता जो ज्ञान चारित्रकी समीचीनताको व्याप्त करती है उसमें तीन विषय सम्बन्धित हैं.-उत्पत्ति प्रधानता और उपादेयता । इन्ही तीनों विषयोंको दृष्टिमें रखकर स्वयं ग्रन्थकार इस पद्यक अनन्तर ही क्रमसे तीन कारिकाओं के द्वारा स्पष्ट करेंगे अतएव यहां अधिक लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। दर्शन- उत्तरार्थके प्रारम्भमें आये हुये इस शब्दके विषयमें ऊपर कहा जा चुका है कि यह कर्म कारकके रूपमें प्रयुक्त हुआ है। यह भी कहा जा चुका है कि दोनों दर्शन शन्दोंका अर्थ एक ही है। फिर भी इसका प्रयोग किस अभिप्रायसे किया है यह समझने के लिये दूसरे सम्बन्धित शब्द तत् और कर्णधार तथा कारिका में प्रयुक्त न होने के कारण आक्षिप्यमान कर्तृपद "गणधरादय प्राचार्या:" को साथमें रखकर प्रकरण और क्रिया काचक शब्दों मोघमार्गे और प्रपातेको मी साथ रखना चाहिये।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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