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________________ चद्रिका टीका प्रथम लोक अर्थ मुख्य है इसलिये मंसार के कारणों से हटना और शुद्ध आत्मस्वरूप की सिद्धि के साधन में लगना ऐसा प्रकृतमें तीर्थ शब्दका आशा, लेना चाहिये। तीर्थकर शब्द का अर्थ भी उक्त तीर्थ की उत्पत्ति के अनुकूल रवतंत्र सामर्थ्य तथा योग्यता रखने वाला और उसका प्रवर्तन करने करानेवाला होना है। इस योग्यता का सीधा सम्बन्ध तीर्थकर नामकी नामकर्म की प्रकृतिक उत्यस है । यह नाभकम की प्रकृति जीव विपाकी है। अतएव उसके द्वारा जीव में ही वह योग्यता उत्पन्न हुप्रा करती है जिसके कि द्वारा वह जीव समस्त योग्य प्राणियों को आत्महित-श्रेपोमार्गका स्वरूप बताकर सर्वोत्कृष्ट अभयदान करने में समर्थ हुआ करता है। इस कर्मप्रकृति के बन्धको कारण दर्शन विशुद्रयादि सोलह भामनाए हैं जिनका स्वरूप आगमर में विस्तार पूर्वक बताया गया है। इस वर्मके बन्ध के साथ दूसरी भी अनेक योग्य पुण्य प्रकृतियों का वन्ध हुआ करना है। तथा उसके उदय के कारण यह जीर जगत में अनादि अविद्या का उच्छेदन कर श्रेयोमार्गका प्रवर्तन करने में नियमन:- नियतिवश ही प्रवृत्त हुआ करता है। इनके उपदेश को ही तीर्थ,- शासन-धर्म-मोक्षगार्ग आदि शब्दों से कहा जाता है । इनके उपदेश को जो भी प्राणी सुन लेता है यह अवश्य ही श्रीनर्धमान बन जाता है-उसकी अनादि अविद्या दूर होकर पूर्ण अन्तरंग श्री प्रगट ही जाती है और वह मोक्ष मार्ग में पढ़ने लगता है। इस तरह के तीर्थंकर सर्वज्ञों के सिवाय और भी अन्य अनेक सर्वज्ञ हुश्रा करते हैं तथा वे भी उपदेश कदाचित् दिया करते हैं परन्तु न तो उनका उपदेश नियत३ ही हैं और न उनके उपदेश में यह निश्चित सामर्थ्य है कि उसको सुननेवाला नियमसे संसार से पार हो जानेकी सामर्थ्य या योग्यता को प्राप्त कर ले । मतलब यह है कि दूसरे जो प्रतीर्थकर सर्वज्ञ हैं वे स्वयं संसारसे म० अ० टी० ५। "मुम्त्युपायो भवेत्तम्" अादिपुराण १.३६ । “गिरिणदिवादिषदेसा तित्याणि तबोधणेहि जदि उसिदा । सिस्थं कधं ण हुनजो तवगुणरासी सपं खत्रओ॥"भ० आ० २००७ । इत्यादि ५-देखो गो० कर्म कांड गाया ४८ से ५१ के अनुसार कुल जीवविपाकी प्रकृतियां ८ है । यथा अनुत्तर अवसेमा जीवविवाई मुणयन्वा ॥४८॥ २. तत्वार्थमून श्र.६४ २५ की टीका सर्वार्थ सिद्धि राजवार्तिक श्लोकवार्तिक सिंहनन्दी टीका आदि पद्खएडागम बन्धस्वामित्व सूत्र नं० ४१ और उसकी धवला टीका में इनका सुन्दर और विस्तृत वर्णन पाया जाता है। दोनों ही स्थानों के वर्णन में नाम तथा उनकी व्याख्या आदि में जो की विशेपता हैं उन प्रकरगोको देखकर जानी जा सकती हैं। ३. निलोय पण्णत्ती..........................."यथापुदण्हे मज्भयहे श्रधररहे मज्झिमा ताछछडिया णिग्गइ दिव्यमुणी कहइ सुतत्थे ।। यह नियम तीर्थंकरों की अपेक्षा से है। ४. इसके लिए देखो-पनचम्ति परिघंशपुराण मुनिसुबत काव्य श्रादिसे स्पष्ट होता है कि तीर्यवरकी दिव्यध्वनि सुननसे अवश्य सभ्यग्दर्शन प्राप्त होता है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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