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________________ रकरएहसावकाधार स्पष्ट होता है कि निर्जराक अभिलापियोंको इन पांच प्रकार के विनयों से अन्तिम-मोधाश्रय विनय अवश्य करना चाहिये। अर्थात् बन्दना श्रावश्यक से प्रयोजा मोक्षाश्रय विनयसे है। यह मोक्षाश्रय विनय किनको किस २ का करना चाहिये यह वात प नं ५० और ५१ में बताने के बाद पधनं ५२में बतायागया है कि किन २ को किस २ का यह मोधाश्रय विनय नहीं करना चाहिये। ध्यान रहे इस अवन्दनीयताका कारण भी असंयतत्व है। जैसा कि पधगत 'संयताः संयतः' इन शब्दों के द्वारा स्थष्ट होजाता है। मतलब यह कि श्रावक और मुनि दोनों ही संयमी है अत एव उनको किसी भी असंयमीका मोशाश्रय विनय नहीं करना चाहिये फिर थाह यह अपनी माता हो, पिता हो, शिसागुरु ही, दीक्षागुरु हो, राजा मंत्री पुरोहित आदि हो, कुलिङ्गी-मिथ्यादृष्टि तापसादिक हो या जिनमुद्राके धारक होते हुए भी भ्रष्ट-पावस्थादिक मुनि हो, अथवा कुदेव-रुद्रादिक हों या शासन देव हों। ___ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि इसी पधमें 'सोऽपि संयतैः' पदके द्वारा मुनिके लिये धावक भी अवन्दनीय ही बतायागया है। जिससे तात्पर्य यह निकलता है कि पाई कोई मुनि हो अपना भावक, दिखी यो सी भारत के नीचे पवालेका मोक्षाश्रय विनय अर्थात बन्दना कर्म नहीं करना चाहिये। यद्यपि श्रावक अन्दसे अभिप्राय पंचमगुण स्थान के भेदरूप ग्यारह प्रतिमाओंके व्रतों मेसे किसी भी प्रतिमाके व्रत धारण करने वाले से होता है फिर भी प्रकृत में उन दशवीं और ग्यारहनी प्रतिमाके व्रत धारण करने वाले वानप्रस्थाश्रमियोंसे ही मुख्यतया प्रपोजन है जो कि प्राय: घरमें रहना छोडकर साधुसंधके साथ रहा करते हैं और उन्ही के साथ इन भावश्यक क्रियाओं को भी किया करते हैं। इस के सिवाय यह बात भी ठीक है कि साधारण जघन्य श्रावकको भी किसी भी असंयमीका मोक्षाश्रय विनय नही करना चाहिये। किन्तु इसका अर्थ यह निकालना या समझना गलत होगा कि श्रावक-अर्थात् क्ती गृहस्थ किसी भी मसंयमी का मोक्षाश्रय विनयके सिवाय अन्य किसी भी प्रकारका भी विनय कर्म नहीं करसकता। गृहस्थाश्रममें रहते हुए वह अपने माता पिता शिक्षादीक्षागुरू और राजा मंत्री आदि को नमस्कारादि न करे यह अशक्य है और प्रयुक्त है। इसके सिवाय पं० माशावरजीने ही अपने इसी धर्मामृत ग्रंथ के उत्तरार्थ-सागार माग अध्याय ६ के "पाश्रुत्य स्नपन" भादि पद्य नं० २२ में प्रयुन "इष्टदिक' शब्दका अपना ही टीका क्या अर्थ लिखा है सोमी ध्यान देने योग्य है-वे कहते हैं-- ___ “इष्टदिक दृष्टा पक्षांश प्रापिता जिनयज्ञमभिवर्धयंतो वाऽनुमोदिता दिशस्तस्था दिक्पाला दशेन्द्रादयो यत्र नीराजनकर्मणि तदिष्टदिक । अर्थात् अभिषेक पूजन के समय नीराजन कर्म में इन्द्रादिक दश दिक्षार्लो को यज्ञांश देना चाहिये और उनसे जिनयश का. अभिवर्षन करना १--विनयः पश्चमो यस्तु तस्यैषा स्यात प्ररूपणा!" मन० अ-४८ को टोकामें उपत पद्य ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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