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________________ चन्द्रिका टीका पैतीसवा श्लाक ____ आगममें आयुकर्म पुण्य पापके भेइसे दो प्रकारका बताया है । एक नरक वायू पापकर्म है और शेष तीनों ही आयु पुण्य हैं । तद्वत् गतिकर्म में नरक तिर्यक् दो गति पाप है और बाकी देव गति तथा मनुष्यगति दोनों पुण्य हैं । अबद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि नरक और तिर्यग्गतिको प्रान नहीं हुआ करता जैसाकि ऊपर कहागया है । किन्तु यदि इसतरहका कोई मनुष्य या निर्यच है तो वह देवायुका ही बन्ध किया करता है । यदि वह देव या नारक है तो वह मनुष्य आयुका ही बन्ध करता श्रीर बहीपर जन्म धारण किया करता है। देवा में उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दृष्टि जिसतरह भावनत्रिक देवदुतिम उत्पन्न नहीं हुश्रा करता उसीप्रकार मनुष्यगतिमें उत्पण होनेवाला सायष्टिर या ना लागे? असमातीय एवं अन्य दृषित मनुष्यकुलों में उत्पमा नहीं हुआ करता। मनुष्यगतिमें उत्पन्न होनेवाल जीव चार भेदोंमें विभक्त है । सामान्य, पर्याप्त, योनिमती और अपर्याप्त । सामान्य मनुष्योंके भी दो भेद है-एक पार्य दूसरे अवार्य । आर्य बन्दका अर्थ होता है-"गुणगुणवांना अर्यन्त इत्यार्याः२" | जिमको सम्यग्दर्शनादि गुण प्राप्त हो सकते हैं उनको आर्य और जिनको वे प्राप्त नहीं हो सकते उनको अनार्य कहते हैं | अनार्योंको म्लेच्छ भी कहते हैं यह 'आर्य म्लेच्छ व्य,स्था अनाद्यव्युच्छिन्नसंतानपरम्परार पर निर्भर है। सम्यक्त्वसहित जीव मनुष्यगतिमें उत्सब होने पर आर्यकुल में ही जन्म धारण किया करता है; अनार्य म्शेच्छकलमें नहीं । योनिमती और अपर्याप्त लब्ध्याप्तिक सम्मर्छन मनुष्योंमें भी सम्यक्त्वसहित जीव उत्पन्न नहीं हुआ करता किन्तु इनका धारण स्त्री नपुसंक भल्यायु शब्दों से होजाता है। विकृत-यह शब्द "वि" उपसगपूर्वक "कृ" धातुसे "क" प्रत्यय होकर बनता है। कोषके अनुसार इसके बीभत्स निन्दित, मलिन, और रोगी आदि अर्थ हुआ करते हैं । श्रीप्रभाचन्द्रदेवने इसका अर्थ काण कुन आदि किया है । यद्यपि इसका अर्थ करण इन्द्रियों और अन्त:करण-मनसे विकल-रहित भी हो सकता है और इस अथक अनुसार एन्द्रियसे लेकर प्रसंझी पंचेन्द्रियतककी सभी अवस्थाओं का निषेध किया जा सकता हैं। और यह ठीक भी है क्योंकि सम्यक्त्वसहित जीव स्थाबरों विकलेन्द्रियों एवं असंशियोंमें उत्पन्न नहीं हुआ करता। परन्तु इस अर्थ की यहां मुख्यता नहीं है । इसलिये ही इस शब्दको प्रयोग नहीं हुआ है । क्योंकि तिर्यक् शब्दसे ही इन अवस्थाओंका ग्रहण होजाता है । अत एव उत्तमकुलमें उत्पन्न हुए मनुष्य के सम्बथमें ही इसका अर्थ करना उचित और संगत है। फलतः विशिष्ट अंग-उपांगोंसे हीन यद्वा अपूर्ण अगोपांगसे युक्त अर्थ करना ही ठीक है । अर्थात् सम्यक्त्वभहित जीव मनुष्य --म्लच्छ॥ २-सर्वार्थसिद्धि ३-३६ । ३-सम्प्रदायाव्यचच्छदादायलपस्थितः । गतानन विनिश्चयाताऱ्यावहारिभिः ॥६॥ स्वयं संवेधमाना च गुणदोषनिबन्धना । कथंचिदनुमया च तत्कार्यस्याविनिश्चयान् ।। १० ।। श्लो० था. ०३०३७
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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