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________________ -- - रत्नकररहनावकाचार देवगति और देव श्रायु नामकर्मके उदयसे प्राप्त पर्यायके थारण करन वाले उन संसारी जीवोंको जोकि वैक्रियिक शरीर तथा भवप्रत्यय अवधि या विभङ्गज्ञान आदिसे युक्त हैं उनको देवर कहते हैं । इन्दन्ति२ इति इन्द्राः, परमेश्वर्यवन्तः, माज्ञाप्रवर्तकाः । जो परम ऐश्वर्य के धारक हैं साथ ही जिनकी अपने क्षेत्रवी सभी देवों पर श्राक्षा प्रवृत्त होती है उनको इन्द्र कहते हैं। क्रियते येन यत्र वा तव चक्र३ । जिसके द्वारा, जिनपर अथवा जहाँसे जिस स्थान आदि पर बैठकर अपने२ पदके अनुरूप प्राज्ञा झपदेश आदि कार्यका प्रवर्तन होता है उसको कहते हैं चक्र । ग्यपि इस शब्दका अर्थ समूड, गाढीका पहिया, जलावर्त, यन्त्रविशेष, बर्तन बचानका कुम्हारका साधन आदि, तथा "नामका एकदेशभी पूरे नामके अर्थका बोर्थक हुआ करता ६,"--. इस उक्तिके अनुसार सुदर्शन चक्र धर्मचक्र प्रादि भी होता है, फिर भी यहां पर सामान्यतया इस तरहसे निरुक्त्यर्थ करना अधिक उचित प्रतीत होता है जिससे कि इस कारिकामें तीनोंही स्थानों पर आये हुए इस शब्दकी ठीक २ अर्थकी संगति हो सके । महिमा अन्दका अर्थ ' 'माहात्म्य' प्रसिद्ध है। अमेयमानम्-मातु योग्यम् मेमम् न मेयम् छ मेयम् । श्रमेयमानं यस्य स तम् । जिसके मान सम्मान भादिको किसी तरह नापा नहीं जा सकता। मान शब्द मीमांसार्थक अथवा पूजा भादि अर्थवाली मा धातु से बनता है इसके विचार परीक्षा प्रमाण नापनेका साधन सम्मान आदि अनेक अर्थ होते है। राजेन्द्रचक्रम्-ऊपर जैसा "देवेन्द्र चक्र" पदका अर्थ किया गया है वैसाही इस पदका मी करलेना चाहिये। "अवर्नान्द्रशिरोर्चनीयम्" इसका अर्थ स्पष्ट है कि जिसका भूमिपति नरेश शिर झुकाकर पूजा सम्मान अथवा आदर सत्कार विनय आदि किया करते हैं। धर्मेन्द्रचक्रम्-ऊपरके दोनों पदों-"देवेन्द्रचक्रम्" और "राजेन्द्रचक्रम्" की तरह ही इस पदकी मी निति तथा अर्थ कर लेना चाहिये । धर्म शब्दका निरूक्तिसहित अर्थ अन्धको आदिर्भ ही पवा दिया गया है। जिस परमश्वयंस भूपित पदके द्वारा गणधर भादिको तथा द्वादश गणके रूसमें तीन लोकको जहा था जिसके द्वारा राच और तीर्थका उपदेश-शासन किया जाता है उसको कहते हैं धर्मेन्द्रचक्र । अतएव इस पदक द्वारा धर्मचक्रसे चिन्दित वह प्रास्थान ५-दिव्यन्ति अदो गिश्च गुणहिं देहि दिव्यभावहि। भासंतदिव्याया तहा वरिंगया देवा ॥११॥ जीवकारड। २--इदि परमैश्वर्ये । (भ्वादि पर०)। ३-फरणाधिकरणसाधनयोः कृ धातोः घबर्षे क-विधानात् । * जपत्यजय्यमाहात्म्य विशासियशासनम् । शासन जैनमुद्भासि मुधियारकसानमावि
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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