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आगम संस्थान ग्रन्थमाला : 32
प्रधान सम्पादक
प्रो. सागरमले जैन -56 संस्थान-परिचय प्रो. प्रेम सुमन जैन
आचार्य हेमचन्द्र रचितम् । प्राकतव्याकरणम (प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहितम्)
द्वितीय भाग
व्याख्याता उपाध्याय पण्डितले श्री प्यारचन्द जी महाराज
संयोजक
श्री उदयमुनि जी महाराज
सम्पादक डॉ. सुरेश सिसोदिया
प्रकाशक आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर
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आगम संस्थान ग्रन्थमाला : 32
प्रधान सम्पादक प्रो. सागरमल जैन प्रो. प्रेमसुमन जैन
आचार्य हेमचन्द्र प्रणीतम् प्राकृत-व्याकरणम्
(प्रियोदया हिन्दी-व्याख्या सहितम्)
द्वितीय भाग
व्याख्याता उपाध्याय पण्डितरत्न श्री प्यारचन्द जी महाराज
संयोजक श्री उदयमुनि जी महाराज
सम्पादक
डॉ. सुरेश सिसोदिया
सम्पादन सहयोग मानमल कुदाल
प्रकाशक
____ आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर
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पुस्तक
: आचार्य हेमचन्द्र प्रणीतम् प्राकृत-व्याकरणम् द्वितीय भाग (प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहितम्)
व्याख्याता
: उपाध्याय पण्डित रत्न श्री प्यारचन्द जी महाराज
सम्पादक
: डॉ. सुरेश सिसोदिया
सम्पादन सहयोग : मानमल कुदाल
प्रकाशक
: आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान
पद्मिनी मार्ग, राणा प्रताप नगर रोड़, उदयपुर-313 002 (राज.) फोन (0294) 2490628
संस्करण
: वर्ष 2006
मूल्य
: रुपये 400/
मुद्रक
: न्यू युनाईटेड प्रिन्टर्स, उदयपुर
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(प्रकाशकीय)
प्राकृत भाषा जन-साधारण की भाषा के रूप में प्राचीन समय से ही विकास को प्राप्त होती रही है। वैदिक-युग तक यह भाषा जन-सामान्य की लोक प्रचलित भाषा रही है। महावीर ने इसी जन-भाषा 'प्राकृत' को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। जन-सामान्य की यही भाषा कुछ समय पश्चात् साहित्यिक भाषा के रूप में हमारे सामने आयी। आगम ग्रंथों, शिलालेखों एवं नाटकों आदि में इसका प्रयोग होने लगा। इसके पीछे जन-सामान्य का प्राकृत भाषा के प्रति सम्मान ही कहा जा सकता है। वेदों की रचना जिस भाषा में हुई, उस भाषा में भी प्राकृत भाषा के अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं। इससे यह तो स्पष्ट है कि प्राकृत भाषा का विकास वैदिक युग से ही होने लगा था। अतः उस मूल लोक-भाषा में जो विशेषताएं थीं, वे बाद में वैदिक-भाषा, प्राकृत-भाषा में समान रूप से आती रही हैं। __ प्राकृत व्याकरण शास्त्र की उपर्युक्त परम्परा से स्पष्ट है कि प्राकृत व्याकरण विद्वानों के अध्ययन का विषय रहा है। भारतीय एवं विदेशी विद्वानों ने भी आधुनिक युग में स्वतंत्र रूप से आगम ग्रन्थों का सम्पादन करते समय प्राकृत व्याकरण शास्त्र पर विशद प्रकाश डाला है। वर्तमान में भी प्राकृत व्याकरण के अध्ययन के लिए आधुनिक-शैली में प्राचीन परम्परा का सन्निवेश करते हुए विद्वानों ने इस दिशा में कुछ अध्ययन प्रस्तुत किए हैं।
प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से पण्डितरत्न श्री प्यारचन्द जी महाराज की हेम-प्राकृत-व्याकरण जो दो भागों में श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर से प्रकाशित हुई है, वह महत्वपूर्ण कृति कही जा सकती है, किन्तु यह कृति वर्तमान में तो प्रायः अनुपलब्ध ही है। अतः विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत् छात्रों, साधु-साध्वियों एवं प्राकृत भाषा तथा व्याकरण के जिज्ञासुजनों को प्राकृत व्याकरण के समस्त सूत्रों का सरल एवं सहज ज्ञान उपलब्ध हो सके इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुए हमने हेम-प्राकृत-व्याकरण के पूर्व में प्रकाशित दोनों भागों को पुनः प्रकाशित करने का निर्णय लिया और इस हेतु पूर्व प्रकाशक संस्था 'श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर' से अनुमति प्राप्त कर इस कार्य को प्रारम्भ किया।
हमारे लिए प्रसन्नता की बात है कि संस्थान के अकादमीय संरक्षक प्रो. सागरमल जैन, मानद निदेशक प्रो. प्रेम सुमन जैन का संस्थान के विकास में हर सम्भव सहयोग एवं मार्गदर्शन मिल रहा है। संस्थान के सह निदेशक डॉ. सुरेश सिसोदिया ने संस्थान के पूर्व प्रभारी श्री मानमलजी कुदाल के सहयोग से हेम-प्राकृत-व्याकरण के दोनों भागों का सम्पादन किया है, इस हेतु हम उनका आभार व्यक्त करते हैं। प्रूफ संशोधन मं डॉ. उदय चंद जैन एवं डॉ. शक्ति कुमार शर्मा का जो सहयोग मिला है, उस हेतु उनका भी आभार प्रकट करते हैं।
प्रस्तुत ग्रंथ का प्रकाशन उदारमना सुश्रावक एवं संस्थान के संरक्षक श्री सुन्दरलाल जी दुगड़, कोलकाता द्वारा संस्थापित 'रूप-रेखा प्रकाशन निधि के अन्तर्गत किया जा रहा है, इस हेतु हम श्री सुन्दरलाल जी दुगड़ के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
ग्रंथ के सुन्दर एवं सत्वर मुद्रण के लिए हम न्यू युनाईटेड प्रिन्टर्स, उदयपुर को धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। सरदारमल कांकरिया
वीरेन्द्र सिंह लोढ़ा अध्यक्ष
महामंत्री
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[सम्पादकीय
आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत प्राकृत व्याकरण जिसकी सरल हिन्दी व्याख्या उपाध्याय पण्डितरत्न श्री प्यारचन्दजी महाराज ने अत्यन्त परिश्रम पूर्वक की थी और उस प्राकृत व्याकरण का दो भागों में प्रकाशन वर्ष 1967 में श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर द्वारा किया गया था। प्राकृत भाषा एवं व्याकरण जिज्ञासु पाठकों के लिए प्राकृत व्याकरण की यह कृति अत्यन्त महत्वपूर्ण थी किन्तु 40 वर्ष की दीर्घ अवधि में यह पुस्तक वर्तमान में प्रायः अप्राप्य (Out of Print) हो गई है।
आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर ने इस पुस्तक की उपयोगिता को दृष्टिगत रखते हुए पूर्व प्रकाशक संस्था से अनुमति प्राप्त कर 'हेम प्राकृत व्याकरण' के दोनों भागों को पुनः सम्पादित कर नवीन रूप में प्रकाशित करने का निर्णय लिया और यह जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई। मुझे प्रसन्नता है कि प्राकृत भाषा एवं व्याकरण के जिज्ञासुजनों के लिए अनुपलब्ध यह ग्रन्थ अब आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर द्वारा नवीन रूप से सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत दोनों संस्करणों के सम्पादन में मुझे संस्थान के पूर्व प्रभारी श्री मानमल कुदाल का विशेष सहयोग मिला, इस हेतु मैं हदय से उनका आभार प्रकट करता हूं। साथ ही डॉ. उदय चन्द जैन एवं डॉ. शक्ति कुमार शर्मा ने प्रूफ संशोधन में जो सहयोग दिया, उस हेतु उनके प्रति भी आभार प्रकट करता हूँ। । प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन एवं प्रूफ संशोधन में अत्यन्त सावधानी रखी गई है फिर भी दृष्टिदोष के कारण अथवा मानवीय स्वभावगत दुबर्लता के कारण यदि कहीं कोई अशुद्धि प्रतीत हो तो कृपालु पाठकगण उसे सुधार कर पढ़ने की कृपा करें। शब्दों की सिद्धि और साधनिका में प्रत्येक स्थान पर अनेकानेक सूत्रों की संख्या और क्रम दिये गये हैं। अतः हजारों शब्दों की सिद्धि में हजारों बार सूत्र-क्रम-संख्या का निर्देशन करना पड़ा है ऐसी स्थिति में सूत्र-क्रम-संख्या में कहीं-कहीं पर असम्बद्धता प्रतीत हुई हो, 'हैं के स्थान 'है', 'है' के स्थान 'हैं', 'रेफ्' के स्थान 'पूर्ण अक्षर', 'पूर्ण अक्षर' के स्थान पर 'रेफ्','ब' के स्थान पर 'व','व' के स्थान पर 'ब', 'अ' के स्थान पर '' अथवा 'ज', '' के स्थान 'अ' अथवा 'ज' तथा 'हलन्त अक्षरों' के स्थान पर पूर्ण अक्षर' अथवा 'पूर्ण अक्षर' के स्थान पर हलन्त अक्षर' हुए हैं, इस बात की पूर्ण सम्भावना है। अतः विज्ञ-पाठक से उसे सुधार कर पढ़ने का परम अनुग्रह है।
प्रस्तुत संस्करण के अक्षर टंकण का कार्य अत्यन्त परिश्रम पूर्ण था किन्तु श्री ताराचंद प्रजापत ने पूरे मनोयोग के साथ इस कार्य को पूर्णता प्रदान की, इस हेतु मैं उन्हें भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ।
डॉ. सुरेश सिसोदिया
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(प्रकाशन सहयोगी)
श्रीमान् सुन्दरलाल जी दुगड़ सामाजिक क्षेत्र में कार्य करते हुए मुझे पांच दशक का दीर्घ अनुभव है। इस अवधि में विभिन्न सामाजिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक संस्थानों तथा श्रीसंघों आदि के माध्यम से शिक्षा, सेवा और चिकित्सा के क्षेत्र में कार्य करने और आर्थिक संसाधन प्राप्त करने का भी मुझे एक दीर्घ अनुभव है। सामाजिक क्षेत्र में कार्य करते हुए अनेक व्यक्तियों और दानदाताओं से निकट का सम्पर्क रहा है। करोड़ों-करोड़ों रूपये का अनुदान उदारमना महानुभावों से प्राप्त कर रचनात्मक कार्यों में विनियोजित करने का मुझे अच्छा अनुभव रहा है। कई व्यक्तियों से मैं प्रभावित भी हूँ किन्तु इन सब में 'सुन्दरलाल दुगड़' का नाम लेते हुए मुझे अत्यन्त उल्लास होता है।
मैंने अपने सामाजिक जीवन में सुन्दर लाल दुगड' जैसा उदारमना व्यक्ति नहीं देखा। मैंने इन्हें सदैव अपने अनुज के रूप में ही महसूस किया है। सामाजिक कार्यों में सहभागिता की प्रेरणा यद्यपि मुझे मेरे अग्रज 'श्री पारसमलजी कांकरिया' से मिली किन्तु उसमें उल्लास एवं नवीन संचार सुन्दरलाल दुगड़ की उदारतापूर्ण दान देने की शैली से हुआ है। मेरे आग्रह पर कई दानदाताओं ने बड़ी मात्रा में अर्थ सहयोग किया है, उन सबको स्मरण करते हुए भी जब मैं इनकी ओर दृष्टि डालता हूं तो यह कहने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि मैं किसी भी रचनात्मक कार्य हेतु इनसे अनुदान दिलवाना चाहूं, यह बात ये मुझसे सुनने की अपेक्षा मेरी भावना को समझ कर तत्काल ही उदारतापूर्वक अनुदान देने में सदैव अग्रणी रहते हैं। 'नेकी कर और भूल जाओ' इस उक्ति को इन्होंने अपने जीवन व्यवहार में आत्मसात कर रखा है। विगत एक दशक में सम्पूर्ण भारत के विभिन्न प्रांतों में सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि से इन्होंने स्कूलों, हॉस्पीटलों, छात्रावासों, स्थानकों, मंदिरों आदि में करोड़ों रूपये के स्थाई निर्माण कार्य करवाये हैं। साथ ही निर्धन एवं जरूरतमंदों तथा विधवाओं को आर्थिक सहयोग, छात्रों को शैक्षणिक सहयोग आदि देने में ये सदैव अग्रणी रहते हैं। किसी को भी अनुदान देने में यश
और प्रतिष्ठा प्राप्ति करने का अंश मात्र भाव भी मैंने इनमें कभी नहीं देखा। ये सदैव निस्पृह भाव से अनुदान देते हैं। इनकी दानशीलता और उदारवृत्ति की प्रशंसा करने की अपेक्षा मैं जिनदेव से कामना करता हूं कि 'लक्ष्मी' की कृपा इन पर सदैव बनी रहे और ये इसी प्रकार उदारता पूर्वक अनुदान देकर समाज के जरूरतमंद व्यक्तियों और संस्थाओं को सम्बल प्रदान करते रहे।
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VI : हेम प्राकृत व्याकरण ___दो वर्ष पूर्व एक समारोह में कलकत्ता के कुछ साथियों के साथ उदयपुर जाने का प्रसंग बना तब आगम संस्थान के एक कार्यक्रम में सुन्दरलाल जी भी मेरे साथ आए। वहां जैन विद्या के मूर्धन्य विद्वान डॉ. सागरमल जी जैन का विद्वत्ता पूर्ण उद्बोधन सुनने को मिला, डॉ. सा. ने अपने उद्बोधन में हेम प्राकृत व्याकरण' के दोनों भाग प्रकाशित करने तथा अन्य प्रकाशनों के लिए आगम संस्थान के समक्ष आर्थिक समस्या बनी रहने का जिक्र किया तब तत्काल ही इन्होंने आगम संस्थान की इस समस्या का सामाधान अपनी प्रिय पुत्री श्रीमती रूपरेखा के नाम से 'रूपरेखा प्रकाशन निधि' की स्थापना करके किया और प्रारम्भिक रूप से तत्काल ही इसमें पांच लाख रुपये की राशि भेंट की और समय-समय पर इस कोष में और अभिवृद्धि करने का आश्वासन भी दिया। इसी का परिणाम है कि आज श्री सुन्दरलाल जी दुगड़ के अर्थ सहयोग से हेम प्राकृत व्याकरण के दोनों भागों का प्रकाशन 'रूपरेखा प्रकाशन निधि के माध्यम से किया जा रहा है। इस हेतु मैं स्वयं अपनी ओर से तथा संस्थान परिवार की ओर से श्री सुन्दरलाल जी दुगड़ का हार्दिक आभार प्रकट करता हूं। जिनदेव से कामना करता हूं कि ये सस्वथ्य शतायु हों और अपने आत्मबल से अर्जित सम्पत्ति का विनियोजन इसी प्रकार रचनात्मक एवं सृजनात्मक कार्यों में सदेव करते रहें।
सरदारमल कांकारिया
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ग्रन्थानुक्रमणिका
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VIII
XI
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क्र.सं विषय 1. प्रकाशकीय 2. संपादकीय 3. प्रकाशन सहयोगी 4. व्याख्याकर्ता का वक्तव्य 5. हिन्दी व्याख्याता पं. रत्न उपाध्याय श्री प्यारचंद जी महाराज 6. ग्रन्थकार आचार्य हेमचन्द्र और उनका प्राकृत व्याकरण 7. ग्रन्थ की पूर्व प्रकाशक संस्था के प्रति आभार 8. प्राकृत व्याकरणस्य मूल-सूत्राणि 9. प्राकृत व्याकरण सूत्रानुसार-विषयानुक्रमणिका 10. प्राकृत व्याकरण-प्रियोदया हिन्दी व्याख्या 11. परिशिष्ठ भाग-अनुक्रमणिका 12. प्रत्यय बोध 13. संकेत बोध 14 व्याकरण-आगत-कोष-रूप-शब्द-सूची 15. शुद्धि पत्र
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|व्याख्याकर्ता का वक्तव्य यह परम प्रसन्नता की बात है कि आजकल दिन प्रतिदिन प्राकृत-भाषा के अध्ययन-अध्यापन की वृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ रही है। किसी भी भाषा के अध्ययन में व्याकरण का पठन करना सर्वप्रथम आवश्यक होता है। ___ आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत प्राकृत-व्याकरण प्राकृत भाषा के लिए सर्वाधिक प्रामाणित और परिपूर्ण मानी जाती है। इसका पूरा नाम 'सिद्ध हेम शब्दानुशासन' है; यह आठ अध्यायों में विभक्त है; जिनमें से सात अध्यायों में तो संस्कृत व्याकरण की संयोजना है और आठवें अध्याय में प्राकृत-व्याकरण की विवेचना है। आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत-व्याकरण को चार पादों में विभाजित किया है, जिनमें से प्रथम और द्वितीय पाद में तो वर्ण-विकार तथा स्वर-व्यञ्जन से सम्बंधित नियम प्रदान किये हैं तथा अव्ययों का भी वर्णन किया है। तृतीय पाद में व्याकरण संबंधी शेष सभी विषय संगुंफित कर दिये हैं। चतुर्थ पाद में सर्वप्रथम धातुओं का बयान करके तत्पश्चात् निम्नोक्त भाषाओं का व्याकरण समझाया गया है :(1) शौरसेनी (2) मागधी (3) पैशाची (4) चूलिका पैशाची और (5) अपभ्रंश। ___ग्रन्थकर्ता ने पाठकों एवं अध्येताओं की सुगमता के लिये सर्वप्रथम संक्षिप्त रूप से सारगर्भित सूत्रों की रचना की है; एवं तत्पश्चात् इन्हीं सूत्रों पर प्रकाशिका' नामक स्त्रोपज्ञवृत्ति अर्थात् संस्कृतटीका की रचना की है। आचार्य हेमचन्द्रकृत यह प्राकृत व्याकरण भाषा विज्ञान के अध्ययन के लिये आजकल भारत के अनेक राजकीय एवं निजि विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में प्राकृत व्याकरण के अध्ययन हेतु मान्य ग्रन्थ है। ऐसी उत्तम और उपादेय कृति की विस्तृत किन्तु सरल हिन्दी व्याख्या की अति आवश्यकता चिरकाल से अनुभव की जाती रही है; मेरे समीप रहने वाले श्री मेघराजजी म, श्री गणेशमुनिजी, श्री उदयमुनिजी आदि संतों ने जब इस प्राकृत-व्याकरण का अध्ययन करना प्रारम्भ किया था तब इन्होंने भी आग्रह किया था कि ऐसे उच्च कोटि के ग्रन्थ की सरल हिन्दी व्याख्या होना नितान्त आवश्यक है। जिससे कि अनेक व्यक्तियों को और भाषा प्रेमियों को प्राकृत-व्याकरण के अध्ययन का मार्ग सुलभ तथा सरल हो जाये।
श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधान आचार्य श्री 1008 श्री आत्मारामजी महा सा शास्त्रज्ञ पं रत्न श्री कस्तूरचंदजी महाराज, पं. मुनि श्री प्रतापमलजी महा , श्री मन्नालालजी महा एवं श्री पन्नालालजी महा आदि संत-मुनिराजों की भी प्रेरणा, सम्मति, उद्बोधन एवम् सहयोग प्राप्त हुआ जिससे कि प्राकृत व्याकरण सरीखे ग्रन्थ को राष्ट्र में समुपस्थित करना अत्यन्त लाभदायक तथा हितावह प्रमाणित होगा। तदनुसार विक्रम संवत् 2016 के रायचूर (कर्णाटक-प्रान्त) के चातुर्मास में इस हिन्दी व्याख्या ग्रन्थ को तैयार किया गया। ____ आशा है कि जनता के लिये यह उपयोगी सिद्ध होगा। इसमें मैंने ऐसा क्रम रखा है कि सर्व प्रथम मूल-सूत्र, तत्पश्चात मूल ग्रन्थकार की ही संस्कृत वृत्ति प्रदान की है; तदनन्तर मूल-वृत्ति पर पूरा-पूरा अर्थ बतलाने वाली विस्तृत हिन्दी व्याख्या लिखी है; इसके नीचे ही मूल वृत्ति में दिये गये सभी प्राकृत शब्दों के संस्कृत पर्यायवाची शब्द देकर तदनन्तर उस प्राकृत-शब्द की रचना में आने वाले सूत्रों का क्रम पाद-संख्या पूर्वक प्रदान करते हुए शब्द-साधनिका की रचना की गई है। यों ग्रन्थ में आये हुए हजारों की संख्या वाले सभी प्राकृत शब्दों की अथवा पदों की प्रामाणिक रूप से सूत्रों का उल्लेख करते हुए विस्तृत एवं उपादेय साधनिका की संरचना की गई है। इससे प्राकृत-शब्दों की रचना-पद्धति एवम् इसकी विशेषता सरलता के साथ समझ में आ सकेगी। पुस्तक को अधिक से अधिक उपयोगी बनाने का भरसक प्रयत्न किया है; इसीलिये अन्त में प्राकृत-रूपावलि तथा शब्द-कोष की भी संयोजना कर दी गई है; इससे शब्द के अनुसंधान में अत्यन्त सरलता का अनुभव होगा।
श्री पी एल. वैद्य द्वारा सम्पादित और श्री भंडारकर ऑरिएण्टल रीसर्च इंस्टीट्यूट, पूना नं. 4 द्वारा प्रकाशित प्राकृत-व्याकरण के मूल संस्कृत भाग के आधार से मैनें 'प्रियोदय हिन्दी-व्याख्या' रूप कृति का इस प्रकार निर्माण किया है; एतदर्थ उक्त महानुभाव का तथा उक्त संस्था का मैं विशेष रूप से नामोल्लेख करता हूँ।
आशा है सहदय सज्जन इस कृति का सदुपयोग करेंगे। विज्ञेषु किम् बहुना? दीप मालिका, विक्रमाब्द 2016
प्रस्तुतकर्ता रायचूर (कर्णाटक)
उपाध्याय मुनि प्यारचंद
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हिन्दी-व्याख्याता पं रत्न उपाध्याय श्री प्यारचंद जी महाराज आचार्य हेमचन्द्र रचित प्राकृत-व्याकरण के ऊपर सरल और प्रसाद गुण सम्पन्न हिन्दी टीका के प्रणेता उपाध्याय श्री प्यारचंदजी महाराज सा है। आप श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय में प्रख्यात मुनिराज हो गये हैं। आपकी संगठन-शक्ति, व्यवस्था-कौशल, समयज्ञता एवं विचक्षणता तो आदर्श ही थी; किन्तु आपके हदय की विशालता, प्रकृति की भद्रता, गुणों की ग्राह्यता, विद्याभिरूचि, साहित्य-प्रेम और साहित्य-रचना-शक्ति भी महान थी। आप अपने गुरुदेव श्री 1008 श्री चौथमलजी महाराज सा के प्रधान और योग्य सम्मतिदाता शिष्य थे। आपने विक्रम संवत् 1669 के फाल्गुन शुक्ला पंचमी तिथि पर जैन-मुनि-दीक्षा अंगीकार की थी। यह दीक्षा समारोह भारतीय इतिहास में सुप्रसिद्ध वीर-भूमि चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) में सुसंपन्न हुआ था। आपने अपने पूज्य गुरुदेव की जैसी सेवा की ओर जैसा उनका यश-सौरभ प्रसारित किया; वह स्थानकवासी मुनियों के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य घटना है। - आप बाल-ब्रह्मचारी थे; आपने सतरह वर्ष जैसी प्रथम यौवन-अवस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी। आपका जन्म स्थान रतलाम (मध्य प्रदेश) है और आपके माता-पिता का शुभ नाम कम से श्रीमती मानकुंवरबाई और श्री पूनमचंदजी सा बोथरा (ओसवाल-जाति) है। आपका जन्म विक्रम संवत् 1952 है। जिस दिन से आपने जैन मुनि की दीक्षा-ग्रहण की थी; उस दिन से आपने आने गुरुदेव की अनन्य-भक्ति भाव सेवा-शुश्रषा करनी प्रारम्भ कर दी। गुरुदेव की प्रसिद्धि के पीछे आपने अपने व्यक्तित्व को भी विस्मरण-सा कर दिया था। ___ आप स्पष्ट वक्ता थे और निर्भीक उपदेशक भी। इसी प्रकृति विशेषता के कारण से अखिल भारतीय स्थानकवासी समाज के सभी मुनियों को एक सूत्र में बांधने के शुभ प्रयन्न में उल्लेखनीय सहयोग प्रदान करके अपनी आपने कुशाग्र-बुद्धि का जैसा प्रदर्शन किया; वह जैन मुनि इतिहास का एक अत्यन्त उज्ज्वल अंश है। ___ स्थानकवासी समाज के विद्वान मुनिवरों ने तथा सद्-गृहस्थ नेताओं ने आपकी विद्वत्ता और सच्चारित्र-शीलता को देख करके ही 'गणी' 'मंत्री' और 'उपाध्याय' जैसी महत्त्वपूर्ण पदवियों से आपको विभूषित किया था। आप 'हिन्दी, गुजराती, प्राकृत, संस्कृत, मराठी और कन्नड़' यों छह भाषाओं के ज्ञाता थे। आपने अनेक साहित्यिक पुस्तकों की रचना की है; जिनमें यह प्राकृत-व्याकरण, जैन-जगत के उज्ज्वल तारे और जैन जगत की महिलाएं आदि प्रमुख हैं। __ आपके उपदेशों से प्रेरित होकर जैन-सद् गृहस्थों ने छोटी बड़ी अनेक संस्थाओं को संस्थापित किया है। आपने अपने जीवनकाल में पैदल ही पैदल हजारों माइलों की पदयात्रा की है तथा सैकड़ों हजारों श्रोताओं को सन्मार्ग पर प्रेरित किया। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मेवाड़, मालवा, मध्य प्रदेश, बरार, खानदेश, बम्बई, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र प्रदेश और कर्णाटक प्रान्त आदि विविध भारतीय क्षेत्र आपके चरणरज से गौरवान्वित हुए हैं।
नित नूतन पढ़ने में और सर्व ग्राह्य-भाग को संग्रह करने में तथा कल्याण मय पाठ्य सामग्री को प्रकाशित करने में आपकी हार्दिक अभिरूचि थी। इस संबंध में इतना ही पर्याप्त होगा कि चौंसठ वर्ष जैसी पूर्ण वृद्धावस्था में भी रायचूर के चातुर्मास में आप कन्नड़ भाषा का नियमित रूप से प्रतिदिन अध्ययन किया करते थे एवं कन्नड़ भाषा के वाक्यों को एक बाल विद्यार्थी के समान उच्च स्वर से कण्ठस्थ याद किया करते थे। आगन्तुक दर्शनार्थी और उपस्थित श्रोता-वृन्द आपके मधुर, कोमल कांत पदावलि से आनंद-विभोर हो जाया करते थे। आप जैन-दर्शन के अगाध विद्वान थे इसलिये जैन-दर्शन पर आपके अधिकार पूर्ण व्याख्यान होते थे। यह लिखना सर्वसाधारण जनता की दृष्टि से उचित ही समझा जायेगा कि जैन-मुनि पांच महाव्रतों के धारक होते हैं; तदनुसार आप 'अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रह' व्रत के मन, वचन एवं काया से सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप में भी प्रतिपालक थे।
हमारे चरित्र-नायक श्री उपाध्यायजी महाराज अखिल भारतीय स्थानकवासी समाज में अन्यन्त श्रद्धा पात्र तथा
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x : हेम प्राकृत व्याकरण प्रतिष्ठा-पात्र मुनिवर थे; यही कारण है कि स्थानकवासी समाज के सभी मुनिराजों ने आपके स्वर्गारोहण हो जाने पर हार्दिक श्रद्धांजलि प्रकट की थी; आपके यशो-पूत गुणों का अभिनंदन किया था और आपके अभाव में उत्पन्न समाज की क्षति को अपूरणीय बतलाया था। इसी प्रकार से सैकड़ों गांवों, कस्बों तथा शहरों के जैन श्री संघों ने शोक-सभाएं करके आपके गुणानुवाद गाये थे; और हार्दिक खिन्नता-सूचक शोक प्रस्ताव पारित किये थे। उन शोक-प्रस्तावों का सारांश उपाध्याय श्री प्यारचंदजी महाराज के जीवन-चरित्र' से नीचे उद्धृत किया जा रहा है-'आप गम्भीर, शांत स्वभावी, सरल प्रकृति के संत थे। सौजन्य, सादगी एवं भव्यता की आप प्रतिमूर्ति थे। आपकी मंगल वाणी हदय में अमृत उडेल देती थी। आपके सजीव व्याख्यानों का श्रोताओं के हदय पर तलस्पर्शी प्रभाव पड़ता था। आप प्रभावशाली एवं महान उपकारी संत थे। वाणी, व्यवहार और विचार की समन्वयात्मक त्रिवेणी से उपाध्याय जी महाराज का व्यक्तित्व सदैव भरापरा रहता था। उपाध्याय जी महाराज आगम-ज्ञाता थे, पण्डित थे, मिलनसार, शांत गम्भीर प्रतिज्ञावान और विचक्षण प्रतिभा सम्पन्न थे। आप अनुभवी, निस्पृही, त्यागी, उदार और चारित्रवान मुनिराज थे। वे एक महान संत थे; उनका जीवन-आदर्श तथा उच्च था। यथानाम तथागुण के अनुसार वे प्यार की मूर्ति थे। वे सरल स्वभावी और पर उपकारी थे। उपाध्याय जी महराज अपने जीवन में समाज को स्नेह का सौरभ और विचारों के प्रकाश निरन्तर देते रहे थे आप जैन समाज में एक चमकते हुए सितारे थे। आपका दिव्य जीवन प्रकाश स्तम्भ समान था। आप बहुत ही मिलनसार तथा प्रेम मूर्ति थे। समाज के आप महान मूक सेवक थे। “स्वकृत सेवा के फल से प्राप्त होने वाले यश से दूर रहना" यह आपके सुन्दर जीवन की एक विशिष्ट कला थी। आपका जीवन ज्योतिर्मय, विकसित और विश्व-प्रेम की सुवासना से सुवासित था। आप समाज में एक आदर्श कार्यकर्ता थे इत्यादि-इत्यादि रूप से उक्त शोक सभाओं में आपके मौलिक एवं सहजात गुणों पर प्रकाश डाल गया था।
विक्रम संवत 2016 में पौष शुक्ला दशम शुक्रवार को दिन के 9.15 बजे आपने भावना पूर्वक सहर्ष 'व्रत' के रूप में आहार पानी ग्रहण करने का सर्वथा ही परित्याग कर दिया था; ऐसे व्रत को जैन परिभाषा में संथारा व्रत' कहा जाता है। ऐसे इस महान व्रत को अंतिम समय आदर्श साधना के रूप में ग्रहण करके आप ईश-चिंतन में संलग्न हो गये थे; धर्म-ध्यान और उत्कृष्ट आत्म चिंतन में ही आप तल्लीन हो गये थे। यह स्थिति आधे घंटे तक रही एवं उसी दिन 9.45 बजे जैन समाज तथा अपने प्रिय शिष्यों से एवं मुनिवरों से सभी प्रकार का भौतिक संबंध परित्याग करके स्वर्ग के लिए अन्तर्ध्यान हो गये।
आपकी अंतिम रथ-यात्रा में लगभग बीस हजार की मानव भेदिनी उपस्थित थी; जो कि अनेक गांवों से आ-आकर एकत्र हुई थी। इस प्रकार इस प्राकृत-व्याकरण के हिन्दी व्याख्याता अपने भौतिक शरीर का परित्याग करके तथा अपनी अमर यशोगाथा की 'चारित्र-साहित्य-सेवा और त्याग' के क्षेत्र में परिस्थापना करके परलोकवासी हो गये। ___ आशा है कि प्राकृत व्याकरण के प्रेमी आपकी शिक्षा-प्रद यशोगाथा से कुछ न कुछ शिक्षा अवश्यमेव ग्रहण करेंगे। इति शुभम
उदय मुनि (सिद्धात शास्त्री)
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ग्रन्थकार आचार्य हेमचन्द्र और उनका प्राकृत व्याकरण जैनाचार्यों में आचार्य हेमचन्द्र बहमुखी प्रतिभा के धनी कवि हैं। उनका जन्म गजरात के धन्धका नामक गाँव में वि सं ११४५ (सन् १०८८) की कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था। हेमचन्द्र के पिता चाचदेव (चाचिगदेव) शैव धर्म को मानने वाले वणिक् थे। उनकी पत्नी का नाम पाहिनी था। हेमचन्द्र के बचपन का नाम चांगदेव था। चांगदेव बचपन से ही प्रतिभासम्पन्न एवं होनहार बालक था। उसकी विलक्षण प्रतिभा एवं शुभ लक्षणों को देखकर आचार्य देवचन्द्रसूरि ने माता पाहिनी से चांगदेव को मांग लिया व उसे अपना शिष्य बना लिया। आठ वर्ष की अवस्था में चांगदेव की दीक्षा सम्पन्न हुई। दीक्षा के उपरान्त उसका नाम सोमचन्द्र रखा गया। सोमचन्द्र ने अपने गुरु से तर्क, व्याकरण, काव्य, दर्शन, आगम आदि अनेक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। उनकी असाधारण प्रतिभा और चरित्र के कारण सोमचन्द्र को २१ वर्ष की अवस्था में वि सं ११६६ में सूरिपद प्रदान किया गया। तब सोमचन्द्र का नाम हेमचन्द्रसूरि रख दिया गया। ___ हेमचन्द्रसूरि का गुजरात के राज्य परिवार से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। उनके पाण्डित्य से प्रभावित होकर गुर्जरेश्वर जयसिंह सिद्धराज ने उन्हें व्याकरण ग्रन्थ लिखने की प्रेरणा दी थी। हेमचन्द्रसूरि ने अपनी अनन्य प्रतिभा का प्रयोग करते हुए जो संस्कृत और प्राकृत भाषा का प्रसिद्ध व्याकरण लिखा उसका नाम 'सिद्ध-हेम-व्याकरण' रखा, जिससे सिद्धराज का नाम भी अमर हो गया। हेमचन्द्र का कुमारपाल के साथ भी घनिष्ठ सम्बन्ध था। कुमारपाल का राज्याभिषेक वि सं. ११६४ में हआ था, किन्त इस राज्यप्राप्ति की भविष्यवाणी हेमचन्द्र ने सात वर्ष पहले ही कर दी थी। कमारपाल ने हेमचन्द्र से बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त की थी अतः वह उन्हें अपना गुरु मानता था। गुजरात के प्रतापी राजाओं की इस घनिष्ठता के कारण हेमचन्द्रसूरि ने निश्चिन्त होकर अनेक विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थों की रचना की है।
आचार्य हेमचन्द्र ने व्याकरण, छन्द, अलंकार, कोष, काव्य एवं चरित आदि विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। उसमें से कुछ प्रमुख ग्रन्थों का परिचय इस प्रकार है१. सिद्वहेमशब्दानुशासन- इस विशाल ग्रन्थ में आठ अध्याय हैं। व्याकरण के क्षेत्र में जो स्थान पाणिनि तथा
शाकटायन के व्याकरण ग्रन्थों को प्राप्त है, वही प्रतिष्ठा हेमचन्द्र के इस ग्रन्थ को मिली है। इस ग्रन्थ के प्रथम सात अध्यायों में संस्कृत व्याकरण एवं आठवें अध्ययन में प्राकृत व्याकरण का वर्णन है। पूरे ग्रन्थ में ३५६६ सूत्र हैं। प्रभावकचरित से ज्ञात होता है कि इस व्याकरण ग्रन्थ की तीन सौ विद्वानों ने प्रतिलिपियाँ करके उन्हें देश के कोने-कोने में पहुँचाया था। कालान्तर में भी इस व्याकरण पर सर्वाधिक व्याख्या साहित्य लिखा ग व्याकरण ग्रन्थ को समझने के लिए हेमचन्द्र ने द्वयाश्रय महाकाव्य की रचना की थी। हेमशब्दानुशासन सांस्कृतिक
दृष्टि से भी विशेष महत्व का ग्रन्थ है। २. प्रमाणमीमांसा- जैन न्याय के क्षेत्र में आचार्य हेमचन्द्र ने अन्ययोग व्यवच्छेदिका एवं अयोगव्यवच्छेदिका
नामक द्वात्रिशिकाओं के अतिरिक्ति "प्रमाण-मीमांसा' नामक ग्रन्थ भी प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ में सम्पूर्ण भारतीय दर्शन को जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर दिया गया है। योगशास्त्र इनकी दूसरी महत्वपूर्ण
दार्शनिक रचना है। ३. त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरितं- इस महान ग्रन्थ की रचना कुमारपाल के अनुरोध से आचार्य हेमचन्द्र ने की थी।
इस विशालकाय ग्रन्थ में जैनों के प्रसिद्ध कथानक, इतिहास, पौराणिक कथाओं एवं धर्म दर्शन का विस्तार से वर्णन हुआ है। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ १० पर्यों में विभक्त है। गुजरात के समाज एवं संस्कृति की जानकारी के लिए भी इस ग्रन्थ में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। काव्य एवं शब्दशास्त्र की दृष्टि से भी इस ग्रन्थ का विशेष महत्व है।
ग्रन्थ की प्रशस्ति से कई ऐतिहासिक तथ्य भी प्राप्त होते हैं। ४. कोशग्रन्थ- आचार्य हेमचन्द्र ने कोश साहित्य से सम्बन्धित चार ग्रन्थ लिखे हैं- अभिधानचिन्तामणि,
हेमअनेकार्थसंग्रह, देशीनाममाला एवं निघंटुकोश। इन ग्रन्थों का संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं के
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XII : हेम प्राकृत व्याकरण
शब्द-भण्डार को समझने के लिए विशेष महत्व है। ५. काव्यानुशासन : इस ग्रन्थ में आचार्य हेमचन्द्र ने काव्यशास्त्र का स्वतन्त्र रूप से विवेचन किया है। काव्य की
परिभाषा एवं उसके भेद-प्रभेदों में कई नई स्थापनाएँ इस ग्रन्थ में की गई हैं। ६ छन्दोनुशासन : इस ग्रन्थ में छन्दशास्त्र का विस्तृत विवेचन प्राप्त है। ७. याश्रयमहाकाव्य : संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं में निबद्ध यह ग्रन्थ आचार्य हेमचन्द्र की प्रतिभा का निकष है।
इसी ग्रन्थ का प्राकृत अंश कुमारपालचरित के नाम से प्रसिद्ध है। प्राकृत कुमारपालचरित जैन साहित्य में बहु प्रचलित ग्रन्थ है। पूर्णकलशगणि ने इस पर टीका लिखी है। परवर्ती कई ग्रन्थकारों ने इस काव्य को अपनी रचनाओं का आधार बनाया है। बम्बई संस्कृत सीरीज के अन्तर्गत स पा पण्डित द्वारा १९०० ई. में इसका प्रथम बार सम्पादित संस्करण प्रस्तुत किया गया। १९३६ में पी एल वैद्य द्वारा इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ है। इसके साथ परिशिष्ट में हेमचन्द्र-प्राकृत व्याकरण भी प्रकाशित की गई। प्रो केशवलाल हिम्मतलाल कामदार द्वारा इस ग्रन्थ का गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित किया गया। हिन्दी अनुवाद के साथ कुमारपालचरित को पहली
बार श्री भगवती मुनि 'निर्मल' द्वारा प्रस्तुत किया गया है। प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ :
उपलब्ध सभी प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ संस्कृत में लिखे गये हैं। प्राकृत वैयाकरणों एवं उनके ग्रन्थों का परिचय डॉ पिशल ने अपने ग्रन्थ में दिया है। डौल्ची नित्ति ने अपनी जर्मन पुस्तक ले ग्रामेरिया प्राकृत' (प्राकृत के वैयाकरण) में आलोचनात्मक शैली में प्राकृत के वैयाकरणों पर विचार किया है। इधर प्राकृत व्याकरण के बहुत से ग्रन्थ छपकर प्रकाश में भी आये हैं। उनके सम्पादकों ने भी प्राकृत वैयाकरणों पर कुछ प्रकाश डाला है। इस सब सामग्री के आधार पर प्राकृत वैयाकरणों एवं उनके उपलब्ध प्राकृत व्याकरणों का परिचयात्मक मूल्यांकन हमने अन्यत्र प्रस्तुत किया है। आचार्य भरत :
प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में जिन संस्कृत आचार्यों ने अपने मत प्रकट किये हैं, इनमें भरत सर्व प्रथम हैं। प्राकृत वैयाकरण मार्कण्डेय ने अपने प्राकृत-सर्वस्व के प्रारम्भ में अन्य प्राचीन प्राकृत वैयाकरणों के साथ भरत को स्मरण किया है। भरत का कोई अलग प्राकृत व्याकरण नहीं मिलता है। भरतनाट्यशास्त्र के १७वें अध्याय में ६ से २३ श्लोकों में प्राकृत व्याकरण पर कुछ कहा गया है। इसके अतिरिक्त ३२वें अध्याय में प्राकृत के बहुत से उदाहरण उपलब्ध हैं, किन्तु उनके स्रोतों का पता नहीं चलता है। ___ डॉ. पी एल. वैद्य ने त्रिविक्रम के प्राकृतशब्दानुशासन व्याकरण के १७वें परिशिष्ट में भरत के श्लोकों को संशोधि त रूप में प्रकाशित किया है, जिनमें प्राकृत के कुछ नियम वर्णित हैं। डॉ. वैद्य ने उन नियमों को भी स्पष्ट किया है। भरत ने कहा है कि प्राकृत में कौन से स्वर एवं कितने व्यंजन नहीं पाये जाते । कुछ व्यंजनों का लोप होकर उनके केवल स्वर बचते हैं। यथा
वचति कगतदयवा लोपं, अत्थं च से वहति सरा।
खघथधभा उण हत्तं उति अत्थं अमुचंता ॥८॥ प्राकृत की सामान्य प्रवृत्ति का भरत ने अंकित किया है कि शकार को सकार एवं नकार का सर्वत्र णकार होता है। यथा- विष-विस, शङ्का -संका आदि । इसी तरह ट ड, ठ ढ, प व, ड ल, च य, थ ध, प फ आदि परिवर्तनों के सम्बन्ध में संकेत करते हुए भरत ने उनके उदाहरण भी दिये हैं तथा श्लोक १८ से २४ तक में उन्होंने संयुक्त वर्णों के परिवर्तनों को सोदाहरण सूचित किया है और अन्त में कह दिया है कि प्राकृत के ये कुछ सामान्य लक्षण मैने कहे हैं बाकी देशी भाषा में प्रसिद्ध ही हैं, जिन्हें विद्वानों को प्रयोग द्वारा जानना चाहिये
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एवमेतन्मया प्रोक्तं किंचित्प्राकृतलक्षणम् । शेषं देशीप्रसिद्धं च ज्ञेयं विप्राः प्रयोगताः ॥
हेम प्राकृत व्याकरण: XIII
प्राकृत व्याकरण सम्बन्धी भरत का यह शब्दानुशासन यद्यपि संक्षिप्त है, किन्तु महत्वपूर्ण इस दृष्टि से है कि भरत के समय में भी प्राकृत व्याकरण की आवश्यकता अनुभव की गयी थी। हो सकता है, उस समय प्राकृत का कोई प्रसिद्ध व्याकरण रहा हो अतः भरत ने केवल सामान्य नियमों का ही संकेत करना आवश्यक समझा है। भरत के ये व्याकरण के नियम प्रमुख रूप से शौरसेनी प्राकृत के लक्षणों का विधान करते हैं।
चण्ड- प्राकृतलक्षण :
प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणों में चंडकृत प्राकृतलक्षण सर्व प्राचीन सिद्ध होता है। भूमिका आदि के साथ डा० रूडोल्फ होएर्नले ने सन् १८८० में बिब्लिओथिका इंडिया में कलकत्ता से इसे प्रकाशित किया था । सन् १९२९ में सत्यविजय जैन ग्रन्थमाला की ओर से यह अहमदाबाद से भी प्रकाशित हुआ है। इसके पहले १९२३ में भी देवकीकान्त ने इसको कलकत्ता से प्रकाशित किया था । ग्रन्थ के प्रारम्भ में वीर (महावीर) को नमस्कार किया गया है तथा वृत्ति के उदाहरणों में अर्हन्त (सूत्र ४६ व २४) एवं जिनवर (सूत्र ४८) का उल्लेख है। इससे यह जैन कृति सिद्ध होती है । ग्रन्थकार
वृद्धमत के आधार पर इस ग्रन्थ के निर्माण की सूचना दी है, जिसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि चण्ड के सम्मुख कोई प्राकृत व्याकरण अथवा व्याकरणात्मक मतमतान्तर थे। यद्यपि इस ग्रन्थ में रचना काल सम्बन्धी कोई संकेत नहीं है, तथापि अन्तःसाक्ष्य के आधार पर डॉ. हीरालाल जैन ने इसे ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी की रचना स्वीकार किया है।
प्राकृतलक्षण में चार पाद पाये जाते हैं । ग्रन्थ के प्रारम्भ में चंड ने प्राकृत शब्दों के तीन रूपों - तद्भव, तत्सम एवं देश्य को सूचित किया है तथा संस्कृतवत् तीनों लिंगों और विभक्तियों का विधान किया है । तदनन्तर चौथे सूत्र में व्यत्यय का निर्देश करके प्रथमपाद के ५वें सूत्र से ३५ सूत्रों तक संज्ञाओं और सर्वनामों के विभक्ति रूपों को बताया गया है। द्वितीय पाद के २९ सूत्रों में स्वर परिवर्तन, शब्दादेश और अव्ययों का विधान है। तीसरे पाद के ३५ सूत्रों में व्यंजनों के परिवर्तनों का विधान है। प्रथम वर्ण के स्थान पर तृतीय का आदेश किया गया है। यथा
एकं > एगं, पिशाची > विसाजी, कृतं कदं आदि ।
इन तीन पादों में कुल ९९ सूत्र हैं, जिनमें प्राकृत व्याकरण समाप्त किया गया है। होएर्नले ने इतने भाग को ही प्रामाणिक माना है। किन्तु इस ग्रन्थ की अन्य चार प्रतियों में चतुर्थपाद भी मिलता है, जिसमें केवल ४ सूत्र हैं। इनमें क्रमशः कहा गया है - १ - अपभ्रंश में अधोरेफ का लोप नहीं होता, २- पैशाची में र् और स् के स्थान पर लू और न् का आदेश होता है, ३- मागधी में र् और स् के स्थान पर लू और श् का आदेश होता है तथा ४- शौरसेनी में त् के स्थान पर विकल्प से द् आदेश होता है। इस तरह ग्रन्थ के विस्तार, रचना और भाषा स्वरूप की दृष्टि से चंड का यह व्याकरण प्राचीनतम सिद्ध होता है। परवर्ती प्राकृत वैयाकरणों पर इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से देखे जाते हैं। हेमचन्द्र ने भी चंड से बहुत कुछ ग्रहण किया है।
वररुचि-प्राकृत प्रकाश :
प्राकृत वैयाकरणों में चण्ड के बाद वररुचि प्रमुख वैयाकरण है। प्राकृतप्रकाश में वर्णित अनुशासन पर्याप्त प्राचीन है। अतः विद्वानों ने वररुचि को ईसा की चौथी शताब्दी के लगभग का विद्वान् माना है। विक्रमादित्य के नवरत्नों में भी एक वररुचि थे। वे सम्भवतः प्राकृत प्रकाश के ही लेखक थे । छठी शताब्दी से तो प्राकृतप्रकाश पर अन्य विद्वानों ने टीकाएं लिखना प्रारम्भ कर दी थीं । अतः वररुचि ने ४ - ५वीं शताब्दी में अपना यह व्याकरण ग्रन्थ लिखा होगा । प्राकृतप्रकाश विषय और शैली की दृष्टि से प्राकृत का महत्वपूर्ण व्याकरण है। प्राचीन प्राकृतों के अनुशासन की दृष्टि से इसमें अनेक तथ्य उपलब्ध होते हैं।
प्राकृतप्रकाश में कुल बारह परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद के ४४ सूत्रों में स्वरविकार एंव स्वरपरिवर्तनों का निरूपण है।
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XIV : हेम प्राकृत व्याकरण
दूसरे परिच्छेद के ४७ सूत्रों में मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप का विधान है तथा इसमें यह भी बताया गया है कि शब्दों के असंयुक्त व्यंजनों के स्थान पर कितने विशेष व्यंजनों का आदेश होता है। यथा- (१) प के स्थान पर व - शाप-सावो ; (२) न के स्थान पर ण- वचन = वअण, (३) श, ष के स्थान पर, स-शब्द = सद्दो, वृषभ वसहो आदि। तीसरे परिच्छेद के ६६ सूत्रों में संयुक्त व्यंजनों के लोप, विकास एंव परिवर्तनों का अनुशासन है। अनुकारी, विकारी और देशज इन तीन प्रकार के शब्दों का नियमन चौथे परिच्छेद के ३३ सूत्रों में हुआ है। यथा १२वें सूत्र मोविन्दुः में कहा गया है कि अंतिम हलन्त म् को अनुस्वार होता है - वृक्षम्=वच्छं, भद्रम् भदं आदि। __पांचवे परिच्छेद के ४७ सूत्रों में लिंग और विभक्ति का अनुशासन दिया गया है। सर्वनाम शब्दों के रूप और उनके विभक्ति प्रत्यय छठे परिच्छेद के ६४ सूत्रों में वर्णित हैं। आगे सप्तम परिच्छेद में तिङ्न्तविधि तथा अष्टम में धात्वादेश का वर्णन है। प्राकृत का धात्वादेश सम्बन्धी प्रकरण तुलनात्मक दृष्टि से विशेष महत्व का है। नवमें परिच्छेद में अव्ययों के अर्थ एवं प्रयोग दिये गये हैं। यथा- णवरः केवले ॥७॥- केवल अथवा एकमात्र के अर्थ में णवर शब्द का प्रयोग होता है। उदाहरणार्थ - एसो णवर कन्दप्पो, एसा णवर सा रई । इत्यादि। ___ यहाँ तक वररुचि ने सामान्य प्राकृत का अनुशासन किया है। इसके अनन्तर दसवें परिच्छेद के १४ सूत्रों में पैशाची भाषा का विधान है। १७ सूत्र वाले ग्यारहवें परिच्छेद में मागधी प्राकृत का तथा बारहवें परिच्छेद के ३२ सूत्रों में शौरसेनी प्राकृत का अनुशासन है। प्राकृत व्याकरण के गहन अध्ययन के लिए वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश एवं उसकी टीकाओं का अध्ययन नितान्त अपेक्षित है। महाराष्ट्री के साथ मागधी, पैशाची एवं शौरसेनी का इसमें विशेष विवेचन किया गया है। प्राकृतप्रकाश की इस विषयवस्तु से स्पष्ट है कि वररुचि ने विस्तार से प्राकृत भाषा के रूपों को अनुशासित किया है। चंड के प्राकृतलक्षण का प्रभाव वररुचि पर होते हुए भी कई बातों में उनमें नवीनता और मौलिकता है। सिद्धहमशब्दानुशासन :
प्राकृत व्याकरणशास्त्र को पूर्णता आचार्य हेमचन्द्र के सिद्धहमशब्दानुशासन से प्राप्त हुई है। प्राकृत वैयाकरणों की पूर्वी और पश्चिमी दो शाखाएं विकसित हुई हैं। पश्चिमी शाखा के प्रतिनिधि प्राकृत वैयाकरण हेमचन्द्र हैं (सन् १०८८ से ११७२ )। इन्होंने विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। इनकी विद्वत्ता की छाप इनके इस व्याकरण ग्रन्थ पर भी है। इस व्याकरण का अनेक स्थानों से प्रकाशन हुआ है। डा पिशेल द्वारा सम्पादित होकर यह ग्रन्थ सन् १८७७-८० के बीच दो बार प्रकाशित हुआ है। डॉ पी एल वैद्य द्वारा सम्पादित होकर १९३६ में यह प्राकृत व्याकरण छपा तथा संशोधित होकर १९५८ में इसका पुनः प्रकाशन हुआ। इसके गुजराती, अंग्रेजी और हिन्दी अनुवाद भी निकल चुके हैं। आगमवेत्ता पूज्य प्यारचंद जी महाराज द्वारा विशद हिन्दी व्याख्या के साथ ब्यावर से प्रकाशित इस ग्रन्थ के हिन्दी संस्करण में अनेक परिशिष्ट संलग्न हैं अतः उसकी विशेष उपयोगिता सिद्ध होती है। यह ग्रन्थ बहुत दिनों से अनुपलब्ध था, जिसका प्रकाशन आगम
अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर द्वारा अब किया जा रहा है। __हेमचन्द्र के इस व्याकरण ग्रन्थ में आठ अध्याय हैं। प्रथम सात अध्यायों में उन्होंने संस्कृत व्याकरण का अनुशासन किया है, जिसकी संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में अलग महत्ता है। आठवें अध्याय में प्राकृत व्याकरण का निरूपण है। उसकी संक्षिप्त विषयवस्तु द्रष्टव्य है।
आठवें अध्याय के प्रथम पाद में २७१ सूत्र हैं । इनमें संधि,व्यंजनान्त शब्द; अनुस्वार, लिंग, विसर्ग, स्वर-व्यत्यय और व्यंजन-व्यत्यय का विवेचन किया गया है। इस पाद का प्रथम सूत्र अथ प्राकृतम् प्राकृत शब्द को स्पष्ट करते हुए यह निश्चित करता है कि प्राकृत व्याकरण संस्कृत के आधार पर सीखनी चाहिये । द्वितीय सूत्र बहुलम द्वारा हेमचन्द्र ने प्राकृत के समस्त अनुशासनों को वैकल्पिक स्वीकार किया है। इससे स्पष्ट है कि हेमचन्द्र ने न केवल साहित्यिक प्राकृतों को, अपितु व्यवहार की प्राकृत के रूपों को ध्यान में रखकर भी अपना व्याकरण लिखा है। इस पद के तीसरे सूत्र आर्षम् द्वारा ग्रन्थकार ने आर्षप्राकृत और सामान्य प्राकृत में भेद स्पष्ट किया है। इसके आगे के सूत्र स्वर आदि का अनुशासन
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हेम प्राकृत व्याकरण : XV करते हैं। जिस बात को प्राचीन वैयाकरण चंड, वररुचि आदि ने संक्षेप में कह दिया था, हेमचन्द्र ने उसे न केवल विस्तार से कहा है, अपितु अनेक नये उदाहरण भी दिये हैं। इस तरह प्राकृत भाषा के विभिन्न स्वरूपों का सांगोपांग अनुशासन व्याकरण में हो सका है।
द्वितीयपाद के २१८ सूत्रों में संयुक्त व्यंजनों के परिवर्तन, समीकरण, स्वर भक्ति, वर्णविपर्यय, शब्दादेश, तद्धित, निपात और अव्ययों का निरूपण है। यह प्रकरण आधुनिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। हेमचन्द्र ने संस्कृत कई द्वयअर्थ वाले शब्दों को प्राकृत में अलग-अलग किया है, ताकि भ्रान्तियाँ न हों। संस्कृत के क्षण शब्द का अर्थ समय भी है और उत्सव भी । हेमचन्द्र ने उत्सव अर्थ में छणो (क्षणः) और समय अर्थ में खणो (क्षण:) रूप निर्दिष्ट किये हैं। इसी तरह हेम. ने अव्ययों की भी विस्तृत सूची इस पाद में दी है। तृतीयपाद में १८२ सूत्र हैं, जिनमें कारक, विभक्तियों, क्रियारचना आदि सम्बन्धी नियमों का कथन किया गया है। शब्दरूप, क्रियारूप और कृत प्रत्ययों का वर्णन विशेष रूप से ध्यातत्व है। वैसे प्राकृतप्रकाश के समान ही इसका विवेचन हेम ने किया है, कारक व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश डाला है। प्राकृत व्याकरण का चतुर्थ पाद विशेष महत्वपूर्ण है इसके ४४८ सूत्रों में शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश प्राकृतों का शब्दानुशासन ग्रन्थकार ने किया है। इस पाद में धात्वादेश की प्रमुखता है। संस्कृत धातुओं पर देशी अपभ्रंश धातुओं का आदेश किया है। यथा - संस्कृत कथ्, प्राकृत - कह को बोल्ल, चव, जंप आदि आदेश । मागधी, शौरसेनी एवं पैशाची का अनुशासन तो प्राचीन वैयाकरणों ने भी संक्षेप में किया था। हेम. ने इनको विस्तार से समझाया है। किन्तु इसके साथ ही चूलिका पैशाची की विशेषताएँ भी स्पष्ट की हैं। इस पाद के ३२९ सूत्र से ४४८ सूत्र तक उन्होंने अपभ्रंश व्याकरण पर पहली बार प्रकाश डाला है। उदाहरण के लिए जो अपभ्रंश के दोहे दिये हैं, वे अपभ्रंश साहित्य की अमूल्य निधि हैं। आचार्य हेम के समय तक प्राकृत भाषा का बहुत अधिक विकास हो गया था । इस भाषा का विशाल साहित्य भी था । अपभ्रंश के भी विभिन्न रूप प्रचलित थे। अतः हेमचन्द्र ने प्राचीन वैयाकरणों के ग्रन्थों का उपयोग करते हुए भी अपने व्याकरण में बहुत-सी बातें नयी और विशिष्ट शैली में प्रस्तुत की हैं।
म एवं अन्य प्राकृत वैयाकरण :
आचार्य हेमचन्द्र के पूर्व कई प्राकृत वैयाकरण हो चुके थे। हेमचन्द्र ने यह स्वयं स्वीकार किया है कि उन्होंने प्राचीन ग्रन्थों का पर्याप्त उपयोग किया है। यद्यपि किसी का नाम नहीं लिया है। कश्चित् केचित्, अन्यैः आदि शब्दों द्वारा इसकी सूचना दी है। प्राकृत व्याकरण के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि चंड एवं वररुचि का उन पर पर्याप्त प्रभाव है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि हेमचन्द्र में कोई मौलिकता नहीं है। डा. डौल्ची नित्ति के इस कथन को समर्थन नहीं दिया जा सकता है कि हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण की पूर्णता और प्रौढ़ता प्राप्त नहीं की है या उसमें कोई विशेष प्रतिभा नहीं है।
वस्तुतः हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में उस समय तक प्रचलित सभी अनुशासनों को सम्मिलित किया है तथा जहाँ नये नियमों व उदाहरणों की आवश्यकता थी उनको अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। चंड के प्राकृत लक्षण सूत्र १.७, १.८, ९, २३, २४ हैमव्याकरण में ८.३.२४, ८३.७, ८,३९,८१.८ में उपलब्ध है। हेम ने आर्ष प्राकृत के उदाहरण वे ही दिये हैं, जो चंड ने । किन्तु स्वर और व्यंजन परिवर्तन के सिद्धान्त प्राकृत लक्षण में बहुत संक्षिप्त हैं, जिनका हेमचन्द्र ने बहुत विस्तार किया है। तद्धित, कृत प्रत्यय, धात्वादेश और अपभ्रंश व्याकरण का अनुशासन चंड की अपेक्षा हैमव्याकरण
नवीनता और विस्तार लिये हुए है। विषयक्रम और वर्णनशैली दोनो में हेमचन्द्र ने वररुचि का अनुकरण किया है। कुछ सिद्धान्त ज्यों के त्यों प्राकृतप्रकाश के उन्होने स्वीकार किये है। किन्तु अनेक बातों में हेमचन्द्र वररुचि से अपनी विशेषता रखते हैं। वररुचि ने धातुओं के अर्थान्तरों का कोई संकेत नहीं दिया है, जबकि हेम ने धातवो ऽर्थान्तरेऽपि धातुओं के बदलते हुए अर्थो का निर्देश किया है।
द्वारा
हेमचन्द्र ने यश्रुति का विधान किया है, जिसका वररुचि में अभाव है। सेतुबन्ध, गउडवहो आदि काव्यों में यश्रुति का प्रयोग है, जिसका हेम ने नियमन किया है। वररुचि ने जहां तीन-चार तद्धित प्रत्ययों का उल्लेख किया है, वहां हेम. ने
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XVI : हेम प्राकृत व्याकरण सैकड़ों प्रत्ययों का नियमन किया है। डा नेमिचन्द्र शास्त्री ने हेम और वररुचि के सूत्रों की तुलना कर यह निष्कर्ष निकाला है कि हेमचन्द्र का व्याकरण अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों की अपेक्षा अधिक पूर्ण और वैज्ञानिक है। यही कारण है कि हैमव्याकरण से परवर्ती वैयाकरण भी प्रभावित होते रहे हैं। यद्यपि उनकी अपनी मौलिक उद्भावनाएं भी हैं, जो उनके व्याकरण ग्रन्थों के मूल्यांकन से स्पष्ट हो सकेंगी। . हेमप्राकृत व्याकरण पर टीकाएं :___ आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृतव्याकरण पर 'तत्वप्रकाशिका' नामक सुबोध-वृत्ति (बृहत्वृत्ति) भी लिखी है। मूलग्रन्थ को समझने के लिए यह वृत्ति बहुत उपयोगी है। इसमें अनेक ग्रन्थों से उदाहरण दिये गये हैं। एक लघुवृत्ति भी हेमचन्द्र ने लिखी है, जिसको 'प्रकाशिका' भी कहा गया है। यह सं १९२९ में बम्बई से प्रकाशित हुई है। हेमप्राकृतव्याकरण पर अन्य विद्वानों द्वारा भी टीकाएं लिखी गई हैं। यथा१. द्वितीय हरिभद्रसूरि ने १५०० श्लोकप्रमाण 'हैमदीपिका' नाम की टीका लिखी है, जिसे 'प्राकृतवृत्तिदीपिका भी
कहा गया है। यह टीका अभी तक अनुपलब्ध है। २. जिनसागरसूरि ने ६७५० श्लोकात्मक 'दीपिका' नामक वृत्ति की रचना की है। ३. आचार्य हरिप्रभसूरि ने हैमप्राकृत व्याकरण के अष्टम अध्याय में आगत उदाहरणों की व्युत्पत्ति सूत्रों के
निर्देश-पूर्वक की है। ४. वि.सं. १५६१ में उदयसौभाग्यगणि ने 'हैमप्राकृतढुढिका नामक वृति की रचना की है। इसे 'व्युत्पत्तिदीपिका भी
कहते है। यह वृति भीमसिंह माणेक, बम्बई से प्रकाशित हुई है। ५. मलधारी उपाध्याय नरचन्द्रसूरि ने हैमप्राकृत व्याकरण पर एक अवचूरि रूप ग्रन्थ की रचना की है। इसका नाम
'प्राकृतप्रबोध' है। न्यायकन्दली की टीका में राजशेखरसूरि ने इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है। प्राकृतबोध की
पाण्डुलिपियां ला द. भारतीय विद्यामंदिर, अहमदाबाद में उपलब्ध हैं। ६. आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि ने हेमचन्द्र निर्मित वृत्ति को पद्य में निर्मित किया है। इसका नाम 'प्राकृतव्याकृति' है, जो
'अभिधानराजेन्द्र' कोश के प्रथम भाग के प्रारम्भ में रतलाम से वि.सं. १९७० में छपी है। ७. हेमचन्द्र द्वारा जो अपभ्रंश व्याकरण के प्रसंग में दोहे दिये गये हैं उन पर 'दोधवृत्ति' लिखी गयी है, जो
हेमचन्द्राचार्य जैन सभा, पाटन से प्रकाशित हुई है। ८ 'हैमदोधकार्य' नामक एक टीका की सूचना 'जैनग्रन्थावली' से प्राप्त होती है। उसमें (पृ. ३०१) यह भी कहा गया
है कि १३ पत्रों की इस टीका की एक पाण्डुलिपि भी उपलब्ध है। हैमशब्दानुशासन पर दुढिका लिखी गई है। उसके दो चरण ही अब तक उपलब्ध और प्रकाशित थे। किन्तु चारों चरणवाली की एक प्रति श्वेताम्बर तेरापंथ श्रमण ग्रन्थ भंडार, लाडनूं में उपलब्ध है। मुनि श्री नथमल ने स्वरचित 'तुलसी मन्जरी' नामक प्राकृत-व्याकरण में इस (दुढिका वृत्ति) का विशेष रूप से उपयोग किया है। तुलसीमंजरी अपनी सुबोध शैली एव विशद विवेचन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। . इस तरह प्राकृत व्याकरणशास्त्र के इतिहास मे हैमप्राकृतव्याकरण का कई दृष्टियों से महत्व है। आर्ष प्राकृत का सर्वप्रथम उसमें उल्लेख हुआ है। प्राकृत एवं अपभ्रंश भाशा के प्रायः सभी रूपों का उसमें अनुशासन हुआ है। न केवल साहित्य में प्रयुक्त शब्द, अपितु व्यवहार में प्रयुक्त प्राकृत, अपभ्रंश एवं देशी शब्दों का नियमन हेमचन्द्र ने किया है। इस तरह एक आदर्श प्राकृत व्याकरण की रचना कर हेमचन्द्र ने परवर्ती प्राकृत वैयाकरणों को भी इस क्षेत्र में कार्य करने के लिए प्रेरित किया है। परवर्ती प्राकृत व्याकरण ग्रन्थों के मूल्यांकन से यह स्पष्ट होता है कि हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण ने उन्हें कितना आधार प्रदान किया है।
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हेम प्राकृत व्याकरण : XVII
संदर्भ १. दृष्टव्य- शास्त्री, नेमिचन्द्र : प्राकृत भाषा एवं साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास। २. दृष्टव्य- बाठियां, कस्तूरमल : हेमचन्द्राचार्य जीवन-चरित, परिशिष्ट ३. शास्त्री, नेमिचन्द्र : आचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासन एक अध्ययन ४. दृष्टव्य; ई.वी. कावेल का मूल लेख तथा उसका अनुवाद - 'प्राकृत व्याकरण संक्षिप्त परिचय'; भारतीय
साहित्य; १०, अंक - ३-४, जुलाई-अक्टुबर १९६५। ५. हिमवत्सिन्धुसौवीरान् ये जनाः समुपाश्रिताः।
उकारबहुला तज्ज्ञस्तेषु भाषां प्रयोजयेत्।। ६२ ।। ६ दृष्टव्य, वैद्य, पी एल ; प्राकृत ग्रामर आफ सिक्किम; परिशिष्ट। ७. दृष्टव्यः 'द प्राकृतलक्षणम् एण्ड चंडा ग्रैमर आफ द एशिएन्ट प्राकृत' - डॉ होएनले। ८. कत्रे, 'प्राकृतभाषाएं और भारतीय संस्कृति में उनका अवदान' पृ. ३६०। ९. कापड़िया, पाइय भाषाओ अने साहित्य, पृ.५५। १०. दृष्टव्य, डबराल द्वारा सम्पादित प्राकृतप्रकाश (मनोरमासहित), चौखम्बा प्रकाशन, वि. सं. १९९६ (द्वि. सं.)। ११. बनर्जी, एस आर ; 'प्राकृत वैयाकरणों की पाश्चात्य शाखा का विहंगमावलोकन',अनेकान्त १९, १-२, १९६६
(अप्रैल-जून)। १३. दृष्टव्य, नेमिचन्द्र शास्त्री ; आचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासनः एक अध्ययन। १४. भायाणी, एच. सी.; 'प्राकृतव्याकरणकारों' (गुजराती), भारतीयविद्या, प्रकाशन २, ४ जुलाई १९४३, १५. डोल्ची नित्ति : ले ग्रामैरियां प्राकृत (प्राकृत के व्याकरणकार) पृ. १४७-५०। १६ पंडित, प्रबोध; 'हेमचन्द्र एण्ड द लिग्विस्टिक ट्रेडिशन, महावीर जैन विद्यालय सुवर्ण महोत्सव ग्रन्थ, बम्बई,
__भाग १।
१७ वर्मा, जगन्नाथ; 'आर्ष प्राकृत व्याकरण', काशी नगरी प्रचारिणी सभा, १९०९। १८. जैन संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा , छापर , १९७७ ।।
- प्रो. (डा.) प्रेम सुमन जैन
मानद निदेशक, आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर
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| ग्रन्थ की पूर्व प्रकाशक संस्था के प्रति आभार
आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत प्राकृत व्याकरण, प्राकृत भाषा के लिए सर्वाधिक प्रमाणिक और परिपूर्ण मानी जाती है। आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण को चार पादों में विभाजित किया है। आचार्य हेमचन्द्र कृत यह प्राकृत व्याकरण भाषा विज्ञान के अध्ययन के लिए तथा अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओं का मूल स्थान ढूंढने के लिए अत्यन्त उपयोगी है, इसलिए कई विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों आदि ने अपने पाठ्यक्रम में इस प्राकृत व्याकरण को स्थान दिया है। ऐसी उत्तम कृत्ति जिसकी सरल हिन्दी व्याख्या उपाध्याय पण्डित रत्न मुनिवर्य श्री प्यारचन्द जी महाराज ने की तदुपरान्त हिन्दी व्याख्या सहित इस प्राकृत व्याकरण के प्रकाशन का महत्वपूर्ण कार्य श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर (राजस्थान) द्वारा वर्ष 1967 में दो भागों में प्रकाशित कर पूर्ण किया गया।
श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर (राजस्थान) के तत्कालीन अध्यक्ष श्री देवराज जी सुराणा, मंत्री श्री अभयराज जी नाहर एवं संयोजक श्री उदयमुनि सिद्धान्त शास्त्री, सम्पादक श्री रतनलाल जी संघवी, सम्पादन सहयोगी श्री बसंतीलाल जी नलवाया आदि के प्रति हम विशेष आभार प्रकट करते है क्योंकि प्राकृत व्याकरण के प्रस्तुत संस्करण हेतु हमने इनके द्वारा प्रकाशित संस्कारणों का ही उपयोग किया है।
श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर (राजस्थान) द्वारा पूर्व में प्रकाशित संस्करण प्रायः अप्राप्य हो गये थे किन्तु इनकी उपयोगिता अत्यधिक थी। अतः आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर के संचालक मण्डल ने इसकी उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए, इसके पुनः प्रकाशन का निर्णय लिया और पूर्व प्रकाशक संस्था से इस हेतु अनुमति मांगी। लम्बे अंतराल के पश्चात् संघनिष्ठ सुश्रावक एडवोकेट श्री भंवरलाल जी ओस्तवाल, ब्यावर ने श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर (राजस्थान) के वर्तमान पदाधिकारियों से अनुमति प्राप्त कर हमें भिजवाई तभी हम प्रस्तुत संस्करण का प्रकाशन कर पाये। इस हेतु हम पूर्व प्रकाशक संस्था के तत्कालीन एवं वर्तमान पदाधिकारियों तथा पूर्व संस्करण के सहयोगी सभी चारित्र आत्माओं एवं विद्वानों के प्रति हदय से आभार प्रकट करते
डा. सुरेश सिसोदिया
सम्पादक
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मूल-सूत्राणि
प्राकृत व्याकरणस्य प्रथमः पादः अथ प्राकृतम् ॥१-१।। बहुलम् ।।१-२।। आर्षम् ।।१-३।। दीर्घ-हस्वी मिथो वृत्तौ ।।१-४।। पदयोः संधिर्वा ।।१-५।। न युवर्णस्यास्वे ।।१-६।। एदोतोः स्वरे ॥१-७।। स्वरस्योवृत्ते ।। १-८।। त्यादेः ।।१-९।। लुक् ।।१-१० ।। अन्त्यव्यञ्जनस्य ।। १-११ ।। न श्रदुदोः ।।१-१२ ।। निर्दुरोर्वा ।। १-१३ ।। स्वरेन्तरश्च ।। १-१४ ।। स्त्रियामादविद्युतः ।। १-१५।। रो रा ।। १-१६ ।। क्षुधोहा ।। १-१७ ।। शरदादेरत् ।। १-१८।। दिक्-प्रावृषोः सः ।।१-१९।। आयुरप्सरसोर्वा ॥१-२० ।। ककुभो हः ।।१-२१ ॥धनुषो वा ॥१-२२।। मोनुस्वारः ।।१-२३।। वास्वरे मश्च ॥१-२४।।ङ-ब-ण-नो व्यञ्जने ।। १-२५।। वक्रादावन्तः ।। १-२६ ।। क्त्वा--स्यादेर्ण-स्वोर्वा ।।१-२७|| विंशत्यादे लुक् ।। १-२८ ।। मांसादेर्वा ।। १--२९।। वदर्गेन्त्यो वा ।। १-३० ।। प्रावृट-शरत्तरणयः पुसि ।।१-३१।। स्नमदाम-शिरो-नभः ।।१-३२ ।। वाक्ष्यर्थ-वचनाद्याः ।। १-३३ ।। गुणाद्याः क्लीबे वा ।। १-३४।। वेमाञ्जल्याद्याः स्त्रियाम् ।।१-३५ ।। बाहोरात् ।। १-३६ ।। अतो डो विसर्गस्य ।।१-३७।। निष्प्रती ओत्परी माल्य-स्थोर्वा ||१-३८|| आदेः ।।१-३९।। त्यदाद्यव्ययात तत्स्वरस्य लुक ॥१-४० ।। पदादपेर्वा ।।१-४१ ।। इतेः स्वरात् तश्च द्विः ॥१-४२।। लुप्त-य-र-व-श-ष-सांश-ष-सां दीर्घः ।। १-४३ ।। अतः समृद्ध्यादौ वा ।।१-४४।। दक्षिणे हे ।।१-४५ ।। इः स्वप्नादौ ।।१-४६ ।। पक्वाङ्गार-ललाटे वा ।। १-४७।। मध्यम-कतमे द्वितीयस्य ।। १-४८ ।। सप्तपर्णे वा ।। १-४९।। मयट्य इर्वा ।। १-५० ।। ई हरे वा ।। १-५१ ।। हर शब्दे आदेरत ईर्वा भवति। हीरो हरो।। ध्वनि-विष्वचोरुः ।।१-५२ ।। वन्द्र-खण्डिते णा वा ।। १-५३ ।। गवये वः ।। १-५४ ।। प्रथमे प-थोर्वा ॥१-५५।। ज्ञो णत्वेभिज्ञादौ ।। १-५६ ॥ एच्छय्यादौ ।।१-५७ ।। वल्ल्युत्कर-पर्यन्ताश्चर्ये वा ।।१-५८।। ब्रह्मचर्ये चः ।।१-५९ ।। तोन्तरि ॥१-६० ।। ओत्पद्म ॥१-६१ ।। नमस्कार-परस्परे द्वितीयस्य ।। १-६२।। वार्पा ।।१-६३ ।। स्वपावच्च।। १-६४ ।। नात्पनर्यादाई वा ।।१-६५ ।। वालाब्वरण्ये लुक् ।। १-६६ ।। वाव्ययोत्खाता दावदातः ।। १-६७ ।। घञ् वृद्धे र्वा ।।१-६८।। महाराष्ट्रे ।। १-६९।। मांसादिष्वनुस्वारे ।। १-७० ।। श्यामाके मः ।। १-७१ ।। इः सदादौ वा ।। १-७२ ।। आचार्ये चोच्च ।। १-७३ ।। ईः स्त्यान-खल्वाटे ।।१-७४ ।। उः सास्ना-स्तावके।। १-७५ ॥ऊद्वासारे ।।१-७६ ।। आर्यायां य:श्वश्र्वाम् ।। १-७७ ।। एद् ग्राह्ये ।। १-७८ ।। द्वारे वा ।। १-७९ ।। पारापते रो वा ।। १-८० ।। मात्रटि वा ।। १-८१ ।। उदोद्वाट्टै ।।१-८२ ।। ओदाल्यां पंक्तौ ।। १-८३ ।। हस्व संयोगे ।। १-८४ ।। इत एद्वा ।। १-८५।। किंशुके वा ।। १-८६।। मिरायाम् ।। १-८७।। पथि-पृथिवी-प्रतिश्रुन्मूषिक-हरिद्रा-बिभीतकेष्वत् ।।१-८८।। शिथिलेगुदे वा।। १-८९।। तित्तिरौरः।।१-९०।। इतौ तो वाक्यादौ।। १-९१।। ईर्जिह्वा-सिंह-त्रिंशद्विशतौ त्या।। १-९२।। लुंकि निरः।। १-९३।। द्विन्योरूत्।। १-९४।। प्रवासीक्षौ ।। १-९५।। युधि ष्ठिरे वा ।। १-९६।। ओच्च द्विधाकृगः ।। १-९७ ।। वा निर्झरे ना ।। १-९८ ।। हरीतक्यामीतोत् ।।१-९९।। आत्कश्मीरे।। १-१००। पानीयादिष्वित्। १-१०१ ।। उज्जीर्णे ।। १-१०२ ।। ऊं_न-विहीने वा ।।१-१०३।। तीर्थे हे ।।१-१०४।। एत्पीयूषापीड-बिभीतक-कीद्दशेदशे ॥१-१०५।। नीड-पीठे वा ।। १-१०६।। उतो मुकुलदिष्वत् ।। १-१०७।। वोपरौ ।। १-१०८।। गुरौ के वा ।। १-१०९।। इर्भु कुटौ।। १-११०।। पुरुषे रोः।। १-१११।। ईः क्षुते।। १-११२।। ऊत्सुभग-मुसले वा ।। १-११३।। अनुत्साहोत्सन्नेत्सच्छे।। १-११४॥ टुंकि दुरो वा ।। १-११५।। ओत्संयोगे ।। १-११६।। कुतूहले वा हस्वश्च।। १-११७।। अदूतः सूक्ष्मे वा।। १-११८।। दुकूले वा लश्च द्विः।।१-११९।। ईर्वोद्वयूढे।।१-१२०।। उद्बु-हनुमत्कण्डूय - वातूले।। १-१२१।। मधूके वा।। १- १२२।। इदे तो नुपूरे वा।। १-१२३।। ओत्कूष्माण्डी-तूणीर-कूर्परस्थूल-ताम्बूल-गुडूची-मूल्ये।।१-१२४।। स्थूणा-तूणे वा ।। १ -१२५।। ऋतोत्।। १-१२६।। आत्कृशा-मृदुक-मृदुत्वे वा।। १-१२७।। इत्कृपादो।। १-१२८॥ पृष्ठे वानुत्तरपदे ।। १-१२९ । मसृण-मृगाङ्क-मृत्यु-श्रृंग-धृष्टे वा ।।१-१३०।। उदृत्वादौ ।। १-१३१ ।। निवृत्त-वृन्दारके वा ।। १-१३२।। वृषभे वा वा ।। १-१३३।। गौणान्त्यस्य ।।१-१३४।। मातुरिद्वा ॥१-१३५।।उदूदोन्मृषि ॥१-१३६।।इदुतोवृष्ट-वृष्टि-पृथङ् मृदंग-नप्तृके ।। १-१३७ ।। वा बृहस्पतौ ।। १-१३८ ।।इदेदोढन्ते
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xx : हेम प्राकृत व्याकरण
॥१-१३९ ।।रिः केवलस्य ।। १-१४०।। ऋणर्वृषभत्वृषौ वा ।। १-१४१ ।। दृशः क्विप्-टक्-सकः ।। १-१४२ ।।आदृते ढिः ।।१-१४३।। अरिदृप्ते ।।१-१४४ ।। लत इलिः क्लृप्त-केलुन्ने ।। १-१४५ ।। एतइद्वा वेदना-चपेटा-देवर-केसरे।।१-१४६ ।। ऊः स्तेने वा ॥ १-१४७ ।। ऐत एत् ।। १-१४८ ॥ इत्सैन्धव-शनैश्चरे ॥ १-१४९ ।। सैन्ये वा ॥१-१५०।। अइदैत्यादौ च ।। १-१५१ ।। वैरादौ वा ।। १-१५२ ।। एच्च देवे ।। १-१५३।। उच्चैर्नीचस्यैअः ।। १-१५४ ।। ईद्धेर्ये ।। १-१५५ ।।
ओतोद्वान्योन्य-प्रकोष्ठाताद्य-शिरोवेदना-मनोहर-सरोरूहेक्तोश्च वः ।।१-१५६।। ऊत्सोच्छ्वासे ।। १-१५७ ।। गव्यउ-आअः ।।१-१५८ ।। औत ओत् ।।१-१५९ ।। उत्सौन्दर्यादौ ।। १-१६०।। कौक्षेयके वा ।। १-१६१ ।। अउः पौरादौ च ।। १-१६२ ।। आच्च गौरवे॥१-१६३।। नाव्यावः ।।१-१६४ ।। एत् त्रयोदशादौ स्वरस्य सस्वर व्यञ्जनेन।। १-१६५ ॥ स्थविर-विचकिलायस्कारे ।। १-१६६।। वा कदले ।। १-१६७ ।। वेतः कर्णिकारे ।। १-१६८ ।। अयो वैत् ।। १-१६९ ।। ओत्पूतर-बदर-नवमालिका-नवफलिका-पूगफले।।१-१७०।। न वा मयूख-लवण-चतुर्गुण-चतुर्थ-चतुर्दश-चतुर्वार -सुकुमारकुतूहलोदूखलोलूखले।।१-१७१ ।। अवापोते ॥ १-१७२ ।। ऊच्चोपे ॥ १-१७३ ।। उमो निषण्णे ।।१-१७४ ।। प्रावरणे अङ्ग्वाऊ ।। १-१७५ ।। स्वरादसंयुक्तस्यानादेः।। १-१७६।। क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्।।१-१७७।। यमुना-चामुण्डा-कामुकातिमुक्तके मोनुनासिकश्च।। १-१७८।। नावर्णात् पः।। १-१७९।। अवर्णो य श्रुतिः।। १-१८०।। कुब्ज-कर्पर-कीले कः खोऽपुष्पे।।१-१८१।। मरकत-मदकले गः कंदुके त्वादेः।। १-१८२।। किराते चः।।१-१८३।। शीकरे भ-हौवा।। १-१८४॥ चंद्रिकायां मः।।१-१८५।। निकष-स्फटिक-चिकुरेहः।।१-१८६|| ख-घ-थ-ध-भाम्।।१-१८७|| पृथकि धो वा।।१-१८८|| श्रृङ्खले खः कः।।१-१८९।। पुन्नाग-भागिन्योर्गो मः।।१-१९०।। छागे लः।।१-१९१।। ऊत्वे दुर्भग-सुभगे वः।।१-१९२।।खचित-पिषाचयोश्चःस-ल्लो वा।। १-१९३।।जटिलेजो झोवा।।१-१९४।। ।।टोडः १-१९५।। सटा-शकट-कैटभे ढः।। १-१९६।। स्फटिकेलः।। १-१९७|| चपेटा-पाटौ वा।। १-१९८।। ठो ढः।। १-१९९।। अकोठे ल्लः।। १-२००।। पिठरे हो वा रश्च डः।। १-२०१।। डोलः।।१-२०२।। वेणौ णो वा।।१-२०३।। तुच्छे तश्च-छौ वा।। १-२०४।। तगर-त्रसर-तुवरेटः।। १-२०५।। प्रत्यादौ डः।। १-२०६।। इत्वे वेतसे।। १-२०७।। गर्भितातिमुक्तके णः।। १-२०८|| रूदिते दिनाण्णः ।। १-२०९।। सप्ततौ रः।। १-२१०।। अतसी-सातवाहने लः।। १-२११।। पलिते वा।। २-२१२।। पीते वो ले वा।। १-२१३।। वितस्ति-वसति-भरत-कातर-मातुलिंगे हः।। १-२१४।। मेथि-शिथिर-शिथिल-प्रथमे थस्य ढः।। १-२१५।। निशीथ-पृथिव्यो
।।१-२१६।। दशन-दष्ट-दग्ध-दोला-दण्ड-दर-दाह-दम्भ-दर्भ-कदन-दोहदे दो वाडः।।१-२१७।। दंश-दहोः।।१-२१८|| संख्या-गद्गदे रः।।१-२१९।। कदल्यामुद्रमे।। १-२२० ।। प्रदीपि-दोहदे लः।। १-२२१|| कदम्बे वा।।१-२२२।। दीपौ धो वा।। १-२२३|| कदर्थिते वः।।१-२२४|| ककुदे हः।। १-२२५।। निषेध धो ढः।।१-२२६|| वौषधे।।१-२२७|| नो णः।। १-२२८|| वादौ।। १-२२९।। निम्ब-नापिते-ल-णहं वा।। १-२३०।। पो वः।। १-२३१।। पाटि-परुष-परिघ-परिखा-पनस-पारिभद्रे फः।। १-२३२।। प्रभूते वः।।१-२३३।। नीपापीडे मो वा।।१-२३४।। पापर्धी रः।।१-२३५।। फो भ-हौ।।१-२३६।।व :।।१-२३७।। बिसिन्यां भः।।१-२३८।। कबन्धे म-यौ॥ १-२३९।। कैटभे भो वः ।। १-२४० ॥ विषमे मो ढो वा ।। १-२४१ ।। मन्मथे वः ।। १-२४२ ।। वाभिमन्यौ ॥१-२४३ ॥ भ्रमरे सो वा ।। १-२४४ ।। आदेो जः ।। १-२४५ ।। युष्मद्यर्थपरे तः ।। १-२४६ ।। यष्ट्यां लः ।। १-२४७ ।। वोत्तरीयानीय-तीय कृयेज्जः ।।१-२४८।। छायायां हो कान्तौ वा ॥१-२४९।। डाह-वौ कतिपये ।। १-२५० ।। किरि-भेरे रोडः ॥१-२५१।। पर्याणे डावा ॥१-२५२।। करवीरेणः ॥१-२५३।। हरिद्रादौलः ।।१-२५४ || स्थले लोरः ।।१-२५५।। लाहल-लांगल-लांगुले वादे णः ।।१-२५६।। ललाटे च ।। १-२५७॥ शबरे बो मः ॥१-२५८।। स्वप्न-नीव्यो
॥१-२५९।।श-षोः सः ।।१-२६०।। स्नुषायांण्हो न वा ।।१-२६१।। दश-पाषाणे हः ।। १-२६२।। दिवसे सः ।।१-२६३।। हो घोनुस्वारात् ।।१-२६४॥ षट्-शमी-शाव-सु-सप्तपर्णेष्वादेश्छः ।।१-२६५।। शिरायां वा ।।१-२६६।। लुग् भाजन-दनुज-राजकुले जः सस्वरस्य न वा ।। १-२६७|| व्याकरण-प्राकारागते कगोः ।।१-२६८।। किसलय-कालायस-हृदये यः ।।१-२६९|| दुर्गादेव्युदुम्बर-पादपतन-पाद पीठन्तर्दः ।।१-२७०।। यावत्तावज्जीविता वर्तमानावट-प्रावरक-देव कुलैव मेवे वः।। १-२७१।।
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हेम प्राकृत व्याकरण : XXI
द्वितीयः पादः संयुक्तस्य ।। २-१ ।। शक्त-मुक्त-दष्ट-रुग्ण-मृदुत्वेको वा ।। २-२।। क्षः खः क्वचितु छ-झौ।। २-३ ।। ष्क-स्कयो म्नि ॥२-४ ।। शुष्क-स्कन्दे वा ।। २-५ ।। श्वेटकादौ ।। २-६ ।। स्थाणावहरे ।। २-७ ।। स्तम्भे स्तो वा ।। २-८ ।। थ-ठाव स्पन्दे ।। २-९ ।। रक्ते गो वा ।। २-१० ।।शुल्के ङ्गो वा ।। २-११ ।। कृति-चत्वरे चः ।। २-१२ ।। त्योऽचैत्ये ।। २--१३ ॥प्रत्यूषे षश्च हो वा ॥२-१४ ।। त्व-थ्व-द्व-ध्वां-च-छ-ज-झाः क्वचित् । २-१५ ।। वृश्चिके श्चेञ्चुर्वा ।। २-१६।। छोऽक्ष्यादौ ।। २-१७ ।। क्षमायां को ।। २-१८ ।। ऋक्षे वा ।। २-१९।। क्षण उत्सवे ।। २-२० ।। ह्रस्वात् थ्य-श्च-त्स-प्सामनिश्चले ॥२-२१ ।। सामोत्सुकोत्सवे वा ।। २-२२।। स्पृहायाम् ।। २-२३ ।। द्य-य्य-यो जः ।। २-२४ । अभिमन्यौ ज-जौ वा ।। २-२५।। साध्वस-ध्य-ह्या-झः ।। २-२६ ।। ध्वजे वा ।। २-२७।। इन्धौ झा ।। २-२८।। वृत्त-प्रवृत्त-मृत्तिका-पत्तन-कदर्थिते टः ।। २-२९ ।। तस्याधृर्तादौ ।। २-३० ।। वृन्ते ण्टः ।। २-३१।। ठो स्थि-विसंस्थुले ।। २-३२।। स्त्यान-चतुर्थार्थे वा ।। २-३३ ।। ष्टस्यानुष्ट्रेष्टासंदष्टे ।। २-३४ ।। गर्ते डः ।। २-३५ ।। संमर्द-वितर्दि-विच्र्छ च्छर्दि-कपर्द-मर्दिते र्दस्य ।। २-३६।। प्रावरणे अङ्ग्वाऊ ।।२--३७॥ कन्दरिका-भिन्दिपाले ण्डः ।। २-३८ ।। स्तब्धे ठ-ढौ ।। २-३९।। दग्ध-विदग्ध-वृद्धि-वृद्धे ढः ।। २-४०।। श्रद्धर्द्धि-मूर्धार्धन्त वा ।। २-४१।। म्नज्ञो र्णः ।। २-४२ ।। पञ्चाशत्-पञ्चदश-दत्ते ।। २-४३।। मन्यौ न्तो वा ।। २-४४।। स्त्स्य थो समस्त-स्तम्बे ।। २-४५ ।। स्तवे वा ।। २--४६।। पर्यस्ते थ-टौ ।। २-४७।। वोत्साहे थो हश्चरः ।। २-४८|| आश्लिष्टे ल-धौ ।। २--४९।। चिन्हे न्धो वा ।।२-५०।। भस्मात्मनोः पो वा ।। २-५१।। ड्म--क्मोः ।। २--५२।। ष्प-स्पयोः फः ।। २-५३।। भीष्मे ष्मः ।। २-५४ ।। श्लेष्मणि वा ।। २-५५।। ताम्रानेम्बः ।। २-५६।। ह्वो भो वा ।।२-५७॥ वा विह्वले वो वश्च ।। २-५८|| वोर्वे ।। २-५९।। कश्मीरे म्भो वा ।। २-६० ।। न्मो मः ।। २-६१।। ग्मो वा ।। २-६२।। ब्रह्मचर्य-तूर्य-सौन्दर्य-शौण्डीर्ये र्यो रः ।। २-६३।। धैर्य वा ।। २-६४।। एतः पर्यन्ते ॥२-६५।। आश्चर्ये ॥२-६६ ।। अतो रिआर-रिज्ज-री ।। २-६७।। पर्यस्त-पर्याण-सौकुमार्ये ल्लः ।। २-६८।। बृहस्पति-वनस्पत्योः सो वा ।। २-६९।। बाष्पे हो श्रुणि ॥२-७०।। कार्षापणे ॥२-७१।। दुःख-दक्षिण-तीर्थे वा ॥२-७२।। कूष्माण्ड्यांष्मो लस्तु ण्डो वा ।। २-७३।। पक्ष्म--श्म-ष्म-स्म-मां म्हः ।। २--७४।। सूक्ष्म-श्न-ष्ण-स्न-हण-क्ष्णां ण्हः ।। २-७५।। हलो ल्हः ।। २-७६।। क-ग-ट-ड-त-द-प-श-ष-स-क.पामूर्ध्व लुक् ।।२-७७।। अधो मनयाम् ।। २-७८।। सर्वत्र ल-ब-रामवन्द्रे ।। २-७९।। द्रे रो न वा ।। २-८०।। धात्र्याम् ।। २-८१।। तीक्ष्णे णः ।। २-८२।। ज्ञोबः ।। २-८३।। मध्याहने हः ॥२-८४।। दशाहे ।।२-८५॥ आदेः श्मश्रु-श्मशाने ।। २-८६।। श्चो हरिश्चन्द्रे ।। २-८७|| रात्रौ वा ।।२-८८।। अनादौ शेषादेशयोर्द्वित्वम् ।। २-८९।। द्वितीय-तुर्ययोरुपरि पूर्वः ।। २-९०।। दीर्घ वा ।। २-९१।। न दीर्घानुस्वारात् ।। २-९२।। र-होः ।। २-९३।। धृष्टद्युम्ने णः ।। २-९४।। कर्णिकारे वा ।। २-९५।। दृप्ते ।। २-९६।। समासे वा ।। २-९७।। तैलादो ।। २-९८।। सेवादौ वा ॥ २-९९।। शाङ्गै ङातपूर्वोत् ।। २-१००।। क्ष्मा-श्लाघा-रत्नेन्त्यव्यञ्जनात् ।। २-१०१।। स्नेहाग्न्योर्वा ।। २-१०२।। प्लक्षे लात् ।। २-१०३।। ह-श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्टयास्वित् ।। २-१०४।। र्श-र्ष-तप्त-वज्रे वा ।। २-१०५।। लात् ।। २-१०६।। स्याद्-भव्य-चैत्य-चौर्यसमेषु यात् ।। २-१०७|| स्वप्ने नात् ।। २-१०८|| स्निग्धे वादितौ ।।२-१०९।। कृष्णे वर्णेवा ।। २-११०।। उच्चाहति ।।२-१११।। पद्म-छद्म-मूर्ख-द्वारे वा।। २-११२॥ तन्वीतुल्येषु ।।२-११३।। ।। एक स्वरे श्वः-स्वे ।। २-११४।। ज्यायामीत् ।। २-११५।। करेणु-वाराणस्योर-णो-र्व्यत्ययः ।। २-११६।। आलाने लनोः ।।२-११७।। अचलपुरे च-लोः ।। २-११८|| महाराष्ट्रे ह-रोः ।। २-११९।। हृदे ह-दोः ।। २-१२०।। हरिताले र-लोर्न वा ।। २-१२१।। लघुके ल-होः ।। २-१२२।। ललाटे ल-डोः ।। २-१२३।। ह्ये ह्योः ।। २-१२४।। स्तोकस्य थोक्क-थोव-थेवाः ।। २-१२५।। दुहितृ-भगिन्योधूआ-बहिण्यौ ।। २-१२६।। वृक्ष-क्षिप्तयो रुक्ख-छूढौ ।।२-१२७।। वनिताया विलया ।। २-१२८।। गौणस्येषतकूरः ।। २-१२९।। स्त्रिया इत्थी ।।२-१३०।। धृतेर्दिहिः ।। २-१३१।। मार्जारस्य मञ्जर-वजरौ ।। २-१३२।। वैडूर्यस्य वेरुलिअं॥ २-१३३।। एण्हिं एत्ताहे इदानीमः ।। २-१३४।। पूर्वस्य पुरिमः ।। २-१३५।। त्रस्तस्य हित्थ-तट्ठी।। २-१३६।।
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XXII : हेम प्राकृत व्याकरण बृहस्पतौ बहोभयः ।। २-१३७।। मलिनोभय-शुक्ति-छुप्तारब्ध-पदातेर्मइलावह-सिप्पि- छिक्काढत्त-पाइक्की।२-१३८।। दंष्ट्राया दाढा ।। २-१३९।। बहिसो बाहिँ-बाहिरौ ।। २-१४०।। अधसो हेटुं ।। २-१४१।। मातृ-पितुः स्वसुः सिआ-छौ ।। २-१४२॥ तिर्यचस्तिरिच्छिः ।। २-१४३।। गृहस्य घरोपतौ ।। २-१४४।। शीलाद्यर्थस्येरः॥२-१४५।। क्त्वस्तुमत्तूण-तुआणाः।। २-१४६।। इदमर्थस्य केरः ।। २-१४७।। पर-राजभ्यां क्क
दोब-एच्चयः ।। २-१४९|| वतेवः ।। २-१५० ।। सर्वाङ्गादीनस्येकः ।। २-१५१।। पथो णस्येकट् ।। २-१५२।। ईयस्यात्मनो णयः ।।२-१५३।। त्वस्य डिमा-त्तणौ वा ॥२-१५४।। अनकोठात्तैलस्य डेल्लः ।। २-१५५।। यत्तदेतदोतोरित्तिअ एतल्लुक् च ।। २-१५६।। इदं किमश्च डेत्तिअ-डेत्तिल-डेदहाः ।। २-१५७।। कृत्वसो हुत्तं ।। २-१५८|| आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्तेत्तेर-मणामतोः ।। २-१५९।। त्तो दो तसो वा ।। २-१६०।। त्रपो हि-ह-त्थाः ॥२-१६१।। वैकाद्दः सि सिअंइआ ।। २-१६२।। डिल्ल-डुल्लो भवे ।। २-१६३।। स्वार्थ कश्च वा ।।२-१६४।। ल्लो नवैकाद्वा ।।२-१६५।। उपरेः संव्याने ।। २-१६६।। भ्रुवो मया डमया ।। २-१६७।। शनै सो डिअम् ।।२-१६८|| मनाको न वा डयं च ।। २-१६९।। मिश्राड्डालिअः ॥२-१७०|| रो दीर्घात् ।। २-१७१।। त्वादेः सः ।। २-१७२।। विद्युत्पत्र-पीतान्धाल्लः ।। २-१७३।। गोणादयः ॥२-१७४|| अव्ययम् ।। २-१७५।। तं वाक्योपन्यासे ॥२-१७६।। आम अभ्युपगमे ।। २-१७७।। णवि वैपरीत्ये ।। २-१७८।। पुणरुत्तं कृत करणे ।। २-१७९।। हन्दि विषाद-विकल्प-पश्चात्ताप-निश्चय-सत्ये ।।२-१८०|| हन्द च गृहाणार्थ ।। २-१८१।। मिव पिव विव व्व व विअइवार्थ वा ।। २-१८२।। जेण तेण लक्षणे ।।२-१८३।। णइ चेअचिअच्च अवधारणे ॥२-१८४|| बले निर्धारण-निश्चययोः ।। २-१८५॥ किरेर हिर किलार्थे वा ।। २-१८६।। णवर केवले ।।२-१८७।। आनन्तर्येणवरि ।। २-१८८।। अलाहि निवारणे ।।२-१८९।। अण णाईनबर्थे ।। २-१९०।। माइंमार्थे ।।२-१९१।। हद्धी निर्वेदे ।। २-१९२।। वेव्वे भय-वारण-विषादे ।।२-१९३।। वेव्व च आमन्त्रणे ॥२-१९४|| मामि हलाहले सख्या वा ।।२-१९५।। दे संमुखीकरणे च ।। २-१९६।। हं दान-पृच्छा-निवारणे ।।२-१९७।। हु खुनिश्चय-वितर्क-संभावन-विस्मये ।। २-१९८।। ऊ गर्हाक्षेप-विस्मय-सूचने ।। २-१९९।। थूकुत्सायाम् ।। २-२००।। रे अरे संभाषण-रतिकलहे ॥२-२०१।। हरे क्षेपेच ।। २-२०२।। ओ सूचना-पश्चात्तापे।।२-२०३।।अव्वो सूचना-दुःख-संभाषणापराधविस्मयानन्दारद-भय-खेद-विषाद पश्चात्तापे ।। २-२०४।। अइ संभावने ।। २-२०५।। वणे निश्चय-विकल्पानुकम्प्ये च ।। २-२०६।। मणे विमर्श ।। २-२०७|| अम्मो आश्चर्ये ।। २-२०८।। स्वयमोथै अप्पणो न वा ।। २-२०९।। प्रत्येकमः पाडिक्कं पाडिएक्कं ।। २-२१०।। उअ पश्च ।। २-२११।। इहरा इतरथा ।। २-२१२।। एक्कसरिअंझगिति संप्रति ।। २-२१३।। मोरउल्ला मुधा ।। २-२१४।। दरार्धाल्पे ।। २-२१५।। किणो प्रश्ने ॥२-२१६।। इ-जे-राः पादपूरणे ।। २-२१७।। प्यादयः ।। २-२१८।।
तृतीयः पादः वीप्स्यात् स्यादेर्वीप्स्ये स्वरे मो वा ।।३-१।। अतः सेझैः ।।३-२।। वैतत्तदः ।।३-३।। जस्-शसोलुंक् ।।३-४।। अमोऽस्य ॥३-५।। टा-आमोर्णः ॥३-६।। भिसो हि हिँ हिं ।।३-७।। ङसेस् त्तो-दो-दु-हि-हिन्तो-लुकः ॥३-८|| भ्यसस् त्तो दो दुहि हिन्तो सन्तो ॥३-९॥ङसः स्सः ॥३-१०॥डे म्मि ॥३-११|| जस-शस-ङसि-तो-दो-द्वामि दीर्घः ॥३-१२।। भ्यसिवा ।।३-१३॥ टाण-शस्येत् ।।३-१४।। भिस्भ्यस्सुपि ।।३-१५।। इदुतो दीर्घः ॥३-१६।। चतुरो वा ।।३-१७।। लुप्ते शसि ।।३-१८।। अक्लीबे सौ ॥३-१९।। पुसि जसो डउ डओ वा ।।३-२०|| वो तो डवो ॥३-२१।। जस्-शसोर्णो वा ॥३-२२।। उसि-ङसोः पुं-क्लीबे वा ।।३-२३।। टो णा ॥३-२४।। क्लीबे स्वरान्म सेः ।।३-२५।। जस्-शस्-इँ-ई-णयः सप्राग्दीर्घाः ।।३-२६।। स्त्रियामुदोतौ वा ।।३-२७|| ईतः से श्चा वा ।।३-२८।। टा-ङस्-डेरदादिदेद्वा तु ङसेः ।।३-२९।। नात आत् ।।३-३०।। प्रत्यये ङीर्न वा ॥३-३१।। अजातेः पुंस ।।३-३२।। किं-यत्तदोस्यमामि ।।३-३३|| छाया-हरिद्रयोः ।।३-३४।। स्वस्रादेर्डा ।।३-३५।। हस्वो मि ॥३-३६।। नामन्त्र्यात्सौ मः ॥३-३७।। डो दीर्घा वा ।। ३-३८|| ऋतोद्वा।। ३-३९।। नाम्न्यरं वा।।३-४०|| वाप ए।। ३-४१।। ईदूतोर्हस्वः ॥३-४२।। क्विपः।।३-४३।। ऋतामुदस्यमौसु वा।।३-४४।। आरःस्यादौ।।३-४५।। आ अरा मातुः।।३-४६।। नाम्न्यरः ।।३-४७|| आ सौ न वा ।। ३-४८|| राज्ञः।।३-४९।। जस्-शस्ङसि-ङसांणो।।३-५०।। टोणा।।
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हेम प्राकृत व्याकरण: XXIII
३-५१।। इर्जस्य णो-णा ङौ । । ३ - ५२ ।। इणममामा ।। ३ - ५३ ईद्भिस्भ्यसाम्सुपि ।। ३-५४ ।। आजस्य टा - ङसिङस्सु सणाणोष्वण् ।। ३ - ५५ ।। पुंस्यन आणो राजवच्च ।। ३-५६ ।। आत्मनष्टो णिआ णइआ ।।३-५७ ।। अतः सर्वादेर्डेर्जसः ।। ३-५८।।- डेः स्सि-म्मि-त्थाः ।। ३-५९ ।। न वानिदमेतदो हिं । । ३ - ६० ।। - आमो डेसिं । । ३ - ६१ । । - कितद्भ्यां डामः ।। ३-६२।।-किंयत्तद्भ्योङस : ।। ३ - ६३ ।। ईद्भ्यः स्सा से ।। ३-६४ ।। - डेर्डाहे डाला इआ काले ।। ३-६५।। - ङसे ह।।३-६६।।- तदो डोः ।। ३-६७ ।। किमो डिणो-डीसौ ।। ३-६८ ।। इदमेतत्किं यत्तद्भ्य ष्टो डिणा । । ३ - ६९ ।। - तदो णः स्यादौ क्वचित्।।३-७०।। किमः कस्त्र - तसोश्च ।। ३-७१ ।। इदम इमः ।। ३-७२।। पुं- स्त्रियोर्न वायमिमिआ सौ।।३-७३।। स्सि-स्सयोरत्।।३-७४।। ङेर्मे न हः ।। ३-७५ ।। न त्थः ।। ३-७६ ।। णोऽम् शस्टा भिसि ।। ३-७७।। अमेणम् ।। ३-७८ ।। क्लीबे स्यमेदमिणमो च ।। ३-७९ ।। किमः किं ।। ३-८० ।। वेदं तदे तदो ङसाम्भ्यां से सिमौ ।। ३-८१ । । वैतदो ङसेस्तो ताहे ।। ३-८२ ।। त्थे च तस्य लुक् ।। ३-८३ ।। एरदीतौ म्मौ वा । । ३ - ८४ । । वैसेणमिणमो सिना ।।३-८५ ।। तदश्च तः सोक्लीबे ।।३-८६।। वादसो दस्य होनोदाम् ।। ३-८७।। मुः स्यादौ ३-८८।। म्मावये औ वा ।। ३-८९ ।। युष्मद स्तं तुं तुवं तुह तुमं सिना ।। ३ - ९० ।। भे तुब्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उय्हे जसा । । ३ - ९१ । । तं तुं तुमं तुह तुमे तुए अमा ।। ३ - ९२ ।। वो तुज्झ तुब्भे तुम्हे उय्हे भे शसा ।। ३-९३ । । भे दि दे ते तइ तए तुमं तुमइ तुमए तुमे तुमाइ टा ।। ३ - ९४ ।। भे तुब्भेहिं उज्झेहिं तुम्हेहिं उव्हेहिं उव्हेहिं भिसा।। ३-९५।। तइ-तुव- तुम - तुह तुब्भा ङसौ । । ३ - ९६ ।। तुय्ह तुब्भ तहिन्तो ङसिना । । ३ - ९७।। तुब्भ-तुम्होय्होम्हा भ्यसि ।।३-९८।। तइ-तु-ते-तुम्हं, तुह - तुहं - तुव - तुम-तुमे - तुमो-तुमाइ - दि - दे - इ - ए - तुब्भोब्भोय्हा ङसा ।। ३ - ९९ ।। तु वो भे तुब्भ तुब्भं तुब्भाण तुवाण तुमाण तुहाण उम्हाण आमा ।।३ - १०० ।। तुमे तुमए तुमाइ तइ तए ङिना । ३ - १०१ ।। तु- तुव - तुम - तुह-तुब्भा ङौ । । ३ - १०२ ।। सुपि ।। ३ - १०३ ।। ब्भो म्ह-ज्झौ वा ।। ३ - १०४ ।। अस्मदो म्मि अम्मि अम्हि हं अहं अहयं सिना । । ३ - १०५ ।। अम्ह अम्हे अम्हो मो वयं भे जसा ।। ३-१०६ ।। णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं ममं मिमं अहं अमा ३ - १०७ ।। अम्हे अम्हो अम्ह णे रासा । । ३ - १०८ । । मि मे ममं ममए ममाइ मइ मए मयाइ णे टा ||३ - १०९|| अम्हेहि अम्हाहि अम्ह अम्हे णे भिसा । ३-११० ।। मइ-मम-मह- मज्झा ङसौ । । ३ - १११ ।। ममाम्हौ भ्यसि ।। ३-११२ || मे मई मम मह महं मज्झ मज्झं अम्ह अम्हं ङसा ।। ३ - ११३ ।। णे णो मज्झ अम्ह अम्हं अम्हे अम्हो अम्हाण ममाण महाण मज्झाण आमा ।। ३ - ११४ || मि मइ ममाइ मए मे ङिना।। ३-११५। अम्ह-मम मह मज्झा ङौ । । ३ - ११६ । । सुपि । । ३ - ११७ ।। त्रेस्ती तृतीयादौ ।। ३-११८ ।। द्वेर्दो वे ।। ३-११९ ।। दुवे दोणि वेणि च जस्- रासा । ३ - १२० ।। त्रेस्तिण्णिः ।। ३ - १२१ ।। चतुररचत्तारो चउरो चत्तारि ।। ३-१२२ ।। संख्याया आमो ण्ह ण्हं ।। ३-१२३।। शेषेऽदन्तवत्।। ३-१२४ ।। न दीर्घो णो ।। ३-१२५ ।। ङसेर्लुक् ।। ३-१२६ ।। भ्यसश्च हिः ।। ३-१२७।। डेर्डेः ।। ३-१२८।। एत्।। ३-१२९ ॥ द्विवचनस्य बहुवचनम्।। ३-१३० ।। चतुर्थ्याः षष्ठी ।।३ - १३१ ।। तादर्थ्य डे र्वा ।।३-१३२।। वधाड्डाइश्च वा ।। ३-१३३ ।। क्वचिद् द्वितीयादेः । । ३ - १३४ ॥ द्वितीया - तृतीययोः सप्तमी । । ३ - १३५ ।। पंचम्यास्तृतीया च ।। ३-१३६ ।। सप्तम्या द्वितीया ।।३ - १३७।। क्यङोर्य लुक् ।।३ - १३८ ।। त्यादिनामाद्यत्रयस्याद्यस्येचेचौ ।। ३- १३९ । । द्वितीयस्य सि से ।। ३-१४० ।। तृतीयस्य मिः || ३-१४१ ॥ बहुष्वाद्यस्य न्ति न्ते हरे । । ३ -१४२ ।। मध्यमस्येत्था - हचौ । ३ -१४३ ।। तृतीयस्य मो - मु-माः ।। ३ -१४४ ।। अत एव च् से ।। ३-१४५ ।। सिनास्तेः सिः ।। ३ - १४६ ।। मि- मो-मै- म्हि म्हो - म्हा वा ।। ३-१४७ अत्थिस्त्यादिना।। ३-१४८।। णेरदेदावावे ।। ३-१४९ ।। गुर्वादेरविर्वा । । ३ - १५० ।। भ्रमै राडो वा ।। ३ - १५१ । । लुगावी - क्त-भाव कर्मसु।।३-१५२।। अदेल्लुक्यादेरत आः । । ३ - १५३ ।। मौ वा । । ३ - १५४ ।। इच्च मो - मु-मे वा । । ३ - १५५ ।। क्ते ॥ ३-१५६ ।। एच्च क्त्वा-तुम्-तव्य-भविष्यत्सु ।। ३-१५७।। वर्तमाना - पञ्चमी - शतृषु वा । । ३ - १५८ । । ज्जा - ज्जे । । ३ - १५९ ।। ईअ- इज्जी क्यस्य ।।३-१६०।। दृशि-वचेर्डीस - डुच्चं । । ३ - १६१ ।। सी ही हीअ भूतार्थस्य ।। ३ - १६२ ।। व्यंजनादीअः ।। ३-१६३।। तेनास्तेरास्यहेसी।।३-१६४।। ज्जात्सप्तम्या इर्वा ।।३ - १६५ ।। भविष्यति हिरादिः ||३ - १६६ ॥ | मि- मो - मु- मे स्सा हा न वा ।। ३-१६७ ।। मो-मु-मानां हिस्सा हित्था । । ३ - १६८ ।। मे : स्सं ॥ ३-१६९।। कृ- दो-हं ।।३-१७०।। श्रु-गम- रुदि - विदि- दृशि-मुचि-वचि - छिदि- भिदि-भुजां सोच्छं गच्छं रोच्छं वेच्छं दच्छं मोच्छं बोच्छं छेच्छं भेच्छं भोच्छं ।। ३-१७१।। सोच्छादय इजादिषु हि लुक् च वा । । ३ - १७२ ।। दु सु मु विध्यादिष्वेकस्मिंस्त्रयाणाम् ।।३-१७३ ।। सोर्हिर्वा । । ३ - १७४ ।।
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XXIV : हेम प्राकृत व्याकरण
अत इज्ज - स्विज्ज-हिज्जे-लुको वा । । ३ - १७५ ।। बहुणु न्तु ह मो ।। ३ - १७६ ।। वर्तमाना- भविष्यन्त्योश्च ज्जज्जा वा ।।३-१७७।। मध्ये च स्वरान्ताद्वा ॥ ३-१७८ ।। क्रियातिपत्तेः ।। ३-१७९ ।। न्त - माणौ । । ३ - १८० ।। शत्रानशः ||३ - १८१ ।। ई च स्त्रियाम्।। ३-१८२ ।।
चतुर्थः पादः
इदितो वा ।।४-१।। कथेर्वज्जर- पज्जरोप्पाल - पिसुण-संघ - बोल्ल - चव - जम्प - सीस-साहाः || ४-२ ।। दुःखे णिव्वरः ।।४-३।। जुगुप्से झुण- दुगुच्छ - दुगुञ्छाः ॥४-४ ॥ बुभुक्षि- वीज्योर्णीरव - वोज्जौ ।।४ - ५ ।। ध्या- गो झ - गौ ।। ४-६ ।। ज्ञो जाण - - मुणौ ।।४-७।। उदो ध्मो धुमा।।४ -८ ।। श्रदो धो दहः ।। ४-९ ।। पिबेः पिज्ज - डल्ल पट्ट - धोट्टाः । । ४ - १० ।। उद्वातेरोरुम्मा वसुआ ।। ४-११।। निद्रातेरोहीरोड् घौ ।। ४- १२ ।। आघ्रेराइग्घः ।।४ - १३ ।। स्नातेरब्भुत्तः । । ४ - १४ ।। समः स्त्यः खाः ।। ४- १५ ।। स्थष्ठा-थक्क-चिट्ठ-निरप्पाः ।। ४-१६ ।। उदष्ठ-कुक्कुरौ ।।४ - १७ ।। म्लेर्वा प्वायौ । । ४ - १८ । । निर्मो निम्माण-निम्मवौ ॥ ४-१९।। क्षेर्णिज्झरो वा ।।४-२० ।। छदे र्णे णुम- नूम - सन्नुम - ढक्कौम्वाल - पव्वालाः ॥। ४ - २१ ॥ । नित्रि पत्योर्णि होड : ।। ४-२२ ।। दूङो दूमः ।। ४-२३ ।। धवले दुमः । । ४ - २४ ।। तुले रोहामः । । ४ - २५ ।। विरिचेरोलुण्डोल्लुण्ड-पल्हत्थाः।।४-२६।। तडेराहोड-विहोडौ।।४-२७।। मिश्रेर्वीसाल-मेलवौ ।।४-२८। । उद्धूलेर्गुण्ठः ।। ४-२९।। भ्रमेस्तालिअण्ट- तमाडौ ।। ४-३० ।। नशेर्विउड-नासव-हारव- विप्पगाल - पलावाः ।।४-३१ ।। दृशेर्दाव- दंस- दक्खवाः ।।४-३२ ।। उद्घटेरुग्गः ।। ४-३३।। स्पृहः सिहः।।४-३४।। संभावेरासंघः । । ४ - ३५ ।। उन्नमेरूत्थंघोल्लाल-गुलु गुञ्छोप्पेलाः ।। ४-३६ ।। प्रस्थापेः पटुव - पेण्डवौ ।। ४- ३७ ।। विज्ञपेर्वोक्कावुकौ ।। ४- ३८ ।। अर्पेरल्लिव - चच्चुप्प - पणामाः । । ४ - ३९ ।। यापेर्जवः ।। ४-४० ।। प्लावेरोम्वाल - पव्वालौ ।। ४-४१ ।। विकोशेः पक्खोड: ।। ४-४२ ।। रोमन्थे रोग्गाल - वग्गोलौ ।। ४-४३ ।। कमेर्णिहुवः ।। ४-४४।। प्रकाशेर्णुव्वः ।। ४-४५ ।। कम्पेर्विच्छोलः । । ४ - ४६ ।। आरोपेर्वल ।। ४-४७ ।। दोलेरङ्खोलः ।। ४-४८ ॥ रजेराव ।। ४-४९।। घटेः परिवाडः ।।४-५० ।। वेष्टेः परिआलः । । ४ - ५१ ।। क्रियः किणो वेस्तु क्के च ।। ४-५२ ।। भियो भा-बीहौ || ४-५३ ।। आलीडोल्ली ।। ४ - ५४ ।। निलीङोर्णिलीअ - णिलुक्क - गिरिग्घ-लुक्क-लिक्क-लिहक्काः ।। ४-५५ ॥ । विलीडेर्विरा ।। ४-५६।। रुतेरुञ्ज-रुण्टौ ।। ४-५७ ।। श्रुटे र्हणः ।। ४-५८ ।। धूगे ध्रुवः ।। ४-५९ ।। भुवेर्हो हुव- हवाः ।।४-६० ।। अविति हुः ।। ४-६१ ।। पृथक्-स्पष्टे णिव्वडः ।।४-६२ ।। प्रभौ हुप्पो वा ।। ४-६३ ।। क्ते हूः ।। ४-६४ ।। कृगेःकुणः ।। ४-६५ ।। काणेक्षि णिआरः ।। ४-६६।। निष्टम्भावष्टम्भे णिगुह- संदाणं ।। ४-६७।। श्रमे वावम्फः ।। ४-६८ ।। मन्युनौष्ठमालिन्ये णिव्वोलः ।। ४–६९।। शैथिल्यलम्बने पयल्लः ।। ४-७० ।। निष्पाताच्छोटे णीलुञ्छः ।।४-७१ ॥ क्षुरे कम्मः ।।४-७२ ॥ चाटौ गुललः ।।४-७३।। स्मरेर्झ- झूर-भर-भल- लढ - विम्हर - सुमर - पयर - पम्हुहाः । । ४ -७४ । । विस्मुः पम्हुस - विम्हर - वीसराः ।। ४-७५ ।। व्याहृगेः कोक्क-पोक्कौ।। ४-७६ ।। प्रसरेः पयल्लोवेल्लौ । ४-७७ ।। महमहो गन्धे ।। ४-७८ ।। निस्सरेर्णीहर- नील - धाड -- वरहाडा : । ४-७९।। जाग्रेर्ज्जग्गः ।।४-८० ।। व्याप्रेराअड्डः ॥। ४-८१ । । संवृगेः साहर - र-साहट्टौ ।। ४-८२ ।। आट्टडेः सन्नामः ।। ४-८३।। प्रहृगेः सारः ।। ४-८४।। अवतरेरोह - ओरसौ ।। ४-८५ ।। राकेश्चय-तर-तीर-पाराः ।। ४-८६ ।। फक्कस्थक्कः ।। ४-८७।। श्लाघः सलहः ।। ४-८८ ।। खचेर्वे अङ : । ४-८९ ।। पचे: सोल्ल - पडलो ।। ४ ९० ।। मुचेरछड्डा व हेड-मेल्लोस्सिक्क-रेअवणिल्लुञ्छ- धंसाडाः ।। ४-९१ ।। दुःखे णिव्वलः ।। ४ - ९२ । । वय्चेर्वेहव- वेलव-जूर वो मच्छाः ॥ ४-९३।। रचेरूग्गहावह, - विड, विड्डाः । । ४ - ९४ ।। समारचेरूवहत्थ-सारव समार- केलायाः ।। ४-९५ ।। सिचेः सिञ्च-सिम्पौ ।। ४-९६।। प्रच्छः पुच्छ: ।। ४-९७ ।। गर्जेर्बुक्क: ।। ४-९८ ।। वृषे ढिक्कः ।। ४-९९ ।। राजे रग्घ - छज्ज- सह - रीर-रेहाः ।। ४-१००।। मस्जेराउड्ड-णिउड्ड - बुड्ड खुप्पाः । । ४ - १०१ ।। पुञ्जेरारोल-वमालौ । । ४ - १०२ ।। लस्जे र्जीहः । । ४ - १०३ ।। तिजेरोसुक्कः ।। ४-१०४ ।। मृजेरुग्घुस - लुञ्छ - पुंछ- पुंस - फुस - पुस - लुह - हुल - रोसाणाः । । ४ - १०५ ।। भञ्जेर्वेमय-मुसुमूर-मूर-सूर - सूड - विर- पविरञ्ज करञ्ज - नीरञ्जाः ।। ४ - १०६ ।। अनुव्रजेः पडिअग्गः।। ४-१०७।। अर्जेर्विढवः ।। ४-१०८।। युजो जुञ्ज जुज्ज-जुप्पाः ।।४- १०९ ॥ भुजो भुञ्ज - जिम जेम कम्माण्ह - चमढ-समाण- चड्डाः ।।
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हेम प्राकृत व्याकरण : XXV ४-११०।। वोपेन कम्मवः ।। ४-१११।। घटेर्गढः।।४-११२॥ समो गलः।।४-११३।। हासेन स्फुटे मुरः।।४-११४।। मण्डोश्चिञ्च-चिञ्चअ-चिञ्चिल्ल,-रीड-टिविडिक्काः,।।४-११५।। तुडे स्तोड-तुट-खुट्ट-खुडोक्खु डोल्लुक्क णिलुक्क-लुक्कोल्लू राः।।४-११६।। घूर्णो घुल-घोल-घुम्म-पहल्लाः ।।४-११७।। विवृतेर्हसः।। ४-११८।। क्वथेरट्टः ॥४-११९।। ग्रन्थेर्गण्ठः ।।४-१२०।। मन्थेघुसल-विरोलौ।।४-१२१।। लादेरवअच्छः ।। ४-१२२।। नेः सदो मज्जः ।। ४-१२३।। छिदेर्दुहाव-णिच्छल्ल-णिज्झौड-णिव्वर-णिल्लूर-लूराः।। ४-१२४।। आङा ओ अन्दोद्दालौ ।।४-१२५।। मृदो मल-मढ-परिहट्ट-खड्ड-चड्ड-मड्ड-पन्नाडाः ।।४-१२६।। स्पन्देश्चुलुचुलः।।४-१२७।। निरः पदेवलः।। ४-१२८।। विसंवदेर्विअट्ट-विलोट-फंसाः।। ४-१२९।। शदो झड-पक्खोडौ ।। ४-१३०।। आक्रन्देर्णीहरः।। ४-१३१।। खिदेर्जूर-विसूरौ
॥ ४-१३२।। रुधेरुत्थङ्घः ।। ४-१३३।। निषेधेर्हक्कः।। ४-१३४।। क्रुधेर्जूरः।।४-१३५।। जनो जा-जम्मौ।। ४-१३६।। तनेस्तड-तड्ड-तड्डव-विरल्ला ।। ४-१३७।। तृपस्थिप्पः ।। ४-१३८।। उपसर्परल्लिअः॥४-१३९।। संतपेझड।। ४-१४०।। व्याकपेरोअग्गः।। ४-१४१।। समापेः समाणः।।४-१४२।। क्षिपे गलत्थाड्डक्ख-सोल्ल-पेल्ल-णोल्ल-छुह-हुल-परी-घत्ताः।। ।४-१४३।। उत्क्षिपेर्गुलगुच्छोर्थ- घाल्लत्थोब्भुत्तोस्सिक्क-हक्खुवाः ।। ४-१४४।। आक्षिपेीरवः ।। ४-१४५।। स्वपेः कमवस-लिस-लोटाः ।।४-१४६।। वेपेरायम्बायज्झौ ।। ४-१४७॥ विलपेझङख-वडवडौ।।४-१४८|| लिपोलिम्पः।। ४-१४९।। गुप्येविर-णडौ।। ४-१५०।। क्रपो वहो णिः।।४-१५१।। प्रदीपेस्तेअव-सन्दुम--सन्धुक्काब्भुत्ता।। ४-१५२।। लुभेः संभावः।। ४-१५३।। क्षुभेः खउर-पड्डुहौ।। ४-१५४।। आङो रभे रम्भ-ढवौ ।। ४-१५५।। उपालम्भे झंख-पच्चार-वेलवाः ।। ४-१५६।। अवेर्जुम्भो जम्भा।। ४-१५७।। भाराक्रान्ते नमे, र्णिसुढः ।।४-१५८।। विश्रमे र्णिव्वा ।।४-१५९।। आक्रमेरोहावोत्थार च्छुन्दाः ।। ४ - १६० ।। भ्र मेष्टिरिटिल्ल-ढुंढुल्ल-ढं ढल्ल= चक्कम्म- भम्मड-भमड-भमाड- तल अंट-झंटझम्प-भुम-गुम-फुम-फुस- दुम-दुस-परी-पराः।। ४-१६१।। गमेरइ-अइच्छाणुवज्जावज्जसोक्कुसाक्कुसपच्चड्ड-पच्छन्दणिम्मह- णी-Mणणोलुक्क-पदअ-रम्भ-परिअल्ल- वोल-परिअल णिरिणास णिवहावसेहावहरा ।। ४-१६२।। आङा अहिपच्चुअः।। ४-१६३।। समा अब्भिडः ।। ४-१६४।। अभ्याङोम्मत्थः ।। ४-१६५।। प्रत्याङा पलोट्टः ।। ४-१६६।। शमेः पड़िसा-परिसामौ ।। ४–१६७।। रमेः संखुड्ड-खेड्डोब्भाव-किलिकिञ्च-कोटुम-मोट्टाय-णीसर-वेल्लाः ।। ४-१६८॥ पुरेरग्घाडाग्यवोध्दुमाङगुमाहिरेमाः।।४- १६९।। त्वरस्तुवर-जअडौ।। ४-१७०।। त्यादिशत्रोस्तूरः ।।४-१७१।। तुरो त्यादौ ।। ४-१७२।। क्षरः खिर-झर-पज्झर-पच्चड-णिच्चल-णिटुआः।। ४-१७३।। उच्छल उत्थल्लः ।। ४-१७४।। विगलेस्थिप्प-निटुहौ ।। ४-१७५।। दलि-वल्योर्विसट्ट-वम्फौ।। ४-१७६।। भ्रंशः फिड-फिट्ट-फुड-फुटचुक्क-भुल्लाः ।।४-१७७|| नरोर्णिरणास-णिवहावसेह-पड़िसा-सेहावहराः ।। ४-१७८|| आवात्काशोवासः ।। ४-१७९।। संदिशेरप्पाहः ।। ४ - १८०।। दृशो निअच्छा पेच्छा वयच्छाव यज्झ-वज्ज-सव्वव-देखो-अक्खावखाव अक्ख-पलोअ-पलअ-निआव आस-पासाः ||४-१८१॥ स्पशः फास-फंस-फरिस-छिव-छिहालंखालिहा:।। ४-१८२।। प्रविशे रिअः ।। ४-१८३।। प्रान्मृश-मुषोर्व्हसः ।। ४-१८४।। पिषे र्णिवह-णिरिणास-णिरिणज्ज-रोञ्च-चड्डा ।। ४-१८५।। भषे(क्कः।। ४-१८६।। कृषेः कड्ढ-साअड्ढाचाणञ्छाइञ्छाः ।। ४-१८७।। असावखोडः ।।४--१८८।। गवेषेर्बुदुल्ल-ढण्ढोल-गमेस-घत्ताः ।। ४-१८९।। श्लिषेः सामग्गावयास-परिअन्ताः ।। ४-१९०।। म्रक्षे श्रचोप्पडः ।। ४-१९१।। कांक्षेराहहिलंघाहिलंख-वच्च- वम्फ-मह-सि-विलुम्पाः।।४-१९२।। प्रतीक्षेः सामय-विहीर-विरमाला।। ४-१९३॥ तक्षे स्तच्छ-चच्छ-रम्प-रम्फाः ।।४-१९४।। विकसेः कोआस वोसट्टी ॥४-१९५।। हसे गुज।। ४-१९६।। स्रंसेहँस-डिम्भौ ।। ४-१९७।। त्रसेर्डर बोज्ज वज्जाः।। ४-१९८॥ न्यसोणिम-णुमौ।। ४-१९९।। पर्यसः पलोट-पल्लट-पल्हत्थाः।। ४-२००।। निःश्वसे झङ्खः।।४-२०१।। उल्लसे रूस लोसुम्भ-णिल्लस-पुलआअ-गुजोल्लारोआः।।४-२०२।। भासेर्भिसः ।।४-२०३।। ग्रसेर्घिसः।। ४-२०४।। अवाद्गाहेर्वाहः ४-२०५।। आरुहेश्चड-वलग्गौ।। ४-२०६।। मुहेर्गुम्म-गुम्मडौ।। ४-२०७।। दहेरहिऊलालुं खौ।। ४-२०८।। ग्रहो वल-गेण्ह-हर-पंग-निरुवाराहि पच्चुआः ।। ४-२०९।। क्त्वा-तुम्-तव्येषु-घेत् ।। ४-२१०।। वचो वोत्।। ४-२११।। रुद-भुज-मुचां तोन्त्यस्य।। ४-२१२।। दृशस्तेन ट्ठः।।-२१३।। आ कृगो भूत-भविष्यतोश्च।। ४-२१४।। गमिष्यमासां
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XXVI : हेम प्राकृत व्याकरण छः।।४-२१५॥ छिदि-भिदो न्दः।। ४-२१६।। युध-बुध-गृध-क्रुध-सिध-मुहांज्झः ।। ४-२१७।। रुधोन्ध-म्भौ च ॥ ४-२१८।। सद-पतोर्डः।। ४-२१९।। क्वथ-वर्धा ढः ।। ४-२२०।। वेष्टः।। ४-२२१।। समोल्लः ।। ४- २२२।। वोदः।। ४-२२३।। स्विदां ज्जः।। ४-२२४।। व्रज-नृत-मदांच्चः ।। ४-२२५।। रूद-नमोर्वः।। ४-२२६ ।। उद्विजः ४-२२७।। खाद-धावो लुंक।। ४-२२८।। सृजोरः।। ४-२२९।। शकादीनां द्वित्वम् ॥४-२३०।। स्फुटि-चलेः।।४-२३१।। प्रादेर्मीलेः।। ४-२३२।। उवर्णास्यावः ४-२३३।। ऋवर्णास्यारः ४-२३४।। वृषादीनामरिः।। ४-२३५ ।। रुषादीनां दीर्घः।। ४-२३६।। युवर्णस्य गुणः।। ४-२३७|| स्वराणां स्वरः।। ४-२३८|| व्यञ्जनाददन्ते।। ४-२३९।। स्वरादनतो वा।। ४-२४०।। चि-जि-श्रृ-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो हस्वश्च।। ४-२४१।। नवा कर्म-भावे व्व क्यस्य च लुक्।। ४-२४२।। म्मश्चेः।। ४- २४३।। हन्खनोन्त्यस्य ।। ४-२४४।। ब्भो दुह-लिह-वह-रूधामुच्चातः ।। ४-२४५।। दहो ज्झः।। ४-२४६।। बन्धो न्धः।। ४-२४७।। समनूपादूधेः।।४-२४८।। गमादीनां द्वित्वम्।।४-२४९।। ह-कृ-तृ-जामीरः ।। ४-२५०।। अर्जेर्विढप्पः।। ४-२५१।। ज्ञो णव्व-णज्जौ।। ४-२५२।। व्याहगेर्वाहिप्पः।। ४-२५३।। आरभेराढप्पः।। ४-२५४॥ स्निह-सिचोः सिप्पः।। ४-२५५।। ग्रहेर्घप्पः।। ४-२५६।। स्पृशे रिछप्पः।। ४-२५७।। क्तेनाप्फण्णादयः।। ४-२५८|| धातवोर्थान्तरेपि।। ४-२५९।। तो दोना दो शौरसेन्यामयुक्तस्य।। ४-२६०।। अधः क्वचित्।। ४-२६१।। वादेस्तावति।। ४-२६२।। आ आमन्त्र्ये सौ वेनो नंः।। ४-२६३।। मो वा ।। ४-२६४।। भवद्भगवतोः।। ४-२६५।। न वा र्यो य्यः।। ४-२६६।। थो धः।। ४-२६७।। इह-हचोर्हस्य।। ४-२६८।। भुवो भः।। ४-२६९।। पूर्वस्य पुरवः ४-२७०।। क्त्व इय-दणौ।। ४-२७१।। क-गमो डडअः।। ४-२७२।। दि रिचे चोः।। ४-२७३।। अतो देश्च।।४-२७४|| भविष्यति स्सि: ॥४-२७५।। अतो उसे र्डा दो-डा दू।। ४-२७६ ।। इदानीमो दाणि।। ४-२७७|| तस्मात्ताः।। ४-२७८|| मोन्त्ययाण्णो वेदे तोः ।। ४-२७९।। एवार्थ य्ये व।। ४-२८०।। हजे चेट्याह्वाने।। ४-२८१।। हीमाणहे विस्मय-निर्वेदे।। ४-२८२।। णं नन्वर्थ।। ४-२८३॥ अम्महे हर्षे।। ४-२८४॥ ही ही विदूषकस्य।। ४-२८५|| शेषं प्राकृतवत् ।।४-२८६।। इति शौरसेनी-भाषा-वितरण समाप्त अत एत् सौ पुसि मागध्याम्।। ४-२८७।। र-सोर्ल-शौ।। ४-२८८।। स-षोः संयोगे सोग्रीष्मे।।४-२८९।।ट्ट-ष्ठयोस्टः।। ४-२९०।। स्थ-र्थयोस्तः।। ४-२९१।। ज-द्य-यां-यः।। ४-२९२।। न्य-ण्य-ज्ञ जांबः ।। ४-२९३।। व्रजो जः।। ४-२९४।। छस्य शचोनादौ।। ४-२९५।। क्षस्य.कः।। ४-२९६।। स्कः प्रेक्षाचक्षोः।। ४-२९७।। तिष्ठ श्चिष्ठः।। ४-२९८|| अवर्णाद्वा ङसो डाहः ॥४-२९९॥ आमो डाहँ वा ।। ४-३००।। अहं वयमोर्हगे॥ ४-३०१।। शेषं शौरसेनीवत्।। ४-३०२।। ज्ञोबः पैषाच्याम्।। ४-३०३॥ राज्ञो वा चिम्॥४-३०४।। न्य-णयोः ।। ४-३०५।। णो नः ।। ४-३०६।। तदोस्तः।। ४-३०७।। लोळः ४-३०८|| श-षोः सः।। ४-३०९।। हृदये यस्य पः।। ४-३१०।। टोस्तुर्वा ।। ४-३११।। क्त्व स्तूनः।। ४-३१२।। द्धृन-त्थू नौ ष्ट्वः।। ४-३१३।। र्य-स्न-ष्टां रिय-सिन-सटाः क्वचित्।। ४-३१४।। क्यस्येय्यः।। ४-३१५।। कृगो डीरः ।। ४-३१६।। याद्दषादे १स्तिः ।। ४-३१७।। इचेचः।। ४-३१८।। आ-ते श्रच।। ४-३१९।। भविष्यत्येय्य एव ।। ४-३२०।। अतो उसे र्डातो-डातु।।४-३२१।। त दिदमोष्टा नेन स्त्रियां तु नाए।। ४-३२२।। शेषं शौरसेनीवत्।। ४-३२३।। नकग-च-जादि-षट्-शम्यन्तसूत्रोक्तम्। पैशाच्यां क-ग-च-ज-त-द- प-य-वां।। ४-३२४।। चूलिका-पैषाचिके तृतीय-तुर्ययोराद्य-द्वितीयौ।। ४-३२५।। रस्य लो वा।। ४-३२६।। नादि-युज्योरन्येषाम्॥ ४-३२७।। शेषं प्राग्वत्।। ४-३२८।। स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रंषे ।। ४-३२९॥ स्यादौ दीर्घ-हस्वौ।। ४-३३०।। स्यमोरस्योत्।। ४-३३१।। सौ पुंस्योद्वा।। ४-३३२।। ॥ एट्टि ४-३३३।। ङ नेच्च।। ४-३३४।। भिस्येद्वा।। ४-३३५।। ङसे हे-हू।। ४-३३६।। भ्यसो हु।। ४-३३७|| उसः सु-हो-स्सवः।। ४-३३८।। आमो हं।। ४-३३९।। हुंचेदुदभ्याम्।। ४-३४०।। ङसि-भ्यस्-डीनां हे-हुं-हयः।। ४-३४१|| आट्टो णानुस्वारौ।। ४-३४२।। एं येदुतः।। ४-३४३।। स्यम्-जस्-शसां लुक्।। ४-३४४ ।। पष्ठयाः।। ४-३४५।। आमन्त्र्ये जसो होः।। ४-३४६।। भिस्सुपोर्हि।। ४-३४७।। स्त्रियां जस्-शसोरूदोत्।। ४-३४८|| ट ए।। ४-३४९।। ङस्-ङस्योर्हे ।। ४-३५०।। भ्यसमो हुँः।। ४-३५१।। डे हिं।। ४-३५२।। क्लीबे जस्-शसोरिं।। ४-३५३।। कान्तस्यात उंस्यमोंः ॥ ४-३५४॥ सर्वादेर्डसेहीं ।। ४-३५५।। किमो डिहे वा।। ४-३५६।। डे हि।। ४-३५७।। यत्तत्किंभ्यो ङसो डासुन वा।। ४-३५८।। स्त्रियां डहे।। ४-३५९।। यत्तदः स्यमोधुं त्र।। ४-३६०।। इदम इमुः क्लीबे।। ४-३६१ ।। एतदः स्त्री-पुं-क्लीबे एह-एहो-एहु।। ४-३६२।। एइर्जस्-शसोः।।
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हेम प्राकृत व्याकरण : XXVII ४-३६३।। अदस ओइ ।। ४-३६४॥ इदम आयः।। ४-३६५।। सर्वस्य साहो वा।। ४-३६६।। किमः काइं-कवणौ वा।। ४-३६७।। युष्मदः सौ तुहं ।। ४-३६८।। जस्-शसोस्तुम्हे तुम्हई।। ४-३६९।। टा-ङय्मा पइं पड़।। ४-३७० ।। भिसा तुम्हेहिं ।। ४-३७१।। ङसि-ङस्भ्यां तउ तुज्झ तुध्र।। ४-३७२।।भ्यसाम्भ्यां तुम्हह।। ४-३७३।। तुम्हासु सुपा।। ४-३७४ ।। सावस्मदो हउं।। ४-३७५ ।। जस्-शसोरम्हे अम्हई ।। ४-३७६।। टा-ङयमा मई ॥ ४-३७७|| अम्हेहिं भिसा।। ४-३७८।। महु मज्झुङसि-ङस्-भ्याम्।। ४-३७९।। अम्हहं भ्यसाम्-भ्याम्।। ४-३८०।। सुपा अम्हासु।। ४-३८१।। त्यादेराद्य-त्रयस्य संबन्धिनो हिं न वा।। ४-३८२।। मध्य-त्रयस्यादयस्य हिः।। ४-३८३।। बहत्वे हः।। ४-३८४|| अन्त्य-त्रयस्यदयस्य ।। ४-३८५|| बहत्वे हं।। ४-३८६।। हि-स्वयोरिदुदेत्।। ४-३८७।। वय॑ति-स्यस्य सः।। ४-३८८।। क्रियेः कीसु।। ४-३८९।। भुवः पर्याप्तौ हुच्चः।। ४-३९०।। ब्रूगो ब्रूवो वा।। ४-३९१।। ब्रजे बुजः।। ४-३९२।। द्दशः प्रस्सः ।। ४-३९३।। ग्रहे गुणहः।। ४-३९४ ।। तक्ष्यादीनां छोल्लादयः।। ४-३९५।। अनादौ स्वरादसंयुक्तानां क-ख-त-थ-प-फां-म- ग-घ-द-ध-ब-भाः।। ४-३९६।। मोनुनासिको वो वा ।। ४-३९७।। वाधा रो लुक् ।। ४-३९८।। अभूतोपि क्वचित्।। ४-३९९।। आपद्विपत्-संपदां द इः।। ४-४०० ।। कथं यथा-तथां थादेरेमेमेहेधा डितः।। ४-४०१।। याद्दक्ताद्दक्कीद्दगीद्दशांदादे र्डे हः।। ४-४०२।। अतां डइसः।। ४-४०३।। यत्र-तत्रयोस्त्रस्य डिदेत्य्वत्तु।। ४-४०४ ।। एत्थु कुत्रा।।। ४-४०५।। यावत्तावतोर्वादेर्मउंमहि।। ४-४०६।। वा यत्तदोतोर्डेवडः ।। ४-४०७।। वेदं-किमोर्यादेः।। ४-४०८।। परस्परस्यादिरः।। ४-४०९।। कादि-स्थैदोतोरूच्चार-लाघवम् ।। ४-४१०।। पदान्ते उ-हुं-हिं-हंकाराणाम् ।। ४-४११।। म्हो भो वा।। ४-४१२।। अन्याद्दशोन्नाइसावराइसौ ।। ४-४१३।। प्रायसः प्राउ-प्राइव-प्राइम्व-पग्गिम्वाः।। ४-४१४।। वान्यथोनुः।। ४-४१५।। कुतसः कउ कहन्तिहु।। ४-४१६।। ततस्तदोस्तोः।। ४-४१७।। एवं-परं-सम-ध्रुवं-मा-मनाक-एम्व पर समाणु ध्रुवुमंमणाउं ।। ४-४१८।। किलाथवा-दिवा-सह-नहे: किराहवइ दिवेसहुँ नाहिं।। ४-४१९।। पश्चादेवमेवैवेदानी-प्रत्युतेतसः पच्छइ एम्वइ जि एस्वहि पच्चलिउ एत्तहे।।४-४२०।। विषणणोक्त-वर्त्मनो-वुन्न-वुत्त-विच्चं।।४-४२१।। शीघ्रादीनां वहिल्लादयः।। ४-४२२।। हुहुरू-घुरघादय शब्द-चेष्टानुकरणयोः।। ४-४२३|| घइमादयोनर्थकाः।। ४-४२४।। तादर्थ्य केहि-तेहि-रेसि-रेसिं-तणेणाः ।। ४-४२५।। पुनर्विनः स्वार्थे डुः।। ४-४२६।। अवष्यमो डें-डौ।। ४-४२७।। एकरासोडि।। ४-४२८।। अ-डड-डुल्लाः स्वार्थिक-क-लुक् च।। ४-४२९।। योग जाश्चैषाम्।। ४-४३०।। स्त्रियां तदन्ताड्डीः।। ४-४३१।। आन्तान्ताड्डाः।।४-४३२।। अस्येदे।। ४-४३३।। युष्मदादेरीयस्य डारः।। ४-४३४।। अतो.त्तुलः।। ४-४३५।। त्रस्य डेतहे।। ४-४३६ ।। त्व-तलोः प्पणः।। ४-४३७।। तव्यस्य इएव्वउं एव्वउं एवा।। ४-४३८।। क्त्व इ-इवि-अवयः।। ४-४३९।। एप्प्येप्पिणवेव्येयाविणवः ।। ४-४४०।। तुम एवमणाणहमणहिं च ।।४-४४१।। गमेरेप्पिणवेप्पयोरेलुंग वा।। ४-४४२।। तृनोणअः।। ४-४४३।। इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणवः।। ४-४४४।। लिंगमतन्त्रम्।। ४-४४५।। शौरसेनीवत्।। ४-४४६।। व्यत्ययश्च।। ४-४४७।। शेषं संस्कृतवत् सिद्धम्।। ४-४४८।।
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XXVIII : हेम प्राकृत व्याकरण
क्रमांक विषय
१
४
५
v. o. a. av. a.
९
•2. 5. w. 2.2.0.
१५
२.१
2. w.
२२
२३
२७
२८
२९
३०
वीप्सात्मक शब्दों के संबंध में प्रत्यय- लोप - विधि
प्राकृत भाषा के अकारान्त पुल्लिंग-शब्दों के संबंध में विभक्ति - बोधक-प्रत्ययों का संविधान प्राकृत भाषा के इकारान्त-उकारान्त पुल्लिंग शब्दों के संबंध में विभक्ति-बोधक प्रत्ययों का संविधान
प्राकृत-व्याकरण सूत्रानुसार- विषयानुक्रमणिका तृतीय पादः
प्राकृत भाषा के नपुंसकलिंग वाले शब्दों के संबंध में विभक्ति-बोधक प्रत्ययों का संविधान प्राकृत भाषा के स्त्रीलिंग वाले आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त और ऊकारान्त शब्दों के संबंध में विभक्ति-बोधक-प्रत्ययों का संविधान
प्राकृत भाषा के शब्दों के संबोधन के एकवचन में प्राप्तव्य - रूप- विवेचना क्विबन्त शब्दों में विभक्ति-बोधक प्रत्ययों की संयोजना होने पर अन्त्य स्वर को हस्वत्व - प्राप्ति का विधान
'इदम् " शब्द के संबंध में विभक्ति-बोधक-प्रत्ययों का संविधान
'अदस् " शब्द के संबंध में विभक्ति-बोधक-प्रत्ययों का संविधान " युष्मद् " सर्वनाम शब्द के प्राकृत भाषा में आदेश - प्राप्त रूप-समूह 'अस्मद्' सर्वनाम शब्द के प्राकृत भाषा में आदेश प्राप्त रूप-समूह संख्या-वाचक शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में विभक्ति-बोधक-प्रत्ययों का संविधान अवशिष्ट शब्द-रूपावलि के संबंध में विशेष विवरण
44
४३
४४ से ४८
४९ से ५५
५६ से ५७
प्राकृत भाषा के ऋकारान्त शब्दों संबंध में विभक्ति-बोधक प्रत्ययों का संविधान "राजन्" शब्द के प्राकृत- रूपान्तर में विभक्ति बोधक-प्रत्ययों का संविधान हलन्त नकारान्त संस्कृत शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में विभक्ति बोधक प्रत्ययों का संविधान अकारान्त सर्वनामों के प्राकृत रूपान्तर में विभक्ति बोधक प्रत्ययों का संविधान "किम्, तद्, यद्, एतद् और इदम् " सर्वनामों के प्राकृत रूपान्तर में विभक्तिबोधक - प्रत्ययों ६२ से ७१, का संविधान
५८ से ६१
से८६
द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की संप्राप्ति का संविधान
चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति की संप्राप्ति का निरूपण
विभिन्न विभक्तियों की परस्पर में व्यत्यय-प्राप्ति तथा स्थानापन्नता का संविधान संज्ञाओं से क्रिया-रूप बनाने की विधि का निर्देश
वर्तमान-काल में तीनों पुरूषों के दोनों वचनों में धातुओं में प्राप्तव्य प्रत्ययों का संविधान संस्कृत धातु " अस् " की प्राकृत भाषा में रूप - व्यवस्था प्रेरणार्थक क्रियापद के रूपों का संविधान
अकारान्त धातुओं के अन्त्य "अ" के स्थान पर काल-बोधक प्रत्ययों की संप्राप्ति होने पर "आ" अथवा "इ" अथवा "ए" की प्राप्ति का निरूपण
44
'कर्मणि-प्रयोग, भावे प्रयोग' विधि से संबंधित प्रत्ययों का संविधान भूतकाल - विधि से संबंधित प्रत्ययों का संविधान
संस्कृत धातु " अस" के भूत-कालीन रूपों का संविधान
"विधि- आत्मक" विधि से संबंधित प्रत्ययों का संविधान
सूत्रांक पृष्ठांक
१
१
२ से १५
२
१६ से २४
२५ से २६
२७ से ३६
३७ से ४२
८०
७२ से ७९
८७ से ८९
९० से १०४
१०५ से ११७
११८ से १२३
१२९
१३०
१३१
१३२ से १३७
१२४
१३८
१३९
से १४५
१४६ से १४८
१४९ से १५३
१५४ से १५५
१६० से १६१
१६२ से १६३
१६४
१६५
८
२६
३०
४७
४३
५४
६४
७१ ८२
८९
१००
११२
११७
१२५
१३३
१३९
१४८
१५०
१५१
१५९
१६१
१७०
१७६
१८४
१९२
१९६
१९९
२००
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३१ ३२ ३३
३४
हेम प्राकृत व्याकरण : XXIX "भविष्यत्-काल" से संबंधित प्रत्ययों का संविधान
१६६ से १७२ २०१ आज्ञार्थक आदि अवशिष्ट-लकार-विधि से संबंधित प्रत्ययों का संविधान
१७३ से १७६ २१० सभी लकारों में तथा इनके सभी कालों एवं दोनों वचनों में और तीनों पुरूषों में समान रूप से प्रयुक्त होने वाले "ज्ज" तथा "ज्जा' प्रत्ययों का संविधान
१७७ २१५ कुछ लकारों में अकारान्त के सिवाय शेष स्वरान्त धातुओं के और प्रयुज्यमान प्रत्ययों के मध्य में वैकल्पिक रूप से प्राप्त होने वाले विकरण प्रत्यय रूप"ज्ज" और "ज्जा" की संयोजना का संविधान
१७८ "क्रियातिपत्ति"विधान के लिये प्राप्तव्य प्रत्ययों का संविधान
१७९से १८० २२२ "वर्तमान-कृदन्त" अर्थक प्रत्ययों का निरूपण
१८१ २२५ "स्त्रीलिंग के सद्भाव'' में वर्तमान-कृदन्त अर्थक प्रत्ययों की संविवेचना
१८२ २२६
२१९
३७
तृतीय-पाद-विषय-सूची-सार-संग्रह संज्ञाओं और विशेषणों का विभक्ति-रूप प्रदर्शन . सर्वनाम शब्दों की विभक्ति-रूप-विवेचना रूप-संबंधी विविध-विवेचना वाक्य-रचना-प्रकार-प्रदर्शन क्रियापदों का विविध रूप-प्रदर्शन
१से ५७ ५८ से १२४ १२५ से १३० १३१ से १३७ १३८ से १८२
८२ १४५ १५० १५९
चतुर्थ पादः १ संस्कृत-धातुओं के स्थान पर प्राकृत भाषा में विविध ढंग से आदेश प्राप्त धातुओं का निरूपण १ से २५९ २२८ शौरसेनी-भाषा-निरूपण
२६० से २८६ २८६ मागधी-भाषा-विवेचना
२८७ से ३०२ २९६ पैशाची-भाषा-वर्णन
३०३ से ३२४ ३०६ चूलिका-पैशाचिक-भाषा-प्रदर्शन
३२५ से ३२८ ३१२ अपभ्रंश-भाषा-स्वरूप-विधान
३२९ से ४४६ ३१४ प्राकृत आदि भाषाओं में "व्यत्यय" विधान
४४७ ३९३ ८ शेष साधनिका में "संस्कृतवत्" का संविधान
४४८ ३९४ नोट : १ आदेश प्राप्त प्राकृत-धातुओं को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है, जो कि क्रम से इस प्रकार है :
१ कुछ 'तत्सम' की कोटि की है। २ कुछ 'तद्भव' रूप वाली है और ३ कुछ 'देशज' श्रेणी वाली है। २ मूल प्राकृत भाषा का नाम 'महाराष्ट्री' प्राकृत है और शेष भाषाएं सहयोगिनी प्राकृत-भाषाएं कहीं जा सकती है। ३ जैन आगमों की भाषा मूलतः "अर्ध-मागधी" है; परन्तु इसका आधार 'महाराष्ट्री-प्राकृत' ही है।
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आचार्य हेमचन्द्र प्रणीतम्
प्राकृत-व्याकरणम् (प्रियोदया हिन्दी - व्याख्या सहितम्) द्वितीय भाग
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।। ॐ अर्हत्-सिद्धेभ्यो नमः ।।
आचार्य हेमचन्द्र रचितम् (प्रियोदय हिन्दी - व्याख्यया समलंकृतम्)
प्राकृत - व्याकरणम् तृतीय पाद
वीप्स्यात् स्यादेर्वीप्स्ये ७०० स्वरे मो वा ॥ ३ -१॥
वीप्सार्थात्पदात्परस्य स्यादेः स्थाने स्वरादौ वीप्सार्थे पदे परे मो वा भवति ।। एकैकम् । एक्कमेक्कं । एक्कमेक्केण । अङ्ग अङ्गे । अङ्गमङ्गम् | पक्षे। एक्केक्कमित्यादि ।।
अर्थः- जहाँ तात्पर्य विशेष के कारण से एक ही शब्द का दो बार लगातार रूप से उच्चारण किया जाता है, तो ऐसी पुनरुक्ति को 'वीप्सा' कहते हैं। ऐसे 'वीप्सा' अर्थक पद में यदि प्रारम्भ में स्वर रहा हुआ हो तो वीप्सा अर्थक पद में रहे हुए विभक्ति वाचक 'सि' आदि प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक रूप में 'म्' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है। वैकल्पिक पक्ष होने से जहाँ विभक्ति - वाचक प्रत्ययों के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति नहीं होगी ; वहाँ पर विभक्ति - वाचक प्रत्ययों का लोप हो जाएगा। उदाहरण इस प्रकार हैं:- एकैकम्-एक्कमेक्कं अथवा एक्क्कम् ॥ एकेन एकेन एक्कमेक्केण ।। (पक्षान्तर में एक्क्ण) । अङ्ग अङ्गे - अङ्गमङ्गम्म पक्षान्तर में अङ्गाङ्गम्म होगा ।
-
एकैकम्:- संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप एक्कमेक्कं और एक्क्क होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या - २-९८ से दोनों 'क' वर्णों के स्थान पर द्वित्व 'क्क' वर्ण की प्राप्ति; ३-१ से वीप्सा अर्थक पद होने से वैकल्पिक रूप से प्रथम रूप
संस्कृती लुप्त विभक्ति वाचक प्रत्यय के स्थान पर 'म' आदेश की प्राप्ति; १ - १४८ से द्वितीय रूप में 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'एक्कमेक्क' और 'एक्केक्क' सिद्ध हो जाते हैं।
एकमेकेन :- संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एक्कमेक्कण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ९८ से दोनों 'क' वर्णों के स्थान पर द्वित्व 'क्क' वर्ण की प्राप्ति; ३-१ से वीप्सा अर्थक पद होने से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी विभक्ति वाचक प्रत्यय 'टा-इन' के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति; १ - ५ से प्राप्त हलन्त 'म्' आदेश के साथ में आगे रहे हुए 'ए' स्वर की संधि; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होती है और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'एक्कमेक्केण' रूप सिद्ध हो जाता है।
अ अ संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अङ्गमङ्गम्म होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-१ से वीप्सा - अर्थक पद होने से प्रथम पद 'अङ्गे' में संस्कृत सप्तमी विभक्ति वाचक प्रत्यय 'डि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' आदेश; १-५ से प्राप्त आदेश के रूप हलन्त 'म्' में आगे रहे हुए 'अ' स्वर को संधि; और ३- ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'डि-इ' (के स्थानीय रूप 'ए') के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अङ्गमङ्गम्म रूप सिद्ध हो जाता है ||३ - १ ||
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2 : प्राकृत व्याकरण
अतः से?ः ॥३-२॥ अकारान्तानाम्नः परस्य स्यादेः सेः स्थाने डो भवति ।। वच्छो।।
अर्थः- प्राकृत पुल्लिंग अकारांत शब्दों में प्रथमा विभक्ति में संस्कृत प्रथमा विभक्ति वाचक प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'डो' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डो' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से अकारान्त प्राकृत शब्दों में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस अन्त्य 'अ' का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् प्राप्त हलन्त शब्द में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:- वृक्षः-वच्छो।। 'वच्छो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१७ में की गई है ।।३-२।।
वैतत्तदः ॥३-३॥ एतत्तदोकारात्परस्य स्यादेः से? वा भवति ।। एसो एस। सो णरो। स णरो।।
अर्थः-संस्कृत सर्वनाम रूप 'एतत्' और 'तत्' के पुल्लिंग रूप 'एषः' और 'सः' के प्राकृत पुल्लिंग रूप 'एस' और 'स' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'डो-ओ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। जैसे:- एषः-एसो अथवा एस। सः नरः-सो णरो अथवा स णरो।।
"एसो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-११६ में की गई है। 'एस' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है। 'सो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है। 'णरो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२२९ में की गई है। 'स' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है।।३-३।।
जस्-शसोलुंक् ।।३-४॥ अकारान्तानाम्नः परयोः स्यादिसंबन्धिनो र्जस-शसोलुंग् भवति।। वच्छा एए वच्छे पेच्छ।।
अर्थः-अकारान्त प्राकृत पुल्लिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में क्रम से संस्कृत प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' का लोप हो जाता है। इस प्रकार प्रथमा विभक्ति में 'जस्' प्रत्यय का लोप हो जाने के पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होती है। जैसेः- वृक्षाः एते-वच्छा एए। इसी प्रकार से द्वितीया विभक्ति में भी 'शस्' प्रत्यय का लोप हो जाने के पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होती है एवं कभी सूत्र-संख्या ३-१४ से अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे वृक्षान् पश्य-(वच्छा अथवा) वच्छे पेच्छ अर्थात् वृक्षों को देखो। __'वृक्षाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छा' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त छ' को द्वित्व'छछ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व "छ' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति: ३-४ से प्रथमा विभक्ति में अकारान्त पल्लिग के बहवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'वच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है।
एतेः- संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एए' होता है, इसमें सूत्र-संख्या १–१७७ से 'त' का लोप होकर 'एए' रूप सिद्ध हो जाता है। अथवा १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतत्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'त' का लोप; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप; ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय डे में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से प्राप्त रूप 'एअ' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा
होकर इस 'अ' का लोप और तत्पश्चात् प्राप्त रूप 'ए+ए=एए' की सिद्धि हो जाती है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 3 वृक्षान्ः- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छे' होता है। इसमें 'वच्छ' रूप तक की सिद्धि उपर्युक्त सभी इसी सूत्र के अनुसार (जानना) चाहिए; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप और ३-१४ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'शस्' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'वच्छे' रूप सिद्ध हो जाता है। 'पेच्छ':- रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।३-४।।
अमोस्य ।।३-५॥
अतः परस्यामोकारस्य लुग् भवति ।।वच्छं पेच्छ।। अर्थः- अकारान्त में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' में स्थित आदि स्वर 'अ' का प्राकृत में लोप हो जाता है और शेष 'म्' प्रत्यय की ही प्राकृत में प्राप्ति होती है। जैसे:- वृक्षम् पश्य-वच्छं पेच्छ अर्थात् वृक्ष को
देखो।
'वच्छं':- रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। 'पेच्छ':- क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।।३-५।।
टा-आमोर्णः ॥३-६।। अतः परस्य टा इत्येतस्य षष्ठी-बहुवचनस्य च आमो णो भवति ॥वच्छेण। वच्छाण।। ___ अर्थः- अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश रूप से प्राप्ति होती है एवं सूत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे:- वृक्षण-वच्छेण।
इसी प्रकार से अकारान्त शब्दों में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश रूप से प्राप्ति होती है एवं सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- वृक्षानाम्-वच्छाण अर्थात् वृक्षों का अथवा वृक्षों की। 'वच्छेण रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२७ में की गई है।
वृक्षानाम- संस्कृत षष्ठ्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छाण' होता है। इसमें 'वच्छ' रूप तक की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ के अनुसार (जानना); ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थानीय रूप 'नाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति और ३-१२ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ-स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'वच्छाण' रूप सिद्ध हो जाता है।।३-६।।
भिसो हि हिँ हिं॥३-७॥ अतः परस्य भिसः स्थाने केवलः सानुनासिकः सानुस्वारश्च हिर्भवति ॥ वच्छेहि। वच्छेहिँ वच्छेहिं कया छाही। ___ अर्थः- अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में कभी केवल 'हि' प्रत्यय आदेश रूप में प्राप्त होता है; कभी सानुनासिक 'हिँ प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है; तो कभी सानुस्वार "हिं प्रत्यय का आदेश हुआ करता है; एवं सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'हि', 'हिँ', 'हिं' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- वृक्षः कृता छाया-वच्छेहि अथवा वच्छेहिँ अथवा वच्छेहिं कया छाही अर्थात् वृक्षों द्वारा की हुई छाया।।
वृक्षैः- संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वच्छेहि', 'वच्छेहिँ और 'वच्छेहिं होते हैं। इनमें 'वच्छ' रूप तक की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ के अनुसार (जानना); ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत
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4 : प्राकृत व्याकरण प्रत्यय 'भिस्' के स्थानीय रूप 'ऐस्' के स्थान पर प्राकृत के क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'हि', 'हिँ', 'हिं' प्रत्ययों की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'हि' अथवा 'हिँ' और 'हिं' के पूर्वस्थ 'वच्छ' शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर क्रम से 'वच्छेहि' 'वच्छेहिँ' और 'वच्छेहि' रूपों की सिद्धि हो जाती है। 'कया' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-२०४ में की गई है। 'छाही' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या-१-२४९ में की गई है ।।३-७।।
ङसेस् त्तो-दो-दु-हि-हिन्तो-लुकः ॥३-८।। अतः परस्य उसेः तो दो दु हि हिन्तो लुक् इत्येते षडादेशाः भवन्ति । वच्छत्तो। वच्छाओ। वच्छाउ । वच्छाहि । वच्छाहिन्तो। वच्छा ।। दकार करणं भाषान्तरार्थम् ।।
अर्थः- अकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थानीय रूप 'आत्' के स्थान पर प्राकृत में 'तो', 'दो ओ; 'दु=उ', 'हि' और 'हिन्तो' प्रत्यय क्रमशः आदेश रूप में प्राप्त होते हैं और कभी-कभी इन प्रत्ययों का लोप भी हो जाता है; ऐसी अवस्था में मूल शब्दरूप के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१२ से 'आ' की प्राप्ति होकर प्राप्त रूप पंचमी-विभक्ति के अर्थ को प्रदर्शित कर देता है। यों पंचमी-विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में छह रूप हो जाते हैं। पाँच रूप तो प्रत्यय-जनित के होते हैं और छठा रूप प्रत्यय-लोप से होता है। इन छह ही रूपों में सूत्र-संख्या ३-१२ से प्रत्ययों की क्रमिक रूप से संयोजना होने के पहले शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति हो जाती है। 'तो' प्रत्यय की संयोजना में अके स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर पुनः सूत्र-संख्या १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' हो जाया करता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- वृक्षात्-वच्छत्तो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छाहिन्तो और वच्छा अर्थात् वृक्ष से। 'दो' और 'दु' प्रत्ययों में स्थित 'दकार' अन्य भाषा 'शौरसेनी' के पंचमी विभक्ति के एकवचन की स्थिति को प्रदर्शित करने के लिये व्यक्त किया गया है: तदनुसार प्राकृत में स्वभावतः अथवा सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप करके शेष 'ओ' और 'उ' प्रत्ययों की ही प्राकृत-रूपों में संयोजना की जाती है। यह अन्तर अथवा विशेषता ध्यान में रहनी चाहिये। _वृक्षात्:- संस्कृत पञ्चम्यन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप वच्छत्तो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छाहिन्तो
और वच्छा होते हैं इनमें 'वच्छ' रूप तक की साधनिका सूत्र-संख्या ३-४ के अनुसार; ३-१२ से प्राप्त रूप 'वच्छ' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ओ' की प्राप्ति और ३-८ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में क्रम से 'त्तो', 'ओ', 'उ', 'हि', 'हिन्तो' और 'प्रत्यय-लोप' की प्राप्ति होकर क्रम से वच्छत्तो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छाहिन्ता और वच्छा रूप सिद्ध हो जाते हैं। प्रथम रूप 'वच्छत्तो' में यह विशेषता है कि उपर्युक्त रीति से प्राप्तव्य रूप 'वच्छात्तो' से सूत्र-संख्या १-८४ से पुनः दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर 'वच्छत्तो रूप (ही) सिद्ध होता है ।।३-८||
भ्यसस् त्तो दो दु हि हिन्तो सुन्तो ॥३-९।। अतः परस्य भ्यसः स्थाने तो दो, दु, हि, हिन्तो, सुन्तो इत्यादेशाः भवन्ति। वृक्षेभ्यः। वच्छत्तो। वच्छाओ। वच्छाउ। वच्छाहि। वच्छेहि। वच्छाहिन्तो। वच्छेहिन्तो वच्छासुन्तो। वच्छेसुन्तो।।
अर्थः- अकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय भ्यस् भ्यः के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'तो'; 'दो-ओ'; 'हि'; "हिन्तो' और 'सुन्तो' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। सूत्र-संख्या ३-१२ से 'तो' प्रत्यय, 'ओ' प्रत्यय.और 'उ' प्रत्यय के पूर्व शब्दान्त्य हस्व-स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होती है। 'त्तो' प्रत्यय की संयोजना में यह विशेषता है कि 'आ' की प्राप्ति होने पर पुनः सूत्र-संख्या १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' हो जाता है। इसी प्रकार से 'हि','हिन्तो' और 'सुन्तो' प्रत्ययों के संबंध में यह विधान है कि सूत्र-संख्या ३-१३ से शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर कभी 'आ' की प्राप्ति होती है तो कभी सूत्र-संख्या ३-१५ से 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति भी हो
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 5 जाती है। यों 'हि', हिन्तो' और 'सुन्तो' प्रत्ययों के योग से अकारान्त शब्द के छह रूप हो जाते हैं। तदनुसार कुल मिलाकर पंचमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त में नौ रूप होते हैं; जो कि इस प्रकार है:- वृक्षेभ्य-(१) वच्छत्तो, (२) वच्छाओ, (३) वच्छाउ, (४) वच्छाहि, (५) वच्छेहि, (६) वच्छाहिन्तो, (७) वच्छेहिन्तो (८) वच्छासुन्तो और (९) वच्छेसुन्तो अर्थात् वृक्षों से।
वृक्षेभ्यः- संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप वच्छत्तो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छेहि, वच्छाहिन्तो, वच्छेहिन्तो, वच्छासुन्तो और वच्छेसुन्ता होते हैं। इनमें 'वच्छ' रूप तक की साधनिका सूत्र-संख्या ३-४ के अनुसार; ३-९ से प्रथमा रूप में 'तो' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त प्रत्यय 'तो' के पूर्वस्थ वच्छ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १-५४ से प्राप्त 'आ' के स्थान पर पुनः 'अ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप वच्छत्तो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय और तृतीय रूप-(वच्छाओ एवं वच्छाउ) में सूत्र-संख्या ३-१२ से वच्छ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; ३-९ से क्रम से 'दो' और 'दु' प्रत्ययों की प्राप्ति और १-१७७ से प्राप्त प्रत्ययों में स्थित 'द्' का लोप होकर क्रम से वच्छाओ और वच्छाउ रूपों की सिद्धि हो जाती है।
शेष चौथे रूप से लगाकर नवें रूप तक में सूत्र-संख्या; ३-१३ से तथा ३-१५ से वच्छ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आ' अथवा 'ए' की प्राप्ति और ३-९ से क्रम से 'हि' 'हिन्तो' और 'सुन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर यथा रूप वच्छाहि, वच्छेहि, वच्छाहिन्तो, वच्छेहिन्तो, वच्छासुन्तो और वच्छेसुन्तो रूपों की सिद्धि हो जाती है।।३-९।।
ङसः स्सः ॥३-१०॥ अतः परस्य उसः संयुक्तः सो भवति ॥ पिअस्स । पेम्मस्स। उपकुम्भं शैत्यम् । उवकुम्भस्स सीअलत्तणं।
अर्थः- अकारान्त शब्दों में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स्स' प्रत्यय की आदेश-प्राप्त होती है। जैसे:- प्रियस्य=पिअस्स अर्थात् प्रिय का। प्रेमण:=पेम्मस्स अर्थात् प्रेम का और उपकुम्भं शैत्यम्-उवकुम्भस्स सीअलत्तणं अर्थात् गूगल नामक लघु वृक्ष विशेष की शीतलता को (देखो)।
प्रियस्य- संस्कृत षष्ठ्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप पिअस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'य' का लोप और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर पिअस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रेमणः संस्कत षष्ठ्यन्त रूप है। इसका प्राकत रूप पेम्मस्स होता है। इसमें सत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-९८ से 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; २-७८ से मूल संस्कृत रूप 'प्रेमन्' में स्थित (ण' के पूर्व रूप) 'न्' का लोप, और ३-१० से संस्कत षष्ठी विभक्ति वाचक प्रत्यय 'ङ सके स्थानीय रूप'अस' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेम्मस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
उपकुम्भम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उवकुम्भस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ३-१३४ से संस्कृत द्वितीया विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी विभक्ति की प्राप्ति तदनुसार ३-१० से संस्कृत द्वितीया विभक्ति के प्रत्यय 'अम्=म्' के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी विभक्ति वाचक प्रत्यय ‘स्स' की प्राप्ति होकर उवकुम्भस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
शैत्यम्-शीतलत्वम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सीअलत्तणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' को प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; २-१५४ से 'त्व' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'त्तण' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर सीअलत्तणं रूप सिद्ध हो जाता है ।।३-१०।।
डे म्मि डे ॥३-११॥ ___ अतः परस्डेर्डित् एकारः संयुक्तो मिश्च भवति ।। वच्छे। वच्छम्मि ।। देवं। देवम्मि। तम्। तम्मि। अत्त
द्वितीया-तृतीययोः सप्तमी (३-१३५) इत्यमो डिः ।।
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6 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः- प्राकृत अकारान्त शब्दों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डि-इ' के स्थान पर 'डे' और संयुक्त 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से मूल अकारान्त शब्दों में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर की इत्संज्ञा होकर उक्त 'अ' का लोप हो जाता है; तत्पश्चात् प्राप्त हलन्त रूप में 'ए' प्रत्यय की संयोजना हो जाती है। जैसे- वृक्षे वच्छे और वच्छम्मि अर्थात् वृक्ष में। सूत्र - संख्या ३- १३७ में ऐसा विधान है कि प्राकृत शब्दों में कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के प्रत्ययों के स्थान पर द्वितीया विभक्ति के प्रत्ययों का विधान होता हुआ भी देखा जाता है एवं उक्त विधानानुसार प्राप्त द्वितीया विभक्ति के सद्भाव में भी तात्पर्य सप्तमी विभक्ति का ही अभिव्यक्त होता है। जैसेः- देवे-देवम् अथवा देवम्मि अर्थात् देवता में। तस्मिन-तम् अथवा तम्मि अर्थात् उसमें कभी-कभी ऐसा भी होता है कि शब्द में द्वितीया अथवा तृतीया विभक्ति के अर्थ में सूत्र - संख्या ३ - १३५ के अनुसार सप्तमी विभक्ति के प्रत्यय संयोजित होते हुए देखे जाते हैं और तात्पर्य द्वितीया अथवा तृतीया विभक्ति का अभिव्यक्त होता है। तदनुसार सप्तमी विभक्ति वाचक 'ङि=इ' होने पर भी उसका अर्थ द्वितीया विभक्ति-वाचक प्रत्यय 'अम्=म्' के अनुसार होता है।
=
वृक्षे संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप वच्छे और वच्छाम्मि होते हैं। इनमें 'वच्छ' रूप तक की साधन सूत्र - संख्या ३-४ के अनुसारः ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में क्रमशः 'ए' और 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रमशः वच्छे और वच्छम्मि रूप सिद्ध हो जाते हैं।
देवे संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप देवम् और देवम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१३७ से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का विधान एवं तदनुसार ३-५ से द्वितीया विभक्ति वाचक प्रत्यय 'म्' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप देवम् सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (देवे - ) देवम्मि में सूत्र - संख्या ३-११ से सप्तमी-विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि = इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर देवम्मि रूप सिद्ध हो जाता है।
तस्मिन् संस्कृत सर्वनाम सप्तम्यन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप तम् और तम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३-१३७ से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का विधान; तदनुसार ३-५ से संस्कृत- सप्तमी विभक्तिबोधक प्रत्यय 'स्मिन्' के स्थान पर प्राकृत में द्वितीया विभक्ति वाचक प्रत्यय 'म्' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'तं' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (तस्मिन्-) तम्मि में सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत सर्वनाम रूप 'तत्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप और ३- ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थानीय रूप 'स्मिन्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'तम्मि' सिद्ध हो जाता है ।।३-११।।
जस्-शस् - ङसि -त्तो- दो- द्वामि दीर्घः ॥ ३-१२।
एषु अतो दीर्घो भवति ।। जसि शसि च। वच्छा।। ङसि । वच्छाओ । 'वच्छाउ' । 'वच्छाहि'। 'वच्छाहिन्तो'। वच्छा।। त्तो दो दुषु ।। वृक्षेभ्यः । वच्छत्तो । ह्रस्वः संयोगे (१ - ८४ ) इति ह्रस्वः । वच्छाओ । वच्छाउ।। आमि। वच्छाण।। ङसिनैव सिद्धे त्तो दो दु ग्रहणं भ्यसि एत्वबाधनार्थम् ।।
अर्थः- प्राकृत अकारान्त शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'जस्' और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'शस्' प्राप्त होने पर अन्त्य 'अ' स्वर का दीर्घ स्वर 'आ' हो जाता है। जैसे:- वृक्षाः वच्छा और वृक्षात्-वच्छा। इसी प्रकार से पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'ङसि=अस्' के स्थान पर आदेश प्राप्त प्रत्यय 'ओ', 'उ','हि', 'हिन्तो' और 'प्रत्यय- लुक्' की प्राप्ति होने पर अन्त्य 'अ' स्वर का दीर्घ स्वर 'आ' हो जाता है। जैसे:- वृक्षात् वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छाहिन्तो और वच्छा। मूल-सूत्र में 'त्तो', 'दो' और 'दु' का जो विशेष उल्लेख किया गया है; उसका तात्पर्य यह है कि पंचमी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में 'तो' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर प्रथम तो अन्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ 'आ' की प्राप्ति होती है; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या १-८४ से पुनः 'आ' को 'अ' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:वृक्षात्-वच्छत्तो और वृक्षेभ्य=वच्छत्तो। 'दो=ओ' और 'दु-उ' प्रत्यय पंचमी - विभक्ति के एकवचन में भी होते हैं और
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 7 बहुवचन में भी होते हैं; तदनुसार दोनों ही वचनों में अन्त्य 'अ' को दीर्घ 'आ' की प्राप्ति होती है। जैसे - वृक्षेभ्य = वच्छाओ और वच्छाउ ।। इसी प्रकार से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में भी संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में आदेश प्राप्त प्रत्यय 'ण' की प्राप्ति होने पर भी अन्त्य 'अ' स्वर को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति हो जाती है । जैसे- वृक्षानाम् = दवच्छाण। मूल - सूत्र में यदि 'ङसि' इतना ही उल्लेख कर देते तो भी पंचमी विभक्ति के एकवचन में आदेश प्राप्त प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर 'अ' को 'आ' की प्राप्ति होती है। ऐसा अर्थ अभिव्यक्त हो जाता; परन्तु पंचमी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में 'त्तो, दो, दु, हि और हिन्तो प्रत्ययों की एकरूपता है, एवं इस प्रकार की एकरूपता होने पर भी जहाँ दोनों वचनों में अन्त्य 'अ' को 'आ' की प्राप्ति होती है वहां बहुवचन में 'हि' और 'हिन्तो' प्रत्यय की संयोजना में सूत्र - संख्या ३-१३ एवं ३-१५ से वैकल्पिक रूप से 'अ' को 'आ' की प्राप्ति भी हो जाया करती है। इस प्रकार मूल - सूत्र में 'तो', 'दो' और 'दु' ग्रहण करके पंचमी - बहुवचन के शेष प्रत्ययों - 'हि' ' हिन्तो' और 'सुन्तो' में 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है- ऐसा विशेष अर्थ प्रति-ध्वनित करने के लिए 'त्तो' 'दो' एवं 'दु' प्रत्ययों को मूल - सूत्र में स्थान दिया गया है। जैसे :- वृक्षेभ्यः = वच्छाहि और वच्छेहि तथा वच्छाहिन्तो और वच्छेहिन्तो । इस प्रकार पंचमी के एकवचन में 'एत्व' का निषेध करने के लिये और बहुवचन में 'एत्व' का विधान करने के लिये 'त्तो', दो और 'दु' प्रत्ययों का उल्लेख किया है।
'वच्छा' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-४ में की गई है।
'वच्छाओ, 'वच्छाउ', 'वच्छाहि', 'वच्छाहिन्तो' और 'वच्छा' रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-८ में की गई है। 'वच्छत्तो', 'वच्छाओ' और वच्छाउ' बहुवचनान्त रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ९ में की गई है। 'वच्छाण' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-६ में की गई है। ३-१२ ।।
भ्यसि वा ॥ ३ - १३॥
भ्यसादेशे परे अतो दीर्घो वा भवति ।। वच्छाहिन्तो । वच्छेहिन्तो । वच्छासुन्तो । वच्छेसुन्तो। वच्छाहि। वच्छेहि।।
अर्थः- पंचमी बहुवचन के संस्कृत प्रत्यय ' भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में आदेश - प्राप्त प्रत्यय ' हिन्तो', 'सुन्तो' और 'हि' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति होती है एवं सूत्र - संख्या ३-१५ से वैकल्पिक पक्ष होने से 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति भी हुआ करती है । जैसे:- वृक्षेभ्यः - वच्छाहिन्तो अथवा वच्छेहिन्तो; वच्छासुन्तो अथवा वच्छेसुन्तो और वच्छाहि अथवा वच्छेहि ।।
वृक्षेभ्यः- संस्कृत पंचम्यन्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप वच्छाहिन्तो, वच्छेहिन्तो, वच्छासुन्तो, वच्छेसुन्तो, वच्छाहि और वच्छेहि होते हैं। इनमें 'वच्छ' रूप तक की साधनिका ३-४ के अनुसार ३ - ९ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर ' हिन्तो' 'सुन्तो' और 'हि' प्रत्ययों की क्रमिक आदेश प्राप्ति; ३ - १३ और ३-१५ से ‘वच्छ' शब्दान्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से तथा क्रम से 'आ' अथवा 'ए' की प्राप्ति होकर वच्छाहिन्तो, वच्छेहिन्ता, वच्छासुन्तो, वच्छेसन्तो, वच्छाहि और वच्छेहि रूपों की सिद्धि हो जाती है । । ३ -१३ ।।
टाण-शस्येत् ।।३-१४॥
टादेशे णे शसि च परे अस्य एकारो भवति ।। टाण । वच्छेण।। णेति किम्। अप्पणा अप्पणिआ। अप्पणइआ । शस्। वच्छे पेच्छ।।
अर्थः- प्राकृत अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ण' की आदेश प्राप्ति होने पर अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- वृक्षेन=वच्छेण अर्थात् वृक्ष से। इसी प्रकार से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में भी संस्कृत प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर नियमानुसार लोप स्थिति प्राप्त होने पर अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- वृक्षान् पश्य=वच्छे पेच्छ अर्थात् वृक्षों को देखो।
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8 : प्राकृत व्याकरण
प्रश्न:- तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'ण' आदेश प्राप्ति होने पर ही अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों उल्लेख किया गया है?
उत्तरः- आत्मा= अप्प आदि शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर सूत्र - संख्या ३-५५, ३-५६ और ३-५७ से 'णा', 'णिआ' और 'इआ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है; तदनुसार तृतीया विभक्ति एकवचन में सूत्र - संख्या ३-६ के अनुसार 'टा' के स्थान पर प्राप्त 'ण' का अभाव हो जाता है और ऐसा होने पर शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं होगी। इसलिए यह भार - पूर्वक कहा गया है कि 'ण' आदेश प्राप्ति होने पर ही 'अ' को 'ए' की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं। जैसे:- आत्मना = अप्पणा, अप्पणिआ और अप्पणाइआ अर्थात् आत्मा से ।
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वच्छेण' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-६ में की गई है।
आत्मना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप अप्पणा, अप्पणिआ और अप्पणइआ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १-८४ से आदि दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २ - ५१ से संयुक्त व्यंजन 'त्म' के स्थान पर 'प' की आदेश प्राप्ति; २- ५१ से संयुक्त व्यंजन 'त्म' के स्थान पर 'प' की आदेश - प्राप्ति; २-८९ से आदेश प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति ३-५६ से प्राप्त रूप 'अप्प' में 'आण' का संयोग; १-८४ से प्राप्त संयोग रूप 'आण' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; १-१० से 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर के आगे 'अण' का 'अ' होने से लोप; और ३-६ से प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'टा' में स्थित 'ट' की इत्संज्ञा होने से 'ट्' का लोप होकर शेष प्रत्यय 'आ' की प्राप्ति होकर अप्पणा रूप सिद्ध हो जाता है । अथवा ३ - ५१ से पूर्व सिद्ध 'अप्प' शब्द में ही तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'राजनवत् आत्मन शब्द सद्भावात्' संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'णा' आदेश की प्राप्ति होकर (अप्पणा) रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय और तृतीय रूप (आत्मना -) अप्पणिआ तथा अप्पणइआ में 'अप्प' रूप तक की साधनिका प्रथम रूपवत्; और ३-५७ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णिआ' और 'णइआ' आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'अप्पणिआ' और 'अप्पणइआ' सिद्ध हो जाते हैं।
वच्छे रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-४ में की गई है।
पेच्छ रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २३ में की गई है । । ३ - १४ ।।
भिस्यपि ।।३ - १५।।
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एषु अत एर्भवति ।। भिस्। वच्छेहि । वच्छेहिँ । वच्छेहिं ।। भ्यस् । वच्छेहि। वच्छेहिन्तो । वच्छेसुन्तो ॥ सुप् | वच्छेसु ॥
अर्थः- प्राकृत अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'भिस्' के आदेश- प्राप्त 'हि', 'हिँ' और हिं की प्राप्ति होने पर; पंचमी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'भ्यस्' के आदेश प्राप्त रूप 'हि, हिन्तो और सुन्तो' की प्राप्ति होने पर और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'सुप' के आदेश प्राप्त रूप 'सु' की प्राप्ति होने पर शब्दान्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे 'भिस्' का उदाहरण:- वृक्षैः वच्छेहि, वच्छेहिँ और वच्छेहिं अर्थात् वृक्षों से। ‘भ्यस्' का उदाहरण वृक्षेभ्यः वच्छेहि, वच्छेहिन्तो और वच्छेसुन्तो अर्थात् वृक्षों से। 'सुप्' का उदाहरणःवृक्षेषु = वच्छेसु अर्था वृक्षों पर अथवा वृक्षों में।
'वच्छेहि','वच्छेहिँ' और 'वच्छेहिं' तृतीयान्त बहुवचन वाले रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-७ में की गई है। 'वच्छेहि', 'वच्छेहिन्तो' और 'वच्छेसुन्तो' पंचम्यन्त बहुवचन वाले रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ९ में की गई है। वच्छेसु रूप क सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २७ में की गई है । ३-१५ ।।
इदुतो दीर्घः ।।३ - १६ ।
इकारस्य उकारस्य च भिस् भ्यस्सुप्सु परेषु दीर्घो भवति ।। भिस् । गिरीहिं । बुद्धीहिं ।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 9
दहीहिं । तरूहिं । धेणूहिं । महूहिं कयं ॥ भ्यस् । गिरीओ । बुद्धीओ । दहीओ । तरूओ । दहीसु धेणूओ । महुओ आगओ ।। एवं गिरीहिन्तो । गिरीसुन्तो आगओ इत्याद्यपि ॥ सुप् । गिरीसु । बुद्धीसु। दहीसू। तरूसु। धेणूसु । महूसु ठिअं।। क्वचिन्न भवति । दिअ-भूमिसु दाण- जलोल्लिआई ।। इदुत इति किम् । वच्छेहिं । वच्छेसुन्तो। वच्छेसु॥ भिस्यस्सु पीत्येव । गिरिं तरूं पेच्छ ।।
अर्थः- प्राकृत ह्रस्व इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग शब्दों में तृतीया विभक्ति के बहुवचन संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर आदेश - प्राप्त 'हि, हिँ और हिं' प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर एवं पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर आदेश - प्राप्त 'ओ, उ, हिंतो और सुन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सुप्' के स्थान पर 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर हस्व अन्त्य स्वर 'इ' का अथवा 'उ' का दीर्घ स्वर 'ई' और 'ऊ' यथाक्रम से हो जाते हैं। जैसे:- 'भिस्' प्रत्यय से संबंधित उदाहरण:गिरिभिः=गिरीहिं; बुद्धिभिः- बुद्धीहिं:, दधिभिः = दहीहिं, तरूभिः =तरूहिं; धेनुभिः = धेहिं और मधुभिः कृतम=महूहिं कयं । इत्यादि ।
‘भ्यस्' से संबंधित उदाहरण :- गिरिभ्यः = गिरीओ, गिरीहिन्तो और गिरीसुन्तो । बुद्धीभ्यः- बुद्धिओ। दधिभ्यः- दहीओ। तरूभ्यः=तरूओ। धेनुभ्य=घेणूओ और मधुभ्यः आगतः = महूओ आगओ। इत्यादि । 'सुप्' से संबंधित उदाहरण: - गिरिषु-गिरीसु । बुद्धिषु = बुद्धीसु । दधिषु = दहीसु । तरूषु = तरूसु । धेनुषु = घेणूसु और मधुषु स्थितम् = महूसु ठि । इत्यादि । किन्हीं शब्दों में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर ह्रस्व अन्त्य 'इ' अथवा 'उ' का दीर्घ 'ई' अथवा 'ऊ' नहीं भी होता है। जैसे:- द्विज - भूमिषु दान-जलार्द्रीकृतानि-दिअ-भूमिसु दाण - जलोल्लिआइ। इस उदाहरण में 'भूमिसु' के स्थान पर ह्रस्व इकारान्त रूप कायम रह कर 'भूमिसु' रूप ही दृष्टिगोचर हो रहा है; यह अन्यत्र भी जान लेना चाहिये ।
प्रश्न- ‘इकारान्त' ‘उकारान्त' शब्दों में ही 'भिस्, भ्यस् और सुप्' प्रत्ययों के प्राप्त होने पर अन्त्य ह्रस्व स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर हो जाता है ऐसा क्यों लिखा है?
उत्तर:- जो प्राकृत शब्द 'इकारान्त' अथवा 'उकारान्त' नहीं है; उन शब्दों में 'भिस्, भ्यस् और 'सुप्' प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर भी अन्त्य ह्रस्व स्वर का दीर्घ स्वर नहीं होता है; अतः ऐसा विधान केवल इकारान्त और उकारान्त शब्दों के लिये ही करना पड़ा है। जैसे :- वृक्षैः वच्छेहि; वृक्षेभ्यः - वच्छेसुन्तो और वृक्षेषु = वच्छेसु । इन उदाहरणों में 'वच्छ' शब्द के अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति नहीं हुई है। इस प्रकार 'ह्रस्व से दीर्घता' का विधान केवल इकारान्त और उकारान्त शब्दों के लिये ही है; यह सिद्ध हुआ है।
प्रश्न:- 'भिस्, भ्यस् और सुप्' प्रत्ययों के प्राप्त होने पर ही ह्रस्व 'इकारान्त' और ह्रस्व 'उकारान्त' के अन्त्य 'स्वर' को दीर्घता प्राप्त होती है; ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तरः- यदि ह्रस्व इकारान्त और उकारान्त शब्दों में 'भिस्' भ्यस् और सुप्' प्रत्ययों के अतिरिक्त अन्य प्रत्ययों की प्राप्ति हुई हो तो इन शब्दों के अन्त्य ह्रस्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- गिरिम् अथवा तरुम् पश्य- गिरिं अथवा तरुं पेच्छ। इन उदाहरणों में द्वितीया विभक्ति के एकवचन का 'म्' प्रत्यय प्राप्त हुआ; और 'भिस्, भ्यस् अथवा सुप्' प्रत्ययों का अभाव है; तदनुसार इनमें ह्रस्व स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर की प्राप्ति भी नहीं हुई है । यों अन्यत्र भी विचार कर लेना चाहिये ।
गिरिभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरीहिं होता है। इनमें सूत्र- संख्या ३-१६ से मूल गिरि शब्दान्त (द्वितीय ह्रस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ 'ई' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गिरीहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
बुद्धिभिः - संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धीहिं होता है। इनमें सूत्र - संख्या ३- १६ से और ३-७ से 'गिरीहिं" के समान ही साधनिका की प्राप्ति होकर बुद्धीहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
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10 : प्राकृत व्याकरण
दधिभिः- संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहीहिं होता है। इनमें सूत्र-संख्या १-१५७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और शेष 'साधनिक सूत्र-संख्या ३-१६ एवं ३-७ से 'गिरीहिं' के समान ही होकर दहीहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
तरुभिः- संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरूहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से और ३-७ से 'गिरीहिं के समान ही साधनिक की प्राप्ति होकर तरूहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
धेनुभि :- संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृतरूप धेहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका सूत्र-संख्या ३-१६ एवं ३-७ से 'गिरीहिं के समान ही होकर धेहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
मधुभिः- संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप 'महूहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और शेष साधनिका ३-१६ एवं ३-७ से 'गिरीहिं के समान ही होकर महहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।
गिरिभ्यः- संस्कृत पंचम्यान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप गिरीओ, गिरीहिन्तो और गिरीसुन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१६ से मूल 'गिरि' शब्दान्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-९ से पंचमी विभक्तिबोधक प्रत्यय 'ओ, हिन्तो और सुन्तो' की क्रमिक प्राप्ति होकर क्रम से गिरीओ, गिरीहिन्तो ओर गिरीसुन्तो की सिद्धि हो जाती है।
बुद्धिभ्यः- संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धीओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ और ३-९ से 'गिरीओ' के समान ही साधनिका की प्राप्ति होकर बुद्धीओ रूप सिद्ध हो जाता है। __दधिभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहीओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह्' ३-१६ तथा ३-९ से 'गिरीओ के समान ही साधनिका की प्राप्ति होकर दहीओ रूप सिद्ध हो जाता है।
तरुभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरूआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ और ३-९ से 'गिरीओ के समान ही साधनिका की प्राप्ति होकर तरूओ रूप सिद्ध हो जाता है।
धेनुभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप घेणूओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१६ तथा ३-९ से 'गिरीओ' के समान ही शेष साधनिका की प्राप्ति होकर धेणूओ रूप सिद्ध हो जाता है।
मधुभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप महूओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१६ तथा ३-९ से 'गिरीओ के समान ही शेष साधनिका की प्राप्ति होकर महूओ रूप सिद्ध हो जाता है।
आगओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२६८ में की गई है।
गिरिषु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरीसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से द्वितीय हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर गिरीसु रूप सिद्ध हो जाता है।
बुद्धिषु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धिस होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से 'इ' के स्थान पर 'ई' की प्राप्त और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर बुद्धिसु रूप सिद्ध हो जाता है।
दधिषु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहीस होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 11 स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-१६ से 'इ' के स्थान पर 'ई' की प्राप्ति और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर दहीसु रूप सिद्ध हो जाता है। __ तरूषु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरूसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से प्रथम 'उ' के स्थान पर दीर्घ 'ऊ की प्राप्ति और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर तरूसु रूप सिद्ध हो जाता है।
धेनुषुः संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप धेणूसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-१६ से प्रथम 'उ' के स्थान पर दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर धेणूसु रूप सिद्ध हो जाता है। __मधुषुः- संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप महसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-१६ से प्रथम 'उ' के स्थान पर दीर्घ 'ऊ की प्राप्ति और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर महसु रूप सिद्ध हो जाता है।
स्थितम्:- संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप ठिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से 'स्था' के स्थान पर 'ठा' का आदेश; ३-१५६ से प्राप्त रूप 'ठा' में स्थित अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से कृदन्तीय विशेषणात्मक प्रत्यय 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ठिअंरूप सिद्ध हो जाता है।
द्विज-भूमिषुः- संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत-रूप दिअ-भूमिसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'व्' का लोप; १-१७७ से 'ज' का लोप और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर दिअ-भूमिसु रूप सिद्ध हो जाता है।
दान-जलार्दीकृतानिः- संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दाण-जलोल्लि-आइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-८२ से 'आर्दी' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; १-१० से 'जल' के 'ल' में स्थित अन्त्य 'अ' का लोप; २-७९ से रेफ रूप 'र' को लोप; २-७७ से द्वितीय 'द्' का लोप; १-२५४ से शेष 'र' के स्थान पर 'ल' का आदेश; २-८९ से आदेश प्राप्त 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-१२६ से ऋ के स्थान पर 'अ की प्राप्ति, १-१७७ 'क्' और 'त्' का लोप, १-१० से लुप्त 'क्' में से शेष रहे हुए 'अ' का 'आ' आ जाने से लोप अथवा १-५ से 'अ' के साथ में 'आ' की सधि होकर दोनों के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; और ३-२६ से प्रथमा या द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के संस्कृत प्रत्यय 'नि' के स्थान पर प्राकृत में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दाण-जलोल्लिआई रूप सिद्ध हो जाता है।
वच्छेहिं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-७ में की गई है। वच्छेसुन्तो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-९ में की गई है। वच्छेसु रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१५ में की गई है। गिरिं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।
तरुम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप तरुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-५ से द्वितीय विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' के अनुस्वार होकर तरूं रूपसिद्ध हो जाता है। पेच्छ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२ में की गई है।।३-१६।।
चतुरो वा ॥३-१७॥ चतुर उदन्तस्य भिस् भ्यस्-सुप्सु परेषु दीर्घो वा भवति।। चऊहि। चउहि। चऊओ चउओ। चऊसु चउसु।। अर्थः-'चतुर' संस्कृत शब्द के प्राकृत-रूपान्तर 'चउ' में तृतीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'भिस्' के ओदश-प्राप्त
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12 : प्राकृत व्याकरण प्रत्यय 'हि हिँ और हिं' की प्राप्ति होने पर; पंचमी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'भ्यस्' के आदेश प्राप्त प्रत्यय 'हि' हिन्तो, सुन्तो' आदि की प्राप्ति होने पर और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'सुप' के आदेश प्राप्त प्रत्यय 'सु' की प्राप्ति होने पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- चतुर्भिः=चऊहि अथवा चउहि; चतुर्य-चऊओ अथवा चउओ और चतुर्यु-चऊसु अथवा चउसु।
चतुर्भिः- संस्कृत तृतीयान्त संख्यावाचक बहुवचन विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चऊहि और चउहि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'चतुर' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-१७ से शेष 'उ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति; और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय "भिस्' के स्थान पर आदेश-प्राप्त 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप चऊहि और चउहि सिद्ध हो जाते हैं। __ चतुर्यः- संस्कृत पञ्चम्यन्त संख्यावाचक बहुवचन-विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चऊओ और चउआ होते हैं। इनमें 'चऊ' और 'चउ' तक की साधनिका इसी सूत्र में कृत उपर्युक्त रीति अनुसार; और ३-९ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर आदेश-प्राप्त 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप चऊओ
और चउओ सिद्ध हो जाते हैं। ___ चतुर्यु संस्कृत सप्तम्यन्त संख्यावाचक बहुवचन विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चऊसु और चउस होते हैं। इनमें 'चऊ' और 'चउ' तक की साधनिका इसी सूत्र में उपर्युक्त रीति अनुसार और १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप चऊसु और चउसु सिद्ध हो जाते हैं ॥३-१७||
लुप्ते शसि ॥३-१८॥ इदुतोः शसि लुप्ते दीर्घा भवति ।। गिरी । बुद्धी । तरू । धेणू पेच्छ ।। लुप्त इति किम्। गिरिणो। तरुणो पेच्छ। इदुत इत्येव। वच्छे पेच्छ।। जस्-शस् (३-१२) इत्यादिना शसि दीर्घस्य लक्ष्यानुरोधार्थो योगः लुप्त इति तु णवि प्रति प्रसवार्थशङ्कानिवृत्यर्थम्।। ___अर्थः- प्राकृत इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग और स्त्रीलिंग शब्दों में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर एवं सूत्र-संख्या ३-४ के विधान से प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप होने पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' के स्थान पर दीर्घ 'ई' अथवा दीर्घ 'ऊ की प्राप्ति यथाक्रम होती है। जैसे:- गिरीन्-गिरी अर्थात् पहाड़ों को; बुद्धी:-बुद्धी अर्थात् बुद्धियों को; तरून् तरू अर्थात्, वृक्षों को; धेनूः पश्य धेणू पेच्छ अर्थात् गायों को देखो। इन उदाहरणों में अन्त्य हस्व स्वर को 'शस्' प्रत्यय का लोप होने से दीर्घता प्राप्त हुई है; यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिए। . प्रश्न:- 'शस्' प्रत्यय का लोप होने पर ही अन्त्य हस्व स्वर को दीर्घता प्राप्त होती है, ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- हस्व इकारान्त अथवा उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में सूत्र-संख्या ३-२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति भी हुआ करती है; तदनुसार यदि 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होती है तो ऐसी अवस्था में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' को दीर्घता की प्राप्ति नही होगी; इसलिए 'लुप्त' शब्द का उल्लेख किया गया है सारांश यह है कि दीर्घता की प्राप्ति 'शस्' प्रत्यय की लोपावस्था पर निर्भर है; यदि 'शस्' के स्थान पर आदेश प्राप्त 'णो' प्रत्यय प्राप्त हो जाता है तो दीर्घता का भी अभाव हो जाता है। जैसे:- गिरीन्-गिरिणो अर्थात् पहाड़ों को और तरून् पश्य-तरुणो (अर्थात् वृक्षों को;) पेच्छ-देखो।
प्रश्नः- इकारान्त अथवा उकारान्त शब्दों में ही 'शस' प्रत्यय का लोप होने पर अन्त्य स्वर को दीर्घता की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में भी द्वितीया-विभक्ति-बोधक प्रत्यय 'शस्' का सूत्र-संख्या ३-४ के विधान से लोप होता है; परन्तु 'शस्' प्रत्यय का लोप होने पर भी अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ 'आ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से ही होती है तथा सूत्र-संख्या ३-१४ से अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति भी हुआ करती है। इस प्रकार 'शस्'
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 13 की लोपावस्था में अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को कभी 'आ, की प्राप्ति होती है तो कभी 'ए' की प्राप्ति होती है; यों नित्य 'दीर्घता का अभाव होने से अकारान्त शब्दों को नहीं लेते हुए इकारान्त अथवा उकारान्त शब्दों के लिए ही दीर्घता का विधान 'नित्य रूप से किया गया है। जैसेः- वृक्षान् पश्य-वच्छे पेच्छ अर्थात् वृक्षों को देखो। इस उदाहरण में 'वच्छ' अकारान्त शब्द में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'शस्' का लोप हुआ है परन्तु अन्त्य 'अ' को 'आ' नहीं होकर 'ए' की प्राप्ति हुई है; परन्तु तदनुसार अकारान्त शब्दों में नित्य 'दीर्घता' का अभाव प्रदर्शित किया गया है। यों इकारान्त और उकारान्त शब्दों में 'शस्' प्रत्यय के लोप होने पर नित्य दीर्घता के विधान की स्थिति को समझ लेना चाहिये।
सूत्र-संख्या ३-१२ के विधानानुसार यद्यपि यह सिद्ध हो जाता है कि द्वितीया-विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'शस्' की प्राप्ति होने पर अन्त्य हस्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति होती है; परन्तु पुनः सूत्र-संख्या ३-१८ से उसी तात्पर्य की विशेष संपुष्टि करने के लिए और अकारान्त शब्दों में वैकल्पिक रूप से होने वाली दीर्घता का व्यवधान करने के लिये इस सूत्र (३-१८) का निर्माण किया है। 'दीर्घता की नित्यता' रूप लक्ष्य-विशेष के योग को प्रदर्शित करने के लिये इस सूत्र का निर्माण करना पड़ा है। दूसरा प्रबल कारण यह है कि सूत्र-संख्या ३-२२ के विधानानुसार 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर पुल्लिंग शब्दों में ‘णो' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति होती है; तदनुसार यदि द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति हो जाती है तो ऐसी अवस्था में शस्' प्रत्यय की लोप स्थित नहीं मानी जायेगी एवं लोप-स्थिति का अभाव होने पर अन्त्य हस्व स्वर को भी दीर्घता की प्राप्ति नहीं होगी। इस प्रकार निश्शंक और स्पष्ट अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिये ही तथा नित्य 'दीर्घता' के संबंध में उत्पन्न होने वाली शंकाओं के निवारण के लिये ही सूत्र-संख्या ३-१२ के अतिरिक्त सूत्र-संख्या ३-१८ का निर्माण करना भी आवश्यक तथा उचित समझा गया है।
गिरीन्:- संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप गिरी और गिरिणो होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप और ३-१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप होने से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर गिरी रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (गिरीन्=) गिरिणो में सूत्र-संख्या ३-२२ से मूल शब्द 'गिरि में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर ‘णो' प्रत्यय की ओदश प्राप्ति होकर द्वितीय रूप गिरिणो भी सिद्ध हो जाता है। __ बुद्धी:- संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप और ३-१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप होने से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर बुद्धी रूप से सिद्ध हो जाता है।
तरून:- संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप तरू और तरुणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप ३-१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप होने से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर तरू रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (तरून्-) तरुणो में सूत्र-संख्या ३-२२ से मूल शब्द 'तरू' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तरुणो भी सिद्ध हो जाता है।
धेनू:- संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप धेणू होता है। इनमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप
और ३-१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप होने से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर धेणू रूप सिद्ध हो जाता है।
'पेच्छ':- रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। 'वच्छे':-रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है।३-१८।।
- अक्लीबे सौ ॥३-१९।। इदुतो क्लीबे नपुसंकादन्यत्र सौ दी| भवति ॥ गिरी । बुद्धी । तरू । धेणू। अक्लीब इति किम्। दहिं।
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14 : प्राकृत व्याकरण महुँ । साविति किम् । गिरिं। बुद्धिं । तरुं । धेj।। केचित्तु दीर्घत्वं विकल्प्य तदभावपक्षे सेर्मादेशमपीच्छन्ति। अग्नि । निहिं। वाउं। विहुं।। ___ अर्थः- प्राकृत इकरान्त और उकारान्त शब्दों में से नपुसंकलिंग वाले शब्दों को छोड़कर शेष रहने वाले पुल्लिंग और स्त्रीलिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त होने वाले 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को अथवा 'उ' को दीर्घ 'ई' की अथवा दीर्घ 'ऊ' की यथाक्रम से प्राप्ति होती है। सारांश यह है कि इकारान्त, उकारान्त पुल्लिग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों के अन्त्य हस्व स्वर को प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय का लोप होकर दीर्घ स्वर की प्राप्ति होती है। जैसे:- गिरिः गिरी; बुद्धिः=बुद्धी; तरु:-तरू और धेनुः धेणू इत्यादि।
प्रश्न:- इकारान्त अथवा उकारान्त नपुसंकलिंग वाले शब्दों का निषेध क्यों किया गया है?
उत्तर : इकारान्त अथवा उकारान्त नपुंसकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सूत्र-संख्या ३-२५ के विधान से प्राप्त 'सि' के स्थान पर हलन्त 'म्' की प्राप्ति होती है; अतः ऐसे नपुंसकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग में प्राप्त होने वाली दीर्घता का अभाव प्रदर्शित करना पड़ा है। जैसे-दधिम् दहिं और मधुम्-महुं इत्यादि।
प्रश्नः- मूल सूत्र में 'सौ' अर्थात् 'सि' प्रत्यय के प्राप्त होने पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को अथवा 'उ' को दीर्घता की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों लिखा गया है?
उत्तरः- इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों में अन्त्य हस्व स्वर की दीर्घता 'सि' प्रत्यय के प्राप्त होने पर होती है; न कि द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर। जैसेः- गिरिम् गिरिं अर्थात् पहाड़ को; बुद्धिम् बुद्धिं अर्थात् बुद्धि को; तरुम्=तरूं अर्थात् वृक्ष को और धेनुम् धेणुं अर्थात् गाय को; इत्यादि। इन उदाहरणों में द्वितीया विभक्ति-बोधक 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर अन्त्य हस्व स्वर ज्यों का त्यों ही बना रहा है। जबकि प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अन्त्य हस्व स्वर दीर्घ हो जाता है; ऐसा अन्तर प्रदर्शित करने के लिये ही मूल सूत्र में 'सौ' अर्थात् 'सि' प्रत्यय के परे रहने पर इस प्रकार का उल्लेख करना पड़ा है। ___ कोई-कोई प्राकृत भाषा के विद्वान ऐसा भी मानते हैं कि इकारान्त और उकारान्त पुल्लिग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म्' आदेश की प्राप्ति भी होती है। ऐसी स्थिति में अन्त्य हस्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति भी नही होगी। इस प्रकार 'सि' प्रत्यय के अभाव में दीर्घता की प्राप्ति भी नहीं होगी। इस प्रकार 'सि' प्रत्यय के अभाव में दीर्घता का भी अभाव करके प्रथमा-विभक्तिबोधक 'म्' प्रत्यय की आदेश रूप कल्पना वैकल्पिक रूप से करते हैं। जैसे- अग्नि-अग्गि; निधिः-निहिं; वायुः वाउ और विधुः अथवा विभुः-विहुं। इत्यादि। इन उदाहरणों में प्रथमा विभक्तिबोधक 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' रूप प्रत्यय की कल्पना की गई है। किन्तु यह ध्यान में रहे कि ऐसे रूपों का प्रचलन अत्यल्प है- गौण है। 'बहुलाधिकार' से ही ऐसे रूपों को कहीं-कहीं पर स्थान दिया जाता है। सर्व-सामान्य रूप से इनका प्रचलन नहीं है। ___ गिरिः- संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर गिरी रूप सिद्ध हो जाता है।
बुद्धिः-संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' के स्थान पर अन्त्य 'इ' को 'ई' की प्राप्ति होकर बुद्धी रूप सिद्ध हो जाता है।
तरू: संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरू होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' के स्थान पर अन्त्य 'उ' को 'ऊ' की प्राप्ति होकर तरू रूप सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 15 धेनुः संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप धेणू होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' के स्थान पर अन्त्य 'उ' को 'ऊ' की प्राप्ति होकर धेणू रूप सिद्ध हो जाता है।
दधिं संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-३५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर दहि रूप सिद्ध हो जाता है।
मधुम् संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप महुं होता है। इसकी साधनिका 'दहिं के समान की होकर महुँ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'गिरि रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।
बुद्धिम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर बुद्धिं रूप सिद्ध हो जाता है।
तरुम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरुं होता है। इसकी साधनिका उपर्युक्त बुद्धिम के समान ही होकर तरुं रूप सिद्ध हो जाता है।
धेनुम्- संस्कृत द्वितीयान्त् एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप घेणुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका का उपर्युक्त 'बुद्धि' के समान ही होकर धेणुं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ अग्निः - संस्कृत रूप है। इसका आर्ष प्राकत रूप अग्गि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'न' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और ३-१९ की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति होकर अग्गि रूप सिद्ध हो जाता है।
निधिः संस्कृत रूप है। इसका आर्ष प्राकृत रूप निहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१९ की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति होकर निहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
वायु:- संस्कृत रूप है इसका आर्ष प्राकृत रूप वाउं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप और ३-१९ की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति होकर वाउं रूप सिद्ध हो जाता है।
विभुः- संस्कृत रूप है। इसका आर्ष प्राकृत रूप विहुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'भ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर ३-१९ की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति होकर विहुं रूप सिद्ध हो जाता है।।२-१९।।
पुसि जसो डउ डओ वा ॥३-२०।। इदुत इतीह पञ्चम्यन्तं संबध्यते। इदुतः परस्य जसः। पुसि अउ अओ इत्यादेशौ डितौ वा भवतः । अग्ग्उ अग्गओ। वायउ वायओ चिटन्ति।। पक्षे। अग्गिणो। वाउणो। शेषे अदन्तवत् भावात् अग्गी। वाऊ।। पुंसीति किम्। बुद्धीओ। धेणूओ। दहीइं। महुइं । जस् इति किम्। अग्गी। अग्गिणो। वाऊ। वाउणो। पेच्छइ।। इदुत इत्येव। वच्छा ।
अर्थः- इस मूल-सूत्र में 'इकारान्त उकारान्त' से ऐसा उल्लेख नहीं किया गया है; अतः अर्थ- स्पष्टीकरण के उद्देश्य से 'इदुतः'-इकारान्त उकारान्त शब्दों से ऐसा पंचमी बोधक संबंध-वाचक अध्याहार कर लेना चाहिये। तदनुसार इकारान्त
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16 : प्राकृत व्याकरण
उकारान्त पुल्लिंग प्राकृत शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'डउ' और 'डओ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'डउ' और 'डओ' में स्थित में 'इ' इत्संज्ञक होने से शब्दान्त्य 'इ' और 'उ' की इत्संज्ञा होकर इन 'इ' और 'उ' का लोप हो जाता है तथा आदेश प्राप्त प्रत्ययों का रूप भी. 'अउ' और 'अओ' रह जाता है। जैसे- अग्नयः = अग्गउ और अग्गओ । वायवः तिष्ठन्ति = वायउ वायओ चिट्ठन्ति । वैकल्पिक पक्ष होने से सूत्र - संख्या ३ - २२ के अनुसार (अग्नयः = ) अग्गिणो और (वायवः = ) वाउणो रूप भी होते है । 'अउ' और 'अओ' तथा 'णो' आदेश-प्राप्ति के अभाव में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन अकारान्त पुल्लिंग शब्द रूप के समान ही सूत्र- संख्या ३-४ से 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और लोप- अवस्था प्राप्त होकर तथा सूत्र - संख्या ३-१२ से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' को दीर्घता की प्राप्ति होकर 'अग्गी' और 'वाऊ' रूप भी होते हैं। इस प्रकार इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग शब्दों के प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में चार-चार रूप हो जाते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- अग्नयः - अग्गड, अग्गओ, अग्गिणो और अग्गी । वायवः- वायउ, वायओ, वाउणो और वाऊ ।।
प्रश्नः - इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में ही 'अऊ' और 'अओ' ओदश - प्राप्ति होती है; ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तर:- स्त्रीलिंग वाचक और नपुसंकलिंग वाचक इकारान्त, उकारान्त शब्दों में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्ति का अभाव है; अतः पुल्लिंग शब्दों में ही इन 'अउ' और 'अओ' का सद्भाव होने से 'पुंसि' ऐसे शब्द का मूल - सूत्र में उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:- बुद्धयः- बुद्धीओ; धेनवः =धेणूओं; दधीनि-दहीइं और मधूनि = महू इत्यादि । इन उदाहरणों में पुल्लिंगत्व का अभाव होने से और स्त्रीलिंगत्व का तथा नपुसंकलिंगत्व का सद्भाव होने से 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्त प्रत्ययों का अभाव प्रदर्शित किया गया है यों सूत्र में लिखित 'पुसि' शब्द का तात्पर्य- विशेष जान लेना चाहिये।
प्रश्नः- प्रथमा विभक्ति बोधक 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति पर ही 'अउ' और 'अओ' आदेशकी प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- प्रथमा विभक्तिबोधक प्रत्यय 'जस्' के अतिरिक्त द्वितीया विभक्ति बोधक 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर अथवा अन्य विभक्तिबोधक प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर भी उन प्रत्ययों के स्थान पर 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्ति नहीं होती है। अतः 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्ति केवल 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर ही होती है; ऐसा तात्पर्य प्रदर्शित करने के लिये ही मूल सूत्र में 'जसो ' ऐसा उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:- अग्नीन् (अथवा ) वायून् पश्यति = अग्गि (अथवा ) अग्गिणो (और) वाऊ (अथवा ) वाउणो पेच्छइ अर्थात् व अग्नियों को (अथवा ) वायुओं को देखता है। इन उदाहरणों में द्वितीया विभक्तिबोधक प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्ति का अभाव प्रदर्शित करते हुए यह प्रतिबोध कराया गया है कि 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्ति केवल 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर ही होती है; न कि 'शस्' आदि अन्य प्रत्ययों के स्थान पर ।
प्रश्न:- इस सूत्र की वृत्ति में आदि में 'इकारान्त' और 'उकारान्त' जैसे शब्दों के उल्लेख करने का क्या तात्पर्य- विशेष
है?
उत्तरः-‘जस्' प्रत्यय की प्राप्ति 'इकारान्त' और 'उकारान्त' शब्दों के अतिरिक्त 'अकारान्त' आदि अन्य शब्दों में भी होती है; अतः सूत्र - संख्या ३ - २० से 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर होने वाली 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्ति केवल इकारान्त और उकारान्त शब्दों में ही होती है। अकारान्त आदि शब्दों में नहीं हुआ करती है। ऐसी विशेषता प्रकट करने के लिये ही वृत्ति के प्रारंभ में 'इकारान्त' और 'उकारान्त' पदों की संयोजना करनी पड़ी है। जैसे :- वृक्षाः = वच्छा। इस उदाहरण से प्रतीत होता है कि जैसे अग्गर और अग्गओ तथा वायउ और वायओ रूप बनते हैं; वैसे 'वच्छउ' और 'वच्छओ' रूप प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नहीं बन सकते हैं। इस प्रकार इस सूत्र में और वृत्ति में लिखित 'पुंसि'; 'जसो' और 'इदुतः ' पदों की विशेषता जाननी चाहिये।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 17 अग्नयः संस्कृत प्रथमा रूप है। इसके प्राकृत रूप अग्गउ, अग्गओ और अग्गिणो होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'न' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; ३-२० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डउ' और 'डओ' आदेश प्राप्ति; आदेश प्राप्त प्रत्यय 'डउ' और 'डओ' में हलन्त 'ड्' इत्संज्ञक; तदनुसार प्राप्त रूप 'अग्नि में से अन्त्य स्वर 'इ' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं अंत में ३-२० से प्राप्त प्रत्यय 'अउ' और 'अओ' की 'अग्ग' में संयोजना होकर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से दोनों रूप अग्गउ और अग्गओ सिद्ध हो जाते है।
अग्गिणो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२७ में की गई है। ___ वायवः- संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप वायउ, वायओ और वाउणो होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या ३-२० से संस्कृत प्रथमा विभक्तिबोधक प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डउ' और 'डओ' प्रत्ययों की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति; आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'डउ' और 'डओ' में स्थित 'ड् इत्संज्ञक होने से मूल शब्द वायु में स्थित अन्त्य स्वर 'उ' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं पश्चात् शेष रहे हुए 'वाय' रूप में क्रम से 'अउ' और 'अओ' प्रत्ययों की संयोजना होकर प्रथम के दो रूप क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'वायउ' और 'वायओ सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय रूप (वायवः-) वाउणो में सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप और ३-२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो'- प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति होकर तृतीय रूप 'वाउणो' सिद्ध हो जाता है। ____ अग्नयः- संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप अग्गी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग्' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस्' के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथमान्त रूप अग्गी सिद्ध हो जाता है।
वायवः- संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप वाऊ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस्' के कारण से अन्त्य हस्व 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथमान्त रूप वाऊ सिद्ध हो जाता है।
बुद्धयः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धीओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२७ से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घता की प्राप्ति के साथ 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बुद्धीओ रूप सिद्ध हो जाता है।
धेनवः- संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप धेणूओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'ने' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२७ से संस्कृत प्रथमा विभक्ति बोधक प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति के साथ 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धेणूओ रूप सिद्ध हो जाता
दधीनि संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप दहीइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नपुसंकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप अन्त्य स्वर की दीर्घता पूर्वक 'नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दहीइं रूप सिद्ध हो जाता है।
मधूनि संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप महूइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नपुसंकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप अन्त्य स्वर की दीर्घता पूर्वक नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर महूइं रूप
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18 : प्राकृत व्याकरण सिद्ध हो जाता है। __ अग्नीन् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप अग्गी और अग्गिणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग्' को द्वित्व 'ग्ग्' को प्राप्ति; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' की प्राप्ति होकर लोप; और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'शस्' के कारण अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई की प्राप्ति होकर अग्गी रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(अग्नीन्-) अग्गिणो में 'अग्गि' तक की साधनिका उपर्युक्त रूप के समान और ३-२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर द्वितीय रूप अग्गिणो भी सिद्ध हो जाता है।
वायून् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप वाऊ और वाउणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' के स्थानीय रूप 'अन्त्य स्वर को दीर्घता पूर्वक 'न्' की प्राप्ति होकर लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'शस्' के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप वाऊ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (वायून्-) वाउणा में २-७८ से 'य् का लोप और ३-२२ से शेष रूप 'वाऊ' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर द्वितीय रूप वाउणो भी सिद्ध हो जाता है। वच्छा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है ।।३-२०।।
वो तो डवो ॥३-२१।। उदन्तात्परस्य जसः पुंसि डित् अवो इत्यादेशौ वा भवति।। साहवो । पक्षे। साहओ साहउ। साहू। साहुणो। उत इति किम्। वच्छा ।। पुंसीत्येव। धेणू। महूइं।। जस् इत्येव साहूणो पेच्छ।। . अर्थः- प्राकृत उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्ययः जस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'डवो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'डवो' में 'ड' इत्संज्ञक होने से शेष प्राप्त प्रत्यय 'अवो' के पूर्व में उकारान्त शब्दों में अन्त्य स्वर 'उ' की इत्संज्ञा होकर इस 'उ' का लोप हो जाता है एवं तत्पश्चात् 'अवो' प्रत्यय की संयोजना होती है। जैसे- साधवः-साहवो। वैकल्पिक पक्ष होने से सूत्र-संख्या ३-२० से (साधवः=) साहओ और साहउ रूप भी होते हैं। सूत्र-संख्या ३-४ से (साधवः=) साहू रूप भी होता है; इसी प्रकार से सूत्र-संख्या ३-२२ में (साधवः=) साहूणो रूप भी होता है। यों प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'साहु' के पाँच रूप हो जाते हैं। जो कि इस प्रकार है-(साधवः=) साहवो, साहओ, साहउ, साहू और साहुणो।।
प्रश्नः- 'उकारान्त' शब्दों में ही प्रथमा बहुवचन में 'अवो' आदेश की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- क्योंकि 'अकारान्त' अथवा 'इकारान्त' में प्रथमा बहुवचन में अवो' आदेश प्राप्त प्रत्यय की उपलब्धि नहीं है एवं केवल उकारान्त में ही 'अवो' प्रत्यय की उपलब्धि है; अतएव ऐसा विधान बनाना पड़ा है कि केवल प्राकृत उकारान्त शब्दों में ही प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'अवो' आदेश प्राप्त प्रत्यय विशेष होता है। जैसे:-वृक्षान् वच्छा। यों वच्छो रूप का अभाव सिद्ध होता है।
प्रश्नः-'उकारान्त पुल्लिंग' में ही 'अवो' प्रत्यय अधिक होता है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः-उकारान्त स्त्रीलिंग और नपुसंकलिंग वाले भी शब्द होते हैं; ऐसे शब्द उकारान्त होते हुए भी इनमें 'पुल्लिगत्व' का अभाव होने से अवो' प्रत्यय का इनके लिये भी अभाव होता है?; ऐसा विशेष तात्पर्य बतलाने के लिये ही 'पुल्लिगत्व' का विशेष विधान किया जाता है। जैसेः- धेनवः धेणू और मधूनि महूइं। ये उदाहरण उकारान्तात्मक होते भी पुल्लिंगात्मक
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 19 नहीं होकर क्रम से स्त्रीलिंगात्मक और नपुसंकलिंगात्मक होने से इनमें 'अवो' प्रत्यय का अभाव जानना चाहिये।
प्रश्नः- प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर ही 'अवो' आदेश-प्राप्त प्रत्यय वैकल्पिक रूप से हो जाता है; ऐसा भी क्यों कहा गया है?
उत्तरः- क्योंकि 'अवो' आदेश प्राप्त प्रत्यय केवल प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय की है; अन्य विभक्तियों के प्रत्ययों के स्थान पर 'अवो' आदेश प्राप्ति नहीं होती है; ऐसा प्रदर्शित करने के लिये ही 'जस्' का उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:-साधून् पश्य-साहू (अथवा) साहुणो पेच्छ। इस उदाहरण में द्वितीया-विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर 'अवो' आदेश-प्राप्त प्रत्यय का अभाव प्रदर्शित हो रहा है; क्योंकि ऐसा विधान नहीं है। अतः यह प्रमाणित किया गया है कि 'अवो आदेश-प्राप्त प्रत्यय का विधान केवल प्रथमा बहुवचन में ही होता है; वह भी पुल्लिंग में ही और केवल उकारान्त में ही हो सकता है।
साधवः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप साहवो, साहओ, साहउ, साहू और साहुणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१८७ में 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-२१ से संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'डवो' आदेश की प्राप्ति ; प्राप्त प्रत्यय 'डवो' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'साहु' में स्थित अन्त्य स्वर 'उ' की इत्संज्ञा होकर 'उ' का लोप एवं प्राप्त रूप 'साहू' में अवो' प्रत्यय की संयोजना होकर प्रथम रूप 'साहवो' सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय और तृतीय रूप 'साहओ' एवं 'साहउ' में सूत्र-संख्या ३-२० से संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'डओ' और 'डउ' आदेश प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डओ' और 'डउ' में 'ड' इत्संज्ञक होने से 'साहू' में स्थित अन्त्य स्वर 'उ' की इत्संज्ञा होकर 'उ' का लोप एवं प्राप्त रूप 'साहू' में 'अओ' तथा 'अउ' प्रत्यय की संयोजना होकर द्वितीय और तृतीय रूप साहओ तथा साहउ भी क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से सिद्ध हो जाते हैं। ___ चतुर्थ रूप 'साहू' में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' की प्राप्ति होकर लोप तथा ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर चतुर्थ प्रथमान्त बहुवचन रूप साह भी सिद्ध हो जाता है।
पंचम रूप 'साहूणो' में सूत्र-संख्या ३-२२ से संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'णो' आदेश की प्राप्ति होकर पंचम रूप साहुणा भी सिद्ध हो जाता है। 'वच्छा' (प्रथमान्त बहुवचन) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है।
धेनवः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप धेणू होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से मूल रूप 'धेनु' में स्थित 'न्' का 'ण'; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथमान्त बहुवचन रूप : रोणू सिद्ध हो जाता है।
महूइं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० में की गई है।
साधून संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप साहू और साहूणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल रूप 'साधु' में स्थित 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'शस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीयान्त बहुवचन रूप 'साहू' सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप 'साहूणो' में सूत्र-संख्या ३-२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में पुल्लिंग वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होकर द्वितीय रूप साहुणो सिद्ध हो जाता है।
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20 : प्राकृत व्याकरण पेच्छ (क्रिया पद के) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है ॥३-२१।।
जस-शसोणों वा ॥३-२२।। इदुतः परयोर्जस्-शसोः पुंसि णो इत्यादेशो भवति। गिरिणो तरुणो रेहन्ति पेच्छ वा। पक्षे। गिरी। तरू।। पुंसीत्येवा दहीइं। महूई। जस्-शसोरिति किम्। गिरि। तरूं। इदुत इत्येवा वच्छा। वच्छे।। जस्-शसोरिति द्वित्वमिदूत इत्यनेन यथासंख्या भावार्थम्। एवमुत्तरसूत्रेऽपि।।
अर्थः- प्राकृत इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से ‘णो' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे:- गिरयः अथवा तरवः राजन्ते-गिरिणो अथवा तरुणो रेहन्ति अर्थात् पर्वत श्रेणियाँ अथवा वृक्ष-समूह सुशोभित होते हैं। इस उदाहरण में संस्कृत प्रथमा बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश की प्राप्ति हुई हैं। द्वितीया विभक्ति का उदाहरण इस प्रकार है:- गिरीन् अथवा तरून् पश्य=गिरिणो अथवा तरुणो पेच्छ अर्थात् पर्वत-श्रेणियों को अथवा वृक्षों को देखो। इस उदाहरण में संस्कृत द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में ‘णो' आदेश की प्राप्ति हुई है। वैकल्पिक पक्ष होने पर गिरयः और गिरीन् का प्राकृत रूपान्तर 'गिरी' भी होता है। इसी प्रकार से तरवः और तरून् का प्राकृत रूपान्तर 'तरू' भी होता है।
प्रश्नः- इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में ही 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर ‘णो' आदेश की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- इकारान्त उकारान्त शब्द नपुसंकलिंग वाले और स्त्रीलिंग वाले भी होते हैं; ऐसे शब्दों में 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर 'णो' आदेश प्राप्ति नहीं हुआ करती है। जैसेः- दधीनि-दहीइं और मधूनि-महूई। इन नपुसंकलिंग वाले उदाहरणों में प्रथमा और द्वितीया में जस तथा 'शस्' के स्थान पर ‘णो' आदेश की प्राप्ति नहीं होकर 'ई' आदेश की प्राप्ति हुई है। स्त्रीलिंग के उदाहरण:- बुद्धयः और बुद्धी: बुद्धो और धेनवः और धेनू-धेणू। इन इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में प्रथमा और द्वितीया में 'जस्' तथा 'शस्' के स्थान पर 'णो' आदेश की प्राप्ति नहीं होकर अन्त्य स्वर की ही आदेश रूप से दीर्घता की प्राप्ति हुई है। यों समझ लेना चाहिए कि केवल पुल्लिग इकारान्त उकारान्त शब्दों में ही 'जस्' की तथा 'शस्' के स्थान पर 'णो' आदेश की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है।
प्रश्नः- 'जस्' और 'शस' ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है।
उत्तरः- इकारान्त और उकारान्त पुल्लिग शब्दों के सभी विभक्ति बहुवचनीय रूपों में से केवल प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचनीय रूपों में ही 'णो' आदेश प्राप्त प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है; अन्य किसी भी विभक्ति के बहुवचन में 'णो' आदेश प्राप्त प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है। ऐसा विशेषता पूर्वक तात्पर्य प्रदर्शित करने के लिए ही 'जस' और 'शस' का नाम-निर्देश करना पड़ा है। जैसे:- गिरिम अथवा तरुम गिरि अथवा तरुं याने पहाड को अथवा वक्ष को; इन उदाहरणों में द्वितीया विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय 'म्' प्राप्त हुआ है। न कि 'णो' आदेश प्राप्त प्रत्यय; अत एवं सूत्र में उल्लिलिखत 'जस्' और 'शस्' के उल्लेख का तात्पर्य समझ लेना चाहिये।
प्रश्नः- सूत्र की वृत्ति के प्रारम्भ में 'इकारान्त' और 'उकारान्त' कहने का क्या तात्पर्य है।
उत्तरः-प्राकृत में अकारान्त आदि शब्द भी होते हैं; परन्तु (इकारान्त और उकारान्त शब्दों के अतिरिक्त) ऐसे शब्दों में 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर 'णो' आदेश प्राप्त प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है। ऐसा विशेष तात्पर्य प्रदर्शित करने के लिये ही वृत्ति के प्रारम्भ में 'इकारान्त' और 'उकारान्त' जैसे शब्द-विशेषों को लिखना पड़ा है। जैसे:- वृक्षाः-वच्छा और वृक्षान्=वच्छे। यह उदाहरण अकारान्तात्मक है; तथा इसमें क्रम से 'जस्' और 'शस्' की प्राप्ति हुई है; परन्तु प्राप्त
प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर 'णो' आदेश प्राप्त प्रत्यय का अभाव है; तदनुसार यह ध्यान में रखना चाहिये कि _JainEdप्रा
प्राकृत से अकारान्त आदि शब्दों के अतिरिक्त केवल इकारान्त और उकारान्त पुल्लिग शब्दों में ही 'जस्' तथा 'शस्' के
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 21 स्थान पर 'णो' आदेश-प्राप्त प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है; अन्य किसी भी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय के स्थान पर 'णो' आदेश-प्राप्त प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है।
मूल-सूत्र में 'जस्-रासोः' ऐसा जो द्वित्व रूपात्मक उल्लेख है; इसको यथाक्रम से 'इकारान्त' और 'उकारान्त' शब्दों में संयोजित किया जाना चाहिये; दोनों का दोनों में क्रम स्थापित कर देना चाहिये। ऐसा 'यथा-संख्यात्मक' भाव प्रदर्शित करने के लिये ही 'द्वित्व' रूप से 'जस-शसोः' का उल्लेख किया गया है। यही परिपाटी आगे आने वाले सूत्र-संख्या ३-२३ के संबंध में भी जानना चाहिये जैसा कि ग्रंथकार ने वृत्ति में उत्तर सूत्रेऽपि' पद का निर्माण करके अपने मन्तव्य को प्रदर्शित किया है।
गिरयः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है इसके प्राकृत रूप गिरिणो और गिरी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश प्राप्ति होकर गिरिणो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप गिरी भी सिद्ध हो जाता है।
तरवः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप तरुणो और तरू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-२२ से संस्कृत प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप तरुणो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृत प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस्' के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तरू भी सिद्ध हो जाता है।
राजन्ते संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप रेहन्ति होता है। इसमें सूत्र-संख्या-४-१०० से संस्कृत 'राज्' धातु के स्थान पर 'रेह आदेश; ४-२३९ से प्राकृत हलन्त धातुओं के विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; और ३-१४२ से वर्तमानकाल के बहुवचन में प्रथमपुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रेहन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। गिरिणो (द्वितीयान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१८ में की गई है। तरुणो (द्वितीयान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१८ में की गई है। पेच्छ (क्रिया पद) रूप की सिद्धि सत्र-संख्या १-२३ में की गई है। गिरी (द्वितीयान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१८ में की गई है। तरू (द्वितीयान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१८ में की गई है। दहीइं (प्रथमान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० में की गई है। महूई (प्रथमान्त बहुवचनान्त) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० में की गई है। गिरि रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। तरूं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६ में की गई है। वच्छा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है। वच्छे रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है।।३-२२।।
. उसि-ङसोः पुं-क्लीबे वा ॥३-२३।। ____ पुसि क्लीबे च वर्तमानादिदुतः परयोर्डसिङसोर्णो वा भवति।। गिरिणो। तरुणो। दहिणो। महुणो आगओ विआरो वा । पक्षे। उसेः । गिरीओ। गिरीउ। गिरीहिन्तो। तरूओ। तरूउ। तरुहिन्तो॥ हिलुको निषेत्स्यते।। उसः।
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22 : प्राकृत व्याकरण
गिरिस्स । तरुस्स।। ङसि-ङसोरिति किम् । गिरिणा । तरुणा कयं । । पुंक्लीब इति किम्। बुद्धीअ । धेणूअ लद्धं समिद्धि वा । इदुत इत्येव । कमलाओ । कमलस्स ।
अर्थः- प्राकृत इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग और नपुंसकलिंग शब्दों में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से (प्राकृत में) 'णो' आदेश की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से इन्हीं प्राकृत इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग और नपुसंकलिंग शब्दों में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत - प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से (प्राकृत में) 'णो' आदेश की प्राप्ति होती है। पुल्लिंग वाले इकारान्त अथवा उकारान्त के पंचमी विभक्ति के एकवचन का उदाहरण:- गिरेः अथवा तरोः आगत-गिरिणो अथवा तरूणों आगओ पहाड़ से अथवा वृक्ष से आया हुआ है। इकारान्त अथवा उकारान्त के पुल्लिंग में षष्ठी विभक्ति के एकवचन का उदाहरणः-गिरेः अथवा तरोः विकारः - गिरिणो अथवा तरोः विकारः - गिरिणो अथवा तरुणो विआरो अर्थात् पहाड़ का अथवा वृक्ष का विकार है। नपुसंकलिंग वाले इकारान्त अथवा उकारान्त के पंचमी विभक्ति के एकवचन का उदाहरण:दघ्नः अथवा मधुनः-आगतः - दहिणो अथवा महुणो आगओ अर्थात् दही से अथवा मधु से आया हुआ (प्राप्त हुआ) है। इसी प्रकार से नपुसंकलिंग वाले इकारान्त अथवा उकारान्त के षष्ठी विभक्ति के एकवचन का उदाहरणः- दघ्नः अथवा मधुन विकारः=दहिणो अथवा महुणो विआरो अर्थात् दही का अथवा मधु का विकार है। इन उदाहरणों में पुल्लिंग में एवं नपुंसकलिंग में पंचमी विभक्ति के एकवचन में और षष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'गो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुई है।
वैकल्पिक पक्ष होने से पंचमी विभक्ति के एकवचन में इकारान्त में सूत्र - संख्या ३-८ से 'गिरीओ, गिरीउ और गिरीहिन्तो' रूप भी होते हैं । उकारान्त में भी पंचमी विभक्ति के एकवचन में सूत्र - संख्या ३-८ से 'तरूओ, तरू और तरूहिन्तो' रूप होते हैं। सूत्र - संख्या ३-८ से प्राप्त होने वाले प्रत्यय 'हि' और 'लुक्' का सूत्र - संख्या ३ - १२६ और ३-१२७ में निषेध किया जायेगा; तदनुसार इकारान्त उकारान्त में पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'हि' और 'लुक्' प्रत्यय का अभाव जानना चाहिए।
षष्ठी विभक्ति के एकवचन में भी इकारान्त और उकारान्त में उपर्युक्त 'णो' आदेश प्राप्त प्रत्यय की स्थिति वैकल्पिक होने से सूत्र - संख्या ३ - १० से संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है । जैसे:- गिरे:गिरिस्स अर्थात् पहाड़ का और तरोः = तरूस्स अर्थात् वृक्ष का ।
प्रश्नः - इकारान्त अथवा उकारान्त पुल्लिंग और नपुसंकलिंग वाले शब्दों में पंचमी विभक्ति और षष्ठी विभक्ति के एकवचन में क्रम से प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' और 'ङस' के स्थान पर 'णो' प्रत्यय होता है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- इकारान्त अथवा उकारान्त में पंचमी विभक्ति के एकवचन के अतिरिक्त और षष्ठी विभक्ति के एकवचन के अतिरिक्त अन्य किसी भी विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं हुआ करती है: इसलिये 'ङसि' और 'ङस्' का उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:- गिरिणा अथवा तरुणा कृतम्-गिरिणा अथवा तरुणा कयं अर्थात् पहाड़ से अथवा वृक्ष से किया हुआ है। इस उदाहरण से प्रतीत होता है कि पंचमी अथवा षष्ठी विभक्ति के एकवचन के अतिरिक्त अन्य किसी भी विभक्ति के एकवचन में इकारान्त और उकारान्त शब्दों में 'णो' प्रत्यय का अभाव ही होता है।
प्रश्न:- - पुल्लिंग अथवा नपुंसकलिंग वाले इकारान्त और उकारान्त शब्दों में 'ङसि' और 'ङस्' के स्थान पर 'णो' आदेश प्राप्ति होती है; ऐसे इस विधान में पुल्लिंगत्व का और नपुंसकलिंगत्व का कथन क्यों किया गया है?
उत्तरः-इकारान्त और उकारान्त शब्दों में 'स्त्रीलिंग' वाले शब्दों का भी अन्तर्भाव होता है; किन्तु ऐसे 'स्त्रीलिंग' वाले इकारान्त और उकारान्त शब्दों में 'ङसि' और 'ङस्' के स्थान पर 'णो' की प्राप्ति नहीं होती है; अतएव इन स्त्रीलिंग वाले शब्दों के लिये ‘ङसि' और 'ङस्' के स्थान पर 'णों' आदेश प्राप्त प्रत्यय का अभाव प्रदर्शित करने के लिये 'पुल्लिंग और नपुसंकलिंग' जैसे शब्दों का उल्लेख करना पड़ा है। 'स्त्रीलिंग' से संबंधित उदाहरण इस प्रकार है:- पंचमी विभक्ति के एकवचन का दृष्टान्तः- बुद्धयाः अथवा धेन्वाः लब्धम् - बुद्धीअ अथवा धेणूअ लद्धं अर्थात् बुद्धि से अथवा गाय से प्राप्त
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 23 हुआ है। षष्ठी विभक्ति के एकवचन का दृष्टान्तः- बुद्धयाः अथवा धेन्वाः समृद्धिः बुद्धीअ अथवा घेणूअ समिद्धी अर्थात् बुद्धि की अथवा गाय की समृद्धि है। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में 'ङसि' और 'ङस्' के स्थान पर 'णो आदेश प्राप्त प्रत्यय का अभाव होता है।
प्रश्नः- 'इकारान्त' और 'उकारान्त' ऐसे शब्दों का उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तर:- इकारान्त और उकारान्त के अतिरिक्त आकारान्त तथा अकारान्त शब्द भी होते हैं; इनमें भी 'ङसि' और 'ङस्' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है; परन्तु जैसे इकारान्त और उकारान्त में 'ङसि' और 'ङस्' के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है; वैसी 'णो' आदेश प्राप्ति 'आकारान्त' और 'अकारान्त' में नहीं होती है; ऐसा भेद प्रदर्शित करने के लिए ही वृत्ति में 'इकारान्त' और 'उकारान्त' जैसे शब्दों का उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:- कमलाया:-कमलाओ अर्थात् लक्ष्मी से और कमलस्य कमलस्स अर्थात् कमल का। इन उदाहरणों से 'सि' और 'डस् प्रत्ययों की प्राप्ति हुई है परन्तु ऐसा होने पर भी प्राप्त प्रत्ययों ङसि और 'ङस्' के स्थान पर 'णो' आदेश प्राप्ति होती है। ऐसा विधान सिद्ध हुआ।
गिरेः संस्कृत एकवचनात्मक पंचम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरिणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२३ से मूल शब्द 'गिरि' में संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'असि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश की प्राप्ति होकर गिरिणो रूप सिद्ध हो जाता है।
तरोः संस्कृत एकवचनान्त पंचम्यन्त रूप है इसका प्राकृत रूप तरुणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२३ से मूल शब्द 'तरु' में संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङसि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश की प्राप्ति होकर तरुणो रूप सिद्ध हो जाता है।
दघ्नः संस्कृत एकवचनान्त पंचम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप दहिणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल शब्द 'दधि' में स्थित 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; और ३-२३ से प्राप्त रूप 'दहि' में संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङसि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश की प्राप्ति होकर दहिणो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ मधुनः संस्कृत एकवचनान्त पंचम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप महुणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२३ से प्राप्त रूप 'महु में संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में ‘णो' आदेश की प्राप्ति होकर महुणो रूप सिद्ध हो जाता है।
आगओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। विकारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विआरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप विसर्ग के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विआरो रूप सिद्ध हो जाता है।
गिरेः संस्कृत एकवचनान्त पंचम्यन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप गिरीओ, गिरीउ और गिरीहिन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल शब्द 'गिरि' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-८ में संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'दो-ओ', 'दु-उ' और 'हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप गिरीओ, गिरीउ और गिरीहिन्तो सिद्ध हो जाते हैं।
तरोः- संस्कृत एकवचनान्त पंचम्यन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप तरूओ, तरूउ और तरूहिन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल शब्द 'तरू' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर'उको दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति और ३-८ से संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङसि के स्थानीय अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'दो-ओ', 'दु=उ' और 'हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप तरुओ, तरुङ, और तरूहिन्तो सिद्ध हो जाते हैं।
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24 : प्राकृत व्याकरण
गिरेः संस्कृत एकवचनान्त षष्ठयन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप गिरिणो और गिरिस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-२३ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङस् के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'नौ' आदेश की प्राप्ति होकर प्रथम रूप गिरिणा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (गिरेः=) गिरिस्स में सूत्र-संख्या ३-१० से संस्कृत षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप गिरिस्स सिद्ध हो जाता है।
तरो:- संस्कृत एकवचनान्त षष्ठ्यन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप तरुणो और तरूस्स होते हैं। इनमें प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-२३ से संस्कृत षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'ङस' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तरुणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(तरोः=) तरूस्स में सूत्र-संख्या ३-१० से संस्कृत षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तरुस्स सिद्ध हो जाता है।
गिरिणा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप (भी) गिरिणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा के स्थानीय रूप 'णा' के स्थान पर प्राकृत में भी 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गिरिणा रूप सिद्ध हो जाता है।
तरुणा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप (भी) तरुणा ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२४ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'णा के स्थान पर प्राकृत में भी 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तरुणा रूप भी सिद्ध हो जाता है।
कय रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।
बुद्धयाः संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन का और षष्ठी विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धीअ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-३-२९ से संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङसि' के स्थानीय रूप 'अस्=आस' के स्थान पर और षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'अस्-आस्' के स्थानीय पर प्राकृत में मूल रूप 'बुद्धि' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति करते हुए 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर (दोनों विभक्तियों में) बुद्धीअ रूप सिद्ध हो जाता है।
धन्वाः संस्कत पंचमी विभक्ति के एकवचन का और षष्ठी विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप धेणूअ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२९ से संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'ङसि' के स्थानीय रूप 'अस्-आस्' के स्थान पर और संस्कृत षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'अस्' 'आस्' के स्थान पर प्राकृत में मूल रूप धेणु में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति करते हुए 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर (दोनों विभक्तिों में) धेणूअ रूप सिद्ध हो जाता है। ____ लब्द्धम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप लद्ध होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'ब' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'ब' के पश्चात् शेष रहे 'ध्' को द्वित्व'ध्ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में संस्कृत-प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्राकृत रूप लद्धं सिद्ध हो जाता है।
समिद्धि रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४४ में की गई है।
कमलायाः संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन का रूप है इसका प्राकृत रूप कमलाओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-८ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थानीय रूप 'अस् याः' के स्थान पर प्राकृत में दो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप कमलाओ सिद्ध हो जाता है। कमलस्य संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन रूप है, इसका प्राकृत रूप कमलस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१० से
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 25 षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप- 'अस्-स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप कमलस्स सिद्ध हो जाता है।।३-२३।।
टो णा ॥३-२४॥ पुं क्लीबे वर्तमानादिदुतः परस्स टा इत्यस्य णा भवति।। गिरिणा । गामणिणा । खलपुणा। तरुणा। दहिणा। महुणा।। ट इति किम्। गिरी । तरू। दहिं। महुं।। पुंक्लीब इत्येवा बुद्धी। धेणूअ कयं।। इदुत इत्येव । कमलेण।।
अर्थः-प्राकृत इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग और नपुसंकलिंग वाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:- गिरिणा=गिरिणा अर्थात् पर्वत से; ग्रामण्या गामणिणा-ग्राम के स्वामी से; अथवा नाई से खलप्वा-खलपुणा अर्थात् झाडु देने वाले पुरुष से; तरुणा तरुणा अर्थात् वृक्ष से; दध्ना=दहिणा अर्थात् दही से और मधुना-महुणा अर्थात् मधु से। इन उदाहरणों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राकृत ‘णा' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है।
प्रश्न:- तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर ही 'णा' होता है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- तृतीया विभक्ति के एकवचन के अतिरिक्त किसी भी विभक्ति के किसी भी वचन के प्रत्ययों के स्थान पर 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है। ऐसा प्रदर्शित करने के लिये ही लिखा गया कि 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:- गिरिः=गिरी अर्थात् पहाड़; तरु:-तरू अर्थात् वृक्ष; दधि-दहिं अर्थात् दही और मधु-महुं अर्थात् मधु। इन उदाहरणों में 'णा' प्रत्यय का अभाव प्रदर्शित करके यह सिद्ध किया गया है कि 'णा' प्रत्यय केवल तृतीया विभक्ति के एकवचन में ही प्राप्त होता है; न कि किसी अन्य विभक्ति में।
प्रश्नः- पुल्लिंग और नपुसंकलिंग ऐसे शब्दों का उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तरः- इकारान्त और उकारान्त शब्द स्त्रीलिंग वाचक भी होते हैं परन्तु उन इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग वाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर भी इस प्राप्तव्य 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णा' की आदेश प्राप्ति नहीं होती है; अतः 'टा' के स्थान पर 'णा' आदेश प्राप्ति केवल पुल्लिग और नपुसंकलिंग वाले शब्दों में ही होती है; यह बतलाने के लिये ही पुल्लिंग और नपुसंकलिंग जैसे शब्दों का सूत्र की वृत्ति के प्रारंभ में प्रयोग किया गया है। जैसे:-बुद्धया बुद्धीअ अर्थात् बुद्धि से धेन्वा कृतम्-धेणूअकयं अर्थात् गाय से किया हुआ है। इन उदाहरणों में तृतीया विभक्ति के एकवचन का 'टा' प्रत्यय प्राप्त हुआ है; परन्तु 'टा' के स्थान पर 'णा' नहीं होकर सूत्र-संख्या ३-२९ से 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है; यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।
प्रश्न:- ‘इकारान्त और उकारान्त' ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तरः- इसमें ऐसा कारण है कि प्राकृत में आकारान्त तथा अकारान्त आदि शब्द भी होते हैं; परन्तु उनमें भी 'टा' के स्थान पर 'णा' आदेश प्राप्ति नहीं होती है; अतः इकारान्त और उकारान्त जैसे शब्दों का प्रयोग करना पड़ा है। जैसे:-कमलेन-कमलेण अर्थात् कमल से।
गिरिणा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२३ में की गई है।
ग्रामण्या संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप गामणिणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; ३-४३ से मूल शब्द 'ग्रामणी' में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर प्राकृत में हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति और ३-२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गामणिणा रूप सिद्ध हो जाता है।
खलप्वा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत-रूप खलपुणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-४३ से मूल शब्द 'खलपू' में स्थित दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर प्राकृत में हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति होकर ३-२४ से तृतीया
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26 : प्राकृत व्याकरण विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खलपुणा रूप सिद्ध हो जाता है।
तरुणा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२३ में की गई है।
दध्ना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहिणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८० से मूल शब्द 'दधि में स्थित 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर दहिणा रूप सिद्ध हो जाता है।
मधुना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप महुणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'ना' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर महुणा रूप सिद्ध हो जाता है। गिरी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१९ में की गई है। तरू रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१९ में की गई है। दहिं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१९ में की गई है। महुरूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१९ में की गई है।
बुद्धया संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धीअ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति करते हुए 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बुद्धीअ रूप सिद्ध हो जाता है।
धेन्वा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप घेणूअ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से मूल रूप 'धेनु' में स्थित 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर प्राकृत में अन्त हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति करते हुए 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धेणूअ रूप सिद्ध हो जाता है।
कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।
कमलेन संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप कमलेण होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति ओर ३-१४ से प्राप्त 'ण' के पूर्व में स्थित शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' के प्राप्ति होकर कमलेण रूप सिद्ध हो जाता है। ॥३-२४॥
क्लीबे स्वरान्म् सेः ॥३-२५।। क्लीबे वर्तमानात् स्वरान्तान्नाम्नः सेः स्थाने म् भवति। वणं । पेम्मा दहि। महुं। दहि महु इति तु सिद्धापेक्षया। केचिदनुनासिकमपीच्छन्ति । दहिँ। महुँ। क्लीब इति किम्। बालो। बाला। स्वरादिति इदुतोऽनिहत्यर्थन।
अर्थः- प्राकृत नपुसंकलिंग वाले स्वरान्त शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:- वनम्=वणं। प्रेम-पेम्म। दधिम् दहिं। मधु-महुं।। __ संस्कृत इकारान्त उकारान्त नपुसंकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्त प्रत्यय 'म्' का लोप हो जाता है; तदनुसार प्राकृत में भी इकारान्त उकारान्त नपुंसकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सूत्र-संख्या ३-२५ से प्राप्त होने वाले प्रत्यय 'म्' का भी वैकल्पिक रूप से लोप हो जाया करता है। जैसे:-दधि-दहि और मधु-महु। इन रूपों की स्थिति संस्कृत में सिद्ध रूपों की अपेक्षा से जानना। कोई कोई आचार्य प्राकृत में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुनासिक की प्राप्ति भी स्वीकार करते हैं; तदनुसार उनके मत से 'दधि' का प्राकृत प्रथमान्त एकवचनान्त रूप 'दहिँ भी होता है। इसी प्रकार से 'मधु' का 'महुँ जानना।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 27 प्रश्न:- मूल-सूत्र में क्लीबे' अर्थात् 'नपुसंक में ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तरः- इसका कारण यह है कि प्राकृत पुल्लिंग और स्त्रीलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है; 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति केवल नपुसंकलिंग वाले शब्दों में ही जानना; ऐसा निश्चित विधान करने के लिये ही मूल-सूत्र में क्लीबे' पद का उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:-- बालः बालो अर्थात् बालक और बाला-बाला अर्थात् लड़की। ये उदारहण क्रम से पुल्लिंग रूप और स्त्रीलिंग रूप हैं; इनमें प्रथमान्त एकवचन में 'म्' प्रत्यय का अभाव प्रदर्शित करते हुए यह बतलाया गया है कि प्रथमान्त एकवचन में नपुसंकलिंग में ही 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। अन्य लिंगों में नहीं।
प्रश्नः- मूल सूत्र में स्वरात्' शब्द के उल्लेख करने का विशेष तात्पर्य क्या है?
उत्तरः- संस्कृत में अकारान्त नपुसंकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है और अन्य इकारान्त-उकारान्त नपुसंकलिंग वाले शब्दों में इस प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'म्' का लोप हो जाता है; परन्तु प्राकृत में ऐसा नहीं होता है; अतएव प्राकृत अकारान्त, इकारान्त और उकारान्त सभी शब्दों में नपुसंकलिंगात्मक स्थिति में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। ऐसी विशेषता बतलाने के लिए ही मूल-सूत्र में 'स्वरात्' पद का उल्लेख किया गया है। जो कि 'अकारान्त, इकारान्त और उकारान्त' का द्योतक है। यों प्रयुक्त शब्दों की विशेषता जान लेनी चाहिये।
वणं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७२ में की गई है। पेम्मं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-९८ में की गई है। दहिं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१९ में की गई है। महुँ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१९ में की गई है।
दधि संस्कृत प्रथमान्त एकवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप दहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत रूपवत् प्राप्त प्रत्यय 'सि' का लोप होकर दहि रूप सिद्ध हो जाता है। ___ मधु संस्कृत प्रथमान्त एकवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप महु होता है। इसकी साधनिका उपर्युक्त 'दहि' के
समान ही होकर महु रूप सिद्ध हो जाता है। ___ दधि संस्कृत प्रथमान्त एकवचनान्त रूप है। इसका 'आर्ष' प्राकृत रूप दहिँ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२५ की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में आर्ष प्राकृत में अनुनासिक' की प्राप्ति होकर 'दहिँ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ मधु संस्कृत प्रथमान्त एकवचनान्त रूप है। इसका ‘आर्ष' प्राकृत रूप महुं होता है। इसकी साधनिका उपर्युक्त दहिँ के समान ही होकर महुँ रूप सिद्ध हो जाता है।
बालः संस्कृत प्रथमान्त एकवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप बालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति की एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बालो रूप सिद्ध हो जाता है।
बाला संस्कृत प्रथमान्त एकवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप भी बाला ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' की प्राप्ति और १-११ से प्राप्त हलन्त व्यंजन 'स्' का लोप होकर प्रथमान्त एकवचन रूप स्त्रीलिंग पद बाला सिद्ध हो जाता है ॥३-२५।।
जस-शस-इँ-इं-णयः सप्राग्दीर्घाः ॥३-२६।। क्लीबे वर्तमानानाम्नः परयोर्जस्-शसोः स्थाने सानुनासिक-सानुस्वाराविकारौ णिश्चादेशा भवन्ति सप्राग्दीर्घाः।
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28 : प्राकृत व्याकरण एषु सत्सु पूर्वस्वरस्य दीर्घत्वं विधीयते इत्यर्थः।। {। जाइँ वयणाइँ अम्हे। इं। उम्मीलन्ति पङ्कयाई चिट्ठन्ति पेच्छ वा। दहीइं हुन्ति जेम वा। महुई मुञ्च वा। णि। फुल्लन्ति पङ्कयाणि गेण्ह वा। हुन्ति दहीणि जेम वा। एवं महूणि।। क्लीब इत्येव। वच्छा वच्छे।। जस्-शस् इति किम्। सुहं।।
अर्थः- प्राकृत भाषा के अकारान्त, इकारान्त और उकारान्त नपुसंकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में क्रम से अनुनासिक सहित 'ई' प्रत्यय अनुस्वार सहित 'इं 'प्रत्यय और 'णि' प्रत्यय की आदेश-प्राप्त होती है। क्रम से प्राप्त होने वाले इन 'इँ, इं, णि' प्रत्ययों के पूर्वस्थ शब्दान्त्य हस्व स्वर को नियमित रूप से 'दीर्घत्व' की प्राप्ति होती है। अर्थात् शब्दान्त्य स्वर को दीर्घ करने के पश्चात् ही इन प्राप्त होने वाले प्रत्ययों 'इँ, ई, णि' में से कोई सा भी एक प्रत्यय संयोजित कर दिया जाता है और ऐसा कर देने पर प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का अर्थ प्रकट हो जाता है। जैसे:- 'का उदाहरणः- यानि वचनानि अस्माकम् जाइँ वयणाइँ अम्हे अर्थात् (प्रथमा में) हमारे जो वचन है अथवा (द्वितीया में) हमारे जिन वचनों को। 'ई' का उदाहरणः-उन्मीलन्ति पङ्कजानि-उम्मीलन्ति पङ्कयाइं अर्थात् कमल खिलते हैं; पङ्कजानि तिष्ठन्ति पङ्कयाइं चिटन्ति अर्थात् कमल विद्यमान हैं। पङ्कजानि पश्य-पङ्कयाइं पेच्छ अर्थात् कमलों को देखो। दधीनि भवन्ति (अथवा सन्ति)-दहीइं हुन्ति अर्थात् दही है। दधीनि भुक्त-दहीइं जेम अर्थात् दही को खाओ। मधूनि मुञ्च अर्थात् शहद को छोड़ दो- (रहने दो-मत खाओ)। "णि' का उदाहरणः- फुल्लन्ति पङ्कजानि-फुल्लन्ति पङ्कयाणि अर्थात् कमल खिलते हैं। पङ्कजानि गृहाण पडूयाणि गेण्ह अर्थात् कमलों को ग्रहण करो। दधीनि भवन्ति-दहीणि हुन्ति अर्थात् दही है। दधीनि भुज-दहीणि जेम अर्थात् दही को खाओ। मधूनि भुक्त-महूणि जेग अर्थात् शहद को खाओ इन उदाहरणों में क्रम से 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों का प्रयोग बतलाया गया है।
प्रश्नः- सूत्र की वृत्ति के प्रारम्भ में क्लीबे' अर्थात् 'नपुसंकलिंग में ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तर:- जो प्राकृत शब्द नपुसंकलिंग वाले नहीं होकर पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग वाले हैं; उन शब्दों में 'जस्'- अथवा शस्' के स्थान पर 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों की प्राप्ति नहीं होती है अर्थात् केवल नपुसंकलिंग वाले शब्दों में ही इन 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों की प्राप्ति हुआ करती है; यह 'अर्थ-पूर्ण-विधान' प्रस्थापित करने के लिये ही सूत्र की वृत्ति के प्रारम्भ में 'क्लीबे' शब्द का उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:- वृक्षाः वच्छा और वृक्षान्-वच्छे; ये उदाहरण क्रम से प्रथमान्त बहुवचन वाले और द्वितीयांत बहुवचन वाले हैं: किन्तु इनका लिंग पुल्लिंग है; अतएव इनमें ', इं और णि' प्रत्ययों का अभाव है। यों इनकी पारस्परिक विशेषता को जान लेना चाहिये।
प्रश्न:- सूत्र के प्रारंभ में 'जस्-शस्' ऐसे शब्दों का प्रयोग करने का क्या तात्पर्य-विशेष है?
उत्तर :- इसका यह रहस्य है कि प्राकृत भाषा के नपुसंकलिंग वाले शब्दों में 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों की प्राप्ति प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में ही होती है; अन्य किसी भी विभक्ति के (संबोधन को छोड़कर) किसी भी वचन में इन 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों की प्राप्ति नहीं होती है। यही तात्पर्य 'जस्-शस्' से प्रकट होता है और इसीलिये इन्हें सूत्र के प्रारम्भ में स्थान दिया गया है। जैसेः- सुख-सुह। इस उदाहरण में 'नपुसंकति
संकलिंगत्व' का सद्भाव है; परन्तु ऐसा होने पर भी इसमें प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का अभाव है और ऐसी 'अभावात्मक-स्थिति, होने से ही 'जस्-शस्' के स्थानीय प्रत्ययों का याने 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों का भी इस उदाहरण में अभाव है। यों यह उदाहरण प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के एकवचन का है; इस प्रकार 'सुखम्-सुहं पद नपुसंकलिंग वाला है; प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति वाला है; परन्तु एकवचन वाला होने से इसमें 'इँ, इं और णि' प्रत्ययों में से किसी भी प्रत्यय की संयोजना नहीं हो सकती है। यही रहस्य पूर्ण विशेषता जस्-शस् की जानना।
यानि संस्कृत प्रथमा द्वितीयान्त के बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप जाइँ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्'
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 29 अथवा 'शस्' के नपुसंकलिंगात्मक स्थानीय प्रत्यय 'नि' के स्थान पर प्राकृत में 'हूँ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जाइँ रूप सिद्ध हो जाता है।
वचनानि संस्कृत प्रथमा द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप वयणाइँ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ से 'च्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'च्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १ - २२८ से प्रथम 'न्' के स्थान पर 'ण्' की प्राप्ति और ३ - २६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' अथवा 'शस्' के नपुसंकलिंगात्मक स्थानीय प्रत्यय 'नि' के स्थान पर प्राकृत में शब्दान्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ 'आ' की प्राप्ति करते हुए ‘इँ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वयणाइँ रूप सिद्ध हो जाता है।
अस्माकम् संस्कृत षष्ठ्यन्त बहुवचनात्मक सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप अम्हे होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - ११४ से संस्कृत सर्वनाम 'अस्मद्' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में 'आम्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर प्राप्त रूप 'अस्माकम्' के स्थान पर प्राकृत में ' अम्हे' रूप की आदेश प्राप्ति होकर अम्हें रूप सिद्ध हो जाता है।
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उन्मीलन्ति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप उम्मीलन्ति होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७८ से प्रथम हलन्त 'न्' व्यंजन का लोप; २-८९ से लोप हुए 'न्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'म्' को द्वित्व 'म्म' को प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'उम्मील' में स्थित अन्त्य 'लू' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल प्रथमपुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप उम्मीलन्ति सिद्ध हो जाता है।
पङ्कजानि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पङ्कयाइं होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'ज्' का लोप; १ - १८० लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति; और ३- २६ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति बहुवचन में प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' के नपुसंकलिंगात्मक स्थानीय रूप 'नि' के स्थान पर प्राकृत में 'इं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पङ्कयाईं रूप सिद्ध हो जाता है।
चिट्ठन्ति रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २० में की गई है।
पेच्छ रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २३ में की गई है।
ही रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३- २० में की गई है।
भवन्ति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप हुन्ति होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६१ से संस्कृत धातु 'भू- भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हु' आदेश; और ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप हुन्ति सिद्ध हो जाता है।
भुंक्त संस्कृत आज्ञार्थक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप जेम होता है। इसमें सूत्र संख्या ४- ११० से संस्कृत मूल धातु 'भुज्' के स्थान पर प्राकृत में 'जेम्' आदेश; ४ - २३९ से प्राप्त प्राकृत धातु 'जेम' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'म्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१७५ आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राप्त प्राकृत प्रत्यय 'सु' का लोप होकर जेम रूप सिद्ध हो जाता है।
महुई रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २० में की गई है।
मुञ्च संस्कृत आज्ञार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप मुञ्च होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - १७५ से आज्ञार्थक कार में द्वितीय - पुरुष के एकवचन में प्राप्त प्राकृत प्रत्यय 'सु' का लोप होकर मुञ्च रूप सिद्ध होता है।
वा अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-६७ में की गई है।
से
फुल्लन्ति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप फुल्लन्ति होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४-२३९ मूल प्राकृत धातु 'फुल्ल्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'ल्ल्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप फुल्लन्ति सिद्ध हो जाता है।
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30 : प्राकृत व्याकरण __पङ्कजानि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पङ्कयाणि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' के नपुंसकलिंगात्मक स्थानीय रूप 'नि' के स्थान पर प्राकृत में 'णि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पङ्कयाणि रूप सिद्ध हो जाता है।
गेण्ह रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९७ में की गई है।
दधीनि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दहीणि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत रूप 'दधि' में स्थित 'ध्' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' आदेश और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' के नपुसंकलिंगात्मक स्थानीय रूप 'नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति कराते हुए 'णि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप दहीणि सिद्ध हो जाता है।
'हुन्ति'-रूप की सिद्धि इसी सूत्र में उपर की गई है। 'जेम'-रूप की सिद्धि इसी सूत्र में उपर की गई है।
मधूनिः- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप महूणि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ मूल संस्कृत रूप 'मधु' में स्थित 'ध्' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' आदेश और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' के नपुसंकलिंगात्मक स्थानीय रूप 'नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति कराते हुए 'णि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप महूणि सिद्ध हो जाता है।
वच्छा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है। वच्छे रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है।
सुखम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुहं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' स्थान पर 'ह' आदेश और ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' आदेश एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सुहं रूप सिद्ध हो जाता है। अथवा सूत्र-संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राकृत रूप सुहं सिद्ध हो जाता है ।।३-२६।।
स्त्रियामुदोतौ वा ॥३-२७।। स्त्रियां वर्तमानानाम्नः परयोर्जस्-शसोः स्थाने प्रत्येकम् उत् ओत् इत्येतौ सप्राग्दी? वा भवतः।। वचन-भेदो यथा-संख्य निवृत्त्यर्थः।। मालउ मालाओ। बुद्धीउ बुद्धीओ। सहीउ सहीओ। धेणूउ धेणूओ। वहूउ वहूओ। पक्षे। माला। बुद्धी। सही। धेणू। वहू। स्त्रियामिति किम्। वच्छा। जस्-शस इत्येव। मालाए कयं।। ____ अर्थः- प्राकृत भाषा के अकारान्त, इकारान्त, उकारान्त, ईकारान्त और ऊकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'शस' के स्थान पर-वैकल्पिक रूप से 'उत्-उ' और 'ओत-ओ' प्रत्ययों को प्राप्ति होती है। अर्थात् प्रथमा और द्वितीया विभक्ति में से प्रत्येक के बहुवचन में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'उ' और 'ओ' ऐसे दो-दो प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। साथ में यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि इन 'उ' अथवा 'ओ' प्रत्ययों की प्राप्ति के पूर्व शब्दान्त्य हस्व स्वर को दीर्घ-स्वर की प्राप्ति हो जाती है। अर्थात् हस्व इकारान्त को दीर्घ ईकारान्त की प्राप्ति होती है एवं हस्व उकारान्त दीर्घ ऊकारान्त में परिणत हो जाता है। वृत्ति में प्रत्येकम्' शब्द को लिखने का यह तात्पर्य है कि स्त्रीलिंग वाले सभी शब्दों में और प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में-(दोनों विभक्तियों में) उ' और 'ओ' प्रत्ययों की क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होती है। जैसे:-आकारान्त स्त्रीलिंग का उदाहरणः-मालाः मालाउ और मालाओ; इकारान्त स्त्रीलिंग का उदाहरणः-बुद्धयः और बुद्धी: बुद्धीउ और बुद्धीओ; ईकारान्त स्त्रीलिंग का उदाहरणः-सख्यः और सखी:-सहीउ और सहीओ; उकारान्त स्त्रीलिंग का उदाहरणः-धेनवः और
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 31 धेनू:- धेणूड और धेणूओ; एवं ऊकारान्त स्त्रीलिंग का उदाहरण:- वध्वः और वधूः = वहूर और वहूओ । वैकल्पिक पक्ष होने से इन्हीं उदाहरणों में क्रम से एक-एक रूप इस प्रकार भी होता है :- माला, बुद्धी, सही, धेणू और वहू। ये रूप प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के जानना; यों स्त्रीलिंग वाले शब्दों में प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में रूपों की समानता तथा एकरूपता है।
प्रश्न:- सूत्र के प्रारंभ में 'स्त्रियाम्' अर्थात् स्त्रीलिंग वाले शब्दों में ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तरः- जो प्राकृत शब्द स्त्रीलिंग वाले नहीं होकर पुल्लिंग वाले अथवा नपुंसकलिंग वाले हैं; उनमें प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों की इनके स्थान पर आदेश प्राप्ति नहीं होती है। 'उ' अथवा 'ओ' की आदेश प्राप्ति केवल स्त्रीलिंग वाले शब्दों के लिये ही है; ऐसा स्पष्ट विधान प्रस्थापित करने के लिये ही सूत्र के प्रारंभ में 'स्त्रियाम्' जैसे शब्द को रखने की आवश्यकता हुई है । जैसे:वृक्षाः=वच्छा और वृक्षान्=वच्छा। इन उदाहरणों से विदित होता है कि पुल्लिंग में 'जस् अथवा शस्' के स्थान पर 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति नहीं होती है।
प्रश्न:- 'जस्' अथवा 'रास्' ऐसा भी क्यों कहा गया है?
उत्तरः- स्त्रीलिंग वाले शब्दों में 'उ' और 'ओ' आदेश रूप प्रत्ययों की प्राप्ति 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर ही होती है; अन्य किसी भी विभक्ति के प्रत्ययों के स्थान पर 'उ' अथवा 'ओ' की आदेश प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:मालायाःकृतम्=मालाएं कयं अर्थात् माला का बनाया हुआ है। यहाँ पर षष्ठी विभक्ति के एकवचन का उदाहरण दिया गया है; जिसमें बतलाया गया है कि सूत्र- संख्या ३- २९ से 'ङस्' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हुई है; न कि 'उ' अथवा 'ओ' की; यों यह सिद्धान्त निश्चित किया गया है कि 'जस्- रास्' के स्थान पर ही 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होती है; अन्यत्र नहीं। इसलिए वृत्ति में 'जस् और शस्' का उल्लेख करना पड़ा है।
पंचमी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में स्त्रीलिंग वाले शब्दों में जो 'उ' और 'ओ' प्रत्यय दृष्टिगोचर होते हैं; उनकी प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-८ और ३ - ९ में उल्लिखित 'दु' और 'दो' से निष्पन्न होती है; अतएव 'जस्-शस्' के स्थान पर 'उ' और 'ओ' आदेश प्राप्ति बतलाना निष्कलंक है। इसी प्रकार से संबोधन के बहुवचन में स्त्रीलिंग वाले शब्दों में 'उ' और 'ओ' की उपलब्धि भी निष्कलंक ही है; क्योंकि 'सम्बोधन - रूपों की प्राप्ति प्रथमावत् होती है और यह सिद्धान्त सर्वमान्य है; अतएव यह सिद्ध हुआ कि 'जस् शस्' के स्थान पर ही 'उ', 'ओ' की आदेश - प्राप्ति होती है; अन्यत्र नहीं ।
मालाः संस्कृत प्रथमान्त - द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप मालाउ, मालाओ और माला होते हैं। इनमें से प्रथम और द्वितीय रूपों में सूत्र - संख्या ३ - २७ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दो रूप मालाउ और मालाओ सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय रूप- (माला :-) माला में सूत्र - संख्या ३-४ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' का प्राकृत में लोप होकर तृतीय रूप माला सिद्ध हो जाता है।
बुद्धयः और बुद्धीः संस्कृत प्रथमान्त - द्वितीयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप है इन दोनों के (सम्मिलित) प्राकृत रूप बुद्धी, बुद्धीओ ओर बुद्धी होते हैं। इनमें से प्रथम और द्वितीय रूप में सूत्र - संख्या ३ - २७ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर शब्दान्त्य ह्रस्व स्वर को दीर्घ स्वर करते हुए क्रम से प्रथम दो रूप बुद्ध और बुद्धीओ सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय रूप- (बुद्धयः और बुद्धी:-) बुद्धी में सूत्र - संख्या - ३-४ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय ‘जस्–शस्' का प्राकृत में लोप और ३- १२ से तथा ३ - १८ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्-शस्' के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप बुद्धी सिद्ध हो जाता है।
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32 : प्राकृत व्याकरण ___ सख्य और सखीः संस्कृत प्रथमान्त-द्वितीयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप हैं। इन दोनों के (सम्मिलित) प्राकृत रूप सहीउ, सहीओ और सही होते हैं। इनमें प्रथम और द्वितीय रूपों में सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत रूप 'सखी' में स्थित 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२७ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय जस्-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्त होकर क्रम से प्रथम दो रूप सहीउ और सहीओ सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय रूप-(सख्यः और सखी:-) सही में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' का प्राकृत में लोप होकर तृतीय रूप सही सिद्ध हो जाता है।
धेनवः और धेनूः संस्कृत प्रथमान्त-द्वितीयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप हैं। इन दोनों के सम्मिलित प्राकृत रूप धेणूउ, धेणूओ और धेण होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२२८ से मूल संस्कृत रूप 'धेनु' में स्थित 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या ३-२७ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति कराते हुए
वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से प्रथम दो रूप धेणूठ और धेणूओ सिद्ध हो जाते हैं। __ तृतीय रूप-(धेनवः और धेनूः ) घेणू में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृत प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' का प्राकृत में लोप और ३-१२ से ३-१८ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्-शस्' के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ-स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप धेणू सिद्ध हो जाता है।
वध्वः और वधूः संस्कृत प्रथमान्त-द्वितीयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप हैं। इन दोनों के (सम्मिलित) प्राकृत रूप वहूउ, वहूओ और वहू होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत रूप 'वधू' में स्थित 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम दो रूप में सूत्र-संख्या ३-२७ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की
आदेश प्राप्ति होकर क्रम से प्रथम दो रूप वहूउ और वहूओ सिद्ध हो जाते हैं। __ तृतीया रूप-(वध्वः और वधूः=) वहू में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृत प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' का प्राकृत में लोप होकर तृतीया रूप वहू सिद्ध हो जाता है।
वच्छा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है।
मालायाः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप मालाए होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२९ से संस्कृत षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'अस्-याः' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप मालाए सिद्ध हो जाता है। कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।।३-२७।।
ईतः से श्चा वा ॥३-२८॥ स्त्रियां वर्तमानादीकारान्तात् सेर्जस्-शसोश्चस्थाने आकारो वा भवति ।। एसा हसन्तीआ। गोरीआ चिट्ठन्ति पेच्छ वा । पक्षे। हसन्ती। गोरीओ॥
अर्थः- प्राकृत भाषा में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में संस्कृत प्रथमा विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'सि' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आ' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे:- एषा हसन्ती एसा हसन्तीआ अर्थात् यह हँसती हुई। वैकल्पिक पक्ष होने से 'हसन्ती' (अर्थात् हँसती हुई) रूप भी प्रथमा विभक्ति के एकवचन में बनता है। इसी प्रकार से इन्हीं ईकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में संस्कृत प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर और
द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से 'आ' आदेश की प्राप्ति हुआ
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 33 करती है। जैसे:- 'जस्' का उदाहरण: गौर्यः तिष्ठन्ति = गोरीआ चिट्ठन्ति; वैकल्पिक पक्ष में:-गोरीओ चिट्ठन्ति अर्थात् सुन्दर स्त्रियाँ विराजमान हैं। ‘शस्' का उदाहरण:- गौरीः पश्य = गोरीआ पेच्छ; वैकल्पिक पक्ष में:- गोरीओ पेच्छ अर्थात् सुन्दर स्त्रियों को देखो। इन उदाहरणों में यह प्रदर्शित किया गया है कि:- 'सि', 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से ईकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में 'आ' आदेश हुआ करता है।
एसा रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-३३ में की गई है।
हसन्ती संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हसन्तीआ और हसन्ती होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ४ - २३९ से मूल प्राकृत हलन्त धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३ - १८१ से वर्तमान कृदन्त रूप के अर्थ में प्राप्त धातु 'हस' में 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति; ३ - ३१ से प्राप्त रूप 'हसन्त' में स्त्रीलिंगार्थक प्रत्यय 'डी' की प्राप्ति; तदनुसार प्राप्त प्रत्यय 'डी' में स्थित 'ङ्' इत्संज्ञक होने से शेष प्रत्यय 'ई' की प्राप्ति से पूर्व 'हसन्त' रूप में से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर 'अ' का लोप एवं प्राप्त हलन्त् ' हसन्त्' में उक्त स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'ई' की संयोजना होने से 'हसन्ती' रूप की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्राप्त रूप 'हसन्ती' में सूत्र - संख्या ३- २८ से संस्कृत प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'आ' आदेश रूप प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथमा रूप हसन्तीआ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप - (हसन्ती = ) हसन्ती में सूत्र - संख्या ३ - १९ से प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य स्वर को दीर्घता की प्राप्ति रूप स्थिति यथावत् रहकर द्वितीय रूप हसन्ती सिद्ध हो जाता है।
गौर्यः-संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप गोरीआ और गोरीओ होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १-४ से मूल शब्द 'गौरी' में स्थित 'औ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३ - २८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'आ' आदेश रूप प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'गोरीआ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप - (गौर्य :-) गोरीओ में सूत्र - संख्या ३ - २७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' आदेश रूप प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'गोरीओ' सिद्ध हो जाता
है।
गौरी:--संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप गोरीआ और गोरीओ होते हैं। इन दोनों द्वितीयान्त बहुवचन वाले रूपों की सिद्धि उपर्युक्त प्रथमान्त बहुवचन वाले रूपों के समान ही होकर क्रम से दोनों रूप गोरीआ तथा गोरीओ सिद्ध हो जाते हैं।
चिट्ठन्ति रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २० में की गई है।
पेच्छ रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २३ में की गई है।
'वा' (अव्यय) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-६७ में की गई है । । ३ - २८ ॥
-- डेरदादिदेद्वा तु ङसे: ।।३-२९।।
टा-ङस्
स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परेषां टाङस्डीनां स्थाने प्रत्येकम् अत् आत् इत् एत् इत्येते चत्वार आदेशाः सप्राग्दीर्घा भवन्ति। ङसेः पुनरेते सप्राग्दीर्घा वा भवन्ति ॥ मुद्धाअ । मुद्धा | मुद्धा कयं मुहं ठिअं वा ।। कप्रत्यये तु मुद्धिआअ । मुद्धिआ। मुद्धिआए । कमलिआअ । कमलिआइ । कमलिआए । बुद्धीअ । बुद्धीआ । बुद्धी । बुद्धीए कयं विहवो ठिअं वा।। सहीअ। सहीआ । सही । सहीए कयं वयणं ठिअं वा ।। धेणूअ । धेणूआ । धेणू । धेणूए कयं दुद्धं ठि वा ।। हू । हूआ। वहूइ । वहूए कयं भवणं ठिअं वा ॥ ङसेस्तु वा । मुद्धाअ । मुद्धाइ । मुद्धाए । बुद्धीअ । बुद्धी । बुद्धी । बुद्धी ।। सहीअ । सहीआ । सही । सहीए । धेणूअ । धेणूआ। धेणूइ । धेणू ।। वहूआ। वहूआ । वहूइ । वहूए आगओ । पक्षे ॥ मुद्धाओ । मुद्धाउ । मुद्धाहिन्तो । रईओ । रईउ । रई हिन्तो । धेणूओ । धेणूउ । धेणूहिन्तो ।। इत्यादि । शेषे दन्तवत् (३ - १२४) अतिदेशात् जस्-शस् ङसि - तो- दो- द्वामिदीर्घः (३-१२) इति दीर्घत्वं पक्षेऽपि
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34 : प्राकृत व्याकरण भवति।। स्त्रियामित्येवा वच्छेण। वच्छस्सा वच्छम्मि। वच्छाओ। टादीनामिति किम्। मुद्धा। बुद्धी। सही। धेणू। वहू॥ - अर्थः- प्राकृत भाषा के अकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त और ऊकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा-आ' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से चार आदेश रूप प्रत्ययों की प्राप्ति होती है; जो कि इस प्रकार है:- ‘अत्-अ'; 'आत्=आ'; 'इत्-इ' और 'एत-ए। इन आदेश प्राप्त प्रत्ययों के पूर्व हस्व स्वर का दीर्घ हो जाता है। इसी प्रकार से षष्ठी-विभक्ति के एकवचन के संस्कृत प्रत्यय 'उस-अस्' के स्थान पर और सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर भी उपरोक्त प्राकृत स्त्रीलिंग वाले शब्दों में उपरोक्त प्रकार ही क्रम से चार आदेश रूप प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय भी वे ही है जो कि ऊपर इस प्रकार से लिखे गये है:- अत्=अ; आत्=आ; इत्=आ; इत्-इ और एत्-ए; इन आदेश-प्राप्त प्रत्ययों के पूर्व अन्त्य हस्व स्वर को दीर्घ स्वर की प्राप्ति हो जाती है। पंचमी विभक्ति के एकवचन के संस्कृत प्रत्यय 'ङसि=अस्' के स्थान पर भी उपर्युक्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में उपर्युक्त प्रकार से ही प्रत्ययों की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है; तदनुसार पंचमी विभक्ति के एकवचन में सूत्र-संख्या ३-८ से 'त्तो', 'ओ', 'उ', और 'हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति भी इन प्राकृत स्त्रीलिंग वाले शब्दों में होती है। पंचमी विभक्ति के एकवचन में वैकल्पिक रूप से आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'अ-आ-इ-ए' के पूर्व में शब्दान्त्य हस्व स्वर को दीर्घ स्वर की प्राप्ति होती है। उपर्युक्त विधान में इतनी सी विशेषता जानना कि सूत्र-संख्या ३-३० से आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में आ आदेश प्राप्ति नहीं होती है। ततीया विभक्ति के एकवचन का उदाहरणः- मुग्धया कृतम मुद्धाअ-मद्धाइ-मुद्धाए कय
(संमोहित स्त्री विशेष से) किया हुआ है। षष्ठी विभक्ति के एकवचन का उदाहरण:-मुग्धायाः मुखम्=मुद्धाअ-मुद्धाइ-मुद्धाए मुहं अर्थात् मुग्धा स्त्री का मुख। सप्तमी विभक्ति के एकवचन का उदाहरणः- मुग्धायाम् स्थितम्=मुद्धाअ-मुद्धाइ-मुद्धाए ठिअंअर्थात् मुग्धा स्त्री में रहा हुआ है। 'स्वार्थ' में प्राप्त होने वाले 'क' प्रत्यय का स्त्रीलिंग रूप में 'का' हो जाता है; तदनुसार वह शब्द 'आकारान्त-स्त्रीलिंग' बन जाता है और ऐसा होने पर उक्त आकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों के समान ही बनता है। जैसे:- मुग्धिकया अथवा मुग्धिकायाः अथवा मुग्धिकायाम् =मुग्धिआअ -मुष्टि दआई-मुध्दि- आए। तीनों विभक्तियों के एकवचन में एकरूपता होने से सभी रूप साथ-साथ में ही लिख दिये हैं। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- कमलिकया अथवा कमलिकायाः एवं कमलिकायाम् कमलिआअ-कमलिआइ-कमलिआए अर्थात् कमलिका से अथवा कमलिका का एवं कमलिका में। यों अन्य आकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों के तृतीया विभक्ति के एकवचन में, षष्ठी विभक्ति के एकवचन में और सप्तमी विभक्ति के एकवचन में होने वाले रूपों को भी जान लेना चाहिये। हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग 'बुद्धि' का उदाहरण:- तृतीया विभक्ति के एकवचन में:- बुद्धया कृतम् बुद्धीअ-बुद्धीआ-बुद्धीइ-बुद्धीए कयं अर्थात् बुद्धि से किया हुआ है।
तृतीया विभक्ति में एकवचन में :-बुद्धया कृतम्-बुद्धीअ-बुद्धीआ-बुद्धीइ-बुद्धीए कयं अर्थात् बुद्धि से किया हुआ
षष्ठी विभक्ति के एकवचन में:-बुद्धयाः विभवः=बुद्धीअ-बुद्धीआ-बुद्धीइ-बुद्धीए विहवो अर्थात् बुद्धि की संपत्ति। सप्तमी विभक्ति के एकवचन में; बुद्धीयम् स्थितम् बुद्धीअ-बुद्धाआ-बुद्धीइ-बुद्धीए ठिअं अर्थात् बुद्धि में स्थित है। दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग-'सखी-सही' का उदाहरण:
तृतीया-षष्ठी-सप्तमी के एकवचन का क्रमिक उदाहरण-सख्या कृतम् सहीअ-सहीआ-सहीइ-सहीए कय। सखी से किया हुआ है।
सख्या कृतम् सहीअ-सहीआ-सहीइ-सहीए कयं। सखी से किया हुआ है। सख्याः वचनम् सहीअ-सहीआ-सहीइ-सहीए वयणं-सखी का वचन है। सख्याम् स्थितम् सहीअ-सहीआ-सहीइ-सहीए ठिअं-सखी में रहा हुआ है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 35 __ तृतीया-षष्ठी-सप्तमी विभक्ति के एकवचन के हस्व उकारान्त स्त्रीलिंग धेनु धेणु' के क्रमिक उदाहरणः-धेन्वा कृतम् धेणूअ-धेणूआ-धेणूइ-धेणूए कयं-गाय से किया हुआ है।
धेन्वा:दुग्धम् धेणूअ-धेणूआ-धेणूइ-धेणूए दुद्धं गाय का दूध है। धेन्वाम् स्थितम् धेणूअ-धेणूआ-धेणूइ-धेणूए ठिअंगाय में स्थित है। दीर्घ ऊकारान्त स्त्रीलिंग शब्द 'वधू-वहू' के तृतीया-षष्ठी-सप्तमी विभक्ति के एकवचन के क्रमिक उदाहरणः- व वा कृतम्-वहूअ-वहूआ-वहूइ-वहूए कयं-वहू से किया हुआ है।
वध्वाःभवनम् वहूअ-वहूआ-वहूइ-वहूए भवणं-बहू का भवन है। वध्वाम् स्थितम् वहूअ वहूआ-वहूइ-वहूए ठिअं-बहू में रहा हुआ है।
संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'अ-आ-इ-ए' आदेश प्राप्ति तथा क्रम से 'ओ-उ-तो-हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:
आकारान्त स्त्रीलिंगः- मुग्धायाः मुद्धाअ-मुद्धाइ-मुद्धाए-मुद्धत्ते, मुद्धाओ, मुद्धाउ और मुद्धाहिंतो। इकारान्त स्त्रीलिंगः बुद्धया बुद्धीअ-बुद्धीआ-बुद्धीइ-बुद्धीए, बुद्धित्तो, बुद्धीउ, बुद्धीओ और बुद्धिहिंतो। ईकारान्त स्त्रीलिंगः-सख्याः सहीअ सहीआ-सहीइ-सहीए, सहीत्तो-सहीउ-सहीओ और सहीहितो। उकारान्त स्त्रीलिंगः- धेन्वाः धेणूअ-धेणूआ-धेणूइ-धेणूए, धेणुत्तो, धेणूउ, धेणूओ और धेणूहितो।
ऊकारान्त स्त्रीलिंगः-वध्वाः आगतः वहूअ-वहूआ-वहूइ-वहूए, वहुत्तो, वहूउ, वहूओ और वहूहितो आगओ=बहू से आया हुआ है।
इकारान्त स्त्रीलिंग का एक और उदाहरण वृत्ति में इस प्रकार दिया गया है:-रत्याः-रईओ- रईउ-रईहिन्तो अर्थात् रति से। इन उदाहरणों में यह ध्यान रहे कि हस्व इकारान्त और हस्व उकारान्त शब्दों में प्रत्ययों के पूर्व में स्थित हस्व स्वर की प्राप्ति हो जाती है, किन्तु त्तो प्रत्यय के पूर्व का हस्व स्वर दीर्घता को प्राप्त नहीं होकर हस्व का हस्व ही रहता है तथा सूत्र-संख्या १-८४ से अन्त्य दीर्घ स्वर 'तो' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर हस्व हो जाता है। जैसे:-मालत्तो, बुद्धित्तो, सहित्तो
और वहुत्तो। ___ प्राकृत भाषा के स्त्रीलिंग वाले शब्दों की शेष विभक्तिों के रूपों की रचना सूत्र-संख्या ३-१२४ के विधानानुसार अकारान्त शब्दों के समान समझ लेनी चाहिए।
सूत्र-संख्या ३-१२ में कहा गया है कि प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'जस्' प्राप्त होने पर; द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'शस्' प्राप्त होने पर; पंचमी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'ओ, उ, हिन्तो' प्राप्त होने पर; पंचमी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'ओ, उ, हितो, सुन्तो' प्राप्त होने पर हस्व स्वर को दीर्घता प्राप्त होती है; यही विधान स्त्रीलिंग शब्दों के लिये भी इन्हीं विभक्तियों के ये प्रत्यय प्राप्त होने पर जानना; तदनुसार स्त्रीलिंग वाले शब्दों में भी प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में, पंचमी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में पक्षान्तर में भी हस्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति होती है।
प्रश्नः-वृत्ति के प्रारम्भ में 'स्त्रीलिंग वाले शब्दों में ऐसा शब्द क्यों कहा गया है?
उत्तरः-इसमें यह तात्पर्य है कि जब प्राकृत भाषा के स्त्रीलिंग वाले शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय प्राप्त होता है अथवा पंचमी, षष्ठी और सप्तमी विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय प्राप्त होता है; तो इन प्रत्ययों के स्थान पर केवल स्त्रीलिंग वाले शब्दों में ही 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। नपसंकलिंग वाले अथवा पल्लिग वाले शब्दों में उन विभक्तिों के एकवचन के प्रत्यय प्राप्त होने पर इन प्रत्ययों के स्थान पर 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की
आदेश प्राप्ति नहीं होती है। ऐसा विधान प्रदर्शित करने के लिये ही वृत्ति के प्रारंभ में स्त्रीलिंग वाले शब्दों में ऐसा उल्लेख
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36 : प्राकृत व्याकरण
करना पड़ा है। जैसे पुल्लिंग शब्द का उदाहरण इस प्रकार है:- तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'वच्छेण'; पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'वच्छाओ; षष्ठी विभक्ति 'एकवचन में 'वच्छस्स' और सप्तमी विभक्ति के एकवचन में 'वच्छम्मि' होता है। न कि स्त्रीलिंग वाले शब्दों के समान 'वच्छाअ-वच्छाआ-वच्छाइ - वच्छाएं रूपों की रचना होती है। यही रहस्य वृत्ति के प्रारम्भ में उल्लिखित 'स्त्रियां' शब्द से जानना ।
प्रश्न:- मूल सूत्र में 'टा - ङस् - - ङि ङसि ' ऐसा क्यों लिखा गया है?
उत्तर : 'अ-आ-इ-ए' ऐसी आदेश - प्राप्ति केवल 'टा- ङस् - ङि ङसि' के स्थान पर ही होती है; अन्य प्रत्ययों के स्थान पर 'अ-आ-इ-ए' आदेश प्राप्ति नहीं होती है; ऐसा सुनिश्चित विधान प्रदर्शित करने के लिए ही सूत्र में 'टा-ङस्-ङि-ङसि' का उल्लेख करना आवश्यक समझा गया है। इसके समर्थन में उदाहरण इस प्रकार हैं:- मुग्धा मुद्धा; बुद्धि: - बुद्धी; सखी -सही; धेनुः धेणू और वधूः = वहू । इन उदाहरणों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय 'सि' प्राप्त हुआ है; और उक्त प्राप्त प्रत्यय 'सि' का सूत्र - संख्या ३ - १९ से लोप होकर इसके स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर को दीर्घता प्राप्त हुई है; न कि 'अ आ इ - ए' रूप आदेश प्राप्ति । अतएव यह सिद्ध करने के लिये कि ' अ आ इ - ए' रूप आदेश प्राप्ति केवल 'टा - ङस् - ङि ङसि' के स्थानों पर ही होती है; न कि अन्यत्र । इसी रहस्य को समझाने के लिये में 'टा-ङस्- ङि ङसि' का उल्लेख करना पड़ा है।
सूत्र
मुग्धा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप मुद्धाअ - मुद्धाइ और मुद्धाए होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या २- ७७ से मूल संस्कृत रूप मुग्धा में स्थित हलन्त 'ग्' का लोप; २-८९ से 'धू' को द्वित्व ' ध्ध' की प्राप्ति २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'धू' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति और ३- २९ से प्राप्त प्राकृत रूप 'मुद्धा' में संस्कृत के तृतीया विभक्ति के एकवचन प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ', 'इ' और 'ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों प्राकृत रूप मुद्धाअ, मुद्धाइ और मुद्धाए सिद्ध हो जाते हैं।
मुग्धायाः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप मुद्धाअ, मुद्धाइ और मुद्धाए होते हैं। इनमें मूल संस्कृत रूप 'मुग्धा = मुद्धा' की सिद्धि उपर्युक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात सूत्र - संख्या ३ - २९ से संस्कृत के षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से ' अ - इ - ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों प्राकृत रूप मुद्धाअ, मुद्धाइ और मुद्धाए सिद्ध हो जाते हैं।
मुग्धायाम् संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप मुद्धाअ, मुद्धाइ और मुद्धाए होते हैं। इन मूल संस्कृत रूप 'मुग्धा = मुद्धा' की सिद्धि उपर्युक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - २९ से संस्कृत के सप्तमी विभक्ति एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ - इ - ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों प्राकृत रूप मुद्धाअ-मुद्धाइ और मुद्धाए सिद्ध हो जाते हैं।
'कय' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १२६ में की गई है। 'मुह' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १८७ में की गई है। 'ठि' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-१६ में की गई है। 'वा' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ६७ में की गई है।
मुग्धकया संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप मुद्धिआअ मुद्धिआइ और मुद्धिआए होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या २- ७७ से मूल संस्कृत रूप 'मुग्धिका' में स्थित 'ग्' का लोप २-८९ से 'धू' को द्वित्व 'ध्ध' की प्राप्ति; २- ९० से प्राप्त पूर्व ' ध्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'क्' का लोप तत्पश्चात् प्राप्त प्राकृत रूप 'मुद्धिआ' में सूत्र - संख्या ३ - २९ से संस्कृत की तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से
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'अ - इ - ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर मुद्धिआअ मुद्धिआइ और मुद्धिआए रूप सिद्ध हो जाते हैं।
कमलिकया, कमलिकायाः और कमलिकायाम् क्रम से संस्कृत तृतीया, षष्ठी, सप्तमी विभक्ति के एकवचन के
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 37 रूप हैं। इन सभी के प्राकृत रूप कमलिआअ, कमलिआइ और कमलिआए होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत रूप 'कमलिका' में स्थित द्वितीय 'क' का लोप और ३-२९ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्रातव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर; षष्ठी विभिक्ति के एकवचन में प्रातव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर और सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर क्रमशः 'अ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर प्रत्येक के तीन-तीन रूप'कमलिआअ, . कमलिआइ और कमलिआए' सिद्ध हो जाते हैं।
बुद्ध्या संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धीइ और बुद्धीए होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-२९ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्रातव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों को क्रम से प्राप्ति एवं इसी सूत्र से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धीइ और बुद्धीए सिद्ध हो जाते हैं।
बुद्ध्याः संस्कृत षठ्यन्त एकवचन का रूप है इसके प्राकृत रूप बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धीइ और बुद्धीए होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-२९ से संस्कृत षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति और इसी सूत्र से अन्त्य स्वर 'इ' को 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप बुद्धीअ बुद्धीआ, बुद्धीइ और बुद्धीए सिद्ध हो जाते हैं।
बुद्धयाम् संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन रूप हैं। इसके प्राकृत रूप बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धीइ और बुद्धीए होते हैं। इनकी साधनिका भी सूत्र-संख्या ३-२९ से ही उपर्युक्त रीति से होकर चारों रूप क्रम से बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धीइ और बुद्धीए सिद्ध हो जाते हैं।
'कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।
विभवः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विहवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अकारान्त पुल्लिंग में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विहवो रूप सिद्ध हो जाता है। .
"ठिअंरूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६ में की गई है। 'वा' (अव्यय) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६७ में की गई है।
सख्या संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप सही, सहीआ, सहीइ और सहीए होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत रूप 'सखी' में स्थित 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर ३-२९ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्रातव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से- 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप 'सहीअ, सहीआ, सहीइ और सहीए' सिद्ध हो जाते हैं।
सख्याः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप सहीअ, सहीआ, सहीइ और सहीए होते हैं। इनमें 'सही' रूप की साधनिका उपर्युक्त रीति से और ३-२९ से संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन में प्रातव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप 'सहीअ, सहीआ, सहीइ और सहीए' सिद्ध हो जाते हैं।
'कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है। 'वयणं' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२२८ में की गई है। "ठिअं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६ में की गई है।
धेन्वा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप धेणूअ, धेणूआ, धेणूइ और धेणूए होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२२८ से मूल संस्कृत शब्द 'धेनु' में स्थित 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२९ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्रातव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति और इसी
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38 : प्राकृत व्याकरण सूत्र से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप 'धेणूअ, धेणूआ, धेणूइ और धेणूए' सिद्ध हो जाते हैं।
धेन्वाः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप धेणूअ, धेणूआ, धेणूइ और धेणूए होते हैं। इनमें 'धेणू रूप की साधनिका उपर्युक्त रीति से एवं सूत्र-संख्या ३-२९ से ही षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रातव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की क्रमिक प्राप्ति और इसी सूत्र से अन्त्य स्वर को दीर्घता की प्राप्ति होकर क्रम चारों रूप 'धेणूअ-धेणूओ-धेणूइ और धेणूए' सिद्ध हो जाते हैं।
धेन्वाम संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप घेणूअ, धेणूआ, धेणूइ और घेणूए होते हैं। इन रूपों की साधनिका उपर्युक्त रीति से एवं सूत्र-संख्या ३-२९ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में क्रम से 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप'धेणूअ, धेणूआ, धेणूइ और धेणूए सिद्ध हो जाते हैं।
'कय रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है। 'दुद्ध' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-७७ में की गई है। 'ठिअं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६ में की गई है।
वध्वा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप वहूअ, वहूआ, वहूइ और वहूए होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत रूप वधू' में स्थित 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२९ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्रातव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप 'वहूअ, वहूआ, वहूइ और वहूए' सिद्ध हो जाते हैं। _वध्वाः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन का रूप है, इसके प्राकृत रूप वहूअ, वहुआ, वहूइ और वहूए होते है, इनमें वहू' रूप की प्राप्ति उपर्युक्त रीति से एवं ३-२९ से संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन में प्रातव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप वहूअ, वहूआ, वहूइ और वहूए सिद्ध हो जाते हैं।
वध्वाम् संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप वहूअ, बहूओ, वहूइ और वहूए होते हैं। इन रूपों की साधनिका उपरोक्त रीति से और ३-२९ से सप्तमी विभिक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप वहूअ, वहूआ, वहूइ और वहूए सिद्ध हो जाते हैं। 'कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।
भवनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भवणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' के अनुस्वार होकर भवणं रूप सिद्ध हो जाता है। "ठिअं':- रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६ में की गई है।
मुग्धायाः- संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप मुद्धाअ, मुद्धाइ, मुद्धाए, मुद्धाओ, मुद्धाउ और मुद्धाहिन्तो होते हैं। इनमें मुद्धा रूप तक की सिद्धि इसी सूत्र में उपरोक्तवत्; और ३-२९ से प्रथम-द्वितीय-तृतीय रूपों में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थान पर प्राकृत में 'अ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर आदि के तीन रूप 'मुद्धाअ मुद्धाइ और मुद्धाए' सिद्ध हो जाते हैं। शेष तीन रूपों में सूत्र-संख्या ३-१२४ के अधिकार से एवं ३-८ से संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ओ-उ-हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर अन्त के तीन रूप 'मुद्धाओ मुद्धाउ और मुद्धाहिन्तो' भी सिद्ध हो जाते हैं।
बुद्धयाः- संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धीइ और बुद्धीए होते
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 39 हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-२९ से संस्कृत प्रत्यय 'उसि' के स्थान पर प्राकृत में 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर एवं अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को इसी सूत्र से 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धीइ, बुद्धीए सिद्ध हो जाते हैं। ____ सख्याः - संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप सहीअ, सहीआ, सहीइ और सहीए होते हैं। इनमें 'सही' रूप तक की साधनिका इसी सूत्र में वर्णित रीति अनुसार और ३-२९ से संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थान पर प्राकृत में 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्रप्ति होकर क्रम से चारों रूप 'सहीअ, सहीआ, सहीइ और सहीएं' सिद्ध हो जाते हैं।
धेन्वाः- संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप धेणूअ, धेणूआ, धेणूइ, धेणूए, धेणूओ, धेणूउ और धेणूहिन्तो होते हैं। इनमें 'धेणू' रूप तक की साधनिका ऊपर इसी सूत्र में वर्णित रीति अनुसार और ३-२९ से आदि के चार रूपों में संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति एवं इसी सूत्र से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर आदि के चार रूप 'धेणूअ धेणूआ, धूणइ और धेणुए' सिद्ध हो जाते हैं।
अन्त के तीन रूपों में सूत्र-संख्या ३-१२४ के अधिकार से एवं ३-८ के विधान से पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'ओ-उ-हिन्तो' प्रत्ययों की क्रमिक प्राप्ति तथा ३-१२ से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर अन्त के तीन रूप 'धेणूओ, धेणूउ और धेणूहिन्तो' भी सिद्ध हो जाते हैं। __ वध्वाः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप वहूअ, वहूआ, वहूइ और वहूए होते हैं। इनमें 'वहू' रूप तक की सिद्धि इसी सूत्र में वर्णित रीति अनुसार और ३-२९ के संस्कृत पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य 'ङसि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से अ, आ, इ, ए प्रत्ययों की प्राप्ति होकर चारों रूप क्रम से वहअ, वहूआ, वहूइ और वहूए सिद्ध हो जाते हैं।
'आगओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या 1-209 में की गई है।
रत्याः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप रईओ, रईउ और रईहिन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'रति' में स्थित 'त्' का लोप; ३-८ से संस्कृत पञ्चमी विभक्ति के वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'डसि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ओ, उ और हिन्तो प्रत्ययों की प्राप्ति और ३-१२ से शब्दान्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप' रईओ, रईउ और रईहिन्तो सिद्ध हो जाते हैं।
'वच्छेण रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२७ में की गई है। 'वच्छस्स' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२४९ में की गई है। 'वच्छम्मि' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-११ में की गई है। 'वच्छाओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२ में की गई है।
मुग्धा- संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप मुद्धा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से हलन्त 'ग्' का लोप; २-८९ से 'ध्' को द्वित्व 'ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; ४-४४८ से संस्कृत प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' ('इ' की इत्संज्ञा होने से) स्' की प्राप्ति, और १-११ से प्राप्त अन्त्य हलन्त स्' का लोप होकर प्राकृत रूप मुद्धा सिद्ध हो जाता है। 'बुद्धी':- रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१८ में की गई है।
सखी:- संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप सही होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति, ४-४४८ से संस्कृत प्रथमा विभक्ति के एकवचन प्राप्तप्य में प्रत्यय 'सि-('इ' की इत्संज्ञा होने से)-स्' की प्राप्ति और १-११ से प्राप्त अन्त्य हलन्त 'स्' का लोप होकर प्राकृत रूप सही सिद्ध हो जाता है। 'धेणू रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१९ में की गई है।
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40 प्राकृत व्याकरण
वधूः संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप वहू होता है। इसमें सूत्र - संख्या १- १८७ से 'धू' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ४-४४८ से संस्कृत प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि= (इ' की इत्संज्ञा होने से ) 'स्' की प्राप्ति और १ - ११ से प्राप्त अन्त्य हलन्त 'स्' का लोप होकर प्राकृत रूप 'वहू' सिद्ध हो जाता है।।३-२९।। नात आत् ||३-३०॥
स्त्रियां वर्तमानादादन्तान्नाम्नः परेषां टा ङस् ङि ङसोनामादादेशो न भवति ।। मालाअ। मालाइ । मालाए कयं सुठि आगओ वा ।।
अर्थः- प्राकृत भाषा में अकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में; पंचमी विभक्ति के एकवचन में; षष्ठी विभक्ति के एकवचन में और सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा, ङसि, ङस् और डि' के स्थान पर सूत्र - संख्या ३ - २९ से जो क्रमिक चार आदेश प्राप्त प्रत्यय 'अ आ इ और ए' प्राप्त होते हैं; उनमें से "आ" प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है । किन्तु तीन प्रत्ययों की ही प्राप्ति होती है जो कि इस प्रकार हैं :-" अ- इ और ए । सारांश यह है कि आकारान्त स्त्रीलिंग में 'आ' प्रत्यय नहीं होता है जैसे:- क्रमिक उदाहरणः- तृतीया विभक्ति के एकवचन में:- मालया कृतम् = मालाअ, मालाइ और मालाए कयं; पंचमी विभक्ति के एकवचन में:- मालायाः आगतः-मालाअ, मालाइ और मालाए आगओ । वैकल्पिक पक्ष होने से मालत्तो, मालाओ, मालाउ और मालाहिंतो आगओ भी होते हैं।
षष्ठी विभक्ति के एकवचन में:- मालाया सुखं मालाअ, मालाइ और मालाए सुहं । सप्तमी विभक्ति के एकवचन मेंमालायाम् स्थितम्=मालाअ, मालाइ, मालाए ठिअं। इस प्रकार से सभी आकारान्त स्त्रीलिंग रूपों में ' अ - इ - ए' प्रत्ययों की ही प्राप्ति जानना और 'आ' प्रत्यय का निषेध समझना ।
मालया मालायाः मालायाः मालायाम् संस्कृत क्रमिक तृतीयान्त पञ्चम्यन्त षष्ठ्यन्त और सप्तम्यन्त एकवचन रूप हैं। इन सभी के स्थान पर प्राकृत में एकरूपता वाले ये तीन रूप 'मालाअ मालाइ और मालाए' होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३ - २९ से संस्कृत क्रमिक प्रत्यय-' टा ङसि ङस् ङि' के स्थान पर आदेश रूप ' अ आ इ और ए' प्रत्ययों की क्रमिक प्राप्ति और ३-३० से 'आ' प्रत्यय की निषेध अवस्था प्राप्त होकर क्रमिक तीनों रूप 'मालाअ मालाइ और मालाएं उपर्युक्त सभी विभक्तिों के एकवचन में सिद्ध हो जाते हैं।
'कय' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १२६ में की गई है। 'सुह' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २६ में की गई है। 'आगओ' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २०९ में की गई है।
'ठिअ' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - १६ में की गई है।
'वा' (अव्यय) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-६७ में की गई है । । ३ - ३० ।।
प्रत्यये ङीर्न वा ||३-३१।।
अणादि सूत्रेण- ( है २-४) प्रत्ययनिमित्तो यो ङीरुक्तः स स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नोः वा भवति ।। साहणी । कुरुचरी । पक्षे। आत्- ( है २-४) इत्याप् । साहणा ।। करूचरा ।।
अर्थः- प्राकृत भाषा में पुल्लिंग अथवा नपुंसकलिंग वाले शब्दों को नियमानुसार स्त्रीलिंग में परिवर्तन करने के लिए हैमचन्द्र व्याकरण के सूत्र - संख्या २-८४ से संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङी=ई' स्थान पर (प्राकृत में) 'ई' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है। जैसे:- (साधन + ई = ) साधनी - साहण अथवा वैकल्पिक पक्ष होने से साहणा । ( कुरूचर + ई =) कुरुचरी = कुरुचरी अथवा वैकल्पिक पक्ष होने से कुरुचरा । इन उदाहरणों में 'स्त्रीलिंग-प्रत्यय' रूप से दीर्घ ' और 'आ' को क्रमिक रूप से प्राप्ति हुई है। अतः इस सूत्र में यह सिद्धान्त निश्चित किया गया है। प्राकृत भाषा में 'स्त्रीलिंग रूप' निर्माण करने में नित्य 'ई' की ही प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु 'आ' की प्राप्ति भी हुआ करती है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 41 (साधन+ई)साधनी संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप साहणी और साहणा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-३१ से 'स्त्रीलिंग रूपार्थक होने से स्त्री प्रत्यय 'ई' की वैकल्पिक प्राप्ति होने से (साधन में) क्रम से 'ई' और 'आ' प्रत्ययों की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि-स् का प्राकृत में लोप होकर क्रम से दोनों रूप साहणी और साहणा सिद्ध हो जाते हैं। (कुरुचर+ई-) कुरुचरी देशज प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप कुरुचरी और कुरुचरा होते हैं।
ख्या ३-३१ से 'स्त्रीलिंग रूपार्थक होने से स्त्री प्रत्यय 'ई' की वैकल्पिक प्राप्ति होने से- (कुरूचर में) क्रम से 'ई' और 'आ' प्रत्ययों की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' का प्राकृत में लोप होकर क्रम से दोनों रूप कुरुचरी ओर कुरुचरा सिद्ध हो जाते हैं।।३-३१।।
अजातेः पुंस ॥३-३२॥ अजातिवाचिनः पुल्लिंङ्गाद् स्त्रियां वर्तमानात् ङीर्वा भवति। नीली नीला। काली काला। हसमाणी हसमाणा। सुप्पणही सुप्पणहा। इमीए इमाए। इमीणं इमाण। एईए एआए। एईणं एआण। अजातेरितिकिम्। करिणी। अया। एलया।। अप्राप्ते-विभाषेयम्। तेन गोरी कुमारी इत्यादि संस्कृतवनित्यमेव ङीः।।
अर्थः- जातिवाचक संज्ञा वालों के अतिरिक्त संज्ञा वाले, विशेषण वाले, और सर्वनाम वाले शब्दों में पुल्लिंग से स्त्रीलिंग रूप में परिवर्तन करने हेतु 'डी-ई' प्रत्यय की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। जैसे:-नीला नीली अथवा नीला, काला काली अथवा काला; हसमाना-हसमाणी अथवा हसमाणा; शूर्पणखा-सुप्पणही अथवा सुप्पणहा; अनया इमीए अथवा इमाए अर्थात् इस (स्त्री) के द्वारा; आसाम्=इमीणं अथवा इमाणं अर्थात् इन (स्त्रियों) का; एतया एईए अथवा एआए अर्थात् इस (स्त्री) से; एतासाम्-एईणं अथवा एआणं अर्थात् इन (स्त्रियों) का; इन उदाहरणों में ऐसा समझाया गया है कि जिन संस्कृत स्त्रीलिंग शब्दों में स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'आ' की प्राप्ति हुई है; उन स्त्रीलिंग वाले शब्दों में प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति भी हुआ करती है। यों आकारान्त स्त्रीलिंग वाले अन्य शब्दों के संबंध में भी जान लेना चाहिए।
प्रश्नः- जातिवाचक आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में अन्त्य 'आ' प्रत्यय के स्थान पर 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति का निषेध क्यों किया गया है?
उत्तरः- जातिवाचक आकारान्त स्त्रीलिंग में अन्त्य 'आ' को 'ई' की प्राप्ति कभी भी नहीं होती है; इसी प्रकार से 'ईकारान्त' की भी 'आकारान्त की प्राप्ति नहीं होती है। अतएव उसकी प्राप्ति का निषेध ही प्रदर्शित करना आवश्यक होने से 'अजातेः' अर्थात् 'जाति वाचक स्त्रीलिंग शब्दों को छोड़ कर' ऐसा मूल-सूत्र में विधान करना पड़ा है। जैसेः करिणी करिणी अर्थात् हथिनी। यह उदाहण ईकारान्त स्त्रीलिंग का है; इसमें 'आकारान्त' का अभाव प्रदर्शित किया गया है। अजा=अया अर्थात् बकरी और एलका एलया अर्थात् बड़ी इलायची; इत्यादि इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि आकारान्त जाति वाचक स्त्रीलिंग शब्दों के प्राकृत-रूपान्तर में अन्त्य 'आ' को 'इ' की प्राप्ति नहीं होती है। यों यह सिद्धान्त निर्धारित हुआ कि जाति वाचक स्त्रीलिंग शब्दों के अन्त्य 'आ' का 'आ' ही रहता है तथा यदि अन्त्य 'ई' हुई तो उस 'ई' की भी 'ई ही रहती है।
प्राकृत भाषा में अनेक स्त्रीलिंग शब्द ऐसे भी पाये जाते हैं, जो कि जाति वाचक नहीं है; फिर भी उनके अन्त्य 'आ' का अभाव है और अन्त्य 'ई' का सद्भाव है; ऐसे शब्दों के संबंध में वृत्ति में कहा गया है कि उन शब्दों को विभाषा वाले-अन्य भाषा वाले जानना; अर्थात् ईकारान्त स्त्रीलिंग वाले ऐसे शब्दों को अन्य भाषा से आये हुए एवं प्राकृत भाषा वाले' जानना; अर्थात् ईकारान्त स्त्रीलिंग वाले ऐसे शब्दों को अन्य भाषा से आये हुए एवं प्राकृत भाषा में 'रूढ हुए;' जानना। जैसे:- गौरी-गोरी और कुमारी कुमारी। ऐसे शब्द प्राकृत भाषा में रूढ़ जैसे हो गये हैं, और इनके वैकल्पिक रूप 'गोरा अथवा कुमारा' जैसे नहीं बनते है। ऐसे नित्य ईकारान्त शब्दों में संस्कृत के समान ही 'स्त्रीलिंग-वाचक' प्रत्यय 'ई'
की प्राप्ति ही हुआ करती है।
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42: प्राकृत व्याकरण
नीलाः - संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप नीली और नीला होते है। इनमें सूत्र - संख्या ३ - ३२ से 'स्त्रीलिंग वाचक अर्थ में' अन्त्य 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'नीली' और 'नीला' सिद्ध हो जाते हैं।
काला:- संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप काली और काला होते है। इनमें सूत्र - संख्या ३ - ३२ से 'स्त्रीलिंग वाचक अर्थ में' अन्त्य 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'काली' और 'काला' सिद्ध हो जाते हैं।
हसमाना:- संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप हसमाणी और हसमाणा होते है । इनमें सूत्र - संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-३२ से 'स्त्रीलिंग वाचक अर्थ में अन्त्य 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'हसमाणी' और हसमाणा सिद्ध हो जाते हैं।
शूर्पणखा :- संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सुप्पणही और सुप्पणहा होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या १ - २६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १ - ८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २- ७९ से र् का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १ - १८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-३२ से 'स्त्रीलिंग वाचक अर्थ' में अन्त्य 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप सुप्पणी और सुप्पा सिद्ध हो जाते हैं।
अनया संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप इमीए और इमाए होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३-७२ से 'इदम्' सर्वनाम के स्त्रीलिंग रूप 'इयम्' के स्थान पर प्राकृत में 'इमा' रूप की प्राप्ति; ३-३२ से 'स्त्रीलिंग - वाचक- अर्थ' अन्त्य 'आ' के स्थान पर वैकल्पक रूप से 'ई' की प्राप्ति और ३ - २९ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप इमीए और इमाए सिद्ध हो जाते हैं।
आसाम् संस्कृत षष्ठ्यन्त बहुवचन सर्वनाम का रूप हैं, इसके प्राकृत रूप इमीणं और इमाणं होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३-७२ से 'इदम्' सर्वनाम के स्त्रीलिंग रूप 'इयम्' के स्थान पर प्राकृत में 'इमा' रूप की प्राप्ति; ३-२ से 'स्त्रीलिंग - वाचक- अर्थ' में अन्त्य 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति; ३-६ से संस्कृत षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्रातव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' की प्रत्यय की आदेश प्राप्ति और १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप इमीणं और इमाणं सिद्ध हो जाते हैं।
तया संस्कृत तृतीयान्त एकवचन सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप एईए और एआए होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - ११ मूल संस्कृत सर्वनाम 'एतत्' में स्थित अन्त्य हलन्त 'त्' का लोप; १ - १७७ से द्वितीय 'त्' का लोप; ३ - ३१ की वृत्ति से और ३-३२ से 'स्त्रीलिंग वाचक अर्थ' में क्रम से और वैकल्पिक रूप से शेष अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' एवं 'ई' की प्राप्ति और ३ - २९ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप एईए और एआए सिद्ध हो जाते हैं।
आसाम् संस्कृत षष्ठ्यन्त बहुवचन सर्वनाम स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप एईणं और एआणं होते हैं। इनमें 'एई' और 'एआ' रूपों की साधनिका उपर्युक्त इसी सत्र में वर्णित रीति अनुसार; ३-६ से संस्कृत षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति और १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप एईणं और एआणं सिद्ध; हो जाते हैं।
करिणी संस्कृत स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप (भी) करिणी ही होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४-४४८ से यथा रूपवत् स्थिति की प्राप्ति होकर करिणी रूप सिद्ध हो जाता है।
अजा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अया होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'ज्' का लोप और १ - १८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति होकर अया रूप सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 43 एलका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप एलया होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'क्- के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर या प्राप्ति होकर 'एलया रूप सिद्ध हो जाता है।
गौरी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गोरी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५९ से 'औ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होकर गोरी रूप सिद्ध हो जाता है।
कुमारी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप (भी) कुमारी ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-४४८ में यथा रूप वत् स्थिति की प्राप्ति होकर कुमारी रूप सिद्ध हो जाता है।।३-३२।।
किं-यत्तदोस्यमामि ॥३-३३।। "सि अम् आम्' वर्जिते स्यादौ परे एभ्यः स्त्रियां डी र्वा भवति।। कीओ। काओ। कीए। काए। कीसु। कासु। एवं। जीओ। जाओ। तीओ। ताओ। इत्यादि।। अस्य मामीति किम् का। जा। सा। कां जं । तं । काण। जाण। ताण।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम 'किम्', 'यत्' और 'तत्' के प्राकृत स्त्रीलिंग रूप 'का', 'जा' और 'सा अथवा ता' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'सि' द्वितीया विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'अम्' और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय आम्' के स्थान पर प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्ययों को छोड़ कर अन्य विभक्तियों के प्राकृत प्रत्यय प्राप्त होने पर इन आकारान्त 'का-जा-सा अथवा ता' सर्वनामों के अन्त्य 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति होकर इनका रूप की-जी और ती' भी हो जाया करता है। इनके क्रमिक उदाहरण इस प्रकार है:-काः कीओ अथवा काओ; कया कीए अथवा काए; कासु-कीसु अथवा कासु। याः जीओ अथवा जाओ और ताः तीओ अथवा ताओ इत्यादि।।
प्रश्न:-'सि', 'अम्' और 'आम्' प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर इन आकारान्त सर्वनामों में अर्थात् 'का' 'जा' और 'सा अथवा ता' में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ई' की प्राप्ति नहीं होती है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- चूंकि प्राकृत साहित्य में अथवा प्राकृत भाषा में इन आकारान्त सर्वनामों 'सि' 'अम्' और आम् प्रत्ययों की प्राप्त होने पर अन्त्य 'आ' की स्थित ज्यों की त्यों ही बनी रहती है; अतएव ऐसा ही विधान करना पड़ा है कि प्रथमा विभक्ति के एकवचन में, द्वितीया विभक्ति के एकवचन में और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में इन आकारान्त सर्वनामों के अन्त्य 'आ' को 'ई की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से भी नहीं होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- का-का; काम्=कं और कासाम्=काण; या जा; याम्=जं और यासाम्=जाण; सा-सा; ताम्=तं और तासाम्=ताण।।
काः संस्कृत स्त्रीलिंग प्रथमा द्वितीया बहुवचनान्त सर्वनाम रूप है; इसके प्राकृत रूप कीओ और काओ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'म्' को लोप; ३-३१ और ३-३३ से शेष रूप 'कि' में वैकल्पिक रूप से तथा क्रम से 'स्त्रीलिंग-अर्थक-प्रत्यय' 'डी' और 'आप्=आ' की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' अथवा 'आप-आ' के पूर्वस्थ 'कि' में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा होने से लोप होकर क्रम से 'की' और 'का' रूप की प्राप्ति; और ३-२७ से प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्-शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप कीओ और काओ सिद्ध हो जाते हैं।
कया संस्कृत तृतीयान्त एकवचन स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप कीए और काए होते है। इनमें 'की' और 'का' तक रूप की साधनिका उपर्युक्त रीति-अनुसार और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप कीए और काए सिद्ध हो जाते हैं। ___ कासु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है इसके प्राकृत रूप कीसु और कासु होते हैं। इनमें 'की'
और 'का' तक रूप की साधनिका उपर्युक्त रीति-अनुसार और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप कीसु और कासु सिद्ध हो जाते हैं। याः संस्कृत स्त्रीलिंग प्रथमा द्वितीया बहुवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जीओ और जाओ होते हैं।
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44 : प्राकृत व्याकरण इनमें सूत्र-संख्या १–११ से मूल संस्कृत शब्द 'यत्' में स्थित अन्त्य हलन्त 'त्' का लोप; १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; ३-३१ और ३-३३ से 'स्त्रीलिंग अर्थक प्रत्यय 'ङी और 'आप' की क्रम से प्राप्ति; तद्नुसार ङी और 'आ' प्रत्यय प्राप्त होने पर प्राप्त प्राकृत रूप 'ज' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होने से लोप होकर क्रम से 'जी' और 'जा' रूप की प्राप्ति एवं ३-२७ से प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्-शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप जीओ और जाओ सिद्ध हो जाते हैं। ___ ताः संस्कृत स्त्रीलिंग प्रथमा द्वितीया बहुवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तीओ और ताओ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तत्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-३१ और ३-३३ से 'स्त्रीलिंग-अर्थक-प्रत्यय' 'डी' और 'आप-आ' की क्रम से प्राप्ति; तद्नुसार 'डी' और 'आ' प्रत्यय प्राप्त होने पर प्राप्त प्राकृत रूप 'त' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होने से लोप होकर क्रम से 'ती' और 'ता' रूपों की प्राप्ति एवं ३-२७ से प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्-शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप तीओ और ताओ सिद्ध हो जाते हैं।
'का' संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'का' ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'म्' का लोप। ३-३१ से 'स्त्रीलिंग-अर्थक-प्रत्यय' 'आप आ' की प्राप्ति; तदनुसार पूर्व प्राप्त प्राकृत रूप 'कि' में स्थित अन्त्य स्वर 'इ' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं शेष हलन्त 'क' में प्राप्त प्रत्यय 'आ' की संधि होकर 'का' रूप की प्राप्ति; ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य प्राप्त हलन्त प्रत्यय रूप व्यञ्जन 'स' का लोप होकर 'का' रूप सिद्ध हो जाता है।
'या' संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जा' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'यत्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप; १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; ३-३१ से 'स्त्रीलिंग अर्थक प्रत्यय' 'आप'='आ' की प्राप्ति; तदनुसार पूर्व प्राप्त प्राकृत रूप 'ज' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं शेष हलन्त 'ज' में प्राप्त प्रत्यय 'आ' की संधि होकर 'जा' रूप की प्राप्ति;४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य प्राप्त हलन्त प्रत्यय रूप व्यञ्जन 'स' का लोप होकर 'जा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सा' स्त्रीलिंग सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३३ में की गई है।
'काम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन स्त्रीलिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'क' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-३६ से मूल संस्कृत स्त्रीलिंग रूप 'का' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'क' रूप सिद्ध हो जाता है।
'याम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप ‘ज होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-३६ से मूल संस्कृत स्त्रीलिंग रूप 'या' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२४५ से प्राप्त 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपर्युक्त के के समान ही होकर 'जं रूप सिद्ध हो जाता है।
'ताम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'त' होता है इसमें सूत्र-संख्या ३-३६ से मूल संस्कृत स्त्रीलिंग रूप 'ता' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपर्युक्त 'क' के समान ही होकर 'त' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'कासाम्' संस्कृत षष्ठ्यन्त बहुवचन स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'काण' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-६ से मूल संस्कृत स्त्रीलिंग रूप 'का' के प्राकृत रूप 'का' में संस्कृत षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त
प्रत्यय 'आम्' के संस्कृत विधानानुसार प्राप्त स्थानीय रूप 'साम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर __Jain E'काणं रूप सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 45 'यासाम्' संस्कृत षष्ठ्यन्त बहुवचन स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जाण' होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-२४५ से 'य्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति और ३-६ से संस्कृत षष्ठी विभक्ति के बहुचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्= साम् के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जाणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तासाम्' संस्कृत षष्ठ्यन्त बहुवचन स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ताण' होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-६ से संस्कृत षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' =साम् के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ताण' रूप सिद्ध हो जाता है ।। ३-३३॥
छाया - हरिद्रयोः ।।३-३४।।
अनयो राप्-प्रसङ्गे नाम्नः स्त्रियां ङीर्वा भवति ।। छाही छाया । हलद्दी हलद्दा ||
अर्थः- संस्कृत स्त्रीलिंग शब्द 'छाया' और 'हरिद्रा' के प्राकृत रूपान्तर में अन्त्य 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'डी =ई' की प्राप्ति होती है। जैसे:- छाया-छाही और छाया तथा हरिद्रा - हलदे और हलद्दा । संस्कृत में 'छाया' और 'हरिद्रा' नित्य रूप से अकारान्त स्त्रीलिंग है; जबकि वे प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'ईकारान्त' हो जाते हैं; इसलिये ऐसा विधान बनाने की आवश्यकता पड़ी है।
'छाही' और 'छाया' रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २४९ में की गई है।
'हलद्दी' और 'हलद्दा' रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या १-८८ में की गई है। ।। ३-३४।।
स्वस्रादेर्डा ।।३ - ३५।।
स्वस्रादेः स्त्रियां वर्तमानात् डा प्रत्ययो भवति ।। ससा । नणन्दा । दुहिआ दुहिआहिं । दुहिआसु । दुआ-सुओ । गउआ । ।
अर्थः- स्वसृ, ननान्ह और दुहितृ आदि अकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'डा=आ' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डा' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से अकारान्त शब्दों के अन्त्य 'ऋ' का लोप होकर तत्पश्चात् उसके स्थान पर 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होने से ये शब्द प्राकृत में अकारान्त स्त्रीलिंग वाले बन जाते हैं। जैसे:स्वसृ=ससा;ननान्ह=नणन्दा दुहितृ-दुहिआ; दुहितृभिः = दुहिआहिं; दुहितृषु-दुहिआसु और दुहितृ-सुतः - दुहिआ -सुओ । इत्यादि ।
'गउआ' शब्द 'गउतृ' से नहीं बना है; किन्तु सूत्र - संख्या १-५४ में वर्णित 'गवय' से बनता है अथवा १ - १५८ में वर्णित 'गो' से बनता है; इसी प्रकार से अन्य आकारान्त शब्दों के संबंध में भी विचार कर लेना चाहिये, जिससे कि भ्रान्ति न हो। इसी विशेषता को प्रकट करने के लिये ऋकारान्त स्त्रीलिंग शब्दो के प्रसंग में इस 'गऊआ' शब्द को भी लिखना आवश्यक समझा गया है।
स्वसा संस्कृत के स्वसृ शब्द के प्रथमान्त एकवचन का स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ससा' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप; ३ - ३५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत 'सि=स्' की प्राप्ति और १ - ११ से प्राप्त प्रत्यय 'स' का लोप होकर ससा रूप सिद्ध हो जाता है।
ननान्दा संस्कृत से 'ननान्ह' शब्द के प्रथमान्त एकवचन का स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नणन्दा' होता है। इसमें सूत्र- संख्या - १ - २२८ से द्वितीया 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३ - ३५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपर्युक्त 'ससा' के समान ही क्रम से सूत्र - संख्या ४ - ४४८ से एवं १ - ११ से होकर 'नणन्दा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दुहिआ' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या २ - १२६ में की गई है।
दुहितृभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप दुहिआहिं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ से ‘त' का लोप; ३ - ३५ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-७ से
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46 : प्राकृत व्याकरण
संस्कृत तृतीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिः' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर दुहिहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
दुहितृष संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप दुहिआसु होता है। इसमें 'दुहिआ' रूप की साधनिका उपर्युक्त रीति- अनुसार और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' की प्राकृत में भी प्राप्ति होकर दुहिआसु रूप सिद्ध हो जाता है।
दुहितृ सुतः तत्पुरुषसमासात्मक प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप दुहिआव-सुआ होता है। इसमें 'दुहिआ' रूप की साधनिका उपर्युक्त रीति अनुसार १ - १७७ से द्वितीय 'त्' का लोप ओर ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति; 'सुअ' के अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं तत्पश्चात् 'ओ' प्रत्यय की उपस्थिति होकर दुहिआ-सुओ रूप सिद्ध हो जाता है।
'गउआ' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-५४ में की गई है । । ३ - ३५ ।।
ह्रस्वो मि ।।३-३६॥
स्त्रीलिंगस्य नाम्नोमि परे ह्रस्वो भवति ।। मालं । नई। वहुं। हसमाणिं। हसमागं पेच्छ । अमीति किम् ।। माला । सही । वहू ॥
अर्थः- प्राकृत भाषा में आकारान्त, दीर्घ ईकारान्त और दीर्घ ऊकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में द्वितीया विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय ‘अम्=म् ं प्राप्त होने पर दीर्घ स्वर का हस्व स्वर हो जाता है। जैसे:-संस्कृत-मालाम् का प्राकृत में मालं; नदीम्=नइं; वधूम्=वहुं; हसमानीम् - हसमाणि;, हसमानाम् पश्य = हसमाणं पेच्छ । इत्यादि।
'प्रश्नः-'दीर्घ' स्वरान्त स्त्रीलिंग शब्दों में द्वितीया विभक्तिबोधक एकवचन 'म्' प्रत्यय प्राप्त होने पर दीर्घ स्वर का हस्व स्वर हो जाता है ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- क्योंकि प्रथमा आदि अन्य विभक्तिबोधक प्रत्ययों के प्राप्त होने पर स्त्रीलिंग में दीर्घ स्वर का ह्रस्व स्वर नहीं होता है; किन्तु ह्रस्वता की प्राप्ति केवल द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय की प्राप्ति होने पर ही होती है; अतएव ऐसे विधान का उल्लेख करना पड़ा है। जैसे : माला-माला; सखो - सही और वधूः = वहू । इन उदाहरणों में प्रथमान्त एकवचन का प्रत्यय प्राप्त हुआ है; किन्तु अन्त्य दीर्घ स्वर को हस्व स्वर की प्राप्ति नहीं हुई है; इससे प्रमाणित होता है कि अन्य दीर्घ स्वर के स्थान पर हस्व स्वर की प्राप्ति केवल द्वितीया विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय की प्राप्ति होने पर ही होती है; अन्यथा नहीं।
माला संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मालं होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - ३६ से द्वितीय 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर मालं रूप सिद्ध हो जाता है।
नदीम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप नई होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'द्' का लोप; ३-३६ से दीर्घ ईकार के स्थान पर ह्रस्व 'इकार' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर नई रूप सिद्ध हो जाता है।
धूम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप वहुं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १८७ से 'धू' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३ - ३६ से दीर्घ 'ऊकार' के स्थान प ह्रस्व 'उकार' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वहुं रूप सिद्ध हो जाता है।
समानीम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन स्त्रीलिंग का विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप हसमाणिं होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - १८१ से प्राकृत धातु 'हस' में संस्कृत वर्तमान कृदन्त में प्रातव्य प्रत्यय 'आनच्' के स्थानीय रूप 'मान' के
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 47 स्थान पर प्राकृत में 'माण' आदेश प्राप्ति; ३-३१ से तथा ३-३२ से प्राप्त प्रत्यय 'माण' में स्त्रीलिंग-अर्थक प्रत्यय 'ङी ई' की प्राप्ति; एवं प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक प्रत्यय 'डी' में 'ङ' इत्संज्ञक होने से प्राप्त प्रत्यय 'माण' में अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होकर लोप तथा ई प्रत्यय की हलन्त माण में संयोजना होकर हसमाणी रूप की प्राप्ति; ३-३६ से दीर्घ 'ईकार' के स्थान पर हस्व 'इकार' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर हसमाणिं रूप सिद्ध हो जाता है। __हसमानाम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन स्त्रीलिंग का विशेषण रूप है, इसका प्राकृत रूप हसमाणं होता है। इसमें हसमाण' तक की साधनिका उपर्युक्त रीति-अनुसार; ३-३१ की वृत्ति से प्राप्त रूप 'हसमाण' में स्त्रीलिंग-अर्थक प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; तदनुसार प्राप्त रूप 'हसमाणा' में ३-३६ से अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'हसमाणं रूप सिद्ध हो जाता है।
'पेच्छ' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। 'माला' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१८२ में की गई है। 'सही' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-२९ में की गई है। 'वह' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२९ में की गई है।।३-३६।।
नामन्त्रयात्सौ मः ॥३-३७॥ आमन्त्र्यार्थात्परे सो सति क्लीबे स्वरान्म् सेः (३-२५) इति यो म् उक्तः स न भवति ।। हे तणा हे दहि। हे महु।
अर्थ :- प्रथमा विभक्ति के प्रत्ययों की प्राप्ति संबोधन अवस्था में भी हुआ करती है; तदनुसार प्राकृत भाषा के नपुंसकलिंग वाले शब्दों में संबोधन अवस्था में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "सि" के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-२५ के अनुसार (प्राकृत में) प्राप्त होने वाले "म्" आदेश- प्राप्त प्रत्यय का अभाव हो जाता है। अर्थात् नपुसंकलिंग वाले शब्दों में संबोधन के एकवचन में प्रथमा में प्राप्तव्य प्रत्यय "म्' का अभाव होता है। जैसे- हे तृण-हे तण। हे दधि-हे दहि और हे मधु-हे महु इत्यादि। __ हे तृण! संस्कृत संबोधन एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप"हे तण!" होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से "ऋ" के स्थान पर "अ" की प्राप्ति और ३-३७ से प्रथमा के समान ही संबोधन के एकवचन में प्राप्त “सि" के स्थान पर आने वाले "म्" प्रत्यय का अभाव होकर "हे तण!" रूप सिद्ध हो जाता है। ___ हे दधि! संस्कृत संबोधन एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप हे दहि! होता है इसमें सूत्र-संख्या ९-१८७ से 'ध्' के स्थान पर ह की प्राप्ति और ३-३७ से प्रथमा के समान ही संबोधन एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर आने वाले म् प्रत्यय का अभाव होकर हे दहि ! रूप सिद्ध हो जाता है। __ हे मधु! संस्कृत संबोधन एकवचनान्त नपुंसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप "हे मह!" होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से “ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-३७ से प्रथमा के समान ही संबोधन के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "सि" के स्थान पर आने वाले "म्" प्रत्यय का अभाव होकर "हे महु!" रूप सिद्ध हो जाता है। ३-३७।।
डो दीर्घा वा ।। ३-३८॥ आमन्त्र्यार्थात्परे सौ सति अतः से? (३-२) इति यो नित्यं डोः प्राप्तो यश्च अक्लीबे सौ (३-१९) इति इदुतोरकारान्तस्य च प्राप्तो दीर्घः स वा भवति ।। हे देव हे देवो।। हे खमा-समण हे खमा-खमणो। हे अज्ज हे अज्जो।। दीर्घः। हे हरी हे हरि। हे गुरु हे गुरु । जाइ-विसुद्धेण पहू। हे प्रभो इत्यर्थः। एवं दोण्णि पहू जिअ-लोए। पक्षे। हे पहु। एषु प्राप्ते विकल्पः॥ इहत्व प्राप्ते हे गोअमा हे गोअम। हे कासवा हे कासवा रे रे चप्पलया! रे रे निग्घिणया।।
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48 : प्राकृत व्याकरण
अर्थ :- प्राकृत भाषा के अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में संबोधन अवस्था में प्रथमा विभक्ति एकवचन में सूत्र - संख्या ३- २ के अनुसार प्राप्त प्रत्यय "सि" के स्थान पर आने वाले ओ प्रत्यय की प्राप्ति कभी होती है और कभी-कभी नहीं भी होती है जैसे- हे देव! = हे देव अथवा हे देवो!; हे क्षमा श्रमण ! - हे खमा-समण ! अथवा हे खमा-समणो! हे आर्य! =हे अज्ज! अथवा हे अज्जो ।
इसी प्रकार से प्राकृत भाषा के इकारान्त तथा उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में संबोधन अवस्था में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सूत्र- संख्या ३ - १९ के अनुसार प्राप्त प्रत्यय "सि" के स्थान पर प्राप्त होने वाले " अन्त्य ह्रस्व स्वर को " दीर्घत्व" की प्राप्ति कभी होती है और कभी नहीं भी होती है। जैसे- हे हरे ! = हे हरी ! अथवा हे हरि ! ; हे गुरो ! = हे गुरु ! अथवा हे गुरु! ; जाति-- विशुद्धेन हे प्रभो ! = जाइ विसुद्वेण हे पहू! इसी प्रकार से दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- हे द्वौजितलोक ! प्रभो! = हे दोण्णिजिअ - लोए पहू! अर्थात् हे दोनों लोकों को जीतने वाले ईश्वर! अथवा वैकल्पिक पक्ष में हे प्रभो ! का पहु भी होता है। इस प्रकार से इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में संबोधन - अवस्था के एकवचन में अन्त्य स्वर को दीर्घत्व की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है।
अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में भी संबोधन अवस्थों के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अनुसार प्राप्त प्रत्यय 'ओ' के अभाव होने पर अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। जैसे :- हे गौतम! हे गोअमा! अथवा हे गोअम! हे कश्यप ! = हे कासवा ! अथवा हे कासव ! इत्यादि । इस प्रकार उपर्युक्त विधि-विधानुसार संबोधन अवस्था के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग शब्दों के तीन रूप हो जाते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- (१) 'ओ' प्रत्यय होने पर; (२) वैकल्पिक रूप से 'ओ' प्रत्यय का अभाव होने पर मूल रूप की यथावत् स्थिति और (३) अन्त्य 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से दीर्घत्व की प्राप्ति होकर 'आ' की उपस्थिति । जैसे:- हे देव! हे देवा! हे देवो! हे खमा समण! हे खमासमणा! हे खमासमणो! हे गोअम! हे गोअमा! हे गोअमो ! इत्यादि । विशेष रूप अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में भी संबोधन - अवस्था के एकवचन में "ओ" प्रत्यय के अभाव होने पर अन्त्य "अ" को वैकल्पिक रूप से "आ" की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- रे! रे ! निष्फलक ! - रे! रे ! चप्फलया ! अर्थात् अरे ! अरे ! निष्फल प्रवृत्ति करने वाले । रे! रे ! निर्घृणक!-रे! रे! निग्घिणया! अर्थात् अरे ! अरे ! दयाहीन निष्ठुर इन उदाहरणों में संबोधन के एकवचन में अन्त्य रूप में " आत्व" की प्राप्ति हुई है। पक्षान्तर में " रे ! चप्फलया ! और रे! निग्घिणय !" भी होते हैं। यों सम्बोधन के एकवचन में होने वाली विशेषताओं को समझ लेनी चाहिये ।
हे देव! संस्कृत संबोधन एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे देव! और हे देवो ! होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३-८ से संबोधन के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार प्राप्त प्रत्यय 'ओ' की वैकल्पिक रूप से होकर क्रम से दोनों रूप हे देव और हे देवो सिद्ध हो जाते हैं।
क्षमा-श्रमण ! संस्कृत संबोधन एकवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप खमा समण और हे खमा- समणो होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या २ - ३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-७९ से 'श्र' में स्थित 'र' का लोप; १ - २६० से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार प्राप्त प्रत्यय 'ओ' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप हे खमा- समण ! और हे खमा- समणो! सिद्ध हो जाते हैं।
आर्य संस्कृत संबोधन एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे अज्ज! और हे अज्जो ! होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - २४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति;२-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार प्राप्त प्रत्यय 'ओ' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप हे अज्ज! और हे अज्जो सिद्ध हो जाते हैं।
हरे ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे हरी ! और हे हरि होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार मूल संस्कृत रूप 'हरि' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप हे हरी ! और हे हरि ! सिद्ध हो जाते हैं।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 49
गुरु! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे गुरु! और हे गुरु! होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३ - ३८ से संबोधन के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार मूल संस्कृत रूप 'गुरु' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप हे गुरु! और हे गुरु! सिद्ध हो जाते हैं।
जाति- विशुद्धेन संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जाइ - विसुद्धेण' होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - २६० से श् के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३ - ६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' आदेश प्राप्ति और ३-१४ से आदेश प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर "जाइ-विसुद्वेण " रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रभो! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे पहू! और हे पहु! होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ७९ से 'र' का लोप; १ - १८७ से 'भू' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार मूल संस्कृत रूप 'प्रभु' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'हे पहू' और 'हे पहु' सिद्ध हो जाते हैं।
प्रथमान्त द्विवचन
हे जित लोक! संस्कृत विशेषणात्मक संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत (अथवा मागधी) रूप (हे ) जिअ - लोए होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' और 'क्' का लोप और ४ - २८७ से संबोधन के एकवचन
- (मागधी - भाषा में) संस्कृत प्रत्यय 'सि' आगे रहने पर अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति एवं ४-४४८ से संस्कृत- संबोधन स्थित समान ही प्राकृत में भी प्राप्त प्रत्यय 'सि' का लोप होकर अथवा १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'सि'=स्' का लोप होकर प्राकृत (अथवा मागधीय) संबोधन के एकवचन में 'हे जिअ - लोए' रूप सिद्ध होता है।
द्वौ संस्कृत का विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दोण्णि होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - १२० रूप 'द्वौ' के स्थान पर 'दोण्णि' आदेश प्राप्ति होकर 'दोण्णि' रूप सद्धि हो जाता है।
हे गौतम! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे गोअमा ! और हे गोअम! होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - १५६ से 'औ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति ओर ३ - ३८ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'आ' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप हे गोअमा ! और हे गोअम! सिद्ध हो जाते हैं।
कश्यप ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप हैं इसके प्राकृत रूप हे कासवा ! और हे कासव ! होते हैं ! इनमें सूत्र - संख्या - १४३ से 'क' में रहे हुए 'अ' को दीर्घ की प्राप्ति; २- ७८ से 'य'का लोप, १ - २६० से लोप हुए 'य्' के पश्चात् शेष रहे 'श' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १ - २३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'आ' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप हे कासवा ! और हे कासव ! सिद्ध हो जाते हैं।
रे रे निष्फलक ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका (आदेश प्राप्त) देशज रूप रे! रे ! चप्फलया ! होता है। इसमें सूत्र - संख्या २ - १७४ से संस्कृत संपूर्ण शब्द 'निष्फल' के स्थान पर देशज - प्राकृत में ' चप्फल' रूप की आदेश प्राप्ति २ - १६४ से प्राप्त 'चप्फल' में स्व-अर्थक' प्रत्यय 'क' की प्राप्ति; १ - १७७ से प्राप्त 'क' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ 'आ' की प्राप्ति होकर रे! रे ! चप्फलया! रूप सिद्ध हो जाता है।
रे! रे! निर्घृणक ! संस्कृत के संबोधन का एकवचन रूप है। इसका प्राकृत (देशज) रूप रे! रे ! निग्घिणय होता है ! इसमें सूत्र - संख्या २-७९ से रेफ रूप 'र्' का लोप; १ - १२८ से 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'घ्' को द्वित्व 'घ्घ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त 'घ' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'क्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'कू' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'अ' के स्थान पर दीर्घ 'आ' की प्राप्ति होकर रे! रे ! निग्घिणया रूप सिद्ध हो जाता है । ३-३८ ।।
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50 : प्राकृत व्याकरण
ऋतोद्वा।। ३-३९!! ऋकारान्तस्यामन्त्रणे सौ परे अकारोऽन्तादेशो वा भवति।। हे पितः। हे पि।। हे दातः हे दाय। पक्षे। हे पिअरं। हे दायार॥
अर्थः- ऋकारान्त शब्दों के (प्राकृत-रूपान्तर में) संबोधन के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' का विधानुसार लोप होकर शब्दान्त्य 'स्वर सहित व्यञ्जन' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अ' आदेश की प्राप्ति होती है जैसे:-हे पितः= हे पिअ और वैकल्पिक पक्ष में हे पिअरं। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है :- हे दातः हे दाय! और वैकल्पिक पक्ष में हे दायार! होता है। __ हे पितः! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे पिअ! और हे पिअरं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या-३-३७ से 'स्वर-सहित व्यञ्जन्त' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर "हे पिअ"! रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-४० से 'स्वर-सहित व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त रूप विसर्ग का लोप होकर द्वितीय रूप "हे पिअरं" सिद्ध हो जाता है।
हे दातः! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे दाय! और हे दायार! होते हैं। इनमें प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-३९ से 'स्वर' सहित व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'अ की प्राप्ति; १-१८० से प्राप्त हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर प्रथम रूप 'हे' दाय!' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'दातृ' में स्थित 'त' का लोप; ३-४५ से संबोधन के एकवचन में शेष 'अ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; और १-१८० से प्राप्त 'आर' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'हे दायार!" भी सिद्ध हो जाता है।।३-३९।।
नाम्न्य रं वा।।३-४०।। ऋदन्तस्यामन्त्रणे सौ परे नाम्नि संज्ञायां विषये अरं इति अन्तादेशो वा भवति ।। हे पितः। हे पिअरं पक्षे। हे पि।। नाम्नीति किम्। हे कर्तः। हे कत्तार ।।
अर्थ:- ऋकारान्त शब्दों के (प्राकृत-रूपान्तर में) संबोधन के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' का विधानानुसार लोप होकर अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अर' आदेश की प्राप्ति होती है, परन्तु इसमें एक शर्त यह है कि ऐसे ऋकारान्त शब्द रूढ़ संज्ञा रूप होने चाहिये; गुणवाचक ऋकारान्त संज्ञा वाले अथवा क्रियावाचक ऋकारान्त संज्ञा वाले शब्दों के संबोधन के एकवचन में इन सूत्रानुसार प्राप्त 'अर' आदेश की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार की विशेषता सूत्र में उल्लिखित 'नाम्नि पद के आधार से समझनी चाहिये। जैसेः हे पितः हे पिअरं। वैकल्पिक पक्ष होने से 'हे पिअ' भी होता है।
प्रश्न:- रूढ़ संज्ञा वाले ऋकारान्त शब्दों के संबोधन के एकवचन में ही 'अर' आदेश की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों गया है?
उत्तर:- जो रूढ़ संज्ञा वाले नहीं होकर गुण वाचक अथवा क्रिया वाचक ऋकारान्त संज्ञा रूप शब्द है; उनमें संबोधन के एकवचन में 'अर' आदेश प्राप्ति नहीं होती है। ऐसी विशेषता बतलाने के लिये ही 'नाम्नि पद का उल्लेख किया जाकर संबोधन के एकवचन में 'अरं आदेश प्राप्ति का विधान रूढ़-संज्ञा वाले शब्दों के लिये ही निश्चित कर दिया गया है। जैसे कि क्रिया वाचक संज्ञा के संबोधन के एकवचन का उदाहरण इस प्रकार है:- हे कर्तृः हे कत्तार। 'हे पिअर' के समान 'हे कअरं रूप नहीं बनता है यों रूढ़ वाचक संज्ञा में क्रिया वाचक अथवा गुण-वाचक संज्ञा में 'सबोधन एकवचन की विशेषता' समझ लेनी चाहिये।
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" हे पिअरं" रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ३९ में की गई है। " हे पिअ" रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-३९ में की गई है।
हे कर्तः- संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे कत्तार ! होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से रेफ रूप 'र्' का लोप, २-८९ लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३ - ४५ से मूल संस्कृत शब्द 'कर्तृ' में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर प्राकृत में 'आर' आदेश प्राप्ति और १ - ११ से संस्कृत संबोधन के एकवचन में प्राप्त अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर हे कत्तार!' सिद्ध हो जाता है । ३-४० ।।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 51
वाप ए ।। ३-४१॥
आमन्त्रणे सौ परे आप एत्वं वा भवति ।। हे माले। हे महिले । अज्जिए । पज्जिए। पक्षे । हे माला । इत्यादि । । आप इति किम्। हे पिउच्छा । हे माउच्छा ।। बहुलाधिकारात् क्वचिदोत्वमपि । अम्मो भणामि भणिए ।
अर्थः- ‘आप्' प्रत्यय वाले आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में संबोधन के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे :- हे माले हे माले; हे महिले - हे महिले; हे आर्थिके- (अथवा हे आर्यके!) = हे अज्जिए; हे आर्थिके = हे पज्जिए | पक्षान्तर में क्रम से ये रूप होंगे:- हे माला; हे महिला; हे अज्जिआ और हे पज्जिआ । इत्यादि ।
=
प्रश्नः -'आप्' प्रत्यय वाले आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के ही संबोधन के एकवचन में 'ए' की प्राप्ति है; ऐसा उल्लेख क्यों किया गया हैं ?
उत्तर:- जो स्त्रीलिंग शब्द ' आप्' प्रत्यय से रहित होते हुए भी आकारान्त हैं; उनमें संबोधन के एकवचन में अन्त्य रूप से 'ए' की प्राप्ति नहीं होती है; इसलिये 'आप्' प्रत्ययान्त आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के सम्बन्ध में ' संबोधन के एकवचन में उपर्युक्त विधान सुनिश्चित करना पड़ा है। जैसे:- हे पितृ स्वसः ! - हे पिउच्छा ! होता है; न कि हे पिउच्छे!' हे मातृ - स्वसः ! हे माउच्छा! होता है; न कि 'हे माउच्छे;' इत्यादि ।
'बहुलं' सूत्र के अधिकार से किसी-किसी आकारान्त प्राकृत स्त्रीलिंग शब्द के संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होती हुई भी पाई जाती है। जैसे:- हे अम्ब भणितान् भणामि = हे अम्मो ! भणामि भणिए ! अर्थात् हे माता! मैं पढ़े हुए को पढ़ता हूं। यहां पर संस्कृत आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द 'अम्बा' के प्राकृत रूप 'अम्मा' के संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति हो गई है; यों अन्य किसी-किसी आकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्द के संबन्ध में भी समझ लेना चाहिये।
हे माले! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी हे माले! ही होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३- ४१ से मूल प्राकृत शब्द 'माला' के संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और १ - ११ से संस्कृत प्रत्यय 'स्' का प्राकृत में भी संस्कृत के समान ही लोप होकर 'हे माले!' रूप सिद्ध हो जाता है।
महिले! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी हे महिले! ही होता है। इसमें भी सूत्र - संख्या ३-४१ से और १-११ से उपर्युक्त 'हे माले' के समान हो साधनिका की प्राप्ति होकर हे महिले! रूप सिद्ध हो जाता है।
हे आर्थिके ! संस्कृत संबोधन एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप हे अज्जिए ! होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २ - २४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज्' को द्वित्व ‘ज्ज' की प्राप्ति; १- १७७ से 'क्' का लोप और ३- ४१ से मूल संस्कृत शब्द 'आर्यिका' में स्थित अन्त्य 'आ' के स्थान पर संबोधन के एकवचन में संस्कृत के समान ही 'ए' की प्राप्ति होकर 'हे अज्जिए' रूप सिद्ध हो जाता है।
हे आर्यक! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे अज्जिए ! होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २ - २४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य'क स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त
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52 : प्राकृत व्याकरण 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; २-१०७ से प्राप्त 'ज्ज' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-४९ से मूल संस्कृत शब्द 'आर्यिका में स्थित अन्त्य 'आ' के स्थान पर संबोधन के एकवचन में संस्कृत के समान ही 'ए' की प्राप्ति होकर हे अज्जिए' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ हे प्रार्यिके! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे पज्जिए! होता है इससे सूत्र-संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-४१ से मूल संस्कृत शब्द 'प्रार्यिका' में स्थित अन्त्य 'आ' के स्थान पर संबोधन के एकवचन में संस्कृत के समान ही 'ए' की प्राप्ति होकर 'हे पज्जिए' रूप सिद्ध हो जाता है।
हे माले! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे माला! होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-४१ से संबोधन के एकवचन में मूल शब्द 'माला' के अन्त्य 'आ' को 'यथा-स्थितरूपवत्' अर्थात् ज्यों की त्यों स्थिति की प्राप्ति होकर हे माला रूप सिद्ध हो जाता है।
हे पितृ-स्वसः! संस्कृत संबोधन एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप हे पिउच्छा! होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'त्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-१४१ से 'स्वसृ' के स्थान पर 'छा' आदेश-प्राप्त; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति ; और ३-४१ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'आ' की स्थिति ज्यों की त्यों कायम रह कर हे पिउच्छा रूप सिद्ध हो जाता है।
हे मातृ-स्वसः! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे माउच्छा ! होता है। इसकी साधनिका उपर्युक्त हे पिउच्छा ! में प्रयुक्त-सूत्रों के अनुसार ही होकर 'हे माउच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है। __ हे अम्ब! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे अम्मो! होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'ब्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'ब' के पश्चात् शेष रहे हुए 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति और ३-४१ की वृत्ति से संबोधन के एकवचन में प्राप्त प्राकृत रूप 'अम्मा' के अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ओ' का प्राप्ति होकर 'हे अम्मो' ! रूप सिद्ध हो जाता है।
भणामि संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी भणामि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त धातु 'भण्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५४ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१४१ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भणामि' रूप सिद्ध हो जाता है।
भणितान् संस्कृत कृदन्तात्मक विशेषण द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भणिए' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त धातु 'भण' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' को 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से संस्कृत कृदन्तात्मक प्राप्त प्रत्यय 'त्' का लोप; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृतीय प्रत्यय 'शस्' के स्थानीय रूप 'न्' का प्राकृत में लोप और ३-१४ से प्राप्त रूप 'भणिआ' में स्थित अन्त्य संस्कृत कृदन्तात्मक प्रत्यय 'त' में से शेष 'अ' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'भणिए' रूप सिद्ध हो जाता है। ३-४१।।
ईदूतोर्हस्वः ।।३-४२॥ आमन्त्रणे सो परे ईदूदन्तयोर्हस्वो भवति ॥ हे नइ । हे गामणि ! हे समणि ! हे वहु! हे खलपु!
अर्थ- दीर्घ ईकारान्त और दीर्घ ऊकारान्त प्राकृत स्त्रीलिंग शब्दों में संबोधन के एकवचन में 'सि' प्रत्यय परे रहने पर विधानुसार प्राप्त प्रत्यय 'सि का लोप होकर अन्त्य दीर्घ स्वर के स्थान पर सजातीय हस्व स्वर की प्राप्ति होती है। जैसे:हे नदि! हे नइ ! हे ग्रामणि हे गामणि! हे श्रमणि! हे समणि ! हे वधु= हे वहु। और हे खलपु! हे खलपु इत्यादि।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 53 नदि ! संस्कृत संबोधन एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप हे नइ ! होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'द्' का लोप और ३- ४२ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति एवं १ - ११ से प्रथमा विभक्तिवत् संबोधन के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'स' का लोप होकर संबोधनात्मक एकवचन में प्राकृत रूप हे नइ ! सिद्ध हो जाता है।
ग्रामणि! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे गामणि! होता है। इसमें सूत्र - संख्या २-७९ से 'र' का लोप; ३- ४२ से संबोधन के एकवचन में मूल शब्द ग्रामणी - गामणी में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति और १ - ११ से प्रथमा विभक्ति के समान ही संबोधन के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'स' का लोप होकर संबोधनात्मक एकवचन में प्राकृत रूप हे गामणि! सिद्ध हो जाता है।
हे श्रमणि! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है इसका प्राकृत रूप हे समणि! होता है इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्'का लोप; १ - २६० से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३- ४२ से संबोधन के एकवचन में मूल शब्द 'श्रमणि समणी' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व 'इ' की प्राप्ति और १ - ११ से प्रथमा विभक्ति के समान ही संबोधन के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'स्' का लोप होकर हे समणि! रूप सिद्ध हो जाता है।
वधु ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे बहु ! होता है ! इसमें सूत्र - संख्या १- १८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३ - ४२ से संबोधन के एकवचन में मूल शब्द 'वधू - वहू' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और १ - ११ से प्रथमा विभक्ति के समान ही (संबोधन के एकवचन में) प्राप्त 'सि' के स्थानीय रूप ‘स्' का लोप होकर संबोधनात्मक एकवचन में प्राकृत रूप' हे वहु ! सिद्ध हो जाता है।
हे खलपु ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है इसका प्राकृत रूप भी हे खलपु ! ही होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-४२ से संबोधन के एकवचन में मूल शब्द 'खलपू' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और १ - ११ से प्रथमा विभक्ति के समान ही संबोधन के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'स' का लोप होकर 'हे खलपु !' रूप सिद्ध हो जाता है। ३-४२।।
क्विपः ।।३-४३।
क्विबन्तस्येदूदन्तस्य ह्रस्वो भवति ।। गामणिणा । खलपुणा । गामणिणो । खलपुणो ।।
अर्थः- ग्रामणी-गामणी अर्थात् गांव का मुखिया और खलपू अर्थात् दुष्ट पुरुषों को पवित्र करने वाला इत्यादि शब्दों में 'णो' और 'पू' आदि विशेष प्रत्यय लगाये जाकर ऐसे शब्दों का निर्माण किया जाता है; इससे इनमें विशेष - अर्थता प्राप्त हो जाती है और ऐसी स्थिति में ये क्विबन्त प्रत्यय वाले शब्द कहलाते है। ऐसे क्विबंत प्रत्यय वाले शब्दों में जो दीर्घ कारांत वाले और दीर्घ ऊकारांत वाले शब्द हैं, उनमें विभक्ति - बोधक प्रत्ययों की संयोजना करने वाले अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' अथवा 'ऊ' का हस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' हो जाता है और तत्पश्चात् विभक्तिबोधक प्रत्यय संयोजित किये जाते हैं। जैसे :- ग्रामाण्या गामणिणा- अर्थात् ग्राम मुखिया द्वारा; खलप्वा खलपुणा अर्थात् दुष्टों को (अथवा खलिहान को) साफ करने वाले से; ग्रामण्यः = (प्रथमा -द्वितीया बहुवचनान्त) = ग्रामणिणों अर्थात् गांव का मुखिया (पुरुषगण ) अथवा गांव मुखियाओं को और खलप्वः = (प्रथमा द्वितीया बहुवचनान्त) खलपुणो अर्थात् दुष्ट- पुरुषों (या खलिहानों) को साफ करने वाले अथवा साफ करने वालों को। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि विभक्तिबोधक प्रत्यय प्राप्त होने पर क्विबन्त शब्दों के अन्त्य दीर्घ स्वर हस्व हो जाया करते हैं।
'गामणिणा' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २४ में की गई है।
'खलपुणा' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २४ में की गई है।
ग्रामण्यः संस्कृत प्रथमा-द्वितीया के बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप गामणिणो होता है। इसमें सूत्र - संख्या
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54 : प्राकृत व्याकरण २-७९ से 'र' का लोप; ३-४३ से मूल शब्द 'गामणी' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति
और ३-२२ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के संस्कृत 'जस-शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गामणिणो रूप सिद्ध हो जाता है।
खलप्वः संस्कृत प्रथमा-द्धितीया के बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप खलपुणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-४३ से मूल शब्द 'खलपू' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और ३-२२ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के संस्कृत प्रत्यय 'जस-शस' के स्थान पर प्राकृत में णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खलपुणो' रूप सिद्ध हो जाता है। ३-४३॥
ऋतामुदस्यमौसु वा।।३-४४।। सि अम् औ वर्जिते अर्थात् स्यादौ परे ऋदन्तानामुदन्तादेशो वा भवति। जस्। भत्तू। भत्तुणो। भत्तउ, भत्तओ। पक्षे। भत्तारा।। शस्। भत्तू। भत्तुणो। पक्षे भत्तारे ।।टा। भत्तुणो। पक्षे। भत्तारेण। भिस्। भत्तूहिं। पक्षे भत्तारेहि। उसि। भत्तुणो। भत्तूओ। भत्तूउ। भत्तूहिं। भत्तुहिन्तो। पक्षे भत्ताराओ। भत्ताराउ। भत्तराहि। भत्ताराहिन्तो। भत्तारा। ङस् भत्तुणो। भत्तुस्स पक्षे भत्तारस्य। सुप्। भत्तूसु। पक्षे। भत्तारेसु।। बहु-वचनस्य व्याप्त्यर्थत्वात् यथा दर्शनं नाम्न्यपि उद् वा भवति जस् शस्-ङसि-डस्-सु। पिउणो जामाउणो। भाउणो। टायाम्। पिउणा।। भिसि। पिऊहिं।। सुपि। पिऊसु। पक्षे। पिअरा इत्यादि।। अस्य मौस्विति किम्। सि। पिआ।। अम्। पिअरं।। औ। पिअरा।।
अर्थः- संस्कृत ऋकारान्त शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'सि' द्विवचन के प्रत्यय 'औ' और द्वितीया विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'अम्' के सिवाय अन्य किसी भी विभक्ति के एकवचन अथवा बहुवचन के प्रत्ययों की संयोजना होने पर शब्द के अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति होती है और तत्पश्चात् उकारान्त के समान ही इन तथाकथित-ऋकारान्त-उकारान्त शब्दों में विभक्तिबोधक प्रत्ययों की संयोजना हुआ करती है। जैसे:- प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर- 'भर्तृ के रूप-भर्तार; के प्राकृत रूपान्तर-भत्तू, भत्तुणों भत्तूउ और भत्तओ' होते हैं। एवं वैकल्पिक पक्ष होने से भत्तारा' रूप भी होता है। द्वितीया विभक्ति बहुवचन के शस् प्रत्यय के उदाहरणः- भर्तृन्=भत्तू, भत्तणो तथा वैकल्पिक पक्ष में भत्तारे भी होता है। तृतीया विभक्ति के एकवचन के 'टा' प्रत्यय का उदाहरणः- भा भत्तुणा और वैकल्पिक पक्ष मे भत्तारेण होता है। तृतीया बहुवचन के प्रत्यय 'भिस्' का उदाहरणः- भर्तृभिः भत्तूहिं और वैकल्पिक पक्ष में भत्तारेहिं इत्यादि होते हैं। 'ङसि पंचमी विभक्ति के एकवचन के उदाहरणः- भर्तुः-=भत्तुणो, भत्तूउ, भत्तूहिं और भत्तूहिन्तो तथा वैकल्पिक पक्ष में भत्ताराओ, भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्ताराहिन्तो और भत्तारा होते हैं। ङस्' षष्ठी विभक्ति के एकवचन के उदाहरण:- भर्तुः भत्तुणो, भत्तुस्स तथा वैकल्पिक पक्ष में भत्तारस्स रूप होता है। 'सुप्' सप्तमी विभक्ति का बहुवचन का उदाहरण :- भर्तुषु भत्तुसु और वैकल्पिक पक्ष में भत्तारेसु होता है।
ऋकारान्त शब्द दो प्रकार के होते हैं; संज्ञा रूप और विशेषण रूप; तदनुसार इस सूत्र की वृत्ति में 'ऋदन्तानाम् ऐसा बहुवचनात्मक उल्लेख करने का तात्पर्य यही है कि संज्ञारूप और विशेषण रूप दोनों प्रकार के ऋकारान्त शब्दों के अन्त्यस्थ'ऋ' स्वर के स्थान पर 'सि' और 'अम्' प्रत्ययों को छोड़कर शेष सभी प्रत्ययों का योग होने पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति हो जाती है। जैसेः- प्रथमा बहुवचन के प्रत्यय 'जस् के उदाहरणः- पितृ+जस्=पितरः पिउणो; जामातृ ङसि-जामातुः जामाउणो और भ्रातृ+ ङस् भ्रातुः भाउणो इत्यादि। इस प्रकार से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय, पंचमी विभक्ति के एकवचन में ङस्'ि प्रत्यय, षष्ठी विभक्ति के एकवचन से 'उस' प्रत्यय और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में 'सुप्' प्रत्यय प्राप्त होने पर ऋकारान्त संज्ञाओं के अन्त्यस्थ 'ऋ' स्वर के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति होती है। तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रत्यय का उदाहरणः- पितृ+टा-पित्रा पिउणा; तृतीया विभक्ति के बहुवचन में 'भिस्' प्रत्यय का उदाहरणः- पितृभिः पिऊहिं; और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में सुप् प्रत्यय का उदाहरण :- पितृषु पिउसु यों ऋ के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति का विधान समझ लेना चाहिये। वैकल्पिक पक्ष होने से
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 55 सूत्र-संख्या ३-४७ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अर' की प्राप्ति भी होती है और ऐसा होने पर इन शब्दों की रूपावलि अकारान्त शब्दों के अनुसार होती है जैसे:-पितृ जस्-पितरः= पिअरा; इत्यादि।
प्रश्नः-'सि' 'औ और अम्' प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर ऋकारान्त शब्दों में 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति क्यों नहीं होती है?
उत्तरः- 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'पितृ+सि-पिता का प्राकृत रूपान्तर 'पिआ होता है; 'अम्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'पितृ अम्=पितरम्' का प्राकृत रूपान्तर पिअरं होता है; तथा प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति के द्विवचन में औ' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'पितृ औ=पितरौ' का प्राकृत रूपान्तर 'पिअरा' होता है; अतएव 'सि' 'अम्'और 'औ' प्रत्ययों को इस विधान के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता है। __ भर्तारः- संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तू, भत्तुणो, भत्तउ, भत्तओ और भत्तारा होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'भर्तृ में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति; ३-४४ से अन्त्य 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'उ' स्वर की प्राप्ति और ३-४ से तथा ३-२० की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय का लोप एवं ३-१२ से प्राप्त लुप्त (जस् प्रत्यय के कारण) अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'भत्तू' सिद्ध होता है। ___द्वितीय रूप- (भर्तारः=) भत्तुणो में भत्तु' अंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् और ३-२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत-प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से ‘णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'भत्तुणो' सिद्ध हो जाता है। - तृतीय रूप- (भर्तारः-) भत्तउ में भत्तु' अंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत्; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत रूप में 'डउ' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डउ' में 'इ' इत्संज्ञक होने से 'भत्तु' अंग में स्थित अन्त्य स्वर 'उ' की इत्संज्ञा हो जाने से इस'उ' का लोप; एवं प्राप्त अंग 'भत्त्' में 'डउ अउ' प्रत्यय की संयोजना होकर तृतीय रूप 'भत्तउ' भी सिद्ध हो जाता है।
चतुर्थ रूप (भर्तारः=) भत्तओ में 'भत्तु' अंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् और शेष साधनिका तृतीय रूप के समान ही सूत्र-संख्या ३-२० से होकर एवं डओ=अओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चतुर्थ रूप भत्तओ भी सिद्ध हो जाता है।
पंचम रूप- (भर्तारः=) भत्तारा में सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत रूप 'भर्तृ में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३-४५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहवचन में संस्कत प्रत्यय 'जस' का प्राकत में लोप और ३-१२ से प्राप्त एवंलप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर पंचम रूप भत्तारा सिद्ध हो जाता है।
भर्तृन् संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तू, भत्तुणो और भत्तारे होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्' की प्राप्ति; ३-४४ से मूल संस्कृत शब्द 'भर्तृ' में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'उ' आदेश की प्राप्ति; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय शस् का प्राकृत में लोप और ३-१८ से प्राप्त एवं एवं लुप्त प्रत्यय शस् के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तू सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय-रूप-भर्तुन्-भत्तुणो में भत्तु' रूप अंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् और ३-२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय; 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से ‘णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भत्तुणो सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप- (भर्तृन्-) भत्तारे में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-४५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आर' की प्राप्ति; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में
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56 : प्राकृत व्याकरण संस्कृत प्राप्तय प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप और ३-१४ से प्राप्त तथा लुप्त शस् प्रत्यय के कारण से प्राप्तांग भत्तार' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकार तृतीय रूप भत्तारे सिद्ध हो जाता है। _ भर्ना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तुणा और भत्तारेण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७९ से र का लोप २-८९ से लोप हुये 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त्' को द्वित्त्व 'त्त की प्राप्ति, ३-४४ से अन्त्य ऋ के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति और ३-२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय टा-आ के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तुणा सिद्ध होता है।
द्वितीय रुप-(भा=) भत्तारेणं में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्त्' की प्राप्ति; ३-४५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय 'टा आ' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ 'भत्तार' अंग के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भत्तारेण सिद्ध हो जाता है।
भर्तृभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तूहिं और भत्तारेहिं होते हैं इनमें से प्रथम रूप में भर्तृ =भत्तु' अंग की साधनिका इसी सूत्र में ऊपर कृतवत्; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या-३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय भिस् के स्थान पर प्राकृत में हिं' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१६ से प्राप्त प्रत्यय 'हिं के पूर्वस्थ 'भत्तु' अंग में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तूहिं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (भर्तृभिः) भत्तारेहिं में भर्तृ=भत्तार अंग की साधनिका इसी सूत्र में ऊपर कृतवत्; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'हिं' के पूर्वस्थ 'भत्तार' अंग में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भत्तारेहिं सिद्ध हो जाता है।
भर्तृः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तुणो, भत्तूओ, भत्तूउ, भत्तूहि, भत्तूहिन्तो, तथा भत्ताराओ भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्ताराहिन्तो और भत्तारा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में भत्तु' अंग की साधनिका इसी सूत्र में ऊपर कृतवत; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२३ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत 'ङसि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तुणो सिद्ध हो जाता है। __ द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ और पंचम रूपों में -अर्थात् भत्तूओ, भत्तूउ, भत्तूहि और भत्तूहिन्तो में भत्तु' अंग की प्राप्ति इसी सूत्र में कृत साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल प्राप्त-अंग 'भत्तु' में स्थित हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति और ३-८ से तथा ३-२३ की वृत्ति से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर क्रम से 'ओ-उ-हि-हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप- (रसेप तक) भत्तूआ, भत्तूउ, भत्तूहि, और भत्तूहिन्तो सिद्ध हो जाते हैं।
छटे से दशवें रूपों में अर्थात्-(भर्तुः=) भत्ताराओ, भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्ताराहिन्तो और भत्तारा में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्' की प्राप्ति; ३-४५ से मूल शब्द 'भर्तृ में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; यों प्राप्त-अंग 'भत्तार' में ३-१२ से अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-८ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से-औ-उ-हि-हिन्तो और लुक्' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से भत्ताराओ, भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्ताराहिन्तो, एवं भत्तारा रूप सिद्ध हो जाते हैं। __ भर्तु; संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तुणो, भत्तुस्स और भत्तारस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त्त्' को द्वित्व 'त्' की प्राप्ति; ३-४४ से मूल शब्दस्थ अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'उ' आदेश की प्राप्ति और ३-२३ से प्राप्तांग भत्तु में षष्ठी विभक्ति के एकवचन संस्कृत प्राप्तव्य
प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तुणो सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 57 द्वितीय रूप- (भर्तुः = ) भत्तुस्स में 'भत्तु' अंग की साधनिका ऊपर के समान; और ३- १० से पूर्वोक्त रीति से प्राप्तांग 'भत्तु' में षठी - विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भत्तुस्स सिद्ध हो जाता है।
३-४५
तृतीय रूप - (भर्तुः = ) भत्तारस्स में सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २ - ८९ से 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; मूल शब्दस्थ अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति और ३-१० सें प्राप्तांग ' भत्तार' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप भत्तारस्स सिद्ध हो जाता हैं।
भर्तृषु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तूसु और भत्तारेसु होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'भत्तु' अंग की साधनिका ऊपर के समान ३ - १६ से प्राप्तांग 'भत्तु' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सुप; की प्राकृत में भी प्राप्ति; एवं १ - ११ से प्राप्त प्रत्यय 'सुप; में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'प्' का लोप होकर प्रथम रूप भत्तूसु सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप ( भर्तृषु = ) भत्तारेसु में ' भत्तार' की साधनिका ऊपर के समान; ३ - १५ से प्राप्तांग ' भत्तार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और शेष साधनिका की प्राप्ति प्रथम रूपवत् ४-४४८ तथा १ - ११ से होकर द्वितीय रूप भत्तारेसु भी सिद्ध हो जाता है।
पितरः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है इसके प्राकृत रूप पिउणो और पिअरा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में मूल- संस्कृत शब्द 'पितृ' में स्थित 'त्' का सूत्र - संख्या १ - १७७ से लोप; २-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'उ' आदेश की प्राप्ति; और ३ - २२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पिउणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- ( पितरः = ) पिअरा में सूत्र संख्या १ - १७७ से मूल संस्कृत शब्द 'पितृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४७ से लोप हुए 'तू' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति; ३ - १२ से 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति रही हुई होने से प्राप्तांग 'पिअर' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथम विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत से लोप होकर द्वितीय रूप पिअरा सिद्ध हो जाता है।
जामातृः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप जामाउणो होता है। इसमें मूल संस्कृत शब्द 'जामातृ' में स्थित 'त्' का सूत्र - संख्या १ - १७७ से लोप; २-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'उ' आदेश की प्राप्ति और ३- २३ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थान पर प्राकृत में (वैकल्पिक रूप से) 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जामाउणो रूप सिद्ध हो जाता है।
भ्रातृः संस्कृत षष्ठयन्यत एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भाउणो होता है। इसमें मूल शब्द भ्रातृ में सूत्र - संख्या २-७९ से 'र्' का लोप; १ - १७७ से 'तू' का लोप; २-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'उ'आदेश की प्राप्ति और ३- २३ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भाउणो रूप सिद्ध हो जाता हैं।
पितृ संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउणा होता है। मूल शब्द पितृ में -सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; २-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति और ३- २४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिउणा हो जाता है।
पितृभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप पिऊहिं होता है। इसमें पिउ अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि - अनुसार; ३ - १६ से प्राप्तांग 'पिउ' में स्थित ह्रस्व 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति और ३-१ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिऊहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
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58 : प्राकृत व्याकरण
पितृषु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप पिऊसु होता है। इसमें 'पिउ' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; ३-१६ से प्राप्तांग 'पिउ' में स्थित हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सुप्' =सु के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिऊसु रूप सिद्ध हो जाता है।
पिता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पिआ होता है। इसमें-मूल शब्द 'पितृ' में स्थित 'त्' का सूत्र-संख्या १-१७७ से लोप; ३-४८ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय-सि-स् का प्राकृत में लोप होकर पिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
पितरम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पिअरं होता है। इसमें मूल शब्द 'पितृ' में स्थित त् का सूत्र-संख्या १-१७७ से लोप; ३-४७ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय में 'म्' का अनुस्वार होकर पिअर रूप सिद्ध हो जाता है।
पितरा संस्कृत प्रथमान्त-द्वितीयान्त द्विवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पिअरा होता है। इसमें 'पिअर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिकानुसार; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्तांग 'पिअर' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्-शस्' का प्राकृत में लोप होकर पिअरा रूप सिद्ध हो जाता है। ॥३-४४।।
आरःस्यादौ।।३-४५।। स्यादौ परे ऋत आर इत्यादेशो भवति।। भत्तारो। भत्तारा। भत्तारं। भत्तारे। भत्तारेण। भत्तारेहि। एवं डस्यादिषूदाहार्यम्। लुप्तस्याद्यपेक्षया। भत्तार-विहि। ___ अर्थः-ऋकारान्त शब्दों में और ऋकारान्त विशेषणात्मक शब्दों में विभक्ति-बोधक 'सि' 'अम्' आदि प्रत्ययों की संयोजना होने पर इन शब्दों के अन्त्यस्थ 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति होती है तत्पश्चात् इनकी विभक्ति-बोधक रूपावली अकारान्त शब्द के समान संचालित होती है। जैसे:- भर्ता भत्तारो;: भर्तारः भत्तारा, भर्तारम् भत्तार भर्तृन भत्तारे; भर्ना भत्तारेण; भर्तृभिः भत्तारेहि; इसी प्रकार से पंचमी आदि शेष विभक्तियों में स्वयमेव रूप निर्धारित कर लेना चाहिये; ऐसा आदेश वृत्ति में दिया हुआ है। समास-गत ऋकारान्त शब्द में भी यदि वह समा समय वाक्य के प्रारम्भ में रहा हुआ तो 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति हो जाती है एवं समास-गत होने से विभक्ति-बोधक प्रत्ययों का लोप होने पर भी 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश प्राप्ति का अभाव नहीं होता है। जैसे:-भर्तृ-विहितम् भत्तार-विहिओ ___ भर्ता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तारो होता है। इसमें-मूल शब्द 'भर्तृ' में स्थित 'र' का सूत्र-संख्या २-७९ से लोप; २-८९ से 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३-४५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डोओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भत्तारो रूप सिद्ध हो जाता है।
__भर्तारः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तारा होता है। इसमें भत्तार' अंग की प्राप्ति .. उपर्युक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग भत्तार' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्'का प्राकृत में लोप होकर भत्तारा रूप सिद्ध हो जाता है। ___ भर्तारम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तारं होता है। इसमें 'भत्तार' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५ से द्वितीया-विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर भत्तारं रूप सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 59 भर्तृन् संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तारे होता है। इसमें भत्तार' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या-३-१४ से प्राप्तांग 'भत्तार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप होकर भत्तारे रूप सिद्ध हो जाता है। । भ; संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तारेण होता है। इसमें भत्तार' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या-३-१४ से प्राप्तांग भत्तार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय टा=आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भत्तारेण रूप सिद्ध हो जाता है।
भर्तृभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है इसका प्राकृत-रूप भत्तारेहिं होता है। इसमें भत्तार' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग भत्तार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अके स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भत्तारेहिं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ भर्तृ-विहितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तार-विहिअंहोता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३-४५ से 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त् का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भत्तारविहिअंरूप सिद्ध हो जाता है। ॥३-४५।।
आ अरा मातः॥३-४६॥ मातृ संबन्धिन ऋतः स्यादौ परे आ अरा इत्यादेशो भवतः माआ।। माअरा। माआउ। माआओ। माअराउ। माअराओ। माओ माअरं इत्यादि।। बाहुलकाज्जनन्यर्थस्य आ देवतार्थस्य तु अरा इत्यादेशः। माआए कुच्छीए। नमो माअराण।। मातुरिद्वा (१-१३५) इतीत्त्वे माईण इति भवति।। ऋतामुद (३-४४) इत्यादिना उत्वे तु माउए समन्नि अं वन्दे इति। स्यादावित्येव। माइ देवो। माइ-गणो।। ___ अर्थः-'मातृ' शब्द में स्थित 'ऋ' के स्थान पर आगे विभक्तिबोधक 'सि', 'अम्' आदि प्रत्ययों के रहने पर 'आ'
और 'अरा' ऐसे दो आदेशों की प्राप्ति यथाक्रम से होती है। जैसे :- माता=माआ अथवा माअरा। मातरः-माआउ और माआओ अथवा माअराउ अथवा माअराओ-माताऐं। मातरम् माअं अथवा माअरं अर्थात् माता को। 'मातृ' शब्द दो अर्थों में मुख्यतः व्यवहत होता है:-(१) जननी अर्थ में और (२) देवता के स्त्रीलिंग रूप देवी अर्थ में; तदनुसार जहां 'मातृ' शब्द का अर्थ 'जननी' होगा वहां पर प्राकृत-रूपान्तर में अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश की प्राप्ति होगी, एवं जहां 'मातृ' शब्द का अर्थ 'देवी' होगा; वहां पर प्राकृत रूपान्तर में अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अरा' आदेश की प्राप्ति होगी। जैसे:- मातुः कुक्षेः माआए कुच्छीए अर्थात् माता के पेट से। नमो मातृभ्यः नमो माअराण अर्थात् देवी रूप माताओं के लिये नमस्कार हो। प्रथम उदाहरण में "मातृ-जननी" अर्थ होने से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर आ आदेश किया है, जबकि द्वितीय उदाहरण में 'मातृ-देवी' अर्थ होने से अन्त्य ऋ के स्थान पर 'अरा' आदेश किया गया है; यों 'आ' और 'अरा' आदेश प्राप्ति में रहस्य रहा हुआ है उसे ध्यान में रखना चाहिये। सूत्र-संख्या १-१३५ में कहा गया है कि जब 'मातृ' शब्द गौण रूप से समास अवस्था में रहा हुआ हो तो उस 'मातृ' शब्द में स्थित अन्त्य; 'ऋ' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति होती है। तदनुसार यहां पर दृष्टान्त दिया जाता है कि-'मातृभ्यः माईण' अर्थात् माताओं के लिये; इस प्रकार 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति भी होती है। इसी प्रकार से सूत्र-संख्या ३-४४ में विघोषित किया गया है कि ऋकारान्त शब्दों के अन्त्यस्थ 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति होती है; तदनुसार 'मातृ' शब्द में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति भी होती है; जैसे:- मात्रा समन्वितम् वन्दे-माऊए समन्निअं वन्दे अर्थात् मैं माता के साथ (समुच्चय रूप से) नमस्कार करता हूं। इस 'माऊए' उदाहरण में 'मातृ' शब्द के
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60 : प्राकृत व्याकरण 'ऋ' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-४४ के अनुसार वैकल्पिक रूप से 'उ' आदेश की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है; अन्यत्र
भी समझ लेना चाहिये। ___ प्रश्नः- सूत्र की वृत्ति में ऐसा क्यों कहा गया है कि- 'सि' 'अम्' आदि विभक्ति-बोधक प्रत्ययों के आगे रहने पर ही 'मातृ' शब्द में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'आ' अथवा 'अरा' आदेश की प्राप्ति होती है। ___ उत्तरः- विभक्ति-बोधक प्रत्ययों से रहित होता हुआ समास-अवस्था में गौण रूप से रहा हुआ हो तो 'मातृ' शब्द में स्थित 'ऋ' स्थान पर 'आ' अथवा 'अरा' आदेश प्राप्ति नहीं होगी, किन्तु सूत्र-संख्या १-१३५ के अनुसार इस अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'इ' आदेश की प्राप्ति होगी; ऐसा सिद्धान्त प्रदर्शित करने के लिये ही सूत्र की वृत्ति में 'सि' अम्' आदि प्रत्ययों के आगे रहने की आवश्यकता का उल्लेख करना सर्वथा उचित है। जैसे:- मातृदेवः माइदेवो और मातृ-गणः माइ-गणो; इत्यादि। इन उदाहरणों में उक्त विधानानुसार 'ऋ' के स्थान पर 'इ' आदेश की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है।
माता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप माआ और माअरा। होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'मातृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४६ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'आ'आदेश की प्राप्ति; ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' की प्राकृत में प्राप्त अंग 'माआ' में भी प्राप्ति एवं १-११ से प्राप्त प्रत्यय 'स्' का हलन्त होने से लोप होकर माआ रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (माता-) माअरा में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'मातृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४६ से लोप हुए 'त्'के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'अरा' आदेश की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूपवत् होकर द्वितीय रूप माअरा भी सिद्ध हो जाता है। ___मातरः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप माआउ, माआओ, माअराउ, और माअराओ होते
हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'मातृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४६ से लोप; हुए _ 'त्' के पश्चात् शेष रहे 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में आकारान्त
स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर माआउ और माआओ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय और चतुर्थ रूप-(मातरः=) माअराउ और माअराओ में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द मातृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४६ से लोप हुए 'त् के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'अरा' आदेश की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथम दो रूपों के समान ही 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होकर माअराउ और माअराओ रूप सिद्ध हो जाते हैं। ____ मातरम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूपं माअं और माअरं होते हैं। इनमें 'माआ' और 'माअरा' अंगों की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-३६ से 'अन्त में द्वितीया विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय आने से' मूल-अंग 'माआ तथा माअरा' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'आ के स्थान पर हस्व स्वर' 'अ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप माअं और माअरं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
मातुः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'माआए होता है। इसमें माआ' अंग की साधनिका उपर्युक्त विधि अनुसार, पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२९ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में आकारांत स्त्रीलिंग संस्कृत प्रत्यय 'ङस्-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माआए' रूप सिद्ध हो जाता है।
कुक्षेः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप कुच्छीए होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत शब्द 'कुक्षि' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ' के स्थान पर 'च' का प्राप्ति और ३-२९ से पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में इकारान्त के स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि=अस्' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति कराते हुए 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुच्छीए रूप सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 61 · नमः संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप नमो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-३७ के विसर्ग के स्थान पर 'डो' आदेश की प्राप्ति; तत्पश्चात् डो' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से मूल अव्यय 'नम' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं तत्पश्चात् प्राप्त हलन्त अंग 'नम्' में पूर्वोक्त 'ओ' आदेश प्राप्ति संधि-संयोजना होकर प्राकृत अव्यय रूप नमो सिद्ध हो जाता है।
मातृभ्यः संस्कृत चतुर्थ्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप माअराण होता है। इसमें 'माअरा' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'माअरा' में सूत्र-संख्या ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का योगदान एवं तदनुसार ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माअराण रूप सिद्ध हो जाता है। ___मातृभ्यः संस्कृत चतुर्थ्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप माईण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त' का लोप; १-१३५ से लोप हुए 'त' के पश्चात् शेष रहे 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति; ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का योगदान; ३-१२ से प्राप्तांग 'माइ' की प्राप्ति और अन्त में ३-६ से षष्ठी-विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माईण रूप सिद्ध हो जाता है। ___मात्रा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप माऊए होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'मातृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा=आ के स्थान पर प्राप्तांग 'माउ' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति कराते हुए 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माऊए रूप सिद्ध हो जाता है।
समन्वितम् संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप समन्नि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'व' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'व' के पश्चात् शेष रहे 'न्' को द्वित्व 'न्न' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर समन्निअंरूप सिद्ध हो जाता है। 'वन्दे' (क्रियापद) रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या १-२४ में की गई है।
मातृदेवः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माइ-देवो होता है इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१३५ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'डो-ओ' की प्राप्ति होकर माइ-देवो रूप सिद्ध हो जाता है।
मातृ-गण : संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माई-गणो होता है। इसमें माइ-देवो' में प्रयुक्त सूत्रों से साघनिका की प्राप्ति होकर माइ-गणो रूप सिद्ध हो जाता है। ३-४६।।
नाम्न्यरः ॥३-४७॥ ऋदन्तस्य नाम्नि संज्ञायां स्यादौ परे अर इत्यन्तादेशो भवति। पिअरा। पिअरं। पिअरे। पिअरेण। पिअरेहि जामायरा। जामाय। जामायरे। जामायरेण। जामायरेहि। भायरा। भायरं। भायरे। भायरेण। भायरेहि।
अर्थ- नाम-बोधक ऋकारान्त संज्ञाओं में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर, आगे विभक्तिबोधक 'सि' 'अम्' आदि प्रत्ययों के रहने पर 'अर' आदेश की प्राप्ति होती है। और इस प्रकार ये संस्कत ऋकारान्त संज्ञा-शब्द प्राकत रूपान्तर में 'अर-आदेश प्राप्ति होने से अकारान्त हो जाते हैं, एवं तत्पश्चात् इनकी विभक्ति-बोधक-रूपावलि जिण आदि अकारान्त शब्दों के अनुसार बनती है। जैसे:- पितरः-पिअरा; पितरम्-पिअरं; पितृन् =पिअरे; पित्रा-पिअरेण और पितृभि-पिअरेहि; इत्यादि। जामातरः जामायरा; जामातरम् जामायारं; जामतृन्-जामायरे; जामात्रा-जामायरेण और जामातृभिः=जामायरेहिं
इत्यादि। भ्रातराः भायरा, भातरम् भायरं, भ्रातृन्=भायरे; भ्रात्रा-भायरेण और भ्रातृभिः=भायरेहिं; इत्यादि।
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62 : प्राकृत व्याकरण
पिअरा और पिअरं रूपों की सिद्ध सूत्र - संख्या ३-४४ में की गई है।
पितृन् संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पिअरे होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से मूल संस्कृत शब्द 'पितृ' में स्थित 'त् ' का लोप; ३ - ४७ से लोप हुए 'त के पश्चात्' शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति; ३-१४ से प्राप्तांग पिअर में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे द्वितीया बहुवचन बोधक प्रत्यय 'शस्' की प्राप्ति होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप होकर पिअरे रूप सिद्ध हो जाता है।
पित्रा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पिअरेण होता है। इसमें 'पिअर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के समान; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ -१४ से प्राप्तांग 'पिअर' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया विभक्ति-बोधक प्रत्यय की प्राप्ति होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा=आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिअरेण रूप सिद्ध हो जाता है।
पितृभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पिअरेहिं होता है। इसमें 'पिअर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के समान; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - १५ से प्राप्तांग 'पिअर' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे तृतीया विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'ए' की प्राप्ति; ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिअरेहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
जामातरः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है, इसका प्राकृत रूप जामायरा होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से मूल संस्कृत शब्द - 'जामातृ' में स्थित 'त' का लोप; ३-४७ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान 'अर' आदेश की प्राप्ति; १ - १८० से आदेश प्राप्त 'अर' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - १२ से प्राप्तांग 'जामायर' में स्थित अन्य 'अ' के स्थान पर आगे प्रथमा विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर जामायरा रूप सिद्ध हो जाता है।
मातरम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है, इसका प्राकृत रूप जामायरं होता है। इसमें 'जामायर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के समान; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'अम्=म्' के समान ही प्राकृत में भी 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर जामायरं रूप सिद्ध हो जाता है।
जामातृन् संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप जामायरे होता है। इसमें 'जामायर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के समान; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'जामायर' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर ‘आगे द्वितीया विभक्ति के बहुवचन प्रत्यय की प्राप्ति होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप होकर जामायरे रूप सिद्ध हो जाता है।
मात्रा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप जामायरेण होता है। इसमें 'जामायर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधना के समान; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ -१४ से प्राप्तांग 'जामायर' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया विभक्ति के एकवचन प्रत्यय की प्राप्ति होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा=आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जामायरेण रूप सिद्ध हो जाता है।
जामातृभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत जामायरेहिं होता है। इसमें 'जामायर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के समान; तत्पश्चात् शेष साधनिका सूत्र - संख्या ३ - १५ तथा ३ - ७ से उपर्युक्त 'पिअरेहिं' के समान ही होकर जामायरेहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
भ्रातरः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भायरा होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से मूल
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 63 संस्कृत-शब्द भ्रातृ में स्थित 'र' का लोप; १–१७७ से 'त्' का लोप; ३-४७ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति; १-१८० से आदेश प्राप्त 'अर' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्तांग 'भायर' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे प्रथमा विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर भायरा रूप सिद्ध हो जाता है।
भ्रातरम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भायरं होता है। इसमें 'भायर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के समान; तत्पश्चात् शेष साधनिका सूत्र-संख्या ३-५ तथा १-२३ से 'जामायरं के समान ही होकर प्राकृत-रूप भायरं सिद्ध हो जाता है।
भ्रातृन् संस्कृत द्वितीया बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भायरे होता है। इसमें भायर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के समान; तत्पश्चात् शेष साधनिका की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-१४ और ३-४ से 'जामायरे' के समान ही होकर प्राकृत रूप भायरे सिद्ध हो जाता है।
भ्रात्रा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप भायरेण होता है। इसमें भायर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साघनिका के समान; तत्पश्चात् शेष साधनिका की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-१४ तथा ३-६ से 'जामायरेण' के समान ही होकर प्राकृत रूप भायरेण सिद्ध हो जाता है। . भ्रातृभिः तृतीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भायरेहिं होता है। इसमें 'भायर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के समान; तत्पश्चात् शेष साधनिका की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-१५ तथा ३-७ से उपर्युक्त 'पिअरेहिं अथवा 'जामायरेहिं के समान ही होकर प्राकृत रूप 'भायरेहि सिद्ध हो जाता है। ३-४७।।
आ सौ न वा ।। ३-४८।। ऋदन्तस्य सौ परे आकारो वा भवति। पिआ। जामाया। भाया। कत्ता। पक्षे। पिअरो। जामायरो। भायरो। कत्तारो।
अर्थ :- संस्कृत ऋकारान्त शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्तिबोधक प्रत्यय 'सि' परे रहने पर शब्दान्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आ' की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- पिता-पिआ अथवा पिअरो; जामाता-जामाया अथवा जामायरो; भता=भाया अथवा भायरो और कर्ता=कत्ता अथवा कत्तारो; इत्यादि। "पिआ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४४ में की गई है।
जामाता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप जामाया और जामायरा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'जामातृ' में स्थित 'त' का लोप, ३-४८ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश प्राप्ति ; १-१८० से आदेश प्राप्त 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्तिः ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि'='स्' की प्राकृत में भी प्राप्ति और १-११ से प्राप्त प्रत्यय 'स्' का प्राकृत में लोप होकर प्रथम रूप जामाया सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'जामायरो' की सिद्धि का सूत्र-संख्या ३-४७ में की गई है।
भ्राता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है इसके प्राकृत रूप भाया और भायरो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-सख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'भ्रातृ' में स्थित 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-४८ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १-१८० से प्राप्त 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और शेष साघनिका की प्राप्ति सूत्र-संख्या ४-४४८ तथा १-११ से उपर्युक्त 'जमाया' के समान ही होकर प्रथम रूप भाया' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (भ्राता) भायरो में सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत-शब्द 'भ्रातृ' से स्थित 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-४७ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'अर्' आदेश की प्राप्ति; १-१८०
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64 : प्राकृत व्याकरण
से आदेश प्राप्त 'अर्' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग 'भायर' संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भायरो सिद्ध हो जाता है।
कर्ता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप कत्ता और कत्तारो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सूत्र - संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'कर्तृ' में स्थित 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् रहे हुए 'तू' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-४८ से शब्दान्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश प्राप्ति; और शेष साघनिका की प्राप्ति सूत्र - संख्या ४-४४८ तथा १ - ११ से उपर्युक्त 'जामाया' के समान ही होकर प्राकृत रूप 'कत्ता' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (कर्ता = ) कत्तारो में सूत्र - संख्या २- ७९ से मूल संस्कृत शब्द 'कर्तृ' में स्थित 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्तिः ३ - ४५ से शब्दान्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; और २-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग 'कत्तार' में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप कत्तारो सिद्ध हो जाता है।
पिता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है इसका प्राकृत रूप- (पूर्वोक्त पिआ के अतिरिक्त) पिअरो होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'पितृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४७ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग 'पिअर' में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिअरो रूप सिद्ध हो जाता है । । ३ - ४८ ।।
राज्ञः ।।३-४९ ।
राज्ञो न लोपेऽन्त्यस्य आत्वं वा भवति सौ परे ।। राया । हे राया । पक्षे । आणा । देशे। रायाणो ।। हे राय । हे राय इति तु शौरसेन्याम् । एवं हे अप्पं । हे अप्प ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'राजन्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय 'सि' परे रहने पर सूत्र - संख्या १-११ से 'न्' का लोप होकर अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- राजा-राया; वैकल्पिक पक्ष में सूत्र-संख्या ३-५६ से ' आण' आदेश की प्राप्ति होने पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन में राजा-रायाणो रूप भी होता है। संबोधन एकवचन का उदाहरण:- हे राजन् - हे राया ! और हे राय ! शौरसेनी भाषा में सूत्र - संख्या -४-२६४ से संबोधन के एकवचन में 'हे राय!' रूप भी होता है। इसी प्रकार से आत्मन्' शब्द भी राजन्' के समान ही नकारान्त होने से इस 'आत्मन्' शब्द के संबोधन के एकवचन में भी दो रूप होते हैं:- जैसे- हे आत्मन् - हे अप्पं अथवा हे अप्प ! " प्रथम रूप शौरसेनी भाषा का है; जबकि द्वितीय रूप प्राकृत भाषा का है!
राजा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप राया और रायाणो होते हैं। इनमे से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त 'न' का लोप; एवं ३ - ४९ से शेष शब्द राज के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १ - १७७ से प्राप्तांग 'राजा' में स्थित 'ज्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति; ४ - ४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि'='स्' की प्राकृत में भी प्राप्ति और १ - ११ से प्राप्त प्रत्यय हलन्त 'स्' का लोप होकर राया रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (राजा =) रायाणो में सूत्र - संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन् - में स्थित 'ज्' का लोप १ - १८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५६ से प्राप्तांग 'रायन्' में स्थित अन्त्य 'अन्' के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति; तदनुसार प्राप्तांग 'रायाण' में सूत्र - संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रायाणा भी सिद्ध हो जाता है।
हे राजन् ! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे राया ! और हे राय ! होते हैं। इनमें में स्थित अन्त्य हलन्त 'न' का लोप एवं ३ - ४९ से शेष शब्द 'राज' के
सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्'
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 65 अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्तांग 'राजा' में स्थित 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' के पश्चात् शेष रहे 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्राप्तांग 'राया' में अन्त्य 'आ' स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अ' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप-हे राया! और हे राय! सिद्ध हो जाते हैं। __ हे राजन्! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन रूप है। इसका शौरसेनी रूप हे रायं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ४-२६४ से संबोधन के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के कारण से शौरसेनी में प्राप्तांग ‘रायन्' के अन्त्य 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर शौरसेनी रूप हे राय! सिद्ध हो जाता है। __ हे आत्मन्! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन का रूप है। इसका रौरसेनी रूप हे अप्पं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति। २-८९ से 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति ४-२६४ से संबोधन के एकवचन में शौरसेनी में प्राप्तांग 'अप्पन' में स्थित अन्त्य 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर हे अप्प! रूप सिद्ध हो जाता है। __ हे आत्मन्! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे अप्पा होता है। इसमें अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या १-११ से हलन्त 'न्' का लोप और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' का प्राकृत में वैकल्पिक रूप से अभाव होकर प्राकृत-संबोधनात्मक एकवचन रूप हे अप्प! सिद्ध हो जाता है। ३-४९||
जस्-शस् ङसि-ङसां णो॥३-५०॥ राजन् शब्दात् परेषामेषां णो इत्यादेशो वा भवति॥ जस्। रायाणो चिट्ठन्ति। पक्षे। राया।। शस्। रायाणो पेच्छ। पक्षे। राया। राए।। उसि। राइणो रण्णो आगओ। पक्षे। रायाओ। रायाउ। रायाहि। रायाहिन्तो। राय।। उस्। राइणो रण्णो धणं। पक्षे। रायस्स। ____ अर्थ:- संस्कृत शब्द 'राजन्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर; द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर; पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङसि' के स्थान पर
और षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- 'जस्' प्रत्यय का उदाहरणः- राजानः तिष्ठन्ति-रायाणो अथवा राया चिटन्ति। 'शस्' प्रत्यय का उदाहरणःराज्ञः पश्य-रायाणो अथवा राया अथवा राए पेच्छः अर्थात् राजाओं को देखो। उसि' प्रत्यय का उदाहरण :- राज्ञः आगतः राइणो रण्णो-आगओ; पक्षान्तर में पांच रूप होते हैं:- रायाओ; रायाउ; रायाहि; रायाहिन्तो और राया आगओ अर्थात् राजा से आया हुआ है। 'डस्' प्रत्यय का उदाहरणः- राज्ञः धनम-राइणो-रण्णो अथवा रायस्स धणं अर्थात् राजा का धन। यों उपर्युक्त उदाहरणों से विदित होता है कि 'जस्' 'शस्' 'ङसि और ङस्' प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति हुई है।
राजानः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप रायाणो और राया होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज् के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-११ से हलन्त 'न्' का लोप; ३-१२ से प्राप्तांग 'राय' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय रहा हुआ होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-५० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप रायाणो सिद्ध हो.जाता है।
द्वितीय रूप-(राजानः=) राया में राय' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से उपर्युक्त रीति अनुसार ही अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति एवं प्राप्तांग 'राया' में ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' की प्राकृत में प्राप्ति और लोप-स्थिति प्राप्त होकर द्वितीय रूप राया भी सिद्ध हो जाता है।
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66 : प्राकृत व्याकरण
'चिटन्ति' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० में की गई है।
राज्ञः संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप रायाणो, राया और राए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में राय' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'राय' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय रहा हुआ होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-५० से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप रायाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(राज्ञः=) राया में 'राय' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से 'राय में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति एवं ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' की प्राकृत में प्राप्ति एवं लोप स्थिति प्राप्त होकर द्वितीय रूप राया भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप-(राज्ञः-) राए में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित 'ज्' का लोप; १-११ से अन्त्य हलन्त 'न्' व्यञ्जन का लोप; ३-१४ से प्राप्तांग 'राअ में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस् की प्राकृत में प्राप्ति एवं लोप-स्थिति प्राप्त होकर तृतीय रूप 'राए' भी सिद्ध हो जाता है। _ 'पेच्छ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।
राज्ञः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप राइणो, रण्णो, रायाओ, रायाउ, रायाहि, रायाहिन्तो और राया होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-५२ से 'ज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति और ३-५० से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(राज्ञः=) रण्णो में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-५५ से शेष रूप 'राज' में स्थित 'आज' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'अण्' की प्राप्ति और ३-५० से प्राप्तांग 'रण' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'रण्णो' सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप से सातवें रूप तक में अर्थात् (राज्ञः=) रायाओ, रायाउ, रायाहि, रायाहिन्ता और राया में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'न' का लोप; १-१७७ से 'ज् का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज् के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति;३-१२ से प्राप्तांग 'राय में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर आगे पंचमी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय रहे हुए होने से' दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति एवं ३-८ से प्राप्तांग 'राया' में पंचमी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'ओ-उ हि हिन्तो और लुक' की क्रम से प्राप्ति होकर क्रम से रायाओ, रायाउ.रायाहि.रायाहिन्तो और राया रूप सिद्ध हो जाते हैं। 'आगओ' रूप से सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है।
राज्ञः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप राइणो, रण्णो और रायस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप; ३-५२ से शेष रूप 'राज' में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति और ३-५० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (राज्ञः=) रण्णो में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप ३-५५ से शेष रूप 'राज' में स्थित 'आज' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'अण्' की प्राप्ति और ३-५० से प्राप्तांग 'रण' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रण्णो भी सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 67 __तृतीय रूप- (राज्ञः=) रायस्स में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत-शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप;१-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति
और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप रायस्स भी सिद्ध हो जाता है।
धनम् संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप धणं होता हैं इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति धणं रूप सिद्ध हो जाता है।३-५०॥
टा णा॥ ३-५१॥ राजन् शब्दात् परस्य टा इत्यस्य णा इत्यादेशो वा भवति।। राइणा। रण्णा पक्षे राएण कय।।
अर्थः-संस्कृत शब्द 'राजन् के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया-विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'णा' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे :-राज्ञा कृतम् राइणा-रण्णा-(अथवा-) राएण कयं; अर्थात् राजा से किया हुआ है। यहां प्रथम दो रूपों में 'णा' आदेश को प्राप्ति हुई है।
राज्ञा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप राइणा, रण्णा और राएण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'राई' अंग की प्राप्ति। सूत्र-संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५१ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' आदेश-प्राप्त प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइणा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(राज्ञा-) रण्णा में 'रण' अंग की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-५० में वर्णित साधनिक के अनुसारः तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५१ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्रथम रूप के समान ही 'णा' आदेश-प्राप्त प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रण्णा भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप -(राज्ञा-) राएण में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन्न 'न्' का लोप; १-१७७ से 'ज्' का लोप; ३-१४ से प्राप्तांग 'राअ में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय रहा हुआ होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'राए' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप राएण सिद्ध हो जाता है। 'कयं रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है। ॥३-५१।।
इर्जस्य णो-णा-ङो ॥३-५२।। राजन् शब्द संबन्धिनो जकारस्य स्थाने णो-णा-डिषु परेषु इकारो वा भवति। राइणो चिट्ठन्ति पेच्छ आगओ धणं वा।। राइणा कयं। राइम्मि। पक्षे। रायाणो। रण्णो। रायणा। राएण। रायम्मि।। ___ अर्थः- संस्कृत शब्द 'राजन् के प्राकृत रूपान्तर में (प्रथमा बहुवचन में, द्वितीया बहुवचन में, पंचमी एकवचन में
और षष्ठी एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय) णो; (तृतीया एकवचन में प्रत्यय) णा और सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'डि' स्थानीय रूप 'म्मि' परे रहने पर (मूल संस्कृत शब्द 'राजन् में स्थित) 'ज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' को प्राप्ति होती है। जैसेः- राजानः तिष्ठन्ति-राइणो चिट्ठन्ति अर्थात् राजा गण ठहरे हुए हैं। राज्ञः पश्य-राइणो पेच्छ अर्थात् राजाओं को देखो। राज्ञः आगतः राइणो आगओ अर्थात् राजा से आया हुआ है। राज्ञः धनम् राइणो धणं अर्थात् राजा का धन। इन उदाहरणों से विदित होता है कि प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में और पंचमी षष्ठी के एकवचन के प्राप्त प्रत्यय ‘णो' के पूर्व में राजन्' शब्द में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' की आदेश प्राप्ति हुई है 'णा' प्रत्यय का उदाहरण इस प्रकार
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68 : प्राकृत व्याकरण है:- राज्ञा कृतम् राइणा कयं अर्थात् राजा से किया हुआ है इसी प्रकार से 'ङि' प्रत्यय के स्थानीय रूप 'म्मि' का उदाहरण इस प्रकार है:- राज्ञि-अथवा राजनि-रायम्मि अर्थात् राजा में। इस प्रकार तृतीया के एकवचन में और सप्तमी के एकवचन में क्रम से प्राप्त ‘णा' प्रत्यय और 'म्मि' प्रत्यय के पूर्व में 'राजन्' शब्द में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' की आदेश प्राप्ति हुई है। वैकल्पिक पक्ष होने से जहां प्राप्त प्रत्यय ‘णो', 'णा' और म्मि' प्रत्ययों के पूर्व राजन्' शब्द में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' आदेश प्राप्ति नहीं होगी; वहां 'राजन्' शब्द के रूप उपर्युक्त विभक्तियों में इस प्रकार होंगे:- राजानः =रायाणो अर्थात् राजा गण। राज्ञः-रायाणो अर्थात् राजाओं को। राज्ञः=रण्णो अर्थात् राजा से। राज्ञः-रण्णो अर्थात् राजा का। राज्ञा-रायणा अथवा राएण अर्थात् राजा द्वारा या राजा से। राज्ञि या राजनि-रायम्मि अर्थात् राजा में अथवा राजा पर। इन उदाहरणों में यह प्रदर्शित किया गया है कि 'णो, णा और मिम्म' प्रत्ययों के प्राप्त होने पर भी वैकल्पिक पक्ष होने से 'राजन्' शब्द में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति नहीं हुई है। यों वृत्ति में वर्णित शब्द 'इकारो वा' का अर्थ जानना।
राजानः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप राइणो होता है। इसमें 'राइ' अंग की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार और तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर राइणो रूप सिद्ध हो जाता है।
राज्ञः संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप राइणो होता है। इसमें उपर्युक्त रीति से सूत्र-संख्या ३-५० और ३-२२ से साधनिका की प्राप्ति होकर राइणो रूप सिद्ध हो जाता है।
राइणो पंचम्यन्त एकवचन और षष्ठ्यन्त एकवचन के रूप में इसकी सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की जा चुकी है। चिटुति रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० में की गई है। पेच्छ रूप की सिद्धि सत्र-संख्या १-२३ की गई है। आगओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। धणं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है। कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है। राइणा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५१ में की गई है। 'वा' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६७ में की गई है।
राज्ञि अथवा राजनि संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन के रूप है। इनके प्राकृत रूप राइम्मि और रायम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'राइ' अंग की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार और तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डि-ई' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइम्मि सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (राज्ञि अथवा राजनि) रायम्मि में 'राय' अंग की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार और तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से प्रथम रूप के समान ही 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रायम्मि भी सिद्ध हो जाता है।
'रायाणो' (प्रथमान्त-द्वितीयान्त रूप) की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है। रण्णो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० की गई है।
राज्ञा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप रायणा और राएण होते है। इनमें से प्रथम रूप में 'राय' अंग की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-५० में वर्णित साधनिका के अनुसार और तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५१ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप रायणा सिद्ध हो जाता है।
(द्वितीय रूप-) राएण-की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५१ में की गई है। ।। ३-५२।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 69
इणममामा ।। ३-५३॥
राजन् शब्द संबन्धिनो जकारस्य अमाम्भ्यां सहितस्य स्थाने इणम् इत्यादेशो वा भवति ।। राइणं पेच्छ । राइणं ध पक्षे । रा । राईणं ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'राजन्' के प्राकृत रूपान्तर में द्वितीया विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय 'अम्' और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय 'आम्' प्राप्त होने पर मूल शब्दस्थ 'ज' व्यञ्जन सहित उपर्युक्त प्राप्त प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इण' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है। तात्पर्य यह है कि प्राकृत रूपान्तर में 'ज' और उपर्युक्त प्रत्यय इन दोनों के स्थान पर 'इणं' आदेश वैकल्पिक रूप से हुआ करता है। जैसे:- राजानम् पश्य = राइणं (अथवा राय) पेच्छ; यह उपर्युक्तं विध् नानुसार द्वितीया विभक्ति के एकवचन का उदाहरण हुआ। षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का उदाहण इस प्रकार है: - राज्ञाम् धनम्=राइण (अथवा राईणं या रायाणं) धणं । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में राइणं के स्थान पर रायं जानना चाहिये और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में राइणं के स्थान पर राईणं अथवा रायाणं जानना चाहिये।
राजानम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप राइणं और रायं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३ - ५३ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' सहित पूर्वस्थ 'ज' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में 'इणं' आदेश की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइणं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप ( राजानम् = ) रायं में सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; १ - १७७ से 'ज्' का लोप; १-१५० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ द्वितीया विभक्ति एकवचन में संस्कृत प्रत्यय अम् के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रायं सिद्ध हो जाता है।
पेच्छ रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २३ में की गई है।
राज्ञाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त का रूप है। इसके प्राकृत रूप राइणं और राईणं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३-५३ से षष्ठी-विभक्ति बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' सहित पूर्वस्थ 'ज' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में 'इण' आदेश की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राइणं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (राज्ञाम् = ) राईणं में सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-५४ से 'ज' के स्थान पर आगे षष्ठी विभक्ति का बहुवचन - बोधक प्रत्यय 'आम्' रहा हुआ होने से' ई' की प्राप्ति; ३ - ६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप राईणं भी सिद्ध हो जाता है।
धण रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५० में की गई है । । ३ - ५३ ।।
ईद्भिस्यसाम्सुपि ॥। ३-५४।।
राजन् शब्द संबन्धिनो जकारस्य भिसादिषु परतो वा ईकारो भवति ।। भिस्। राईहि।। भ्यस्। राईहि । राईहिन्तो । राई - सुन्तो । आम् । राईणं ।। सुप् । राईसु । पक्षे । रायाणेहि । इत्यादि ।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'राजन्' के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय, पंचमी षष्ठी विभक्ति बहुवचन का प्रत्यय और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय परे रहने पर मूल शब्द 'राजन्' में स्थित 'ज' व्यञ्जन के स्थान पर वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति हुआ करती है जैसे:- 'भिस्' प्रत्यय का उदाहरण:- राजभिः = राईहि अथवा पक्षान्तर में रायाणेहि; ' भ्यस्' प्रत्यय के उदाहरण:- राजभ्यः - राईहि; राईहिन्तो, राईसुन्तो अथवा पक्षान्तर में रायाणाहि,
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70 : प्राकृत व्याकरण
रायाणाहिन्तो; रायाणासुन्तो; इत्यादि । 'आम्' प्रत्यय का उदाहरणः- राज्ञाम्-राईणं अथवा पक्षान्तर में रायाणं और 'सुप्' प्रत्यय का उदाहरण:- राजसु - राईसु अथवा पक्षान्तर में रायाणेसु होता है।
राजभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है इसके प्राकृत रूप राईहि और रायाणेहि होते हैं इनमें से प्रथम रूप सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-५४ से 'ज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति; और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राईहि सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (राजभिः) - रायाणेहि में सत्र - संख्या १ - १७७ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित 'ज्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५६ से प्राप्तांग 'रायन्' में स्थित अन्त्य अवयव 'अन्' के स्थान पर 'आण' आदेश प्राप्ति; तत्पश्चात् ३ - १५ से प्राप्तांग 'रायाण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया - बहुवचन - बोधक-प्रत्यय रहा हुआ होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रायाणेहि सिद्ध हो जाता है।
राजभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप राईहि, राईहिन्तो और राईसुन्ता होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-५४ से 'ज' के स्थान पर-(वैकल्पिक रूप से) दीर्घ 'ई' की प्राप्ति और ३ - ९ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय ' भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'हि- हिन्तो - सुन्तो प्रत्ययों की प्राप्ति होकर राईहि, राईहिन्तो और राईसुन्तो रूप सिद्ध हो जाते हैं।
राईणं रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५६ में की गई है।
राजसु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप राईस होता है। इसमें 'राई' अंग की प्राप्ति इसी सूत्र में वर्णित उपर्युक्त विधि- अनुसार तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सु' की प्राकृत में भी प्राप्ति होकर राईस रूप सिद्ध हो जाता है। ३-५४।।
आजस्य टा-ङसि-ङस्सु सणाणोष्वण् ।। ३-५५।।
राजन् शब्द संबन्धिन आज इत्यवयवस्य टाङसिङस्सु णा णो इत्यादेशापन्नेषु परेषु अण् वा भवति ।। रण्णा राइणा कयं । रण्णो राइणो आगओ धणं वा । टा ङसि ङस्स्विति किम् । रायाणो चिट्ठन्ति पेच्छ वा ।। सणाष्विति किम्। राएण। रायाओ। रायस्स ।।
अर्थः-संस्कृत शब्द 'राजन्' के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया विभक्ति के एकवचनीय संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर सूत्र - संख्या ३ - ५१ से प्राप्तव्य 'णा' प्रत्यय परे रहने पर तथा पंचमी विभक्ति के एकवचनीय संस्कृत प्रत्यय 'ङस्=िअस्' और षष्ठी विभक्ति के एकवचनीय संस्कृत प्रत्यय 'ङस्=अस्' के स्थान पर प्राकृत में सूत्र - संख्या ३-५० से प्राप्तव्य 'णो' प्रत्यय परे रहने पर एवं सूत्र - संख्या १ - ११ से 'राजन्' के अन्त्य 'न्' का लोप हो जाने पर शेष रहे हुए हुए 'राज' के अन्त्य अवयव रूप 'आज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अण्' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है । राज्ञा कृतम् - रण्णा कयं अथवा राइणा कयं अर्थात् राजा से किया गया है। राज्ञः आगतः रण्णो आगओ अथवा राइणो आगओ अर्थात् राजा से आया हुआ है। षष्ठी विभक्ति के एकवचन का उदाहरण इस प्रकार है:- राज्ञः धनम् - रण्णो धणं अथवा राइणोधणं अर्थात् राजा का धन (है) यों ' अण्' आदेश प्राप्ति की वैकल्पिक-स्थित समझ लेनी चाहिये।
प्रश्न:- मूल सूत्र में - 'टा - ङसि - ङस्' का उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तरः- संस्कृत शब्द ‘राजन्' के प्राकृत रूपान्तर में 'आज' अवयव के स्थान पर 'अण' (आदेश) की प्राप्ति उसी अवस्था में होती है, जबकि 'टा' अथवा 'ङसि' अथवा 'ङस्' प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय रहा हुआ हो; अन्यथा नहीं। जैसेः- राजानः तिष्ठन्ति-रायाणो चिट्ठन्ति; यह उदाहरण प्रथमान्त बहुवचन वाला है और इसमें 'टा' अथवा 'ङसि' अथवा 'ङस्' प्रत्यय का अभाव है; इसी कारण से इसमें 'राजन्' के अवयव आज के स्थान पर 'अण्' आदेश प्राप्ति का भी
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 71 अभाव है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार :- राज्ञः पश्य = रायाणे पेच्छ अर्थात् राजाओं को देखो; यह उदाहरण द्वितीयान्त बहुवचन वाला है और इसमें भी 'टा' अथवा 'ङसि' अथवा 'ङस्' प्रत्यय का अभाव है। इसी कारण से इसमें 'राजन' के अवयव 'आज' के स्थान पर 'अणू' आदेश प्राप्ति का भी अभाव है। इस विवचेन से यह प्रामणित होता है कि 'टा' = णा'; ‘ङसि'='ण' और 'ङस्'=‘' णो' प्रत्यय का सदभाव होने पर ही राजन्' के 'आज' अवयव के स्थान पर 'अण' (आदेश)की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है और इसीलिये मूल-सूत्र में 'टा - ङसि - ङस्' का उल्लेख किया गया है।
प्रश्न:- मूलसूत्र में 'णा' और 'णो' का उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तर:- संस्कृत शब्द 'राजन्' के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया विभक्ति के एकवचन में जब सूत्र - संख्या ३ - ५१ के अनुसार 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णा' प्रत्यय की (आदेश) - प्राप्ति होकर सूत्र - संख्या ३-६ के अनुसार 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होती है; तब 'राजन' शब्द के 'आज' अवयव के स्थान पर 'अण्' आदेश - प्राप्ति नहीं होती। जैसे:- राज्ञा-राएण अर्थात् राजा से । इसी प्रकार से इसी 'राजन' शब्द के प्राकृत रूपान्तर में - पंचमी विभक्ति के एकवचन में जब सूत्र- संख्या ३५० के अनुसार 'ङसि' प्रत्यय के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की (आदेश) प्राप्ति नहीं होकर सूत्र - संख्या ३-८ के अनुसार 'डसि' प्रत्यय के स्थान पर 'दो-ओ, दु-उ, हि, हिन्तो, लुक् प्रत्यय की प्राप्ति होती है; तब 'राजन्' शब्द के 'आज' अवयव के स्थान पर 'अण्' (आदेश) - की प्राप्ति नहीं होती है। जैसेः- राज्ञः रायाओ अर्थात् राजा से, इत्यादि। यही सिद्धान्त षष्ठी विभक्ति के एकवचन के लिये भी समझना चाहिये; तदनुसार जब 'राजन्' शब्द के प्राकृत-रूपान्तर में षष्ठी-विभक्ति के एकवचन में सूत्र - संख्या ३ - ५० के अनुसार 'ङस्' प्रत्यय के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की (आदेश) - प्राप्ति नहीं होकर सूत्र - संख्या ३-१० के अनुसार 'ङस्' प्रत्यय के स्थान पर 'स्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है; तब 'राजन्' शब्द के 'आज' अवयव के स्थान पर 'अण्' (आदेश) की प्राप्ति नहीं होती हैं। जैसेः- राज्ञः- रायस्स अर्थात् राजा का। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह ज्ञात होता है कि जब 'टा' के स्थान पर 'णा' और 'ङसि' अथवा 'ङस्' के स्थान पर 'गो' की प्राप्ति होती है; तभी 'राजन्' के 'आज' अवयव के स्थान पर 'अण' आदेश की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं। इसीलिये मूल सूत्र में 'णा' और 'णो' का उल्लेख करना पड़ा है।
'रण्णा' और 'राइणा' रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५१ में की गई है।
'कय' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १२६ में की गई है।
'रण्णो' और 'राइणो' रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-५० में की गई है। 'आगओ' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १- २०९ में की गई है।
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'धणं' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-५० में की गई है।
'वा' अव्यय की सिद्धि सूत्र - संख्या १-६७ में की गई है।
'रायाणो' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५० में की गई है। 'चिट्ठन्ति' (क्रिया-पद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २० में की गई है।
'पेच्छ' (क्रिया-पद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १- २३ में की गई है।
'वा' अव्यय की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ६७ में की गई है।
'राएण' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५१ में की गई है।
'रायाओ' 'रायस्स' रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-५० में की गई है । । ३ - ५५ ।।
पुंस्यन आणो राजवच्च ।। ३-५६ ।।
पुल्लिंग वर्तमानस्यान्नन्तस्य स्थाने आण इत्यादेशो वा भवति । पक्षे । यथा दर्शनं । राजवत् कार्यं भवति)। आणादेशे च अतः सेड : (३-२) इत्यादयः प्रवर्तन्ते । पक्षे तु राज्ञः जस्-शस् - ङसि - ङसां णो ( ३-५०) टो णा (३-२४)
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72 : प्राकृत व्याकरण इणममामा (३-५३) इति प्रवर्तन्ते।। अप्पाणो। अप्पाणा। अप्पाण। अप्पाणे। अप्पाणेण अप्पाणेहि। अप्पाणाओ। अप्पाणा सुन्तो। अप्पाणस्स। अप्पाणाण। अप्पाणम्मि। अप्पाणेसु। अप्पाण-कयं। पक्षे राजवत्। अप्पा। अप्पो। हे अप्पा। हे अप्प। अप्पाणो चिटन्ति। अप्पाणो पेच्छ। अप्पणा। अप्पेहि। अप्पाणो। अप्पाओ। अप्पाउ। अप्पाहि। अप्पाहिन्तो। अप्पा। अप्पासुन्तो। अप्पणो धणं। अप्पाण। अप्पे अप्पेसु।। रायाणो। रायाणा। रायाणां रायाणे। रायाणेण। रायाणेहि। रायाणाहिन्तो। रायाणस्स। रायाणाणां रायाणम्मि। रायाणेसु। पक्ष। राया इत्यादि। एवं जुवाणो। जुवाण-जणो। जुआ। बम्हाणो। बह्मा।। अद्धाणो। अद्धा।। उक्षन्। उच्छाणो। उच्छा।। गावाणो। गावा।। पूसाणो। पूसा। तक्खाणो। तक्खा।।। __मुद्धाणो। मुद्धा।। श्वन्। साणो। सा। सुकर्मणः पश्च।। सुकम्माणे पेच्छ। निएइ कह सो सुकम्माणे। पश्यति कथं स सुकर्मण इत्यर्थः।। पुंसीति किम्। शर्म। सम्म। ___ अर्थ:- जो संस्कृत शब्द पुल्लिंग होते हुए 'अन्' अन्त वाले हैं; उनके प्राकृत रूपान्तर में उस 'अन्' अवयव के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आण' (आदेश) की प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से जहां अन् के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति नहीं होती; वहां उन शब्दों की विभक्तिबोधक रूपावली 'राज' शब्द के समान उपर्युक्त सूत्रों में वर्णित विधि-विधानानुसार होगी। 'अन्' के स्थान पर 'आण' (आदेश)-प्राप्ति होने पर वे शब्द 'अकारान्त' शब्दों की श्रेणी में प्रविष्ट हो जायगे। और उनकी विभक्ति बोधक रूपावली 'जिण' आदि शब्दों के अनुरूप ही निर्मित होगी; तथा उसमें 'अतः सेों; (३-२) आदि सभी सूत्र वे ही प्रयुक्त होंगे; जो कि 'जिण' आदि अकारान्त शब्दों में प्रयुक्त होते है। वैकल्पिक पक्ष में 'अन्' के स्थान पर 'आण' (आदेश) की प्राप्ति नहीं होने पर 'राज' के समान ही विभक्तिबोधक रूपावली होने के कारण से उनमें "जस् शस् डसि-ङसां णो'- (३-५०); 'टो-णा' (३-२४) और 'इणममामा'-(३-५३) इत्यादि सूत्रों का प्रयोग होगा। इस प्रकार अन् अन्त वाले पुल्लिंग शब्दों की विभक्तिबोधक रूपावली दो प्रकार से होती है; प्रथम प्रकार में 'अन्' के स्थान पर 'आण' (आदेश) की प्राप्ति होने पर 'अकारान्त' शब्दों के समान ही रूपावलि-निर्मित होगी और द्वितीय प्रकार में आण' आदेश प्राप्ति का अभाव होने पर उनकी रूपावली 'राज' शब्द में प्रयुक्त किये जाने वाले सूत्रों के अनुसार ही होगी। यह सूक्ष्म भेद ध्यान में रखना चाहिये। अब यहां पर सर्व-प्रथम 'अन्' अन्त वाले 'आत्मन्' शब्द में 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश प्राप्ति का विधान करके इसको 'अकारान्त स्वरूप प्रदान करते हुए जिण' आदि अकारान्त शब्दों के समान ही उक्त 'आत्मन्-अप्पाण' की विभक्तिबोधक रूपावली का उल्लेख किया जाता है।
एकवचन
बहुवचन प्रथमा- (आत्मा)
अप्पाणा
(आत्मानः-) अप्पाणा द्वितीया - (आत्मानम्=)
अप्पाणं
(आत्मनः=) अप्पाणे तृतीया- (आत्मना)
अप्पाणेण
(आत्मभिः=) अप्पाणेहि पञ्चमी-(आत्मनः)
अप्पाणाआ
(आत्मभ्यः-) अप्पाणासुंतो षष्ठी-(आत्मनः=)
अप्पाणस्स
(आत्मनाम्=) अप्पाणाण सप्तमी-(आत्मनि)
अप्पाणम्मि
(आत्मसु-) अप्पाणेसु समास अवस्था में 'आत्मन् अप्पाण' में रहे हुए विभक्ति-बोधक प्रत्ययों का लोप हो जाता है। जैसे:आत्म-कृतम् अप्पाण-कयं अर्थात् खुद से-स्वयं अपने से अथवा आत्मा से किया हुआ है। उपर्युक्त 'आत्मन्-अप्पाण' के विवेचन से यह ज्ञात होता है कि 'अन्' अन्त वाले पुल्लिग शब्दों में 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश-की प्राप्ति होकर वे शब्द अकारान्त पुल्लिंग शब्दों की श्रेणी के अन्तर्गत हो जाते हैं। किन्तु यह स्थिति वैकल्पिक पक्षवाली है; तनदुसार 'आण' आदेश को प्राप्ति के अभाव में 'अन्' अन्त वाले शब्दों की स्थिति सूत्र-संख्या ३-४९ से लगाकर ३-५५ तक के विधि विधानानुसार निर्मित होती हुई 'राज' शब्द के समान संचारित होती है। इस विधि-विधान को 'आत्मन् अप्पा' के उदाहरण से नीचे स्पष्ट किया जा रहा है:- Forprivate spersonal useDRIN
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 73 प्रथमा विभक्ति के एकवचन का उदाहरणः- आत्मा - अप्पा और अप्पो । संबोधन के एकवचन का उदाहरणः- हे आत्मन् - हे अप्पा; और हे अप्प ! प्रथमा विभक्ति बहुवचन का उदाहरण आत्मानः तिष्ठन्ति = अप्पाणो चिट्ठन्ति इस उदाहरण में 'आत्मन् = अप्प' अंग में सूत्र - संख्या ३ - ५० के अनुसार प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का उदाहरण:- आत्मनः पश्य = अप्पाणो पेच्छ अर्थात् अपने आपको (आत्मगुणो को ) देखो। इस उदाहरण में भी 'आत्मन् = अप्प' अंग में सूत्र - संख्या ३-५० के अनुसार ही द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'गो' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है।
अन्य विभक्तियों में 'आत्मन् - अप्प' के रूप इस प्रकार होते हैं:
विभक्ति नाम
एकवचन
बहुवचन (आत्मभिः=) अप्पेहिं।
अप्पणा
अप्पाणो, अप्पाओ,
(आत्मभ्यः =)
अप्पासुतो इत्यादि ।
षष्ठी - (आत्मनःधनम्= )
अप्पाउ, अप्पाहि, अप्पाहिन्तो, अप्पा । अप्पणो धणं । अप्पे |
(आत्मनाम्=) अप्पाणं ।
सप्तमी - (आत्मनि =)
(आत्मसु =) अप्पेसु ।
उपर्युक्त उदाहरणों से यह प्रमाणित होता है कि अन्' अन्त वाले पुल्लिंग शब्दों में 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति के अभाव में विभक्ति - (बोधक) - कार्य की प्रवृत्ति सूत्र - संख्या ३-४९ से प्रारम्भ करके सूत्र - संख्या ३-५५ तक में वर्णित विधि-विधान के अनुसार होती है; इसी सिद्धान्त को इसी सूत्र - संख्या ३-५५ तक में वर्णित विधि-विधान के अनुसार होती है; इसी सिद्धान्त को इसी सूत्र में 'राजावत्' शब्द का सूत्र - रूप से उल्लेख करके प्रदर्शित किया गया है।
इसी प्रकार से 'राजन्' शब्द भी पुल्लिंग होता हुआ 'अन्' अन्त वाला है; तदनुसार सूत्र - संख्या ३-५६ के विधान से 'अन्' अवयव के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'आण' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है और ऐसा होने पर 'राजन्' =रायाण' रूप अकारान्त हो जाता है; तथा अकारान्त होने पर इसी विभक्ति - बोधक कार्य की प्रवृत्ति 'जिण' आदि अकारान्त शब्दों के अनुसार होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से जब सूत्र - संख्या ३-५६ के अनुसार प्राप्तव्य' 'अन्' के स्थान पर 'आण' आदेश प्राप्ति का अभाव होगा; तब इसकी विभक्ति (बोधक) - कार्य की प्रवृत्ति सूत्र - संख्या ३ - ४९ से प्रारम्भ करके सूत्र - संख्या ३ - ५५ तक में वर्णित विधि-विधान के अनुसार होती है । इस महत्व - पूर्ण स्थिति को सदैव ध्यान में रखना चाहिये।
तृतीया - (आत्मना =)
पंचमी - (आत्मनः=)
अब 'राजन्= रायाण' रूप की विभक्ति - बोधक-कार्य की प्रवृत्ति नीचे लिखी जाती है:
विभक्ति - नाम
एकवचन
(राजा = ) रायाणो
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
पंचमी
षष्ठी
बहुवचन
(राजान:=) रायाणा
(राज्ञः =) रायाणे
(राजभिः=) रायाणेहिं (राजभ्यः=) रयाणासुंतो इत्यादि (राज्ञाम्=) रायाणाणं
सप्तमी
(राज्ञ: =) रायाणस्स (राज्ञि=) रायाणम्मि
(राजसु =) रायाणेसु
शेष रूपों की स्थिति 'जिण' आदि अकारान्त शब्दों के अनुसार जानना चाहिये । वैकल्पिक पक्ष होने से 'राजा-राया' आदि रूपों की स्थिति सूत्र-संख्या ३-४९ से प्रारम्भ करके सूत्र - संख्या ३-५५ के अनुसार स्वयमेव जान लेना चाहिए। कुछ 'अन्' अन्त वाले पुल्लिंग शब्दों का प्राकृत रूपान्तर सामान्य अवबोधन हेतु नीचे लिखा जा रहा है :
(राजानम् =) रायाणं
(राज्ञा =) रायाणेण
(राज्ञः = ) रायाणाहिंतो इत्यादि
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74 : प्राकृत व्याकरण
युवन =जुवाण तदनुसार प्रथमा विभक्ति के एकवचन का उदाहरणः युवा =जुवाणो इत्यादि। समास अवस्था में विभक्ति (बोधक) प्रत्ययों का लोप हो जाता है; तदनुसार इसका उदाहरण इस प्रकार है:- युवा जनः जुवाण-जणो। वैकल्पिक पक्ष होने से युवन् शब्द के प्रथमा विभक्ति एकवचन में सूत्र-संख्या ३-५६ के विधान से 'जुआ रूप भी होता है। ब्रह्मन् शब्द के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सूत्र संख्या ३-४६ और ३-४९ के विधान से क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से (ब्रह्मा) बह्माणो अथवा बह्मा रूप होते हैं।
संस्कृत शब्द 'अध्वन्' उक्षन्, 'ग्रावन्' पूषन्, तक्षन्, मूर्धन्, और 'श्वन्' इत्यादि पुल्लिंग होते हुए 'अन्' अन्त वाले हैं, तद्नुसार इन शब्दों के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सूत्र-संख्या ३-५६ और ३-४९ के विधान से क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से दो दो रूप निम्न प्रकार से होते हैं :
अध्वा अद्धाणो और अद्धा। उक्षा उच्छाणो और उच्छा। ग्रावा-गावाणो और गावा। पूषा-पूसाणो और पूसा। तक्षा तक्खाणो और तक्खा। मूर्धा-मुद्धाणो और मुद्धा। श्वा-साणो और सा। शेष विभक्तियों के रूपों की स्थिति 'आत्मा अप्पाण के समान जान लेनी चाहिये। इस प्रकार यह सिद्धान्त निश्चित हुआ कि 'अन्' अन्त वाले पुल्लिग शब्दों के अन्तिम अवयव 'अन्' के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति होकर ये शब्द अकारान्त हो जाते हैं और इनकी विभक्ति (बोधक) कार्य की प्रवृत्ति 'जिण' अथवा 'वच्छ' अथवा 'अप्पाण' के अनुसार होती है। उपर्युक्त सिद्धान्त की पुष्टि के लिये दो उदाहरण और दिये जाते है।
सुकर्मणः पश्य-सुकम्माणं पेच्छ अर्थात् अच्छे कार्यों को देखो। इस उदाहरण में 'सुकर्मन्' शब्द 'अन्' अन्त वाला है और इसके 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति करके प्राकृत रूपान्तर 'सुकम्माण' रूप का निर्माण करके द्वितीया विभक्ति बहुवचन में 'वच्छे' के समान सूत्र-संख्या ३-४ और ३-१४ के विधान से 'सुकम्माणे' रूप का निर्धारण किया गया है, जो कि स्पष्टतः अकारांत स्थित का सूचक है।
दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:
पश्यति कथं स सुकर्मणः-निएइ कह सो सुकम्माणे अर्थात् वह अच्छे कार्यों को किस प्रकार देखता है? इस उदाहरण में भी प्रथम उदाहरण के समान ही 'सुकर्मन् शब्द की स्थिति को द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त शब्द की स्थिति के समान ही समझ लेना चाहिये।
प्रश्नः- मूल सूत्रों में वर्ष प्रथम 'पुसि' अर्थात् 'पुल्लिंग में ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तरः- 'अन्' अन्त वाले शब्द पुल्लिंग भी होते हैं और नपुंसकलिंग भी होते हैं; तदनुसार इस 'अन्' अवयव के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में केवल पुल्लिंग शब्दों में ही 'आण' आदेश प्राप्ति होती है; नपुंसकलिंग वाले शब्द चाहे 'अन्' अन्त वाले भले ही हों; किन्तु उनमें 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश प्राप्ति नहीं होती है; इस विशेष तात्पर्य को बतलाने के लिये तथा संपुष्ट करने के लिये ही मूल सूत्र में सर्वप्रथम 'पुसि' अर्थात् 'पुल्लिंग में ऐसा शब्दोल्लेख करना पड़ा है। नपुंसकलिंगात्मक उदाहरण इस प्रकार हैं:- जैसे शर्मन् शब्द के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत रूप 'शर्म का प्राकृत रूपान्तर 'सम्म' होता है। तदनुसार यह प्रतिभासित होता है कि संस्कृत रूप 'शर्म का प्राकृत-रूपान्तर 'सम्माणो' नहीं होता है। अतएव 'पुसि शब्द का उल्लेख करना सर्वथा न्यायोचित एवं प्रसंगोचित है।
आत्मा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से आदि 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म्' के स्थान पर 'प्' आदेश की प्राप्ति; २-८९ से आदेश प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प्' की प्राप्ति; ३-५६ से मूल संस्कृत शब्द 'आत्मन्' में स्थित अन्त्य 'अन्' अव्यय के स्थान पर (वैकल्पिक रूप से) 'आण' आदेश की प्राप्ति; यो 'आत्मन् के प्राकृत रूपान्तर में 'अप्पाण' अंग की प्राप्ति होकर तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अप्पाणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 75 आत्मानः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणा होता है। इसमें 'आत्मन्-अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' को आगे प्रथम बहुवचन-बोधक प्रत्यय की स्थिति होने से 'आ' की प्राप्ति एवं ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर-अप्पाणा रूप सिद्ध हो जाता है। ___ आत्मानम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है इसका प्राकृत रूप अप्पाणं होता है। इसमें आत्मन्-अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'अमम्' के समान ही प्राकृत में भी 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर अप्पाणं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ आत्मनः संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणे होता है। इसमें आत्मन् अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' को आगे द्वितीया-बहुवचन-प्रत्यय की स्थिति होने से 'ए' की प्राप्ति एवं ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप होकर अप्पाणे रूप सिद्ध हो जाता है। • आत्मना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणेण होता है। इसमें आत्मन-अप्पाण'
अंग की प्राप्ति-उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' को आगे तृतीया-एकवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणेण रूप सिद्ध हो जाता है। - आत्मभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणेहि होता है। इसमें 'आत्मन्-अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे तृतीया बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्याणेहि रूप सिद्ध हो जाता है। ___ आत्मनः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणाओ होता है। इसमें आत्मन-अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे पंचमी-एकवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-८ से पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय ङसि=अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणाओ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ आत्मभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणासुन्तो होता है। इसमें आत्मन् अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपयुक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१३ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे पंचमी बहुवचन-बोधक-प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-९ से पञ्चमी-विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में 'सुन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणासुन्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्मनः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणस्स होता है। इसमें आत्मन् अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत 'उस अस्' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्मनाम् संस्कृत षष्ठ्यन्त बहुवचनरूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणाण होता है। इसमें आत्मन् अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग-'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे षष्ठी विभक्ति बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणाण रूप सिद्ध हो जाता है।
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76 : प्राकृत व्याकरण
आत्मनि संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत अप्पाणम्मि होता है। इसमें आत्मन-अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'डि-इ' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणम्मि रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्मसु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणेसु होता है। इसमें आत्मन्-अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'ट' के आगे सप्तमी-विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सु' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणेसु रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्म-कतम संस्कत-(आत्मना कतम का समास-अवस्था प्राप्त) विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाण-कयं होता है। इससे 'अप्पाण' अवयव रूप अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार और 'कयं रूप उत्तरार्ध अवयव की साधनिका का सूत्र-संख्या १-१२६ के अनुसार प्राप्त होकर अप्पाण-कयं रूप सिद्ध हो जाता है। __ आत्मा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप अप्पा और अप्पो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'अप्पा' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५१ में की गई है। द्वितीय रूप-'अप्पो' में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'आत्मन् में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन'न्' का लोप; ३-५१ से'त्म' अवयव के स्थान पर 'प' की आदेश प्राप्ति; २-८९ से आदेश प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में (प्राप्त रूप) अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्राप्त 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अप्पो सिद्ध हो जाता है।
हे आत्मन्! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे अप्पा! और हे अप्पा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-८४ से मूल संस्कृत शब्द 'आत्मन्' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; ३-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' आदेश की प्राप्ति; २-८९ से आदेश-प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; और ३-४९ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) संबोधन के एकवचन में-संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राप्तांग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' को 'आ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हे अप्पा! सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-हे अप्प! की सिद्ध सूत्र-संख्या ३-४९में की गई है।
आत्मानः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणो होता है। इसमें 'आत्मन्-अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अप्प में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे प्रथमा बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-५० से (तथा ३-५६ के निर्देश से-)प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'आत्मन् से अप्पा' में संस्कृत प्रत्यय 'जस् के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणो रूप सिद्ध हो जाता है। "चिट्ठन्ति' क्रियापद की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० में की गई है।
आत्मनः संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणो होता है। इसमें 'अप्पा' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५० से (तथा ३-५६ के निर्देश से) द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'अप्पा' में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणो रूप सिद्ध हो जाता है।
"पेच्छ' क्रियापद की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई।
आत्मना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पणा होता है। इसमें 'आत्मन् अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५१ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय टा=आ' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पणा रूप सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 77 आत्मभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पेहिं होता है। इसमें आत्मन् अप्प अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे तृतीया-बहुवचन- (बोधक-प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिंप्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्मनः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत-रूप अप्पाणों, अप्पाओ, अपाउ, अप्पाहि अप्पाहिन्तो और अप्पा होते हैं। इनमें 'अप्प' अंक की प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात सत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांक 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे पंचमी एकवचन (बोधक-प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति; और ३-५० से (तथा ३-५६ के निर्देश से) प्राप्तांग 'अप्पा' के प्रथम रूप में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अप्पाणो' सिद्ध हो जाता है।
शेष पाँच रूपों में प्राप्तांग 'अप्पा' में सूत्र-संख्या ३-८ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'उसि-अस् के स्थान पर प्राकृत में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से दो-ओ, दु-उ, हि, हिन्तो और (प्रत्यय) लुक् प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से शेष पाँच रूप अप्पाओ, अप्पाउ, अप्पाहि, अप्पाहिन्तो और अप्पा सिद्ध हो जाते हैं। ___ आत्मभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पा-सुन्तो होता है। इसमें आत्मन् अप्प'
अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१३ से प्राप्तांग के 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे पंचमी-बहुवचन-(बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-९ से प्राप्तांग 'अप्पा' में पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस् के स्थान पर प्राकृत में 'सुन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पासुन्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्मनः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पणा होता है। इसमें 'आत्मन-अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५० से (तथा ३-५६ के निर्देश से) षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पणो रूप सिद्ध हो जाता है। 'धण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है।
आत्मानाम् संस्कृत षष्ठ्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणं होता है। इसमें आत्मन् अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे षष्ठी-बहुवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'अप्पा' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; एवं १-२७ से प्राप्त 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर अप्पाणं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ आत्मनि संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पे होता है। इसमें आत्मन्-अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से प्राप्तांग 'अप्प' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की (आदेश-) प्राप्ति; 'डे' में स्थित 'ड' इत्संज्ञक होने से प्राप्तांग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं तत्पश्चात् प्राप्तांग हलन्त 'अप्प' में पूर्वोक्त 'डे=ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पे रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्मसु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पेसु होता है। इसमें 'आत्मन् अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे सप्तमी-बहुवचन (बोधक-प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सु' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पेसु रूप सिद्ध हो जाता है।
राजा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित 'ज् व्यञ्जन का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर
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78 : प्राकृत व्याकरण 'य' की प्राप्ति; और ३-५६ से प्राप्त रूप 'रायन्' में स्थित अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति,
और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग अकारान्त रूप 'रायाण' में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रायाणो रूप सिद्ध हो जाता है।
राजानः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणा होता है। इसमें 'रायाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'रायाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे प्रथमा-बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर रायाणा रूप सिद्ध हो जाता है।
राजानम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणं होता है। इसमें 'राजन् रायाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५ से प्राप्तांग- रायाण में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्म् ' के समान ही प्राकृत में भी 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार के प्राप्ति होकर रायाणं रूप सिद्ध हो जाता है।
राज्ञः संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणे होता है। इसमें 'राजन्-रायाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'रायाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे द्वितीया-बहुवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप होकर रायाणे रूप सिद्ध हो जाता है।
राज्ञा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणेण होता है। इसमें 'राजन्-रायाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्तांग ‘रायाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे तृतीया-बहुवचन; (बोधक-प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा=आ' के स्थान पर प्राकृत में 'णि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रायाणेण रूप सिद्ध हो जाता है। __राजभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रायाणेहिं होता है। इसमें 'राजन् रायाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'रायाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे तृतीया बहुवचन (बोधक-प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं प्रत्यय की प्राप्ति होकर रायाणेहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
राज्ञः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत-रूप रायाणाहिन्तो होता है। इसमें 'राजन्=रायाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'रायाण' में स्थित अन्य 'अ' के आगे पंचमी एकवचन-(बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-८ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डसि अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रायाणाहिन्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
राज्ञः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणस्स होता है। इसमें 'राजन् रायाण' अंग की प्राप्ति-उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्-अस्' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रायाणस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
राज्ञाम् संस्कृत षष्ठ्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणाणं होता है। इसमें 'राजनरायाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'रायाण' में स्थित-अन्त्य 'अ' के 'आगे षष्ठीबहुवचन-(बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर रायाणाणं रूप सिद्ध हो जाता है। राज्ञि संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणम्मि होता है। इसमें राजन्=रायाण' अंग की
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 79 प्राप्ति उपर्युक्त विधि=अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि=इ के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रायाणम्मि रूप सिद्ध हो जाता है।
राजसु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणेसु होता है। इसमें 'राजन् रायाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि = अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र- सख्या ३- १५ से प्राप्तांग 'रायाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे सप्तमी-बहुवचन- (बोधक - प्रत्यय) का सद्भाव होने से' 'ए' की प्राप्ति और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन संस्कृत प्रत्यय 'सु' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रायाणेसु रूप सिद्ध हो जाता है। 'राया' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ४९ में की गई है।
युवा संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप जुवाणो और जुआ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - २४५ से 'य्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; ३-५६ से मूल संस्कृत शब्द 'युवन्' में स्थित अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त अकारान्त अंग 'जुवाण' में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जुवाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (युवन् =) जुआ में सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'व' का लोप; १ - २४५ से 'य्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३- ४९ से ( तथा ३-५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त 'जुव' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' का सद्भाव होने से प्राकृत में अन्त्य 'अ' को 'आ' की प्राप्ति; एवं १ - ११ से प्राप्त उक्त प्रत्यय 'सि=स्' का लोप होकर प्रथमान्त एकवचन रूप जुआ सिद्ध हो जाता है।
युवा जनः संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप जुवाण - जणो होता है। इसमें 'जुवाण' रूप की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या १ - २२८ से अन्त्य 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जुवाण - जणो रूप सिद्ध हो जाता है।
ब्रह्मा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप बम्हाणो और बम्हा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'ब्रह्मन् में स्थित 'र्' का लोप; २-७४ से 'ह्म' के स्थान पर म्ह' की प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'बम्हाण' में प्रथम विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप बम्हाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप - 'बम्हा' की सिद्धि सूत्र - संख्या २- ७४ में की गई है।
अध्वा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप अद्धाणो और अद्धा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'अध्वन्' में स्थित 'व्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'व्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ध' को द्वित्व ' ध्ध' की प्राप्ति ; २-९० से प्राप्त हुए पूर्व ' ध्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'अद्धाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अद्धाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (अध्वन्-अध्वा = अद्धा) में सूत्र - संख्या २- ७९ से 'व्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'व्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ध' को द्वित्व ' ध्ध' की प्राप्ति; २- ९० से प्राप्त से प्राप्त पूर्व ' धू' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; १ - ११ से अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-४९ से (तथा ३ - ५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त रूप 'अद्ध' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे प्रथमा-एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति और १ - ११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ४-४४८ के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि=स्' का प्राकृत में लोप होकर द्वितीय रूप अद्धा भी सिद्ध हो जाता हैं
उक्षा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप उच्छाणो और उच्छा होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में
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80 : प्राकृत व्याकरण सूत्र-संख्या ३-३ के अनुसार अथवा ३-१७ से मूल संस्कृत शब्द 'उक्षन्' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८१ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप'उच्छाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डोओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप उच्छाणो सिद्ध हो जाता है।
उच्छा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१७ में की गई है। ग्रावा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप गावाणो और गावा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'ग्रावन्' में स्थित 'र' का लोप; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप गावाण में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम-रूप गावाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(ग्रावन्=) गावा में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-४९ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त रूप 'गाव' में स्थित अन्त्य 'अ'के आगे प्रथमा एकवचन (बोधक प्रत्यय)क
ने से 'आ' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ४-४४८ के अनुसार संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' का प्राकृत में लोप होकर द्वितीय रूप गावा भी सिद्ध हो जाता है।
पूषा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप पूसाणो और पूसा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२६०से मूल संस्कृत शब्द 'पूषन्' में स्थित 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति;३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप-'पूसाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पूसाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(पूषन्-) पूसा में सूत्र-संख्या १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप;३-४९ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त रूप 'पूस' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे प्रथमा एकवचन (बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन ४-४४८ के अनुसार संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' का प्राकृत में लोप होकर द्वितीय रूप पूसा भी सिद्ध हो जाता है।
तक्षा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप तक्खाणो और तक्खा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत शब्द 'तक्षन्' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-५९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'तक्खाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तक्खाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(तक्षन्-तक्षा=) तक्खा में सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत शब्द 'तक्षन्' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-४९ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त रूप 'तक्ख' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे प्रथमा एकवचन (बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ४-४४८ के अनुसार संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' का प्राकृत में लोप होकर द्वितीय रूप तक्खा भी सिद्ध हो जाता है।
मूर्धा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप-मुद्धाणो और मुद्धा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-८४ से मूल संस्कृत शब्द 'मूर्धन्' में स्थित दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ध्' को द्वित्व'ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति, उपर्युक्त ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'मुद्धाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मुद्धाणो सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 81 द्वितीय रूप 'मुद्धा' की सिद्धि सूत्र-संख्या २-४१ में की गई है। 'साणो' और 'सा' रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५२ में की गई है।
सुकर्मणः संस्कृत द्वितीयान्त बहुषचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप सुकम्माणे होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'सुकर्मन्' में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'क्' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति; ३-१४ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'सुकम्माण' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे द्वितीया बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप होकर प्राकृत बहुवचन का रूप सुकम्माणे सिद्ध हो जाता है।
'पेच्छ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।
पश्यति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका (आदेश-प्राप्त) प्राकृत रूप निएइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१८१ से संस्कृत मूल-धातु 'दृश्=पश्य' के स्थान पर प्राकृत में 'निअ रूप की आदेश प्राप्ति; ३-१५८ से प्राप्त प्राकृत धातु 'निअ' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे वर्तमानकाल प्रथमा पुरुष के एकवचनीय प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-१३९ से 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निएइ रूप सिद्ध हो जाता है।
'कह' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२९ में की गई है। 'सो' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९७ में की गई है। 'सुकम्माणे' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में-(३-५६में) ऊपर की गई है। 'सम्म रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या-१-३२ में की गई है। ३-५६।।
. आत्मनष्टो णिआ णइआ ॥३-५७॥ आत्मनः परस्याष्टायाः स्थाने णिआ णइआ इत्यादेशौ वा भवतः। अप्पणिआ पाउसे उवगयम्मि। अप्पणिआ य विअडि खाणिआ। अप्पणइआ। पक्षे। अप्पाणेण।। . अर्थः- संस्कृत शब्द 'आत्मन्' के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय टा=आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से एवं क्रम से 'णिआ' और 'णइआ' प्रत्ययों की (आदेश) प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:आत्मना प्रावृषि उपगतायाम् अप्पणिआ पाउसे उवगयम्मि अर्थात् वर्षा ऋतु के व्यतीत हो जाने पर अपने द्वारा। इस उदाहरण में तृतीया के एकवचन में आत्मन् शब्द में 'टा' के स्थान पर 'णिआ' प्रत्यय की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है।
दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- आत्मना च वितर्दिः खानिता अर्थात् वेदिका अपने द्वारा खुदवाई गई है। इस उदाहरण में भी तृतीया के एकवचन में आत्मन् शब्द में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णिआ' प्रत्यय की संयोजना की गई है। 'णइआ' प्रत्यय का उदाहरणः- आत्मना=अप्पणइआ अर्थात् आत्मा से। वैकल्पिक पक्ष होने से आत्मा अप्पाणेण' रूप भी बनता है। यों आत्मना' के तीन रूप इस सूत्र में बतलाये गये हैं; जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- अप्पणिआ, अप्पणइआ और अप्पाणेण अर्थात् आत्मा के द्वारा अथवा आत्मा से; इत्यादि। 'अप्पणिआ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४ में की गई है।
प्रावृषि संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पाउसे होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-३१ से मूल संस्कृत शब्द 'प्रावृट् के स्त्रीलिंगत्व से प्राकृत में पुल्लिगत्व' का निर्धारण; २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से '' लोप; १-१३१ से लोप हुए 'व' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; १-१९ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ट् अथवा ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति' ३-११ से प्राप्तांग ‘पाउस' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय डि-ई' के स्थान पर डे प्रत्यय की प्राप्ति' प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'पाउस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ'
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82 : प्राकृत व्याकरण की इत्संज्ञा होकर लोप; तत्पश्चात् प्राप्तांग हलन्त 'पाउस' में पूर्वोक्त 'ए' प्रत्यय की संयोजना होकर पाउसे रूप सिद्ध हो जाता है।
उपगतायाम् संस्कृत सप्तम्यन्त स्त्रीलिंगात्मक एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप-(प्रावृट के प्राकृत में पुल्लिग हो जाने के कारण से एवं प्रावट के साथ इसका विशेषणात्मक संबंध होने के कारण से) उवगयम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय डि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उवगयम्मि रूप सिद्ध हो जाता है।
अप्पणिआ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४ में की गई है। 'य' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१८४ में की गई है। 'विअड्डि' (अथवा प्रथमान्त एकवचन रूप विअड्डी) की सिद्धि सूत्र-संख्या २-३६ में की गई है।
खानिता संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप खाणिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और १-१७७ से 'त्' का लोप होकर खाणिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
'अप्पणइआ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४ में की गई है। 'अप्पाणण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५६ में की गई है। ३-५७।।
अतः सर्वादेर्डेर्जसः ।। ३-५८॥ सर्वादेरदन्तात् परस्य जसः डित् ए इत्यादेशो भवति।। सव्वे। अन्ने। जे। ते। के। एक्के। कयरे। इयरे। एए।। अत इति किम्। सव्वाओ रिद्धीओ।। जस इति किम् सव्वस्स।। __ अर्थः- (सर्व-सव्व) आदि अकारान्त सर्वनामों के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर 'डे' प्रत्यय की (आदेश) प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'ड्' इत्संज्ञक है; तदनुसार अकारान्त सर्वनामों के अंग रूप में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर की इत्संज्ञा होकर उक्त अन्त्य 'अ' का लोप हो जाता है एवं तत्पश्चात् प्राप्तांग हलन्त रूप में उक्त प्रथमा बहुवचन (बोधक) प्रत्यय 'ए' की संयोजना होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- सर्वे-सव्वे। अन्ये-अन्ने। ये-जे। ते-ते। के-के। एके-एक्के। कतरे कयरे। इतरे-इअरे और ऐते-एए; इत्यादि।।
प्रश्न;- मूल सूत्र में 'अकारान्त' ऐसा विशेषण क्यों दिया गया है?
उत्तरः- सर्वनाम अकारान्त होते हैं एवं आकारान्त भी होते हैं; तदनुसार प्रथमा बहुवचन में प्राप्तव्य 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर 'डे-ए' प्रत्यय की प्राप्ति केवल अकारान्त सर्वनामों में ही होती है; आकारान्त सर्वनामों में नहीं; इस विधि-विधान को व्यक्त करने के लिये तथा संपुष्ट करने के लिये ही 'अकारान्त' ऐसा विशेषण मूल सूत्र में संयोजित किया गया है जैसे:- सर्वाः ऋद्धयः-सव्वाओ रिद्धीओ; इस उदाहरण में प्रयुक्त 'सव्वा' सर्वनाम अकारान्त नहीं होकर आकारान्त है; तदनुसार इसमें अधिकृत सूत्र-संख्या ३-५८ के विधान से प्रथमा बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर 'डे-ए' प्रत्यय की संयोजना नहीं होती है। 'जस्' के स्थान पर डे-ए प्रत्यय की संयोजना केवल अकारान्त सर्वनामों में ही होती है; अन्य में नहीं; इस सिद्धान्त को प्रकट करने के लिये ही मूल सूत्र में 'अकारान्त' विशेषण का प्रयोग करना पड़ा है।
प्रश्नः- 'जस्' ऐसा प्रत्ययात्मक उल्लेख करने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर:- अकारान्त सर्वनामों में केवल प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में ही संस्कृत प्रत्यय 'जस' के स्थान पर ही प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की संयोजना होती है; अन्य किसी भी प्रत्यय के स्थान पर 'डे-ए' प्रत्यय की संयोजना नहीं होती है; इस विशेषतापूर्ण तात्पर्य को समझाने के लिये ही मूल-सूत्र में 'जस्' प्रत्यय का उल्लेख करना पड़ा हैं। जैसे:सर्वस्य-सव्वस्स। इस उदाहरण में षष्ठी-विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 83
(सूत्र - संख्या ३ - १० के अनुसार) 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है और 'जस्' प्रत्यय का अभाव है; तदनुसार 'जस्' प्रत्यय की अभाव - स्थित होने से तद्- स्थानीय 'डे=ऐ' आदेश प्राप्त प्रत्यय का भी अभाव है; यों यह सिद्धान्तात्मक निष्कर्ष निकलता है कि केवल 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर ही प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है; अन्यत्र नहीं । ऐसी भावनात्मक स्थिति को प्रकट करने के लिये ही मूल सूत्र में 'जस्' प्रत्यय का उल्लेख करना ग्रन्थकर्त्ता ने आवश्यक समझा है; जो कि युक्ति-संगत है एवं न्यायोचित है।
सर्वे संस्कृत प्रथमा बहुवचन सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वे होता है। इसमें सूत्र - संख्या - २ - ७९ से 'र्'का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति और ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सव्वे रूप सिद्ध हो जाता है।
अन्ये संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्ने होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य्' के पश्चात् रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न्न' की प्राप्ति और ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे= ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अन्ने रूप सिद्ध हो जाता है। 'जे' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या २ - २१७ में की गई है।
'ते' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २६९ में की गई है।
'के' संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'के' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर 'क' रूप की प्राप्ति ओर ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे= ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'के' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एके' संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप एक्के होता है। इसमें सूत्र - संख्या २-९९ से 'क' को द्वित्त्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे= ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'एक्के' रूप सिद्ध हो जाता है।
कतरे संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वनाम रूप है इसका प्राकृत रूप कयरे होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त' का लोपः १ - १८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-५८ से प्राप्तांग 'कयर' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे= ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कर रूप सिद्ध हो जाता है।
इतरे संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप इयरे होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-५८ से प्राप्तांग 'इयर' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय जस् स्थान पर प्राकृत में 'डे= ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इयरे रूप सिद्ध हो जाता है।
'एए' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-४ में की गई है।
सर्वाः संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त स्त्रीलिंगात्मक सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वाओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से मूल संस्कृत शब्द 'सर्व' में स्थित 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; ३ - ३२ से और ४-४४८ के निर्देश से पुल्लिंगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माणार्थ प्राप्तांग 'सव्व' में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३ - २७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सव्वाओ रूप सिद्ध हो जाता है।
ऋद्धयः संस्कृत प्रथम बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप रिद्धीओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४० से मूल संस्कृत शब्द 'ऋद्धि' में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'रि' की प्राप्ति और ३- २७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति कराते हुए 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रिद्धीओ रूप सिद्ध हो जाता है।
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84 : प्राकृत व्याकरण
सर्वस्य संस्कृत षष्ठी-एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वस्स होता है। इसमें मूल-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस अस्' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सव्वस्स रूप सिद्ध हो जाता है। ३-५८||
ः स्सि-म्मि-त्थाः ।। ३-५९॥ सर्वादेरकारात् परस्य डेः स्थाने स्सि म्मि त्थ एते आदेशा भवन्ति। सव्वस्सि। सव्वम्मि। सव्वत्थ।। अन्नस्सि। अन्नम्मि। अन्नत्थ।। एवं सर्वत्र।। अत इत्येव। अमुम्मि।।
अर्थः- सर्व (-सव्व) आदि अकारान्त सर्वनामों के प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय "डि-इ' के स्थान पर क्रम से-(एवं वैकल्पिक रूप से) "स्सि'-म्मि-त्थ ये आदेश प्राप्त रूप प्रत्यय प्राप्त होते हैं। जैसे:सर्वस्मिन् सव्वस्सि अथवा सव्वम्मि अथवा सव्वत्थ। अन्यस्मिन् अन्नस्मि अथवा अन्नम्मि अथवा अन्नत्था इसी प्रकार से अन्त्य अकारान्त सर्वनामों के संबंध में भी जानकारी कर लेना चाहिये।
प्रश्नः- 'अकारान्त' सर्वनामों में ही 'ङि=इ' के स्थान पर 'स्सि-म्मि-त्थ' आदेश प्राप्ति हुआ करती है, ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- अकारान्त सर्वनामों के अतिरिक्त उकारान्त आदि अवस्था प्राप्त सर्वनामों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर 'स्सि-म्मि-स्थ' आदेश प्राप्त-प्रत्ययों की प्राप्ति नहीं होती है; किन्तु केवल 'ङि-इ' के स्थान पर 'म्मि' प्रत्यय की ही आदेश प्राप्ति होती है; इस विधि-विधान को प्रकट करने के लिए ही 'अकारान्त सर्वनाम ऐसा उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:- अमुष्मिन् अमुम्मि; इत्यादि।
सर्वस्मिन् संस्कृत सप्तमी-एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सव्वस्सि' सव्वम्मि और सव्वत्थ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति और ३-५९ से प्राप्तांग 'सव्व' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्त प्रत्यय 'ङ-इ' के स्थान पर कम से (एवं वैकल्पिक रूप से) 'स्सिं-म्मि-त्थ' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होकर क्रम से तीन रूप-सव्वस्सिं, सव्वम्मि और सव्वत्थ सिद्ध हो जाते है। __ अन्यस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम का रूप हैं। इसके प्राकृत रूप-अन्नस्सिं, अन्नम्मि और अन्नत्थ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न्न' की प्राप्ति और ३-७९ से प्राप्तांग 'अन्न' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर क्रम से-(वैकल्पिक रूप से-) 'स्सि-म्मि-त्थ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप- अन्नस्सि, अन्नम्मि और अन्नत्थ सिद्ध हो जाते हैं।
अमुष्मिन संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप अमुम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'अद्स' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप; ३-८८ से 'द्' के स्थान पर 'मु' आदेश की प्राप्ति और ३-११ से प्राप्तांग 'अमु' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'डि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमुम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। ३-५९।।
न वानिदमेतदो हिं।। ३-६०।। इदम् एतद्वर्जितात्सर्वादेरदन्तात्परस्य डेः हिमादेशो वा भवति।। सव्वहिं। अन्नहि। कहिं। जहिं। तहिं।। बहुलाEि कारात् किंयत्तद्भ्यः स्त्रियामपि। काहिं। जाहिं। ताहिं।। बाहुलकादेव किंयत्तदोस्य-मामि (३-३३) इति डीनास्ति।। पक्षे। सव्वस्सि। सव्वम्मि। सव्वत्थ। इत्यादि।। स्त्रियां तु पक्षे। काए। कीए। जाए। जीए। ताए तीए।। इदमेतद्वर्जनं किम्। इमस्सि। एअस्सि॥
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 85 अर्थः- इदम् इम और एतत् एअ सर्वनामों के अतिरिक्त अन्य सर्व-सव्व आदि अकारान्त सर्वनामों के प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'हिं आदेश की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- सवस्मिन् सव्वहिं। अन्यस्मिन् अन्नहि। कस्मिन् कहिं। यस्मिन् जहिं और तस्मिन्=तहिं। 'बहुलम् सूत्र के अधिकार से ही 'किम्"यत्' और 'तत्' सर्वनामों के स्त्रीलिंग रूपों में भी सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इके स्थान पर प्राकृत में 'हिं प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- कस्याम काहिं यस्याम जाहि तस्याम ताहिं। 'बहलम' सत्र के अधिकार से ही 'किम' 'यत' और 'तत' सर्वनामों के स्त्रीलिंगत्व के निर्माण में सत्र-संख्या ३-३३ के विधान से प्राप्त स्त्रीलिंग बोधक प्रत्यय 'डी-ई की प्राप्ति उपर्युक्त 'काहिं, जाहिं, जाहिं 'उदाहरणों में नहीं हुई है। अर्थात् प्राप्त रूप-'की, जी, नी, के स्थान पर 'का, जा, ता 'रूपों की प्राप्ति 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से जानना; ऐसा तात्पर्य ग्रंथकर्ता का है।
उपर्युक्त सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'हिं' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप में बतलाई गई है; तदनुसार जहां पर 'हिं प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होगी वहां पर सूत्र-संख्या ३-५९ के विधानानुसार 'स्सिं, म्मि, त्थ' प्रत्यय की प्राप्ति होगी। जैसे:- सर्वस्मिन् सव्वस्सिं, सव्वम्मि और सव्वत्थ; यों अन्य उदाहरणों की भी कल्पना कर लेना चाहिये। स्त्रीलिंग वाले सर्वनामों में भी जहां सप्तमी विभक्ति के एकवचन में 'हिं' प्रत्यय की वैकल्पिक पक्ष होने से प्राप्ति नहीं होगी; वहां पर सूत्र-संख्या ३-२९ के अनुसार 'अ, (आ), इ और 'ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। जैसे:-- कस्याम्-काए अथवा कीए; यस्याम् जाए अथवा जीए और तस्याम्=ताए अथवा तीए इत्यादि।
प्रश्न:- इदम्-इम और एतत् एअ सर्वनामों को 'अकारान्त होने पर भी' उपर्युक्त 'हिं' प्रत्यय के विधान से प्रथक् क्यों रखा गया है?
उत्तरः- चूंकि प्राकृत भाषा के परम्परात्मक प्रवाह मे उपर्युक्त 'इम' और 'एअ सर्वनामों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर 'हिं' (आदेश)-प्राप्ति का अभाव दृष्टिगोचर होता है; अतएव अभावात्मक स्थित में 'हिं' प्रत्यय का निषेध किया जाना न्यायोचित और व्याकरणीय विधान के अनुकूल ही है। जैसे:- अस्मिन् इमस्सि और एतस्मिन् एअस्सि इत्यादि। यों सप्तमी विभक्ति के एकवचन में सर्वनामों में प्राप्तव्य प्रत्यय 'हिं' की स्थित को समझ लेना चाहिये,
सर्वस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से'' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व'व्व' की प्राप्ति और ३-६० से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि=इ' के स्थान पर प्राकृत में हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सव्वहिं रूप सिद्ध हो जाता है। ___अन्यस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्नहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप; होकर २-८९ से लोप हुए। 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न्न' की प्राप्ति और ३-६० से प्राप्तांग 'अन्न' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं प्रत्यय की प्राप्ति होकर अन्नहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
कस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत-रूप कहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम् के स्थान पर 'क' अंग की प्राप्ति और ३-६० से प्राप्तांग 'क' में सप्तमी विभक्ति के एकचवन में संस्कृत प्रातव्य प्रत्यय 'ङि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कहिं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ यस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप जहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से मूल संस्कृत शब्द 'यत्' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप और ३-६० से प्राप्तांग 'ज' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में हिं' प्रत्यय की (आदेश) प्राप्ति होकर जहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
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86 : प्राकृत व्याकरण
से
तस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप तहिं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-११ मूल संस्कृत शब्द 'तत्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप और ३-६० से प्राप्तांग 'त' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
कस्याम् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम का स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप काहिं होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३ - ३१ एवं २-४ से प्राप्तांग 'क' में स्त्रीलिंग-प्रबोधक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३ - ६० से प्राप्तांग 'का' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर काहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
यस्याम् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप जाहिं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २४५ से मूल संस्कृत शब्द 'यत' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-३१ एवं २-४ से प्राप्तांग 'ज' में स्त्रीलिंग-प्रबोधक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६० से प्राप्तांग 'जा' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि=इ' स्थान पर प्राकृत में हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जाहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
तस्याम् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप ताहिं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'तत् में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'तू' का लोप; ३ - ३१ एवं २-४ से प्राप्तांग 'त' में स्त्रीलिंग-प्रबोधक ‘आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३ - ६० से प्राप्तांक 'ता' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ताहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
'सव्वस्सि' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-५९ में की गई है।
'सव्वम्मि' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५९ में की गई है।
'सव्वत्थ' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५९ में की गई है।
कस्याम् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम स्त्रीलिंग का रूप है। इसके प्राकृत रूप काए और कीए होते हैं। इनमें उपर्युक्त विधि-अनुसार प्राप्तांग 'का' में सूत्र- संख्या ३-३१ से और ३-३२ से स्त्रीलिंग-प्रबोधक 'आ' प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ङी=ई प्रत्यय की प्राप्ति और ३- २९ से क्रम से प्राप्तांग 'का' और 'की' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय ‘ङि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप काए और कीए सिद्ध हो जाते हैं।
यस्याम् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप जाए और जीए होते हैं। इनमें उपर्युक्त विधि अनुसार प्राप्तांग 'जा' में सूत्र - संख्या ३ - ३१ से एवं ३-३२ से स्त्रीलिंग - बोधक 'आ' प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से ‘ङी=ई' प्रत्यय की प्राप्ति और ३ - २९ से क्रम से प्राप्तांग 'जा' और 'जी' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि = ई' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप जाए और जीए सिद्ध हो जाते हैं।
तस्याम् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप ताए और तीए होते हैं। इनमें उपर्युक्त विधि-अनुसार प्राप्तांग 'ता' में सूत्र - संख्या ३ - ३१ से एवं ३-३२ से स्त्रीलिंग - प्रबोधक 'आ' प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ङी =ई' प्रत्यय की प्राप्ति और ३- २९ से क्रम से प्राप्तांग 'ता' और 'ती' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि = इ' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप ताए और तीए सिद्ध हो जाते हैं।
अस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप इमस्सि होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-७२ से संस्कृत सर्वनाम रूप 'इदम्' के स्थान पर 'इम' आदेश - प्राप्ति और ३-५९ से प्राप्तांग 'इम' में विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'स्सिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इमस्सि रूप सिद्ध हो जाता है।
एतस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप एअस्सि होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत- सर्वनाम 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप और
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 87 ३–५९ से प्राप्तांग ‘एअ' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'प्रिंस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एअस्सि रूप सिद्ध हो जाता है । ३ - ६० ।।
आमो डेसिं । । ३ - ६१॥
सर्वादेरकारान्तात्परस्यामो डेसिमित्यादेशो वा भवति । सव्वेसिं। अन्नेसिं । अवरेसिं । इमेसिं । एएसिं। जेसिं । तेसिं। सिं। पक्षे। सव्वाण । अन्नाण। अवराण । इमाण। एआण। जाण । ताण । काण।। बाहुलकात् स्त्रियामपि । सर्वासाम् । सव्वेसिं।। एवम् अन्नेसिं तेसिं ॥
- प्राप्त प्रत्यय
अर्थः- सर्व (=सव्व) आदि अकारान्त सर्वनामों के प्राकृत रूपान्तर में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'डेसिं' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। प्राकृत में आदेश-प्र ‘ङेसिं' में स्थिति 'ड्' इत्संज्ञक है; तदनुसार अंग रूप प्राकृत सर्वनाम शब्दों में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर की इत्संज्ञा होने से इस अन्त्य 'अ' लोप हो जाता है एवं तत्पश्चात् शेष रहे हुए हलन्त सर्वनाम रूप अंग में उक्त षष्ठी बहुवचन-बोधक प्रत्यय' डेसिं=एसिं' की संयोजना होती है। जैसे:- सर्वेषाम् = सव्वेसिं अथवा पक्षान्तर में सव्वाण । अन्येषाम्-अन्नेसिं अथवा पक्षान्तर में अन्नाण। अपरेषाम् = अवरेपिं अथवा पक्षान्तर में अवराण । एषाम् - इमेसि अथवा पक्षान्तर में इमाण । एतेषाम् = एएसिं अथवा पक्षान्तर में एआण । येषाम् = जेसिं अथवा पक्षान्तर में जाण । तेषाम् = तेसिं अथवा पक्षान्तर में ताण । केषाम् = केसिं अथवा पक्षान्तर में काण। 'बहुलं' सूत्र के अधिकार से अकारान्त सर्वनामों के अतिरिक्त आकारान्त स्त्रीलिंग वाले सर्वनामों
षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर (प्राकृत में) 'डेसि = एसिं' प्रत्यय की प्राप्ति देखी जाती है। जैसे:- सर्वासाम् = सव्वेसिं अर्थात् सभी (स्त्रियों) के । अन्यासाम् = अन्नेसिं अर्थात अन्य (स्त्रियों) के । तासाम्-तेसिं अर्थात् उन (स्त्रियों) के। इस प्रकार 'बहुलं' सूत्र के आदेश से आकारान्त स्त्रीलिंग वाले सर्वनामों में भी 'एसिं' प्रत्यय की प्राप्ति हो सकती है।
सर्वेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप सव्वेसिं और सव्वाण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या २- ७९ से मूल संस्कृत शब्द 'सर्व' में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति और ३-६१ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डेसिं= एसिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप सव्वेसिं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (सर्वेषाम् =) सव्वाण में ' सव्व' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'सव्व' में सूत्र - संख्या ३ - १२ से अन्त्य 'अ'को आगे षष्ठी बहुवचन - बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति और ३-६ षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर (प्राकृत में) 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप सव्वाण भी सिद्ध हो जाता है।
अन्येषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप अन्नेसिं और अन्नाण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या २- ७८ से मूल संस्कृत शब्द 'अन्य' में स्थित 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य्'के पश्चात् रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न्न' की प्राप्ति और ३ - ६१ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्'के स्थान पर प्राकृत वैकल्पिक रूप से 'डेसिं= एसिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अन्नेसिं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (अन्येषाम्) अन्नाण में 'अन्न' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'अन्न' में सूत्र - संख्या ३-१२ से अन्त्य 'अ' को 'आगे' षष्ठी बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अन्नाण भी सिद्ध हो जाता है।
अपरेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप अवरेसिं और अवराण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १-२३१ से मूल संस्कृत शब्द 'अपर' में स्थित 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और
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88 : प्राकृत व्याकरण ३-६१ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप में डेसिं-एसिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अवरेसिं सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप-(अपरेषाम्=) अवराण में अवर' अंग की-प्राप्ति उपर्युक्त विधि के अनुसार तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२
और ३-६ से उपर्युक्त 'अन्नाण' के समान ही साधनिका की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अवराण भी सिद्ध हो जाता है। _एषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप इमेसिं और इमाण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७२ से मूल संस्कृत शब्द इदम् के स्थान पर प्राकृत में 'इम' रूप की प्राप्ति और ३-६१ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डेसिं-एसिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप इमेसिं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (एषाम् ) इमाण में 'इम' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'इम' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे षष्ठी-बहुवचन-प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग ‘इमा' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण'प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप इमाण भी सिद्ध हो जाता है।
एतेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप एएसिं और एआण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-६१ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डेसिं' प्रत्यय की प्राप्ति; तत्पश्चात् 'डेसिं' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'एअ' में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर की इत्संज्ञा होकर इस 'अ' स्वर का लोप; तत्पश्चात् शेष अंग 'ए' में उपर्युक्त 'एसिं प्रत्यय की संयोजना होकर एएसिं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (एतेषाम) एआण में 'एअ' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'एअ में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे षष्ठी बहुवचन प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति; ३-६ से प्राप्तांग 'एआ' (में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन) में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप एआण भी सिद्ध हो जाता है। __ येषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जेसिं और जाण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र-संख्या १-२४५ से मल संस्कत शब्द 'यद' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्तिः१-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-६१ से प्राप्तांग 'ज' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'डेसिं' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डेसिं' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'ज' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ' का लोप एवं हलन्त 'ज्' में उपर्युक्त 'एसिं' प्रत्यय की संयोजना होकर प्राप्त प्रथम रूप जेसिं सिद्ध हो जाता है।
जाण की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-३३ में की गई है।
तेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तेसिं और ताण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३-६१ से प्राप्तांग 'त' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'डेसिं' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डेसि' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ' का लोप एवं हलन्त 'त्' में उपर्युक्त 'एसिं' प्रत्यय की संयोजना होकर प्रथम रूप तेसिं सिद्ध हो जाता है।
ताण की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-३३ में की गई है।
केषाम संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप केसिं और काण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की प्राप्ति और ३-६१
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 89 से 'क' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'डेसिं' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डेसिं' में स्थित 'ङ्' इत्संज्ञक होने से 'क' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इसंज्ञा होकर इस 'अ' का लोप एवं हलन्त 'क्' में उपर्युक्त 'एसिं' प्रत्यय की संयोजना होकर प्रथम रूप केसिं सिद्ध हो जाता है।
'काण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-३३ में की गई है।
सर्वासाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वेसिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'सर्व' में स्थित हलन्त 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; ३-३२ और २-४ के विधान से 'सव्व' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माणार्थ 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६१ से 'सव्व' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'डेसिं' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डेसिं' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'सव्वा' में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' की इत्संज्ञा होकर इस 'आ' का लोप एवं हलन्त सव्व् में उपर्युक्त 'एसिं' प्रत्यय की संयोजना होकर (पुल्लिंग रूप के समान प्रतीत होने वाला यह स्त्रीलिंग रूप) सव्वेसिं सिद्ध हो जाता है।
अन्यासाम संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्नेसिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से मूल संस्कृत शब्द 'अन्य' में स्थित 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न्न' की प्राप्ति; ३-३२ और २-४ के विधान से 'अन्न' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माणार्थ 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६१ से 'अन्ना' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान प्राकृत में 'डेसिं' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डेसिं' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से प्राप्तांग 'अन्ना' में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' की इत्संज्ञा होकर इस 'आ' का लोप एवं हलन्त 'अन्न्' में उपर्युक्त 'एसिं' प्रत्यय की संयोजना होकर (पुल्लिंग रूप के समान प्रतीत होने वाला यह स्त्रीलिंग रूप) अन्नेसिं सिद्ध हो जाता हैं।
तासाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप तेसिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-३२ और २-४ के विधान से 'त' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माणार्थ 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६१ से 'ता' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'डेसिं प्रत्यय की प्राप्ति, प्राप्त प्रत्यय 'डेसिं' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से प्राप्तांग 'ता' में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' की इत्संज्ञा होकर इस 'आ' का लोप एवं हलन्त 'त्' में उपर्युक्त 'एसिं' प्रत्यय की संयोजना होकर (पुल्लिंग रूप के समान प्रतीत होने वाला यह स्त्रीलिंग रूप) तेसिं सिद्ध हो जाता है। ३-६१।।
किंतभ्यां डासः ।। ३-६२।। किंतद्भ्यां परस्यामः स्थाने डास इत्यादेशो वा भवति।। कास। तास। पक्षे। केसिं। तेसिं। __ अर्थः- संस्कृत सर्वनाम 'किम्' के प्राकृत रूपान्तर 'क' में और संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के प्राकृत रूपान्तर 'त' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डास' (प्रत्यय) की प्राप्ति हुआ करती है। प्राकृत में प्राप्त प्रत्यय 'डास्' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक है, तदनुसार प्राकृत सर्वनाम रूप 'क' और "त" में स्थित अन्त्य स्वर "अ" की इत्संज्ञा होने से इस अन्त्य स्वर "अ" का लोप हो जाता है एवं तत्पश्चात् शेष रहे हुए हलन्त सर्वनाम रूप"क" और 'त्" अंग में उक्त षष्ठी के बहुवचन का प्रत्यय "डास-आस" की संयोजन होती है। जैसे:-केषाम्-कास और तेषाम्=तास। वैकल्पिक पक्ष होने से (केषाम्=) केसिं और (तेषाम्=) तेसिं रूप भी बनते हैं। ___ केषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है इसके प्राकृत रूप कास और केसि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द "किम्" के स्थान पर प्राकृत में "क" रूप की प्राप्ति; ३-६२ से प्राकृत "क" में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय "आम" के स्थान पर प्राकृत में "डास"प्रत्यय की प्राप्ति, प्राप्त प्रत्यय "डास्" में स्थित "ड" इत्संज्ञक होने से "क" में स्थित अन्त्य स्वर "अ" की इत्संज्ञा होकर इस "अ'का लोप एवं हलन्त "क" में उपर्युक्त "आस' प्रत्यय की संयोजना होकर प्रथम रूप कास सिद्ध हो जाता है।
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90 : प्राकृत व्याकरण
केसिं की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६१ में की गई है।
तेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तास और तेसिं होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द "तद्" में स्थित अन्त्य व्यञ्जन "द्" का लोप, ३-६२ से प्राकत-प्राप्तांग"त" में षष्टी विभक्ति के बहवचन में संस्कृत प्रत्यय "आम्" के स्थान पर प्राकृत में "डास" प्रत्यय का प्राप्ति, प्राप्त प्रत्यय "डास" में स्थित "ड" इत्संज्ञक होने से"त" में स्थित अन्त्य स्वर"अ"की इत्संज्ञा होकर इस"अ" का लोप एवं हलन्त “त्"में उपरोक्त "डास आस" प्रत्यय की संयोजना होकर प्रथम रूप तास सिद्ध हो जाता है। तेसिं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६१ में की गई है।३-६२।।
किंयत्तद्भ्योङस : ।। ३-६३।। एभ्यः परस्य उसः स्थाने डास इत्यादेशो वा भवति। उसः स्सः (३-१०) इत्यास्या पवादः। पक्षे सोऽपि भवति।। कास। कस्स। जास। जस्स। तास। तस्स। बहुलाधिकारात्। किंतद्भयामाकारान्ताभ्यामपि डासादेशो वा। कस्या धनम्। कास धणं। तस्या धनम्। तास धणं। पक्षे। काए। ताए।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम किम् यद् और तद् के क्रम से प्राप्त प्राकृत रूप "क","ज"और "त" में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय "ङस् अस्" के स्थान पर प्राकृत में"डास" का आदेश वैकल्पिक रूप से हुआ करता है। प्राकृत में आदेश रूप "डास" में स्थित "ड्" इत्संज्ञक है; तदनुसार प्राकृत सर्वनाम रूप 'क', 'ज' और 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होने से इस अन्त्य स्वर 'अ' का लोप हो जाता है। एवं तत्पश्चात् शेष रहे हुए हलन्त सर्वनाम रूप 'क्','ज्' और 'त्' में उक्त षष्ठी एकवचन का प्रत्यय 'डास आस' की संयोजना होती है। जैसे:- कस्य-कास; यस्य-जास और तस्य-तास। इसी तृतीय पाद के दसवें सूत्र में यह विधान निश्चित किया गया है कि संस्कृत षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'डस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' का आदेश होता है। तदनुसार उक्त सूत्र-संख्या ३-१० के प्रति इस सूत्र (३-६३) को अपवाद रूप सूत्र-समझना चाहिये। इस प्रकार इस अपवाद रूप स्थिति को ध्यान में रखकर ही ग्रन्थ-कर्ता ने 'वैकल्पिक-स्थिति' का उल्लेख किया है; तदनुसार वैकल्पिक-स्थिति का सद्भाव होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ३-१० के आदेश से 'क' 'ज' और 'त' सर्वनामों में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय का अस्तित्व भी स्वीकार करना चाहिये। इस विषयक उदाहरण इस प्रकार हैं:- कस्य कस्स; यस्य जस्स और तस्य-तस्स। ___ 'बहुलं' सूत्र का अधिकार होने से 'क' के स्त्रीलिंग रूप 'का' में और 'त' के स्त्रीलिंग रूप 'ता' में भी षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डास्' आदेश-हुआ करता है। प्राकृत में आदेश प्राप्त 'डास' में स्थित 'ड्' सत्संज्ञक है; तद्नुसार प्राकृत सर्वनाम-स्त्रीलिंग रूप 'का'और 'ता' में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' की इत्संज्ञा होने से इस अन्त्य स्वर 'आ' का लोप हो जाता है। एवं तत्पश्चात् शेष रहे हुए हलन्त सर्वनाम रूप 'क्' और 'त्' में उक्त षष्ठी विभक्ति एकवचन बोधक-प्रत्यय' डास-आस' की संयोजना होती है।जैसे:-कस्या धनम् कास धणं? और तस्या धनम्=तास धणं? वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में 'कस्या' का 'काए' रूप भी बनता है और 'तस्या' का 'ताए' रूप भी होता है।
कस्य संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त सर्वनाम पुल्लिग का रूप है। इसके प्राकृत रूप कास और कस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' रूप की प्राप्ति और ३-६३ से 'क' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय ङस् अस् के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डास-आस' प्रत्यय की (आदेश) प्राप्ति होकर प्रथम रूप कास सिद्ध हो जाता है।
कस्स रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-२०४ में की गई हैं।
यस्य संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त सर्वनाम पुल्लिंग का रूप है। इसके प्राकृत रूप जास और जस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२४५ से मूल संस्कृत शब्द 'यद् में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 91 हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३-६३ से प्राप्तांग 'ज' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से डास-आस प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जास सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(यस्य ) जस्स में पूर्वोक्त रीति से प्राप्तांग 'ज'में सूत्र-संख्या ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप जस्स भी सिद्ध हो जाता है।
तस्य संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तास और तस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप, और ३-६३ से 'त' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डास-आस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तास सिद्ध हो जाता है। तस्स रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१८६ में की गई है।
कस्याः संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप कास और काए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर 'क' रूप की प्राप्ति; ३-३२ और २-४ के निर्देश से 'क' में पुल्लिंगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६३ की वृत्ति से प्राप्तांग 'का' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डास-आस' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप कास सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (कस्या=) काए में सूत्र-संख्या ३-२९ से उपर्युक्त रीति से प्राप्तांग 'का' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप काए सिद्ध हो जाता है। 'धणं' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है।
तस्याः संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तास और ताए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द' का लोप; ३-३२ और २-४ के निर्देश से 'त' में पुल्लिगत्व के निर्माण हेतु 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६३ की वृत्ति से 'ता' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डास-आस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तास सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(तस्या=) ताए में सूत्र-संख्या ३-२९ से उपर्युक्त रीति से 'ता' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप ताए सिद्ध हो जाता है। ३-६३।।
ईद्भ्यः स्सा से ।। ३-६४ ।। किमादिभ्य ईदन्तेभ्यः परस्य उसः स्थाने स्सा से इत्यादेशो वा भवतः। टा-उस्-डे रदादिदेवा तु उसेः (३-२९) इत्यस्यापवादः। पक्षे अदादयोऽपि।। किस्सा। कीसे। की। कीआ। कीइ। कीए।। जिस्सा। जिसे। जी। जीआ। जीइ। जीए।। तिस्सा। तीसे। ती। तीआ। तीइ। तीए।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम 'किम्'-यद्-तद् के प्राकृत ईकारान्त स्त्रीलिंग रूप-की-जी-ती' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से एवं क्रम से 'स्सा' और 'से' प्रत्ययों की प्राप्ति हुआ करती है। इसकी तृतीय पाद के उन्नतीसवें सूत्र में यह विधान निश्चित किया गया है कि संस्कृत षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में स्त्रीलिंग वाले शब्दों में 'अत्=अ; आत-आ; इत-इ' और एत्=ए' प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होती है। तदनुसार उक्त सूत्र-संख्या ३-२९ के प्रति इस सूत्र (३-६४) को अपवाद रूप सूत्र समझना चाहिये। इस प्रकार इस अपवाद रूप स्थिति को ध्यान में रखकर ही ग्रन्थ-कर्ता ने 'वैकल्पिक स्थिति का उल्लेख किया है; तदनुसार वैकल्पिक-स्थिति का सद्भाव होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ३-२९ के आदेश से स्त्रीलिंग वाले
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92 : प्राकृत व्याकरण सर्वनाम रूप 'की-जी-ती' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में (प्राकृत में) 'अत्-अ, आत-आ; इत् =इ और एत्-ए' प्रत्ययों का भी क्रम से अस्तित्व स्वीकार करना चाहिये। क्रम से उदाहरण इस प्रकार हैं:- कस्याः=(३-६४ के विधान से) किस्सा और कीसे एवं (३-२९ के विधान से) पक्षान्तर में कीअ, कीआ, कीइ और कीए। यस्याः जिस्सा और जीसे; पक्षान्तर में जीअ, जीआ, जीइ और जीए। तस्याः तिस्सा और तीसे; पक्षान्तर में तीअ, तीआ,तीइ और तीए। __ कस्याः संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप किस्सा, कीसे, कीअ, कीआ, कीइ और कीए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की प्राप्ति; ३-३२ से 'क' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'ङी-ई' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; ३-६४ से 'की' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर (प्राकृत में) 'स्सा' प्रत्यय की प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त प्रत्यय 'स्सा संयोगात्मक होने से अंग रूप 'की' में स्थित दीघस्वर'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ'को प्राप्ति होकर प्रथम रूप किस्सा सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय-रूप-(कस्याः ) कीसे में 'की' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-६४ से प्राप्ताग 'की'में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'से' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप कीसे सिद्ध हो जाता है। __तृतीय रूप से छटे रूप तक-(कस्याः =) कीअ, कीआ, और कीए में 'की' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२९ से प्राप्तांग 'की' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में सस्कृत प्रत्यय 'उस्=अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम-से-'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से जीअ, जीआ, जीइ और जीए रूप सिद्ध हो जाते है।
यस्याः संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जिस्सा, जीसे, जीअ, जीआ, जीइ और जीए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२४५ से मूल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-३२ से प्राप्तांग 'ज' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेत-'ङी-ई' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-६४ से प्राप्तांग 'जा' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्सा' प्रत्यय की प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त प्रत्यय 'स्सा' संयोगात्मक होने से अंग रूप 'जी' में स्थित दीर्घस्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जिस्सा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (यस्याः =) जीसे में 'जी' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-६४ से प्राप्तांग 'जी' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्-अस्' के स्थान पर प्राकृत में से प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप जीसे सिद्ध हो जाता है। __ तृतीय रूप से छटे तक-(यस्याः =) जीअ, जीआ, जीइ और जीए में 'जी' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२९ से प्राप्तांग 'जी' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम में 'अ-आ-इ-ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तृतीय रूप से छठे रूप तक अर्थात् जीअ, जीआ, जीइ और जीए रूप सिद्ध हो जाते हैं।
तस्याः संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तिस्सा, तीसे, तीअ, तीआ, तीइ और तीए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में से सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द तद् में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-३२ से प्राप्तांग 'त' पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'डी-ई' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-६४ से प्राप्तांग 'ती' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्सा' प्रत्यय की प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त प्रत्यय 'स्सा' संयोगात्मक होने से अंग रूप 'ती' स्थित दीर्घ 'ई' के स्थान पर हस्व 'इ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तिस्सा सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 93 द्वितीय रूप-(तस्याः-) तीस में 'ती' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-६४ से प्राप्तांग 'ती' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में से प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तीसे सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप से छटे रूप तक-(तस्याः ) तीअ, तीआ, तीइ और तीए में 'ती' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२९ से प्राप्तांग 'ती' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ-आ-इए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तीअ, तीआ, तीइ और तीए रूप सिद्ध हो जाते हैं। ३-६४॥
डे हे डाला इआ काले।। ३-६५।। किंयत्तद्रयः कालेऽभिधेये डे: स्थाने आहे आला इति डितो इआ इति च आदेशा वा भवन्ति। हिं स्सि म्मित्थानामपवादः। पक्षे ते पि भवन्ति ।। काहे। काला। कइया।। जाहे। जाला। जाइया। ताहे। ताला। तइया।।
ताला जाआन्ति गुणा जाला ते सहिअएहिँ घेप्पन्ति। पक्षे। कहिं। कस्सि। कम्मि। कत्थ।।
अर्थः- जब 'किम्, यद् और तद्' शब्द किसी कालवाचक शब्द के विशेषण रूप हो; तो इनके प्राकृत-रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डि-इ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से और क्रम से डाहे, डाला और इआ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। प्राप्त-प्रत्यय 'डाहे और डाला' में स्थित ड्' इत्संज्ञक है; अतएव प्राकृत में प्राप्तांग 'क, ज और 'त में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ' का लोप हो जाता है; एवं तत्पश्चात् शेषांग हलन्त 'क्, ज् और त्' में उक्त प्रत्यय के रूप में 'आहे और आला' (प्रत्ययों) की संयोजना होती है। इसी तृतीय पाद के सूत्र-संख्या ३-६० और ३-५९ में क्रम से यह विधान निश्चित किया गया है कि संस्कृत सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं, स्सि, म्मि और त्थ' प्रत्यायों की आदेश प्राप्ति होती है; तदनुसार उक्त सूत्र-संख्या ३-६० और ३-५९ के प्रति इस सूत्र (३-६५) को अपवाद रूप सूत्र समझना चाहिये। पक्षान्तर में हिं, स्सि, म्मि और स्थ' प्रत्ययों का अस्तित्व भी है: ऐसा ध्यान में रखना चाहिये। उदाहरण इस प्रका __कस्मिन् (किस समय में) काह, काला, कइआ और पक्षान्तर से कहि, कस्सि, कम्मि और कत्था यस्मिन् (जिस समय में) जाहे, जाला और जइआ; पक्षान्तर में जहिं, जस्सिं, जम्मि और जत्थ (भी होते हैं)। तस्मिन् (उस समय में)=ताहे, ताला और तइआ एवं पक्षान्तर में तहिं, तस्सि, तम्मि और तत्थ (भी होते हैं)।
किसी ग्रन्थ-विशेष के ग्रन्थ-कर्ता ने अपने मन्तव्य को स्पष्ट करने के लिये निम्नोक्त छन्दांश को वृत्ति में उद्धृत किया
संस्कृतः- तस्मिन् जायन्ते गुणाः यस्मिन् ते सहृदयैः गह्यन्ते। प्राकृत रूपान्तरः- ताला जाअन्ति गुणा जाला ते सहिअएहिं घेप्पन्ति।
हिन्दी-भावार्थ:- उस समय गुण (वास्तव में गुण रूप) होते हैं; जिस समय में वे (गुण) सहदय पुरुषों द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। (अथवा स्वीकार किये जाते हैं)।
इस दृष्टान्त में 'त'और 'ज' शब्द समय-वाचक-स्थिति के द्योतक हैं; इसीलिये इनमें सूत्र-संख्या ३-६५ के विधानानुसार 'डाला=आला' प्रत्यय की संयोजना की गई है; यों अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये।
कस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त (समय स्थित-बोधक) विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप काहे, काला, कइआ, कहि, कस्सि, कम्मि और कत्थ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की प्राप्ति और ३-६५ से प्राप्तांग 'क' में (समय-स्थित-बोधकता के कारण से) सप्तमी-विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डाहे-आहे' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर प्रथम रूप काहे सिद्ध हो जाता है।
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94 : प्राकृत व्याकरण
द्वितीय और तृतीय रूप 'काला एवं कइआ' में मूल 'क' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार एवं तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - ६५ से प्रथम रूप के समान ही क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'डाला = आला और इआ ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर काला और कइआ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
चतुर्थ रूप 'कहीं' की सिद्धि सूत्र संख्या ३ - ६० में की गई है।
'कस्सि' में 'क' अङ्ग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति अनुसार एवं तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - ५९ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि =ई' के स्थान पर प्राकृत में 'प्रिंस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पंचम रूप कस्सि सिद्ध हो जाता है।
समान ही सूत्र - संख्या ३-५९ के विधान से 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छट्टा
'कत्थ' में भी उपर्युक्त पंचम रूप के समान ही सूत्र - संख्या ३ - ५९ के विधान से 'त्थ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सप्तम रूप कत्थ सिद्ध हो जाता है।
'कम्मि' में भी उपर्युक्त पंचम रूप
रूप कम्मि सिद्ध हो जाता है।
यस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त (समय-स्थित-बोधक) विशेषण रूप है इसके प्राकृत रूप जाहे, जाला और होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - २४५ से मूल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३ - ६५ से प्राप्तांग 'ज' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डाहे आहे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जाहे सिद्ध हो जाता है।
जाला में 'ज' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-विधान के अनुसार एवं तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३-६४ से प्रथम रूप के समान ही 'आला' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप जाला सिद्ध हो जाता है।
जइया में 'ज' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति अनुसार एवं तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - ६५ से प्रथम-द्वितीय रूपों के समान ही 'इआ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप जइआ भी सिद्ध हो जाता है।
तस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त (समय-स्थित- बोधक) विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप ताहे, ताला और तइआ होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द ' तद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३-६५ से प्राप्तांग 'त' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर क्रम से 'डाहे = आहे; डाला=आला और इआ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर तीनों रूप ताहे, ताला और तइआ सिद्ध हो जाते हैं।
'ताला' रूप की सिद्ध इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
जायन्ते संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप जाअन्ति होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'य्' का लोप और ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में संस्कृत आत्मनेपदीय प्रत्यय 'न्ते' के स्थान पर प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति जाअन्ति रूप सिद्ध हो जाता है।
'गुणा' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ११ में की गई हैं 'जाला' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २६९ में की गई है। 'ते' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २६९ में की गई है। 'सहिअएहि' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २६९ में की गई है। 'घेप्पन्ति' रूप की सिद्धि सत्र - संख्या १ - २६९ में की गई है । । ३ - ६५ ।।
ङसे म्ह।।३-६६॥
किंयत्तद्वयः परस्य उसे: स्थाने म्हा इत्यादेशो वा भवति ।। कम्हा। जम्हा । तम्हा। पक्षे । काओ । जाओ । ताओ ।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 95 अर्थः- संस्कृत सर्वनाम 'किम-यद्-तद्' के प्राकृत रूपान्तर ‘क जन्त' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'म्हा' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:कस्मात् कम्हा; यस्मात्-जम्हा और तस्मात् तम्हा। वैकल्पिक पक्ष का विधान होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ३-८ के विधान से उपर्युक्त ‘क-ज-त' सर्वनामों में 'त्तो; दो-ओ; दु-उ; हि, हिन्तो और लुक्' प्रत्ययों की भी प्राप्ति क्रम से हुआ करती है। जैसे:-कस्मात्-काओ, (कत्तो, काउ, काहि, काहिन्तो और का आदि) यस्मात् जाओ, जत्तो, जाउ, जाहि, जाहिन्तो और जा) एवं तस्मात्=ताओ, (तत्तो, ताउ, ताहि, ताहिन्तो और ता)।
कस्मात् संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप कम्हा और काओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर 'क' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-६६ से प्राप्तांग 'क' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डिसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'म्हा' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप कम्हा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(कस्मात्=) काआ में 'क' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'क' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर आगे पञ्चमी विभक्ति एकवचन-बोधक प्रत्यय 'ओ' का सदभाव होने से दीर्घ 'आ' की प्राप्ति और ३-८ से प्राप्तांग 'का' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कत प्रत्यय 'ङसि अस् के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप काओ भी सिद्ध हो जाता है।
यस्मात् संस्कृत पञ्चमी एवं वचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जम्हा और जाओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२४५ से मूल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३-६६ से प्राप्तांग 'ज' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से म्हा' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप जम्हा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(यस्मात्-) जाओ में 'ज' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'ज' में स्थित अन्त्य हृस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ६-८ से प्राप्तांग 'जा' में उपर्युक्त रीति से पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप जाओ भी सिद्ध हो जाता है।
तस्मात् संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तम्हा और ताओ होते हैं। इनमें प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३-६६ से प्राप्तांग 'त' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'म्हा' प्रत्यय की (आदेश) प्राप्ति होकर प्रथम रूप तम्हा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(तस्मात्=) ताओ में 'त' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'त' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-८ से प्राप्तांग 'त' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में 'दो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप ताओ भी सिद्ध हो जाता है। ३-६६।।
तदो डोः ।। ३-६७॥ तदः परस्य उसे? इत्यादेशो वा भवति।। तो तम्हा।।
अर्थ:- संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के प्राकृत रूपान्तर 'त' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। प्राप्त प्रत्यय 'डो' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक है; तदनुसार उक्त सर्वनाम 'त' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ' स्वर का लोप हो जाता है; एवं तत्पश्चात् शेषांग हलन्त 'त्' सर्वनाम में उक्त प्रत्यय 'ओ' की संयोजना होती है। जैसे:तस्मात्=तो। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ३-६६ के विधान से (तस्मात्=) तम्हा रूप की प्राप्ति होती हैं 'तम्हा, ताओ, ताउ, ताहि, ताहिन्तो और ता' रूपों का भी सद्भाव जानना चाहिये।
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96 : प्राकृत व्याकरण
तस्मात् संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तो' और 'तम्हा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत-शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३-६७ से प्राप्तांग 'त' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डो=ओ' प्रत्यय की (आदेश) प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'तो' सिद्ध हो जाता है। 'तम्हा' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६६ में की गई है। ३-६७।।
किमो डिणो-डीसौ॥ ३-६८॥ किमः परस्य उसेडिणो डीस इत्यादेशौ वा भवतः।। किणो। कीस। कम्हा।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम “किम्' के रूपान्तर 'क' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डिणो और डीस प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'डिणो और डीस' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक हैं; तदनुसार प्राकृत अंग-प्राप्त रूप 'क' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस'अ'का लोप हो जाता है एवं तत्पश्चात शेषांग हलन्त 'क' में आदेश प्राप्त प्रत्यय 'इणो और ईस' की क्रम से और वैकल्पिक रूप से संयोजना होती है। जैसे:- कस्मात् किणो और कीस। वैकल्पिक पक्ष होने से (कस्मात्=) कम्हा रूप का भी सद्भाव जानना चाहिये। ___ कस्मात् संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप किणो, कीस और कम्हा होते हैं। इनमें से प्रथम के दो रूपों में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की प्राप्ति और ३-६८ से प्राप्तांग 'क' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि अस्'के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'डिणो-इणो' और 'डीस-ईस' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से और वैकल्पिक रूप से प्रथम दोनों रूप किणो और कीस सिद्ध हो जाते हैं। कम्हा की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६६ में की गई है।।३-६८।।
इदमेतत्कि-यत्तद्भ्य ष्टो डिणा।।३-६९।। __ एभ्यः सर्वादिभ्योऽकारान्तेभ्यः परस्याष्टायाः स्थाने डित् इणा इत्यादेशो वा भवति।। इमिणा। इमेण।। एदिणा। एदेण। किणा। केण।। जिणा। जेण। तिणा। तेण॥
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम 'इदम् एतद्' किम्, यद् और तद् के क्रम से प्राप्त प्राकृत अकारान्त रूप ‘इम, एद (शौरसेनी रूप),क, ज, और त' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डिणा' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'डिणा' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक है; तदनुसार प्राकृत प्राप्तांग 'इम, एद, क, ज और त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्सज्ञा होकर इस 'अ' का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् क्रम से प्राप्तांग हलन्त शब्द 'इम्, एद्' क, ज, और त' में उपर्युक्त 'डिणा-इणा' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से संयोजना हुआ करती है। उपर्युक्त सर्वनामों के क्रम से उदाहरण इस प्रकार हैं:- अनेक-इमिणा और पक्षान्तर में इमेण; एतेन-एदिणा और पक्षान्तर में एदेण; केन-किणा और पक्षान्तर में केण; येन जिणा और पक्षान्तर में जेण; तेन तिणा और पक्षान्तर में तेण रूप होते हैं।
अनेन संस्कृत तृतीया एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम का रूप है। इनके प्राकृत रूप इमिणा और इमेण होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-७२ से मूल संस्कृत शब्द 'इदम्' के स्थान पर प्राकृत में 'इम' आदेश की प्राप्ति; और ३-६९ से प्रथम रूप में प्राप्तांग 'इम' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डिणा-इणा' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप इमिणा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप इमेण में उपर्युक्त ३-७२ के अनुसार प्राप्तांग ‘इम' में सूत्र-संख्या ३-१४ से अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 97 पर 'आगे तृतीया विभक्ति एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से पूर्वोक्त रीति से प्राप्तांग 'इमे में ततीया विभक्ति के एकवचन में पल्लिंग में संस्कत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर द्वितीय रूप इमेण भी सिद्ध हो जाता है।
एतेन संस्कृत तृतीया एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप एदिणा और एदेण होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; ४-२६० से 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति; और ३-६९ से प्रथम रूप में 'एद' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकत में वैकल्पिक रूप से 'डिणा-इणा' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप एदिणा सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप-(एतेन=) एदेण में उपर्युक्त रीति से प्राप्तांग 'एद' में सूत्र-संख्या ३-१४ से अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया विभक्ति एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से 'एदे' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की (आदेश) प्राप्ति होकर द्वितीय रूप एदेण सिद्ध हो जाता है। ___ केन संस्कृत तृतीया एकवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप किणा ओर केण होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की आदेश प्राप्ति; और ३-६९ से प्राप्तांग 'क' में तृतीया विभक्ति के एकवचन पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'टा के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डिणा-इणा प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप किणा सिद्ध हो जाता है। 'केण' की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४१ में की गई है।
येन संस्कृत तृतीया एकवचनान्त के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जिणा और जेण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द् का लोप; १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और ३-६९ से प्राप्तांग 'ज' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डिणा इणा' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप जिणा सिद्ध हो जाता है।
जेण की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३६ में की गई है।
तेन संस्कृत तृतीया एकवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तिणा और तेण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; और ३-६९ से प्राप्तांग 'त' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डिणा-इणा' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'तिणा' सिद्ध हो जाता है। तेण की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३३ में की गई है। ३-६९ ।।
तदो णः स्यादौ क्वचित्।।३-७०॥ तदः स्थाने स्यादौ परे 'ण' आदेशो भवति क्वचित् लक्ष्यानुसारेण। णं पेच्छ। तं पश्येत्यर्थः। सोअइ अणं रहुवई। तमित्यर्थः।। स्त्रियामपि। हत्थुन्नामिअ-मुही णं तिअडा। तां त्रिजटेत्यर्थः।। णेण भणि। तेन भणितमित्यर्थः।। तो णेण कर-यल-ट्ठिआ। तेनेत्यर्थः।। भणिअंच णाए। तयेत्यर्थः।। णेहिं कयं। तैः कृतमित्यर्थः।। णाहिं कयं। ताभिः कृतमित्यर्थः॥ ___ अर्थः- कभी-कभी लक्ष्य के अनुसार से अर्थात् संकेतित पदार्थ के प्रति दृष्टिकोण विशेष से संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में विभक्ति-बोधक प्रत्ययों के परे रहने पर 'ण' अंग रूप आदेश की प्राप्ति (वैकल्पिक रूप. से) हुआ करती है। जैसे:- तम् पश्य=णं पेच्छ अर्थात् उसको देखो। शोचति च तम् रघुपतिः-सोअइ अ णं रघुवई अर्थात् रघुपति उसकी चिन्ता करते हैं-शोक करते हैं। स्त्रीलिंग में भी 'तद्' सर्वनाम के स्थान पर 'ण' अथवा 'णा' अंग रूप आदेश को प्राप्ति पाई जाती हैं जैसे हस्तोन्नामित-मुखी ताम् त्रिजटा-हत्थुन्नामिअ-मुही णं तिअडा अर्थात् हाथ द्वारा ऊंचा कर रखा मुँह को जिसने ऐसी त्रिजटा नामक राक्षसिनी ने उस (स्त्री) को (वाक्य अधूरा है)। तेन भणितम्=णेण भणिअं
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98 : प्राकृत व्याकरण अर्थात् उसके द्वारा कहा गया है। तस्मात् तेन कर-तल-स्थित-तो णेण कर-यल-टुिआ अर्थात् उस कारण से उसके द्वारा हथेली पर रखी हुई (वाक्य अधूरा है)। भणितम् च तया भणिअंच णाए अर्थात् उसके द्वारा-(उस स्त्री के द्वारा)- कहा गया है। तैः कृतम्=णेहिं, कयं अर्थात् उसके द्वारा किया गया है। ताभिः कृतम=णाहिं कयं अर्थात् उनके द्वारा किया गया है। ताभिःकृतम्=णाहिं कयं अर्थात् उन (स्त्रियों) के द्वारा किया गया है। इन उदाहरणों में यह समझाया गया है कि पुल्लिंग अवस्था में अथवा स्त्रीलिंग अवस्था में (भी) अनेक विभक्तियों में तथा एकवचन में अथवा बहुवचन में (भी) संस्कृत सर्वनाम 'वद्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' अंग रूप (अथवा स्त्रीलिंग में 'णा' अंग रूप) आदेश प्राप्ति कभी-कभी पाई जाती है यह उपलब्धि प्रांसगिक हैं। और ऐसी स्थित को 'वृत्ति' में लक्ष्यानुसारेण' पद से अभिव्यक्त किया गया है।
तम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर (कभी-कभी) णं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७० से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' अंग की आदेश प्राप्ति; ३-५ द्वितीया विभक्ति . के एकवचन में पुल्लिग में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर णं रूप सिद्ध हो जाता है। 'पेच्छ' (क्रियापद) रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।
शोचति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप सोअइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'च' का लोप और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होकर 'सोअइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अ' (अव्यय) की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है। 'ण' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
रघुपतिः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप रहुवई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'घ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'स्' के स्थान पर प्राकृत में अंग के अन्त में स्थित हस्व स्वर 'इ'को दीर्घ 'इ' की प्राप्ति होकर रहुवई रूप सिद्ध हो जाता है।
हस्तोनामित-मुखी संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप हत्थन्नामिअ-मुहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त् के स्थान पर 'थ्' की प्राप्ति; २=८७ से प्राप्त 'थ्' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व'थ्' के स्थान पर 'त्' की प्राप्ति; १-५४ से दीर्घ स्वर 'ओ' के स्थान पर 'आगे संयुक्त व्यञ्जन 'त्रा' का सद्भाव होने से ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप हत्थुन्नामिअ-मुही सिद्ध हो जाता है।
ताम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७० से मूल संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के स्थान पर प्राकृत में स्त्रीलिंग में ‘णा' अंग रूप की आदेश प्राप्ति; ३-३६ से प्राप्तांग णा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे द्वितीया एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से हस्व 'अ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग 'ण' में संस्कृत प्रत्यय 'म्' के समान ही प्राकृत में भी 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत स्त्रीलिंग रूप 'णं' सिद्ध हो जाता है।
त्रिजटा संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप तिअडा होता है। इसमें सूत्र-संख्या -२-७९ से 'त्रि' में स्थित 'र' का लोप; १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१९५ से 'ट्' के स्थान पर -'ड्' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' का प्राकृत में लोप होकर तिअडा रूप सिद्ध हो जाता है।
तेन संस्कृत तृतीया एकवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप णेण होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७० से मूल संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के स्थान पर 'ण' अंग रूप की आदेश प्राप्ति; ३-१४ से प्राप्तांग ‘ण' में स्थित अन्त्य
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 99 स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'णे' में तृतीया विभक्ति एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' आदेश की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'ण' सिद्ध हो जाता है।
'भणि रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९३ में की गई है। 'तो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६७ में की गई है। 'णेण' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
कर-तल स्थिता संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप कर-यल-ठुिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से प्रथम 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ४-१६ से 'स्थ' के स्थान पर 'ठ्' की आदेश-प्राप्ति, २-८९ से प्राप्त 'ठ्' को द्वित्व'ठ्ठ' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व'' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति और १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप होकर कर-यल- ठुिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
भणिअ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९३ में की गई है। 'च' अव्यय की सिद्धि संख्या १-२४ में की गई है।
तया संस्कृत तृतीया एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप णाए होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७० से मूल संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के स्थान पर स्त्रीलिंग अवस्था में प्राकृत में 'णा' अंग की आदेश प्राप्ति और ३-२९ से प्राप्तांग ‘णा' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में आकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होकर णाए रूप सिद्ध हो जाता है।
तैः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप णेहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७० से मूल संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' अंग रूप की प्राप्ति; ३-१५ से प्राप्तांग 'ण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे तृतीया बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से प्राप्तांग ‘णे' में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रोहिं रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।
ताभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप णाहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७० से मूल संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के स्थान पर प्राकृत में पुल्लिग में 'ण' अंग रूप की प्राप्ति; ३-३२ से एवं २-४ के निर्देश से पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होने से ‘णा' अंग का सद्भाव; और ३-७ से प्राप्तांग ‘णा' में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर णाहिं रूप सिद्ध हो जाता है। 'कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १–१२६ में की गई है। ३-७०।।।
किमः कस्त्र-तसोश्च ।। ३-७१।। किमः को भवति स्यादो त्र तसोश्च परयोः को। के। को के। केण॥ त्र। कत्थ।। तस्। कओ। कत्तो। कदो।
अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम 'किम्' में संस्कृत प्राप्तव्य विभक्तिबोधक प्रत्ययों के स्थानीय प्राकृत विभक्तिबोधक प्रत्ययों के परे रहने पर अथवा स्थानवाचक संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'त्र' के स्थानीय प्राकृत प्रत्यय 'हि-ह-त्थ' प्रत्ययों के रहने पर अथवा सम्बन्ध-सूचक संस्कृत प्राप्त प्रात्यय 'तस्' के स्थानीय प्राकृत प्रत्यय 'त्तो अथवा दो' प्रत्ययों के परे रहने पर 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग रूप की आदेश प्राप्ति होती है। विभक्ति-बोधक प्रत्ययों से संबंधित उदाहरण इस
प्रकार हैं- क-को; के =के; कम्-कं; कान्=के और केन-केण इत्यादि।
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100: प्राकृत व्याकरण
' त्रप्' प्रत्यय से संबंधित उदाहरण यों हैं:- कुत्र = कत्थ अथवा कहि और कह । 'तस्' प्रत्यय के उदाहरण :- कृतः - कओ; कत्तो और कदो ।
'को' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या २ - १९८ में की गई है।
'के' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-५८ की गई है।
'क' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-३३ में की गई है।
कान् संस्कृत द्वितीया बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप के होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग रूप की आदेश प्राप्ति; ३ - १४ से प्राप्तांग 'क' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर ' आगे द्वितीया बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से प्राप्तांग 'के' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर 'के' रूप सिद्ध हो जाता है।
'केण' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ४१ में की गई है।
'कत्थ' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या २ - १६१ में की गई है।
कुतः संस्कृत (अव्ययात्मक) रूप है। इसके प्राकृत रूप कओ, कत्तो और कदो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३ - ७१ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग रूप की आदेश प्राप्ति; १ - १७७ से 'त्' का लोप और १-३७ से लोप हुए 'त' के पश्चात् शेष रहे हुए विसर्ग के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कओ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'कत्तो' और तृतीय रूप 'कदो' की सिद्धि सूत्र - संख्या २-१६० में की गई है । ३ - ७१ ।।
इदम इमः ।। ३-७२।।
इदमः स्यादौ परे इम आदेशो भवति ।। इमो । इमे । इमं । इमे इमेण । । स्त्रियामपि । इमा ||
अर्थ:- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्' के प्राकृत रूपान्तर में विभक्तिबोधक प्रत्यय परे रहने पर 'इम' अंग रूप आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे:- अयम्-इमो, इमे इमे; इमम् इमं ; इमान् = इमे, अनेन इमेण इत्यादि । स्त्रीलिंग-अवस्था में भी 'इदम्' शब्द के स्थान पर प्राकृत में 'इमा' अंग रूप आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे:- इयम्-इमा इत्यादि ।
अयम् संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप इमो होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-७२ मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्' के स्थान पर प्राकृत में 'इम' अंग रूप की आदेश प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग 'इम' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो=ओ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर इमो रूप सिद्ध हो जाता है।
संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप इमे होता है। इसमें 'इम' अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त (३-७२के) विधान के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - ५८ से प्राप्तांग 'इम' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर 'डे=ए' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर इमे रूप सिद्ध हो जाता है।
'इम' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या २ - १८१ में की गई है।
इमान संस्कृत द्वितीया बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप इमे होता है । इमे 'इम' अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त (३-७२के) विधान के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'इम' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर ‘आगे द्वितीया बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से प्राप्तांग 'इमे' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस् का प्राकृत में लोप होकरा इमे सिद्ध हो जाता है।
'इमेण' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ६९ में की गई है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 101
इयम् संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप इमा होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-७२ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्' के स्थान पर 'इम' अंग रूप की आदेश प्राप्ति; २-४ के निर्देश से प्राप्तांग 'इम' में पुल्लिंगत्व से स्त्री-लिंगत्व के निर्माण हेतु 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - ११ से प्राप्तांग 'इमा में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सिस्' का प्राकृत में लोप होकर इमा रूप सिद्ध हो जाता है । ३-७२।।
पुं- स्त्रियोर्न वायमिमिआ सौ ।। ३-७३ ।।
इदम् शब्दस्य सौ परे अयतिति पुल्लिंगे इमिआ इति स्त्रीलिङ्गे आदेशौ वा भवतः ॥ अहवायं कय-कज्जो । या वाणि-धूआ। पक्षे । इमो । इमा।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम 'इदम्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' की प्राप्ति होने पर इदम्+सि' के स्थान पर पुल्लिंग में ' अयम्' रूप की और स्त्रीलिंग में 'इमिआ' रूप की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- अथवा अयम् कृतः कार्यः = अहवा अयं कयकज्जो; यह पुल्लिंग का उदाहरण हुआ। स्त्रीलिंग का उदाहरण इस प्रकार है:- इयम् वाणिक्य- दुहिता = इमिआ वाणिअ धूआ । वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पुल्लिंग में 'इदम्+ सि' का 'इमो' रूप भी प्राकृत में बनेगा और स्त्रीलिंग में 'इयम्' का 'इमा' रूप भी बनता है।
' अहवा' अव्यय की सिद्धि सूत्र - संख्या १-६७ में की गई है।
अयम् संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अयम् और इमो होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३-७३ के विधान से संस्कृत के समान ही 'अयम्' रूप की आदेश प्राप्ति और १ - २३ से अन्त्य व्यञ्जन 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर अयं रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'इमो' की सिद्धि सूत्र संख्या ३-७२ में की गई है।
कृत-कार्यः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप कय-कज्जो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १२६ से आदि स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'तू' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से आदेश प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कय- कज्जो रूप सिद्ध हो जाता है।
इयम् संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप इमिआ और इमा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३-७३ से सम्पूर्ण संस्कृत रूप 'इयम्' के स्थान पर प्राकृत में 'इमिआ' रूप की आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर प्रथम रूप 'इमिआ ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'इमा' की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-७२ में की गई है।
वाणिक्य- दुहिता संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप वाणिअ-धूआ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७७ से हलन्त व्यञ्जन 'क्' का लोप; १-१७७ से 'य्' का लोप; २- १२६ से सम्पूर्ण शब्द 'दुहिता' के स्थान पर प्राकृत में ' धूआ' रूप की आदेश प्राप्ति; ४ - ४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्त 'सि=स्' की प्राप्ति और १ - ११ से प्राप्त हलन्त प्रत्यय 'स्' का लोप होकर वाणिअ-धूआ रूप सिद्ध हो जाता है ।। ३-७३ ।।
स्सि स्सयोरत्।।३-७४।।
इदमः स्सि स्स इत्येतयोः परयोरद् भवति वा ।। अस्सि । अस्स । पक्षे इमादेशोपि । इमस्सि । इमस्स । बहुलाधिकारादन्यत्रापि भवति । एहि । एसु । आदि । एभिः । एषु । आभिरित्यर्थः ।।
अर्थ:- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्' के प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्यय
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102 : प्राकृत व्याकरण
'स्सि' और षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्यय 'स्स' के प्राप्तव्य होने पर सम्पूर्ण सर्वनाम 'इदम्' के स्थान पर प्राकृत में 'अ' अंग रूप की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- 'स्सि' प्रत्यय का उदाहरणअस्मिन्=अस्सि अर्थात् इसमें और 'स्स' प्रत्यय का उदाहरण- अस्य अस्स अर्थात् इसका । वैकल्पिक पक्ष का उल्लेख होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ३-७२ के विधान से 'इदम्' के स्थान पर 'इम' अंग रूप की प्राप्ति भी होती है। जैसे:अस्मिन्=इमस्सि अर्थात् इसमें और अस्य = इमस्स अर्थात् इसका । बहुलाधिकार से 'इदम्' के स्थान पर पुल्लिंग में 'ए' अंग रूप की और स्त्रीलिंग में 'आ' अंग रूप की भी प्राप्ति देखी जाती है। जैसे:- एभि = एहि अर्थात् इनके द्वारा । स्त्रालिंग का उदाहरणः- आभिः= आहि अर्थात् इन (स्त्रियों से) एषु = एसु अर्थात् इनमें। इन उदाहरणों में 'इदम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' अंग रूप की और 'आ' अंग रूप की उपलब्धि दृष्टिगोचर हो रही है; इसका कारण 'बहुलं' सूत्र ही जानना ।
अस्मिन संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अस्सि और इमस्सि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७४ से 'इदम्' शब्द के स्थान पर प्राकृत में 'अ' अंग रूप की प्राप्ति और ३-५९ से सप्तमी विभक्ति के एकचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर प्राकृत अंग रूप 'अ' में 'स्सि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप अस्सि सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप इमस्सि की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-६० में की गई है।
अस्य संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अस्स और इमस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७४ से 'इदम्' शब्द के स्थान पर प्राकृत में 'अ' अंग रूप की प्राप्ति और ३- १० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत अंग रूप 'अ' में 'स्स' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप अस्स सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (अस्य) इमस्स में सूत्र संख्या ३-७२ से संस्कृत शब्द 'इदम' के स्थान पर 'इम' अंग रूप की प्राप्ति और ३-१० से प्रथम रूप के समान ही 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप इमस्स भी सिद्ध हो जाता है।
एभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप एहि होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-७४ की वृत्ति से संस्कृत शब्द 'इदम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' अंग रूप की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एहि रूप सिद्ध हो जाता है।
एषु संस्कृत सप्तमी बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप एसु होता है। इसमें ३-७४ की वृत्ति से 'इदम्' के स्थान पर 'ए' अंग रूप की प्राप्ति और १ - २६० से 'ष्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर एसु रूप सिद्ध हो जाता है।
आभिः संस्कृत तृतीया बहुवचान्त स्त्रीलिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप आहि होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-७४ की वृत्ति से मूल संस्कृत शब्द 'इदम्' के स्थान पर प्राकृत में पुल्लिंग में 'अ' अंग रूप की प्राप्ति; ३-३२ और २-४ से पुल्लिंगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माणार्थ प्राप्तांग 'अ' में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आहि रूप सिद्ध हो जाता है ।।३-७४ ।।
डेर्मे न हः ।। ३-७५।।
इदमः कृते मादेशात् परस्य डे स्थाने मेन सह ह आदेशो वा भवति । इह । पक्षे । इमस्सि । इमम्मि ।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्' के प्राकृत रूपान्तर में सूत्र - संख्या ३-७२ से प्राप्तांग 'इम' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि' के प्राप्त होने पर मूलांग 'इम' में स्थित 'म' और 'ङि प्रत्यय इन दोनों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ह' की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- अस्मिन् इह अर्थात् इसमें अथवा इस पर। वैकल्पिक-पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में अस्मिन् = इमस्सि और इमम्मि रूपों का अस्तित्व भी जानना चाहिए।
अस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप इह, इमस्सि और इमम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३-७२ से मूल संस्कृत शब्द 'इदम्' के स्थान पर प्राकृत में 'इम' अंग रूप की प्राप्ति
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 103 और ३-७५ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में सस्कृत प्रत्यय 'ङि' की प्राप्ति होने पर मूलांग 'इम' में स्थित 'म' और प्राप्त प्रत्यय 'ङि' इन दोनों के स्थान पर 'ह' की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप इह सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप इमस्सि की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६० में की गई है।
तृतीय रूप (अस्मिन्-) इमम्मि में 'इम' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-विधानानुसार एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से प्राप्तांग 'इम' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप इमम्मि भी सिद्ध हो जाता है।।३-७५ ।।
न त्थः ॥३-७६॥ इदमः परस्य डेः स्सि म्मि त्थाः (३-५९) इति प्राप्तः त्थो न भवति।। इह। इमस्सि। इमम्मि।। __ अर्थः-सूत्र-संख्या ३-५९ में ऐसा विधान किया गया है कि अकारान्त सर्व-सव्व आदि सर्वनामों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'डि' के स्थान पर 'स्सि' म्मि-त्थ' ऐसे तीन प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होती है; तद्नुसार प्राप्त इन तीनों प्रत्ययों में से अतिम तृतीय प्रत्यय 'त्थ' की इस 'इदम् सर्वनाम के प्राकृत प्राप्तांग 'इम' में प्राप्ति नहीं होती है। अर्थात् 'इम' में केवल उक्त तीनों प्रत्ययों में से प्रथम और द्वितीय प्रत्यय 'स्सि' और 'म्मि' की ही प्राप्ति होती है। जैसे:- अस्मिन् इमस्सि और इमम्मि। सूत्र-संख्या ३-७५ के विधान से 'इम+ङि' इह, ऐसे तृतीया रूप का अस्तित्व भी ध्यान में रखना चाहिए। 'इह' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-७५ में की गई है। 'इमस्सि' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६० में की गई है। 'इमम्मि' रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या ३-७५ में की गई है। ३-७६ ।।
णोम्-शस्टा भिसि ।। ३-७७॥ इदमः स्थाने अम् शस्टा भिस्सु परेषु ण आदेशो वा भवति।। णं पेच्छ। णे पेच्छ। णेण। णेहि कयं। पक्षे। इम। इमे। इमेण। इमेहि।। ___ अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्' के प्राकृत रूपान्तर में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'अम्'; द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'शस्'; तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' और तृतीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस्' के स्थानीय प्राकृत प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर वैकल्पिक रूप से 'ण' अंग रूप की प्राप्ति हुआ करती है। यों संपूर्ण 'इदम्' शब्द के स्थान पर 'ण' अंग रूप की प्राप्ति होकर तत्पश्चात् प्राकृत उक्त विभक्तियों के स्थानीय प्रत्ययों की संयोजना होती है। जैसेः- इमम् पश्य=णं पेच्छ अर्थात् इसको देखो। इमान् पश्य=णे पेच्छ अर्थात् इनको देखो। अनेन=णेण अर्थात् इसके द्वारा। एभिःकृतम्=णेहि कयं अर्थात् इनके द्वारा किया गया है। ये उदाहरण क्रम से द्वितीया और ततीया विभक्तियों के एकवचन के तथा बहवचन के हैं। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में 'ण' के साथ 'इम': 'णे के साथ 'इमे': 'ण' के साथ 'इमेण' और 'णेहि के साथ 'इमेहि रूपों का सदभाव की ध्यान में रखना चाहिये।
इमम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'णं' और इमं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७७ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्' के स्थान पर 'ण' अंग रूप की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रथम रूण 'णं' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'इम' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-७२ में की गई है।
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104 : प्राकृत व्याकरण
'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। ___ इमान् संस्कृत द्वितीया बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'णे' और 'इमे' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'ण' अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'ण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे द्वितीया विभक्ति बहुवचन के प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति
और ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप होकर प्रथम रूप 'णे' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'इमे' की सिद्ध सूत्र-संख्या ३-७२ में की गई है। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।
अनेन संस्कृत तृतीया एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'णेण' और 'इमेण' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'ण' अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'ण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया विभक्ति एकवचन के प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग ‘णे' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'णेण' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'इमेण' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-७२ में की गई है।
एभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है इसके प्राकृत रूप णेहि और 'इमेहि' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'ण' अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त रीति-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'ण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया विभक्ति बहुवचन के प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से प्राप्तांग णे' में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'णेहि' सिद्ध हो जाता है। __ द्वितीया रूप-(एभिः=) इमेहि में सूत्र-संख्या ३-७२ से मूल संस्कृत शब्द 'इदम्' के स्थान पर प्राकृत में 'इम' अंग रूप की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र-संख्या ३-१५ एवं १-७ से प्राप्त होकर द्वितीय रूप 'इमेहि भी सिद्ध हो जाता है। कयं क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।।३-७७।।
अमेणम् ।। ३-७८ ।। इदमोमा सहितस्य स्थाने इणम् इत्यादेशो वा भवति।। इणं पेच्छ। पक्षे। इम।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्' के द्वितीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग प्राप्तव्य प्रत्यय 'अम्' की संयोजना होने पर प्राप्त रूप 'इमम्' के स्थान पर प्राकृत में 'इणम्' रूप की आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। इसमें यह स्थित बतलाई गई है कि- 'इदम् शब्द और अम् प्रत्यय' इन दोनों के स्थान पर 'इणम्' रूप की आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। जैसे:- इमम् पश्य-इणं पेच्छ अर्थात् इसको देखो। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में इमम् का प्राकृत रूप 'इम' भी होता है। __ इमम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप इणं और इमं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७८ से सम्पूर्ण संस्कृत रूप 'इमम्' के स्थान पर प्राकृत में 'इणं रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप इणं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप इमं की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-७२ में की गई है। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।३-७८।।
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क्लीबे स्यमेदमिणमो च ।। ३-७९ ।।
नपुंसकलिङ्गे वर्तमानस्येदमः स्यम्भ्यां सहितस्य इदम् इणमो इणम् च नित्यमा देशा भवन्ति । इदं इणमो इणं धणं चिट्ठा पेच्छ वा।।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 105
अर्थः-संस्कृत सर्वनाम नपुंसकलिंग शब्द 'इदम्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय प्राप्त होने पर और द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय प्राप्त होने पर मूल शब्द 'इदम्' और उक्त प्रत्यय, इन दोनों के स्थान पर नित्यमेव क्रम से 'इदम्, इणमो और इणं' ये तीन आदेश रूप हुआ करते हैं। यों प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति दोनों के एकवचन में समान रूप से 'इदम्' के नपुंसकलिंग में उक्त तीन-तीन रूप होते हैं। ये नित्यमेव होते हैं; वैकल्पिक रूप से नहीं। उदाहरण इस प्रकार हैं:- इदं अथवा इणमो अथवा इणं धणं चिट्ठइ=इदम् धनम् तिष्ठति अर्थात् यह धन विद्यमान है। इदं अथवा इणमो अथवा इणं धनम् पश्य अर्थात् इस धन को देखो । उक्त उदाहरण क्रम से प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति के एकवचन के द्योतक हैं।
इदम् संस्कृत प्रथमा-द्वितीया एकवचनान्त नपुंसकलिंग सर्वनाम रूप है। इसके (दोनों विभक्तियों में समान रूप से) प्राकृत रूप इदं, इणमो और इणं होते हैं। इन तीनों रूपों में सूत्र - संख्या ३-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'इदम्' और प्रथमा द्वितीया के एकवचन में क्रम से प्राप्तव्य संस्कृत प्रत्यय 'सि' और 'अम्' सहित दोनों के स्थान पर क्रम से नित्यमेव 'इदं, इणमो और इणं' रूपों की (प्रत्यय सहित) आदेश प्राप्ति होकर ये तीनों रूप इदं, इणमो और इणं सिद्ध हो जाते हैं।
'घणं' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-५० में की गई हैं
'चिट्ठई' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १९९ में की गई है।
'पेच्छ' क्रिया पद रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २३ में की गई है। । ३-७९ ।।
किमः किं ।। ३-८०॥
किमः क्लीबे वर्तमानस्य स्यम्भ्यां सह किं भवति । किं कुलं तुह । किं किं ते पडिहाइ ||
अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम नपुंसकलिंग शब्द 'किम्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय प्राप्त होने पर और द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय प्राप्त होने पर मूल शब्द 'किम्' और उक्त प्रत्यय, इन दोनों के स्थान पर नित्यमेव 'कि' आदेश रूप की प्राप्ति होती है। तात्पर्य यह है कि 'किम्+ सि' का प्राकृत रूपान्तर 'किं' होता है। और 'किम्+अम्' का प्राकृत रूपान्तर भी 'किं' ही होता है। प्रथमा - द्वितीया दोनों विभक्तियों के एकवचन में समान रूप से ही प्रत्यय सहित मूल शब्द 'किम्' के स्थान पर 'किं' रूप की प्राकृत में नित्यमेव आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः-किम कुलम् तव-किं कुलं तुह अर्थात् तुम्हारा क्या कुल है? (तुम कौन से कुल में उत्पन्न हुए हो ?) यह उदाहरण प्रथमा एकवचन वाला है । किम् किम् ते प्रति भाति - किं किं ते पडिहाइ? तुम्हें क्या क्या मालूम होता है? यह उदाहरण द्वितीया के एकवचन का है।
किम् संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त नपुंसकलिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किं' होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३- ८० से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'किम्' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की संयोजना होने पर शब्द सहित प्रत्यय के स्थान पर 'किं' रूप की नित्यमेव आदेश प्राप्ति होकर किं रूप सिद्ध हो जाता है।
'कुल' रूप की सिद्ध सूत्र - संख्या १ - ३३ मे की गई है।
३-९९
'तव' संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तुह' होता है। इसमें सूत्र - संख्या मूल संस्कृत शब्द 'युष्मद्' में संयोजित षष्ठी एकवचन बोधक संस्कृत प्रत्यय 'ङस=अस्' के कारण से प्राप्त रूप ‘तव' के स्थान पर प्राकृत में 'तुह' रूप की आदेश प्राप्ति होकर 'तुह' सिद्ध हो जाता है।
'किम्' संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त नपुंसकलिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किं' होता है। इसमें सूत्र - संख्या
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106 : प्राकृत व्याकरण
३-८० से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'किम्' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अस्' प्रत्यय की संयोजना होने पर शब्द सहित प्रत्यय के स्थान पर 'किं' रूप की नित्यमेव आदेश प्राप्ति होकर किं रूप सिद्ध हो जाता है।
'ते' संस्कृत चतुर्थी एकवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'ते' ही होता. इसमें सूत्र - संख्या ३ - ९९ से मूल संस्कृत शब्द 'युष्मद्' में संयोजित चतुर्थी एकवचन बोधक संस्कृत प्रत्यय 'ङ' के कारण से संस्कृत आदेश प्राप्त रूप 'ते' के स्थान पर प्राकृत में भी 'ते' रूप की आदेश प्राप्ति और ३ - १३१ चतुर्थी षष्ठी की एकरूपता प्राप्त होकर प्राकृत रूप 'ते' सिद्ध हो जाता है।
प्रतिभाति संस्कृत क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिहाइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १-२०६ से प्रथम 'त्' के स्थान पर 'ड्' की प्राप्तिः १ - १८७ से भ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३- १३९ से वर्तमानकाल प्रथमपुरुष एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पडिहाइ रूप सिद्ध हो जाता है ।। ३-८० ।।
इदम् तद् एतद् इत्येतेषां स्थाने ङस् आम् इत्येताभ्यां सह यथासंख्यं से सिम् इत्यादेशौ वा भवतः।। इदम् । से सीलम् । से गुणा । अस्य शीलं गुणा वेत्यर्थः ।। सिं उच्छाहो। एषाम् उत्साह इत्यर्थः । तद् । से सीलं । तस्य तस्या वेत्यर्थः।। सिं गुणा । तेषां तासां वेत्यर्थः । एतद् । से अहिअं । एतस्याहितमित्यर्थः । । सिं गुणा । सिं सीलं । एतेषां गुणा । शीलं वेत्यर्थः । पक्षे । इमस्स । इमेसिं । इमाण ।। तस्स । तेसिं। ताण ।। एअस्स। एएसिं। एआण । इदं तदोरामापि से आदेशं कश्चिदिच्छति ।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्, तद् और एतद्' के प्राकृत रूपान्तर में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' की संयोजना होने पर मूल उक्त शब्दों और प्रत्ययों दोनों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से एवं क्रम से 'से' रूप की तथा 'सिम्' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है:
(१) इद्म+ङस
(२) इदम्+आम्
(३) तद्+ङस्
(४) तद्+ङस्
(५) तद्+आम् (६) तद्+आम्
(७) एतद् +ङस्
=
=
=
=
वेदं तदे तदो ङसाम्भ्यां से सिमौ ॥३-८१ ।।
-
=
=
(अस्य)
(एषाम्)
(तस्य)
(स्त्रीलिंग में तस्याः)
(तेषाम्)
(स्त्रीलिंग में तासाम्)
का प्राकृत आदेश प्राप्त रूप
का प्राकृत आदेश प्राप्त रूप
का प्राकृत आदेश प्राप्त रूप
का प्राकृत आदेश प्राप्त रूप
का प्राकृत आदेश प्राप्त रूप का प्राकृत आदेश प्राप्त रूप
का प्राकृत आदेश प्राप्त रूप
(एतस्य = ) (एतेषां=)
(८) एतद्+आम्
का प्राकृत आदेश प्राप्त रूप
इस प्रकार शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पर उक्त रूप से 'से' अथवा 'सिं' रूपों की षष्ठी विभक्ति एकवचन में एवं बहुवचन में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति हुआ करती है । वाक्यात्मक उदाहरण इस प्रकार है: - 'इदम् ' से संबंधित :- अस्य शीलम् = से सीलं अर्थात् इसका शील-धर्म; अस्य गुणा:- से गुणा अर्थात् इसके गुण-धर्म; एषाम् उत्साहः=सिं उच्छाहो अर्थात् इनका उत्साह । 'तद्' से संबंधितः तस्य शीलम् =से सीलं अर्थात् उसका शील-धर्म; तस्याःशीलं=से सीलं अर्थात् उस (स्त्री) का शील-धर्म; तेषाम! गुणाः- सिं गुणा- उनके गुण-धर्म; तासाम् गुणाः=सिं गुणा अर्थात् उन (स्त्रियों) के गुण-धर्म | 'एतद्' से संबंधित :- एतस्य अहितम् - से अहिअं अर्थात् इसकी हानिं अर्थात् अहित; एतेषाम् गुणा=सिं गुणा अर्थात् इनके गुण-धर्म और एतेषाम् शीलम् = सिंह सीलं अर्थात् इनका शील-धर्म । इन उदाहरणों से
'से''
'सिं" ।
'सें'।
'से''
'सिं'।
'सें'।
'से' ।
'सिं'।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 107 स्पष्ट हो जाता है कि 'इदम्' तद् और एतद्' सर्वनामों के षष्ठी विभक्ति के एकवचन में समान रूप से 'से' और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में भी समान रूप से 'सिं' रूप की आदेश प्राप्ति होती है।
वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में 'इदम्, तद् और एतद्' के जो दूसरे रूप होते हैं; वे एकवचन और बहुवचन में क्रम से इस प्रकार हैं:- इदम् के (अस्य) इमस्स और (एषाम्) इमेसिं और इमाण । तद् के ( तस्य = ) तस्स और ( तेषाम = ) तेसिं और ताण । एतद् के ( एतस्य = ) एअस्स और (एतेषाम् = ) एएसिं और एआण । कोई-कोई व्याकरण-कार 'इदम्' और 'तद्' सर्वनामों के प्राकृत रूपान्तर में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में भी एकवचन के समान ही 'मूल शब्द और आम्' प्रत्यय के स्थान पर 'से' आदेश प्राप्ति मानते हैं। इन व्याकरणकारों की ऐसी मान्यता के कारण से षष्ठी विभक्ति के दोनों वचनों में 'शब्द और प्रत्यय के स्थान पर' 'से' रूप की प्राप्ति होकर 'एकरूपता' का सद् भाव होता है।
अस्य संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त सर्वनाम पुल्लिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप 'से' और इमस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-८१ से सम्पूर्ण रूप 'अस्य' के स्थान पर प्राकृत में 'से' रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप से सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'इमस्स' की सिद्धि सूत्र संख्या ३-७४ में की गई हैं।
शीलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सीलं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २६० से 'श' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'सील' रूप सिद्ध हो जाता है।
गुणाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गुणा होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३- १२ से मूल अंग 'गुण' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर ' आगे प्रथमा विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर 'गुणा' रूप सिद्ध हो जाता है।
एषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सिं', 'इमेसिं' और 'इमाण' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३-८१ से सम्पूर्ण रूप 'एषाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'सिं' रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सिं' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय और तृतीय रूप 'इमेसिं' तथा 'इमाण' की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ६१ में की गई है।
'उच्छाहो' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ११४ में की गई
तस्य संस्कृत पुल्लिंग षष्ठी एकवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'से' और तस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३-८१ से सम्पूर्ण रूप 'तस्य' के स्थान पर प्राकृत में 'से' रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'से' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'तस्स' की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८६ में की गई है।
'सील' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में उपर की गई है।
तेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सिं', 'तेसिं' और 'ताण' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३-८१ से सम्पूर्ण रूप 'तेषाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'सि' रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सि' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप सिं की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ६१ में की गई है।
तृतीय रूप 'ताण' की सिद्धि सूत्र संख्या ३-३३ में की गई है। 'गुणा' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
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108 : प्राकृत व्याकरण ___'एतस्य' संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप से' और 'एअस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-८१ से संपूर्ण रूप 'एतस्य' के स्थान पर प्राकृत में 'सेरूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'से सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (एतस्य=) एअस्स में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप ३-१० से प्राप्तांग 'एअ' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस् अस्-स्य' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स्स' प्रित्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'एअस्स' की सिद्धि हो जाती है।
अहितम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अहिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप अहिअं सिद्ध हो जाता है। ___ एतेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सिं' और 'एएसिं' तथा 'एआण' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-८१ से संपूर्ण रूप 'एतेषाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'सिं' रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सिं' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'एएसिं' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६१ में की गई है। तृतीय रूप 'एआण' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६१ में की गई है। 'गुणा' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। "सील' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।।३-८१।।
वैतदो ङसेस्तो त्ताहे ।। ३-८२।। एतदः परस्य उसेः स्थाने तो ताहे इत्येतावादेशौ वा भवतः।। एत्तो। एत्ताहे। पक्षे। एआओ। एआउ। एआहि। एआहिन्तो। एआ।।
अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'एतद्' के प्राकृत रूपान्तर में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्-िअस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से (एवं क्रम से) 'त्तो और ताहे' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- एतस्मात् एत्तो और एत्ताहे। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में निम्नोक्त पांच रूपों का सद्भाव और जाननाः- (एतस्मात्=) एआओ, एआउ, एआहि, एआहिन्तो और एआ अर्थात् इससे। ___एतस्मात् संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एत्तो, एत्ताहे, एआओ, एआउ, एआहि, एआहिन्तो और एआ होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या २-११ मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-८३ से 'त' का लोप और ३-८२ से प्राप्तांग 'ए' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'त्तो और त्ताहे' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से प्रथम दोनों रूप-'एत्तो और एत्ताहे सिद्ध हो जाते हैं।
शेष पांच रूपों (एतस्मात्-) 'एआओ, एआउ, एआहि, एआहिन्तो और एआ में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-१२ से प्राप्तांग 'एअ' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे पंचमी-विभक्ति के एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-८ से प्राप्तांग 'एआ' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि-अस' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ओ, उ, हि, हिन्तो और लुक्' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से पांचों रूप एआओ, एआउ, एआहि, एआहिन्तो और एआ' रूप सिद्ध हो जाते हैं। ३-८२।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 109 त्थे च तस्य लुक् ।। ३-८३।। एतद् स्त्थे पर चकारात् त्तो ताहे इत्येतयोश्र परयोस्तस्य लुग् भवति।। एत्थ। एत्तो। एत्ताहे।।
अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'एतद्' में स्थित संपूर्ण व्यञ्जन 'त' का 'त्थ' प्रत्यय और 'त्तो, त्ताहे' प्रत्यय परे रहने पर नित्यमेव लोप हो जाता है। जैसे:- एतस्मिन् एत्था एतस्मात् एत्तो और एत्ताहे।
एतस्मिन संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पल्लिग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकत रूप एत्थ होता है। इसमें सत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-८३ से 'त' का लोप और ३-५९ से प्राप्तांग 'ए' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकत में 'त्थ प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'एत्थ' सिद्ध हो जाता है। एत्तो और एत्ताहे रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८२ में की गई है। ३-८३।।
एरदीतो म्मौ वा।।३-८४॥ एतद एकारस्य ड्यादेशे म्मौ परे अदीतौ वा भवतः। अयम्मि। ईयम्मि। पक्षे। एअम्मि।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'एतद्' के प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के प्राकृत स्थानीय प्रत्यय 'म्मि' परे रहने पर मूल शब्द 'एतद्' में स्थित 'ए' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से तथा क्रम से 'अ' और 'ई' की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- एतम्मिन् अयम्मि अथवा ईयम्मि। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में एअम्मि रूप का भी सद्भाव ध्यान में रखना चाहिये। __एतस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अयम्मि, इयम्मि और एअम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुये 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुये 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति, ३-८४ से आदि 'ए' के स्थान पर क्रम से और वैकल्पिक रूप से 'अ' अथवा 'ई' की प्राप्ति और ३-११ से क्रम से प्राप्तांग 'अय'
और 'ईय' से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से प्रथम दोनों रूप अयम्मि और इयम्मि सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय रूप-(एतस्मिन्-) एअम्मि में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-११ से प्राप्तांग 'एअ' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर तृतीय रूप एअम्मि भी सिद्ध हो जाता है।।३-८४॥
वैसेणमिणमो सिना।।३-८५॥ एतदः सिना सह एस इणम् इणमो इत्यादेशा वा भवन्ति॥ सव्वस्स वि एस गई। सव्वाण वि पत्थिवाण एस मही। एस सहाओ चिअ ससहरस्स।। एस सिरं। इण। इणमो। पक्षे। एअं एसो। एसो।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'एतद्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' की संयोजना होने पर मूल शब्द 'एतद्' और प्रत्यय 'सि' दोनों के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से (एवं क्रम से) 'एस, इणं और इणमो' इन तीन रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। एतद्+सि- (प्राकृत में) एस अथवा इणं अथवा इणमो; इस प्रकार इन तीन रूपों की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- सर्वस्यापि एषा गति-सव्वस्स वि एस गई अर्थात् सभी की यह गति है। सर्वेषामपि पार्थिवानाम एषा मही -सव्वाण वि पत्थिवाण एस मही अर्थात् सभी
औदारिक शरीर धारी जीवों की यह पृथ्वी है। एषः एव स्वभावो शशधरस्य-एस सहाओ चिअ ससहरस्स अर्थात् चन्द्रमा का यही स्वभाव है। एतद् शिरः एस सिरं अर्थात् यह शिर है। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि प्राकृत में 'एस' प्रथमा एकवचनान्त सर्वनाम रूप तीनों लिगों में समान रूप से एवं वैकल्पिक रूप से प्रयुक्त हुआ करता है। यही स्थित 'एतद्+सिं-इणं
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110 : प्राकृत व्याकरण
और इणमो रूपों की भी समझ लेनी चाहिये। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में 'एतद्' शब्द के तीनों लिंगों में 'सि' प्रत्यय की संयोजना होने पर इस प्रकार रूप बनते हैं :
नपुंसकलिंग में:-एतद्+सि=एतद्-ए। स्त्रीलिंग में:- एतद-सि-एषा एसा। पुल्लिग में:- एतद्+सिएषः एसो। 'सव्वस्स' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५८ में की गई है। 'वि' अव्यय की सिद्धि-संख्या १-६ में की गई है। 'एस' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है। 'गई' की सिद्धि सूत्र-संख्या २-११५ में की गई है।
सर्वेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वाण होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'सर्व' में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुये 'र' के पश्चात् शेष रहे हुये 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्तांग 'सव्व' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के 'आगे षष्ठी बहुवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'सव्वा' में षष्टी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'सव्वाण' सिद्ध हो जाता है।
'वि' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है।
पार्थिवानाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पत्थिवाण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'पा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' के स्थान पर 'त्' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्तांग 'पत्थिव' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के 'आगे षष्ठी बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग ‘पत्थिवा' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'पत्थिवाण सिद्ध हो जाता है।।
एषा संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्रीलिग विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप एस (भी) होता हैं इसमें सूत्र-संख्या ३-८५ से संपूर्ण रूप 'एषा' के स्थान पर 'एस' की (वैकल्पिक रूप से) आदेश प्राप्ति होकर 'एस' रूप सिद्ध हो जाता है।
महिः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप मही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में शब्दान्त्य हस्व स्वर इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर मही रूप सिद्ध हो जाता है। 'एस' की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है।
स्वभावः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप सहाओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से प्रथम 'व्' का लोप; १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'व् का लोप और ३-२ से प्राप्तांग 'सहाअ' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सहाओ रूप सिद्ध हो जाता है।
'च्चिअ' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८ में की गई है।
शशधरस्य संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त पुल्लिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप ससहरस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से दोनों 'शकारों के स्थान पर दोनों 'सस' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१० से प्राप्तांग 'ससहर' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्-अस्-स्य' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स्स' की प्राप्ति होकर ससहरस्स रूप की सिद्धि हो जाती है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 111 'एस' विशेषण रूप सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है। "सिरं रूप सिद्धि सूत्र-संख्या १-३२ में की गई है। 'इण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-२०४ में की गई है।
एषः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इणमो भी होता है। इससे सूत्र-संख्या ३-८५ से 'एष' के स्थान पर 'इणमो की आदेश प्राप्ति (वैकल्पिक रूप से) होकर इणमो रूप सिद्ध हो जाता हैं।
'एअं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। 'एसा' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३३ में की गई है। 'एसो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-११६ में की गई है।।३-८५।।
तदश्च तः सोक्लीबे ॥३-८६।। तद एतदश्च तकारस्य सौ परे अक्लीबे सो भवति।। सो पुरिसो। सा महिला। एसो पिओ। एसा मुद्धा।। सावित्येव। ते एए धन्ना। ताओ एआओ महिलाओ ।। अक्लीब इति किम्। तं एवणं। ___ अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'तद्' और 'एतद् के पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'सि' के स्थानीय प्राकृत प्रत्यय परे रहने पर प्राकृत रूपान्तर में इन दोनों शब्दों में स्थित पूर्ण व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- (तद्+सि-) सः पुरुषः सो पुरिसो और (तद्+सि=) सा महिला सा महिला। (एतद्+सि=) एषः प्रियः एसो पिओ और (एतद्+सि=) एषा मुग्धा एसा मुद्धा। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि 'तद्' और 'एतद्' के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में पुल्लिंग और स्त्रीलिंग में 'त' के स्थान पर 'स' की आदेश प्राप्ति हुई है।
प्रश्नः- 'सि' प्रत्यय परे रहने पर ही 'तद्' और 'एतद्' के 'त' व्यञ्जन के स्थान पर 'स' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- 'सि' प्रत्यय के अतिरिक्त अन्य प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर 'तद्' और 'एतद्' में स्थित 'त' व्यञ्जन के स्थान पर 'स' की प्राप्ति नहीं होती है; इसीलिये 'सि' प्रत्यय का उल्लेख किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है:- ते एते धन्याः ते एए धन्ना और ताः एताः महिलाः ताओ एआओ महिलाओ। इन उदाहरणों से विदित होता है कि 'तद्' और 'एतद्' शब्दों में 'सि' प्रत्यय के अतिरिक्त अन्य प्रत्यय परे रहे हुए हों तो इनमें स्थित 'त' व्यञ्जन के स्थान पर 'स' व्यञ्जन की आदेश प्राप्ति नहीं होती है।
प्रश्नः- सूत्र में वर्णित-विधान में नपुंसकलिंग का निषेध क्यों किया गया है?
उत्तर:- नपुंसकलिंग में 'तद्' और 'एतद्' शब्द में 'सि' प्रत्यय परे रहने पर भी प्राकृत रूपान्तर में 'त' व्यञ्जन के स्थान पर 'स' व्यञ्जन की आदेश प्राप्ति नहीं होती है; इसलिये 'नपुंसकलिंग' का निषेध किया गया हैं। उदाहरण इस प्रकार है:- तत् एतत् वनम्=तं एअंवणं अर्थात् यह वही वन है। इस प्रकार यह प्रमाणित होता है कि केवल पुल्लिग और स्त्रीलिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ही 'तद्' और 'एतद्' के प्राकृत रूपान्तर में 'त' के स्थान पर 'सि' प्रत्यय परे रहने पर 'स' की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं।
'सो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९७ में की गई है। 'पुरिसो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है। 'सा' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३३ में की गई है। 'महिला' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४६ में की गई है। 'एसो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-११६ में की गई है। "पिओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है। 'एसा' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३३ में की गई है।
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112 : प्राकृत व्याकरण
'मुद्धा' रूप की सिद्धि-संख्या ३-२९ में की गई है। 'ते' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५८ में की गई है। 'एए' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है। 'घन्ना रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१८४ में की गई है।
'ताः' संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप ताओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-३२ और २-४ के निर्देश से प्राप्तांग 'त' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२७ से प्राप्तांग 'ता' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति 'ताओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___एताः संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण है। इसका प्राकृत रूप एआओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-३२ और २-४ के निर्देश से प्राप्तांग 'एअ' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२७ से प्राप्तांग 'एआ' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय का प्राप्ति होकर 'एआओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
महिलाः संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त स्त्रीलिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप महिलाओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२७ से मूल रूप 'महिला' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'महिलाओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'त' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४१ में की गई है। 'एअं रूप सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। 'वणं' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७२ में की गई है। -३-८६।।
वादसो दस्य होनोदाम् ।। ३-८७।। अदसो दकारस्य सौ परे ह आदेशो वा भवति तस्मिंश्च कृते अतः सेडोः (३-३) इत्योत्वं शेषं संस्कृतवत् (४-४४८) इत्यतिदेशात् आत् (हे २-४) इत्याप् क्लीबे स्वरान्म् सेः (३-२५) इतिमश्च न भवति।। अह पुरिसो। अह महिला। अह वणं अह मोहो पर-गुण-लहुअयाइ।। अह णे हिअएण हसइ मारुय-तणओ। असावस्मान् हसतीत्यर्थः। अह कमल-मुही। पक्षे उत्तरेण मुरादेशः। अमू पुरिसो। अमू महिला। अमुंवणं।। ___ अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अदस्' के तीनों लिगों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' परे रहने पर प्राकृत रूपान्तर में प्रत्यय सि' का लोप उस समय में हो जाता है जब कि मूल शब्द 'अदम' में स्थित 'द' के स्थान पर 'ह' आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है; इस प्रकार तीनों लिंगों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में समान रूप से अदस् का प्राकृत में अह' रूप वैकल्पिक रूप से हुआ करता है। इस विधान से पुल्लिंग में सूत्र-संख्या ३-३ से प्राप्त प्रत्यय 'डो-ओ' की प्राप्ति भी नहीं होती है; ४-४४८ और २-४ के निर्देश से पुल्लिंगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'अदस्' में 'आ' प्रत्यय का सद्भाव भी नहीं होता है एवं ३-२५ से नपुंसकलिंग में प्राप्त प्रत्यय 'म्' की संयोजना भी नहीं होती है; यों तीनों लिंगों में प्रथमा के एकवचन में समान रूप से 'अदस्' का 'अह' रूप ही जानना। उदाहरण इस प्रकार हैं:- असौ पुरुषः अह पुरिसो अर्थात् वह पुरुष; असौ महिला=अह महिला अर्थात् वह स्त्री और अदः वनम् अह वणं अर्थात् वह जंगल। यों यह यह ज्ञात होता है कि 'अदस्' के तीनों लिंगों में प्रथमा के एकवचन में समान रूप से 'ओ, आ और म्' प्रत्ययों की अदर्शन-स्थिति' होकर एक ही रूप'अह' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। इस विषयक अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं :- असौ मोहः पर-गुण लध्वयाते-अह मोहो पर-गुण- लहुअयाइ-वह मोह दूसरों के गुणों को लघु कर देता है (अर्थात् मोह के कारण से अन्य गुणवान् पुरुष के गुण भी हीन प्रतीत होने लगते हैं।) असौ अस्मान् हदयेन हसति
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 113 मारूततनयः अह णे हिअएण हसइ मारूय-तणओ=वह मारूत-पुत्र हृदय से हमारी हंसी करता है; (हमें हीन-दृष्टि से देखकर हमारा मजाक करता है) असौ कमल-मुखी-अह कमल-मुही अर्थात् वह (स्त्री) कमल के समान मुखवाली है।
वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ३-८८ के विधान से 'अद्स' में स्थित 'द्' व्यञ्जन के स्थान पर 'सि' आदि प्रत्ययों के परे रहने पर 'मु' आदेश की प्राप्ति होती है। तदनुसार 'अदस्' शब्द के स्थान पर प्राकृत में अंगरूप से 'अमु का सद्भाव भी होता है। जैसे:- असौ पुरुषः अमू पुरिसो; असौ महिला=अमू महिला और अदः वनम् अमुंवणं।
असौ संस्कृत प्रथमा एकचनान्त पुल्लिग विशेषण और सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अह और अमू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'अदस्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप और ३-८७ से 'द' के स्थान पर 'ह' व्यञ्जन की आदेश प्राप्ति एवं इसी सूत्र से प्रथमा एकवचन बोधक प्रत्यय 'सि-स्' के स्थानीय प्राकृत प्रत्यय 'डो-ओ' का लोप होकर प्रथम रूप अह सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (अदस्+सि-असौ-) अमू में सूत्र-संख्या १-११ से मूल शब्द 'अदम' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'स' का लोप; ३-८८ से 'द' के स्थान पर 'मु' की आदेश प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हस्व 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति होकर प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिग द्वितीय रूप अमू सिद्ध हो जाता है। ___ 'पुरिसो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है।
असौ संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण (और सर्वनाम) रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अह' और 'अमू' होते हैं। दोनों रूपों की साधनिका उपर्युक्त पुल्लिंग रूपों के समान होकर 'अह' और 'अम' सिद्ध हो जाते हैं।
'महिला' रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या १-२४६ में की गई हैं।
अदः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त नपुंसकलिंग विशेषण (और सर्वनाम) रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अह' और 'अमु' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप की साधनिका उपर्युक्त पुल्लिंग रूप के समान ही होकर प्रथम रूप 'अह' सिद्ध हो जाता है। __ द्वितीय रूप (अदः) अमुं में 'अमु' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त पुल्लिंग रूप में वर्णित विधि अनुसार और तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अमुं सिद्ध हो जाता है।
'वणं' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७२ में की गई है। 'अह' पुल्लिंग रूप की सिद्धि इसी सूत्र में उपर की गई है।
'मोहः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिग संज्ञा रूप हैं इसका प्राकृत रूप मोहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि-स्' के स्थान पर प्राकृत में 'डो ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मोहो' रूप सिद्ध हो जाता है। __पर-गुण-लध्वयाते संस्कृत क्रियापद रूप है इसका प्राकृत रूप पर-गुण-लहु-अयाइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से (लघु+अयाते में स्थित) घ्' के स्थान पर ह' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत आत्मनेपदीय प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पर-गुण लहुअयाइ रूप सिद्ध हो जाता है। 'अह' पुल्लिंग रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
अस्मान् संस्कृत द्वितीया बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप ‘णे' (भी) होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१०८ से मूल संस्कृत शब्द 'अस्मद्' के द्वितीया बहुवचन बोधक रूप 'अस्मान्' के स्थान पर प्राकृत में 'णे' रूप की आदेश प्राप्ति होकर 'णे' रूप सिद्ध हो जाता है।
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114 : प्राकृत व्याकरण
हृदयेण संस्कृत तृतीया एकवचनान्त संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप हिअएण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' और 'य' का लोप; ३-१४ से प्राप्तांग हृदय से हिअअ' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे तृतीया विभक्ति के एकवचन बोध प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'हिअए' में तृतीया विभक्ति के एकवचन से संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हिअएण' रूप सिद्ध हो जाता है। 'हसइ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९८ में की गई है।
मारुत-तनयः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप मारुय-तणओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से प्रथम 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुये 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्तांग 'मारूअ-तणअ' में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मारूय-तणओ रूप सिद्ध हो जाता है।
'अह' रूप सिद्धि ऊपर इसी-सूत्र में की गई है।
कमल-मुखी संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप कमल-मुही होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमाविभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' को यथावत् स्थिति प्राप्त होकर कमल-मुही रूप सिद्ध हो जाता है।
पुरिसो रूप की सिद्धि-सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है। महिला रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४६ में की गई है। वणं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७२ में की गई है।।३-८७।।
मुःस्यादौ ३-८८।। अदसो दस्य स्यादौ परे मुरादेशो भवति।। अमू पुरिसो। अमुणो पुरिसा। अमुंवणं। अमूई वणइं। अमूणि वणाणि। अमू माला। अमूउ अमूओ मालाओ। अमुणा। अमूहि।। उसि। अमूओ। अमूठ। अमूहिन्तो।। भ्यस्। अमूहिन्तो। अमूसुन्तो।। उस्। अमुणो। अमुस्स। आम् अमूण।। डि अमुम्मि।। सुप्। अमूसु।।। ___ अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अदस्' के प्राकृत रूपान्तर में विभक्तिबोधक प्रत्यय 'सि' आदि परे रहने पर मूल शब्द 'अदस्' में स्थित 'द' व्यञ्जन के स्थान पर (प्राकृत में) 'मु व्यञ्जन की आदेश- प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है- असौ पुरुषः अमू पुरिसो। अमी पुरुषाः अमुणो पुरिसा। अदः वनम् अमुंवणं। अमूनि वनानि अमूई वणाई अथवा अमूणि वणाणि। असौ माला=अमू माला। अमू माला।। अमूउ अथवा अमूओ मालाओ। अन्य विभक्तियों के रूप इस प्रकार है:विभक्ति नाम
एकवचन
बहुवचन तृतीया (अमुना=)
अमुणा।
(अमीभिः=) अमूहि।। पंचमी (अमुष्मात्-)
अमूओ, अमूउ, (अमीभ्यः=) अमूहिन्तो अमूहिन्तो।
अमूसुन्तो। षष्ठी (अमुष्य=)
अमुणो अमुस्स। (अमीषाम्=) अमूण। सप्तमी (अमुष्मिन्-)
(अमीषु=) अमूसु। उपर्युक्त विभक्तियों में इन वर्णित रूपों के अतिरिक्त अन्य रूपों का सद्भाव 'गुरु' आदि उकारान्त शब्दों के रूपों के समान ही जानना चाहिये।
अमुम्मि।
अनु
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 115 स्त्रीलिंग में 'अमू' सर्वनाम शब्द के रूप 'वहू' आदि दीर्घ ऊकारान्त शब्दों के रूपों के समान ही समझ लेना चाहिये। 'अमू' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-८७ में की गई है।
'पुरिसो' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-४२ में की गई है।
अमी संस्कृत प्रथमा बहुचनान्त पुल्लिंग विशेषण ( और सर्वनाम ) रूप है। इसका प्राकृत रूप अमुणो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द 'अदस्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'स्' का लोप; ३-८८ से 'द' के स्थान पर 'मु' व्यञ्जन की आदेश प्राप्ति और ३- २२ से प्राप्तांग 'अमु' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में (उकारान्त- पुल्लिंग में ) संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में ' णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अमुणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुरिसा' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या २- २०२ में की गई है।
'अमुं' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-८७ में की गई है।
'वर्ण' रूप की सिद्धि - सूत्र - संख्या १ - १७२ में की गई है।
संस्कृत प्रथमा द्वितीया बहुवचनान्त नपुंसकलिंग विशेषण ( और सर्वनाम ) रूप है। इसके प्राकृत रूप अमू और अमूणि होते हैं। इनमें ' अमु' अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३ - २६ से प्राप्तांग 'अमु' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति कराते हुए क्रम से 'इं' और 'णि' प्रत्यय की प्रथमा द्वितीया बहुवचन में एवं नपुंसक लिंगार्थ प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप अमूइं और अमूणि सिद्ध हो जाते हैं।
वनानि संस्कृत प्रथमा व द्वितीया बहुचनान्त संज्ञा रूप है इसका प्राकृत रूप वणाणि होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-२२८ से मूल संस्कृत शब्द 'वन' में स्थित 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३ - २६ से प्राप्तांग 'वण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति कराते हुए नपुंसकलिंगार्थ प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में प्राकृत में 'णि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वणाणि रूप सिद्ध हो जाता है।
असौ संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण (और सर्वनाम) रूप है। इसका प्राकृत रूप अमू होता है। इसमें 'अमु' अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में उकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य ह्रस्व 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर अमू रूप सिद्ध हो जाता है।
'माला' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या २ - १८२ में की गई है।
अमू संस्कृत प्रथमा-द्वितीया बहुवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण ( और सर्वनाम ) रूप है। इसके प्राकृत रूप अमूड और अओ होते हैं। इनमें 'अमु' अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - २७ से प्राप्तांग 'अमु' स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति कराते हुए प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर दोनों विभक्तियों में समान रूप से 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर दोनों रूप अमू और अमुओ सिद्ध हो जाते हैं।
'मालाओ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३ - २७ में की गई है।
अमुना संस्कृत तृतीया एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप अमुणा होता है। इसमें 'अमु' अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त विधि- अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - २४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अमुणा' रूप सिद्ध हो जाता है।
अमीभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप अमूहिं होता है। इसमें 'अमु' अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - १६ से प्राप्तांग 'अमु' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को आगे तृतीया बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमूहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
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116 : प्राकृत व्याकरण ___ अमुष्मात् संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अमूओ, अमूठ और अमूहिन्ता होते हैं। इनमें 'अमुरूप की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अमू' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' के आगे पञ्चमी एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति और ३-८ से प्राप्तांग 'अमू में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय "ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ओ-उ-हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से 'अमूओ, अमूउ, और अमूहिन्तो' रूप सिद्ध हो जाते हैं। ____ अमीभ्यः संस्कृत पञ्चमी बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अमूहिन्तो और अमूसुन्तो होते हैं। इनमें 'अम्' अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१६ से प्राप्तांग 'अमु में स्थित
अन्त्य हस्व स्वर 'उ' के आगे पञ्चमी बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति और ३-९ से प्राप्तांग 'अमू' में पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'हिन्तो' और 'सुन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर अमूहिन्तो और अमूसुन्तो रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ अमुष्य संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अमुणो और अमुस्स होते हैं। इनमें 'अमु अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२३ से प्रथम रूप में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस अस' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर प्रथम रूप अमुणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'अमुस्स' में सूत्र-संख्या ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय ‘ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अमुस्स भी सिद्ध हो जाता है। __ अमीषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप अमूण होता है। इसमें अमु' अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अमु' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' के आगे षष्ठी बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'अमु में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमूण रूप सिद्ध हो जाता है। ___अमुष्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप अमुम्मि होता है। इसमें 'अमु अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से प्राप्तांग 'अमु में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय ङि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर अमुम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। ___अमीषु संस्कृत सप्तमी बहुचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है इसका प्राकृत रूप अमूसु होता है। इसमें 'अमु' अंग रूप की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१६ से प्राप्तांग 'अम' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' के आगे सप्तमी विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय होने से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'अमू' में संस्कृत प्रत्यय 'सुप्' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमूसु रूप सिद्ध हो जाता है।।३-८८॥
म्भावये औ वा ।। ३-८९॥ __ अदसोन्त्य व्यञ्जन लुकि दकारान्तस्य स्थाने उयादेशे म्मो परतः अय इअ इत्यादेशौ वा भवतः।। अयम्मि। इयम्मि। पक्षे। अमुम्मि।। ___अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अदस्' के प्राकृत रूपान्तर में सूत्र-संख्या १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'स्' का लोप होने के पश्चात् शेष रूप 'अद' में स्थित अन्त्य सम्पूर्ण व्यञ्जन 'द' सहित 'अद के स्थान पर सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि=इ' के स्थान पर आदेश प्राप्त प्रत्यय 'म्मि' परे रहने पर वैकल्पिक रूप से (और क्रम से) 'अय' और 'इय' अंग रूपों की प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:- अमुष्मिन् अयम्मि और इयम्मि
अर्थात् उसमें। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में (अमुष्मिन्=) अमुम्मि रूप का भी सद्भाव होता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 117 अमुष्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अयम्मि, इयम्मि और अमुम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'अदस्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'स्' का लोप; ३-८९ से शेष सम्पूर्ण रूप 'अद' के स्थान पर 'आगे' सप्तमी एकवचन बोधक प्रत्यय 'म्मि' का सद्भाव होने से क्रम से 'अय' ओर 'इय' अंग रूपों की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से प्रथम और द्वितीय रूप अयम्मि और इयम्मि सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप-(अमुष्मिन्-) अमुम्मि की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८८ में की गई है। ३-८९।।
युष्मद स्तं तुं तुवं तुह तुमं सिना ॥३-९०॥ युष्मदः सिना सह तं तु तुवं तुह तुम इत्येते पञ्चादेशा भवन्ति।। तं तु तुवं तुह तुमं ट्ठिो।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि', की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर आदेश-प्राप्त संस्कृत रूप 'त्वम्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से पांच रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे पांच रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- (त्वम्=) तं, तुं, तुवं, तुह और तुम। उदाहरण इस प्रकार हैं:- त्वम् दृष्टः=तं, (अथवा) तुं' (अथवा) तुवं, (अथवा) तुह (अथवा) तुमं दिट्ठो अर्थात् तू देखा गया। ___ त्वम् संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनामरूप है। इसके प्राकृत रूप तं, तुं, तुवं, तुह और तुम' होते हैं। इन पांचों में सूत्र-संख्या ३-९० से त्वम्' के स्थान पर इन पांचों रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर ये पांच रूप . क्रम से तं, तुं, तुवं, तुह और तुम सिद्ध हो जाते हैं। __ दृष्टः संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप दिवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से आदेश-प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति; २-९० से आदेश-प्राप्त पूर्व'' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग 'दिट्ट' में अकारान्त पुल्लिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर दिवो रूप सिद्ध हो जाता है।।३-९०॥
भे तुब्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उव्हे जसा।। ३-९१॥ - युष्मदो जसा सह भे तुब्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उय्हे इत्येते षडादेशा भवन्ति।। भे तुब्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उय्हे चिट्ठह। ब्मो म्हज्झौ वा (३-१०४) इति वचनात् तुम्हे। तुज्झे एवं चाष्टरूप्यम्॥ ___ अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'यूयम्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से छह रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे छह रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- भे, तुब्भे, तुज्झ, तुम्ह, तुम्हे और उरहे। उदाहरण इस प्रकार है:-यूयम् तिष्ठथ भे, (अथवा) तुब्भे, (अथवा) तुज्झ, (अथवा) तुम्ह, (अथवा) तुम्हे और (अथवा) उव्हे चिट्ठह अर्थात् तुम खड़े होते हो। सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से आदेश-प्राप्त द्वितीय रूप 'तुब्भे' में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से म्ह' और 'ज्झ' की क्रम से आदेश प्राप्ति हुआ करती है; तदनुसार उक्त छह रूपों के अतिरिक्त दो रूप और इस प्रकार होते हैं:- 'तुम्हे और तुझे; यों यूयम्' के स्थान पर प्राकृत में कुल आठ रूपों की क्रम से (एवं वैकल्पिक रूप से) आदेश प्राप्ति हुआ करती है।
यूयम् संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप आठ होते है:- भे, तुब्भे, तुज्झ, तुम्ह, तुम्हे, उव्हे, तुम्हे और तुज्झ। इनमें से प्रथम छह रूपों में सूत्र-संख्या ३-९१ से सम्पूर्ण संस्कृत रूप 'यूयम्' के स्थान पर इन छह रूपों की आदेश प्राप्ति होकर ये छह रूप-भे, तुब्भे, तुज्झ, तुम्ह, तुम्हे, उव्हे और उव्हे सिद्ध हो जाते हैं।
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118 : प्राकृत व्याकरण
शेष दो रूपों में-(याने यूयम्-) तुम्हे ओर तुझे में सूत्र-संख्या ३-१०४ से आदेश प्राप्त द्वितीय रूप 'तुब्भे' में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान 'म्ह और 'ज्झ' अंश रूप की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से सातवां और आठवां रूप 'तुम्हे एवं तुझे भी सिद्ध हो जाते हैं। ___ तिष्ठथ संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप चिट्ठह होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से संस्कृत आदेश-प्राप्त रूप 'तिष्ठ' की मूल धातु 'स्था' के स्थान पर प्राकृत में चिट्ठ' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१४३ से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य परस्मैपदीय प्रत्यय 'थ' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर चिट्ठह रूप सिद्ध हो जाता है।।३-९१।।
तं तुं तुमं तुवं तुह तुमे तुए अमा ।। ३-९२।। युष्मदोमा सह एते सप्तादेशा भवन्ति ।। तं तुं तुमं तुह तुमे तुए वन्दामि।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्म्' की संयोजना होने पर मल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर आदेश-प्राप्त संस्कत रूप 'त्वाम' के स्थान पर प्राकत में क्रम से सात रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे सात रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- तं, तुं, तुमं, तुवं, तुह, तुमे और तुए। उदाहरण इस प्रकार है:- (अहम्) त्वाम् वन्दामि= (अहं) तं, (अथवा) तुं, (अथवा) तुमं, (अथवा) तुवं, (अथवा) तुह, (अथवा) तुमे और (अथवा) तुए वन्दामि अर्थात् (मैं) तुझे वन्दन करता हूं।
त्वाम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप सात होते हैं। तं, तुं, तुम, तुवं, तुह, तुमे और तुए। इन सातों रूपों में सूत्र-संख्या ३-९२ से संस्कृत रूप 'त्वाम्' के स्थान पर क्रम से इन सातों रूपों की आदेश प्राप्ति होकर ये सातों रूप क्रम से 'तं, तुं, तुम तुवं, तुह, तुमे और तुए सिद्ध हो जाते हैं। 'वन्दामि क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है।।३-९२।।
वो तुज्झ तुब्भे तुम्हे उव्हे भे शसा ॥३-९३॥ युष्मदः शसा सह एते षडादेशा भवन्ति। वो तुज्झ तुब्भ।। ब्भो म्हज्झौ वेति वचनात् तुम्हे तुझे तुम्हे उय्हे भे पेच्छामि।। ____ अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्=अस्' की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर आदेश-प्राप्त संस्कृत रूप 'युष्मान्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से छह रूपों की आदेश प्राप्ति हआ करती है। वे छह रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- वो. तज्झ. तब्भे, तय्हे. उय्हे और भे।
धान से आदेश-प्राप्त ततीय रूप तब्भे में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'ज्झ' अश रूप का क्रम से आदेश प्राप्ति हुआ करती है; तद्नुसार उक्त छः रूपों के अतिरिक्त दो रूप और इस प्रकार होते हैं:- 'तम्हे और तज्ञयों 'यष्मान' के स्थान पर प्राकत में कल आठ रूपों की क्रम से (एवं वैकल्पिक रूप से) आदेश प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:- (अहम्) युष्मान् प्रेक्षे-वो, (अथवा) तुज्झ, (अथवा) तुब्भे, (अथवा) तुम्हे, (अथवा) तुझे (अथवा) तुम्हे, (अथवा) उव्हे और (अथवा) भे पेच्छामि अर्थात् (मैं) आप (सभी) को देखता हूं।
युष्मान् संस्कृत द्वितीया बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप आठ होते हैं:- वो, तुज्झ, तुब्भे, तुम्हे, तुज्झे, तुम्हे, उव्हे, और भे। इन आठों रूपों में सूत्र-संख्या ३-९३ से संस्कृत रूप 'युष्मान् के स्थान पर क्रम से इन आठों रूपों की आदेश प्राप्ति होकर ये आठों रूप क्रम से 'वो, तुज्झ तुब्भे, तुम्हे, तुज्झे, तुम्हे, उव्हे और भे' सिद्ध हो जाते हैं।
प्रेक्षे संस्कृत आत्मनेपदीय सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप पेच्छामि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत धातु 'प्रेक्ष' में स्थित 'र' का लोप; ३-३ से 'क्ष्' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से आदेश-प्राप्त
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 119 'छ' को द्वित्व छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' के स्थान पर 'च्' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त प्राकृत धातु 'पेच्छ' में हलन्त होने से विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'च् की प्राप्ति; ३-१५४ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' को 'आ' की प्राप्ति और ३-१४१ से प्राप्तांग 'पेच्छा' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत आत्मनेपदीय प्रत्यय 'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेच्छामि क्रियापदीय रूप सिद्ध हो जाता है।।३-९३।।
भे दि दे ते तइ तए तुमं तुमइ तुमए तुमे तुमाइ टा ।।३-९४।। युष्मदष्टा इत्यनेन सह एते एकादशादेशा भवन्ति ।। भे दि दे ते तई तए तुम तुमइ तुमए तुमे तुमाइ जम्पि।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा-आ' की संयोजना होने पर 'मल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कत रूप 'त्वया' के स्थान पर प्राकत में क्रम से ग्यारह रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे ग्यारह रूप कम से इस प्रकार है।:- (त्वया ) भे, दि, दे, ते, तइ, तए, तुमं, तुमइ, तुमए, तुमे और तुमाइ। उदाहरण इस प्रकार है:- त्वया कथितम्=भे, दि, दे, ते, तइ, तए; तुमं, तुमइ तुमए, तुमे और तुमाइ जम्पिअं अर्थात् तेरे द्वारा (या तुझ से) कहा गया है। ___ त्वया संस्कृत तृतीया एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप ग्यारह होते हैं। भे, दि,दे, ते, तइ, तए, तुम, तुमइ, तुमए, तुमे और तुमाइ। इनमें सूत्र-संख्या ३-९४ से संस्कृत रूप 'त्वया' के स्थान पर कम से इन्हीं ग्यारह रूपों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से ये ग्यारह रूप 'भे, दि, दे, ते, तइ, तए, तुमं, तुमइ, तुमए, तुमे और तुमाइ सिद्ध हो जाते हैं।
कथितम संस्कत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकत रूप जम्पिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२ से मूल संस्कृत धातु 'कथ्' के स्थान पर प्राकृत में 'जम्प' रूप की आदेश प्राप्ति, ४-२३९ से प्राप्त प्राकृत धातु 'जम्प' में हलन्त होने से विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से संस्कृत भूतकालीन भाव वाच्य क्रियापदीय प्रत्यय 'क्त-त' की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त उक्त प्रत्ययात्मक 'त्' का लोप; ३-२५ से पूर्वोक्त रीति से प्राप्तांग 'जम्पिअ' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर जम्पिअं रूप सिद्ध हो जाता है। ३-९४।।।
भे तुब्भेहि उज्झेहिं तुम्हेहिं उव्हेहिं उय्हेहिं भिसा।। ३-९५।। युष्मदो भिसा सह एते षडादेशा भवन्ति।। भे। तुब्भेहिं। ब्मो म्ह-ज्झौ वेति वचनात् तुम्हेहिं तुझेहिं उज्झेहि उम्हहिं तुय्येहिं उव्हेहिं भुत्त। एवं चाष्टरूप्यम्।। __ अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'मिस्' की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर आदेश-प्राप्त संस्कृत रूप 'युष्माभिः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से छह रूपों की आदेश प्राप्ति हआ करती है। वे छह रूप क्रम से इस प्रकार है:- भे तब्भेहिं. उज्झेहि, उम्हेहिं. तय्येहिं और उय्येहिं। सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से आदेश-प्राप्त द्वितीय रूप 'तुब्भेहिं में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'ज्झ की क्रम से और वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति हुआ करती है; तदनुसार उक्त छह रूपों के अतिरिक्त दो रूप और इस प्रकार होते हैं:- "तुम्हेहिं और तुज्झेहिं'; यों 'युष्माभि' के स्थान पर प्राकृत में कुल आठ रूपों की क्रम से (एवं वैकल्पिक रूप से) आदेश प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:- युष्माभिः भुक्तम्भे , (अथवा) तुब्भेहिं, (अथवा) उज्झेहिं, (अथवा) उम्हेहिं (अथवा) तुम्हेहिं, (अथवा) उव्हेहिं, (अथवा) तुम्हेहिं और (अथवा) तुज्झेहिं भुत्तं अर्थात् तुम सभी द्वारा (अथवा तुम सभी से) खाया गया है।
युष्माभि संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप आठ होते हैं:- भे तुब्मेहिं, उज्झेहि, उम्हेहिं, तुम्हेहिं, उय्हेहिं और तुझेहिं। इनमें से प्रथम छः रूपों में सूत्र-संख्या ३-९५ से सम्पूर्ण संस्कृत
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120 प्राकृत व्याकरण
रूप 'युष्माभिः' के स्थान पर इन छह रूपों की आदेश प्राप्ति होकर ये छह रूप 'भे तुब्भेहिं, उज्झेहिं, उम्हेहिं, हिं और उय्येहिं सिद्ध हो जाते हैं।
शेष दो रूपों में (याने युष्माभिः = तुम्हेहिं और तुज्झेहिं में ) सूत्र - संख्या ३- १०४ से पूर्वोक्त द्वितीय रूप आदेश - प्राप्त रूप 'तुब्भेहिं' में स्थित 'भ' अंश के स्थान पर 'म्ह' और 'ज्झ' अंश रूप की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से सातवां और आठवां रूप 'तुम्हेहिं' और 'तुज्झेहिं" सिद्ध हो जाता है।
'भुत' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या २- ७७ में की गई है । ३ - ९५ ।।
तइ - तुव - तुम - तुह तुब्भा ङसौ ।। ३-९६॥
युष्मदो सौ पञ्चम्येकवचने परत ते पंचादेशा भवन्ति । ङसेस्तु तो दो दुहि हिन्तो लुको यथाप्राप्तमेव । । तइत्तो।। तुवत्तो। तुमत्तो। तुहत्तो। तुब्भत्तो । ब्भो म्ह- क्ष्झो वेति वचनात् तुम्हत्तो । तुज्झत्तो ॥ एवं दो दु हि हिन्तो लुक्ष्वप्युदाहार्यम्। तत्तो इति तु त्वत इत्यस्य व लोपे सति ।।
अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के प्राकृत रूपान्तर में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय ‘ङसि=अस्' के प्राकृत स्थानीय प्रत्यय ' त्तो, दो-ओ, दु=उ, हि, हिन्तो और लुक्' प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होने पर सम्पूर्ण मूल संस्कृत शब्द ‘युष्मद्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में क्रम से पांच-अंग रूपों की प्राप्ति होती है; जो कि क्रम से इस प्रकार है:- तइ, तुव, तुम तुह और तुब्भ। सूत्र- संख्या ३ -१०४ के निर्देश से प्राप्तांग पांचवें रूप 'तुब्भ' में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'म्ह और 'ज्झ' अंश रूप की आदेश हुआ करती है; यो 'युष्मद्' के उक्त पांच अंग रूपों के अतिरिक्त ये दो रूप 'तुम्ह और तुज्झ' और होते है। इस प्रकार 'युष्मद्' के प्राकृत रूपान्तर में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में प्रत्ययों के संयोजनार्थ सात अंग रूपों की क्रम से प्राप्ति होती है; तत्पश्चात् सातों प्राप्तांगो में से प्रत्येक अंग में क्रम से ( एवं वैकल्पिक रूप से) छह छह प्रत्ययों की आर्थत् 'त्तो, ओ, उ, हि, हिन्तो और
क' प्रत्ययों की प्राप्ति होती हैं इस प्रकार 'युष्मद्' के पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में बयालीस (= ४२) रूप होते हैं; जो कि क्रम से इस प्रकार है:- 'तइ' अंग के रूपः - तइत्तो, तईओ, तईउ, तईहि, तईहिन्तो और तई ( = त्वत् = ) अर्थात् तेरे से । 'तुव' अंग के रूप:- - तुवत्तो, तुवाओ, तुवाउ, तुवाहि, तुवाहिन्तो और तुवा (= त्वत्- ) अर्थात् तेरे से। 'तुम' अंग रूपः- तुमत्तो, तुमाओ, तुमाउ, तुमाहि, तुमाहिन्तो और तुम (त्वत् = ) अर्थात् तेरे से । यों शोषांग 'तुह, तुब्भ, तुम्ह, और तुज्झ' के रूप भी समझ लेना चाहिये ।
प्राकृत में प्राप्त रूप 'तत्तों' की प्राप्ति 'त्वत' से हुई है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'व्' का लोप हुआ है और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'डो-ओ' की प्राप्ति होकर ' तत्तो' प्राकृत रूप निर्मित हुआ है। अतः इस रूप ' तत्तो' को उक्त ४२ रूपों से भिन्न ही जानना ।
नीचे साधनिका उन्हीं रूपों की जा रही है; जो कि वृत्ति में उलिखित है । अत, प्राप्त शेष रूपों की साधनिका स्वयमेव कर लेनी चाहिये।
त्वत् (अथवा 'त्वद्') संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक ) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप तइत्तो, तुवत्तो, तुहत्तो, तुब्भत्तो और तुज्झत्तो होते हैं। इनमें से प्रथम पांच रूपों में सूत्र - संख्या ३ - ९६ से मूल संस्कृत शब्द 'युष्मद्' के स्थान पर क्रम से पांच अंगों की आदेश प्राप्ति; छट्टे ओर सातवें रूपों में सूत्र - संख्या ३ - १०४ के निर्देश से छट्ठे ओर सातवें अंग रूप की प्राप्ति; तत्पश्चात् क्रम से सातों अंग-रूपों में सूत्र - संख्या ३-८ से पंचमी विभक्ति के एकवचनार्थ में 'तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से सातों रूप - 'तइत्तो, तुवत्तो, तुवत्तो, तुहत्तो, तुब्भत्तो, तुम्हत्तो ओर तुज्झत्तो सिद्ध हो जाते हैं ।
त्वत्तः संस्कृत तद्धित रूपक शब्द है। इसका रूप तत्तो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'व्' का लोप और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'डो=ओ' की प्राप्ति होकर प्राकृत तद्धित रूप 'तत्तो' सिद्ध हो जाता है । ३ - ९६ ।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 121 तुय्ह तुब्भ तहिन्तो ङसिना।। ३-९७।। युष्मदो उसिना सहितस्य एते त्रय आदेशा भवन्ति। तुम्ह तुब्भ तहिन्तो आगओ। ब्मो म्ह-ज्झो वेति वचनात् तुम्ह। तुज्झा एवं च पञ्च रूपाणि।। ___ अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के पञ्चमी विभक्ति के एवंकचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि=अस्' की संयोजना होने पर प्राप्त संस्कृत रूप त्वत्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से (एवं वैकल्पिक रूप से) तीन रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे आदेश-प्राप्त रूप ये हैं:-'तुम्ह, तुब्भ और तहिन्तो'। उदाहरण इस प्रकार है :- त्वत् आगतः-तुम्ह अथवा तुब्भ अथवा तहिन्तो आगओ अर्थात् तुम्हारे से-(तेरे से) आया हुआ है। सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से उपर्युक्त आदेश प्राप्त द्वितीय रूप 'तुब्भ में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर 'म्ह' 'ज्झ की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति हुआ करती है, तदनुसार त्वत्' के स्थान पर दो और आदेश प्राप्त रूपों का सद्भाव पाया जाता है। जो कि इस प्रकार है:- 'तुम्ह और तुज्झ'। यों पञ्चमी एकवचनान्त (में) 'युष्मद' के प्राप्त रूप त्वत्' के उपर्युक्त रीति से आदेश प्राप्त पांच रूप जानना।
त्वत् (=त्वद्) संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप पांच होते हैं:- तुम्ह, तुब्भ, तहिन्तो, तुम्ह और तुज्झ। इनमें सूत्र-संख्या ३-९७ से 'त्वत्' रूप के स्थान पर इन पांचों रूपों की आदेश प्राप्ति क्रम से (तथा वैकल्पिक रूप से) होकर क्रम से ये पांचों रूप 'तुम्ह, तुब्भ, तहिन्तो, तुम्ह और तुज्झ' सिद्ध हो जाते हैं। 'आगओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। ३७९७।।
तुब्भ-तुय्होय्होम्हा भ्यसि ॥३-९८॥ युष्मदो भ्यसि परत एते चत्वार आदेशा भवन्ति।। भ्यसस्तु यथाप्राप्तमेव।। तुब्भत्तो। तुम्हत्तो। उयहत्तो। उम्हत्तो। ब्मो म्ह-ज्झो वेति वचनात् तुम्हत्तो। तुज्झत्तो॥ एवं दो-दु-हि-हिन्तो-सुन्तोष्वप्युदाहार्यम्।। __ अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के प्राकृत रूपान्तर में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के प्राकृत प्रत्यय 'त्तो, दो=ओ, दु-उ, हि, हिन्तो और सुन्तो' प्राप्त होने पर 'युष्मद्' के स्थान पर चार आदेश-अंगों की क्रम से प्राप्ति हुआ करती है। तत्पश्चात् प्रत्येक आदेश-प्राप्त अंग में उक्त पंचमी बहुवचन बोधक प्रत्ययों की संयोजना होती है। वे चारों अंग रूप इस प्रकार हैं:- 'तुब्भ, तुम्ह, उयह और उम्ह'। सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से उक्त आदेश-प्राप्त प्रथम अंग 'तुब्भ' में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'ज्झ' अंश रूप की प्राप्ति हुआ करती है; तदनुसार उक्त चार अंग रूपों के अतिरिक्त दो अंग रूपों की प्राप्ति और होती है; जो कि इस प्रकार है:- 'तुम्ह' और 'तुज्झ। यों पंचमी बहुवचन के प्रत्ययों के संयोजनार्थ कुल छह अंग रूपों की प्राप्ति होती है। पंचमी बहुवचन में 'भ्यस्' प्रत्यय के स्थान पर 'त्तो' दो-ओ, दु-उ, हि, हिन्तो और सुन्तों यों छः प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति का विधान है। ये छह ही प्रत्यय क्रम से उक्त छह अंगों में से प्रत्येक अंग में संयोजित होते हैं; तदनुसार पंचमी बहुवचन में संस्कृत रूप- 'युष्मत्' के प्राकृत रूप छत्तीस होते हैं। उदाहरण इस प्रकार है:त्तो-प्रत्यय-तुब्भत्तो, तुम्हत्तो, उहत्तो, उम्हत्तो, तुम्हत्तो, तुज्झत्तो।
ओ-प्रत्यय-तुब्भाओ, तुम्हाओ, उय्याहो, उम्हाओ, तुम्हाओ, तुज्झाओ। उ-प्रत्यय-तुब्भाउ, तुय्याहु, उय्याउ, उम्हाउ, तुम्हाउ, तुज्झाउ, । यों शेष प्रत्यय 'हि-हिन्तों' और 'सुन्तो' की संयोजना करके स्वमेव समझ लेना चाहिये।
युष्मत् संस्कृत पञ्चमी बहुवनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप-तुब्मत्तो, तुम्हत्तो, उव्हत्तो, उम्हत्तो, तुम्हत्तो और तुज्झत्तो होते हैं। इनमें से प्रथम चार रूपों में सूत्र-संख्या ३-९८ से मूल संस्कृत शब्द 'युष्मद्' के स्थान पर प्राकृत में चार अंग रूप 'तुब्भ-तुम्ह-उयह-उम्ह' की आदेश प्राप्ति; शेष दो रूपों में सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से पूवोक्ति प्राप्त प्रथम अंग 'तुब्भ' में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर क्रम से 'म्ह' और ज्झ' की प्राप्ति होने से
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122 : प्राकृत व्याकरण उक्त पंचम और षष्ठ अंग रूप की प्राप्ति; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-६ से उक्त प्राप्तांग छहों में पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस् के स्थान पर प्राकृत में आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'त्तो, ओ, उ, हि, हिन्तो, सुन्तों में से प्रथम प्रत्यय 'तो' की प्राप्ति होकर उक्त छः ही प्राकृत रूप 'तुब्भत्तो, तुम्हत्तो, उयहत्तो, उम्हत्तो, तुम्हत्तो और तुज्झतो' सिद्ध हो जाते हैं।।३-९८।। तइ-तु-ते-तुम्हं, तुह-तुहं-तुव-तुम-तुमे-तुमो-तुमाइ-दि-दे-इ-ए
तुब्भोब्भोय्हा ङसा।।३-९९।।। युष्मदो ङसा षष्ठयेकवचनेनसहितस्य एते अष्टादशादेशा भवन्ति।। तइ। तु। ते तुम्ह। तुह। तुहं। तुवा तुम। तुमे। तुमो। तुमाइ। दि। दे। इ। ए। तुष्भ। उब्भ। उयह धणं। ब्भो म्ह-ज्झौ वेति वचनात् तुम्ह। तुज्झा उम्ह। उज्झ। एवं च द्वाविंशान्ति रूपाणि। ___ अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' की संयोजना होने पर प्राप्त संस्कृत रूप 'तव' अथवा 'ते' के प्राकृत रूपान्तर में सम्पूर्ण उक्त 'तव' अथवा 'ते' रूप के स्थान पर क्रम से अठारह रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:- तव (अथवा ते) धनम् तइ-तु-ते-तुम्ह-तुह-तुहं-तुव-तुम-तुमे-तुमो-तुमाइ-दि-दे-इ-ए-तुब्भ-उब्भ-उयह धण अर्थात् तेरा धन। सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से उक्त प्राप्त अठारह रूपों में से सोलहवें और सतरहवें रूपों में स्थित 'ब्भ अंश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'ज्झ' की प्राप्ति क्रम से हुआ करती है; तदनुसार संस्कृत रूप 'तव' के स्थान पर चार रूपों की और आदेश प्राप्ति क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से हुआ करती है; जो कि इस प्रकार है:- (तव) तुम्ह, तुज्झ, उम्ह और उज्झ। यों संस्कृत शब्द 'युष्मद्' के षष्ठी एकवचन में प्राप्त रूप 'तव (अथवा ते) के स्थान पर प्राकृत में कुल बाईस रूपों की आदेश प्राप्ति क्रम से जानना चाहिये।
'तव' अथवा 'ते' संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप (२२) होते हैं:- तइ, तु, ते, तुम्हं, तुह, तुहं, तुव, तुम, तुमे, तुमो, तुमाइ, दि, दे, इ, ए, तुब्भ, उब्भ, उयह, तुम्ह, तुज्झ, उम्ह और उज्झ। इनमें से प्रथम अठारह रूपों में सूत्र-संख्या ३-९९ से संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङस्-अस्' की संयोजना होने पर प्राप्त रूप 'तव' अथवा 'ते' के स्थान पर उक्त प्रथम अठारह रूपों की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम अठारह रूप 'तइ, तु, ते, तुम्ह, तुह, तुहं, तुव, तुम, तुमे, तुमो, तुमाइ, दि, दे, इ, ए,तुब्भ, उब्भ और उयह सिद्ध हो जाते हैं।
शेष १९वें से २२वें तक के चार रूपों में सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से उक्त सोलहवें और सताहवें रूप में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'ज्झ' अंश की आदेश प्राप्ति होकर उक्त शेष चार रूप 'तुम्ह, तुज्झ, उम्ह और उज्झ भी सिद्ध हो जाते हैं। __'धणं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है।।३-९९।। तु वो भे तुब्भ तुब्भं तुब्भाण तुवाण तुमाण तुहाण उम्हाण आमा।।३-१००।।
युष्मद आमा सहितस्य एते दशादेशा भवन्ति ।। तु। वो। भे। तुब्भ। तुब्भ। तुब्माण। तुवाण। तुमाण। तुहाण। उम्हाण। क्त्वा-स्यादेर्णस्वोर्वा (१-२५) इत्यनुस्वारे तुब्भाणं। तुवाणं। तुमाणं। तुहाणं। उम्हाण।। ब्मो म्ह-ज्झौ वेति। वचनात् तुम्ह। तुज्झा तुम्ह। तुझा तुम्हाण। तुम्हाणं तुज्झाण। तुज्झाणं। धणं एवं च त्रयोविंशति रूपाणि।। ___ अर्थः-संस्कृत-सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' संयोजना होने पर प्राप्त संस्कृत रूप-'युष्माकम् अथवा वः के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में सर्वप्रथम ये दस रूप 'तु, वो, भे, तुब्भ, तुब्भ, तुब्भाण, तुवाण, तुमाण, तुहाण और उम्हाण' आदेश-रूप से प्राप्त होते हैं। तत्पश्चातू-सूत्र-संख्या १-२७ के विधान से
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 123 उपर्युक्त प्राप्त दस रूपों में से छट्टे रूप से लगाकर दशवें रूप के अन्त में आगम रूप अनुस्वार की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति हुआ करती है; तदनुसार पांच रूपों का निर्माण और इस प्रकार होता है :- तुब्भाणं, तुवाणं, तुमाणं, तुहाणं, और उम्हाणं। सूत्र - संख्या ३ - १०४ के विधान से उपर्युक्त प्रथम दस रूपों में से चौथे, पांचवें और छट्टे रूपों में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'ज्झ' अंश की आदेश प्राप्ति हुआ करती है; तदनुसार छह आदेश प्राप्त रूपों का निर्माण और इस प्रकार होता है :- तुम्ह ओर तुज्झ; तुम्हं और तुज्झं; तुम्हाण और तुज्झाण । सूत्र- संख्या १ - २७ के विधान से पुनः उपर्युक्त 'तुम्हाण और तुज्झाण' में आगम रूप से अनुस्वार की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होने से दो और रूपों का निर्माण होता है; जो कि इस प्रकार है:- तुम्हाणं और तुज्झाणं । इस प्रकार 'युष्माकम्' अथवा वः के प्राकृत रूपान्तर में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्त ये कुल तेईस रूप जानना ।
उदाहरण इस प्रकार है:- युष्माकम् अथवा वः धनम् = तु, वो इत्यादि २३ वां रूप तुज्झाणं धणं अर्थात् तुम सभी का धन
युष्माकम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तु वो भे से लगाकर तुज्झाण' तक २३ होते हैं। इनमें से प्रथम दस रूपों में सूत्र - संख्या ३ - १०० की प्राप्ति; ११ वें से १५ वें तक के रूपों में सूत्र - संख्या १-२७ की प्राप्ति; १६वें से २१ वें तक के रूपों में सूत्र - संख्या ३ - १०४ की प्राप्ति और २२वें तथा २३वें में सूत्र - संख्या १-२७ की प्राप्ति होकर प्रथम रूप से लगाकर २३ वें रूप तक की अर्थात् 'तु, वो, भे, तुब्भ, तुब्भं, तुब्भाण तुवाण, तुमाण, तुहाण, उम्हाण, तुब्भाणं, तुवाणं, तुम्माणं, तुहाणं, उम्हाणं, तुम्ह, तुज्झ तुम्हें, तुज्झ, तुम्हाणं, तुज्झाण, तुम्हाणं और तुज्झाणं' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'धणं' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५० में की गई है । ३ - १०० ।।
तु तुम तुमाइ त तए ङिना। ३–१०१।।
युष्मदो ङिना सप्तम्येकवचनेन सहितस्य एते पञ्चादेशा भवन्ति ।। तुमे तुमए तुमाइ तइ तर ठिअं||
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डि= इ' की संयोजना होने पर प्राप्त संस्कृत रूप-‘त्वयि' के स्थान पर प्राकृत - रूपान्तर में प्रत्यय सहित अवस्था में क्रम से पांच रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वे पांचों रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- (त्वयि = ) तुमे, तुमए, तुमाइ, तइ और तए । उदाहरण इस प्रकार है:त्वयि स्थितम् = तुमे, तुम, तुमाइ, तइ और तए ठिअं अर्थात् तुझ में अथवा तुझ पर स्थित है।
'त्वयि' संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम है। इसके प्राकृत में पांच रूप होते हैं। तुमे, तुमए, तुमाइ, तइ और तए; इनमें सूत्र - संख्या ३ - १०१ से संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' में सप्तमी एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि = इ' की संयोजना होने पर प्राप्त रूप 'त्वयि' के स्थान पर उक्त पांचों रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर क्रम से ये पांचों रूप 'तुमे, तुम, तुमइ, तइ और तए' सिद्ध हो जाते हैं।
'ठिअ' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - १६ में की गई है । । ३ - १०१ |
तु - तुव - तुम - तुह - तुब्भा ङौ ।। ३-१०२।।
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युष्मदो ङौ परत एते पञ्चादेशा भवन्ति । डेस्तु यथा प्राप्तमेव । तुम्मि । तुवम्मि। तुमम्मि । तुहम्मि । तुब्भम्मि । ब्भो म्ह-ज्झौ वेति वचनात् तुम्हम्मि। तुज्झम्मि । इत्यादि ।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द " युष्मद्" के प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय “ङि=इ" प्राकृत स्थानीय प्रत्यय ‘“म्मि" (और 'ङे=ए') प्रत्यय प्राप्त होने पर " युष्मद्" के स्थान पर प्राकृत में पांच अंग रूपों की क्रम से प्राप्ति होती है, जो इस प्रकार हैं:- युष्मद्-तु, तुव, तुम, तुह, और तुब्भ। उदाहरण यों हैं:- 'त्वयि = तुम्मि, तुवम्मि, तुमम्मि तुहम्मि और तुब्भम्मि । सूत्र- संख्या ३ - १०४ के विधान से उपर्युक्त पञ्चम अंग रूप 'तुब्भ' में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'ज्झ' अंश रूप की प्राप्ति हुआ करती है; तदनुसार दो और अंग रूपों
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124 : प्राकृत व्याकरण
की इस प्रकार प्राप्ति होती है:- 'तुम्ह' और 'तुज्झ'। ऐसी स्थित में 'म्मि' प्रत्यय की संयोजना होने पर दो और रूपों का निर्माण होता है:- तुम्हम्मि और तुज्झम्मि।।
वृत्ति में 'इत्यादि' शब्द का उल्लेख किया हुआ है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि उपर्युक्त प्राप्त सात अंगों में से प्रथम अंग के अतिरिक्त शेष छह अंग रूपों में सूत्र-संख्या ३-११ के विधान से संस्कृत प्रत्यय 'डि-इ' के स्थान पर 'डे-ए' प्रत्यय की संयोजना भी होना चाहिये; तदनुसार छह रूपों की प्राप्ति की संभावना होती है; जो कि इस प्रकार हैं:तुवे, तुमे, तुब्भे, तुम्हे और तुझे, यो वृत्ति के अन्त में उल्लिखित 'इत्यादि' शब्द के संकेत से प्रमाणित होता है।
त्वयि संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप तुम्मि, तुवम्मि, तुमम्मि, तुहम्मि, तुब्भम्मि, तुम्हम्मि और तुज्झम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम पांच रूपों में सूत्र-संख्या ३-१०२ से मूल संस्कृत शब्द 'युष्मद्' के स्थान पर क्रम से पांच अंग रूपों की प्राप्ति और छटे तथा सातवें रूप में सूत्र-संख्या ३-१०४ से पूर्व में प्राप्तांग पांचवें'तुब्भ में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'ज्झ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से उपर्युक्त रीति से सातों प्राप्तांगों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से सातों रूप तुम्मि, तुवम्मि, तुमम्मि, तुहम्मि, तुब्मम्मि, तुम्हम्मि और तुज्झम्मि' सिद्ध हो जाते हैं ।।३-१०२।।
सुपि ।। ३-१०३।। युष्मदः सुपि परतः तु तुव तुम तुह-तुब्मा भवन्ति।। तुसु। तुवेसु। तुमेसु। तुहेसु। तुब्मेसु।। ब्मो म्ह-ज्झौ वेति वचनात् तुम्हेसु। तुज्झेसु।। केचित्तु सुप्येत्व विकल्पमिच्छन्ति। तन्मते तुवसु। तुमसु। तुहसु। तुब्भसु। तुम्हसु। तुज्झसु।। तुब्भस्यात्वमपीच्छत्यन्यः। तुब्भासु। तुम्हासु तुज्झासु॥ ___अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द "युष्मद्" के प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में "सुप-सु" प्रत्यय परे रहने पर "युष्मद्" के स्थान पर प्राकृत में पांच अंग रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। जो कि इस प्रकार हैं:युष्मद्=तु, तुव, तुम, तुह और तुब्भ उदाहरण यों हैं:- युष्मासु-तुसु, तुवेसु, तुमेसु, तुहेसु, और तुब्भेसु। सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से पंचम-अंग रूप 'तुब्भ' में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर क्रम से और वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'ज्झ' अंश की प्राप्ति हुआ करती है, तदनुसार दो अंग रूपों की प्राप्ति और होती है:- तुम्ह तथा तुज्झ। यों प्राप्तांग 'तुम्ह' और तुज्झ' में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तुम्हेसु' तथा 'तुज्झेसु' रूपों को संयोजना होती है।
कोई-कोई व्याकरणाचार्य 'सु'प्रत्यय परे रहने पर उपर्युक्त रीति से प्राप्तांग अकारान्त रूपों में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर ऊपर-वर्णित एवं सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्त 'ए' की प्राप्ति का विधान वैकल्पिक रूप से मानते हैं; तद्नुसार 'युष्मासु' के छह प्राकृत रूपान्तर और बनते हैं; जो कि इस प्रकार हैं- युष्मासु-तुवसु,तुमसु, तुहसु तुब्भसु, तुम्हसु और तुज्झसु। ऊपर-वाले रूपों में और इन रूपों में परस्पर में 'सु' प्रत्यय के पूर्व में स्थित प्राप्तांग के अन्त में रहे हुए अथवा प्राप्त हुए 'ए' और 'अ' स्वरों की उपस्थित का अथवा अभाव रूप का ही अन्तर जानना।
कोई-कोई प्राकृत भाषा तत्त्वज्ञ प्राप्तांग तुब्भ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'सु' प्रत्यय परे रहने पर 'आ' का सद्भाव भी वैकल्पिक रूप से मानते हैं। इनके मत से 'युष्मासु' के तीन और प्राकृत रूपान्तरों का निर्माण होता है; जो कि इस प्रकार हैं:- 'युष्मासु'-तुब्भासु, तुम्हासु और तुज्झासु। इनका अर्थ होता है:- आप सभी में। ___ 'युष्मासु' संस्कृत सप्तमी बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप १६ होते हैं। जो कि इस प्रकार हैं:- तुसु, तुवेसु, तुमेसु, तुहेसु तुब्भेसु, तुम्हेसु, तुज्झेसु, तुवसु, तुमसु, तुहसु, तुब्भसु, तुम्हसु, तुज्झसु, तुब्मासु, तुम्हासु और तुज्झासु। इन में से प्रथम पांच रूपों में से सूत्र-संख्या ३-१०३ से संस्कृत मूल शब्द 'युष्मद्' के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी-विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय की संयोजना होने पर 'तु, तुव, तुह, तुब्भ' इन पांच अंग रूपों की क्रम से प्राप्ति; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-४४३ से प्राप्तांग इन पांचों क्रम से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 125 प्रत्यय 'सुप-सु के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति एवं द्वितीय से पंचम रूपों में सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे सप्तमी बहुवचन बोधक प्रत्यय 'सु' का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति होकर क्रम से पांच रूप 'तुसु, तुवेसु, तुमेसु, तुहेसु और तुब्भेसु सिद्ध हो जाते हैं।
छटे और सातवें रूपों में सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से उपर्युक्त पांचवें प्राप्तांग में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'ज्झ' अंश की प्राप्ति होने से 'तुम्ह और तुज्झ' अंग रूपों की प्राप्ति एवं शेष साधनिका की प्राप्ति उपर्युक्त सूत्र-संख्या ३-१५ तथा ४-४४८ से होकर छट्ठा तथा सांतवा रूप तुम्हेसु और तुज्झेसु भी सिद्ध हो जाते हैं। ____ आठवें रूप से लगाकर तेरहवें रूप तक में सूत्र-संख्या ३-१०३ की वृत्ति से पूर्वोक्त सातों अंग रूपों में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्त 'ए' की निषेध-स्थित; एवं यथा-प्राप्त अंग रूपों में ही सूत्र-संख्या ४-४४८ से सप्तमी के बहुवचनार्थ में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आठवें रूप से तेरहवें रूप तक की अर्थात् 'तुवसु, तुमसु, तुहसु, तुब्भसु, तुम्हमु और तुज्झसु' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
शेष चौदहवें रूप से लगाकर सोलहवें रूप में सूत्र-संख्या ३-१०३ की वृत्ति से पूर्वोक्त प्राप्तांग 'तुब्भ, तुम्ह और तुन्झ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; यों प्राप्तांग आकारान्त रूपों में सूत्र-संख्या ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचनार्थ में 'सु' प्रत्यय की संप्राप्ति होकर चौदहवीं पन्द्रहवां और सोलहवां रूप 'तुब्मासु, तुम्हासु और तुज्झासु' भी सिद्ध हो जाते हैं।।३-१०३।।
ब्भो म्ह-ज्झौ वा ॥ ३-१०४॥ युष्मदादेशेषु यो द्विरुक्तो भस्तस्य म्ह ज्झ इत्येतावादेशौ वा भवतः।। पक्षे स एवास्ते। तथैव चोदाहतम्॥
अर्थः-उपर्युक्त सूत्र-संख्या ३-९१, ३-९३, ३-९५, ३-९६, ३-९७, ३-९८, ३-९९, ३-१००, ३-१०२ और ३-१०३ में ऐसा कथन किया गया है कि संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'तुब्भ' अंग रूप की आदेश प्राप्ति हुआ करती है; यों प्राप्तांग 'तुब्भ' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ब्भ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से एवं क्रम से 'म्ह' और 'ज्झ' अंश रूप की प्राप्ति इस सूत्र ३-१०४ से हुआ करती है। तदनुसार 'तुब्भ' अंग रूप के स्थान पर 'तुम्ह' और 'तुज्झ' अंग रूपों की भी क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से संप्राप्ति जानना चाहिये। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में युष्मद्' के स्थान पर 'तुब्भ' अंग रूप का अस्तित्व भी कायम रहता ही है। इस विषयक उदाहरण उपर्युक्त सूत्रों में यथावसर रूप से प्रदर्शित कर दिये गये हैं; अतः यहां पर इनकी पुनरावृत्ति करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है; इस प्रकार वृत्ति और सूत्र का ऐसा तात्पर्य है। ३-१०४।।
अस्मदो म्मि अम्मि अम्हि हं अहं अहयं सिना।।३-१०५।। अस्मदः सिना सह एते षडादेशा भवन्ति।। अज्ज म्मि हासिया मामि तेण।। उन्नम न अम्मि कुविआ। अम्हि करेमि। जेण हं विद्धा। किं पम्हटुम्मि अहं। अहयं कयप्पणामो।।
अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' की संयोजना होने पर प्राप्त रूप 'अहम्' के स्थान पर प्राकृत में (प्रत्यय सहित मूल शब्द के स्थान पर) क्रम से (तथा वैकल्पिक रूप से) छह रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे आदेश प्राप्त छह रूप इस प्रकार हैं:- (अस्मद्+सि) अहम् ‘म्मि, अम्मि, अम्हि, हं, अह और अहयं अर्थात् मैं। इन आदेश प्राप्त छह रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- अद्य अहम् हासिता हे सखि! तेन अज्ज म्मि हासिआ मामि तेण अर्थात् हे सखि! आज मैं उससे हसाई गई याने उसने आज मुझे हंसाया। यहां पर 'अहम्' के प्राकृत रूपान्तर में 'म्मि' का प्रयोग किया गया है। यह प्रयोग प्रेरणार्थक भाव रूप है। उन्नम! न अहम् कुपिता-उन्नम! न अम्मि कुविआ अर्थात् उठ बैठो! (याने अनुनय-विनय-प्रणाम आदि मत करो; क्योंकि) मैं (तुम्हारे पर) क्रोधित (गुस्से वाली) नहीं हूं। यहां पर 'अहम् के स्थान पर प्राकृत में अम्मि' रूप का प्रदर्शन कराया गया है।
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126 : प्राकृत व्याकरण
अहम् करोमि=अम्हि करेमि=मैं करता हूं अथवा मैं करती हूं। येन अहम् वृद्धा=जेण हं विद्धा-जिस (कारण) से मैं वृद्ध हूं। किम् प्रमृष्टोऽस्मि (प्रमृष्टःअस्मि) अहम् किं पम्हटुम्मि अहं अर्थात् क्या मैं भूला हुआ हूं याने क्या मैं भूल गया हूं।
अहम् कृत-प्रणामः अहयं कयपणामो अर्थात् मैं कृत-प्रणाम (याने कर लिया है प्रणाम जिसने ऐसा) हूं। यों उपर्युक्त छह उदाहरणों में संस्कृत रूप 'अहम् (=मैं) के आदेश प्राप्त छह प्राकृत रूपों का दिग्दर्शन कराया गया है।
'अज्ज' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३३ में की गई है।
'अहम्' संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'म्मि' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१०५ से 'अहम्' के स्थान पर 'म्मि' आदेश प्राप्ति होकर 'म्मि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'हासिता' संस्कृत प्रेरणार्थक तद्धित विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप हासिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१५२ और ३-१५३ से मूल संस्कृत धातु के समान ही प्राकृत हलन्त धातु 'हस्' में स्थित आदि 'अ' को प्रेरणार्थक अवस्था होने से 'आ' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक धातु 'हास् में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे 'क्त' वाचक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति ४-४४८ से प्राप्तांग प्रेरणार्थक रूप 'हासि' में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी भूतकृदन्तवाचक 'क्त' प्रत्यय सूचक 'त' की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त-प्रत्यय 'त' में स्थित हलन्त 'त्' का लोप और ३-३२ एवं २-४ के निर्देश से प्राप्त रूप 'हासिअ' को पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु स्त्रीलिंग-सूचक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-५ से पूर्व-प्राप्त हासिअ में प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक 'आ' प्रत्यय की सन्धि होकर हासिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
'मामि' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९५ में की गई है। 'तेण' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३३ में की गई है।
उन्नम संस्कृत आज्ञार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी उन्नम ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से मूल प्राकृत हलन्त धातु 'उन्नम्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१७५ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एकवचन में 'लुक' रूप अर्थात् प्राप्तव्य प्रत्यय की लोपावस्था प्राप्त होकर 'उन्नम' क्रियापद की सिद्धि हो जाती है।
'न' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई हैं
'अहम्' संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अम्मि' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१०५ से 'अहम्' के स्थान पर अम्मि' रूप की आदेश प्राप्ति होकर 'अम्मि' रूप सिद्ध हो जाता है।
कुपिता संस्कृत तद्धित विशेषणात्मक स्त्रीलिंग रूप है। इस का प्राकृत रूप 'कुविआ' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से मूल संस्कृत धातु 'कुप्' में स्थित 'प्' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'कुव्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के 'आगे भूतकृदन्त वाचक 'क्त-त' प्रत्यय का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से भूतकृदन्त अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'क्त-त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से 'हलन्त 'त्' का लोप; ३-३२ एवं २-४ के निर्देश से प्राप्त रूप 'कुविअ को पुल्लिंगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु स्त्रीलिंग-सूचक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति ओर १-५ से पूर्व-प्राप्त 'कुविअ' में प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक 'आ' प्रत्यय की संधि होकर 'कुविआ रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'अहम्' संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अम्हि' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१०५ से 'अहम्' के स्थान पर 'अम्मि' रूप की आदेश प्राप्ति होकर 'अम्हि रूप सिद्ध हो जाता है। 'करेमि' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२९ में की गई है। 'जेण' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३६ में की गई है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 127 'अहम्' संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ह' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१०५ से 'अहम्' के स्थान पर 'ह' रूप की आदेश प्राप्ति होकर 'हं' रूप सिद्ध हो जाता है।
वृद्धा संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप विद्धा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; ३-३२ एवं २-४ के निर्देश से प्राप्त रूप 'वृद्ध में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु स्त्रीलिंग सूचक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति; ४-४४८ से प्राप्तांग विद्धा' में आकारान्त स्त्रीलिंग रूप में संस्कृत प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी प्राप्त प्रत्यय 'सि-स' की प्राप्ति और १-११ से प्राप्त प्रत्यय 'स्' हलन्त होने से इस 'स्' प्रत्यय का लोप होकर प्रथमा-एकवचनार्थक स्त्रीलिंग रूप 'विद्धा' सिद्ध हो जाता है।
'कि' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२९ में की गई है।
प्रमृष्टः संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप पम्हटु होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; ४-२५८ से 'म्' को 'म्ह' रूप से निपात-प्राप्ति अर्थात् नियम का अभाव होने से आर्ष स्थिति की प्राप्ति; १-१३१ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य विसर्ग रूप हलन्त व्यञ्जन का लोप होकर पम्हुटु रूप सिद्ध हो जाता है। ___ अस्मिन् संस्कृत क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप 'म्मि' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४७ से मूल संस्कृत धातु''अस्' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचनार्थ में संस्कृत प्रत्यय 'मि' की संयोजना होने पर प्राप्त संस्कृत रूप 'अस्मि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्हि=म्मि' रूप की आदेश प्राप्ति होकर 'म्मि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अहं' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४० में की गई है। 'अहयं सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९९ में की गई है।
कृत-प्रणामः संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप कय-प्पणामो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ'की प्राप्तिः १-१७७ से'त' का लोपः १-१८० से लोप हए'त' के पश्चात शेष रहे हए'अ'के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति ओर ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग ‘कय-प्पणाम में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ प्रत्यय की संप्राप्ति होकर 'कय-प्पणामो रूप सिद्ध हो जाता है।।३-१०५।।
अम्ह अम्हे अम्हो मो वयं भे जसा।। ३-१०६।। अस्मदो जसा सह एते षडादेशा भवन्ति।। अम्ह अम्हे अम्हो मो वयं से भणामो।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद् के प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'वयम् के स्थान पर प्राकृत में क्रम से छह रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे छह रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- (वयम्=) अम्ह, अम्हे, अम्हो, मो, वयं और भे। उदाहरण इस प्रकार है:- वयम् भणामः-अम्ह, अम्हे, अम्हो, मो, वयं भे भणामो अर्थात् हम अध्ययन करते हैं!
'वयम्' संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप हैं इसके प्राकृत रूप अम्ह, अम्हे, अम्हो, मो, वयं और भे होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१०६ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के प्रथमा बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' की संप्राप्ति होने पर प्राप्त रूप 'वयम्' के स्थान पर प्राकृत से उक्त छह रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर क्रम से छह रूप 'अम्ह, अम्हे, अम्हो, मो, वयं और, भे' सिद्ध हो जाते हैं।
भणामः संस्कृत क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भणामो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१३९ से प्राकृत हलन्त 'धातु' भण्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५५ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और
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128 : प्राकृत व्याकरण ३-१४४ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'मः' के स्थान पर प्राकृत में 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भणामो' रूप सिद्ध हो जाता है॥३-१०६।।
णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं ममं मिमं अहं अमा ३-१०७।। अस्मदोमा सह एते दशादेशा भवन्ति।। णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं ममं मिमं अहं पेच्छ।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद् के द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'अम्' की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'माम् अथवा मा के स्थान पर प्राकृत में क्रम से दस रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती हैं। वे दस रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- (माम्=) णे, णं मि, अम्मि, अम्ह, मम्ह, मं, मम, मिमं, और अहं। उदाहरण इस प्रकार हैं:- माम् पश्य=णे, णं मि, अम्मि अम्ह, मम्ह, मं, ममं, मिमं, अहं पेच्छ अर्थात् मुझे देखो।
माम अथवा मा संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'णे, णं, मि, अम्मि, अम्ह, मम्ह, मं, मम, मिमं और अहं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१०७ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद् के द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कत प्रत्यय 'अम' की संप्राप्ति होने पर प्राप्त रूप 'माम अथवा मा के स्थान पर प्राकृत में उक्त दस रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर क्रम से ये दस रूप-णे, णं, मि, अम्मि, अम्ह, मम्ह, मं, मम, मिमं और अंह सिद्ध हो जाते हैं। पेच्छ क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।।३-१०७।।
अम्हे अम्हो अम्ह णे शसा।। ३-१०८॥ अस्मद्ः शसा सह एते चत्वार आदेशा भवन्ति।। अम्हे अम्हो अम्ह णे पेच्छ।।
अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'शस्-अस्' की संयोजना होने पर मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'अस्मान् अथवा नः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से चार रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे आदेश प्राप्त चार रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- अस्मान् अथवा नः अम्हे, अम्हो, अम्ह और णे। उदाहरण इस प्रकार है:- अस्मान् अथवा नः पश्च-अम्हे, अम्हो, अम्ह णे पेच्छ अर्थात् हमें अथवा हम को देखो। ___ अस्मान् अथवा नः संस्कृत द्वितीया बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) के सर्वनाम रूप हैं इसके प्राकृत रूप अम्हे, अम्हो, अम्ह और णे होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१०८ से संस्कृत मूल सर्वनाम शब्द हैं। 'अस्मद्' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस् अस्' की संयोजना होने पर प्राप्त रूप अस्मान् अथवा नः' के स्थान पर प्राकृत में उक्त चार रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप 'अम्हे, अम्हो, अम्ह और 'णे सिद्ध हो जाते हैं। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। ३-१०८॥
मि मे मम ममए ममाइ मइ मए मयाइ णे टा ॥३-१०९। अस्मदष्टा सह एते नवादेशा भवन्ति।। मि मे ममं ममए ममाइ मइ मए मयाइ णे कय।।
अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा-आ' की संयोजना होने पर मूल शब्द और प्रत्यय 'दोनों के स्थान पर आदेश-प्राप्त संस्कृत रूप 'मया' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से नव रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे आदेश-प्राप्त नव रूप क्रम से इस प्रकार है:-(मया ) मि, मे, ममं, ममए, ममाइ, मइ, मए, मयाइ और णे उदाहरण इस प्रकार हैं:-मया कृतम्-मि, मे, मम, ममए, ममाइ, मइ, मए, मयाइ, णे, कयं अर्थात् मुझ से अथवा मेरे से किया हुआ है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 129 'मया' संस्कृत तृतीया एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मि, मे, मम, ममए, ममाइ, मइ, मयाइ और णे होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१०९ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद् में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय टा=आ को संप्राप्ति होने पर प्राप्त रूप 'मया' के स्थान पर प्राकृत में उक्त नव रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर ये नव ही रूप 'मि, मे, मम, ममए, ममाइ, मइ, मए, मयाइ और णे' सिद्ध हो जाते हैं। कयं क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।।३-१०९।।
अम्हेहि अम्हाहि अम्ह अम्हे णे भिसा। ३-११०॥ अस्मदो भिसा सह एते पञ्चादेशा भवन्ति।। अम्हेहि अम्हाहि अम्ह अम्हे णे कयं।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'अस्माभिः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से पांच रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे आदेश प्राप्त पांच रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- (अस्माभिः=) अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह, अम्हे और णे। उदाहरण इस प्रकार हैं:- अस्माभिः कृतम् अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह, अम्हे, णे कयं अर्थात् हम सभी से अथवा हमारे से किया गया है। ____ अस्माभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह अम्हे और 'णे होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११० से संस्कृत सर्वनाम शब्द अस्मद्, में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' की संयोजना होने पर प्राप्त रूप 'अस्माभिः' के स्थान पर प्राकृत में उक्त पांचों रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर क्रम से ये पांचों रूप 'अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह, अम्हे और णे' सिद्ध हो जाते हैं। ‘कयं क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।।३-११०।।
मइ-मम-मह-मज्झा ङसौ।। ३-१११।। अस्मदो उसौ पञ्चम्येकवचने परत एते चत्वार आदेशा भवन्ति।। उसेस्तु यथाप्राप्तमेव।। मइत्तो ममत्तो महत्तो, मज्झत्तो, आगओ।। मत्तो इति तु मत्त इत्यस्य। एवं दो-दु-हि-हिन्तो लुक्ष्वप्युदाहार्यम्॥ ___ अर्थः-संस्कृत सर्वनाम 'अस्मद्' के प्राकृत रूपान्तर में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि=अस्' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-८ के अनुसार प्राकृत में प्रत्यय 'त्तो, दो=ओ, दु-उ, हि, हिन्तो और लुक्' की क्रम से प्राप्ति होने पर 'अस्मद्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से चार अंग रूपों की प्राप्ति होती है। वे चारों अंग रूप क्रम से इस प्रकार हैं:-(अस्मद= ) मइ, मम, मह और मज्झ। इन प्राप्तांग चारों रूपों में से प्रत्येक रूप में पंचमी विभक्ति के एकवचनार्थ में क्रम से 'त्तो, दो ओ, दु-उ, हि, हिन्तो और लुक,' प्रत्ययों की प्राप्ति होने से पञ्चमी एकवचनार्थक रूपों की संख्या चौबीस होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है। 'मइ' के रूपः-(अस्मद् के मत् अथवा मद्=) मइत्तो, मईओ, मईउ, मईहि, मईहिन्तो और मई। (अर्थात् मुझ से) 'मम' के रूप-(सं-मत् अथवा मद्=) ममत्तो, ममाओ, ममाउ, ममाहि समाहिन्तो और ममा। (अर्थात् मुझ से)। 'मह' के रूप- (सं-मत् अथवा मद्-) महत्तो, महाओ, महाउ, महाहि, महाहिन्तो और महा। (अर्थात् मुझ से) मज्झ' के रूप- (सं-मत् अथवा मद्-) मज्झत्तो, मज्झाओ, मज्झाउ, मज्झाहि, मज्झा-हिन्तो और मज्झा। (अर्थात् मुझ से) वृत्ति में प्रदर्शित उदाहरण इस प्रकार है:
मत् (मद्) आगतः=मइत्तो-ममत्तो-महत्तो-मज्झतो आगओ अर्थात् मेरे से- (मुझ से) आया हुआ है। ___ संस्कृत में 'मत्त' विशेषणात्मक एक शब्द है; जिसका अर्थ होता है-मस्त, पागल अथवा नशा किया हुआ; इस शब्द का प्राकृत-रूपान्तर भी 'मत्त' ही होता है; तदनुसार प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में सूत्र-संख्या ३-२ के
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130 : प्राकृत व्याकरण अनुसार इसका रूप 'मत्तो' बनता है; इसलिये ग्रंथकार वृत्ति में लिखते हैं कि संस्कृत में पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'अस्मद्' के प्राप्त रूप 'मत्' को प्राकृत-अंगरूप की अवस्था मानकर 'तो' प्रत्यय लगाकर 'मत्तो' रूप बनाने की भूल नहीं कर देना चाहिये। बल्कि यह ध्यान में रखना चाहिये कि प्राकृत रूप 'मत्तो' की प्राप्ति अंगरूप 'मत्त' से प्राप्त हुई है। ___ 'मत् अथवा मद्' संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मइत्तो, ममत्तो, महत्तो और मज्झत्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१११ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के स्थान पर पञ्चमी के एकवचन में प्रत्ययों की संयोजना होने पर प्राकृत में उक्त चारों अंग रूपों की क्रम से प्राप्ति एवं ३-५ से प्राप्तांग चारों में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'तो' आदि प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होकर उक्त चारों रूप 'मइत्तो, ममत्तो, महत्तो और मज्झत्तो क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
'आगओ' रूप की सिद्धि १-२०९ में की गई है।
मत्तः संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप मत्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकत-रूप मत्तो सिद्ध हो जाता है।।३-१११।।
_ममाम्हो भ्यसि ॥ ३-११२।। अस्मदो भ्यसि परतो मम अम्ह इत्यादेशौ भवतः। भ्यसस्तु यथा प्राप्तम्॥ ममत्तो। अम्हत्तो। ममाहिन्तो। अम्हाहिन्तो। ममासुन्तो। अम्हासुन्तो। ममेसुन्तो। अम्हेसुन्तो।
अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद् के प्राकृत रूपान्तर में पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत प्राप्तव्य प्रत्यय त्तो, दो, दु हि, हिन्तो और सुन्तो' प्राप्त, होने पर मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से दो अंग रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे अंग रूप इस प्रकार है:- 'मम
और अम्ह । इस प्रकार आदेश प्राप्त इन दोनों अंगों में से प्रत्येक अंग में पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्त रूप 'अस्मत्' के प्राकृत रूपान्तर में बारह रूप होते हैं; जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:
संस्कृत अस्मत् (मम के रूप) ममत्तो, ममाओ, ममाउ, ममाहि, ममाहिन्तो और ममासुन्तो। (अम्ह के रूप)=अम्हन्तो, अम्हाओ, अम्हाउ, अम्हाहि, अम्हाहिन्तो और अम्हासुन्तो।
सूत्र-संख्या ३-१५ से उपर्युक्त प्राप्तांग 'मम' और 'अम्ह' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से 'हि, हिन्तो और सुन्तो' प्रत्यय प्राप्त होने पर हुआ करती है; तदनुसार प्रत्येक अंग रूप के तीन-तीन रूप और होते है; जो कि इस प्रकार हैं: मम के रूप ममेहि, ममेहिन्तो और ममेसुन्तो। अम्ह के रूप=अम्हेहि, अम्हेहिन्तो
और अम्हेसुन्तो। यों उपर्युक्त बारह रूपों में इन छह रूपों को और जोड़ने से पञ्चमी बहुवचन में संस्कृत रूप 'अस्मत्' के प्राकृत में कुल अठारह रूप होते हैं। ग्रंथकार ने वृत्ति में अस्मत्' के केवल आठ प्राकृत रूप ही लिखे हैं; अतएव इन आठों रूपों की साधनिका निम्न प्रकार से है:___ अस्मत् संस्कृत पञ्चमी बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत आठ रूप इस प्रकार हैं:-ममत्तो, अम्हत्तो, ममाहिन्तो, अम्हाहिन्तो, ममासुन्तो, अम्हासुन्तो, ममेसुन्तो और अम्हेसुन्तो। इनमें सूत्र-संख्या ३-११२ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के स्थान पर प्राकृत में दो अंग रूप 'मम और अम्ह' की प्राप्ति; तत्पश्चात् तीसरे रूप से प्रारम्भ करके छटे रूप तक दोनों अंगों में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१३ से वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति एवं सातवें तथा आठवें दोनों अंगों में स्थित अन्त्य स्वर, 'अ' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१५ से (वैकल्पिक रूप से) 'ए' की प्राप्ति और ३-९ से उपर्युक्त आठों अंग रूपों में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में क्रम से 'तो, हिन्तो और सुन्तो प्रत्ययों की प्राप्ति होकर आठों ही रूप-ममत्तो, अम्हत्तो, ममाहिन्तो, अम्हाहिन्तो, ममासुन्तो, अम्हासुन्तो, ममेसुन्तो और अम्हेमुन्तो' सिद्ध हो जाते हैं।।३-११२।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 131
मे मई मम मह महं मज्झ मज्झं अम्ह अम्हं ङसा ।। ३ - ११३ ॥ अस्मदो डसा षष्ठयेकवचनेन सहितस्य एते नवादेशा भवन्ति ।। मे मइ मम मह महं मज्झ मज्झं अम्ह अम्हं धणं ।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के प्राकृत रूपान्तर में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्=अस्' के प्राकृत स्थानीय प्रत्यय 'स्स' प्राप्त होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के ही आदेश - प्राप्त संस्कृत रूप 'मम' अथवा 'में' के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी एकवचनार्थ में नव रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति हुआ करती है। जो कि इस प्रकार हैं:- मम अथवा मे मे, मइ, मम, मह, महं, मज्झ, मज्झं, अम्ह और अम्हं अर्थात् मेरा । उदाहरण:- मम अथवा मे धनम्-मे मइ-मम-मह- महं- मज्झ - मज्झं- अम्ह अम्हं धणं अर्थात् मेरा धन ।
मम अथवा म संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप नव होते हैं :- मे, मइ, मम, मह, महं, मज्झ, मज्झं अम्ह और अम्हं । इनमें सूत्र - संख्या ३ - ११३ से मूल संस्कृत शब्द 'अस्मद्' के षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त रूप मम अथवा मे के स्थान पर प्राकृत में उपर्युक्त नव ही रूपों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से ये नव ही रूप 'मे, मइ, मम, मह, महं, मज्झ, मज्झं, अम्ह और अम्ह' सिद्ध हो जाते हैं।
'धणं' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५० में की गई है । । ३ - ११३ । ।
णो मज्झ अम्ह अम्हं अम्हे अम्हो अम्हाण ममाण महाण मज्झाण आमा।। ३-११४।।
अस्मद् आमा सहितस्य एते एकादशादेशा भवन्ति ।। णे णो मज्झ अम्ह अम्हं अम्हे अम्हो अम्हाण ममाण महाण मज्झाण धणं ।। क्त्वा - स्यादेर्ण-स्वोर्वा (१-२७) इत्यनुस्वारे अम्हाणं । ममाणं । महाणं । मज्झाणं । एवं च पञ्चदश रूपाणि ॥
अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'अस्माकम् अथवा नः' के स्थान पर प्राकृत में अर्थात् प्राकृत मूल शब्द और प्राप्त प्रत्यय 'ण' दोनों के ही स्थान पर क्रम से ग्यारह रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे ग्यारह ही रूप इस प्रकार हैं:- अस्माकम् अथवा नःणे, णो, मज्झ, अम्ह, अम्हं, अम्हे, अम्हो, अम्हाण, ममाण, महाण, और मज्झाण। उदाहरण इस प्रकार है:- अस्माकम् अथवा नः धनम् = णे णो- मज्झ - अम्ह-अम्हं-अम्हे-अम्होअम्हाण-ममाण-महाण-मज्झाण धणं अर्थात् हम सभी का (अथवा हमारा ) धन ( है ) । सूत्र - संख्या १ - २७ में ऐसा विधान प्रदर्शित किया गया है कि-षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राकृत प्रत्यय 'ण' के ऊपर अर्थात् अन्त में वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति हुआ करती है; तदनुसार उपर्युक्त ग्यारह रूपों में से आठवें रूप से प्रारम्भ करके ग्यारहवें रूप तक अर्थात् इन चार रूपों के अन्त में स्थित एवं षष्ठी विभक्ति के बहुवचन के अर्थ में संभावित प्रत्यय 'ण' पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होती है; जो कि इस प्रकार है:- अम्हाणं, ममाणं, महाणं और मज्झाणं । यों अस्माकम् अथवा नः' के प्राकृत रूपान्तर में उपर्युक्त ग्यारह रूपों में इन चार रूपों की और संयोजना करने पर प्राकृत में षष्ठी-विभक्ति के बहुवचन में कुल पन्द्रह रूप होते हैं।
‘अस्माकम' अथवा ‘नः' संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक ) सर्वनाम रूप हैं। इसके प्राकृत रूप पन्द्रह होते हैं। णे णो, मज्झ, अम्ह, अम्हं, अम्हे, अम्हो, अम्हमाण, ममाण, महाण, मज्झाण, अम्हाणं, ममाण, महा और मज्झाणं। इनमें से प्रथम ग्यारह रूपों में सूत्र - संख्या ३ - ११४ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत मूल शब्द 'अस्मद्' में प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के योग से प्राप्त रूप 'अस्माकम् अथवा नः' के स्थान पर उक्त प्रथम ग्यारह रूपों की आदेश प्राप्ति होकर 'णे' णो, मज्झ, अम्ह, अम्हं, अम्हे, अम्हो, अम्हाण, ममाण, महाण और मज्झाण इस प्रकार प्रथम ग्यारह रूप सिद्ध हो जाते हैं।
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132 : प्राकृत व्याकरण
शेष चार रूपों में सूत्र - संख्या १ - २७ से (बारहवें रूप से प्रारंभ करके पन्द्रहवें रूप तक में) षष्ठी विभक्ति बहुवचन बोधक प्रत्यय 'ण' का सद्भाव होने से इस प्रत्यय रूप 'ण' के अन्त में आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर शेष चार 'अम्हाणं, ममाण, महाणं और मज्झाणं भी सिद्ध हो जाते हैं । । ३ -११४।।
मि मइ ममाइ मए मे ङिना।। ३-११५।
अस्मदो ङिना सहितस्य एते पञ्चादेशा भवन्ति ।। मि मइ ममाइ मए मे ठिअं ||
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि=इ' की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'मयि' के स्थान पर प्राकृत में (प्राकृत मूल शब्द और प्राप्त प्राकृत प्रत्यय दोनों के ही स्थान पर) क्रम से पांच रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे आदेश प्राप्त पांचों ही रूप क्रम से इस प्रकार हैं: - (मयि = ) मि, मइ, ममाइ मए और मे अर्थात् मुझ पर अथवा मेरे में। उदाहरण इस प्रकार हैं:- मयि स्थितम् - मि - मइ - ममाइ - मए मे ठिअं अर्थात् मुझ पर अथवा मेरे में स्थित है।
'मयि' संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मि, मइ, ममाइ, मए और में' होते हैं। इसमें सूत्र - संख्या ३-११५ से सप्तमी विभक्ति एकवचन में संस्कृत शब्द 'अस्मद्' में संप्राप्त प्रत्यय 'ङि=इ' की संयोजना होने पर प्राप्त रूप 'मयि' के स्थान पर उक्त पांचों रूपों की क्रम से प्राकृत में आदेश प्राप्ति होकर ये पाँचों रूप 'मि, मइ, ममाइ, मए और में' सिद्ध हो जाते हैं।
'ठिअ' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - १६ में की गई है।।३ - ११५ ।। अम्ह-मम-मह मज्झा ङौ । । ३ - ११६ ।।
अस्मदो ङौ परत एते चत्वार आदेशा भवन्ति । डेस्तु यथा प्राप्तम् ।। अम्हम्मि ममम्मि महम्मि मज्झम्मि ठिअं|| अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि=इ' के प्राकृत प्रत्यय सूत्र - संख्या ३ - ११ से प्राप्त 'म्मि' प्रत्यय की संयोजना होने पर संस्कृत शब्द 'अस्मद्' के स्थान पर प्राकृत में चार अंग रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है एवं तत्पश्चात् सप्तमी एकवचनार्थ में उन आदेश प्राप्त अंग रूपों में 'म्मिं प्रत्यय की संयोजन हुआ करती है। उक्त विधानानुसार 'अस्मद्' के प्राप्तव्य प्राकृत चार अंग रूप इस प्रकार है: - अस्मद् = अम्ह, मम, मह और मज्झ । उदाहरण इस प्रकार है:- मयि स्थितम् = अम्हम्मि ममम्मि महम्मि- मज्झम्मि ठि अर्थात् मुझ पर अथवा मेरे में स्थित है।
'मयि' संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अम्हम्मि, ममम्मि, महम्मि और मज्झम्मि' होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३ - ११६ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत शब्द 'अस्मद्' के स्थान पर प्राकृत में उक्त चार 'अम्ह, मम, मह और मज्झ' अंग रूपों की आदेश प्राप्ति एवं तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - ११ से इन चारों प्राप्तागों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप अम्हम्मि, ममम्मि, महम्मि और मज्झम्मि' सिद्ध हो जाते हैं।
'ठिअ' रूप की सिद्धि - सूत्र - संख्या ३-१६ में की गई है । ३-११६ ॥
सुपि।। ३-११७।।
अस्मदः सुपि परे अम्हादयश्चत्वार आदेशा भवन्ति ।। अम्हेसु ममेसु महेसु । मज्झेसु । एत्व विकल्पमते तु । अम्हसु । ममसु । महसु मज्झसु । अम्हस्यात्वमपीच्छत्यन्येः। अम्हासु॥
अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय सुप=सु समान ही प्राकृत में भी प्राप्त प्रत्यय 'सु' की संयोजना होने पर संस्कृत शब्द 'अस्मद्' के स्थान पर प्राकृत में चार अंग
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 133 रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है एवं तत्पश्चात् सप्तमी बहुवचनार्थ में उन आदेश प्राप्त चारों अंग रूपों में 'सु' प्रत्यय की संयोजना होती है। उक्त विधानानुसार 'अस्मद् के प्राप्तव्य प्राकृत चार अंग रूप इस प्रकार हैं:- अस्माद्-अम्ह, मम, मह और मज्झ। इन अंग रूपों की प्रत्यय सहित स्थिति इस प्रकार है:- अस्मासु-अम्हेसु, ममेसु, महेसु और मज्झेसु अर्थात् हम सभी पर अथवा हमारे पर; हम सभी में अथवा हमारे में।
किन्ही-किन्हीं की मान्यता है कि सप्तमी बहुवचनार्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' की संप्राप्ति होने पर उक्त चारों प्राप्तांगों में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है। तदनुसार उक्त आदेश-प्राप्त चारों अंगों में 'सु' प्रत्यय प्राप्त होने पर इस प्रकार रूप-स्थिति बनती है- अम्हसु, ममसु, महसु और मज्झेसु। इनमें अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर प्राप्त 'ए' का अभाव प्रदर्शित किया गया है। कोई एक ऐसा भी मानता है कि संस्कृत शब्द 'अस्मद् के स्थान पर सर्वप्रथम आदेश-प्राप्तांग 'अम्ह' में 'सु' प्रत्यय की संप्राप्ति होने पर 'अम्ह' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होती हैं इसके मत से 'अम्ह' में 'सु' प्रत्यय की संयोजना होने पर सप्तमी बहुवचनार्थ में 'अम्हासु रूप की भी संप्राप्ति होती है। इस प्रकार 'अस्मासु' के प्राकृत में उक्त नव रूप होते हैं।
'अस्मासु' संस्कृत सप्तमी बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अम्हेसु, ममेसु, महेसु, मज्झेसु, अम्हसु, ममसु, महसु, मज्झसु और अम्हासु' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११७ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन मे 'सुप्-सु' प्रत्यय की संयोजना होने पर संस्कृत मूल शब्द 'अस्मद्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से चार अम्ह, मम, मह और मज्झ' अंगरूपों की संप्राप्ति; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांगों के अंत में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर प्रथम चार रूपों में आगे सप्तमी बहुवचन बोधक प्रत्यय 'सु' का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्तिः; ३-११७ की वृत्ति से पांचवें रूप से प्रारम्भ करके आठवें रूप तक में उक्त अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर प्राप्त 'ए' का अभाव प्रदर्शित करके अन्त्य स्वर' 'अ यथापूर्व स्थित का ही सद्भाव, जबकि नवें रूप में ३-११७ की वृत्ति से प्राप्त प्रथमांग 'अम्ह' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और सूत्र-संख्या ४-४४८ से उपर्युक्त रीति से प्राप्त नव ही अंगों में सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में 'सु' प्रत्यय की संप्राप्ति होकर क्रम से नव ही रूप 'अम्हेसु, ममेसु, महेसु, मज्झेसु, अम्हसु, ममसु, महसु, मज्झसु और अम्हासु सिद्ध हो जाते हैं।।३-११७॥
त्रेस्ती तृतीयादौ ।। ३-११८।। त्रेः स्थान ती इत्यादेशो भवति तृतीयादौ॥ तीहिं कयं। तीहिन्त आगओ। तिण्हं धणं। तीसु ठिी
अर्थ :-संस्कृत संख्यावाचक शब्द 'त्रि' अर्थात् 'तीन' नित्य बहुवचनात्मक है; इस 'त्रि' शब्द के एकवचन और द्विवचन में रूपों का निर्माण नहीं होता है। क्योंकि यह 'त्रि' शब्द 'सुप' संख्या का वाचक है; जो कि 'एक' और 'दो' से नित्य ही अधिक होते हैं। तृतीया विभक्ति, पञ्चमी विभक्ति, षष्ठी विभक्ति और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में क्रम से प्रत्ययों की संप्राप्ति होने पर इस संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंग रूप की आदेश प्राप्ति होती है; तत्पश्चात् प्राकृत प्राप्तांग 'ती' में उक्त विभक्तियों के बहुवचन बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जाती है। उदाहरण इस प्रकार है:- तृतीया विभक्ति बहुवचन:- त्रिभिः कृतम्=तीहिं कयं अर्थात् तीन द्वारा किया गया है। पञ्चमी बहुवचनःत्रिभ्यः आगतः तीहिन्तो आगआ अर्थात् तीनों (के पास) से आया हुआ है। षष्ठी बहुवचन:- त्रयाणाम् धनम् तिण्हं धणं अर्थात् तीनों का धन और सप्तमी बहुवचनः- त्रिषु स्थितम्-तीसु ठिअं अर्थात् तीनों पर स्थित है।
त्रिभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप तीहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११८ से मूल संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंग रूप की आदेश प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन मे प्राप्तांग 'ती' में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर 'तीहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।
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134 : प्राकृत व्याकरण
त्रिभ्यः संस्कृत पञ्चमी बहुचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप तीहिन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११८ से मूल संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंग रूप की आदेश प्राप्ति और ३-९ से पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'ती' में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में हिन्तो प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर तीहिन्तो रूप सिद्ध हो जाता है। 'आगओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है।
त्रयाणाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप तिण्हं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११८ से मूल संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंग रूप की आदेश प्राप्ति; ३-१२३ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'ती' में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में ‘ण्ह' प्रत्यय का आदेश
और १-८४ से प्राप्त प्रत्यय ‘ण्ह संयुक्त व्यञ्जनात्मक होने से अंग रूप 'ती' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'तिण्ह सिद्ध हो जाता है।
'धणं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है।
त्रिषु संस्कृत सप्तमी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप तीसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११८ से मूल संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंग रूप की आदेश प्राप्ति और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'ती' में संस्कृत प्रत्यय 'सुप्-सु' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप तीसु सिद्ध हो जाता है। "ठिअं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६ में की गई है।।३-११८।।
द्वेर्दो वे।। ३-११९।। द्वि शब्दस्य तृतीयादो दो वे इत्यादेशो भवतः। दोहि वेहि कयं। दोहिन्तो वेहिन्तो आगओ दोण्हं वेण्हं धणं। दोसु वेसु ठिी
अर्थः- संस्कृत संख्यावाचक शब्द “द्वि' अर्थात् 'दो' नित्य प्राकृत में (न कि संस्कृत में) बहुवचनात्मक है; इस 'द्वि' शब्द के एकवचन में रूपों का निर्माण नहीं होता है; क्योंकि यह 'द्वि' शब्द उस संख्या का वाचक है; जो कि नित्य ही 'एक से अधिक है। ततीया विभक्ति पंचमी विभक्ति. षष्ठी विभक्ति और सप्तमी विभक्ति के बहवचन में क्रम से प्रत्ययों की संप्राप्ति होने पर इस संस्कृत शब्द 'द्वि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'दो' और 'वे' अंग रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। तत्पश्चात् प्राकृत इन दोनों प्राप्तांगों में याने 'दो' और 'वे' में क्रम से उक्त विभक्तियों के बहुवचन बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जाती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- तृतीया विभक्ति बहुवचनः- द्वाभ्याम् कृतम्-दोहि अथवा वेहि कयं अर्थात् दो से किया गया है। पंचमी बहुवचनः- द्वाभ्याम् आगतः दोहिन्तो अथवा वेहिन्तो आगओ अर्थात् दो (के पास) से आया हुआ है। षष्ठी बहुवचनः- द्वयोः धनम् दोण्हं अथवा वेण्हं धणं अर्थात् दोनों का धन और सप्तमी बहुवचनः-द्वयोः स्थितम् दोसु अथवा वेसु ठिअं अर्थात् दोनों पर स्थित है।
द्वाभ्याम् संस्कृत तृतीया द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दोहि' और 'वेहि होते हैं। इनमें सत्र-संख्या ३-११९ से मल संस्कत शब्द 'द्वि' के स्थान पर प्राकत में क्रम से 'दो' और 'वे' अंग रूपों की आदेश प्राप्तिः ३-१३० से संस्कत द्विवचनात्मक पद से प्राकत में बहवचनात्मक पद की (प प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'दो' और 'वे' में संस्कृत प्रत्यय 'भ्याम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप दोहि और वेहि सिद्ध हो जाते हैं।।
कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में का गई है। द्वाभ्याम् संस्कृत पञ्चमी द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दोहिन्तो' और 'वेहिन्तो' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११९ से मूल संस्कृत शब्द 'द्वि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'दो' और
अव
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 135 'वे' अंगरूपों की आदेश प्राप्ति; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के रूप का सद्भाव और ३-९ से पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'दो' और 'वे' में संस्कृत प्रत्यय 'भ्याम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिन्तो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'दोहिन्तो' और 'वेहिन्तो' सिद्ध हो जाते हैं। 'आगओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है।
द्वयोः संस्कृत षष्ठी द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दोण्ह' और 'वेण्ह' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११९ से मूल संस्कृत शब्द 'द्वि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'दो' और 'वे' अंगरूपों की आदेश प्राप्ति; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के रूप का सद्भाव और ३-१२३ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'दो' ओर 'वे' में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हं' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'दोण्ह' और 'वेण्ह' सिद्ध हो जाते हैं। 'धणं' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है।
द्वयोः संस्कृत सप्तमी द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप दोसु और वेसु होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११९ से 'द्वि' के स्थान पर 'दो' और 'वे' अंग रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का सद्भाव ओर ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सुप्-सु' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'दोसु' और 'वेसु' सिद्ध हो जाते हैं। "ठिअं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६ में की गई है।।३-११९।।
दुवे दोण्णि वेण्णि च जस्-शसा।३-१२०॥ जस् शस्भ्यां सहितस्य द्वेः स्थाने दुवे दोण्णि वेण्णि इत्येते दो वे इत्येतो च आदेशा च भवन्ति।। दुवे दोण्णि वेण्णि दो वे ठिआ पेच्छ वा। हस्वः संयोगे (१-८४) इति हस्वत्वे दुण्णि विण्णि।।
अर्थः-संस्कृत संख्या-वाचक शब्द 'द्वि' के प्राकृत-रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय शस्' की प्राप्ति होने पर मूल शब्द 'द्वि' और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर दोनों ही विभक्तियों में समान रूप से और क्रम से पांच आदेश-रूपों की प्राप्ति होती है। वे आदेश-प्राप्त पांचों रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- (प्रथमा) द्वौ दुवे, दोण्णि, वेण्णि, दो और वे। (द्वितीया) द्वौ दुवे, दोण्णि, वेण्णि, दो और वे। प्रथमा का उदाहरण इस प्रकार है:- द्वौ स्थितौ दुवे, दोण्णि, वेण्णि, दो, वे ठिआ अर्थात् दो ठहरे हुए है। द्वितीया विभक्ति का उदाहरणः- द्वौ पश्य दुवे, दोण्णि वेण्णि, दो,वे पेच्छ अर्थात् दो की देखो। सूत्र-संख्या १-८४ में ऐसा विधान प्रदर्शित किया गया है कि 'संस्कृत से प्राप्त प्राकृत-रूपान्तर में यदि दीर्घ स्वर के आगे संयुक्त व्यञ्जन की प्राप्ति हो जाय तो वह दीर्घ स्वर हस्व स्वर में परिणत हो जाया करता है; तदनुसार इस सूत्र से प्राप्त दोण्णि और वेण्णि' में दीर्घ-स्वर 'ओ' के स्थान पर हस्व 'उ' की प्राप्ति तथा दीर्घ स्वर 'ए' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर उक्त पाँच आदेश-प्राप्त रूपों के अतिरिक्त 'द्वौ' के प्राकृत रूपान्तर दो और रूप बन जाते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:-(द्वौ=) दुण्णि ओर विण्णि। यों प्रथमा और द्वितीया में 'द्वौ' के कुल सात प्राकृत रूप हो जाते हैं।
द्वौ संस्कृत प्रथमा द्विवचनान्त और द्वितीया द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप सात होते हैं:-दुवे, दोण्णि, वेण्णि, दो, वे, दुण्णि और विण्णि। इन में से प्रथम पाँच में सूत्र-संख्या ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति और ३-१२० से प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' की प्राप्ति होने पर मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के ही स्थान पर उक्त पाँचों रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर क्रम से इन पाँचों रूपों 'दुवे, दोण्णि, वेण्णि, दो और 'वे' की सिद्धि हो जाती है। शेष दो रूपों में सूत्र-संख्या १-८४ से पूर्वोक्त द्वितीय-तृतीय रूपों में स्थित 'ओ' और 'ए' स्वरों के स्थान पर क्रम से हस्वस्वर 'उ' और 'इ' की प्राप्ति होकर छटे-सातवें रूप दुण्णि और विण्णि की भी सिद्धि हो जाती है।
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136 : प्राकृत व्याकरण
स्थितौ संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप ठिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से मूल संस्कृत धातु 'स्था तिष्ठ्' के स्थान पर प्राकृत में 'ठा' अंग रूप की आदेश प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त धातु 'ठा' में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' के स्थान पर आगे भूतकृन्दत से सम्बन्धित प्रत्यय 'क्त-त' का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से भूत कृन्दत के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'क्त-त' की प्राकृत में भी इसी अर्थ में 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से उक्त प्रत्यय 'त' में स्थित हलन्त 'त' का लोप; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का सद्भाव और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत
'का प्राकत में लोप एवं ३-१२ से उक्त प्राप्त एवं लप्त जस' प्रत्यय के कारण से पर्वोक्त 'ठिअ' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'ठिआ रूप सिद्ध हो जाता है। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। ३-१२०।।
स्तिण्णिः ।। ३-१२१॥ जसू शस्भ्यां सहितस्य त्रेः तिण्णि इत्यादेशो भवति।। तिण्णि ठिआ पेच्छ वा।।
अर्थः- संस्कृत संख्यावाचक शब्द 'त्रि' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय परे रहने पर तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय परे रहने पर दोनों विभक्तियों में समान रूप से 'मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के ही स्थान पर 'तिण्णि रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे प्रथमा के बहुवचन में 'त्रय' का रूपान्तर तिण्णि' और द्वितीया के बहुवचन में 'त्रीन्' का रूपान्तर भी 'तिण्णि' ही होता है। वाक्यात्मक उदाहरण इस प्रकार है:त्रयः स्थिताः तिण्णि ठिआ अर्थात् तीन (व्यक्ति) ठहरे हुए हैं। त्रीन् पश्य-तिण्णि पेच्छ अर्थात् तीन को देखो यों प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में प्राकृत में एक ही रूप 'तिण्णि' होता है।
त्रयः संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तिण्णि' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१२१ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' की प्राकृत में प्राप्ति होकर 'मूल शब्द 'त्रि' और 'जस्' प्रत्यय' दोनों के स्थान पर 'तिण्णि' रूप की आदेश प्राप्ति होकर 'तिण्णि' रूप सिद्ध हो जाता है।
"ठिआ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२० में की गई है। जिसमें सूत्र-संख्या ३-१३० का इस शब्द साधनिका में अभाव जानना; क्योंकि वहां पर द्विवचन का रूपान्तर सिद्ध करना पड़ा है; जबकि यहां पर 'बहुवचन' का ही सद्भाव है। शेष साधनिका में उक्त सभी सूत्रों का प्रयोग जानना। त्रीन्-तिण्णि की साधनिका भी 'त्रयः तिण्णि' के समान ही सूत्र-संख्या ३-१२१ के विधान से उपर्युक्त रीति से समझ लेनी चाहिये। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।।३–१२१ ।।
चतुरश्चत्तारो चउरो चत्तारि ।। ३-१२२।। चतुर् शब्दस्य जस्-शस्भ्यां सह चत्तारो चउरो चत्तारि इत्येते आदेशा भवति।। चत्तारो। चउरो। चत्तारि चिट्टन्ति पेच्छ वा।। ___ अर्थः- संस्कृत संख्यावाचक शब्द 'चतुः = (चार) के प्राकृत-रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय परे रहने पर तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' परे रहने पर दोनों विभक्तियों में समान रूप से 'मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के ही स्थान पर तीन रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार है:- प्रथमा के बहुवचन में संस्कृतीय रूप चत्वारः के प्राकृत रूपान्तर 'चत्तारो, चउरो और चत्तारि तथा द्वितीया के बहुवचन में संस्कृत रूप 'चतुरः' के प्राकृत रूपान्तर भी 'चत्तारो, चउरो और चत्तारि' ही होते हैं। यों प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में रूपों की समानता ही जानना चाहिये। वाक्यात्मक उदाहरण इस प्रकार है:- चत्वारः तिष्ठन्त चत्तारो, चउरो, चत्तारि चिट्टन्ति अर्थात् चार (व्यक्ति) स्थित हैं। चतुरः पश्य-चतारा, चउरो, चत्तारि पेच्छ अर्थात् चार (व्यक्तियों) को देखों।
चत्वार : संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप चत्तारो, चउरो
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 137 और चत्तारि होते है। इनमें सूत्र-संख्या ३-११२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय ' जिस' परे रहने पर मूल शब्द 'चतुर और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर उक्त तीनों रूपों की आदेश-प्राप्त होकर (क्रम से) तीनों रूप चत्तारो, चउरो और चत्तारि सिद्ध हो जाते हैं। ___ चतुरः संस्कृत द्वितीया बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप चत्तारो, चउरो
और चत्तारि होते हैं। इनमें भी सूत्र-संख्या ३-१२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' परे रहने पर मूल शब्द 'चतुर और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर उक्त तीनों रूपों की आदेश प्राप्ति होकर (क्रम से) तीनों रूप चत्तारो, चउरो और चत्तारि सिद्ध हो जाते हैं। चिट्ठन्ति क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० में की गई है। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।॥३-१२२।।
संख्याया आमो ण्ह ण्हं ।। ३-१२३।। संख्या शब्दात्परस्यामो ण्ह ण्हं इत्यादेशौ भवतः।। दोण्ह। तिण्ह। चउण्ह। पंचण्ह। छण्ह। सत्तण्ह। अटुण्ह।। एवं दोण्ह। तिण्ह। चउण्ह। पच्चण्ह। छण्ह। सत्तण्ह। अट्ठण्ह।। नवण्ह। दसण्ह। पण्णरसण्हं दिवसाणं। अट्ठारसण्हं समणसाहस्सीण।। कतीनाम्। कइण्ह।। बहुलाधिकाराद् विंशत्यादेन भवति।। ___ अर्थ:- संस्कृत संख्यावाचक शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर क्रम से 'ह' और 'हं' प्रस्ययों को आदेश प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- द्वयोः दोण्ह
और दोण्हं अर्थात् दो का; त्रयाणाम्-तिण्ह और तिण्हं अर्थात् तीन का; चतुर्णाम् चउण्ह और चउण्हं अर्थात् चार का; पञ्चानाम् पञ्चण्ह और पञ्चण्हं अर्थात् पांच का; षष्णाम् छण्ह और छण्हं अर्थात् छह का सप्तानाम् सत्तण्ह और सत्तण्हं अर्थात् सात का; अष्टाणाम् अट्ठण्ह और अट्ठण्हं अर्थात् आठ का; नवानाम् नवण्ह और नवण्हं अर्थात् नव का; दशानाम्-दसण्ह और दसण्हं अर्थात् दश का; पञ्चादशानाम् दिवसानाम्=पण्णरसण्हं दिवसाण अर्थात् पन्द्रह दिनों का; अष्टादशानाम् श्रमण- साहस्सीणम् अटारसण्ह समण-साहस्सीणं अर्थात् अठारह हजार साधुओं का। कतीनाम् कइण्हं अर्थात् कितनों का; इत्यादि। 'बहुल' सूत्र के अधिकार से 'विंशति' अर्थात् 'बीस' आदि संख्यावाचक शब्दों में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' परे रहने पर प्राकृत-रूपान्तर में 'ण्ह' अथवा 'ण्ह' आदेश प्राप्ति नहीं भी होती हैं।
यह ध्यान में रखना चाहिये कि 'द्वि, त्रि और चतुर' संख्यावाचक शब्दों के प्राकृत रूपान्तर से तीनों लिगों में विभक्तिबोधक अवस्था में समान रूप ही होते हैं। अर्थात् इनमें लिंग भेद नहीं पाया जाता है।
द्वयोः संस्कृत षष्ठी द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप दोण्ह और दोण्हं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११९ से मूल संस्कृत शब्द 'द्वि' के स्थान पर प्राकृत में अंग रूप 'दो' की आदेश प्राप्ति, ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का सद्भाव और ३-१२३ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' और 'ण्ह' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति (क्रम से) होकर दोनों रूप 'दोण्ह' एवं 'दोण्ह' सिद्ध हो जाते हैं।
त्रयाणाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप हैं। इसमें प्राकृत रूप 'तिण्ह और तिण्हं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११८ से मूल संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंगरूप की आदेश प्राप्ति; ३-१२३ से प्राप्तांग 'ती' में षष्ठी विभक्ति के बहुचन में संस्कृत प्रातव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ह
और 'ह' प्रत्ययों की (क्रम से) आदेश प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त रूप 'तीण्ह' तीण्ह' में दीर्घस्वर 'ई' के आगे संयुक्त व्यञ्जन 'ण्ह' और 'ह' का सदभाव में से उक्त दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स'ड' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'तिण्ह' और तिण्ह सिद्ध हो जाते हैं। चतुर्णाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप 'चउण्ह' और
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138 : प्राकृत व्याकरण 'चउण्ह' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; २-७९ से 'र' का लोप और ३-१२३ से प्राप्तांग 'चउ' में षठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' और 'ण्ह' प्रत्ययों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर दोनों रूप'चउण्ह' और 'चउण्ह सिद्ध हो जाते हैं।
पञ्चानाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप पञ्चण्ह और पञ्चण्हं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१२३ से संस्कृत के समान ही प्राकृत अंग रूप 'पञ्च' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण्ह' ओर ‘ण्ह' प्रत्ययों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर दोनों रूप 'पञ्चण्ह' और 'पञ्चण्ह' सिद्ध हो जाते हैं।
षण्णाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप 'छण्ह' और 'छण्ह होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२६५ से मूल संस्कृत शब्द 'षट्' में स्थित 'ष' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में छ' व्यञ्जन की आदेश प्राप्ति; १-११ से (अथवा २-७७ से) अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ट' का लोप और ३-१२३ से प्राप्तांग 'छ' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'पह' और 'ण्ह' प्रत्ययों की क्रम से
आदेश प्राप्ति होकर दोनों रूप 'छण्ह' और 'छण्ह सिद्ध हो जाते हैं। ___ सप्तानाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप हैं। इसके प्राकृत रूप 'सत्तण्ह' और 'सत्तण्ह होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७७ से मूल संस्कृत शब्द 'सत्त' में स्थित हलन्त 'प' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'प' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-१२३ से प्राप्तांग ‘सत्त' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत मं‘ण्ह' और 'अहं' प्रत्ययों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर दोनों रूप 'सत्तण्ह'
और 'सत्तण्ह सिद्ध हो जाते हैं। __अष्टानाम् सस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप अट्टण्ह और अटुण्हं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-२४ से मूल संस्कृत शब्द 'अष्ट' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठठ्' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति और ३-१२३ से प्राप्तांग 'अट्ठ' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ह' और ण्ह' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर दोनों रूप 'अट्ठण्ह' और 'अट्ठण्ह सिद्ध हो जाते हैं।
नवानाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नवण्ह' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१२३ से मूल संस्कृत के समान ही प्राकृत अंग रूप 'नव' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण्ह' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर 'नवण्ह' रूप सिद्ध हो जाता हैं। ___ दशानाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दसण्ह' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-८४ से प्रथम दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और ३-१०३ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में पहं' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होकर 'दसण्हं रूप सिद्ध हो जाता है।
पञ्चदशानाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और (विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप पण्णरसण्हं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज' के स्थान पर 'ण' वर्ण की आदेश प्राप्ति; २-८९ से आदेश-प्राप्त 'ण' की द्वित्व ण्ण' को प्राप्ति; १-२१९ से 'द' वर्ण के स्थान पर 'र' वर्ण को आदेश प्राप्ति; १-२६० से 'श् के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-८४ से प्रथम दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और ३-१२३ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम' के स्थानीय रूप'नाम' के स्थान पर 'ण्ह' प्रत्यय को आदे
आदेश पाप्ति होकर 'पण्णरसण्ड' रूप सिद्ध हो जाता है।
दिवसानाम संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप दिवसाणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल संस्कृत के समान ही प्राकृत अंग रूप 'दिवस' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर आगे षष्ठी बहुवचन
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 139 बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राकृत प्रत्यय 'आम्' के स्थानीय रूप 'नाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति और १-२७ से आदेश प्राप्ति प्रत्यय 'ण' के अन्त में आगम रूप अनुस्वार' की प्राप्ति होकर दिवसाणं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ अष्टादशानाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अट्ठारसण्हं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट्' के स्थान पर प्राकृत में 'ठ्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ की प्राप्ति; २-१० से प्राप्त पूर्व'' के स्थान 'ट् की प्राप्ति; १-२१९ से 'द' के स्थान पर 'र' को आदेश प्राप्ति; १-२६० से 'शा' के स्थान पर 'सा' की प्राप्ति; १-८४ से प्राप्त 'सा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और ३-१२३ से प्राप्तांग अटारस' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थानीय रूप 'नाम' के स्थान पर प्राकृत में 'हं' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'अट्ठारसण्ह सिद्ध हो जाता है।
श्रमण-साहस्रीणाम् संस्कृत षष्ठी बहुचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप समण-साहस्सीणं होता है। इसमं सूत्र-संख्या २७७९ से 'श्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से लोप; हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २-७९ से 'स्त्री' में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'सी' में स्थित 'स्' को द्वित्व ‘स्स' की प्राप्ति; ३-६ से षष्ठी-विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थानीय रूप 'णाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति और १-२७ से आदेश-प्राप्त प्रत्यण 'ण' के अन्त में आगम रूप अनुस्वार' को प्राप्ति होकर 'समण-साहस्सीणं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ कतीनाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त प्रश्नात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप कइण्हं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-८४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए दीर्घ स्वर 'इ' के स्थान पर आगे षष्ठी बहुवचन बोधक संयुक्त व्यञ्जनात्मक प्रत्यय का सद्भाव होने से हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति और ३-१२३ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तीय प्रत्यय 'आम्' के स्थानीय रूप 'नाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'व्ह' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'कइण्ह' सिद्ध हो जाता है। ३-१२३।।
शेषेऽदन्तवत्।। ३-१२४।। उपर्युक्तादन्यः शेषस्तत्र स्यादिविधिरदन्तवदति दिश्यते। येष्वाकाराद्यन्तेषु पूर्व कार्याणि नोक्ताणि तेषु जस् शसोलुंक् (३-४) इत्यादिनि अदन्ताधिकार-विहितानि कार्याणि भवन्तीत्यर्थः।। तत्र जस् शसो लुक् इत्येतत् कार्यातिदेशः। माला गिरी गुरु सही वहू रेहन्ति पेच्छ वा।। अमोस्य (३-५) इत्येतत् कार्यातिदशः। गिरि गुरुं सहिं वहुंगा मणिं खलपुं पेच्छ।। टा-आमोर्णः (३-६) इत्येतत् कार्यातिदेशः। हाहाण कयो मालाण गिरीण गुरुण सहीण वहूण धणं। टायास्तु। टो णा (३-२४) टा डस् डेरदादिदेद्वा तु उसेः (३-२९) इति विधिरूक्तं भिसो हि हिं हिं (३-७) इत्येतत् कार्यातिदेशः। मालाहि गिरीहि गुरुहि सहीहि वहूहि कय। एवं सानुनासिकानुस्वारयोरपि।। उसेस् त्तो-दो-दु-हि-हिन्तो लुकः (३-८) इत्येतत् कार्यातिदेशः। मालाओ। मालाउ। मालाहिन्तो। बुद्धीओ। बुद्धउ। बुद्धिहिन्तो।। धेणूओ। धूणेउ। धेणूहिन्तो आगओ। हि लुकौ तु प्रतिषेत्स्येते (३-१२७, १२६)। भ्यसस् तो दो दु हि हिन्तो सुन्तो (३-९) इत्येतत् कार्यातिदेशः। मालाहिन्तो। मालासुन्तो। मालासुन्तो। हिस्तुनिषेत्स्यते (३-१२७) एवं गिरीहिन्तो इत्यादि । उसः स्सः (३-१०) इत्येतत् कार्यातिदेशः। गिरिस्स। गुरुस्स। दहिस्स। मुहस्स।। स्त्रियां तु टा-उस-डेः (३-२९) इत्यायुक्तम् डे म्मि डेः (३-११) इत्येतत् कार्यातिदेशः। गिरिम्मि। गुरुम्मि। दहिम्मि। महुम्मि। डेस्तुनिषेत्स्यते (३-१२८) स्त्रियां तु टा-डस् डेः (३-२९) इत्याधुक्तम्। जस्-शस्-डसि-त्तो-दो-द्वामि दीर्घ (६-१२) इत्येतत् कार्यातिदेशः। गिरी गुरु चिट्ठन्ति। गिरीओ गुरुओ आगओ। गिरीण गुरुण धणं। भ्यसि वा (३-१३) इत्येतत् कर्यातिदेशो न प्रवर्तते। इदुतो दीर्घः (३-१६) इति नित्यं विधानात्।। टाण-शस्येत (३-१४)।। भिस्म्यस् सुपि (३-१५) इत्येतत् कार्यातिदेशस्तु निषेत्स्यते (३-२९)।
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140 प्राकृत व्याकरण
अर्थ::- इस सूत्र में अकारान्त शब्दों के अतिरिक्त आकारान्त, इकारान्त, उकारान्त आदि षड- लिंग वाले शब्दों के लिये विभक्तिबोधक प्रत्ययों से संबंधित ऐसी विधि का उल्लेख किया गया है जो कि पहले नहीं कही गई है। तदनुसार सर्वप्रथम इस सर्व सामान्य विधि की उद्घोषणा की गई है। कि 'जिन आकारान्त आदि शब्दों के लिये पहले जो प्रत्ययविधि नहीं बतलाई गई है; उसको अकारान्त शब्द के लिये कही गई 'प्रत्यय-विधि' के समान ही इन आकारान्त आदि शब्दों के लिये भी समझ लेना चाहिये। इस व्यापक अर्थवाली घोषणा के अनुसार 'जस्', अम्, शस्' आदि विभक्तिबोधक प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत भाषा में अकारान्त शब्दों में जुड़ने वाले प्रत्ययों की कार्य-विधि और प्रभाव - शीलता इन आकारान्त आदि शब्दों के लिये भी जान लेना चाहिये । इस व्यापक विधि सूचना को यहां पर 'कार्यातिदेश' शब्द से उल्लिखत किया गया है। सर्वप्रथम सूत्र-संख्या ३-४ 'जस् - शसो लुकृ' का कार्यातिदेशता का उदाहरण देते हैं:- प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के उदाहरण:- मालाः, गिरय, गुरवः, सख्यः, बधहः राजन्ते - माला, गिरी, गुरु, सही, वहू, रेहन्ति = मालाऐं, पहाड़, गुरुजन, सखियां और बहुऐं सुशोभित हो रही हैं। इसी प्रकार से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के उदाहरण यों हैं:- माला; गिरीन, गुरुन्', सखीः वधूः प्रेक्ष=माला, गुरु, सही, वहू पेच्छ - मालाओं को, पहाड़ों को, गुरु-जनों को, सखियों को और बहुओ को देखो। इन प्रथमा और द्वितीय विभक्ति के बहुवचन के उदाहरणों में आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त और ऊकारान्त पुल्लिंग एवं स्त्रीलिंग के शब्दों में अकारान्त शब्द की प्रत्यय - विधि भी कार्य-शील होती है; ऐसा ज्ञान कराया गया है।
'अमोस्य' (३-१) सूत्र - की कार्य- अतिदेशना के उदाहरण इस प्रकार हैं:- गिरिम्' गुरुम् ' सखीम्; वधूम, ग्रामण्यम, खलप्वम् प्रेक्ष= गिरिं, गुरुं, सहिं, वहुं, गामणिं खलपुं पेच्छ-पहाड़ को, गुरु को, सखी को, वधू को, ग्राम- मुखिया को और खलिहान साफ करने वाले को देखो। इन उदाहरणों में भी अकारान्त शब्द के समान ही द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्रयुक्त होने वाले प्रत्यय की कार्यशीलता प्रदर्शित की गई है।
'टा- आमोर्ण' (३--६) सूत्र की कार्य- अतिदेशता का स्वरूप प्रदर्शक उदाहरण इस प्रकार है:- हाहाकृतम- हाहाण कयं=गन्धर्व से, अथवा देव से किया गया है। यह तृतीया विभक्ति के एकवचन का उदाहरण हुआ; षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में होने वाले कार्यातिदेश के उदाहरण निम्न प्रकार से हैं:- मालानाम्, गुरुणाम्, गिरीणाम्, सखीनाम्, वधूनाम, धनम् = मालाण, गिरीण, गुरुण, सहीण, वहूण धणं = माआओं को, पहाड़ों का, गुरु जनों का, सखियों का, बहुओं का धन । तृतीया विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'टा' से सम्बन्धित दो सूत्र पहले कहे गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- टोणा, (३-२४) और 'टा-ङस्-डे रदादिदेद्वा दो सूत्र पहले कहे गये हैं; जो इस प्रकार हैं:- टो ण, (३-२) और 'टा ङस् - डे रदादिदेद्वा तु ङसेः (१-२९); इनकी कार्य-विधि इनकी वृत्ति में बतलाये गये विधान के अनुसार ही समझ लेना चाहिये। तृतीया विभक्ति के बहुवचन के रूपों के निर्माण हेतु जो सूत्र - भिसो हि हिँ हिं; (३-७) कहा गया है; उसका कार्यातिदेश इन आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त, ऊकारान्त पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग वाले शब्दों के लिए भी प्राप्त होता है; यह ध्यान में रहे। उदाहरण इस प्रकार हैं:- मालाभि:, गिरिभिः, गुरुभिः, सखीभिः, वधूभिः कृतम्=मालाहि, गिरीहि, गुरुहि, सहीहि, वहूहि कयं = मालाओं से, पहाड़ों से, गुरु-जनों से, सखियों से, वधुओं से किया है। इसी प्रकार से इन शब्दों में 'हिँ, और 'हिं' प्रत्ययों की संप्राप्ति भी तृतीया विभक्ति के बहुवचन के निर्माण हेतु की
है। जैसे कि मालाहिँ, मालाहि, गुरुहिँ, गुरुहिं इत्यादि ।
पञ्चमी विभक्ति के एकवचन के रूपों के निर्माण हेतु जो सूत्र ङसेस् त्तो- दो-दु-हि- हिन्तो-लुकः (२-८) कहा गया है; उसका कार्यातिदेश इन आकारान्त, इकारान्त उकारान्त आदि स्त्रीलिंग वाले शब्दों के लिए भी होता है। उदाहरण इस प्रकार है: - मालायाः, बुद्धया, बुद्धेः, धेन्वाः, धंनोः आगतः-मालाओ, मालाउ, मालाहिन्तो, बुद्धिओ, बुद्धीउ, बुद्धीहिन्तो,
ओ, धेणू, धेहिन्तो आगओ = माला से, गाय से, बुद्धि से आया हुआ है। इस सम्बन्ध में सूत्र - संख्या ३ -१२६ और ३ - १२७ में उल्लिखित नियम का भी ध्यान रखना चाहिये; जैसा कि आगे बतलाया जाने वाला है। तदनुसार 'लुक् प्रत्यय का और हि प्रत्यय का' इन शब्दों के लिये अभाव होता है। सूत्र - संख्या ३ - ३० के अनुसार आकारान्त शब्दों के लिये पञ्चमी विभक्ति में प्राप्तव्य प्रत्यय 'आ' का भी निषेध होता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 141 पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन के रूपों के निर्माण हेतु जो सूत्र-'भ्यसस् त्तो दो दु हि हिन्तो सुन्तो (३-९) कहा गया है; उसका कार्यातिदेश इन आकारान्त आदि शब्दों के लिये भी होता है। उदाहरण इस प्रकार है:- मालाभ्यः-मालाहन्तो, मालासुन्तो; मालत्तो मालाओ मालाउ रूप वृत्ति में प्रदान नहीं किये गये है; किन्तु इनका सद्भाव है केवल 'हि' प्रत्यय का अभाव जानना; जैसा कि सूत्र-संख्या ३-१२७ में इसका निषेध किया जाने वाला है। इसी प्रकार से 'गिरीहिन्तो' आदि रूपों की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये; ऐसा तात्पर्य प्रतिध्वनित होता हैं।
षष्ठी विभक्ति के एकवचन के रूपों के निर्माण हेतु जो सूत्र-'ङसः स्सः (३-१०) कहा गया है; उसका कार्यातिदेश पुल्लिंग और नपुंसकलिंग वाले इकारान्त, उकारान्त आदि शब्दों के लिये भी होता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:'गिरो-गिरिस्स-गिरि का, पहाड़ का; गुरोः गुरुस्स-गुरुजन का; दधनः-दहिस्स-दही का; मुखस्य-मुहस्स-मुख का; इत्यादि। स्त्रीलिंग वाले शब्दों के लिये इस सूत्र-संख्या ३-१० की कार्यातिदेश की प्राप्ति नहीं होती है; क्योंकि स्त्रीलिंग वाले शब्दों के लिये षष्ठी विभक्ति के एकवचन के रूपों के निर्माण हेतु अलग ही एक अन्य सूत्र-संख्या ३-२९ का विधान किया गया है। जो कि इस प्रकार है:- 'टा-ङस्-डे रदादिदेद्वा तु ङसेः।
सप्तमी विभक्ति के एकवचन के रूपों के निर्माण हेतु जो सूत्र 'डे म्मि डे (३-११) का विधान किया गया है; उसका कार्यातिदेश पुल्लिंग और नपुंसकलिंग वाले इकारान्त, उकारान्त आदि शब्दों के लिये भी होता है। किन्तु इसमें यह विशेषता रही हुई है कि 'डे-ए' प्रत्यय का सद्भाव इन शब्दों के लिये नहीं होता है; जैसे कि सूत्र-संख्या ३-१२८ में ऐसा निषेध कर दिया गया है। उक्त सूत्र इस प्रकार है:- 'डे." इसी प्रकार से स्त्रीलिंग वाले आकारान्त, इकारान्त, उकारान्त आदि शब्दों के लिये भी सप्तमी विभक्ति के एकवचन के रूपों के निर्माण के उक्त सूत्र-संख्या ३-११ का कार्यातिदेश नहीं होता है; किन्तु सूत्र-संख्या ३-२९ की ही कार्य-शीलता उक्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों के लिये होती हैं। पुल्लिंग और नपुंसकलिंग वाले शब्दों के उदाहरण इस प्रकार है:- गिरी-गिरिम्मि-पहाड़ पर अथवा पहाड़ में; गुरौ-गुरुम्मि गुरुजनों में अथवा गुरुजन पर; दधिन अथवा दधनि-दहिम्मि-दही में अथवा दही पर; मधुनि-महुम्मि-मधु पर अथवा मधु में इत्यादि।
सूत्र-संख्या ३-१२ जस् शस्-ङसि-तो-दो-द्वामि दीर्घः' के अनुसार प्राप्तव्य हस्व स्वर की दीर्घता का विधान उपर्युक्त संबंधित सभी रूपों में होता है; ऐसा जानना चाहिये। क्रम से उदाहरण इस प्रकार हैं--: प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का दृष्टान्त-गिरयः अथवा गुरवः तिष्ठन्ति गिरी गुरु चिट्टन्ति अनेक पहाड़ अथवा गुरुजन हैं। द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का दृष्टान्तः- गिरीन् अथवा गुरुन् पश्य=गिरी अथवा गुरु पेच्छ-पहाड़ों को अथवा गुरुजनों को देखो। पंचमी विभक्ति के एकवचन और बहुवचन का दृष्टान्तः-गिरेः, गिरिभ्यः, गुरोः, गुरुभ्यः आगतः गिरीओ गुरुओ आगओ-पहाड़ से, पहाड़ों से, गुरु से, गुरुओं से आया हुआ है। षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का दृष्टान्तः-गिरीणाम् गुरुणाम् धनम् गिरीण, गुरुण धणं-पहाड़ों का गुरुजनों का धन। __सूत्र-संख्या ३-१३ भ्यसि वा' की कार्यातिदेशना की प्राप्ति उपर्युक्त आकारान्त, इकारान्त उकारान्त आदि शब्दों के संबंध में नहीं होती है; किन्तु सूत्र-संख्या ३-१६ 'इदुतो दीर्घः'-की कार्यातिदेशता की प्राप्ति इकारान्त और उकारान्त शब्दों के लिये नित्य होती है; ऐसा विधान वृत्ति में 'नित्यं विधानात्' शब्दों द्वारा ग्रन्थकार ने प्रकट किया है। इसी प्रकार से 'टाण-शस्येत् (३-१४) और 'भिस्भ्यस्सुपि (३-१५) सूत्रों की कार्यातिदेशता का निषेध आगे सूत्र-संख्या ३-१२९ में प्रकट करके वृत्तिकार यह बतलाते हैं कि आकारान्त, इकारान्त, उकारान्त आदि शब्दों के अन्त्य स्वर को उपर्युक्त विभक्तियों के प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर 'ए' की प्राप्ति नहीं होती है। इस विषयक उदाहरण आगे सूत्र-संख्या ३-१२९ में प्रदान किये गये हैं। ____ मालाः संस्कृत प्रथमा विभक्ति और द्वितीय विभक्ति के बहुवचन का स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप माला होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३४ से संस्कृत प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्रत्यय जस् और शस् का प्राकृत में लोप होकर प्राकृत रूप माला सिद्ध हो जाता है।
गिरयः और गिरीन् संस्कृत में क्रम से प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति के बहुवचनीय पुल्लिंग रूप हैं। इन दोनों का प्राकृत समान रूप गिरी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१२ और ३-१८ से मूल प्राकृत रूप गिरि में स्थित अन्त्य हस्व
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142 : प्राकृत व्याकरण स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-४ से संस्कृत प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्रत्यय जस और शस का प्राकृत में लोप होकर दोनों विभक्तियों के बहवचन में प्राकत रूप गिरी सिद्ध हो जाता है।
गुरवः और गुरू संस्कृत में क्रम से प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति के बहुवचनीय पुल्लिंग रूप हैं। इन दोनों का प्राकृत रूप गुरू होता है। इस में सूत्र-संख्या ३-१२ और ३-१८ से मूल प्राकृत रूप गुरू में स्थित अन्त्य हृस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-४ से संस्कृत प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्रत्यय जस् और शस् का प्राकृत में लोप होकर दोनों विभक्तियों के बहुवचन में प्राकृत रूप गुरू सिद्ध हो जाता है।
'सही' प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुचनान्त रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२७ में की गई है। 'वहू' प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचनान्त रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२७ में की गई है। 'रेहन्ति' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२२ में की गई है। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। 'वा' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६७ में की गई है। "गिरि रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।
गुरुम् संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिग रूप है। इसका प्राकृत रूप गुरुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-५ से संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'अम्' में स्थित 'अ' का लोप होकर प्राकृत में म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप गुरुं सिद्ध हो जाता है।
सखीम् संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप सहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-३६ से प्राप्त रूप 'सही' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप सहि सिद्ध हो जाता है।
'वहु रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-३६ में की गई है।
ग्रामण्यम् संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त विशेषणात्मक पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गामणिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत रूप ग्रामणी में स्थित 'र' व्यञ्जन का लोप; ३-४३ से प्राप्त रूप गामणी में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर ई के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; ३-५ द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप गामणिं सिद्ध हो जाता है। ___ खलप्वम् संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त विशेषणात्मक पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप खलपुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-४३ से मूल रूप खलपू में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'खलपुं सिद्ध हो जाता है।
'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।
हाहा संस्कृत तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप हाहाण होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप हाहाण सिद्ध हो जाता है।
'कयं' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है। मालानाम् संस्कृत षष्ठी विभक्ति का बहुवचनान्त स्रलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मालाण होता है। इसमें सूत्र-संख्या
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 143 ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' (= नाम्) के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'मालाण' सिद्ध हो जाता है।
गिरीणाम् संस्कृत षष्ठी विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरीण होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-१२ से मूल प्राकृत शब्द गिरि में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' के आगे षष्ठी विभक्ति के बहुवचनार्थ में संस्कृत प्रत्यय 'आम्= णाम्' के स्थान पर प्राकृत 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गिरीण रूप सिद्ध हो जाता है।
गुरूणाम् संस्कृत षष्ठी विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गुरुण होता है। इसमें भी उपर्युक्त गिरीण रूप के समान ही सूत्र - संख्या ३ - १२ और ३-६ से क्रम से अन्त्य ह्रस्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति एवं षष्ठी बहुवचनार्थ में प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरूण रूप सिद्ध हो जाता है।
सखीनाम् संस्कृत षष्ठी विभक्ति का बहुवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप सहीण होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१८७ से 'ख्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्त रूप 'सही' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचनार्थ में संस्कृत प्रत्यय ‘आम्=नाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'सहीण' सिद्ध हो जाता है।
वधूनाम् संस्कृत षष्ठी विभक्ति का बहुवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप वहूण होता है। इसमें भी उपर्युक्त सहीण के रूप के समान ही सूत्र - संख्या १ - १८७ और ३-६ से क्रम से 'धू' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और षष्ठी बहुवचनार्थ में प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वहूण रूप सिद्ध हो जाता है।
'धणं' संज्ञा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-५० में की गई है।
मालाभिः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मालाहि होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - ७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप मालाहि सिद्ध हो जाता है।
गिरिभिः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरीहि होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - १६ से मूल प्राकृत शब्द गिरि में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' के आगे तृतीया बहुवचनान्त प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय भिस् के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप गिरीहि सिद्ध हो जाता है।
गुरुभिः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गुरुहि होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - १६ से मूल शब्द गुरु में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' के आगे तृतीया बहुवचनान्त प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरुहि रूप सिद्ध हो जाता है।
सखीभिः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप सहीहि होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १८७ से 'ख्' के स्थान पर 'ह्' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सहीहि रूप सिद्ध हो जाता है।
धूभिः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप वहूहि होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१८७ से ' ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वहूहि रूप सिद्ध हो जाता है।
'क' रूप को सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १२६ में की गई है।
मालायाः संस्कृत पंचमी विभक्ति का एकवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूत मालाओ, मालाउ, मालाहिन्तो होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३-८ से और ३- १२४ के निर्देश से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय ' ङसि = अस= याः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ओ, उ, हिन्तों प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से प्राकृत रूप मालाओ, मालाउ, मालाहिन्तो सिद्ध हो जाते हैं।
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144 : प्राकृत व्याकरण
बुद्धयाः संस्कृत पंचमी विभक्ति का एकवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप बुद्धीओ बुद्धीउ, बुद्धीहिन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल शब्द बुद्धि में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' के आगे पंचमी विभक्ति के एकवचनान्त प्रत्ययों का सद्भावों होने से दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-८ से और ३-१२४ के निर्देश से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि-अस्=अस्-आस् के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ओ, उ, हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से प्राकृत रूप बुद्धीओ, बुद्धीउ, बुद्धीहिन्तो सिद्ध हो जाते हैं।
'धेणूओ', धेणूउ, धेणूहिन्तो' रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२९ में की गई है। 'आगओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है।
मालाभ्यः संस्कृत पंचमी विभक्ति का बहुवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप मालाहिन्तो, मालासुन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-९ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय भ्यस् के स्थान पर प्राकृत में क्रम से हिन्तो, सुन्तो प्रत्ययों की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप मालाहिन्तो, मालासुन्तो क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
गिरिभ्यः संस्कृत पंचमी विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरीहिन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से मूल रूप गिरि में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-९ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप गिरीहिन्तो सिद्ध हो जाता है।
"गिरिस्स' रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या ३-२३ में की गई है।
गुरोः संस्कृत षष्ठी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गुरुस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२० से और ३-१२४ के निर्देश से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरुस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
दघ्नः संस्कृत षष्ठी विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप दहिस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत रूप दधि में स्थित ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति, तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१० से और ३-१२४ के निर्देश से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङ =अस' के स्थान पर प्राप्त प्राकृत रूप दहि में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दहिस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
मुखस्य संस्कृत षष्ठी विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मुहस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' प्राप्ति, तत्पश्चात् ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुहस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
गिरा संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरिम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११ से और ३-१२४ के निर्देश से मूल प्राकृत रूप गिरि में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्त होकर प्राकृत रूप गिरिम्मि सिद्ध हो जाता है।
गुरौ संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गुरुम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११ से और ३-१२४ के निर्देश से उपर्युक्त गिरिम्मि रूप के समान ही 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरुम्मि रूप सिद्ध हो जाता है।
दनि अथवा दधनि संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप दहिम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत शब्द दधि में स्थित 'ध्' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में 'ह' व्यञ्जन की प्राप्तिः
और ३-१२४ के निर्देश से प्राप्त प्राकृत रूप दहि में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दहिम्मि रूप सिद्ध हो जाता है।
मधुनि संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप महुम्मि होता है। इसमें
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 145 सूत्र - संख्या १- १८७ से मूल संस्कृत शब्द मधु में स्थित 'धू' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में 'ह' व्यञ्जन की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-११ से और ३- १२४ के निर्देश से उपर्युक्त प्राकृत रूप दहिम्मि के समान ही 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रूप सिद्ध हो जाता है।
'गिरी' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २२ में की गई है।
गुरु प्रथमा बहुवचनान्त रूप की सिद्धि इसी सूत्र ३ - १२४ में ऊपर की गई है।
चिट्ठन्ति क्रियापद रूप की सिद्ध सूत्र - संख्या ३- २० की गई है।
गिरीओ रूप की सिद्धि एकवचनान्त अवस्था में तो सूत्र - संख्या ३- २३ में की गई है; तथा बहुवचनान्त अवस्था में सूत्र - संख्या ३ -१६ में की गई है।
गुरोः और गुरुभ्यः क्रम से संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचनान्त और बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इन दोनों का प्राकृत रूपान्तर एक जैसे ही (समान रूप ही) गुरूओ होता है इसमें सूत्र - संख्या ३- १२ से और ३- १६ से क्रम से एकवचन
और बहुवचन में मूल शब्द गुरु में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३-८ से और ३-९ से तथा ३ -१२४ के निर्देश से प्राप्त प्राकृत रूप 'गुरु' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि=अस' के स्थान पर प्राकृत में 'दो= ओ' प्रत्यय की प्राप्ति एवं इसी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर भी 'दो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों वचनों में समान स्थित वाला प्राकृत रूप गुरुओ सिद्ध हो जाता है।
आगआ क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २०९ में की गई है। 'गिरीण' रूप की सिद्धि इसी सूत्र ३ - १२४ में ऊपर की गई है। 'गरूण' रूप की सिद्धि इसी सूत्र ३ - १२४ में ऊपर की गई है। 'धणं' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५० में की गई है ।। १ - १२४ ।। न दीर्घो णो ।। ३-१२५।।
इदुदन्तयोरर्थाज्जस्-रास् ङस्यादेशे णो इत्यस्मिन् परतो दीर्घो न भवति ।। अग्गिणो । वाउणो णो इति किम् अग्गी । अग्गीओ |
अर्थः-इकारान्त उकारान्त शब्दों में सूत्र - संख्या ३ - २२ के अनुसार प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होने परे इन शब्दों में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' को दीर्घत्व की प्राप्ति नहीं होती है। इसी प्रकार से सूत्र संख्या ३- २३ के अनुसार इन्हीं इकारान्त और उकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय ' ङसि - अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' को दीर्घत्व की प्राप्ति नहीं होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- अग्नयः = अग्गिणो; अग्नीन्=अग्गिणो। वायवः वाउणो; वायून वाउणो पंचमी विभक्ति के एकवचन के उदाहरण इस प्रकार हैं:- अग्ने = अग्गिणो और वायोः वाउणो; इत्यादि ।
=
प्रश्नः- उक्त विभक्तियों में और उक्त शब्दों में 'नो' प्रत्यय का सद्भाव होने पर अन्त्य ह्रस्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति नहीं होती ; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- क्योंकि यदि उक्त विभक्तियों में 'नो' प्रत्यय का सदभाव नहीं होकर अन्य प्रत्ययों का सद्भाव होगा। ऐसी दशा में इकारान्त और उकारान्त शब्दों में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति हो जाती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- अग्नयः=अग्गी; अग्नीन्; = अग्गी; अग्नेः = अग्गीओ वायवः = वाऊ; वायून = वाऊ; वायोः=वाऊओ; आदि ।
'अग्गिणो' 'वाउणो' और 'अग्गी, रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २० में की गई हैं।
अग्नेः संस्कृत पञ्चमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप अग्गिओ होता है। इसमें
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146 : प्राकृत व्याकरण सूत्र-संख्या २-७८ से मूल शब्द 'अग्नि' में स्थित 'न्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'न्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ग्' को द्वित्व 'ग्ग' प्राप्ति; ३-१२ से और ३-१२४ के निर्देश से प्राप्त रूप 'अग्गि' में स्थित अन्त्य हृस्व 'इ' के आगे पंचमी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति और ३-८ से तथा ३-१२४ से प्राप्त प्राकृत रूप 'अग्गी में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय ‘ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'दो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अग्गीओ रूप सिद्ध हो जाता है।।३-१२५।।
ङसेलक्॥ ३-१२६॥ आकारान्तादिभ्योदन्तवत् प्राप्तौ उसे ग् न भवति।। मालत्तो। मालाओ। मालाउ। मालाहिन्तो आगओ। एवं अग्गीओ। वाउओ। इत्यादि।
अर्थः-प्राकृत मे पंचमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त शब्दों के समान ही सूत्र-संख्या ३-१२४ के निर्देश से आकारान्त, इकारान्त, उकारान्त.पुल्लिग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि-अस् के स्थान पर प्राकृत में सूत्र-संख्या ३-८ से प्राप्त प्रत्यय 'त्तो, दो, दु, हिन्तो' का लोप नहीं हुआ करता है। उदाहरण इस प्रकार है:- मालयाः आगतः मालत्तो, मालाओ, मालाउ मालाहिन्तो आगओ। इसी प्रकार से इकारान्त, उकारान्त शब्दों के उदाहरण यों हैं:अग्ने:-अग्गीओ=अग्नि से इत्यादि। वायोः वाऊओ-वायु से इत्यादि।
मालायाः संस्कृत पंचमी एकवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप मालत्तो, मालाओ, मालाउ, मालाहिन्तो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-८४ से मूल शब्द माला में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ की प्राप्ति; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-८ से ओर ३-१२४ के निर्देश से तथा ३-१२६ के विधान से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में त्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मालत्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
'मालाओ, मालाउ, मालाहिन्तो' रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३–१२४ में की गई है। 'आगओ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। 'अग्गीओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२५ में की गई है।
वायोः संस्कृत पंचमी एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप वाऊओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल शब्द 'वायु में स्थित 'य' व्यञ्जन का लोप ३-१२ से प्राप्त रूप 'वाउ' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर पंचमी एकवचन के प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-८ से प्राप्त रूप वाऊ में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'दो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वाऊओ रूप सिद्ध हो जाता है।।३-१२६।।
भ्यसश्च हिः ॥३-१२७।। आकारान्तादिभ्यो दन्तवत् प्राप्तो भ्यसो उसेश्च हिर्न भवति।। मालाहिन्तो। मालासुन्तो। एवं अग्गीहिन्तो। इत्यादि।। मालाओ। मालाउ। मालाहिन्तो।। एवं अग्गीओ। इत्यादि।।
अर्थः- प्राकृत भाषा के पंचमी विभक्ति के एकवचन में और बहवचन में अकारान्त शब्दों के समान ही सूत्र-संख्या ३-१२४ के निर्देश से आकारान्त, इकारान्त, उकारान्त पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों में क्रम से संस्कृत प्रत्यय 'ङसि अस्'
और 'भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में सूत्र-संख्या ३-८ से प्राप्त प्रत्यय 'त्तो, दो, दु, हि, हिन्तो और ३-९ से 'त्तो, दो, दु, हि, हिन्तो, सुन्तो' में से 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- मालायाः मालाओ, मालाउ, मालाहिन्तो माला से; इत्यादि। मालाभ्यः मालाहिन्तो, मालासुन्तो-मालाओं से; इत्यादि। अग्निभ्यः अग्गीहिन्तो अग्नियों
से; इत्यादि। अग्ने: अग्गीओ अग्नि से; इत्यादि।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 147 'मालाहिन्तो' और मालासुन्तो रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२४ में की गई है।
अग्निभ्यः संस्कृत पंचमी बहुवचनान्त पुलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप अग्गीहिन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से मूल शब्द 'अग्नि' में स्थित 'न्' व्यंजन का लोप; २-८९ से लोप हुये 'न' व्यञ्जन के पश्चात् शेष रहे 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; ३-१६ से प्राप्त रूप अग्नि में स्थित अन्त्य हस्व स्वर इ के आगे पंचम विभिक्ति के बहुवचन में प्रत्यय का सद्भाव होने से लोप दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-९ से तथा ३-१२४ के निर्देश से प्राप्त रूप अग्गी में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में प्राकृत में “हिन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अग्गीहिन्तो रूप सिद्ध हो जाता है। 'मालाओ 'मालाउ' और 'मालाहिन्तो' रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२४ में की गई है। अग्गीओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२५ में की गई है।।३-१२७।।
__ ढेर्डेः ॥३-१२८॥ आकारान्तादिभ्यो दन्तवत् प्राप्तो उडे न भवति।। अग्गिम्मि। वाउम्मि। दहिम्मि। महुम्मि।।
अर्थः- प्राकृत भाषा के सप्तमी विभक्ति के एकवचन में सूत्र-संख्या ३-११ के अनुसार अकारान्त शब्दों में संस्कृत प्राप्त 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्त होने वाले 'डे=ए' की प्राप्ति आकारान्त, इकारान्त, उकारान्त शब्दों में नहीं हुआ करती है। इन आकारान्तादि शब्दों में सूत्र-संख्या ३-१२४ के निर्देश से केवल एक प्रत्यय 'म्मि' की ही सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- अग्नौ-अग्गिम्मि-अग्नि में; वायौ-वाउम्मि; दघ्नि अथवा दधनि-दहिम्मि-दही में और मधुनि-महुम्मि-मधु में; इत्यादि। ___ अग्नौ संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप अग्गिम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से मूल शब्द अग्नि में स्थित 'न्' व्यंजन का लोप; २-८९ से लोप हुए 'न् के पश्चात् शेष रहे हए 'ग्' व्यंजन को द्वित्व
प्राप्तिः तत्पश्चात सत्र-संख्या ३-११ से और ३-१२४ के निर्देश से प्राप्त रूप अग्गि में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अग्गिम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। ___ वायौ संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप वाउम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल शब्द वायु में स्थित 'य् व्यंजन का लोप; तत्पश्चात् प्राप्त रूप वाउ में सूत्र-संख्या ३-११ से और ३-१२४ के निर्देश से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वाउम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। 'दहिम्मि' और 'महुम्मि' रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२४ में की गई है।।३-१२८।।
एत्।। ३-१२९॥ आकारान्तादीनामर्थात् टा-शस्-भिस्-म्यस्-सुप्सु परतो दन्तवत् एत्वं न भवति।। हाहाण कय। मालाओ पेच्छ।। मालाहि कयां मालाहिन्तो। मालासुन्तो आगओ।। मालासु ठि।। एवं अग्गिणो। वाउणो। इत्यादि।
अर्थः- अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में; द्वितीया विभक्ति के एकवचन में, तृतीया विभक्ति के बहुवचन में, पंचमी विभक्ति के बहुवचन में और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में सूत्र-संख्या ३-१४ से तथा ३-१५ से उक्त विभिक्तियों से संबंधित प्रत्ययों की प्राप्ति के पूर्व अकारान्त शब्दों में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर जैसे 'ए' स्वर की प्राप्ति हो जाती है; वैसी 'ए' की प्राप्ति इन आकारान्त, इकारान्त, उकारान्त आदि पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों में स्थित अन्त्य स्वर 'आ, इ, उ' आदि के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१२४ के निर्देश से उक्त विभक्तियों के प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर नहीं हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- हाहा कृतम्-हाहाणं कयं-गन्धर्व से अथवा देव से किया गया है; इस उदाहरण में आकारान्त शब्द हाहा में तृतीया विभक्ति से संबंधित 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर भी अकारान्त शब्द 'वच्छ' +ण-वच्छेण' के समान शब्दान्त्य स्वर 'ओ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं हुई है। मालाः पश्य-मालाओ
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148 : प्राकृत व्याकरण पेच्छ-मालाओ को देखो; इस उदाहरण में आकारान्त शब्द 'माला' में द्वितीया विभक्ति से संबंधित 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर भी अकारान्त शब्द 'वच्छ+ (शस्=) लुक'=वच्छे के समान शब्दान्त्य स्वर 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं हुई है। मालाभिः कृतम् मालाहि कयं-मालाओं से किया हुआ है; इस दृष्टान्त में भी 'अन्त्य स्वर आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं हुई है। मालाभ्यः आगतः मालाहिन्तो, मालसुन्तो आगओ-मालाओं से आया हुआ है। इस पंचमी बहुवचनान्त उदाहरण में भी 'वच्छेहिन्तो, वच्छेसुन्तो के समान अन्त्य स्वर 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं हुई है। मालासु स्थितम् मालासु ठिअं-मालाओं पर रक्खा हुआ है। इसमें भी वच्छेसु के समान अन्त्य स्वर 'आ' स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं हुई है। इसी प्रकार से इकारान्त, उकारान्त शब्दों का एक-एक उदाहरण इस प्रकार है:- अग्नीन् अग्गिणो=अग्नियों को; इस उदाहरण में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'वच्छे' के समान अग्नि अग्गि-शब्दान्त्य स्वर 'इ' के स्थान पर 'ए' का सद्भाव नहीं हुआ है। वायून-वाउणो वायुओं को; इसमें भी 'वच्छे' के समान द्वितीया बहुवचनात्मक प्रत्यय का सद्भाव होने पर भी वायु-वाउ-शब्दान्त्य स्वर 'उ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्य उदाहरणों की कल्पना स्वयमेव कर लेना चाहिये; ऐसा संकेत वृत्तिकार ने वृत्ति में प्रदत्त शब्द 'इत्यादि से किया है।
'हाहाण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२४ में की गई है। 'कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है। 'मालाओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२७ में की गई है। 'पेच्छ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।
'मालाभिः' संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मालाहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७ से तथा ३-१२४ के निर्देश से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मालाहि रूप सिद्ध हो जाता है।
'कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है। .. 'मालाहिन्तो' और मालासुन्तो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२७ में की गई है।
आगओ सूत्र की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है।
मालासु संस्कृत सप्तमी बहुवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप भी मालासु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सुप=सु के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मालासु रूप सिद्ध हो जाता है।
"ठिअं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६ में की गई है। 'अग्गिणो और वाउणो' रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० में की गई है। ३-१२९।।
द्विवचनस्य बहुवचनम्।। ३-१३०।। सर्वासां विभक्तिनां स्यादीनां त्यादीनां च द्विवचनस्य स्थाने बहुवचनं भवति ॥ दोण्णि कुणन्ति। दुवे कुणन्ति। दोहिं। दोहिन्तो। दोसुन्तो। दोसु। हत्था।। पाया। थणया। नयणा। ____ अर्थः-सभी प्रकार के शब्दों में सभी विभिक्तियों के प्रत्ययों की संयोजना होने पर संस्कृत प्राप्तव्य द्विवचन के प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में बहुवचन के प्रत्ययों की प्राप्ति हुआ करती है। इसी प्रकार से सभी धातुओं में सभी लकारों के अथवा काल के प्रत्ययों की संयोजना होने पर संस्कृत प्राप्त द्विवचन बोधक प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में बहुवचन के प्रत्ययों की प्राप्ति हुआ करती है। प्राकृत भाषा में संस्कृत भाषा के समान द्विवचन बोधक प्रत्ययों का अभाव है; तदनुसार द्विवचन के स्थान पर प्राकृत में बहुवचन का ही प्रयोग हुआ करता है। यह सर्व सामान्य नियम सभी शब्दों के लिये तथा
सभी धातुओं के लिये समझना चाहिये। इस सिद्धान्तानुसार प्राकृत में केवल दो ही वचन हैं- एकवचन और बहुवचन के
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 149 कुछ उदाहरण इस प्रकार है:-द्वौ अथवा द्वे कुरूतः=दोण्णि कुणन्ति-दो करते हैं। इस उदाहरण में यह प्रदर्शित किया गया है कि संस्कृत में कुरूतः क्रियापद रूप द्विवचनात्मक है; जबकि प्राकृत में कुणन्ति क्रिया पद रूप बहुवचनात्मक है; यह स्थित बतलाती है कि प्राकृत में द्विवचन का अभाव होकर उसके स्थान पर बहुवचन की ही प्राप्ति होती है। द्वौ अथवा द्वे कुरूतः दुवे कुणन्ति-वे दो दो (कामों) को करते है। इस उदाहरण में 'द्वौ अथवा द्वे पद द्विवचनात्मक एवं द्वितीया विभक्ति वाले हैं; जबकि इनका प्राकृत रूपान्तर 'दुवे' पद बहुवचनात्मक और द्वितीया विभक्ति वाला है। कुरूतः क्रिया पद संस्कृत में द्विवचनात्मक है; जबकि प्राकृत में इसका रूपान्तर बहुवचनात्मक है। अन्य दृष्टान्त इस प्रकार है:विभक्ति-संस्कृत द्विवचनात्मक
प्राकृत बहुवचनात्मक तृतीया-द्वाभ्याम्
दोहि-दो से। पंचमी-द्वाभ्याम्
दोहिन्तो; दो सुन्तो-दो से। सप्तमी-द्वयोः
दोसु-दो में; दो पर। प्रथमा-हस्तौ
हत्था दो हाथा द्वितीया-हस्तौ
हत्था दो हाथों को। प्रथमा-पादौ
पाया-दौ पैर। द्वितीया-पादौ
पाया-दौ पैरों को। प्रथमा-स्तनको
थणया दो स्तन। द्वितीया-स्तनको
थणया-दोनों स्तनों को। प्रथमा-नयने (नपुं)
नयणा (पुं०)=दो आंखे। द्वितीया-नयने (नपुं)
नयणा (पुं०) दोनों आंखों को। यों संस्कृत भाषा की अपेक्षा से प्राकृत भाषा में रहे हुए वचन-संबंधी अन्तर को समझ लेना चाहिये। 'दोण्णि' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२० में की गई है।
कुरुतः संस्कृत वर्तमानकालीन द्विवचनात्मक प्रथम-पुरुष का क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर कुणन्ति होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६५ से संस्कृत मूल धातु डुकृञ्-कृ के स्थान पर प्राकृत में कुण' आदेश की प्राप्ति; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के प्रयोग की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल में प्रथमपुरुष के बहुवचनार्थ में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुणन्ति रूप सिद्ध हो जाता है।
'दुवे' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२० में की गई है। 'कुणन्ति' क्रियापद रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
द्वाभ्याम् संस्कृत तृतीया विभक्ति का द्विवचनात्मक संख्या रूप विशेषण पद है। इसका प्राकृत रूप दोहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११९ से संस्कृत के मूल शब्द 'द्वि' के स्थान पर प्राकृत में 'दो' रूप की आदेश प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-७ से और ३-१२४ के निर्देश से तथा ३-१३० के विधान से प्राकृत प्राप्त रूप 'दो' में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भ्याम्' के स्थान पर 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
'दोहिन्तो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-११९ में की गई है।
द्वाभ्याम् संस्कृत पंचमी विभक्ति का द्विवचनात्मक संख्या रूप विशेषण-पद है। इसका प्राकृत रूप दोसुन्तो है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११९ से संस्कृत के मूल शब्द "द्वि' के स्थान पर प्राकृत में 'दो' रूप की आदेश प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-९ से और ३-१२४ के निर्देश से तथा ३-१३० के विधान से प्राकृत रूप 'दो' में पचंमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्याम् के स्थान पर 'सुन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दोसुन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
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150 : प्राकृत व्याकरण हस्तौ संस्कृत की प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के द्विवचन का पुल्लिग रूप है। इसका प्राकृत रूप हत्था होता है। इसमें
२-४५ से 'स्त' के स्थान पर'थ' की प्राप्ति: २-८९ से प्राप्त 'थ'को द्वित्व'थथ की प्राप्ति: २-९० से प्राप्त पर्व 'थ' के स्थान पर 'त' की प्राप्ति: ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहवचन के प्रयोग की आदेश प्राप्ति: ३-१२ से प्राप्त शब्द 'हत्था' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के द्विवचन में क्रम से संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'औ' तथा औट' के स्थान पर प्राकृत में ३-१३० से आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'अस्-शस्' का लोप होकर हत्था रूप सिद्ध हो जाता है।
पादौ संस्कृत की प्रथम एवं द्वितीया विभक्ति के द्विवचन का पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप पाया होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल शब्द पाद में स्थित 'व्यंजन का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' व्यंजन के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' स्वर के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के प्रयोग की आदेश प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त शब्द 'पाय' में स्थित अन्त्य हस्व 'अ' के स्थान पर प्रथमा-द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के द्विवचन में क्रम से संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'औ' तथा औट के स्थान पर प्राकृत में ३-१३० के निर्देश से आदेश प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' का लोप होकर पाया रूप सिद्ध हो जाता है।
स्तनको संस्कृत की प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के द्विवचन का पुल्लिंग रूप हैं। इसका प्राकृत रूप थणया होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से स्वार्थक प्रत्यय 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' व्यञ्जन के पश्चात् शेष रहे हुए 'औ' से स्थित 'अ' के स्थान पर "य' की प्राप्तिः ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहवचन के प्रयोग को आदेश प्राप्ति;३-१२ से मूल सस्कृत शब्द 'स्नातक से प्राप्त प्राकृत शब्द 'थणय' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रथमा-द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के द्विवचन से क्रम से संस्कृत प्रत्यय औ' एवं 'औट्' के स्थान पर प्राकृत में ३-१३० के निर्देश से आदेश प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' का लोप होकर थणया रूप सिद्ध हो जाता है।
नयने संस्कृत के प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के द्विवचन का नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप नयणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से मूल संस्कृत शब्द 'नयन' में स्थित द्वितीय 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-३३ से प्राकृत में प्राप्त शब्द 'नयण' को नपुंसकलिंगत्व से पुल्लिगत्व की प्राप्ति; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के प्रयोग की आदेश प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त प्राकृत शब्द 'नयण' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्ययों का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'ओ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के द्विवचन में क्रम से प्राप्त नपुंसकलिंग-बोधक प्रत्यय 'ई' के स्थान पर प्राकृत में ३-१३० के निर्देश से तथा १-३३ विधान से आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'जस्-शस्' का लोप होकर नयणा रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१३०।।
__ चतुर्थ्याःषष्ठी ॥३-१३१।। चतुर्थ्याःस्थाने षष्ठी भवति।। मुणिस्स। मुणीण देइ। नमो देवस्स। देवाण।।
अर्थः- प्राकृत भाषा में चतुर्थी विभक्तिबोधक प्रत्ययों का अभाव होने से चतुर्थी विभक्ति की संयोजना के लिये षष्ठी विभक्ति में प्रयुज्यमान प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। तदनुसार चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी का सद्भाव होकर संदर्भ के अनुसार चतुर्थी का अर्थ निकाल लिया जाता है। उदाहरण इस प्रकार है:-मुनये-मुणिस्स-मुनि के लिये। मुनिभ्यःददते-मुणीण देइ-मुनियों के लिये देता है। नमो देवाय नमो देवस्स-देवता के लिये नमस्कार हो। देवेभ्यः देवाण-देवताओं के लिये। इन दृष्टान्तों से प्रतीत होता है कि षष्ठी विभक्ति के एकवचन के अथवा बहुवचन के प्रत्यय का प्रयोग प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में क्रम से होता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 151 नये संस्कृत चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मुणिस्स होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-२२८ से मूल संस्कृत शब्द मुनि में स्थित 'न्' व्यंजन के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ - १३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति की आदेश प्राप्ति; ३ - १० से प्राकृत में प्राप्त रूप मुणि में चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय षष्ठी विभक्तिबोधक प्रत्यय 'स्स' की प्राप्ति होकर मुणिस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
मुनिभ्यः संस्कृत चतुर्थी विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मुणीण होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २२८ से मुनि में स्थित 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ - १३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति की आदेश प्राप्ति; ३ - १२ से प्राप्त प्राकृत रूप मुणि में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' के स्थान पर आगे चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय षष्ठी विभक्ति- बोधक बहुवचनात्मक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-६ से प्राप्त प्राकृत रूप मुणी में चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय षष्ठी विभक्तिबोधक बहुवचनात्मक संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुणीण रूप सिद्ध हो जाता है।
'देइ' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या २ - २०६ में की गई है।
'नमो' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-४६ में की गई है।
देवाय संस्कृत चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप देवस्स होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति;३ - १० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देवस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
देवेभ्यः संस्कृत चतुर्थी विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप देवाण होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; ३ - १२ से देव शब्द में स्थि अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय षष्ठी विभक्ति-बोधक बहुवचनात्मक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३ - ६ से प्राप्त प्राकृत रूप देवा में चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय षष्ठी विभक्तिबोधक बहुवचनात्मक संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देवाण रूप सिद्ध हो जाता है । । ३ -१३१।।
तादर्थ्य डे र्वा । । ३ -१३२।।
तादर्थ्यविहितस्य डेश्चतुर्थ्येकवचनस्य स्याने षष्ठी वा भवति ।। देवस्स । देवाय। देवार्थमित्यर्थः।। ङेरिति किम देवा ।।
अर्थः-तादर्थ्य अर्थात् उसके लिये अथवा उपकार्य-उपकारक अर्थ में प्रयुक्त की जाने वाली चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डे-ए' के स्थानीय संस्कृत रूप 'आय' की प्राप्ति प्राकृत शब्दों में वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। तदनुसार प्राकृत-शब्दों में चतुर्थी विभक्ति एकवचन में भी षष्ठी विभक्ति के एकवचन की प्राप्ति होती है तो कभी संस्कृत चतुर्थी विभक्ति के समान ही 'आय' प्रत्यय की प्राप्ति भी हुआ करती है। परन्तु मुख्यतः और अधिकांशतः प्राकृत-शब्दों में चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय की ही प्राप्ति होती है। उदाहरणार्थ:देवार्थम्=देवाय अथवा देवस्स अर्थात् देवता के लिये ।
प्रश्न:- मूल सूत्र में चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'ङ' का उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तर- क्योंकि चतुर्थी विभक्ति में दो वचन होते हैं। एकवचन और बहुवचन; तदनुसार प्राकृत शब्दों में केवल चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में ही वैकल्पिक रूप से संस्कृत प्रत्यय 'आय' की प्राप्ति होती है; न कि संस्कृत बहुवचनात्मक प्राप्त प्रत्यय 'भ्यस्' की; बहुवचन में तो षष्ठी विभक्ति में प्राप्त प्राकृत प्रत्यय की ही प्राप्ति होती है। इस अन्तर को प्रदर्शित करने के लिये ही 'डे' प्रत्यय की सूचना मूल सूत्र में प्रदान की गई है। उदाहरण इस प्रकार है; देवेभ्यः = देवाण अर्थात् देवताओं के लिये। यहां पर 'देवाण' में 'ण' प्रत्यय षष्ठी बहुवचन का है; जो कि चतुर्थी विभक्ति के बहुवचन
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152 : प्राकृत व्याकरण अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यों यह विधान निर्धारित किया गया है कि प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति के बहुवचन के अर्थ में और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में समान रूप से ही प्राकृत प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है। अन्तर है तो केवल एकवचन में ही है और वह भी वैकल्पिक रूप से है। नित्य रूप से नहीं।
देवार्थम् संस्कृत तादर्थ्य सूचक चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप देवस्स और देवाय होते हे इनमें से प्रथम रूप देवस्स की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१३१ में की गई है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-१३२ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी संस्कृत प्रत्यय 'डे=ए आय' की प्राप्ति होकर देवाय रूप सिद्ध हो जाता है। 'देवाण' रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या ३-१३१ में की गई है।।३-१३२।।
वधाड्डाइश्च वा।। ३-१३३।। वध शब्दात् परस्य तादर्थ्यडे र्डिद् आइः षष्ठी च वा भवति।। वहाइ वहस्स वहाय। वधार्थमित्यर्थः।।
अर्थः- संस्कृत में 'वध' एक शब्द है; जिसका प्राकृत रूप 'वह' होता है। इस 'वह' शब्द के लिये चतुर्थी के एकवचन में 'तादर्थ्य = उसके लिये इस अर्थ में संस्कृत प्राप्त आय की प्राप्ति के अतिरिक्त षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राकृत प्रत्यय 'स्स' के साथ-साथ एक और प्रत्यय 'आइ' की प्राप्ति भी वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। यों वधार्थम्' के तीन रूप प्राकृत भाषा में बन जाया करते हैं; जो इस प्रकार हैं:- वधार्थम् वहाइ, वहस्स, वहाय अर्थात् वध के लिये; मारने के लिये। यह ध्यान में रहे कि इन रूपों की यह स्थित वैकल्पिक है; जैसा कि सूत्र में और वृत्ति में 'वा' अव्यय का उल्लेख करके सूचित किया जाता है। __वधार्थम संस्कृत तादर्थ्य सूचक चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप वहाइ, वहस्स और वहाय होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत शब्द 'वध' में स्थित 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्तिः ३-१३३ से चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डे' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'आइ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति; १-१० से प्राकृत शब्द 'वह' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे 'आइ' प्रत्यय का 'आ' रहने से लोप; तत्पश्चात् १-५ से प्राप्त रूप 'वह आइ' में संधि होकर प्रथम रूप वहाइ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'वहस्स' में सूत्र-संख्या ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति तदनुसार ३-१० से संस्कृत प्रत्यय "ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप वहस्स की सिद्धि हो जाती है। __तृतीय रूप वहाय में सूत्र-संख्या ३-१३२ से चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डे-ए-आय' की प्राकृत में वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; तत्पश्चात् १-५ से संधि होकर तृतीय रूप वहाय सिद्ध हो जाता है।।३–१३३।।
क्वचिद् द्वितीयादेः।।३-१३४।। द्वितीयादीनां विभक्तीनां स्थाने षष्ठी भवति क्वचित्।। सीमा-धरस्स वन्दे। तिस्सा मुहस्स भरिमो। अत्र द्वितीयायाः षष्ठी।। धणस्स लद्धो। धनेन लब्ध इत्यर्थः। चिरस्स मुक्का। चिरेण मुक्तत्यर्थः तेसिमेअमणाइण्णं। तैरेतदनाचरितम्। अत्र तृतीयायाः।। चोरस्स बीहइ। चोराद्विभेतीत्यर्थः। इअराइं जाण लहु अक्खाराइं पायन्ति मिल्ल सहिआण। पादान्तेन सहितेभ्य इतराणीति। अत्र पञ्चम्याः।। पिट्ठीएँ केस-भारो। अत्र सप्तम्याः।। __अर्थः- प्राकृत भाषा में कभी-कभी अनियमित रूप से उपर्युक्त विभक्तियों के स्थान पर किसी अन्य विभक्ति का प्रयोग भी हो जाया करता है। तद्नुसार द्वितीया तृतीया, पंचमी और सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता हुआ देखा जाता है। ऐसी स्थिति कभी-कभी और कहीं-कहीं पर ही होती है नित्य और सर्वत्र ऐसा नहीं होता है। द्वितीया के स्थान पर षष्ठी के प्रयोग के उदाहरण यों है :- सीमाधरं वन्दे-सीमाधरस्स वन्दे=मैं सीमाधर को वंदना करता हूं; तस्याः मुखम् स्मरामः तिस्सा मुहस्स भरिमो-हम उसके मुख को स्मरण करते हैं। तृतीया के स्थान पर षष्ठी के प्रयोग
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 153 के दृष्टान्त इस प्रकार हैं:-धनेन लब्धः=धणस्स लद्धो-धन से वह प्राप्त हुआ है; चिरेण मुक्ता चिरस्स मुक्का-चिरकाल से वह मुक्त हुई है। तैः एतत् अनाचरितम्=तेसिं एअम् अणाइण्णं-उनके द्वारा यह आचरित नहीं हुआ है; इन उदाहरणों में धनेन के स्थान पर धणस्स का, चिरेण के स्थान पर चिरस्स का और तैः के स्थान पर तेसिं का प्रयोग यह बतलाता है कि तृतीया के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी का प्रयोग किया गया है। पंचमी के स्थान पर षष्ठी के प्रयोग के उदाहरण निम्न प्रकार से हैं:- चोरात् बिभेति-चोरस्स बीहइ-वह चोर से डरता है; इतराणि लघु अक्षराणि येभ्यः पदान्तेन सहितेभ्यः इअराई लहुअक्खराइं जाण पायन्ति-मिल्ल-सहिआण, इन उदाहरणों में चोरात् के स्थान पर चोरस्स का, येभ्यः के स्थान पर जाण का और सहितेभ्यः के स्थान पर सहिआण का प्रयोग यह बतलाता है कि पंचमी के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी का प्रयोग किया गया है। अन्तिम उदाहरण अधूरा होने से हिन्दी अर्थ नहीं लिखा जा सका है। इसी प्रकार से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग का नमूना यों हैं:-पृष्ठे केशभार:-पिट्टीए केस भारोपीठ पर केशों का भार याने समूह है। इस उदाहर रण में पृष्ठे के स्थान पर पिट्रीए का प्रयोग यह प्रदर्शित करता है कि सप्तमी के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी का प्रयोग किया गया है।
सीमाधरम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप सीमाधरस्स (किया गया) है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३४ से द्वितीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग हुआ है; तदनुसार सूत्र-संख्या ३-१० से प्राकृत रूप सीमाघर में संस्कृत प्रत्यय ङस् अस् के स्थान पर 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सीमाधरस्स रूप की सिद्धि हो जाती है।
'वन्दे' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२४ में को गई है। 'तिस्सा' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६४ में की गई है।
मुखम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मुहस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३४ से द्वितीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग हुआ है; १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१० से प्राप्त प्राकृत रूप मुह में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुहस्स रूप सिद्ध हो जाता है। .
स्मरामः संस्कृत वर्तमानकालीन तृतीया पुरुष का बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप भरिमो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-७४ से संस्कृत मूल धातु 'स्मृ-स्मर' के स्थान पर 'भर' की आदेश प्राप्ति; ४-२३९ से हलन्त व्यंजनान्त धातु 'भर्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५५ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे तृतीय पुरुष-बोधक बहुवचनान्त प्रत्यय का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति और ३-१४४ से प्राप्त धातु रूप 'भरि' में वर्तमानकालीन तृतीय पुरुष-बोधक बहुवचनान्त प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति होकर भरिमो रूप सिद्ध हो जाता है।
धनेन संस्कृत तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप धणस्स है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३४ से तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी-विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; १-२२८ से मूल संस्कृत शब्द 'धन' में स्थित 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१० से प्राप्त प्राकृत रूप 'धण' में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धणस्स रूप की सिद्धि हो जाती है।
लब्धः संस्कृत प्रथमा विभक्ति के एकवचनान्त विशेषण का रूप है। इसका प्राकृत रूप लद्धा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से हलन्त व्यंजन 'ब्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'ब' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ध' को द्वित्व 'ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्त प्राकृत रूप 'लद्ध' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति एवं प्राप्त प्रत्यय 'डो' में 'ड्' की इत्संज्ञा होने से प्राप्त प्राकृत शब्द 'लद्ध' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का इत्संज्ञात्मक लोप होकर तत्पश्चात् शेष प्रत्यय रूप 'आ' की प्राप्ति हलन्त शब्द 'लद्ध' में संध्यात्मक समावेश होकर प्राकृत रूप लद्धा सिद्ध हो जाता है।
चिरेण संस्कृत तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप चिरस्स है। इसमें सूत्र-संख्या
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154 : प्राकृत व्याकरण ३-१३४ से तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-१० से मूल शब्द 'चिर' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप चिरस्स सिद्ध हो जाता है।
मुक्ता संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप मुक्का होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'त्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व'क्क' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत शब्दान्त्य स्वर को दीर्घता की प्राप्ति होने से मूल प्राकृत शब्द 'मुक्का' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'आ' को यथा-स्थित की प्राप्ति होकर मुक्का रूप सिद्ध हो जाता है।
'तेसिं' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८१ में की गई है। 'एअं सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८५ में की गई है।
अनाचरितम्-अनाचीर्णम् संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त विशेषणात्मक नपुंसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत अणाइण्णं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'च' का लोप; १-८४ से लोप हुए 'च' के पश्चात् शेष रहे हुए दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर संयुक्त व्यञ्जन र्ण=ण्ण' का सद्भाव होने से हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-७९ से रेफ रूप हलन्त व्यञ्जन 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' को द्वित्व ण्ण' की प्राप्ति और ३-२५ से प्राप्त रूप 'अणाइण्ण, में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थानीय संस्कृत प्रत्यय 'म्' के स्थान पर प्राकृत में भी 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अणाइण्णं रूप सिद्ध हो जाता है। __ चोरात् संस्कृत पञ्चमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिग रूप है। इसका प्राकृत रूप चोरस्स है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३४ से पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-१० से मूल शब्द 'चोर' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप चोरस्स सिद्ध हो जाता है।
बिभेति संस्कृत वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष बोधक एकवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप बीहइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-५३ से संस्कृत मूल धातु 'बिभ के स्थान पर प्राकृत में 'बीह' रूप की आदेश प्राप्ति; ४-२३९ से हलन्त व्यंजनान्त धातु 'बीह' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप बीहइ सिद्ध हो जाता है।
इतराणि संस्कृत प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति का बहुवचनान्त विशेषणात्मक नपुंसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप इअराइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; तत्पश्चात् ३-२६ से प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय आनि' के स्थान पर प्राकत में प्राप्त शब्द 'इअर' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर अको दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति पूर्वक 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप इअराई सिद्ध हो जाता है। 'जाण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६१ में की गई है।
लघु अक्षराणि संस्कृत प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति का बहुवचनान्त नपुंसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप लहु अक्खराइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' को प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-२६ से प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आनि' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्त शब्द 'लहु-अक्खर' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति-पूर्वक 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप लहु-अक्खराइं सिद्ध हो जाता है। '
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 155 पादान्तिम मत्-सहितेभ्यः संस्कृत पंचमी विभक्ति का बहुवचनान्त विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप पायन्तिमिल्ल सहिआण है। इसमें सत्र-संख्या १-१७७ से 'द' व्यंजन का लोप: १-१८० से लोप हए 'द' व्यञ्जन के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' को 'या' की प्राप्ति; १-८४ से प्राप्त 'या' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे संयुक्त व्यञ्जन 'न्ति' का सद्भाव होने से हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-१५९ से संस्कृत प्रत्यय 'मत्' के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त प्राकृत रूप 'पायन्तिम' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के आगे प्राप्त प्रत्यय 'इल्ल' में स्थित स्वर 'इ' का सद्भाव होने से लोप; १-५ से प्राप्त प्राकृत रूप 'पायन्तिम्+इल्ल' में संधि होकर प्राकृत रूप पायन्तिमिल्ल की प्राप्ति, १-१७७ से 'सहित' में स्थित 'त' व्यञ्जन का लोप; ३-१३४ से पञ्चमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; ३–१२ से प्राकृत प्राप्त रूप 'पायन्तिमिल्ल-सहिअ' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्त प्राकृत रूप 'पायन्तिमिल्ल-सहिआ' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-पद पायन्तिमिल्ल सहिआण की सिद्धि हो जाती है।
पृष्ठे संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप पिट्रीए है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-७७ से 'ष' लोप; २-८९ से लोप हुए '' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्ति पूर्व'' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति; १-३५ की वृत्ति से मूल संस्कृत शब्द पृष्ठ को नपुंसकलिंगत्व से प्राकृत में स्त्रीलिंगत्व की प्राप्ति; तदनुसार ३-३१ और २-४ से प्राकृत में प्राप्त शब्द 'पिट्ठ' में स्त्रीलिंगत्व-द्योतक प्रत्यय 'डी-ई की प्राप्ति; ३-१३४ से संस्कृत सप्तमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-२९ से प्राप्त प्राकृत स्त्रीलिंग रूप पिट्टी में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्-अस्' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-रूप पिट्ठीए सिद्ध हो जाता है। ___केश-भारः संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप केस-भारो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप केस-भारो सिद्ध हो जाता है।।३-१३४।।
द्वितीया-तृतीययोः सप्तमी ।। ३–१३५ द्वितीया तृतीययोः स्थाने क्वचित् सप्तमी भवति।। गामे वसामि। नयरे न जामि। अत्र द्वितीयायाः।। मई वेविरीए मलिआई। तिसु तेसु अलकिया पहुवी। अत्र तृतीयायाः।। ___ अर्थः- प्राकृत भाषा में कभी-कभी द्वितीया विभक्ति और तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग भी पाया जाता है। उदाहरण इस प्रकार है:-ग्रामम् वसामि=गामे वसामि अर्थात् मैं ग्राम में वसता हूँ; नगरम् न यामि=नयरे न जामि अर्थात् मैं नगर को नहीं जाता हूं; इन उदाहरणों में संस्कृत में प्रयुक्त द्वितीया विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी का प्रयोग किया गया है। तृतीया के स्थान पर सप्तमी के प्रयोग के दृष्टान्त इस प्रकार है:- मया वेपित्रा मृदितानि-मइ वेविरीए मली आई-कांपती हुई मेरे द्वारा वे मृदित किये गये हैं। त्रिभिःतैः अलंकृता पृथ्वी-तिसु तेसु अलकिया पुहनी-उन तीनों द्वारा पृथ्वी अलंकृत हुई है। इन दृष्टान्तों में संस्कृत तृतीया विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग दृष्टिगोचर हो रहा है। यों प्राकृत में कभी-कभी और कहीं-कहीं पर विभक्तियों के प्रयोग में अनियमितता पाई जाती है।
ग्रामम् संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप गामे है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से '' का लोप; ३-१३५ से द्वितीया के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; ३-११ से प्राप्त प्राकृत शब्द 'गाम' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे=' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गामे रूप सिद्ध हो जाता है।
वसामि संस्कृत के वर्तमानकालीन तृतीय पुरुष का एकवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी
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156 : प्राकृत व्याकरण वसामि ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से मूल प्राकृत हलन्त धातु 'वस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५४ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१४१ से प्राप्त धातु 'वसा' में वर्तमानकालीन तृतीया पुरुष के एकवचन में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वसामि रूप सिद्ध हो जाता है।
नगरम् संस्कृत के द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप नयरे (प्रदान किया गया) है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ग्' का लोप' १-१८९ से लोप हुए 'ग' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-१३५ से द्वितीया के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति और ३-११ से प्राप्त प्राकृत शब्द 'नयर' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नयरे रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है। 'जामि' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-२०४ में की गई है।
मया संस्कृत की तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त अस्मद् सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप मइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३५ से तृतीया के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद् में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' की प्राप्ति होने पर ३-११५ से 'अस्मद्-इ' के स्थान पर 'मइ' की आदेश प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'मइ' सिद्ध हो जाता है।
वेपित्रा संस्कृत में तृतीया विभक्ति के एकवचनान्त स्त्रीलिंगात्मक विशेषण का रूप है। इसका प्राकृत रूप वेविरीए होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से मूल संस्कृत शब्द वेपितृ में स्थित 'प' के स्थान पर 'प्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१४२ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'रि' की प्राप्ति; ३-३२ और २-४ से प्राप्त रूप वेविर में स्त्रीलिंगात्मक प्रत्यय 'डी-ई की प्राप्ति; १-५ से प्राप्त रूप 'वेविरि+ई में संधि होकर 'वेविरी' की प्राप्ति; ३-१३५ से तृतीया विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-२९ से प्राप्त स्त्रीलिंगात्मक विशेषण रूप वेविरी में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङिइ' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत विशेषणात्मक स्त्रीलिंग रूप वेविरीए सिद्ध हो जाता है।
मृदितानि संस्कृत प्रथमा विभक्ति का बहुवचनान्त विशेषणात्मक नपुंसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप मलिआई होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१२६ से मल संस्कृत धात 'मद' के स्थान पर प्राकत में 'मल' रूप की आदेश प्राप्ति: ४-४४८ से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी विशेषण-निर्माण-अर्थ में 'मल्' धातु में 'इत' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त रूप 'मलित' में स्थित 'त्' व्यंजन का लोप; और ३-२६ से प्राप्त रूप मलिअ' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नपुंसकलिंग में अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' को प्राप्ति पूर्वक 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मलिआई रूप सिद्ध हो जाता है।
त्रिभिः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त संख्यात्मक विशेषण का रूप है। इसका प्राकृत रूप तिस है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोपः ३-१३१ से तृतीया विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तिसु विशेषणात्मक रूप सिद्ध हो जाता है। __ तैः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त तद् सर्वनाम का पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप तेसु है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'द्' का लोप; ३-१३५ से तृतीया विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; ३-१५ से प्राकृत में प्राप्त सर्वनाम
शब्द 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर सप्तमी विभक्ति के बहुवचन-बोधक प्रत्यय 'सु' का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ४-४४८ से प्राप्त रूप 'ते' में सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत सर्वनाम-रूप तेसु हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 157 अलंकृता संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त स्त्रीलिंगात्मक विशेषण रूप है। इसका प्राकृत-रूप अलकिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति, १-१७७ से 'त्' व्यंजन का लोपः तत्पश्चात् ४-४४८ से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी अलकिआ पद आकारान्त स्त्रीलिंगात्मक होने से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' का लोप होकर 'अलकिआ' प्राकृत-रूप सिद्ध हो जाता है। 'पुहवी' पद की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२१६ में की गई है। ३-१३५।।
पंचम्यास्तृतीया च ।। ३-१३६॥ पंचम्याः स्थाने क्वचित् तृतीयासप्तम्यौ भवतः चोरेण बीहइ। चोराद् बिभेतीत्यर्थः।। अन्तेउरे रमिउमागओ राया। अन्तःपुराद् रन्त्वागत इत्यार्थः।।
अर्थः- कभी-कभी संस्कृत भाषा में प्रयुक्त पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत भाषा में तृतीया अथवा सप्तमी विभक्ति का प्रयोग भी हो जाया करता है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- चोरात् बिभेति-चोरेण बीहइ-वह चोर से डरता है; इस उदाहरण में संस्कृत पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है। दूसरा दृष्टान्त इस प्रकार है:- 'अन्तः पुराद्' रन्त्वा आगतः राजा-अन्तेउरे, रमिउं आगओ राया अन्तपुर में रमण करके राजा आ गया है; इस दृष्टान्त में 'अन्तःपुराद् अन्तेउरे' शब्दों में संस्कृत पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग देखा जा रहा है। यों अन्यत्र भी पंचमी के स्थान पर तृतीया अथवा सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाय तो वह प्राकृत भाषा में अशुद्ध नहीं माना जायगा।
चोरात् संस्कृत पंचमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिग रूप है। इसका प्राकृत रूप चोरेण है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१२६ से संस्कृत पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति और शेष साधनिका सूत्र-संख्या ३-१३४ के अनुसार होकर चोरेण रूप सिद्ध हो जाता है।
बीहइ क्रियापद की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१३४ में की गई है।
अन्तःपुरात् (द) संस्कृत की पंचमी विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्तेउरे होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-६० से 'तः' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर 'ए' स्वर की प्राप्ति; २-७७ से 'विसर्ग-स्' हलन्त व्यंजन का लोप; १-१७७ से 'प' व्यंजन का लोप; ३-१३६ से संस्कृत पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति तद्नुसार ३-११ से प्राप्त प्राकृत शब्द 'अन्तेउर' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अन्तेउरे पद सिद्ध हो जाता है।
रत्वा संस्कृत का संबन्धात्म्क भूत कृदन्त का रूप है। इसका प्राकृत रूप रमिउ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से मूल प्राकृत हलन्त धातु 'रम्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५७ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-१४६ से प्राप्त धातु रूप 'रमि' में संबन्धात्मक भूत-कृदन्तार्थ में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'त्वा' के स्थान पर प्राकृत में 'तुम् प्रत्यय की आदेश प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'तुम्' में स्थित 'त्' व्यंजन का लोप; १-२३ से प्राप्त रूप रमिउम् में स्थित अन्त्य हलन्त 'म्' के स्थान पर पूर्व में स्थित स्वर 'उ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप रमिउं सिद्ध हो जाता है।
आगतः संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त विशेषणात्मक पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप आगओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' व्यंजन का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में डो=ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद आगओ सिद्ध हो जाता है।
राया पद की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४९ में की गई है।।३-१३६ ।।
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158 : प्राकृत व्याकरण
सप्तम्या द्वितीया ।३-१३७।। सप्तम्याःस्थाने क्वचिद् द्वितीया भवति।। विज्जुज्जोयं भरइ रत्ति।। आर्षे तृतीयापि दृश्यते। तेणं कालेणं। तेणं समएण। तस्मिन् काले तस्मिन् समये इत्यर्थः। प्रथमाया अपि द्वितीया दृश्यते चउवीसं पि जिणवरा। चतुर्विशतिरपि जिनवरा इत्यर्थः।। ___ अर्थः- संस्कृत भाषा में प्रयुक्त सप्तमी विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी प्राकृत भाषा में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग भी हुआ करता है। उदाहरण इस प्रकार है:- विद्युज्ज्योतम् स्मरति रात्रो-वह रात्रि में विद्युत् प्रकाश को याद करता है; इस उदाहरण में सप्तम्यन्त पद 'रात्रौ' का प्राकृत रूपान्तर द्वितीयान्त पद ‘रति' के रूप में किया गया है। यों सप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है। आर्ष प्राकृत में सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग भी देखा जाता है। इस विषयक दृष्टान्त इस प्रकार है:- तस्मिन् काले तस्मिन् समये-तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल में (काल) उस समय में; यहां पर स्पष्ट रूप से सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग हुआ है। कभी-कभी आर्ष प्राकृत के प्रयोगों में प्रथमा के स्थान पर द्वितीया का सद्भाव भी पाया जाता है। उदाहरण इस प्रकार है:- चतुर्विंशतिरपि जिनवरः चउवीसपि जिणवरा-चौबीस तीर्थङ्कर भी। यहां पर चतुर्विंशतिः प्रथमान्त पद है; जिसका प्राकृत रूपान्तर द्वितीयान्त में करके 'चउवीसं' प्रदान किया गया है। यों प्राकृत भाषा में विभक्तियों की अनियमितता पाई जाती है। इससे पता चलता है कि आर्ष प्राकृत का प्रभाव उत्तरवर्ती प्राकृत भाषा पर अवश्यमेव पड़ा है; जो कि प्राचीनता का सूचक है। ..
विद्युज्ज्योतम् संस्कृत का द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप विज्जुज्जोयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-२४ से संयुक्त व्यंजन 'छ्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; २-८९ से आदेश-प्राप्त व्यंजन 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज्' की प्राप्ति; २-७७ से प्रथम हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; २-७८ से द्वितीया 'य' व्यंजन का लोप २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए व्यंजन 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' व्यंजन का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' व्यंजन के पश्चात् शेष रहे हुए 'ट' स्वर के स्थान पर 'य' वर्ण की प्राप्ति; ३-५ से प्राप्त प्राकृत शब्द 'विज्जुज्जोय' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म् प्रत्यय की प्राप्ति
और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्वस्थ व्यंजन 'य' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत-पद विज्जुज्जोयं सिद्ध हो जाता है।
स्मरति संस्कृत का वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष का एकवचनान्त क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप भरइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-७४ से मूल संस्कृत-धातु 'स्मृ-स्मर' के स्थान पर प्राकृत में 'भर् रूप की आदेश प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'भर्' में विकरण-प्रत्यय 'अ की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्त प्राकृत धातु 'भर्' में वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष के एकवचनार्थ में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रूप 'भरइ' सिद्ध हो जाता है।
रात्रा संस्कृत की सप्तमी विभक्ति एकवचनान्त स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप रत्तिं है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'रात्रि' में स्थित द्वितीय '' व्यंजन का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' व्यंजन के पश्चात् शेष रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्त्' की प्राप्ति; १-८४ से आदि वर्ण 'रा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे संयुक्त व्यंज्जन 'त्ति' का सद्भाव होने से हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; ३-१३७ से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर शब्दस्थ पूर्व वर्ण 'त्ति' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर रत्तिं रूप सिद्ध हो जाता है।
तस्मिन् संस्कृत का सप्तमी विभक्ति एकवचनान्त सर्वनाम पुल्लिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप तेणं है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'द्' का लोप; ३-१३७ का वृत्ति से सप्तमी
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 159 विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचने में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा=आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१४ से तृतीया विभक्ति प्राप्त प्रत्यय 'ण' के कारण से पूर्वोक्त प्राप्त प्राकृत शब्द 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' पर 'ए' स्वर की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्राकृत रूप तेण' में स्थित अन्त्य वर्ण 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर तेणं रूप सिद्ध हो जाता है। ___काले संस्कृत का सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप कालेणं है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३७ की वृत्ति से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा-आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१४ से तृतीया विभक्ति का प्रत्यय 'ण' प्राप्त होने से मूल प्राकृत शब्द 'काल' में स्थित अन्त्य वर्ण 'ल' के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्राकृत रूप कालेण में स्थित अन्त्य वर्ण 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर कालेणं रूप सिद्ध हो जाता है। 'तेणं' सर्वनाम रूप की सिद्धि ऊपर इसी सूत्र में की गई है।
समये संस्कृत का सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप समएणं है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'समय' में स्थित 'य' व्यंजन का लोप; ३-१३७ की वृत्ति से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा=आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१४ से तृतीया विभक्ति का प्रत्यय 'ण' प्राप्त होने से मूल प्राकृत शब्द 'समअ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्राकृत रूप समएण में स्थित अन्त्य वर्ण 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर समएणं रूप सिद्ध हो जाता है।
चतुर्विंशतिः संस्कृत का प्रथमान्त संख्यात्मक विशेषण का रूप है इसका प्राकृत रूप चउवीसं है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से प्रथम 'त्' व्यंजन का लोप; २-७९ से रेफ रूप 'र' व्यंजन का लोप; १-९२ से 'वि' वर्ण में स्थित हस्व 'इ' के स्थान पर इसी सूत्रानुसार अन्तिम वर्ण 'ति' का लोप करते हुए दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; १-२८ से 'विं' पर स्थित अनुस्वार का लोप; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-१३७ की वृत्ति से प्रथमा-विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-५ से द्वितीया-विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर प्राप्त प्राकृत शब्द 'चउवीस' में स्थित अन्त्य वर्ण 'स' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप चउवीसं सिद्ध हो जाता है। "पि' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४१ में की गई है।
जिनवराः संस्कृत का प्रथमा विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिग का रूप है। इसका प्राकृत रूप जिणवरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त प्राकृत शब्द-'जिणवर में स्थिर अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर प्रथमा विभक्ति का बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्राप्त प्राकृत शब्द जिणवरा में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर प्रथमा-बहुवचनान्त प्राकृत पद जिणवरा सिद्ध हो जाता है। ३-१३७||
क्यङोर्य लुक् ।।३-१३८।। क्यउन्तस्य क्यङ् षन्तस्य वा संबन्धिनो यस्य लुग् भवति।। गरूआइ। गरूआअइ। अगुरु गुरु भवति गुरुरिवाचरिति वेत्यर्थः। क्यझ्। दमदमाइ। दमदमाअइ।। लोहिआइ। लाहिआअइ।
अर्थः- संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं में संज्ञाओं पर से धातुओं अर्थात् क्रियाओं के बनाने का विधान पाया जाता है; तदनुसार वे नाम-धातु कहलाते हैं और इसी रीति से प्राप्त धातुओं में अन्य सर्व सामान्य धातुओं के समान ही कालवाचक एवं पुरुष-बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जाती है। जब संस्कृत संज्ञाओं में क्यङ्' और 'क्यङ् ष'='य' और 'इ' प्रत्ययों
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160 : प्राकृत व्याकरण की संयोजना की जाती है; तब वे शब्द नामार्थक नहीं रहकर धातु-अर्थक बन जाते हैं; यों धातु-अंग की प्राप्ति होने पर तत्पश्चात् उनमें कालवाचक तथा पुरुष-बोधक प्रत्यय जोड़े जाते है। ऐसे धातु-रूपों से तब 'इच्छा, आचरण, अभ्यास' आदि बहुत से अर्थ प्रस्फुटित होते हैं। जहां अपने लिये किसी वस्तु की इच्छा की जाय वहां 'इच्छा' अर्थ में उस वस्तु के बोधक नाम के आगे 'क्यच-य' प्रत्यय लगाकर तत्पश्चात् कालवाचक प्रत्यय जोड़े जाते हैं। उदाहरण इस प्रकार है:पुत्रीयति= (पुत्र+ई+य+ति) वह अपने पुत्र होने की इच्छा करता है। कवीयति=(कवि+ई+य+ति) अपने आप कवि बनना चाहता है। कीयति =खुद कर्ता बनना चाहता है। राजीयति आप राजा बनना चाहता है; इत्यादि। कभी-कभी 'क्यचः=य' व्यवहार करना अथवा समझना' के अर्थ में भी आ जाता है। जैसे:- पुत्रीयति छात्रम् गुरु: गुरु अपने छात्र के साथ पुत्रवत् व्यवहार करता है। प्रसादीयति कुट्यां भिक्षुः भिखारी अपनी झोपड़ी को महल जैसा समझता है।
जहां एक पदार्थ किसी दूसरे जैसा व्यवहार करे; वहां जिसके सदृश व्यवहार करता हो, उसके वाचक-नाम के आगे 'क्यङ्-य' प्रत्यय लगाया जाता है एवं तत्पश्चात् कालबोधक प्रत्ययों की संयोजना होती है। जैसे:- शिष्यः पुत्रायते शिष्य पुत्र के समान व्यवहार करता है; गोपः कृष्णायते गोप कृष्ण के समान व्यवहार करता है। विद्वायते वह विद्वान् के सदृश व्यवहार करता है प्रश्नयति वह प्रश्न करता है; मिश्रयति मिलावट करता है; लवणयति-वह खारा जैसा करता है। वह लवण रूप बनाता है। पुत्रति वह पुत्र जैसा व्यवहार करता है; पितरति-वह पिता जैसा व्यवहार करता है। इसी प्रकार से गुणायन्ते, दोषायन्ते, द्रुमायत्ते, दुःखायते, सुखायते' इत्यादि सैकड़ों नाम धातु रूप हैं। उक्त क्यङ्ग' और कयङष्' के स्थानीय प्रत्यय 'य' का प्राकृत में लोप हो जाता है और तत्पश्चात् प्राकृत कालबोधक प्रत्यय जोड़ दिये जाते हैं। उदाहरण इस प्रकार हैं:- अगुरुः गुरुः भवति-गुरुयति गरूआइ वह गुरु नहीं होते हुए भी गुरु बनता है; यह 'क्यङ्का उदाहरण हुआ। 'क्यक्ष' का उदाहरण यों है:-गुरुः इव आचरति गुर्वायते-गुरुआअइ=(वह गुरु नहीं होता हुआ भी) गुरु जैसा आचरण करता है। वृत्तिकार ने दो उदाहरण और दिये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- दमदमीयति-दमदमाइ-वह नगारा रूप बनता है; दमदमायते दमदमाअइ-वह नगारा जैसा शब्द करता है। लोहितीयति लोहिआइ-वह रक्त वर्ण वाला बनता है। लोहितायते लोहिआअइ-वह रक्त वर्णीय बनने की इच्छा करता है। इसी प्रकार से अन्य संज्ञाओं पर से बचने वाले धातुओं के रूपों को भी समझ लेना चाहिये। अंग्रेजी-भाषा में इसको 'Denominative' प्रक्रिया अथवा NominalVerbal प्रक्रिया कहते है।
गुरुयति संस्कृत का वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष का एकवचनान्त नाम-धातु रूप से निर्मित क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप गरूआइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से पद में रहे हुए आदि वर्ण 'गु' के 'उ' को 'अ' की प्राप्ति; १-४ से रू' में स्थित दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; ३-१३८ से नाम-धातु-द्योतक प्रत्यय 'य' का लोप; ३-१५८ की वृत्ति से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरुआइ रूप सिद्ध हो जाता है।
गुर्वायते= (गुरु+आयते) संस्कृत का वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष का एकवचनान्त नाम-धातु रूप से निम्रित क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप गुरुआअइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से पद में रहे हुए आदि वर्ण 'गु' के 'उ' को 'अ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् उत्तरार्ध प्रत्ययात्मक पद 'आयते' में स्थित 'य' प्रत्यय का ३-१३८ से लोप और १-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत आत्मनेपदीय प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरुआअइ रूप सिद्ध हो जाता है। __दमदमीयति संस्कृत का वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष का एकवचनान्त नाम-धातु रूप से निर्मित क्रियापद का रूप है इसका प्राकृत रूप दमदमाइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३८ से नाम-धातु द्योतक प्रत्यय 'य' का लोप; ३-१५८ की वृत्ति से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १-१० से पदस्थ वर्ण 'मी' में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' का आगे प्रत्ययात्मक स्वर 'आ' का सद्भाव होने से लोप; १-५ से लोप हुए स्वर 'ई' के पश्चात् शेष
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 161 रहे हुए हलन्त व्यंजन 'म्' में आगे स्थित प्रत्ययात्मक दीर्घ स्वर 'आ' की संधि; यों प्राप्त नाम-धातु रूप दमदमा में ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत परस्मैपदीय प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दमदमाइ रूप सिद्ध हो जाता है।
दमदमायते संस्कृत का वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष का एकवचनान्त नाम-धातु रूप से निर्मित क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप दमदमाअइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३८ से नाम धातु द्योतक प्रत्यय "य" का लोप और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत आत्मनेपदीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में "इ'' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दमदमाअइ रूप सिद्ध हो जाता है।
लोहितीयति संस्कृत का वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष का एकवचनान्त नाम धातु रूप से निर्मित क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप लोहिआइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३८ से नाम-धातु द्योतक प्रत्यय "य" का लोप; ३-१५८ की वृत्ति से लोप हुए “य्" के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' प्रत्यय के स्थान पर "आ" की प्राप्ति; १-१७७ से "त्" व्यंजन का लोप; १-१० से लोप हुए “त्'' व्यंजन के पश्चात् शेष रहे हुए दीर्घस्वर 'ई' का आगे नाम-धातु द्योतक प्रत्यय "अ" का सद्भाव होने से लोप; एवं प्राप्त रूप "लोहिआ' में ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत परस्मैपदीय प्रत्यय "ति" के स्थान पर प्राकृत में "इ" प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप लोहिआइ सिद्ध हो जाता है।
लोहितायते संस्कृत का वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष का एकवचनान्त नाम-धातु-रूप से निर्मित क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूप लोहिआअइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से "त्" का लोप; ३-१३८ से नाम-धातु-द्योतक प्रत्यय “य्' का लोप, और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृतीय-आत्मनेपदीय प्रत्यय "ते" के स्थान पर प्राकृत में "इ'' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-रूप लोहिआअइ सिद्ध हो जाता है।।३-१३८।।
त्यादिनामाद्यत्रयस्याद्यस्येचेचौ ।। ३-१३९॥ त्यादीनां विभक्तीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च सम्बन्धिनः प्रथमत्रयस्य यदाद्यं वचनं तस्य स्थाने इच् एच् इत्येतावादेशौ भवतः।। हसइ। हसए। वेवइ। वेवए। चकारौ इचेचः(४-३१८) इत्यत्र विशेषणार्थो।
अर्थः- संस्कृत भाषा में धातुएँ दस प्रकार की होती हैं; जो कि 'गण' रूप से बोली जाती है; वैसा गण-भेद प्राकृत भाषा में नहीं पाया जाता है। प्राकृत भाषा में तो सभी धातुएँ एक ही प्रकार की पाई जाती है; जो कि मुख्यतः स्वरान्त ही होती है; थोड़ी सी जो भी व्यञ्जनान्त है; उनमें भी सूत्र-संख्या ४-२३९ से अन्त्य हलन्त व्यंजन में विकरण प्रत्यय "अ" की संयोजना करके उन्हें अकारान्त रूप में परिणत कर दिया जाता है। इस प्रकार प्राकृत भाषा में सभी धातुएँ स्वरान्त ही एवं एक ही प्रकार की पाई जाती है। संस्कृत-भाषा में "परस्मै पद और आत्मने पद" रूप से प्रत्ययों में तथा धातुओं में जैसा भेद पाया जाता है, प्राकृत भाषा में वैसा नहीं है; तदनुसार प्राकृत भाषा में काल-बोधक एवं पुरुष-बोधक प्रत्ययों की श्रेणी एक ही प्रकार की है। संस्कृत के समान "परस्मैपदीय और आत्मनेपदीय" प्रत्ययों को भिन्न-भिन्न श्रेणी का प्राकृत में अभाव ही जानना। इसी प्रकार से संस्कृत में जैसे दस प्रकार के लकार होते हैं; वैसे प्रकार के लकारों का भी प्राकृत में अभाव है; किन्तु प्राकृत भाषा में वर्तमानकाल, भूतकाल; भविष्यकाल आज्ञार्थक, विधि अर्थक और क्रियातिपत्ति अर्थात् लुङ्-लकार यों कुल छह लकारों के प्रत्यय ही प्राकृत में पाये जाते हैं। सूत्र-संख्या ३-१५८ में आज्ञार्थक लकार के लिए
शब्द का प्रयोग किया गया है और ३-१६५ में विधिलिंग के लिए सप्तमी शब्द का प्रयोग हुआ है। इस सूत्र में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के प्रत्ययों का निर्देश किया गया है; तदनुसार संस्कृत भाषा में परस्मैपदीय और आत्मनेपदीय रूप से प्रयुक्त होने वाले प्रत्यय ति' और 'ते' के स्थान पर प्राकृत में "इच्=इ" और "एच-ए" प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- हसति-हसइ और हसए वह हंसता है अथवा वह हंसती है। वेपते-वेवइ और वेवए-वह काँपता है अथवा वह काँपती है। उपर्युक्त "इच् और एच् प्रत्ययों में जो हलन्त चकार लगाया गया है; उसका यह तात्पर्य है कि आगे सूत्र-संख्या ४-३१८ में इनके सम्बन्ध में पैशाची भाषा की दृष्टि से
'पंचमी
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162 : प्राकृत व्याकरण विशेष-स्थिति बतलाई जाने वाली है। इसीलिए हलन्त चकार की योजना अन्त्य रूप से करने की आवश्यकता पड़ी है।
"हसइ क्रियापद रूप कि सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९८ में की गई है। ___ हसति संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का एकवचनान्त क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप हसए होता है इस में सूत्र-संख्या ३-१३९ से संस्कृत प्रत्यय "ति" के स्थान पर प्राकृत में "ए" प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसए रूप सिद्ध हो जाता हैं।
वेपते संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का एकवचनान्त आत्मनेपदीय क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप वेवइ और वेवए होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प्' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और ३-१३९ से संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' और 'ए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत क्रियापदों के रूप वेवइ और वेवए सिद्ध हो जाते हैं। ३-१३९।।
द्वितीयस्य सि से ।। ३-१४०।। त्यादीनां परस्मैदानामात्मनेपदानां च द्वितीयस्य त्रयस्य संबन्धिन आद्यवचनस्य स्थाने सि से इत्येतावादेशी भवतः।। हससि। हससे। वेवसि। वेवसे।।
अर्थः- संस्कृत भाषा में द्वितीय पुरुष के एकवचन में वर्तमानकाल मे प्रयुक्त होने वाले परस्मैपदीय और आत्मने पदीय प्रत्यय 'सि' तथा 'से' के स्थान पर प्राकृत में 'सि' और 'से' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- हससि-हससि और हसते-तू हंसता है अथवा तू हंसती है। वेपसे वेवसि और वेवसे-तू काँपता है अथवा तू काँपती है।
हससि संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप हससि और हससे होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१४० से 'हस्' धातु में वर्तमानकाल के द्वितीय-पुरुष के एकवचनार्थ में प्राकृत में क्रम से सि' और 'से' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर हससि तथा हससे रूप सिद्ध हो जाते हैं।
वेपस संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप वेवसि और वेवसे होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और ३-१४० से प्राप्त 'वेव' धातु में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचनार्थ में क्रम से 'सि' और 'से' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर वेवसि और वेवसे रूप सिद्ध हो जाते हैं।।३-१४०।।
तृतीयस्य मिः ।। ३-१४१।। त्यादीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च तृतीयस्य त्रयस्याद्यस्य वचनस्य स्थाने मिरादेशो भवति।। हसामि। वेवामि।। बहुलाधिकाराद् मिवेः स्थानीयस्य मेरिकार लोपश्च।। बहु-जाणयरूसिउं सक्की शक्नोमीत्यर्थः।। न मरं। न म्रिये इत्यर्थः।। ____ अर्थः- संस्कृत भाषा में तृतीय पुरुष के (उत्तम-पुरुष) एकवचन में वर्तमानकाल में प्रयुक्त होने वाले परस्मैपदीय
और आत्मनेपदीय प्रत्यय 'मि' और 'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- हसामि-हसामि=मैं हंसता हूँ अथवा मैं हंसती हूँ। वेपे-वेवामि-मैं काँपता हूं अथवा मैं कांपती हूँ 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से प्राकृत प्रत्यय 'मि' में स्थित 'इ' स्वर का कहीं-कहीं पर लोप भी हो जाया करता है; तदनुसार लोप हुए स्वर 'इ' के पश्चात् शेष रहे हुए प्रत्यय रूप हलन्त 'म्' का सूत्र-संख्या १-२३ के अनुसार अनुस्वार हो जाता है। उदाहरण इस प्रकार है:- हे बहु-ज्ञानक! रोषितुम् शक्नोमि-हे बहु जाणय! रूसिउं सक्कं हे बहुज्ञानी मैं रोष करने के लिए समर्थ हूँ। इस उदाहरण में सक्कामि के स्थान पर सक्कं की प्राप्ति हुई है; जो यह प्रदर्शित करता है कि प्राप्त प्रत्यय 'मि' के स्थान पर प्रत्ययस्थ 'इ' स्वर का लोप होकर शेष प्रत्यय रूप हलन्त 'म्' का अनुस्वार हो गया है। आत्मनेपदीय धातु
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 163 का उदाहरण इस प्रकार है:- न म्रिये-न मरं-मैं नहीं मरता हूं अथवा मैं नहीं मरती हूँ; यहां पर प्राकृत में मरामि के स्थान पर प्राप्त रूप 'मरं' यह निर्देश करता है कि 'मि' प्रत्यय के स्थान पर उपर्युक्त विधानानुसार हलन्त 'म्' की ही प्रत्यय रूप से प्राप्ति हुई है। यों अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये। ___ हसामि संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी हसामि ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१५४ से मूल प्राकृत धातु 'हस्' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर' 'अ' को 'आ' की प्राप्ति और ३-१४१ से प्राप्त प्राकृत धातु 'हसा' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय'मि' के समान ही प्राकत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप हसामि सिद्ध हो जाता है।
वेप संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का एकवचनान्त आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप वेवामि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से मूल संस्कृत धातु वेप में स्थित 'प्' के स्थान पर 'व् की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'वेव्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५४ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-१४१ से प्राप्त प्राकृत धातु वेवा' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत
आत्मनेपदीय प्रत्यय 'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप वेवामि सिद्ध हो जाता है। ___ हे बहु-ज्ञानक! संस्कृत का संबोधन का एकवचनान्त पुल्लिंग विशेषण का रूप हैं। इसका प्राकृत-रूप हे बहु जोणय! होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-८३ से 'ज्ञ,-ज्+ब' में स्थित 'ब्' व्यंजन का लोप होने से 'ज्ञा' के स्थान पर प्राकृत में 'जा' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' व्यंजन का लोप, १-१८० से लोप हुए व्यंजन 'क्' के पश्चात् शेष रहे 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के समान ही ३-२ के अनुसार प्राकृत प्रत्यय 'डो-ओ' का अभाव होकर प्राकृत रूप हे बहु-जाणय! सिद्ध हो जाता है।
रोषितुम् संस्कृत का हेत्वर्थ कृदन्त का रूप है। इसका प्राकृत रूप रुसिउं होता है। इसमें सूत्र-संख्या-४-२३६ से मूल संस्कृत-धातु 'रूष' में स्थित हस्व स्वर 'उ' को प्राकृत में दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति, १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति, १-१७७ से 'त्' व्यंजन का लोप और १-२३ से अन्तिम हलत 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप रुसिउं सिद्ध हो जाता है।
शक्नोमि संस्कृत का वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप सक्कं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ४-२३० से 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; प्राकृत में गण भेद का अभाव होने से संस्कृत धातु 'शक' में पंचम-गण-द्योतक विकरण प्रत्यय 'नो-२नु-नु' का प्राकृत में अभाव; तदनुसार शेष रूप से प्राप्त धातु 'सक्क' में ३-१४१ की वृत्ति से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' में स्थित हस्व स्वर 'इ' का लोप होकर हलन्त रूप से प्राप्त 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त प्रत्यय 'म्' को अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रियापद का रूप 'सक्क' सिद्ध हो जाता है।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ की गई है। निये संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का एकवचनान्त आत्मनेपदीय षष्ठ-गणीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप मरं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३४ से मूल संस्कृत धातु 'मृ' में स्थित 'ऋ' के स्थान पर प्राकृत में 'अर' की प्राप्ति होकर प्राकृत में 'मर' अंग रूप की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-१४१ की वृत्ति से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत के आत्मनेपदीय प्रत्यय 'इ' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' में स्थित हस्व स्वर 'इ' का लोप होकर हलन्त रूप से प्राप्त 'म्' प्रत्यय की अनुस्वार की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म्' को अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रिया पद का रूप मरं सिद्ध हो जाता है। ३-१४१।।
बहुष्वाद्यस्य न्ति न्ते इरे।। ३-१४२।। त्यादीनां परस्मैपदात्मनेपदानामाद्यत्रय संबन्धिनो बहुषु वर्तमानस्य वचनस्य स्थाने न्ति न्ते इरे इत्यादेशा;
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164 प्राकृत व्याकरण
भवन्ति ।। हसन्ति। वेवन्ति । हसिज्जन्ति । रमिज्जन्ति । गज्जन्ते खे मेहा। बीहन्ते रक्खसाणं च ।। उप्पज्जन्ते कइ-हिअय- पायरे कव्व रयणाइं । । दोण्णि वि न पहुप्पिरे बाहूं न प्रभवत इत्यर्थः । विच्छुहिरे । विक्षुभ्यन्तीत्यर्थः ॥ क्वचिद् इरे एकत्वेपि। सूसइरे गामचिक्खक्लो । शुष्यतीत्यर्थः ॥
अर्थः- संस्कृत भाषा में प्रथम (पुरुष अन्य पुरुष) के बहुवचन में वर्तमानकाल में प्रयुक्त होने वाले परस्मैपदीय और आत्मनेपदीय प्रत्यय 'अन्ति' और 'अन्ते' के स्थान पर प्राकृत में 'न्ति, न्ते और इरे' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार हैं: हसन्ति-हसन्ति-वे हँसते हैं अथवा हँसती हैं। वेपन्ते-वेवन्ति-वे कांपते हैं अथवा वे कापती हैं। हासयन्ति=हसिज्जन्ति-वे हँसाये जाते अथवा वे हँसाई जाती हैं। रमयन्ति = रमिज्जन्ति-वे खेलाये जाते हैं अथवा खेलायी जाती हैं। गर्जन्ति खे मेघाः- गज्जन्ते खे मेहा - बादल आकाश में गर्जना करते हैं। बिभ्यति राक्षसेभ्यः - बीहन्ते रक्खसाणं- वे राक्षसों से डरते हैं अथवा डरती हैं। उत्पद्यन्ते कवि - हृदय सागरे काव्य रत्नानि - उप्पज्जन्ते कइ - हिअय- सायरे कव्व-रयणाइं-कवियों के हृदय रूप समुद्र में काव्य रूप रत्न उत्पन्न होते रहते हैं । द्वौ अपि न प्रभवतः बाहू-दोण्णि वि न पहुप्पिरे बाहू=दोनों हो भुजाऐं प्रभावित नहीं होती हैं। विक्षुभ्यन्ति = विच्छुहिरे - वे घबराते हैं अथवा वे घबड़ाती हैं। वे चंचल होती हैं। इन उदाहरणों को देखने से पता चलता है कि संस्कृत परस्मैपदीय अथवा आत्मनेपदीय प्रत्ययों के स्थान पर वर्तमानकाल प्रथमपुरुष के बहुवचन में प्राकृत में 'न्ति, न्ते और इरे' प्रत्ययों की प्राप्ति हुआ करती है। कहीं-कहीं पर वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में प्राकृत में बहुवचनीय प्रत्यय 'इरे' की प्राप्ति भी देखी जाती है। उदाहरण इस प्रकार है:- शुष्यति ग्राम - कर्दमः- सुसइरे गाम - चिक्खलो = गांव का कीचड़ सूखता है। इस उदाहरण में संस्कृत क्रियापद 'शुष्यति' एकवचनात्मक है तदनुसार इसका प्राकृत रूपान्तर सूसइ अथवा सूसर होना चाहिये था, किन्तु 'सुसइरे' ऐसा रूपान्तर करके प्राकृत बहुवचनात्मक प्रत्यय 'इरे' की संयोजना की गई है। ऐसा प्रसंग कभी-कभी ही देखा जाता है; सर्वत्र नहीं। 'बहुलम्' सूत्र के अन्तर्गत ही समझना चाहिये ।
हसन्ति संस्कृत का वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष का बहुवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी हसन्ति ही होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ -१४२ से प्राकृत धातु 'हस' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसन्ति रूप सिद्ध हो जाता है।
वेपन्ते संस्कृत का वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष का बहुवचनान्त आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूप वेवन्ति होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-२३१ से मूल धातु 'वेप' में स्थित 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'वेव' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में संस्कृत में आत्मनेपदीय प्राप्त 'अन्ते=न्ते' के स्थान पर प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-रूप वेवन्ति सिद्ध हो जाता है।
हासयन्ति संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष रूप बहुवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप हसिज्जन्ति होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - १६० से मूल धातु हस में भाव-विधि अर्थ में 'इज्ज' प्रत्यय की पाप्ति; १-१० से ‘हस' धातु में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त प्रत्यय 'इज्ज' की 'इ' होने से लोप; १-५ से हलन्त 'हस्' के साथ में आगे रहे हुए प्रत्यय रूप 'इज्ज' की संधि होकर 'हसिज्ज' अंग की प्राप्ति और ३-१४२ से प्राप्तांग, 'हसिज्ज' में वर्तमानकाल के बहुवचनात्मक प्रथमपुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसिज्जन्ति रूप सिद्ध हो जाता है।
मन्ति संस्कृत का वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष का बहुवचनान्त भाव - विधि द्योतक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप रमिज्जन्ति होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - १६० से मूल - धातु 'रम' में भाव - विधि द्योतक 'इज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से ‘रम' धातु में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त प्रत्यय 'इज्ज' की 'इ' होने से लोप; १-५ से हलन्त 'रम्' के साथ में आगे रहे हुए प्रत्यय रूप 'इज्ज' की संधि होकर ' रमिज्ज' अंग की प्राप्ति और ३-१४२ से प्राप्तांग ' रमिज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रमिज्जन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। 'गज्जन्ते' 'खे' और 'मेहा' तीनों रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १८७ में की गई है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 165 बिभ्यति संस्कृत का वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचनान्तमक अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप बीहन्ते होता है। इसमें सत्र-संख्या-४-५३ से भय अर्थक संस्कृत-धातु 'भा' के स्थान पर प्राकृत में 'बीह' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१४२ से प्राप्तांग 'बीह' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में 'न्ते' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बीहन्ते रूप सिद्ध हो जाता है।
राक्षसेभ्यः संस्कृत का पंचमी विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप रक्खसाणं है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'रा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; ३-१३४ की वृत्ति से संस्कृत पद में स्थित पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनसार ३-१२ से प्राप्तांग 'रक्खस' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अके आगे षष्ठी विभक्ति के बहवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; यों प्राप्तांग 'रक्खसा' में ३-६ से उपर्युक्त विधाननुसार षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राप्त-रूप रक्खसाणं सिद्ध हो जाता है।
उत्पद्यन्ते संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का बहुवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप उप्पज्जन्ते होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से प्रथम हलन्त व्यंजन 'त' का लोप; २-८९ से लोप हुए हलन्त व्यंजन 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति। २-२४ से संयुक्त व्यंजन 'द्य' को 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-१४२ से प्राप्तांग 'उप्पज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में 'न्ते' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप उप्पज्जन्ते सिद्ध हो जाता है। __कवि हृदय सागरे संस्कृत का समासात्मक सप्तमी विभक्ति के एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कइ-हिअय-सायरे' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'व' का लोप; १-१२८ से 'ऋ'के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१७७ से 'ग्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ग' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; यों प्राप्तांग 'कइ-हिअय-सायर' में ३-११ में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङिइ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डे' में हलन्त 'ड्' इत्यसंज्ञक होने से प्राप्तांग मूल शब्द 'कइ हिअय-सायर' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का लोप शेष हलन्त-अंग में उपर्युक्त 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत सप्तम्यन्त रूप कइ-हिअय-सायरे सिद्ध हो जाता है।
काव्य-रत्नानि संस्कृत का समासत्मक प्रथमा विभक्ति का बहुवचनान्त नपुंसकलिंगात्मक संज्ञा का रूप है। इसका प्राकृत रूप कव्व-रयणाइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; २-७७ से हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; २-१०१ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' के पूर्व में 'अ' की आगम रूप प्राप्ति; १-१८० से आगमग-रूप से प्राप्त 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; यों प्राप्तांग 'कव्वरयण' में ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नपुंसकलिंग में अन्त्य हस्व स्वर को दीर्घ स्वर की प्राप्ति हाते हुए संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-पद कव्व-रयणाई सिद्ध हो जाता है।
'दीण्णि' संख्यात्मक विशेषण-पद की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२० में की गई है। 'वि' और 'न' दोनों अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है।
प्रभवतः संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का द्विवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूप पहुप्पिरे होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२ ७९ से 'र' का लोप; ४-६३ से धातु-अंश 'भू'=' भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हुप्प' आदेश की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त धातु-अंग 'पहुप्प्' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्रत्ययात्मक 'इरे' की 'इ'
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166 : प्राकृत व्याकरण होने से लोप; तत्पश्चात् ३-१३० से प्राप्त हलन्त धातु 'पहुप्प्' में द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में प्राकृत में 'इरे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप पहुप्पिरे सिद्ध हो जाता है।
बाहु संस्कृत का प्रथमा विभक्ति का द्विवचनात्मक पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप भी बाहू ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति; ३-१२४ के निर्देश से उकारान्त शब्दों में भी अकारान्त शब्दों के समान ही विभक्ति-बोधक प्रत्ययों की प्राप्ति; तदनुसार ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्त प्रत्यय 'जस्' की प्राकृत-शब्द 'बाहु' में प्राप्ति होकर लोप; और ३-१२ से प्रथमा के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' का सद्भाव होने से बाहुं शब्दान्त्य हस्व स्वर 'उ' दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर बाहू रूप सिद्ध हो जाता है।
विक्षुभ्यन्ति संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का बहुवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप विच्छुहिरे होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत धातु 'विक्षुभ' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'छ' को प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' की द्वित्व'छछ्' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; १-१८७ से 'भ् के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु विच्छुह्' में विकरण प्रत्यक्ष 'अ की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' का पुनः आगे प्रत्ययात्मक 'इरे' की 'इ' होने से लोप; तत्पश्चात् ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में उपर्युक्त रीति से प्राप्त 'विच्छुह' धातु में 'इरे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप विच्छुहिरे सिद्ध हो जाता है।
शुष्यति संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का एकवचनान्त-अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप ससइरे है। इसमें सत्र-संख्या १-२६० से संस्कत मल धात 'शष' में स्थित दोनों प्रकार के'श' और 'ष' के स्थान पर क्रम से दो दन्त्य 'स्' की प्राप्ति; ४-२३६ से आदि हस्व 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'सूस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१४२ से प्राकृत धातु 'सूस' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के अर्थ में एकवचन के स्थान पर बहुवचनात्मक प्रत्यय 'इरे' की प्राप्ति होकर प्राकृत-रूप सूसइरे सिद्ध हो जाता है। __ ग्राम-कर्दमः संस्कृत का प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग का रूप है। इसका देशज प्राकृत का रूप गाम-चिक्खल्लो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'ग्राम में स्थित 'र' व्यञ्जन का लोप; ३-१४२ की वृत्ति के आधार से मूल संस्कृत शब्द 'कर्दम' के स्थान पर देशज-भाषा में 'चिक्खल्ल' शब्द की आदेश प्राप्ति; ३-२ से प्राप्त देशज शब्द गाम-चिकखल्ल' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुंल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देशज-प्राकृत पद 'गाम-चिक्खल्लो' सिद्ध हो जाता है। ३-१४२।।
मध्यमस्येत्था-हचौ ॥३-१४३।। ___ त्यादीनां परस्मैपदात्मनेपदानां मध्यमस्य त्रयस्य बहुषु वर्तमानस्य स्थाने इत्था हच् इत्येतावादेशौ भवतः हसित्था। हसह। वेवित्था। वेवह। बाहुलकादित्थान्यत्रापि। यद्यत्ते रोचते। जं जं ते रोइत्था। हच् इति चकारः इह-हचोर्हस्य (४-२६८) इत्यत्र विशेषणार्थः।। ___ अर्थः-संस्कृत-धातुओं में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के द्विवचनार्थ में तथा बहुवचनार्थ में परस्मैपदीय धातुओं में क्रम से संयोजित होने वाले प्रत्यय 'थस्' तथा 'थ' के स्थान पर और आत्मनेपदीय धातुओं में क्रम से संयोजित होने वाले प्रत्यय 'इथे' और 'ध्वे' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्था' और 'हच्-ह' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- हसथः हसित्था और हसह-तुम दोनों हँसते हो; अथवा तुम दोनों हँसती हो। हसथ-हसित्था और हसह-तुम हँसते हो अथवा तुम हँसती हो। वेपेथे वेवित्था और वेवह-तुम दोनों कांपते हो अथवा तुम दोनों कांपती हो। वेपध्वे वेवित्था
और ववह-तुम (सब) कांपते हो अथवा तुम (सब) कांपती हो। 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से 'इत्या' प्रत्यय का प्रयोग द्वितीय पुरुष के अतिरिक्त अन्य पुरुष के अर्थ में भी प्रयुक्त होता हुआ देखा जाता है। जैसेः- यत् यत् ते रोचते-जं जं ते रोइत्था जो जो तुझे रूचता है; इत्यादि। यहां पर संस्कृत क्रियापद रोचते में वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष का एकवचन उपस्थित है; जबकि इसी के प्राकृत रूपान्तर रोइत्था में द्वितीया पुरुष के बहुवचन का प्रत्यय 'इत्था' प्रदान किया गया है। यों
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 167 वर्तमानकालीन द्वितीय पुरुष के बहुवचन में प्रयुक्त होने वाले प्रत्यय 'इत्था के प्रयोग की अनियमितता कभी-कभी एवं कहीं-कहीं पर पाई जाती है। उपर्युक्त 'ह' प्रत्यय के साथ में जो 'चकार' जोड़ा गया है। उसका तात्पर्य यह है कि आगे सूत्र-संख्या ४-२६८ से इह-हचोर्हस्य 'सूत्र का निर्माण किया जाकर इस 'ह' प्रत्यय के संबंध में शोर सेनी-भाषा में होने वाले परिवर्तन का प्रदर्शन किया जाएगा। अतएव 'सूत्र-रचना करने की दृष्टि से 'ह' प्रत्यय के अन्त में हलन्त 'च' की संयोजना की गई है। __हसथः तथा हसथ संस्कृत के वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के क्रम से द्विवचन और बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप है। इनके प्राकृत रूप दोनों वचनों में समान रूप से ही हसित्था एवं हसह होते है। इनमें से प्रथम रूप में सत्र-संख्या ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; १-१० से हम धातु के अन्त्य स्वर 'अ' के
आगे प्राप्त प्रत्यय 'इत्था' की 'इ' का सद्भाव होने से लोप; तत्पश्चात् प्राप्तांग-धातु 'हस्' में ३-१४३ से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन और बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'थस्' तथा 'थ' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्था' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हसित्था सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप हसह में सूत्र-संख्या ३-१४३ से हस धातु में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन ओर बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'थस्' ओर 'थ' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप हसह भी सिद्ध हो जाता है। _वेपेथ और वेपध्वे संस्कृत के वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के क्रम से द्विवचन और बहुवचन के आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन प्राकृत रूप दोनों वचनों में समान रूप से ही वेवित्था और वेवह होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प्' व्यंजन के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; १-१० से प्राप्त प्राकृत धातु 'वेव' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त प्रत्यय 'इत्था की 'इ' का सद्भाव होने से लोप; तत्पश्चात् प्राप्तांग-धातु 'वेव्' में ३-१४३ से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन में तथा बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'इथे' और 'ध्वे' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्था' प्रत्यय प्राप्ति होकर प्रथम रूप वेवित्था सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप वेवह में सूत्र-संख्या ३-१४३ से प्राकृत में प्राप्त धातु 'वेव' में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन में और बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'इथे' और 'ध्वे के स्थान पर प्राकृत में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्विनीय रूप वेवह भी सिद्ध हो जाता है।
'ज' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२४ में की गई है। 'ते' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९९ में की गई है।
रोचते संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का एकवचनान्त आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका (आर्ष) प्राकृत रूप रोइत्था है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'च' का लोप; १-१० से लोप हुए 'च' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'अ' के आगे प्रत्ययात्मक 'इत्था' की 'इ' का सद्भाव होने से लोप; ३-१४३ की वृत्ति से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत में प्राप्त आत्मनेपदीय प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में द्वितीय पुरुष-बोधक बहुवचनीय प्रत्यय 'इत्था' की प्राप्ति होकर (आर्ष) प्राकृत रूप रोइत्था सिद्ध हो जाता है।।३-१४३।।
तृतीयस्य मो-मु-माः ।। ३-१४४।। __ त्यादीनां परस्मैपदात्मनेपदानां तृतीयस्य त्रयस्य संबन्धिनो बहुषु वर्तमानस्य वचनस्य स्थाने मो मु म इत्येते आदेशा भवन्ति।। हसामो। हसामु। हसाम। तुवरामो। तुवरामु। तुवराम।। __ अर्थः- संस्कृत-धातुओं में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के द्विवचनार्थ में तथा बहुवचनार्थ में परस्मैपदीय धातुओं में क्रम से संयोजित होने वाले प्रत्यय 'वस्' और 'मस्' के स्थान पर तथा आत्मनेपदीय-धातुओं में क्रम से संयोजित होने वाले प्रत्यय 'वहे एवं महे' के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से 'मो, मु, और म' में से किसी भी एक प्रत्यय की आदेश
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168 : प्राकृत व्याकरण
प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- हसाव: और हसाम: - हसामो अथवा हमामु अथवा हसाम = हम दोनों अथवा हम (सब) हँसते हैं या हँसती हैं। त्वरावहे और त्वरामहेतुवरामो अथवा तुवरामु अथवा तुवराम हम दोनों अथवा हम (सब) शीघ्रता करते हैं या शीघ्रता करती हैं।
हसावः और हसामः संस्कृत के वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के क्रम से द्विवचन के और बहुवचन के परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप दोनों वचनों में समान रूप से ही हसामो, हसामु और हसाम होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३ - १५५ से प्राकृत धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति, ३ - १३० सेद्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति, यों प्राप्तांग 'हसा' में ३ - १४४ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के द्विवचनार्थ में एवं बहुवचनार्थ में संस्कृत में क्रम से प्राप्त प्रत्यय 'वस्' और 'मस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'मो मु, ' प्रत्ययों प्राप्ति होकर क्रम से द्विवचनीय अथवा बहुवचनीय प्राकृत रूप हसामो, हसामु और हसाम सिद्ध हो जाते हैं।
त्वराव और त्वरामहे संस्कृत के वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के क्रम से द्विवचन और बहुवचन के आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप दोनों वचनों में समान रूप से ही तुवरामो, तुवरामु और तुवराम होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ४-१७७ से संस्कृत मूल धातु 'त्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'तुवर' रूप की आदेश प्राप्ति, ४ - २६९ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति, ३ - १३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति, यों प्राप्तांक धातु 'तुवर' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति, ४-२५५ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; ३ - १३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग करने 'आदेश प्राप्ति, यों प्राप्तांग - धातु 'तुवरा' में ३-१४४ से वर्तमानकाल तृतीय पुरुष के द्विवचनार्थ एवं बहुवचनार्थ में संस्कृत में क्रम से प्राप्त प्रत्यय 'वहे' और 'महे' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'मो मु, म' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से द्विवचनीय बहुवचनीय प्राकृत-रूप तुवरामो, वराम और तुवराम सिद्ध हो जाते हैं । ३ -१४४ ।।
अत एवैच् से ।। ३-१४५।।
त्यादेः स्थाने यौ एच् से इत्येतावादेशौ उक्तौ तावकारान्तादेव भवतो नान्यस्मात् ।। हसए । हससे ॥ तुवरए । तुवरसे ।। कर करसे ।। अन इति किम् । ठाइ । ठासि ।। वसुआइ वसुआसि ।। होइ । होसि ।। एवकारोकारान्ताद् एच से एवं भवत इति विपरीतावधारण- निषेधार्थः । तेनाकारान्ताद् इच् सि इत्येतावपि सिद्धौ । हसइ । हससि ॥ वेवई । वेवसि ||
अर्थः- सूत्र - संख्या ३- १३९ में और ३-१४० में वर्तमानकाल के एकवचन में प्रथम पुरुष के अर्थ में तथा द्वितीय पुरुष के अर्थ में क्रम से जो 'एच् ए' एवं से' प्रत्यय का उल्लेख किया गया है, वे दोनों प्रत्यय केवल अकारान्त धातुओं में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, इनका प्रयोग आकारान्त, ओकारान्त आदि धातुओं में नहीं किया जा सकता है। उदाहरण इस प्रकार है:- हसति = हसए वह हंसता है अथवा वह हंसती है। हससि हससे तू हंसता है अथवा तू हंसती है । त्वरते - तुवरए - वह जल्दी करता है अथवा वह जल्दी करती है । त्वरसे तूवरसे - तू जल्दी करता है अथवा तू जल्दी करती है। करोति-करए-वह करता है अथवा वह करती है। करोषि = करसे तू करता है अथवा तू करती है । इत्यादि ।
प्रश्नः- अकारान्त धातुओं में ही 'ए' तथा 'से' का प्रयोग किया जा सकता है, ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त आकारान्त, ओकारान्त धातुओं में इन 'ए' तथा 'से' प्रत्ययों का प्रयोग कभी भी नहीं होता है और अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त शेष धातुओं में केवल 'इ' तथा 'सि' का ही प्रयोग होता है, ऐसी निश्चात्मक स्थित होने से ही 'अकारान्त' जैसे विशेषणात्मक शब्द की संयोजना करनी पड़ी है। उदाहरण इस प्रकार है:तिष्ठति=ठाइ= वह ठहरता है अथवा वह ठहरती है । तिष्ठसि ठासि= तू ठहरता है अथवा तू ठहरती है। उद्वाति-वसुआइ=वह सूखता है अथवा वह सूखती है। उद्वासि वसुआसि तू सूखता है अथवा तू सूखती है । भवति - होइ - वह होता है अथवा वह होती है। भवसि=होसि=तू होता है अथवा तू होती है, इत्यादि ।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 169
मूल सूत्र में ऊपर जो ' एवं' जोड़ा गया है; उसका तात्पर्य यह भी है कि कोई व्यक्ति यह नहीं समझ ले कि अकारान्त धातुओं में केवल 'ए' और 'से' प्रत्यय ही जोड़े जाते हैं और 'इ' तथा 'सि' प्रत्यय नहीं जोड़े जाते हैं; ऐसा विपरीत और निश्चयात्मक अर्थ का निषेध करने के लिए ही 'एव' अव्यय को सूत्र में स्थान दिया गया है; तदनुसार पाठकगण यह अच्छी तरह से समझ ले कि अकारान्त धातुओं में तो 'ए' और 'से' के समान ही 'इ' तथा 'सि' की भी प्राप्ति अवश्यमेव होती है; किन्तु अकारान्त के सिवाय आकारान्त, ओकारान्त आदि धातुओं में केवल 'इ' तथा 'सि' की प्राप्ति होकर 'ए' एवं "से' की प्राप्ति का निश्चययात्मक रूप से निषेध है। इस प्रकार से आकारान्त, ओकारान्त धातुओं के समान ही अकारान्त धातुओं में भी 'इ' तथा 'सि' प्रत्ययों की प्राप्ति अवश्यमेव होती है। इस विवेचना से यह प्रमाणित होता है अकारान्त धातुओं में तो ‘इ, ए, सि, से' इन चारों प्रकार के प्रत्ययों की प्राप्ति होती है; परन्तु आकारान्त, ओकारान्त आदि धातुओं में केवल 'इ' और 'सि' इन दो प्रत्ययों का प्रयोग किया जा सकता है। 'ए और से' का नहीं। अकारान्त- धातुओं के उदाहरण इस प्रकार है:- इसति - हसइ = वह हँसता है अथवा वह हँसती है। हससि - हससि तू हँसता है अथवा तू हँसती है। वेपते-वेवइ-वह कांपता है अथवा वह कांपती है । वेपसे = वेवसि = तू कांपता है अथवा तू कांपती है । इत्यादि ।
'हस' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३- १३९ में की गई है।
'हसते' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ -१४० में की गई है।
त्वरते संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का एकवचनान्त आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप तुवरए होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४- १७७ से संस्कृत धातु 'त्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'तुवर्' रूप की आदेश प्राप्ति ४-- २३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में प्राप्त संस्कृत आत्मनेपदीय प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में ‘ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तुवरए रूप सिद्ध हो जाता है।
त्वरसे संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकचचनान्त आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूप तुवरसे होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४- १७० से 'त्वर्' के स्थान पर 'तुवर्' की आदेश प्राप्ति; ४-२३९ से 'तुवर्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३- १४० से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृत-आत्मनेपदीय प्रत्यय 'से' के स्थान पर प्राकृत में भी 'से' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तुवरसे रूप सिद्ध हो जाता है।
करोति संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप करए होता है। इसमें सूत्र संख्या ४- २३४ से मूल संस्कृत धातु 'कृ' में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति होकर अंग रूप से 'कर' की प्राप्ति और ३- १३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृत परस्मैपदीय प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर करए रूप सिद्ध हो जाता हैं।
करोषि संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय सकर्मक क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप करसे होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४- २३४ से संस्कृत धातु 'कृ' के स्थान पर प्राकृत में 'कर' रूप की प्राप्ति और ३-१४० से प्राप्तांग धातु 'कर' में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राकृत में 'से' प्रत्यय की प्राप्ति होकर करसे रूप सिद्ध हो जाता है।
ठाइ (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १९९ में की गई है।
तिष्ठसि संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप ठासि होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४ - १६ से मूल संस्कृत धातु 'स्था' के आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'तिष्ठ्' के स्थान पर प्राकृत में 'ठा' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१४० से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ठासि प्राकृत रूप सिद्ध हो जाता है।
उद्वाति संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप वसुआइ होता है। इसमें सूत्र- संख्या ४ - ११ से संस्कृत मूल धातु 'उद्दवा' के स्थान पर प्राकृत में 'वसुआ' रूप
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170 : प्राकृत व्याकरण
अंग की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'वसुआइ' सिद्ध हो जाता है।
उद्वासि संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप वसुआइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४- ११ से संस्कृत मूल धातु 'उद्द्वा' के स्थान पर प्राकृत में 'वसुआ' रूप धातु अंग की प्राप्ति और ३-१४० वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के समान प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतीय क्रियापद का रूप वसुआसि सिद्ध हो जाता है।
'होइ' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १- ९ में की गई है।
भवसि संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप होसि होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४–६० से संस्कृत मूल धातु 'भू- भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१४० से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के समान ही प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय की प्राप्त होकर प्राकृत रूप होसि सिद्ध हो जाता है।
'हसइ' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - १३९ में की गई है। 'हससि' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-१४० में की गई है। 'वेवइ' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - १३९ में की गई है।
'वेवसि' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३ – १४० में की गई है । । ३ - १४५ ।।
सिनास्तेः सिः ।। ३-१४६।।
सिना द्वितीय त्रिकादेशेन सह अस्तेः सिरादेशो भवति ।। निट्टुरो जं सि । । सिनेतिकम् से आदेशे सति अत्थि तुमं ।।
अर्थः- संस्कृत में ‘अस्’= होना ऐसी एक धातु है जिसका वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' की संयोजना होने पर 'असि' रूप बनता है। इस संस्कृत प्राप्त रूप 'असि' = (तू है) के स्थान पर प्राकृत में उक्त वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में सूत्र - संख्या ३ - १४० से प्रत्यय 'सि' और 'से' में से जब 'सि' प्रत्यय की संयोजना हो रही हो, तो उस समय में 'अस्' +सि' में से ' अस्' का लोप होकर शेष प्राप्त रूप 'सि' ही उक्त 'असि' रूप के स्थान पर प्राकृत में प्रयुक्त होता है । उदाहरण इस प्रकार है:- निष्ठुरो यत् असि=निठुरो जं सि- (अरे) ! तू निष्ठुर है। यहां पर संस्कृत धातु 'असि' के स्थान पर प्राकृत में 'सि' रूप की आदेश प्राप्ति प्रदर्शित की गई है।
प्रश्न:- मूल सूत्र में 'सि' ऐसा निश्चयात्मक उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तरः- वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में सूत्र - संख्या ३ - १४० के अनुसार प्राकृत धातुओं में 'सि' और 'से' यों दो प्रकार के प्रत्ययों की संयोजना होती है। तदनुसार जब 'अस्' धातु में 'सि' प्रत्यय की संयोजना होगी; तभी 'अस्+सि' के स्थान पर प्राकृत में सि रूप की आदेश प्राप्ति होगी; अन्यथा नहीं यदि अस् धातु में उक्त सि प्रत्यय की संयोजना नहीं करके 'से' प्रत्यय की संयोजना की जाएंगी तो उस समय में सूत्र - संख्या ३-१४८ के अनुसार संस्कृत रूप 'अस्+सि ं=प्राकृत रूप 'अस्+ से' के स्थान पर प्राकृत में 'अस्थि' रूप की आदेश प्राप्ति होगी । यों 'सि' से सम्बन्धित विशेषता को प्रदर्शित करने के लिये ही मूल सूत्र में 'सि' का उल्लेख किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है:- त्वमसि=अत्थि तुमं=तू है। यहां पर 'आसि' के स्थान पर 'सि' रूप की आदेश प्राप्ति नहीं करके 'अत्थि' रूप का प्रदर्शन किया गया है; इसका कारण प्राकृत प्रत्यय 'सि' का प्रयोग नहीं किया जाकर 'से' का प्रयोग किया जाना ही है। यों अन्यत्र भी ध्यान में रखना चाहिये ।
'निठुरो' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २५४ में की गई है। 'जं' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १२४ में की गई है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 171 असि संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सि' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४६ से सम्पूर्ण संस्कृत पद 'असि' के स्थान पर प्राकृत में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचनार्थ में सूत्र-संख्या ३-१४० के आदेशानुसार 'सि' और 'से' प्रत्ययों में से 'सि' प्रत्यय की 'अस्' धातु में संयोजना करने पर प्राकृत में केवल 'सि' आदेश प्राप्ति होकर 'सि' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ असि संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त अकर्मक क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप अत्थि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४८ से सम्पूर्ण संस्कृत क्रियापद असि' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१४० के निर्देशानुसार एवं ३-१४६ की वृत्ति के आधारानुसार प्राकृत प्रत्यय 'से' की संयोजना होने पर अत्थि रूप सिद्ध हो जाता है।
त्वम् संस्कृत का युष्मद् सर्वनाम का प्रथमाविभक्ति का एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) रूप है। इसका प्राकृत रूप तुमं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-९० से प्रथमाविभक्ति के एकवचन में तथा तीनों लिंगों में समान रूप से ही प्रथमा विभक्तिबोधक प्रत्यय 'सि' की संयोजना होने पर सम्पूर्ण संस्कृत पद 'त्वम् के स्थान पर प्राकृत में 'तुम रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१४६।।
मि-मो-मै-हि-म्हो-म्हा वा।। ३-१४७ अस्तेर्धातोः स्थाने मि मो म इत्यादेशैः सह यथासंख्यं म्हि म्हो म्ह इत्यादेशा वा भवन्ति।। एस म्हि। एषो स्मीत्यर्थः॥ गय म्हो। गय म्ह। मकारस्याग्रहणादप्रयोग एव तस्येत्यवसीयते। पक्षे अस्थि अहं। अस्थि अम्हे। अस्थि अम्हो॥ ननु च सिद्धावस्थायां पक्ष्म रम-ष्म-स्मयां म्हः (२-७४) इत्यनेन म्हादेशे म्हो इति सिध्यति। सत्यम्। किंतु विभक्ति-विधौ प्रायः साध्यमानावस्थाङ्गीक्रियते। अन्यथा वच्छेण। वच्छेसु। सव्वे। जे। ते। के। इत्यादर्थ सूत्राण्यनारम्भणीयानि स्युः। ___ अर्थ:-'अस्' धातु के साथ में जब सूत्र-संख्या ३-१४१ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचनात्मक प्रत्यय 'मि' की संयोजना की जाय तो वैकल्पिक रूप से धातु 'अस्' और प्रत्यय 'मि' दोनों ही के स्थान पर 'म्हि' पद की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- एषोऽस्मि-एस म्हि=मैं हूं। वैकल्पिक पक्ष होने से जहां पर 'म्हि नहीं किया जाएगा वहाँ पर सूत्र-संख्या ३-१४८ के आदेश से संस्कृत रूप 'अस्मि' के स्थान पर 'अत्थि' पद की प्राप्ति होगी। इसी प्रकार से इसी 'अस्' धातु के साथ में जब सूत्र-संख्या ३-१४४ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचनात्मक प्रत्यय 'मो' एवम् 'म' की संयोजना की जाय तो वैकल्पिक रूप से धातु 'अस्' और प्रत्यय 'मो' एवं 'म' दोनों के स्थान पर क्रम से 'म्हो' तथा 'म्ह' पद की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- गताः स्मः गय म्हो-हम गये हुए हैं। यों वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृत धातु 'अस्' से 'मस्' प्रत्यय की संयोजना होने पर प्राप्त संस्कृत पद 'स्मः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'मो और म' प्रत्ययों के सद्भाव में 'म्हो तथा म्ह' पद की आदेश-प्राप्ति जानना। वैकल्पिक पक्ष होने से जहां पर 'म्हो तथा म्ह ' रूपों की प्राप्ति नहीं होगी; वहाँ पर सूत्र-संख्या ३-१४८ के आदेश से संस्कृत रूप 'स्मः' के स्थान पर 'अत्थि' आदेश प्राप्त पद की प्राप्ति होगी।
सूत्र-संख्या ३-१४४ में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचनार्थ में धातुओं में जोड़ने योग्य तीन प्रत्यय 'मो, मु और म' बतलाये गये हैं; जिनमें से इस सूत्र में अस्' धातु के साथ में जुड़ने योग्य केवल दो प्रत्यय 'मो तथा म' का ही उल्लेख किया है और शेष तृतीय प्रत्यय 'मु' को छोड़ दिया है। इस पर से निश्चयात्मक रूप से यही जानना चाहिए कि 'अस्' धातु के साथ में 'मु प्रत्यय का प्रयोग नहीं किया जाता है। ___ अहम् अस्मि अहं अस्थि-मै हूं; वयम् स्मः अम्हे अस्थि =हम हैं; वयम् स्म-अम्हो अत्थि हम हैं। यों अस्मि और स्मः' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१४८ के आदेशानुसार 'अत्थि' पद की आदेश प्राप्ति का सद्भाव होता है।
शंका- पहले सूत्र-संख्या २-७४ में आपने बतलाया है कि 'पक्ष्म शब्द के संयुक्त व्यंजन के स्थान पर तथा 'श्म, ष्म, स्म और ह्य' के स्थान पर प्राकृत में 'म्ह' रूप की आदेश प्राप्ति होती है तदनुसार 'अस्मि' क्रियापद में और 'स्मः' क्रियापद में स्थित पदांश 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश प्राप्ति होकर इष्ट पदांश 'म्ह' की प्राप्ति हो जाती है; तो ऐसी अवस्था में इस सूत्र-संख्या ३-१४७ को निर्माण करने की कौन-सी आवश्यकता रह जाती है?
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172 : प्राकृत व्याकरण
उत्तरः- यह सत्य है; परन्तु जहाँ विभक्तियों के संबंध में विधि-विधानों का निर्माण किया जा रहा हो; वहाँ पर प्रायः साध्यमान अवस्था ही (सिद्ध की जाने वाली अवस्था ही) अंगीकृत की जाती है। यदि विभक्तियों से सम्बन्धित विधि विधानों का निश्चयात्मक विधान निर्माण नहीं करके केवल व्यंजन एवं स्वर वर्णो के विकार से तथा परिवर्तन से सम्बन्धित नियमों पर ही अवलम्बित रह जायेंगें तो प्राकृत भाषा में जो विभक्ति-बोधक स्वरूप संस्कृत के समान ही पाये जाते हैं; उनके विषय में अव्यवस्था जैसी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी; जैसे कि कुछ उदाहरण इस प्रकार है:- वृक्षेन-वच्छेण; वक्षेष-वच्छेसः सर्वे सव्वे: ये-जे:ते-ते: के-के: इत्यादिः इन विभक्तियक्त पदों की साधनिका प्रथम एवंम द्वितीय पादों में वर्णित वर्ण-विकार से सम्बन्धित नियमों द्वारा भली भांति को जा सकती है। परन्त ऐसी स्थित में भी ततीय पाद में इन पदों में पाये जाने वाले प्रत्ययों के लिये स्वतन्त्र रूप से विधि-विधानों का निर्माण किया गया है। जैसे वच्छेण पद में सूत्र-संख्या ३-६ और ३-१४ का प्रयोग किया जाता है; वच्छेसु पद में सूत्र-संख्या ३-१५ का उपयोग होता है; 'सव्वे, जे,ते, के पदों में सूत्र-संख्या ३-५८ का आधार है; यों यह निष्कर्ष निकलता है कि केवल वर्ण-विकार एवं वर्ण-परिवर्तन से सम्बन्धित नियमोपनियमों पर ही अवलम्बित नहीं रहकर विभक्ति से सम्बन्धित विधियों के सम्बन्ध में सर्वथा नूतन तथा पृथक नियमों का ही निर्माण किया जाना चाहिये; अतएव आपकी उपर्युक्त शंका अर्थ शून्य ही है। यदि आपकी शंका को सत्य माने तो विभक्ति स्वरूप बोधक सूत्रों का निर्माण 'अनारम्भणीय' रूप हो जायेगा; जो कि अनिष्टकर एवं विघातक प्रमाणित होगा। ग्रन्थकार द्वारा वृत्ति में प्रदर्शित मन्तव्य का ऐसा तात्पर्य है। 'एस' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है।
अस्मि संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप म्हि होता है। इस में सूत्र-संख्या ३-१४१ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में 'अस्' धातु में प्राकृत प्रत्यय 'मि' की प्राप्ति और ३-१४७ से प्राप्त रूप 'अस्+मि' के स्थान पर 'म्हि' रूप की सिद्धि हो जाती है। ___ गताः संस्कृत का पुंल्लिंग विशेषण का रूप है। इसका प्राकृत रूप गय है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से पदान्त विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोप; १-१७७ से 'त्' व्यञ्जन का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' व्यञ्जन के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' स्वर के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त वर्ण'या' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे संयुक्त व्यञ्जन 'म्हो' का सद्भाव होने से हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर गय रूप की सिद्धि हो जाती है। __ स्मः संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का बहुवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'म्हो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४४ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में 'अस्' धातु में प्राकृत प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति और ३-१४७ से प्राप्त रूप 'अस्+मो' के स्थान पर 'म्हो' रूप की सिद्धि हो जाती है।
'गय' (विशेषणात्मक) रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
स्मः संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का बहुवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'म्ह' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४४ से वर्तमानकाल में तृतीय पुरुष के बहुवचन में 'अस्' धातु में प्राकृत प्रत्यय 'म' की प्राप्ति और ३-१४७ से प्राप्त रूप अस्+म' के स्थान पर 'म्ह' रूप की सिद्धि हो जाती है।
अस्मि संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अत्थि' भी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४१ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में 'अस' धातु में प्राकृत प्रत्यय 'मि' की प्राप्ति और ३-१४८ से प्राप्त रूप 'अस्+मि' के स्थान पर 'अत्थि' रूप सिद्धि हो जाती है। 'अहं' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१०५ में की गई है।
स्थः संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का बहुवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप'अत्थि' भी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४४ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में अस' धातु में प्राकृत प्रत्यय 'मो-मु-म' को प्राप्ति और ३-१४८ से प्राप्त रूप 'अस्+मो-मु-म' के स्थान पर 'अत्थि' रूप की सिद्धि हो जाती है।
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'अम्हे' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३- १०६ में की गई है। 'स्मः' अत्थि रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। 'अम्हो' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३- १०६ में की गई है। 'वच्छेण' (प्राकृत पद) की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-६ में की गई है। 'वच्छेसु' (प्राकृत-पद) की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - १५ में की गई है।
'सव्वे' 'जे' 'ते' और 'के' चारों रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५८ में की गई है । । ३ -१४७ ।।
अत्थिस्त्यादिना ।। ३-१४८।।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 173
अस्तेःस्थाने त्यादिभिः सह अत्थि इत्यादेशो भवति ।। अत्थि सो। अत्थि ते । अत्थि तुमं । अत्थि तुम्हे अत्थि अहं । अत्थि अम्हे |
अर्थ:- संस्कृत-धातु 'अस्' के प्राकृत रूपान्तर में वर्तमानकाल के एकवचन के और बहुवचन के तीनों पुरुषों के प्रत्ययों की संयोजना होने पर तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में उक्त धातु' 'अस्' तथा प्राप्त प्रत्ययों के स्थान पर समान रूप से एक ही रूप 'अत्थि' की आदेश प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार हैं: - (१) सः अस्ति = सो अत्थि= वह है; (२) तौ स्तः अथवा ते सन्ति=ते अस्थि-वे दोनों अथवा वे (सब) है; (३) त्वमसि तुमं अस्थि-तू है; (४) युवाम् स्थः अथवा यूयम् स्थ=तुम्हे अत्थि=तुम दोनों अथवा तुम (सब) हो; (५) अहम् = अस्मि = अहं अस्थि- मैं हूँ और (६) आवाम् स्वः अथवा वयम् स्मः= :- अम्हे अत्थि = हम दोनों अथवा हम (सब) है। यों 'अस्' धातु के वर्तमानकाल के तीनों पुरुषों में और दोनों वचनों में सूत्र-संख्या ३-१४६ - १४७ - १४८ के अनुसार प्राकृत भाषा में निम्न प्रकार से रूप होते हैं:
पुरुष
एकवचन
बहुवचन
प्रथम
अत्थि
अत्थि
द्वितीय
सि और अतिथ
अत्थि
तृतीय
म्हि और अथि
म्हो; म्ह और अस्थि
इस प्रकार 'अस्' धातु के प्राकृत भाषा में आदेश प्राप्ति रूप पाये जाते हैं, और केवल आदेश प्राप्ति एक रूप 'अत्थि' ही तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में समान रूप से प्रयुक्त होकर इष्ट- ताप्पर्य को प्रदर्शित कर देता है।
'अस्ति = अत्थि' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या २- ४५ में की गई है।
'सो' (सर्वनाम - पद) की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-८६ में की गई है।
'सन्ति (और स्तः) संस्कृत के वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष बहुवचनान्त ( और द्विवचनान्त क्रम से) परम्मैपदीय अकर्मक क्रियापद के रूप है। इन दोनों का प्राकृत रूप अत्थि ही होता है। इनमें सूत्र - संख्या ३ -१४८ से दोनों रूपों के स्थान पर 'अस्थि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'असि=अत्थि' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - १४६ में की गई है।
(सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-५८ में की गई है।
'तुम' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ -१४६ में की गई है।
'स्थः और स्थ' संस्कृत के वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के क्रम से द्विवचनान्त तथा बहुवचनान्त परम्मैपदीय अकर्मक क्रियापद के रूप है। इनका प्राकृत रूप अत्थि' होता है। इनमें सूत्र - संख्या ३-१४८ से दोनों रूपों के स्थान पर 'अत्थि' रूप सिद्ध हो जाता है।
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174 : प्राकृत व्याकरण
'तुम्हे' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ९१ में की गई है। 'अस्मि - अत्थि' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ -१४७ में की गई है। 'अहं' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३- १०५ में की गई है। 'स्मः' ( और स्वः) = ' अत्थि' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ -१४७ में की गई है। 'अम्हे' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३- १०६ में की गई है । । ३ - १४८ ।।
णेरदेदावावे।। ३-१४९।।
स्थाने अत् एत् आव आवे एते चत्वार आदेशा भवन्ति ।। दरिसइ । कार । करावइ । करावे ।। हासे । हसावइ । हसावेइ।। उवसामेइ। उवसमावइ । उवसमावेइ ।। बहुलाधिकारात् क्वचिदेन्नास्ति । जाणावेइ ॥ क्वचिद आवे नास्ति । पाएइ । भावेइ ||
अर्थः- इस सूत्र से प्रारम्भ करके आगे १५३ वें सूत्र तक प्रेरणार्थक किया का विवेचन किया जा रहा है। जहाँ पर किसी प्रेरणा से कोई काम हुआ हो वहाँ प्ररेणा करने वाले की क्रिया को बताने के लिए प्रेरणार्थक क्रिया का प्रयोग होता है। संस्कृत भाषा में प्रेरणा अर्थ में धातु से परे 'णिच्=अय' प्रत्यय जोड़ा जाता है; इसलिये इस क्रिया को 'णिजन्त' भी कहते हैं। । प्राकृत भाषा में प्रेरणार्थक क्रिया का रूप बनाना हो जाता प्राकृत धातु के मूल रूप में सर्वप्रथम संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर आदेश - प्राप्त 'अत, एत्' आव और आवे' प्रत्ययों में से कोई भी एक प्रत्यय जोड़ने से वह धातु प्रेरणार्थ क्रियावाली बन जायगी; तत्पश्चात् प्राप्तांग रूप धातु में जिस काल का प्रत्यय जोड़ना चाहें उस काल का प्रत्यय जोड़ा जा सकता है। आदेश प्राप्त प्रत्यय ' अत् और एत्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'तू' की इत्संज्ञा होकर यह लोप हो जाता है। इस प्रकार किसी भी धातु में काल बोधक प्रत्ययों के पूर्व में 'अ, ए, आव और आवे' में से कोई भी एक णिजन्त बोधक अर्थात् प्रेरणार्थक प्रत्यय जोड़ने से उस धातु का अंग प्रेरक अर्थ में तैयार हो जाता है। इस सम्बन्ध में विविध नियमों की विवेचना आगे के सूत्रों में की जावेगी । प्रेरणार्थक क्रियाओं के कुछ सामान्य उदाहरण इस प्रकार है:दर्शयति-दरिसई = वह दिखलाता है। कारयति-कारेइ, करावई, करावेइ = वह कराता है । हासयति हासेइ, हसावइ, हसावेइ = वह हँसाता है। उपशामयति-उवसामेइ, उवसमावइ, उवसमाइवेइ = वह शांत कराता है। 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से किसी-किसी समय में और किसी धातु में उपर्युक्त ' एत्-ए' प्रत्यय की संयोजना नहीं भी होती है। जैसे:- ज्ञापयति-जाणावेइ-वह बतलाता है। यहाँ पर 'ज्ञापयति' के स्थान पर 'जाणेइ' रूप का प्रेरणार्थक में निषेध कर दिया गया है। कहीं-कहीं पर ' आवे' प्रत्यय की भी प्राप्ति नहीं होती है। जैसे :- पाययति = पाएइ = वह पिलाता है। यहाँ पर 'पाययति' के स्थान पर 'पावेइ' रूप का निषेध ही जानना। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- भावयति = भावेइ वह चिंतन करता है। यहाँ पर संस्कृत रूप
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'भावयति' के स्थान पर प्राकृत में 'भावावेइ' रूप के निर्माण का अभाव ही जानना चाहिये। इसी प्रकार से प्रेरणार्थ क्रियाओं की विशेष विशेषताऐं आगे के सूत्रों में और भी अधिक बतलाई जाने वाली है।
दर्शयति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप दरिसइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २ - १०५ से रेफ रूप हलन्त व्यञ्जन 'र्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्रेरणार्थ- क्रिया-बोधक संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'अत्-अ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३- १३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक- प्राकृत धातु 'दरिस' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रेरणार्थक क्रिया बोधक प्राकृत धातु रूप दरिसइ सिद्ध हो जाता है।
कारयति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसके प्राकृत रूप कारेइ, करावइ और करावेई होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३ - १५३ से मूल प्राकृत धातु 'कर' में स्थित आदि ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक- बोधक-प्रत्यय 'अत्' अथवा 'एत्' का लोप होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; ३ - १५८ से प्राप्त प्रेरणार्थक- धातु-अंग 'कार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमानकालबोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 175 'ए' की प्राप्ति और ३- १३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकृत धातु 'कारे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्त 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कारेइ सिद्ध हो जाता है।
राव एवं करावे में सूत्र - संख्या ३ - १४९ से मूल प्राकृत धातु 'कर' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक-भाव में संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से ' आव और आवे' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से मूल धातु 'कर' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के साथ में आगत प्रत्यय ' आव एवं आवे' में स्थित आदि दीर्घ स्वर 'आ' की संधि होकर अंगरूप 'कराव और करावे' की प्राप्ति और ३- १३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकृत धातु अंगों में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय और तृतीय रूप क्रम से करावइ और करावेइ दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं।
हासयति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसके प्राकृत रूप हासेइ, हसावइ और हसावेइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३ - १५३ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित आदि हस्व 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक-क्रिया-बोधक-प्रत्यय 'अत्' अथवा 'एत्' का लोप होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; ३ - १५८ से प्राप्त प्रेरणार्थक-धातु अंग ‘हास' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमानकाल - बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकृत धातु-अंग 'हासे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हासेइ सिद्ध हो जाता है।
हसाव और हसावेइ में सूत्र - संख्या ३ -१४९ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक भाव में संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'आव और आवे' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से मूल - धातु 'हस' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के साथ में आगत प्रत्यय 'आव एवं आवे' में स्थित आदि दीर्घ स्वर 'आ' की संधि होकर अंग-रूप 'हसाव और हसावे' की प्राप्ति और ३- १३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकृत धातु अंगों में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय और तृतीय रूप क्रम से हसावइ और हसावे दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं।
उपशामयति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसके प्राकृत रूप उवसामेइ, उवसमावइ और उवसमावेइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - २३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १ - २६० से 'शू' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-१४९ से णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक भाव में संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकृत धातु अंग 'उवसामे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप उवसामेइ सिद्ध हो जाता है।
उवसमावइ और उवसमावेइ में सूत्र - संख्या १ - २३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १ - २६० से 'श' के स्थान पर ‘स्' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्राप्त प्राकृत धातु 'उवसम्' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक भाव में संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से दोनों रूपों में 'आव और आवे' प्रत्ययों की प्राप्ति; यों प्राप्त प्रेरणाथक रूप उवसमाव और उवसमावे में सूत्र- संख्या ३ - १३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में दोनों रूपों में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप उवसमावइ और उवसमावेइ सिद्ध हो जाते हैं।
ज्ञापयति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसको प्राकृत रूप जाणावेइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४-७ से मूल संस्कृत धातु 'ज्ञा' के स्थान पर प्राकृत में 'जाण' रूप की आदेश प्राप्ति; ३ - १४९ से प्राप्त रूप 'जाण्' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक-भाव में संस्कृत प्राप्त 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'आव' प्रत्यय की प्राप्ति और ३- १३९ से प्राप्त क्रिया रूप जाणावे में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय प्राप्ति होकर प्राकृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप जाणावेइ सिद्ध हो जाता है।
पाययति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत- रूप पाएइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ -१४९ से मूल प्राकृत धातु 'पा' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक-भाव संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति
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176 : प्राकृत व्याकरण
और ३-१३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक क्रिया रूप पाए' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप पाएइ सिद्ध हो जाता है।
भावयति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप भावेइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१० से मूल प्राकृत धातु भाव में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का आगे णिजन्त बोधक प्रत्ययात्मक स्वर 'ए' का सद्भाव होने से लोप; ३-१४९ से प्राप्त हलन्त प्रेरणार्थक-क्रिया 'भाव' में संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में णिजन्त-बोधक प्रत्यय 'ए' की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक क्रिया रूप'भावे में वर्तमानकाल के प्रथमपरु
में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप भावेइ सिद्ध हो जाता है।।३-१४९।।
गुर्वादेरविर्वा।।३-१५०॥ गुर्वादेणेः स्थाने अवि इत्यादेशो वा भवति।। शोषितम्। सोसविआ सोसि। तोषितम् तोसविअंतोसि। __ अर्थः- जिन धातुओं में आदि-स्वर गुरु अर्थात् दीर्घ होता है, उन धातुओं में णिजन्त-अर्थ में अर्थात् प्रेरणार्थक-भाव के निर्माण में उपर्युक्त सूत्र-संख्या ३-१४९ में वर्णित णिजन्त-बोधक प्रत्यय 'अत, एत् आव और आवे' में से कोई भी प्रत्यय नहीं जोड़ा जाता है; किन्तु केवल एक ही प्रत्यय 'अवि' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। तदनुसार आदि-स्वर दीर्घ वाली धातुओं में णिजन्त-अर्थ में कमी ‘अवि' प्रत्यय जुड़ता भी है और कभी किस भी प्रकार के प्रत्यय को नहीं जोड़ करके णिजन्त-अर्थ प्रदर्शित कर दिया जाता है। उदाहरण इस प्रकार है:- शोषितम्-सोसविअं अथवा सोसिअं-सुखाया हुआ; तोषितम्=तोसविअं अथवा तोसिअं-संतुष्ट कराया हुआ। इन उदाहरणों में अर्थात् सोसविअं और तोसविअं में तो णिजन्त अर्थ में 'अवि' प्रत्यय जोड़ा गया है, जबकि द्वितीय क्रम वाले 'सोसिअं और तोसिअं' में णिजन्त अर्थ में 'अवि' प्रत्यय की वैकल्पिक स्थित बतलाते हुए एवं अभाव-स्थित प्रदर्शित करते हुए किसी भी प्रकार के णिजन्त-बोधक प्रत्यय की संयोजना नहीं करके भी इन क्रियाओं का रूप णिजन्त-अर्थ सहित प्रदर्शित कर दिया गया है; यों अन्य आदि स्वर दीर्घ वाली धातुओं के सम्बन्ध में भी णिजन्त अर्थ के सद्भाव में 'अवि' प्रत्यय की वैकल्पिक-स्थिति को समझ लेना चाहिये तथा णिजन्त अर्थबोधक प्रत्यय का अभाव होने पर भी ऐसी धातुओं में णिजन्त अर्थ का सद्भाव जान लेना चाहिये।
शोषितम् संस्कृत प्रेरणार्थक-क्रिया का रूप है। इसके प्राकृत रूप सोसविअं और सोसिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२६० से मूल संस्कृत धातु 'शोष' में स्थित दोनों प्रकार के 'श' और 'ष' के स्थान पर प्राकृत में 'स् की प्राप्ति; ३-१५० से प्राप्त रूप सोस्' में आदि स्वर दीर्घ होने से प्रेरणार्थक-भाव में प्राकृत 'अवि' प्रत्यय की प्राप्ति; ४-४४८ से भूत-कृदन्त अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी प्राप्त रूप 'सोसवि' में 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्येय 'त' में से हलन्त 'त्' व्यंजन का लोप; ३-२५ से प्राप्त रूप सोसविअ में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत भूतकृदंतीय एकवचनान्त प्रेरणार्थक क्रिया का प्रथम रूप सोसविअं सिद्ध हो जाता है।
सोसिअं में सूत्र-संख्या १-२६० से मूल संस्कृत रूप शोष में स्थित 'श्' और ' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-१५० से प्रेरणार्थक भाव का सद्भाव होने पर भी प्रेरणार्थक प्रत्यय 'अवि' का वैकल्पिक रूप से अभाव; ४-२३९ से प्राकृत हलन्त रूप 'सोस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे भूत-कृन्दत-अर्थक प्रत्यय 'त' का सद्भाव होने से 'इ' प्राप्ति; ४-४४८ से भूत-कृन्दत अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त त' वर्ण में से हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; यों प्राप्त रूप 'सोसिअ में शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र-संख्या ३-२५ और १-२३ से प्राप्त होकर द्वितीय रूप सोसिअं भी सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 177 तोषितम् संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसके प्राकृत रूप तोसविअं और तोसिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२६० से मूल संस्कृत धातु तोष्' में स्थित मूर्घन्य ‘ष्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्' की प्राप्ति; ३-१५० से प्राप्त रूप'तोस' में आदि स्वर दीर्घ होने से प्रेरणार्थक भाव में प्राकृत में अवि' प्रत्यय की प्राप्ति; ४-४४८ से भूतकृदन्त अर्थ में संस्कत के समान ही प्राकत में भी प्राप्त रूप 'तोसवि' में 'त' प्रत्यय की प्राप्ति: १-१७७ से प्राप्त वर्ण 'त' में से हलन्त व्यंजन 'त' का लोप; ३-२५ से प्राप्त रूप तोसविअ में प्रथमा-विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत भूत कृदन्तीय एकवचनान्त प्रेरणार्थक क्रिया का प्रथम रूप तोसविअंसिद्ध हो जाता है।
तोसिअं में सूत्र-संख्या १-२६० से मूल संस्कृत धातु तोष में स्थित 'ष' के स्थान पर 'स् की प्राप्ति; ३-१५० से प्रेरणार्थक-भाव का सद्भाव होने पर भी प्रेरणार्थक-प्रत्यय 'अवि' का वैकल्पिक रूप से अभाव; ४-२३९ से प्राकृत हलन्त रूप 'तोस में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे भूत-कृदन्त अर्थक प्रत्यय 'त' का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से भूत-कृदन्त अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'त' वर्ण में से हलन्त-व्यंजन 'त्' का लोप; यों प्राप्त रूप 'तोसिअ' में शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र-संख्या ३-२५ और १-२३ से प्राप्त होकर द्वितीय रूप तोसिअं भी सिद्ध हो जाता है।।३-१५०।।
भ्रमै राडो वा ।। ३-१५१॥ भ्रमेः परस्य णेराड आदेशो वा भवति॥ भमाडइ। भमाडेइ। पक्षे। भामेइ। भमावइ। भमावेइ।।
अर्थः- संस्कृत-भाषा की धातु भ्रम् के प्राकृत रूप भ्रम् में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक-भाव के अर्थ में संस्कृत प्राप्त प्रेरणार्थक प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'आड' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:- भ्रामयति=भमाडइ अथवा भमाडेइ वह घुमाता है। वैकल्पिक-पक्ष का सद्भाव होने से प्रेरणार्थ भाव में जहां भम धात में 'आड' प्रत्यय का अभाव होगा वहाँ पर सत्र-संख्या ३-१४९ के अनुसार प्रेरणार्थक भाव में अत. एत. आव और आवे प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय का सद्भाव होगा। जैसे-भ्रामयति भामइ, भामेइ, भमावइ और ममावेइ वह घुमाता है। यों प्राकृत धातु 'भम्' के प्रेरणार्थक भाव में छह रूपों का सद्भाव होता है। तत्पश्चात् इष्ट काल-बोधक प्रत्ययों को संयोजना होती है।
भ्रामयति संस्कृत प्रेरणार्थक-क्रिया का रूप है। इसके रूप भमाडइ, भमाडेइ, भामइ, भामेइ, भमावइ और भभावेइ होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत-धातु 'भ्रम्' में स्थित 'र' व्यंजन का लोप; ३-१५१ से प्राप्तांग भम्' में प्रेरणार्थक-भाव में संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में आड' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; ३-१५८ से द्वितीय रूप में प्राप्त प्रत्यय आड' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति; यों प्राप्तांग 'भमाड और भमाडे' में सूत्र-संख्या ३-१३९ से वर्तमानकल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' की प्राप्ति होकर भमाडइ और भमाडेइ प्रेरणार्थक रूप सिद्ध हो जाते हैं।
भामइ में सूत्र-संख्या २-७९ से संस्कृत धातु -'भ्रम्' में स्थित र् व्यंजन का लोप; ३-१५३ से प्राप्तांग 'भम्' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक-बोधक-प्रत्यय का वैकल्पिक रूप से लोप कर देने से 'आ' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्तांग; भाम् में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्तांग 'भाम' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचनार्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप भामइ भी सिद्ध हो जाता है।
भामेइ में भाम' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त तृतीय रूप में वर्णित साधनिका के समान ही होकर सूत्र-संख्या ३-१५८ से अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१३९ से तृतीय रूप के समान ही 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चतुर्थ रूप भामेइ सिद्ध हो जाता है।
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178 : प्राकृत व्याकरण ___भमावइ और भमावेइ में सूत्र-संख्या ३-१४९ से पूर्वोक्तरीति से प्राप्तांग 'भम्' में प्रेरणार्थकभाव में वैकल्पिक रूप से संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'आव और आवे 'प्रत्यय की क्रम से प्राप्ति और ३-१३९ से दोनों प्राप्तांगों 'भमाव ओर भमावे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रेरणार्थक-भाव में अन्तिम दोनों रूप 'भमावइ और भमावेइ' क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।।३-१५१।।
लुगावी-क्त-भाव कर्मसु।।३-१५२।। णेः स्थाने लुक् आवि इत्यादेशो भवतः क्ते भावकर्मविहिते च प्रत्यये परतः।। कारिओ करावि हासि। हसाविआ खामि। खमावि।। भाव कर्मणोः।। कारीअइ। करावीअइ। कारिज्जइ। कराविज्जइ। हासीअइ। हसावीअइ। हासिज्जइ। हसाविज्जइ।। ___ अर्थः- जिस समय में प्राकृत धातुओं में भूतकृदन्त सम्बन्धी प्रत्यय 'त' लगा हुआ हो अथवा भाव वाच्य एवं कर्मणि वाच्य सम्बन्धी प्रत्यय लगे हुए हों, तो उन धातुओं में प्ररेणार्थक-भाव की निर्माण अवस्था में सूत्र-संख्या ३-१४९ में वर्णित प्रेरणार्थक भाव प्रदर्शक प्रत्यय 'अत्' एत्' आव और आवे' का या तो लोप हो जायेगा अथवा इन प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आवि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हो जायेगी और उन धातुओं का भूत कृदन्त अर्थ सहित अथवा भाववाच्य कर्मवाच्य अर्थ सहित प्रेरणार्थक रूप का निर्माण हो जायेगा। उदाहरण इस प्रकार हैं:- कारितम् कारिअं अथवा कराविकराया हुआ; हासितम्-हासिअं अथवा हसाविअं-हँसाया हुआ और क्षामितम् खामिअं अथवा खमाविअंक्षमाया हुआ; ये उदाहरण भूतकृदन्त सम्बन्धी हैं; इनमें से प्रथम रूपों में प्रेरणार्थक किया का सद्भाव प्रदर्शित किया जाता हुआ होने पर भी इनमें सूत्र-संख्या ३-१४९ के अनुसार प्राकृत में णिजन्त अर्थबोधक प्रत्यय 'अत् एत् आव और आवे' का लोप प्रदर्शित किया गया है। जबकि द्वितीय रूपों में प्रेरणार्थक भाव में प्रत्ययों के स्थान पर आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'आवि' का सद्-भाव प्रदर्शित किया गया है। भाववाचक और कर्मणिवाचक उदाहरण इस प्रकार है:- कार्यकारीअइ, करावीअइ, कारिज्जइ और कराविज्जइ-उससे कराया जाता है; हास्यते-हासी-अइ हसावीअइ, हासिज्जइ और हसाविज्जइ उससे हंसाया जाता है। इन उदाहरणों में भी अर्थात् 'कारीअइ, कारिज्जइ, हासीअइ और हासिज्जइ' में तो प्रेरणार्थक-भाव-प्रदर्शक-प्रत्ययों का अभाव प्रदर्शित करते हुए भी प्रेरणार्थक-भाव का सद्भाव प्रदर्शित किया गया है। जबकि शेष उदाहरणों में अर्थात् कारावीअइ, कराविज्जइ, हसावीअइ और हसाविज्जई' में प्रेरणार्थक-भाव-प्रदर्शक-प्रत्यय 'अत् एत्' 'आव और आवे' के स्थान पर 'आवि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति प्रदर्शित करते हुए प्रेरणार्थक-भाव का सद्भाव प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार अन्यत्र भी यह समझ लेना चाहिये कि प्राकृत भाषा में धातुओं में भूत-कृदन्त सम्बन्धी प्रत्यय 'त' और भाव वाच्य कर्मवाच्य प्रत्ययों के परे रहने पर णिजन्त बोधक प्रत्ययों का या तो ले जायगा अथवा इन प्रत्ययों के स्थान पर 'आवि' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति हो जायगी।
कारितम संस्कत का भत-कदन्तीय रूप है। इसके प्राकत रूप कारिअं और कराविअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१५३ से मूल प्राकृत धातु 'कर' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भूत कृदन्तीय प्रत्यय का सद्भाव होने से ३-१५२ द्वारा प्रेरणार्थक-भाव प्रदर्शक-प्रत्यय का लोप हो जाने से 'आ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्तांग 'कार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भूत-कृदन्त वाचक प्रत्यय 'त' का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से प्राप्तांग 'कारि' में भूत कृदन्त-वाचक संस्कृत प्रत्यय 'त्'के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; ३-२५ से प्राप्तांग 'कारिअ' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' को पूर्व वर्ण पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूतकृदन्तीय प्रेरणार्थक भाव सूचक प्रथमान्त एकवचनीय प्राकृत पद कारिअंसिद्ध हो जाता है। ___ कराविअं में सूत्र-संख्या ३-१५२ से मूल प्राकृत धातु-'कर' में प्रेरणार्थक भाव प्रदर्शक प्रत्यय 'आवि' की प्राप्ति; और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही प्राप्त होकर द्वितीय रूप कराविअं भी सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 179 हासितम् संस्कृत कृदन्त का रूप है। इसके प्राकृत रूप हासिअं और हसाविअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप हासिअं में सत्र-संख्या ३-१५३ से मल प्राकत धात 'हस' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भूत-कृदन्तीय प्रत्यय का सद्भाव होने से ३-१५२ द्वारा प्रेरणार्थक-भाव-प्रदर्शक-प्रत्यय का लोप हो जाने से -आ की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्तांग 'हास' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भूत-कृदन्त-वाचक प्रत्यय 'त' का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से प्राप्तांग 'हासि' में भूत-कृदन्त-वाचक संस्कृत प्रत्यय 'त' के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; ३-२५ से प्राप्तांग 'हासिअ' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्ण वर्ण पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूत कृदन्तीय प्रेरणार्थक भाव सूचक प्रथमान्त एकवचनीय प्राकृत पद हासिअं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(हासितम्=) हसाविअं में सूत्र-संख्या ३-१५२ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में प्रेरणार्थक भाव प्रदर्शक प्रत्यय 'आवि' की प्राप्ति; प्राप्तांग 'हसावि' में शेष-साधनिका प्रथम रूप के समान है। सूत्र-संख्या ४-४४८:१-१७७,३-२५ और १-२३ द्वारा सिद्ध होकर द्वितीय रूप हसाविअं भी सिद्ध हो जाता है।
क्षामितम् संस्कृत का भूत कृदन्तीय रूप है। इसके प्राकृत रूप खामिअं और खमाविअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत-धातु 'क्षम' में स्थित 'क्ष' व्यंजन के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; ३-१५३ से प्राप्तांग 'खम' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भूत कृदन्तीय प्रत्यय का सद्भाव होने से ३-१५२ द्वारा प्रेरणार्थक-भाव-प्रदर्शक प्रत्यय का लोप हो जाने से 'आ' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्तांग हलन्त 'खाम्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'म्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति, ३-१५६ से प्राप्तांग 'खाम' में उक्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे भूतकृदन्तवाचक प्रत्यय 'त' का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से प्राप्तांग 'खामि' में भूत कृदन्तवाचक संस्कृत प्रत्यय 'त' के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; ३-२५ से प्राप्तांग 'खामिअ' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्ववर्ण पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूत कृदन्तीय प्रेरणार्थक भाव सूचक प्रथमान्त एकवचनीय प्राकृत प्रथम पद खामिअं सिद्ध हो जाता है। ___ खमाविअं में मूल प्राकृत अंग 'खम्' की प्राप्ति उपर्युक्त प्रथम रूप के समान और ३-१५२ से मूल-प्राकृत धातु 'खम्' में प्रेरणार्थक-भाव-प्रदर्शक प्रत्यय 'आवि' की प्राप्ति; इस प्रकार प्रेरणार्थक-रूप से प्राप्तांग 'खमावि' में शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र-संख्या ४-४४८; १-१७७; ३-२५ और १-२३ द्वारा होकर द्वितीय रूप खमाविअं भी सिद्ध हो जाता है। ___ कार्यते संस्कृत प्रेरणार्थक रूप है। इसके प्राकृत रूप कारीअइ, करावीअइ, कारिज्जइ और कराविज्जइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१५३ से मूल-प्राकृत धातु 'कर' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक-भाव-सूचक प्रत्यय के सद्भाव का ३-१५२ द्वारा लोप कर देने से 'आ' की प्राप्ति; १-१० से प्राप्तांग 'कार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का आगे प्राप्त कर्मणिवाचक-प्रत्यय 'ईअ में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' का सद्भाव होने से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त 'कार' में कर्मणि-प्रयोग वाचक प्रत्यय 'ईअ की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'कार' के साथ में उक्त प्रत्यय 'ईअ की संधि हो जाने से कारीअ' अंग की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्तांग 'कारीअ' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कारीअइ सिद्ध हो जाता है। ___करावीअइ में सूत्र-संख्या ३-१५२ से मूल प्राकृत धातु 'कर' में प्रेरणार्थक प्रत्यय 'आवि' की प्राप्ति; १-५ से 'कर' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ के साथ में आगे रहे हुए 'आवि' प्रत्यय के आदि स्वर 'आ' की संधि; ३-१६० से प्राप्तांग 'करावि' में कर्मणि प्रयोग वाचक प्रत्यय 'इअ की प्राप्ति; १-५ से 'करावि' में स्थित अन्त्य हस्व 'इ' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्यय 'ईअ' में स्थित आदि दीर्घ स्वर 'ई' की संधि होकर दोनों स्वरों के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्तांग 'करावीअ में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप करावीअइ सिद्ध हो जाता है।
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180 : प्राकृत व्याकरण
करिज्जर में सूत्र - संख्या ३ - १५३ से मूल प्राकृत धातु 'कर' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक भाव सूचक प्रत्यय के सद्भाव का ३ - १५२ द्वारा लोप कर देने से 'आ' की प्राप्ति; १ - १० से प्राप्तांग 'कार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का आगे प्राप्त कर्मणि प्रयोग वाचक प्रत्यय इज्ज' में स्थित ह्रस्व स्वर 'इ' का सद्भाव होने से लोप; ३ - १६० से प्राप्तांग हलन्त 'कार' में कर्मणि प्रयोग वाचक प्रत्यय 'इज्ज' की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'कार' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्यय 'इज्ज' की संधि होकर 'कराविज्ज' अंग की प्राप्ति और ३- १३९ से प्राप्तांग 'कारिज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप कारिज्जइ सिद्ध हो जाता है।
कराविज्जई में सूत्र-संख्या ३ - १५२ से मूल प्राकृत - धातु 'कर' में प्रेरणार्थक-प्रत्यय 'आदि' की प्राप्ति; १-५ से 'कर' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के साथ में आगे रहे हुए 'आवि' प्रत्यय के आदि स्वर 'आ' की संधि होकर 'कवि' अंग की प्राप्ति; १-१० से प्राप्तांग 'करावि' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' का आगे कर्मणि-प्रयोग-सूचक प्राप्त प्रत्यय 'इज्ज' में स्थित आदि ह्रस्व स्वर 'इ' का सद्भाव होने से लोप, ३- १६० से प्राप्तांग हलन्त 'कराव्' में कर्मणि-प्रयोगवाचक प्रत्यय 'इज्ज' की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'कराव' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्यय 'इज्ज' की संधि होकर 'कराविज्ज' अंग की प्राप्ति और ३-१६९ से प्राप्तांग 'कराविज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चतुर्थ रूप कराविज्जई सिद्ध हो जाता है।
हास्यते संस्कृत का कर्मणि वाचक रूप है। इसके प्राकृत रूप हासीअइ, हसावीअइ, हासिज्जइ और हसाविज्जइ । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३ - १५३ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक-भाव-सूचक प्रत्यय के सद्भाव का ३ - १५२ द्वारा लोप कर देने से 'आ' की प्राप्ति; १- १० से प्राप्तांग 'हास' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त कर्मणि वाचक प्रत्यय 'ईअ' में स्थित दीर्घस्वर 'ई' का सद्भाव होने से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त 'हास्' में कर्मणि-प्रयोग वाचक-प्रत्यय 'ईअ' की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'हास्' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्यय 'इअ' की संधि हो जाने से 'हासीअ' अंग की प्राप्ति और ३- १३९ से प्राप्तांग 'हासीअ' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हासीअइ सिद्ध हो जाता है।
हसावीअइ में सूत्र-संख्या ३ - १५२ से मूल प्राकृत धातु 'हस्' में प्रेरणार्थक-प्रत्यय 'आवि' की प्राप्ति; १-५ से 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के साथ में आगे रहे हुए 'आवि' प्रत्यय के आदि स्वर 'आ' की संधि; ३ - १६० से प्राप्तांग 'हसावि' में कर्मणि-प्रयोगवाचक प्रत्यय 'ईअ' की प्राप्ति; १-५ से प्राप्तांग 'हसावि' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्यय 'ईअ' में स्थित आदि दीर्घ स्वर 'ई' की संधि होकर दोनों स्वरों के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्तांग 'हसावीअ' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप हसावीअइ सिद्ध हो जाता है।
हासिज्ज में सूत्र - संख्या ३ - १५३ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक भाव सूचक प्रत्यय के सद्भाव का ३- १५२ द्वारा लोप कर देने से 'आ' की प्राप्ति; १ - १० से प्राप्तांग 'हास' में स्थित अन्त्य स्वर ‘अ' के आगे प्राप्त कर्मणि-प्रयोग-वाचक प्रत्यय 'इज्ज' में स्थित हस्व स्वर 'इ' का सद्भाव होने से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त हास् में कर्मणि-प्रयोग-वाचक प्रत्यय 'इज्ज' की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'हास्' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्यय 'इज्ज' की संधि हो जाने से 'हासिज्ज' अंग की प्राप्ति और ३- १३९ से प्राप्तांग 'हासिज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष: एक-वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप हासिज्जइ सिद्ध हो जाता है।
हसाविज्जइ में सूत्र- संख्या ३ - १५२ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में प्रेरणार्थक प्रत्यय 'आवि' की प्राप्ति; १-५ से 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के साथ में आगे रहे हुए प्रत्यय 'आवि' के आदि स्वर 'आ' की संधि होकर 'हसावि' अंग की प्राप्ति; १ - १० से प्राप्तांग 'हसावि' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' के आगे कर्मणि-प्रयोग - सूचक प्रत्यय 'इज्ज' में स्थित आदि ह्रस्व स्वर 'इ' का सद्भाव होने से लोप; ३ - १६० से प्राप्तांग हलन्त 'हसाव्' में कर्मणि-प्रयोग-वाचक प्रत्यय 'इज्ज'
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 181 की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'हसाव' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्यय 'इज्ज' की संधि होकर 'हसाविज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चतुर्थ रूप हसाविज्जइ सिद्ध हो जाता है।॥३-१५२।।
अदेल्लुक्यादेरत आः।।३-१५३।। णेरदेल्लोपेषु तेषु आदेरकारस्य आ भवति। अति। पाडइ। मारइ।। एति। कारेइ। खामेइ। लुकि। कारिआ खामि। कारीअइ। खामीअइ। कारिज्जइ। खामिज्जइ।। अदेल्लुकीति किम्। कराविआ करावीअइ॥ कराविज्जइ।। आदेरिति किम् संगा-मेइ। इह व्यहितस्य मा भूत।। कारिआ इहान्त्यस्य मा भूत्।। अत इति किम्॥ दूसेइ।। केचितु आवे आव्यादेशयोरप्यादेरत आत्वमिच्छन्ति। कारावेइ। हासाविओ जणो सामलीए।।
अर्थः- प्राकृत धातुओं में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक भाव में सूत्र-संख्या ३-१४९ के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'अत् अथवा एत्' की प्राप्ति होने पर यदि उन प्राकृत धातुओं के आदि में 'अ' स्वर रहा हुआ हो तो उस आदि 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति हो जाया करती है। इसी प्रकार से सूत्र-संख्या ३-१५२ के अनुसार प्रेरणार्थक-भाव के साथ में भूत-कृदन्तीय प्रत्यय 'त' के कारण से और कर्मणिवाचक-भाव-वाचक प्रत्ययों के संयोग से लुप्त हुए प्रेरणार्थक-भाव-सूचक-प्रत्ययों के अभाव में प्राकृत धातुओं के आदि में स्थित 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होती है। सारांश यह है कि णिजन्त-बोधक प्रत्यय 'अत् एत' के सद्भाव में अथवा णिजन्त-बोधक-प्रत्ययों की लोप- अवस्था में धातु के आदि 'अकार' को 'आकार' की प्राप्ति हुआ करती है। 'अत्' से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार हैं:- पातयति पाडइ-वह गिराता है। मारयति-मारइ-वह मारता है। इन 'पड और मर' धातुओं में काल-बोधक प्रत्यय 'इ' के पूर्व में णिजन्त-बोधक 'अत्' प्रत्यय का सद्भाव होने से इनमें स्थित आदि 'अकार' को 'आकार' की प्राप्ति हो गई है। इसी प्रकार से 'एत' प्रत्यय से सम्बन्धित उदाहरण निम्न प्रकार से हैं:- कारयति कारेइ-वह कराता है; क्षामयति-खामेइ-वह क्षमा कराता है; इन 'कर और खम' धातुओं में कालबोधक प्रत्यय 'इ' के पूर्व में णिजन्त बोधक 'एत् प्रत्यय का सद्भाव होने से इनमें स्थित आदि अकार की प्राप्ति हो गई है। भूतकृदन्त प्रत्यय 'त' के सद्भाव में णिजन्त-बोधक प्रत्ययों के लोप हो जाने पर धातुओं के आदि 'अकार को 'आकार' की प्राप्ति होने के उदाहरण इस प्रकार हैं:- कारितम्-कारिअं-कराया हुआ; क्षामितम् खामिअंक्षमाया हुआ, इन 'कर और खम' धातुओं में भूत-कृदन्त बोधक प्रत्यय 'त-अ' के पूर्व में णिजन्त-बोधक-प्रत्यय का लोप हो जाने से इनमें स्थित आदि 'अकार' को 'आकार' की प्राप्ति हो गई है। कर्मणि-प्रयोग और भावे-प्रयोग का सद्भाव होने पर णिजन्त-बोधक-प्रत्ययों के लोप हो जाने पर धातुओं के आदि 'आकार' को 'अकार' की प्राप्ति होने के उदाहरण इस प्रकार जाननाः- कार्यते-कारीअइ अथवा कारिज्जइ-उससे कराया जाता है; क्षाम्यते खामीअइ अथवा खामिज्जइ उससे क्षमाया जाता है। इन 'कर और खम' धातुओं में प्रयुक्त कर्मणि-प्रयोग एवं भावे-प्रयोग-द्योतक प्रत्यय 'ईअ और इज्ज के पूर्व में णिजन्त-बोधक-प्रत्ययों के लोप हो जाने पर इन धातुओं में स्थित आदि 'अकार' को 'आकार' की प्राप्ति हो गई है। अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।
प्रश्नः-णिजन्त-बोधक 'अत् और एत्' होने पर अथवा णिजन्त बोधक-प्रत्ययों के लोप होने पर ही धातुओं के आदि में रहे हुए 'अकार' को 'आकार' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है। ___ उत्तरः- णिजन्त-बोधक-प्रत्यय चार अथवा पाँच हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- अत्, एत्, आव, आवे और पाँचवां (सूत्र-संख्या ३-१५२ के विवानानुसार) आवि है। इनमें से यदि आव, आवे और आवि' प्रत्ययों का सद्भाव धातुओं में हो तो ऐसी अवस्था में धातुओं में आदि में रहे हुए 'अकार' को 'आकार' की प्राप्ति नहीं होगी। ऐसे उदाहरण इस प्रकार हैं:- कारितम् कराविअं-कराया हुआ; कार्यते करावीअइ अथवा कराविज्जइ-उससे कराया जाता है; इन उदाहरणों में तो णिजन्त-बोधक प्रत्यय 'अत, अथवा एत्' की प्राप्ति हुई और न णिजन्त बोधक-प्रत्ययों का लोप ही हुआ है; अतएव 'कर' धातु में स्थित आदि 'अकार' को 'आकार' की प्राप्ति भी नहीं हुई है; इसीलिये कहा गया है कि णिजन्त-बोधक प्रत्यय 'अत् अथवा एत्' का सद्भाव होने पर ही या णिजन्त बोधक प्रत्ययों का लोप होने पर ही धातुओं में रहे हुए आदि 'अकार' की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं।
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182 : प्राकृत व्याकरण
प्रश्न:- धातु में रहे हुए आदि 'अकार' को ही 'आकार' की प्राप्ति होती है; ऐसा भी क्यों कहा गया है?
उत्तरः- धातु में रहा हुआ आदि 'अकार' यदि किसी भी प्रकार से अस्पष्ट हो अथवा व्यवधान ग्रस्त हो अथवा शब्द मध्य में स्थित हो तो उस 'अकार' को भी 'आकार' की प्राप्ति नहीं होगी; तात्पर्य यह है कि स्पष्ट रूप से और व्यवधान रहित रूप से अवस्थित 'अकार' को ही 'आकार' की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं जैसे:- संग्रामयति-संगामेइ-वह लड़ाई कराता है। इस उदाहरण मे 'संग्राम' धातु में आदि 'अकार' की प्राप्ति नहीं हुई है। तदनुसार व्यवधान रहित तथा स्पष्ट रूप से रहे हुए आदि 'अकार' को ही 'आकार' की प्राप्ति होती है; यह तात्पर्य ही सूत्र में रहे, हुए 'आदि' शब्द से प्रतिध्वनित होता है।
यदि कोई ' अकार' धातु के अन्त में आ जाय, तो उस 'अकार' को भी 'आकार' की प्राप्ति नहीं होवे इसलिये भी 'आदि' शब्द का उल्लेख किया गया है। जैसे:- कारितम् = कारिअं कराया हुआ; इस उदाहरण में अन्य में ' अकार' आया हुआ है; परन्तु इसको 'आकार' की प्राप्ति नहीं हो सकती है; इन सभी उपर्युक्त कारणों से सूत्र में 'आदि' शब्द के उल्लेख करने की आवश्यकता पड़ी है। जो कि मनन करने योग्य है।
प्रश्नः - 'अकार' को ही 'आकार' की प्राप्ति होती है; ऐसा भी क्यों कहा गया है?
उत्तरः- यदि धातु के आदि में 'अकार' स्वर नहीं होकर कोई दूसरा ही स्वर हो तो उस स्वर को 'आकार' की प्राप्ति नहीं होगी। 'आकार' की प्राप्ति का सौभाग्य केवल 'अकार' के लिये ही है; अन्य किसी भी स्वर के लिये नहीं है; ऐसा प्रदर्शित करने के लिये ही 'अकार' स्वर का उल्लेख मूल सूत्र में करना ग्रन्थकार ने आवश्यक समझा है। जैसे:दोषयति = दूसेइ = वह दोष दिलाता है; इस उदाहरण में 'दूस' धातु में आदि में 'अकार' नहीं होकर 'उकार' का सद्भाव है; तदनुसार णिजन्त- बोधक रूप का सद्भाव होने पर भी एवं णिजन्त-बोधक-प्रत्यय 'एत्' का सद्भाव होने पर भी इस धातु में आदि-रूप में स्थित 'उकार' को 'आकार' की प्राप्ति नहीं हुई है; इस पर से यही निष्कर्ष निकलता है कि धातु में यदि 'अकार' ही आदि रूप से तथा स्पष्ट से और अव्यवधान रूप से स्थित हो तो उसी को 'आकार' की प्राप्ति होती है; अन्य किसी भी स्वर को 'आकार' की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
प्राकृत भाषा के कोई-कोई व्याकरणाचार्य ऐसा भी कहते हैं कि यदि धातु में णिजन्त- बोधक प्रत्यय ' आवे और आवि' का सद्भाव हो तथा उस अवस्था में धातु के आदि में 'अकार' स्वर रहा हुआ हो तो उस 'अकार' स्वर को 'आकार' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- कारयति - कारावेइ = वह कराता है। हासितः जनः श्यामलया -हासाविओ जणो सामलीए - श्यामा (स्त्री) से (वह) पुरुष हँसाया गया है। इन उदाहरणों में मूल प्राकृत धातु 'कर और हस' में 'णिजन्त बोधक प्रत्यय-आवे और आवि' का सद्भाव होने पर इन धातु में स्थित आदि 'अकार' स्वर को 'आकार' में परिणत कर दिया गया है। इस प्रकार 'आवे और ‘आवि' णिजन्त बोधक प्रत्ययों के सद्भाव में धातुस्थ आदि 'अकार' को 'आकार' में परिणत कर देने का वैकल्पिक रूप अथवा आर्ष रूप अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।
पातयति संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप पाडइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या - ४ - २१९ से मूल संस्कृत-धातु 'पत्' में स्थित अन्त्य व्यंजन 'त्' के स्थान पर 'ड्' की प्राप्ति; ३ - १५३ से प्राप्तांग 'पड्' में स्थित आदि 'अकार' को आगे णिजन्त - बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आकार' की प्राप्ति; ३ - १४९ से प्राप्तांग 'पाड्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ड्' में णिजन्तबोधक प्रत्यय ' अत्-अ' की प्राप्ति और ३- १३९ से णिजन्त-भाव वाले प्राप्तांग 'पाड' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप पाडइ सिद्ध हो जाता है।
मारयति संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप मारइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या- ४ - २३४ से मूल संस्कृत-धातु 'मृ' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'अर' की प्राप्ति; ३ - १५३ से प्राप्तांग 'मर' में स्थित आदि 'अकार' के स्थान पर आगे णिजन्त बोधक प्रत्यय 'अत्=अ' का सद्भाव होने से 'आकार' की प्राप्ति; १ - १० से प्राप्तांग 'मार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे णिजन्त बोधक प्रत्यय ' अत्=अ' की प्राप्ति होने से लोप; ३ - १४९ से प्राप्तांग हलन्त 'मार' में णिजन्त बोधक प्रत्यय ' अत्-अ' की प्राप्ति और ३- १३९ से णिजन्त-भाव वाले प्राप्तांग ‘मार' में वर्तमानकाल
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 183. के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर णिजन्त अर्थक वर्तमानकालीन प्राकृत क्रियापद का रूप मारइ सिद्ध हो जाता है। 'कारेइ प्रेरणार्थक-रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४९ में की गई है।
क्षामयति संस्कृत का प्रेरणार्थक-रूप है। इसका प्राकृत रूप खामेइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत धातु 'क्षम्' में स्थित आदि व्यंजन 'क्ष' के स्थान पर प्राकृत में 'ख' व्यंजन की आदेश प्राप्ति; ३-१५३ से प्राप्तांग 'खम्' में स्थित आदि स्वर 'अ' के आगे णिजन्त-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्राप्तांग 'खाम्' में णिजन्त-बोधक प्रत्यय ‘एत्=ए' की प्राप्ति और ३-१३९ से णिजन्त रूप से प्राप्तांग 'खामे में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर णिजन्त अर्थक वर्तमानकालीन प्राकृत-क्रियापद का रूप खामेइ सिद्ध हो जाता है।
कारिअं खामिअं और कारिअइ रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१५२ में की गई है।
क्षाम्यते संस्कृत का णिजन्त-का रूप है। इसका प्राकृत रूप खामीअइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत-धातु 'क्षम् स्थित आदि व्यंजन 'क्ष' के स्थान पर प्राकृत में 'ख' व्यंजन को आदेश प्राप्ति; ३-१५३ से प्राप्तांग 'खम्' में स्थित आदि स्वर 'अ' के आगे सूत्र-संख्या ३-१४९ से प्राप्त णिजन्त-बोधक प्रत्यय की सूत्र-संख्या ३-१५२ से लोप-अवस्था प्राप्त हो जाने से 'आ' की प्राप्ति; ३-१६० से णिजन्त अर्थ सहित प्राप्तांग 'खाम्' में कर्मणि-भावे प्रयोग द्योतक प्रत्यय 'ईअ' की प्राप्ति; १-५ से प्राप्तांग खाम्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'म्' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्तय 'ईअ' की संधि और ३-१३९ से णिजन्त-अर्थ सहित कमणि-भावे प्रयोग रूप से प्राप्तांग 'खामीअ में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में सस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-रूप खामीअइ सिद्ध हो जाता है।
कारिज्जइ' क्रियापद की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१५२ में की गई है।
क्षाम्यते संस्कृत का रूप है। इसका प्राकृत रूप खामिज्जइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत धातु 'क्षम्' में स्थित आदि व्यंजन 'क्ष' के स्थान पर प्राकृत में 'ख' व्यंजन की आदेश प्राप्ति; ३-१५३ से प्राप्तांग 'खम् में स्थित
आदि स्वर 'अ' के आगे सूत्र-संख्या ३-१४९ से णिजन्त बोधक प्रत्यय की सूत्र-संख्या ३-१५२ के निर्देश से लोपावस्था प्राप्त हो जाने से 'आ' की प्राप्ति; ३-१६० से णिजन्त-अर्थ-सहित प्राप्तांग 'खाम्' में कर्मणि-भावे-प्रयोग-द्योतक प्रत्यय 'इज्ज' की प्राप्ति; १-५ से प्राप्तांग 'खाम्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्यय 'इज्ज' की संधि और ३-१३९ से णिजन्त अर्थ-सहित कर्मणि-भावे-प्रयोग रूप से प्राप्तांग 'खामिज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-रूप खामिज्जइ सिद्ध हो जाता है।
कराविअंकरावीअइ और कराविज्जइ तीनों रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१५२ में की गई है।
संग्रामयति संस्कृत का णिजन्त रूप है। इसका प्राकृत-रूप संगामेइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२-७९ से मूल संस्कृत-धातु संग्राम में स्थित 'र' व्यञ्जन का लोप; ३-१५३ की वृत्ति से प्राप्तांग संग्राम्' में आदि रूप में स्थित अनुस्वार सहित 'अ' के स्थान पर आगे णिजन्त बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने पर भी 'आ' की प्राप्ति का अभाव; ३-१४९ से प्राप्तांग 'संगाम्' में णिजन्त बोधक प्रत्यय 'एत्-ए' की प्राप्ति; और ३-१३९ से णिजन्त अर्थक रूप से प्राप्तांग 'संगामे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एक-वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप 'संगामेई सिद्ध हो जाता है।
'कारिअं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१५२ में की गई है।
दोषयति संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत-रूप दूसेइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से मूल संस्कृत-धातु 'दूष' में स्थिति मूर्धन्य 'ष' के स्थान पर दन्त्य स्' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्राप्तांग 'दूस' में णिजन्त अर्थक
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184 : प्राकृत व्याकरण प्रत्यय 'एत्-ए' की प्राप्ति और ३-१३९ से णिजन्त अर्थक रूप से प्राप्तांग 'दूसे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-क्रियापद का रूप दूसेइ सिद्ध हो जाता है।
कारयति संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत-रूप कारावेइ (क्रिया गया) है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३४ से मूल संस्कृत धातु कृ' में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-१५३ की वृत्ति से प्राप्तांग 'कर' में स्थित आदि 'अ' के आगे णिजन्त बोधक प्रत्यय 'आवे' का सद्भाव होने के कारण से 'आ' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्राप्तांग 'कार' में णिजन्त-बोधक प्रत्यय 'आवे' की प्राप्ति; १-५ से प्राप्तांग 'कार' में स्थित अन्त्य 'अ' के साथ में आगे आये हुए प्रत्यय 'आवे' की संधि होकर दीर्घ आकार की प्राप्ति के साथ णिजन्त-अर्थक-अंग 'करावे' की प्राप्ति और ३-१३९ से णिजन्त-अर्थक-रूप से प्राप्तांग 'करावे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत प्रेरणार्थक वर्तमानकालीन क्रियापद का रूप कारावेइ सिद्ध हो जाता है। ___ हासितः संस्कृत का भूतकृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप हासाविओ (किया गया) है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१५३ की वृत्ति से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित आदि 'अकार' के आगे प्रेरणार्थक प्रत्यय 'आवि' का सद्भाव होने के कारण से'आकार' की प्राप्ति; ३-१५२ से प्राप्तांग 'हास' में आगे भूतकृदन्तीय प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से प्रेरणार्थक-भाव निर्माण में सूत्र-संख्या ३-१४९ के अनुसार प्राप्त प्रत्यय 'अत् एत्' आव और आवे' के स्थान पर 'आवि' प्रत्यय की प्राप्ति; ४-४४८ से णिजन्त अर्थक रूप से प्राप्तांग ‘हासावि' कृदन्त अर्थक प्रत्यय 'त' की प्राप्ति; १-१७७ से कृदन्त-अर्थक प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; ३-२ से णिजन्त-अर्थ सहित भूत कृदन्तीय विशेषणात्मक रूप से प्राप्तांग अकारान्त पुल्लिग 'हासीविअ में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय सि' के स्थान पर 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद हासाविओ सिद्ध हो जाता है।
'जणो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६२ में की गई है।
श्यामलया संस्कृत आकारान्त स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप सामलीए होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' व्यञ्जन का लोप; १-२६० से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए तालव्य 'शा' के स्थान पर दन्त्य 'सा' की प्राप्ति; ३-३२ से प्राप्तांग 'सामला' में स्थित अन्त्य स्त्रीलिंगवाचक प्रत्यय 'आ' को 'ई' की प्राप्ति; और ३-२९ से प्राप्तांग दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग 'सामली' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा=या' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग की तृतीया विभक्ति के एकवचन के रूप से प्राप्त सामलीए रूप की सिद्धि हो जाती है।।३-१५३।।
मौ वा।। ३-१४५॥ अत आ इति वर्तते। आदन्ताद्वातो ौ परे अत आत्त्वं वा भवति।। हसाम हसमि। जाणामि जाणमि। लिहामि लिहमि।। अत् इत्येव। होमि।।
अर्थः- जो प्राकृत धातु अकारान्त हैं; उनमें स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे 'म्' व्यञ्जन से प्रारम्भ होने वाले काल-बोधक-प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर 'आ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। इस प्रकार इस सूत्र का भी विधान धातुस्थ अन्त्य 'अ' को 'आ' रूप में परिणत करने के लिये ही किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है:- हसामि-हसामि अथवा हसमि-मैं हंसता हूं; जानामि-जाणामि अथवा जाणमि=मैं जानता हूं; लिखामि लिहामि अथवा लिहमि=मैं लिखता हूं। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि अकारान्त धातुओं में स्थित अन्त्य 'अ' के परे 'म्' से प्रारंभ होने वाले प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'आ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुई है। यों-अन्यत्र भी जाना चाहिये।
प्रश्नः- 'अकारान्त-धातुओं के लिये ही ऐसा विधान क्यों किया गया है।
उत्तरः- जो धातु अकारान्त नहीं होकर अन्य स्वरान्त हैं; उनमें स्थित उस अन्त्य स्वर को 'आ' की प्राप्ति नहीं होती है; इसलिये केवल 'अकारान्त' धातुओं के लिये ही ऐसा विधान जानना चाहिये! जैसे:- भवामि-होमि=मैं होता हूँ। इस उदाहरण में प्राकृत धातु 'हो' के अन्त में 'ओ' स्वर है; तदनुसार आगे म्' से प्रारम्भ होने वाले काल-बोधक-प्रत्यय का
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 185 सद्भाव होने पर भी उस अन्त्य स्वर 'ओ' को 'आ' की प्राप्ति नहीं हुई है; यों यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ है कि केवल ' अन्त्य अ' को ही 'आ' की प्राप्ति होती है; अन्य अन्त्य स्वर को नहीं ।
'हसामि' क्रियापद की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ -१४१ में की गई है।
हसमि संस्कृत वर्तमानकाल का रूप है। इसका प्राकृत रूप हसमि होता है। इसमें सूत्र- संख्या ३-१४१ से मूल प्राकृत धातु 'हस्' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'मि' के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप हसमि सिद्ध हो जाता है।
जानामि संस्कृत का वर्तमानकाल का रूप है। इसके प्राकृत रूप जाणामि और जाणमि होते हैं। इनमें सूत्र-- - संख्या ४-७ से संस्कृत मूल-धातु 'ज्ञा' के स्थानीय रूप 'जान्' के स्थान पर प्राकृत में 'जाण' रूप की आदेश प्राप्ति; ३ - १५४ से प्राप्त - धातु 'जाण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे 'म्' से प्रारम्भ होने वाले काल-बोधक-प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति; और ३ - १४१ से प्राप्तांग 'जाणा और जाण' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'मि' के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों क्रियापद-रूप- 'जाणामि और जाणमि' सिद्ध हो जाता हैं।
लिखामि संस्कृत वर्तमानकाल का रूप है। इसके प्राकृत रूप लिहामि और लिहमि होते हैं। सूत्र - संख्या १ - १८७ से मूल संस्कृत - धातु 'लिख्' में स्थित अन्त्य व्यंजन 'ख' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' की प्राप्ति; ४ - २३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'लिह' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३ - १५४ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के आगे 'म्' से प्रारम्भ होने वाले काल-बोधक-प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति और ३- १४१ से प्राप्तांग 'लिहा और लिह' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरूष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'मि' के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों क्रियापद-रूप 'लिहामि और लिहमि' सिद्ध हो जाते हैं।
भवामि संस्कृत वर्तमानकाल का रूप है। इसका प्राकृत रूप होमि होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश प्राप्ति और ३- १४१ से प्राप्त प्राकृत धातु 'हो' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'मि' के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-क्रियापद का रूप होमि सिद्ध हो जाता है । ३ - १५४ ॥
इच्च मो - मु- मेवा ।। ३- १५५।।
अकारान्ताद्धातोः परेषु मो- मु-मेषु अत इत्वं चकाराद् आत्वं च वा भवतः । भणिमो भणामो । भणिमु भणामु । भणिम भणाम। पक्षे। भणमो । भणमु। भणम।। वर्तमाना- मञ्चमी - शतृषु वा (३-१५८) इत्येत्वे तु भणेमो । भणेमु । भणे। अत इत्येव । ठामो । होमो ||
अर्थः- प्राकृत भाषा की अकारान्त धातुओं में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन के प्रत्यय 'मो-मु-म' परे रहने पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति हुआ करती है तथा मूल-सूत्र में चकार होने से उपर्युक्त सूत्र-संख्या ३-१५४ से अनुसार उस अन्त्य 'अ' के स्थान पर इन्हीं 'मो-मु-म' प्रत्ययों के परे रहने पर वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति भी हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- भणाम :- भणिमो भणामो; भणिमु भणामु; भणिम भणाम; वैकल्पिक पक्ष होने से जहाँ पर अन्त्य 'अ' को 'इ' अथवा 'आ' की प्राप्ति नहीं होगी वहाँ पर 'भणमी, भण और भणम' रूप भी बनेंगे। इसी प्रकार से सूत्र - संख्या ३ - १५८ में ऐसा विधान निश्चित किया गया है कि वर्तमानकाल के आज्ञार्थक विधिअर्थक लकारों के और वर्तमान- कृदन्त के' प्रत्ययों के परे रहने पर अकारान्त- - धातुओं के अन्त्य ' अकार' को वैकल्पिक रूप से 'एकार' की प्राप्ति भी हुआ करती है; तदनुसार वर्तमानकाल के प्रत्ययों के परे रहने पर अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ' अकार' को वैकल्पिक रूप से 'एकार' की प्राप्ति होने का विधान होने से 'भण' धातु के उपर्युक्त रूपों के अतिरिक्त ये तीन रूप और बनते हैं:- भणेमो, भणेमु और भणेम; इन बारह ही रूपों का एक ही अर्थ होता है
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186 : प्राकृत व्याकरण
और वह यह है कि- हम (सब) स्पष्ट रूप से बोलते हैं- स्पष्ट रूप से कहते हैं। इस प्रकार से अन्य अकारान्त-धातुओं के भी अन्त्यस्थ 'अकार' को वैकल्पिक रूप से 'आ अथवा इ अथवा ए' की प्राप्ति होने के कारण से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन के प्रत्यय 'मो-मु-म' परे रहने पर बारह-बारह रूप बनते है।
प्रश्नः- अकारान्त-धातुओं के लिये ही ऐसा विधान क्यों किया गया है? अन्य स्वरान्त धातुओं के अन्त्यस्थ स्वर के सम्बन्ध में ऐसा विधान क्यों नहीं बतलाया गया हैं?
उत्तरः-अन्य स्वरान्त धातुओं के अन्त्यस्थ स्वर को आगे वर्तमानकाल के प्रययों के परे रहने पर किसी भी प्रकार की स्वरात्मक-आदेश प्राप्ति नहीं पाई जाती है; अतएव प्रचलित परम्परा के प्रतिकूल विधान कैसे बनाया जा सकता है? जैसे कि:- तिष्ठामः-ठामो-हम ठहरते हैं; भवामः होमो-हम होते हैं; इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि 'ठा' और हो' धातु क्रम से आकारान्त और औकारान्त हैं; अतएव इन अथवा ऐसी ही अन्य धातुओं के अन्त्यस्थ स्वर 'आ अथवा ओ अथवा अन्य स्वर' को आगे पुरुष बोधक प्रत्ययों के परे रहने पर भी 'अकार' के समान 'आ अथवा इ अथवा ए अथवा अन्य स्वर' आत्मक वैकल्पिक आदेश प्राप्ति नहीं होती है। इसलिये केवल धातुस्थ अन्त्य 'टकार' के संबंध में ही ग्रन्थकार ने उक्त विधि-विधान बनाना उचित समझा है और अन्य अन्त्यस्थ स्वरों के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार के विधि-विधान की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया है।
भणामः संस्कृत का अकर्मक रूप है। इसके प्राकृत रूप बारह होते हैं :- भणमो, भणमु, भणम, भणामो, भणामु, भणाम, भणिमो, भणिमु, भणिम, भणेमो, भणेमु और भणेम। इनमें से प्रथम तीन रूपों में सूत्र-संख्या ३-१४४ से मूल प्राकृत धातु भण' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'मस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'मो-मु-म' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से 'भणमो, भणमु और भणम सिद्ध हो जाते है।
भणामो, भणामु और भणाम में सूत्र-संख्या ३-१५४ से मूल प्राकृत धातु 'भण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अकार' के स्थान पर 'आकार' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति और ३-१४४ से प्रथम तीन रूपों के समान हो 'मो-मु-म' प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होकर चौथा, पाँचवा और छट्टा रूप भणामो, भणामु और भणाम सिद्ध हो जाते हैं। __ भणिमो, भणिमु और भणिम में सूत्र-संख्या ३-१५५ से मूल प्राकृत धातु 'भण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अकार' के स्थान पर 'इकार' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति और ३-१४४ से प्रथम तीन रूपों के समान ही 'मो-मु-म' प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होकर सातवां, आठवां और नववां रूप भणिमो, भणिमु और भणिम सिद्ध हो जाते हैं।
भणमो. भणेम और भणेम में सत्र-संख्या ३-१५८ से मल प्राकृत धात् 'भण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति और ३-१४४ से प्रथम तीन रूपों के समान ही 'मो-म-म' प्र पत्ययों की कम से प्राप्ति होकर दशवां, ग्यारहवां और बारहवां रूप भणेमो, भणेमु और भणेम सिद्ध हो जाता है। __ तिष्ठामः संस्कृत का क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप ठामो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से मूल संस्कृत धातु 'स्था' के आदेश प्राप्ति रूप 'तिष्ठ्' के स्थान पर प्राकृत में 'ठा' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१४४ से आदेश प्राप्त प्राकृत धातु 'ठा' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'मस्' के स्थान पर प्राकृत में 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-क्रियापद का रूप 'ठामो' सिद्ध हो जाता है।
भवामः संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप होमो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल-संस्कृत-धातु 'भू भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१४४ से आदेश-प्राप्त प्राकृत धातु 'हो' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'मस्' के स्थान पर प्राकृत में मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप होमो सिद्ध हो जाता है।।३-१५५।।
क्ते ॥३-१५६॥ __ ते परतोत इत्त्वं भवति। हसिओ पढिओ नविआ हासिओ पाढिओ। गयं नयमित्यादि तु सिद्धावस्थापेक्षणात्॥
अत इत्येव। झायं। लुओ हू।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 187 अर्थः- अकारान्त धातुओं में यदि भूत कृदन्त का प्रत्यय 'त-अ' लगा हुआ हो तो उन अकारान्त धातुओं के अन्त्य 'अ' के स्थान पर निश्चित रूप से 'इ' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- हसितम्-हसिअं-हँसा हुआ; हँसे हुये को; पठितम्=पढिअं-पढा हुआ अथव पढे हुए को निमतम् नविनमा हुआ अथवा नमे हुए को हासितम्-हासिअं-हँसाया हुआ; पाठितम्=पाढिअं-पढ़ाया हुआ; इत्यादि। इन उदाहरणों से ज्ञात होता है कि धातुओं में भूत-कृदन्त-वाचक प्रत्यय 'त-अ' का सद्भाव होने के कारण से मूल धातुओं के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति हो गई है। प्राकृत-भाषा में कुछ धातुओं के भूत-कृदन्तीय-रूप ऐसे भी पाये जाते हैं जो कि उपर्युक्त-नियम से स्वतन्त्र होते हैं। जैसे:- गतम् गयं गया हुआ; नतम्-नयम्=नमा हुआ; अथवा जिसको नमस्कार किया गया हो-उसको; इन उदाहरणों में भूत-कृदन्तीय-अर्थ का सद्भाव होने पर भी 'गम और नम' में स्थित अन्त्य 'अ' को 'इ' की प्राप्ति नहीं हुई हैं; इसका कारण यही है कि इनकी प्रक्रिया-संस्कृत रूपों के आधार से बनी हुई है और तत्पश्चात् प्राकृत वर्ण-विकार-गत-नियमों से इन्हें प्राकृत-रूपों की प्राप्ति हो गई है। सारांश यह है कि संस्कृत-सिद्ध अवस्था की अपेक्षा से इन प्राकृत-रूपों का निर्माण हुआ है और इसीलिये ऐसे रूप इस सूत्र-संख्या ३-१५६ से स्वतन्त्र हैं; इस सूत्र का अधिकार ऐसे रूपों पर नहीं समझना चाहिये।
प्रश्नः-अकारान्त धातुओं में स्थित अन्त्य 'अ' के साथ पर 'इ' की प्राप्ति हो जाती है। ऐसा ही क्यों कहा गया हैं? और अन्य स्वरान्त धातुओं स्थित अन्त्य स्वर के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति क्यों नहीं होती है?
उत्तरः- चूँकि अकारान्त धातुस्थ अन्त्य 'अ' के स्थान पर ही भूत-कृदन्तीय प्रत्यय के परे रहने पर 'इ' की प्राप्ति होती है तथा दूसरी धातुओं में स्थित अन्य किसी भी अन्त्य स्वर के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति नहीं होती है; इसीलिये ऐसा निश्चयात्मक विधान प्रदर्शित किया गया है। इसके समर्थन में कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:- ध्यातम्=झायं ध्यान किया हुआ; लूनम् लुअं-कतरा हुआ अथवा चोरा हुआ, और भूतम् हूअंगुजरा हुआ; इत्यादि। इन उदाहरणों में 'झा, लु और हूं में क्रम से स्थित स्वर 'आ, उ, और ऊ के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति नहीं हुई है। अतएव जैसी परम्परा भाषा में प्रचलित होती है उसी के अनुसार नियमों का निर्माण किया जाता है; तदनुसार केवल अकारान्त-धातुओं में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर ही आगे भूत-कृदन्तीय-प्रत्यय का सद्भाव होने पर 'इ' की प्राप्ति होती है अन्य स्वर के स्थान पर नहीं; ऐसा सिद्धान्त निश्चित हुआ। ___ हसितम् संस्कृत कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप हसिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से हलन्त-व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति
और १-२३ से प्राप्त-प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्ववर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर हसिअंरूप सिद्ध हो जाता है। ___ पठितम् संस्कृत भूत-कृदन्तीय रूप का प्राकृत रूप पढिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से 'ठ्' व्यंजन के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति: १-१७७ से हलन्त व्यंजन 'त' का लोपः ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर पढिअंरूप सिद्ध हो जाता है।
नमितम् संस्कृत का भूत-कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत-रूप नविअंहोता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२२६ से मूल संस्कृत-धातु 'नम्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'म्' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्तांग 'नव्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से भूत-कृदन्त अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से हलन्त 'त्' का लोप; ३-५ से प्राप्तांग 'नविअ में द्वितीय विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर नविअं रूप सिद्ध हो जाता है। 'हासिप्रेरणार्थक रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१५२ में की गई है।
पाठितम् संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप पाढिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से मूल संस्कृत-धातु 'पठ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन '' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति; ३-१५३ से प्राप्त 'पद' में स्थित आदि स्वर
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188 : प्राकृत व्याकरण 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक प्रत्यय का सद्भाव होकर भूत कृदन्तीय-अर्थक प्रत्यय का योग होने से उस प्रेरणार्थक प्रत्यय का लोप होने के कारण से 'आ' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्तांग हलन्त 'पाढ' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति;
-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे भत-कदन्तीय प्रत्यय का योग होने के कारण से 'इ' की प्राप्तिः ४-४४८ से संस्कृत में प्राप्त भूत-कृदन्त-अर्थक प्रत्यय 'त' के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से भूत- कृदन्तीय प्रत्यय 'त' में हलन्त व्यंजन 'त्' को लोप; ३-५ प्राप्तांग 'पाढिअ' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'ग' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रेरणार्थक पाढिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
गयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९७ में की गई है। __ नतम् संस्कृत का भूत-कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप नय होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' व्यंजन के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ से प्राप्तांग नय में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'य' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर नयं रूप सिद्ध हो जाता है।
ध्यातम् संस्कृत भूत-कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप झायं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६ से मूल संस्कृत-धातु 'ध्यै के स्थान पर प्राकत में झारूप की आदेश प्राप्तिः ४-४४८ से भत-कदन्तीय-अर्थ में संस्कत के समान ही प्राकत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त भूत-कृदन्तीय प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' व्यंजन के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ से प्राप्तांग 'झाय' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत-प्राकृत-रूप झायं सिद्ध हो जाता है।
लूनम् संस्कृत भूत कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप लुअंहोता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२५८ से सम्पूर्ण संस्कृत शब्द 'लून' के स्थान पर प्राकृत में 'लुअ' रूप की आदेश प्राप्ति; ३-५ से आदेश रूप से प्राप्तांग 'लुअ' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूत-कृदन्तीय द्वितीया-विभक्ति के एकवचन का प्राकृत-रूप लुअं सिद्ध हो जाता है।
भूतम् संस्कृत का भूत-कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत-रूप 'भूअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६४ से भूत कृदन्तीय प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण के मूल-संस्कृत धातु 'भू' के स्थान पर प्राकृत में 'हू रूप की आदेश प्राप्ति; ४-४४८ से भूत कृदन्त अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-५ से प्राप्तांग 'हुअ' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूतकृदन्तीय द्वितीय विभक्ति के एकवचन का प्राकृत-रूप भूअं सिद्ध हो जाता है। ॥३-१५६।।
एच्च क्त्वा-तुम्-तव्य-भविष्यत्सु ।। ३-१५७॥ क्त्वातुम्तव्येषु भविष्यत्कालविहिते च प्रत्यये परतोत एकारश्रकारादिकारश्च भवति।। क्त्वा। हसेऊण। हसिऊण।। तुम् हसेउ।। हसिउं।। तव्य। हसेअव्वं। हसिअव्वं।। भविष्यत्। हसेहिइ। हसिहिइ।। अत इत्येवा काऊण।।
अर्थः- प्राकृत भाषा की अकारान्त धातुओं में सम्बन्धक भूतकृदन्त द्योतक संस्कृत प्रत्यय ‘क्त्वा-त्वा' के प्राकृत में स्थानीय प्रत्यय 'ऊण, उआण' आदि होने पर अथवा हेत्वर्थक-कृदन्त द्योतक संस्कृत प्रत्यय 'तुम्' के स्थान पर प्राकृत में स्थानीय प्रत्यय 'उ' आदि होने पर अथवा विधि-कृदन्त द्योतक संस्कृत प्रत्यय 'तव्य' के प्राकृत में स्थानीय प्रत्यय 'अव्व' होने पर अथवा भविष्यत-काल-बोधक पुरुष-वाचक प्रत्यय होने पर उन अकारान्त धातुओं के अन्त में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है एवं मूल सूत्र में चकार' का सद्भाव होने के कारण से कभी-कभी उन अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति भी हो जाया करती है। सम्बन्धक भूतकृतन्त संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 189 'क्त्वा' से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार हैं:- हसित्वा-हसेऊण अथवा हसिऊण-हँस करके; हेत्वर्थक-कृदन्त-द्योतक संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'तव्य' से सबधित उदाहरण इस प्रकार है:- हसितव्यम् हसेअव्वं अथवा हसिअव्वं हंसना चाहिये अथवा हँसी के योग्य है; भविष्यत् काल बोध प्रत्यय प्रत्ययों से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार है:- हसिष्यति-हसेहिइ अथवा हसिहिइ-वह हँसेगा; इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि उपर्युक्त कृदन्तों में अथवा भविष्यत्काल के प्रयोग में अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ स्वर 'अ' के स्थान पर या तो 'ए' की प्राप्ति होगी अथवा 'इ' की प्राप्ति होगी।
प्रश्नः- अकारान्त धातुओं के सम्बन्ध में ही ऐसा विधान क्यों बनाया गया है? अन्य स्वरान्त धातुओं के सम्बन्ध में ऐसे विधान की प्राप्ति क्यों नहीं होती है?
उत्तरः-चूँकि अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर ही 'ए' अथवा 'इ' की आदेश प्राप्ति पाई जाती है और अन्य किसी भी अन्य स्वर के स्थान पर 'ए' अथवा 'इ' की आदेश प्राप्ति नहीं पाई जाती है; इसलिये केवल अन्त्य 'अ' के लिये ही ऐसा विधान निश्चित किया गया है। जैसे:-कृत्वा काऊण करके इस उदाहरण में सम्बन्धक-भूत कृदन्त द्योतक प्रत्यय 'ऊण' का सद्भाव होने पर भी धातु आकारान्त होने से इस धातु के अन्त्यस्थ स्वर 'आ' के स्थान किसी भी प्रकार के अन्य स्वर की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। इस प्रकार यह सिद्धान्त निश्चित हुआ कि केवल अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर ही क्त्वा', तुम-तव्य और भविष्य कालवाचक प्रत्ययों के परे रहने पर 'ए' अथवा 'इ' की आदेश प्राप्ति होती है; अन्य अन्त्यस्थ स्वरों के स्थान पर उपर्युक्त प्रत्ययों के परे रहने पर भी किसी भी अन्य स्वर की आदेश प्राप्ति नहीं होती है। ___ हसित्वा संस्कृत भूतकृदन्त का रूप है। इसके प्राकृत-रूप हसेऊण और हसिऊण होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५७ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर क्रम से 'ए' और 'इ' प्राप्ति; ३-१४६ से संबन्ध कृदन्त-अर्थक प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'क्त्वा-त्वा' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'तूण' प्रत्यय की प्राप्ति और १-१७७ से प्राकृत में प्राकृत प्रत्यय 'तूण' में स्थित 'त्' का लोप होकर शेष रूप से प्राप्त 'ऊण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत रूप हसेऊण और हसिऊण सिद्ध हो जाते हैं। __ हसितुम संस्कृत का हेत्वर्थ-कृदन्त का रूप है। इसके प्राकृत रूप हसेउं और हसिउं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५७ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर क्रम से 'ए' और 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से हेत्वर्थ कृदन्त के अर्थ में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'तुम्' के समान ही प्राकृत में भी 'तुम्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'तुम्' में स्थित व्यञ्जन का लोप और १-२३ से 'त्' व्यञ्जन के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए प्रत्यय रूप 'उम्' में स्थित अन्त्य हलन्त 'म्' के स्थान पर पूर्ण वर्ण 'उ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत रूप हसेउं और हसिउं सिद्ध हो जाते हैं।
हसितव्यम् संस्कृत का विधि-कृदन्त का रूप है। इसके प्राकृत रूप हसेअव्वं और हसिअव्वं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५७ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर क्रम से 'ए' और 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से विधि-कृदन्त के अर्थ में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'तव्य' के समान ही प्राकृत में भी 'तव्य' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'तव्य' में स्थित 'त्' व्यञ्जन का लोप; ३-२५ से प्राप्तांग 'हसेअव्वं और हसिअव्वं' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'व्व' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत रूप हसेअव्वं और हसिअव्वं सिद्ध हो जाते हैं। __हसिष्यति संस्कृत का अकर्मक रूप है। इसके प्राकृत रूप हसेहिइ और हसिहिइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५७ से मूल प्राकृत-धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत्काल बोधक प्रत्यय का कारण से क्रम से 'ए और इ' की प्राप्तिः ३-१६६ से क्रम से प्राप्तांग 'हसे और हसि' में भविष्यत-काल-अर्थक रूप के निर्माण के लिए 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति की और ३-१३९ से भविष्यत्काल-अर्थक रूप में निर्मित एवं प्राप्तांग 'हसेहि और हसिह' में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भविष्यतकाल का प्राकृत रूप हसेहिइ और हसिहिइ सिद्ध हो जाते है।
'काऊण' कृदन्त रूप की सिद्धि-सूत्र-संख्या १-२७ में की गई है।-३-१५७।।
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190 : प्राकृत व्याकरण
वर्तमाना-पञ्चमी-शतृषु वा।। ३-१५८।। __ वर्तमाना पंचमी शतृषु परत अकारस्य स्थाने एकारो वा भवति। वर्तमान। हसेइ हसइ। हसेम हसिम। हसेमु हसिमु॥ पञ्चमी। हसेउ हसउ। सुणेउ सुणउ।। शतृ। हसेन्तो हसन्तो।। क्वचिन्न भवति। जयइ॥ क्वचिदात्वमपि। सुणाउ।।
अर्थः- प्राकृत भाषा की अकारान्त धातुओं में वर्तमानकाल के पुरुष बोधक-प्रत्ययों का सद्भाव होने पर अथवा आज्ञार्थक या विधिअर्थक लकारों के प्रत्ययों का सद्भाव होने पर अथवा शतृ-बोधक याने वर्तमान-कृदन्त-द्योतक-प्रत्ययों का सद्भाव होने पर उन अकारान्त धातुओं में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति हुआ करती है। वर्तमानकाल से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार हैं:- हसति-हसेइ अथवा हसइ-वह हँसता है। हसामः हसेम अथवा हसिम और हसेमु अथवा हसिमु-हम हंसते हैं। इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि 'हस' धातु अकारान्त है और इसमें वर्तमानकाल द्योतक प्रत्यय 'इ' और 'म' की प्राप्ति होने पर इस 'हस' धातु के अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति हुई है। इसी प्रकार से आज्ञार्थक और विधिअर्थक लकारों के उदाहरण भी इस प्रकार है:- हसतु-हसेउ अथवा हसउ-वह हँसे; श्रृणोतु (शृणोतु)-सुणेउ अथवा सुणउ-वह सुने; इन आज्ञार्थक-बोधक उदाहरणों से भी यही प्रतीत होता है कि अकारान्त धातु 'हस और सुण' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे आज्ञार्थक-प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति हुई है। वर्तमान-कृदन्त के उदाहरण यों हैं:- हसत् अथवा हसन्-हसेन्तो हसन्तो-हँसता हुआ; इस वर्तमान कृदन्त द्योतक उदाहरण में भी यही प्रदर्शित किया गया है कि प्राकृत धातु 'हस' के अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमान-कृदन्त-द्योतक प्रत्यय 'न्त' का सद्भाव होने के कारण से वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति हुई है। इस प्रकार इस सूत्र में यह विधान निश्चित किया गया है कि वर्तमानकाल के आज्ञार्थ-विध्यर्थक लकार के और वर्तमानकाल कृदन्त के प्रत्यय परे रहने पर अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति होती है। ___ कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि अकारान्त धातु के अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर उपर्युक्त प्रत्ययों का सद्भाव होने पर भी 'ए' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- जयति जयइ वह जीतता है। यहाँ पर प्राकृत में 'जयेइ रूप नहीं बनेगा। कभी-कभी अकारान्त धातु के अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर उपर्युक्त प्रत्ययों का सद्भाव होने पर 'आ' की प्राप्ति भी देखी जाती है। जैसे:- श्रृणोतु-सुणाउ वह श्रवण करे। इस उदाहरण में अकारान्त प्राकृत धातु 'सुण' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे आज्ञार्थक-लकार के प्रत्यय का सद्भाव होकर 'आ' की प्राप्ति हो गई है। ___ हसति संस्कृत का अकर्मक रूप है। इसके प्राकृत रूप हसेइ और हसइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप से सूत्र-संख्या ३-१५८ से मूल प्राकृत अकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हसेइ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप हसइ की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९८ में की गई है। __हसामः संस्कृत का अकर्मक रूप है। इसके प्राकृत रूप हसेम, हसिम, हसेमु और हसिमु होते हैं। इनमें से प्रथम और तृतीय रूपों में सूत्र-संख्या ३-१५८ से मूल प्राकृत अकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति और ३-१४४ से क्रम से प्राप्तांग 'हसे और हसे' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचनार्थ में संस्कृत प्रत्यय 'मस्' के स्थान पर प्राकृत में म से 'म और मु' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर प्रथम और तृतीय रूप 'हसेम और हसेमु' सिद्ध हो जाते हैं।
हसिम तथा हसिमु में सूत्र-संख्या ३-१५५ से मूल-प्राकृत अकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति और ३-१४४ से क्रम से प्राप्तांग 'हसि और हसि' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 191 बहुवचनार्थ में संस्कृत प्रत्यय 'मस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'म और मु' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर द्वितीय और चतुर्थ रूप 'हसिम और हसिमु' सिद्ध हो जाते हैं। ___ हसतु संस्कृत का आज्ञार्थक रूप है। इसके प्राकृत रूप हसेउ और हसउ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५८ से मूल प्राकृत अकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति और ३-१७३ से क्रम से प्राप्तांग 'हसे और हस' में आज्ञार्थक लकारार्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'तु' के स्थान पर प्राकृत में 'दु-उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत रूप हसेउ और हसउ' सिद्ध हो जाते हैं।
श्रृणोतु संस्कृत का आज्ञार्थक रूप है। अथवा श्रृणुयात् संस्कृत का विधिलिंग का (अर्थात् आज्ञा, निमन्त्रण आमंत्रण सत्कार पूर्वक निवेदन-विचार और प्रार्थना अर्थक) रूप है। इसके प्राकृत रूप सुणेउ और सुणउ तथा सुणाउ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७९ से संस्कृत में प्राप्त धातु-अंग 'श्रनु' में स्थित श्रृ' के 'र' व्यंजन का लोप; १-२६० से लोप हुए 'र' व्यञ्जन के पश्चात् शेष रहे हुए श्' में स्थित तालव्य 'श्' के स्थान पर प्राकृत में दन्त्य 'स्' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ४-२३८ से प्राप्त ‘णु' में स्थित अन्त्य 'उ' के स्थान पर 'अ की प्राप्ति; ३-१५८ से प्राप्तांग 'सुण' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'ए' और 'अ' की प्राप्ति; और १-१७३ से क्रम से प्राप्तांग 'सुणे, सुण सुणा' में लोट लकार और विधिलिंग के अर्थ में है। प्राकृत में 'द-उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुणेउ, सुणउ और सुणाउ प्राकृत रूप सिद्ध हो जाते हैं। ____ हसत्-हसन् संस्कृत का कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप हसेन्तो और हसन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५८ से मूल प्राकृत अकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमान कृदन्त अर्थक प्रत्यय का सदभाव होने के कारण से वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति; ३-१८१ से क्रम से प्राकृत में प्राप्तांग 'हसे और हस' में वर्तमान कृदन्त के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'शतृ' के स्थान पर 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्राकृत में क्रम से प्राप्तांग 'हसेन्त और हसन्त' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत-पद हसेन्ता और हसन्तो सिद्ध हो जाते हैं। __ जयति संस्कृत का अकर्मक रूप है इसका प्राकृत रूप जयइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३९ से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी प्राप्त धातु 'जय' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति जयइ रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१५८||
ज्जा-ज्जे।। ३-१५९॥ ज्जा ज्ज इत्यादेशयोः परयोरकारस्य एकारो भवति।। हसेज्जा हसेज्ज।। अत इत्येव। होज्जा। होज्ज।।
अर्थः-सूत्र-संख्या ३-१७७ के निर्देश से धातुओं के अन्त में प्राप्त होने वाले वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, आज्ञार्थक के और विध्यर्थक के सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर आदेश रूप से प्राप्त होने वाले प्रत्यय 'ज्जा और ज्ज' के परे रहने पर अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर नित्यमेव 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे:हसन्ति-हसिष्यन्ति-हसन्तु-हसेयुः हसेज्जा अथवा हसेज्जवे हँसते हैं-वें हँसेगे-वे हँसे; इत्यादि। यहाँ पर 'हस' धातु अकारान्त है और इसमें वर्तमान आदि लकारों में प्राप्त प्राकृत प्रत्ययों के स्थान पर आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'ज्जा-ज्ज' की प्राप्ति होने से 'हस' के अन्त्यस्थ 'अकार' के स्थान पर 'एकार' की बिना किसी वैकल्पिक रूप के प्राप्ति हो गई है। यों आदेश-प्राप्त 'ज्जा-ज्ज' प्रत्ययों का सद्भाव होने पर अन्य अकारान्त धातुओं में भी अन्त्य 'अ' के स्थान पर नित्यमेव 'एकार' की प्राप्ति का विधान ध्यान में रखना चाहिये।
प्रश्नः- 'अकारान्त-धातुओं के लिये ही ऐसा विधान क्यों बनाया गया है? __ उत्तरः- जो प्राकृत धातु अकारान्त नहीं होकर अन्य स्वरान्त हैं, उनमें आदेश प्राप्त 'ज्जा-ज्ज' प्रत्ययों का सद्भाव होने पर भी उन अन्त्य स्वरों के स्थान पर अन्य किसी भी स्वर की आदेश प्राप्ति नहीं पाई जाती है; इसलिये केवल
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192 : प्राकृत व्याकरण अकारान्त धातुओं के लिये ही ऐसा विधान बनाने की आवश्यकता पड़ी है। जैसे :- भवन्ति-भविष्यन्ति-भवन्तु-भवेयुः= होज्जा अथवा होज्ज-वे होते हैं- वे होगे-वे होवें; इस उदाहरण में 'हो' धातु ओकारान्त है; इसीलिये आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'ज्जा-ज्ज' का सद्भाव होने पर अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति के समान इस 'हो' धातु के अन्त्यस्थ 'ओकार' के स्थान पर 'एकार' की प्राप्ति नहीं हुई है। यही अन्तर-भेद यह प्रदर्शित करता है कि केवल 'अकारान्त-धातुओं के अन्त्यस्थ 'अकार' के स्थान पर ही आगे आदेश-प्राप्त-प्रत्यय 'ज्जा-ज्ज' का सद्भाव होने पर 'एकार'
की प्राप्ति होती है; अन्य स्वरान्त धातुओं में स्थित अन्त्य स्वरों के स्थान पर 'एकार' की प्राप्ति का विधान नहीं है। ____ हसन्ति, हसिष्यन्ति, हसन्तु और हसेयु संस्कृत के क्रम से वर्तमानकाल के, भविष्यकाल के, लोट्लकार के और लिङ्लकार के प्रथमपुरुष के बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से हसेज्जा और हसेज्ज रूप होते है। इन दोनों प्राकृत-रूपों में सूत्र-संख्या ३-१५९ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१७७ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हसे' में वर्तमानकाल के भविष्यकाल के, लोट्लकार के और लिङ्लकार के अर्थ में संस्कृत प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'ज्जा
और ज्ज' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों क्रियापद के रूप हसेज्जा और हसेज्ज सिद्ध हो जाते हैं। ____ भवन्ति, भवियन्ति, भवन्तु और भवेयुः संस्कृत के क्रम से वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, लोट्लकार के और लिङ्लकार के प्रथमपुरुष के बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप है। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से होज्जा और होज्ज रूप होते हैं। इन दोनों प्राकृत रूपों में सूत्र-संख्या ४-६० से संस्कृत-धातु 'भू-भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१७७ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हो' में वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, लोट्लकार के और लिङ्लकार के अर्थ में संस्कृत प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में प्राप्त सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'ज्जा और ज्ज' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत-क्रियापद के रूप होज्जा और होज्ज सिद्ध हो जाते हैं। ३-१५९।।
ईअ-इज्जौ क्यस्य।।३-१६०॥ चिजि प्रभृतीनां भाव-कर्म-विधिं वक्ष्यामः। येषां तु न वक्ष्यते तेषां संस्कृतातिदेशात् प्राप्तस्य क्यस्य स्थाने ईअ इज्ज इत्येतावादेशौ भवतः।। हसीअइ। हसिज्जइ। हसीअन्तो। हसिज्जन्तो। हसीअमाणो। हसिज्जमाणो। पढीअइ। पढिज्जइ। होईअइ। होइज्जइ।। बहुलाधिकारात् क्वचित् क्योपि विकल्पेन भवति। मए नवेज्ज। मए नविज्जेज्ज। तेण लहेज्ज। तेण लहिज्जेज्ज। तेण अच्छेज। तेण अच्छिज्जेज्ज। तेण अच्छीअइ।। ___ अर्थः- संस्कृत के समान ही प्राकृत भाषा में भी क्रिया तीन प्रकार की होती है; जो कि इस प्रकार है:- (१) कर्तृवाचक, (२) कर्मवाचक और (३) भावचावक। इसी पाद में पहले कर्तृवाच्य प्रयोग के सम्बन्ध में बतलाया जा चुका है। अब कर्मणि प्रयोग और भावे प्रयोग का स्वरूप बतलाया जाता है। कर्मणि प्रयोग और भावे प्रयोग की रचना पद्धति एक जैसी ही अर्थात् समान ही होती है; इन दोनों में इतना सा नाम मात्र का ही अन्तर है कि कर्मणि प्रयोग मुख्यतः सकर्मक-धातुओं से ही बनाया जाता है जबकि भावे-प्रयोग अकर्मक-धातुओं से ही बनता है; प्रत्यय आदि की दृष्टि से दोनों की रचनाएँ परस्पर में समान ही होती है। भावे-प्रयोग में कर्म का अभाव होने से सदा प्रथमपुरुष और एकवचन ही प्रयुक्त होता है। जबकि कर्मणि प्रयोग में कर्मका सद्भाव होने से तीनों पुरुषों के साथ-साथ बहुवचन का प्रयोग भी होता है। इन दोनों प्रयोगों में कर्ता तृतीयान्त होता है और कर्म प्रथमान्त होता है। क्रिया के पुरुष और वचन प्रथमान्त कर्म के अनुसार होते हैं। जसे:- अस्माभिः त्वम् आहूयसे-हमारे द्वारा तू बुलाया जाता है; यहां कर्ता अस्माभिः' बहुवचनान्त होने पर भी कर्म 'त्वम्' एकवचनान्त होने से 'आहूयसे' क्रिया कर्म के अनुसार एकवचनात्मक और द्वितीय पुरुषात्मक प्रदर्शित की गई है। इस प्रकार यदि किसी कर्तृवाच्य प्रयोग को कर्म-वाच्य में बदलना हो तो प्रथमान्त कर्ता को तृतीयान्त कर देना चाहिये और द्वितीयान्त कर्म को प्रथमान्त में बदल देना चाहिये। जैसे:- पुरुषः स्तेन प्रहरति-पुरुषेण स्तेनंः प्रह्यियते-पुरुष से चोर मारा जाता है। ___ 'चि, जि' इत्यादि कुछ प्राकृत धातुओं के बनने वाले कर्मणि प्रयोग भावे प्रयोग का वर्णन आगे बतलाया जायेगा; यहाँ
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 193 पर तो सर्व-सामान्य रूप से बनने वाले कर्मणि-प्रयोग-भावे-प्रयोग की पद्धति का परिचय कराया जा रहा है; तदनुसार जैसे संस्कृत भाषा में मूल धातु और आत्मनेपदीय पुरुष बोधक-प्रत्ययों के मध्य में कर्मणि-भावे-प्रयोग द्योतक प्रत्यय 'क्य-य' जोड़ा जाता है वैसे ही प्राकृत भाषा में भी मूल-धातु और कर्तरि प्रयोग के लिये कहे गये पुरुष-बोधक प्रत्ययों के बीच में संस्कृत प्रत्यय 'क्य-य' के स्थान पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्यय की संयोजना कर देने से वह क्रियापद का रूप कर्मणि-प्रयोग द्योतक अथवा भावे-प्रयोग द्योतक बन जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब किसी भी प्राकृत धातु का अमुक काल में कर्मणि-प्रयोग अथवा भावे प्रयोग बनाना हो तो उस काल के कर्तरि प्रयोग के लिये कहे गये पुरुष बोधक प्रत्यय जोड़ने के पहले मूल धातु में 'इअ अथवा इज्ज' प्रत्यय लगाया जाना चाहिये और तदनन्तर जिस काल का कर्मणि-भावे प्रयोग बनाना हो उस काल के कर्तरि प्रयोग के लिये कहे गये प्रत्यय लगा देने से कर्मणि-भावे-प्रयोग के रूप सिद्ध हो जाते हैं। जैसे:- हस्यते-हसीअइ अथवा हसिज्जइ उससे हँसा जाता है। हस्यत्-हस्यन् हसीअन्तो अथवा हसिज्जन्तो
और हसीअमाणो अथवा हसिज्ज माणो-हंसा जाता हुआ; यह उदाहरण वर्तमान कृदन्त पूर्वक भावे-प्रयोग वाला है। चूंकि प्राकृत में वर्तमान कृदन्त में सूत्र-संख्या ३-१८१ के निर्देश से संस्कृत प्राप्तव्य वर्तमानक-कृदन्त-बोधक प्रत्यय शतृ अत् के स्थान पर 'न्त और माण' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है; इसलिये संस्कृत वर्तमान-कृदन्तीय क्रिया-पद 'हस्यत्-हस्यन्' के प्राकृत में उपर्युक्त रीति से चार रूप होते हैं। सूत्र की वृत्ति में दो उदाहरण और दिये गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:पठ्यते-पढीअइ अथवा पढिज्जइ-उससे पढ़ा जाता है। भूयते-होईअइ अथवा होइज्जइ-उससे हुआ जाता है। 'बहुलम् सूत्र के अधिकार से कभी-कभी कर्मणि-भावे- प्रयोग के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ईअ' अथवा इज्ज' की प्राप्ति नहीं होकर भी उक्त कर्मणि-भावे प्रयोग के रूप बन जाया करते हैं; जैसे:- मया नम्यते मए नवेज्ज अथवा मए नविज्जेज्ज-मुझ से नमस्कार किया जाता है अथवा मुझ से नमा जाता है-झुका जाता है। अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं:- तेन लभ्यते-तेग लहेज्ज अथवा तेण लहिज्जेज्ज-उससे प्राप्त किया जाता है। तेन आस्यते-तेण अच्छेज्ज अथवा तेण अच्छिज्जेज्ज और तेण अच्छीअइ-उससे बैठा जाता है। इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि प्राकृत में कर्मणि-भावे-प्रयोग-द्योतक प्रत्यय 'इअ अथवा इज्ज' की प्राप्ति कभी-कभी वैकल्पिक रूप से भी होती है। इसका कारण 'बहुलम् सूत्र है। इस प्रकार संस्कृत में कर्मणि-भावे-प्रयोग के अर्थ में 'य' के स्थान पर प्राकृत में 'इज्ज' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। यही तात्पर्य इस सूत्र का है।
हस्यते संस्कृत का भावे प्रयोग अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप हसीअइ और हसिज्जइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१० से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त भावे प्रयोग अर्थक 'ईअ और इज्ज' प्रत्ययों में क्रम से आदि में स्थित दीर्घ और ह्रस्व स्वर 'ई तथा इ' का सद्भाव होने के कारण से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त धातु 'हस्' में भावे-प्रयोग-अर्थक प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' की क्रम से प्राप्ति ओर १-५ से हलन्त धातु 'हस्' के साथ में उपर्युक्त रीति से प्राप्त प्रत्यय 'ईअ ओर इज्ज' की क्रम से संधि एवं ३-१३९ से प्राप्तांग भावे-प्रयोग-अर्थ रूप हस अ और हसिज्ज में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसीअइ और हसिज्जइ रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ हस्यन् संस्कृत का वर्तमान कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूपः-हसीअन्तो हसिज्जन्तो, हसिअमाणो और हसिज्जमाणा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१० से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त भावे-प्रयोग–अर्थक 'ईअ और इज्ज' प्रत्ययों में क्रम से आदि में स्थित दीर्घ और हस्व स्वर 'ई तथा इ' का सद्भाव होने के कारण से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त धातु 'हस्' में भावे प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' की (चारों रूपों में) क्रम से प्राप्ति; १-५ से हलन्त धातु 'हस' के साथ में उपर्युक्त रीति से प्राप्त प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' की क्रम से (चारों रूपों से) संधि; ३-१८१ से क्रम से प्राप्तांग 'हसीअ और हसिज्ज' तथा 'हसीअ और हसिज्ज' में वर्तमान कृदन्त-अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'शतृ अत्' के स्थान पर प्राकृत में 'न्त और माण' प्रत्ययों की (चारों रूपों में) क्रम से प्राप्ति; और ३-२ से क्रम से चारों प्राप्तांग 'हसीअन्त, हसिज्जन्त, हसीअमाण तथ हसिज्जमाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुंल्लिग में
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194 : प्राकृत व्याकरण संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप हसीअन्तो, हसिज्जन्तो, हसीअमाणो तथा हसिज्जमाणो सिद्ध हो जाते हैं।
पठ्यते संस्कृत का कर्मणि-रूप है। इसके प्राकृत रूप पढीअइ और पढिज्जइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१९९ से मूल संस्कृत-धातु 'पठ्' में स्थित '' के स्थान पर प्राकृत में 'द' की प्राप्ति; ३-१६० से प्राप्तांग 'पढ' में कर्मणि प्रयोग अर्थक 'ईअ और इज्ज' की क्रम से प्राप्ति; १-५ से हलन्त धातु पढ के साथ में उपर्युक्त रीति से प्राप्त प्रत्यय 'इअ और इज्ज' की क्रम से संधि और ३-१३९ से प्राप्तांग कर्मणि-प्रयोग-अर्थक रूप 'पढीअ और पढिज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पढीअइ
और पढिज्जइ रूप सिद्ध हो जाते हैं। __ भूयत संस्कृत का भावे प्रयोग रूप है। इसके प्राकृत रूप होईअइ और होइज्जइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश प्राप्ति; ३-१६० से प्राप्तांग 'हो' में भावे-प्रयोग-अर्थक प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' की क्रम से प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्तांग भावे-प्रयोग अर्थक रूप होईअ और होइज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होईअइ और होइज्जइ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'भए' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१०९ में की गई है।
नम्यते संस्कृत का अकर्मक रूप है। इसके प्राकृत रूप नवेज्ज और नविज्जेज्ज होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२२६ से मूल संस्कृत धातु 'नम्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'म्' के स्थान पर प्राकृत में व्' की आदेश प्राप्ति; ३-१६० की वृत्ति से भावे-प्रयोग के अर्थ में प्रत्यय 'इज्ज' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; ४-२३९ से प्रथम रूप में हलन्त धातु 'नव्' में विकरण प्राप्तव्य प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५९ से क्रम से प्राप्त भावे-प्रयोग-अर्थकांग 'नव और नविज्ज' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर नित्य रूप से 'ए' की प्राप्ति और ३-१७७ से क्रम से प्राप्त भावेप्रयोग अर्थ अंग 'नवे और नविज्जे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' के स्थान पर 'ज्ज' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर नवेज्ज और नविज्जेज्ज रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'तेण' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६९ में की गई है।
लभ्यत संस्कृत का कर्मणि रूप है। इसके प्राकृत रूप लहेज्ज और लहिज्जेज्ज होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत धातु 'लभ' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'भ' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' व्यंजन की आदेश प्राप्ति; ३-१६० की वृत्ति से भावे प्रयोग के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इज्ज' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; ४-२३९ से प्रथम रूप में हलन्त धातु 'लह' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५९ से क्रम से प्राप्त भावे प्रयोग अर्थक अंग 'लह और लहिज्ज' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर नित्य रूप से 'ए' की प्राप्ति और ३-१७७ से क्रम से प्राप्त भावे प्रयोग अर्थक अंग 'लहे और लहिज्जे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' के स्थान पर 'ज्ज' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर लहे और लहिज्जेज्ज रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'तेण' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६९ में की गई है।
आस्यते संस्कृत का अकर्मक रूप है। इसके प्राकृत रूप अच्छेज्ज, अच्छिज्जेज्ज और अच्छीअइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२१५ से मूल संस्कृत धातु 'आस्' में स्थित अन्त्य व्यंजन 'स्' के स्थान पर 'छ्' की आदेश प्राप्ति; २-८९ से आदेश प्राप्त व्यञ्जन 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २९० से द्वित्व प्राप्त 'छ्छ' में से प्रथम 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; १-८४ से मूल धातु 'आस्' में स्थित आदि दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे 'स्' के स्थान पर उपर्युक्त रीति से संयुक्त व्यंजन 'च्छ' की प्राप्ति हो जाने से हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर प्राकृत में धातु रूप 'अच्छ' की प्राप्ति; ३-१६० की वृत्ति से प्राप्त प्राकृत धातु 'अच्छ' में भावे-प्रयोग-अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 195 रूप से 'इज्ज और ईअ' प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होकर भावे-प्रयोग-अर्थक-अंग 'अच्छ, अच्छिज्ज, अच्छीअ' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्रथम रूप 'अच्छ' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५९ से प्राप्त प्रथम रूप अच्छ' और द्वितीय रूप 'अच्छिज्ज' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे 'ज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'ए' की नित्यमेव प्राप्ति; ३-१७७ से प्रथम और द्वितीय भावे प्रयोग अर्थक अंगों में अर्थात 'अच्छे और अच्छिज्जे में वर्तमानकाल के प्रथमपरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' के स्थान पर 'ज्ज' प्राप्तव्य प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर 'अच्छेज्ज तथा अच्छिज्जेज्ज रूप सिद्ध हो जाते हैं; जबकि तृतीय रूप में भावे प्रयोग अर्थक अंग 'अच्छीअ' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर 'अच्छीअइ' रूप भी सिद्ध हो जाता है। ।।३-१६०।।
दशि-वचे स-डुच्चं॥३-१६१॥ दृशेर्वचेश्च परस्य क्यस्य स्थाने यथासंख्यं डीस डुच्च इत्यादेशौ भवतः।। ईअइज्जापवादः।। दीसइ। वुच्चइ।।
अर्थः- दृश् और वच् धातु का जब प्राकृत में कर्मणि-भावे-प्रयोग का रूप बनाना हो तो इन धातुओं के प्राकृत-रूपान्तर में कर्मणि-भावे-प्रयोग-अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में सूत्र-संख्या ३-१६० के अनुसार प्राप्त प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' की प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु इन कर्मणि भावे-प्रयोग-अर्थक प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' के स्थान पर क्रम से 'दृश्' धातु में तो 'डीस्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है और 'वच्' धातु में 'डुच्च' प्रत्यय की प्राप्ति होती है; इस प्रकार से इन दोनों धातुओं के कर्मणि भावे-प्रयोग-अर्थ में मूल अंगों का निर्माण होता है। प्राप्त प्रत्यय 'डीस और डुच्च' में स्थित आदि 'डकार' इत्संज्ञक होने से पूर्वोक्त धातु 'दृश्' में स्थित अन्त्य 'श्' का और वच्' में स्थित अन्त्य 'च' का लोप हो जाता है। तत्पश्चात् प्राकृत भाषा के अन्य-नियमों के अनुसार शेष रहे हुए धातु-अंश 'दृ' और 'व' में कर्मणि भावे प्रयोग–अर्थक प्रत्यय 'ईस' तथा 'उच्च' की प्राप्ति होकर इष्ट काल संबंधित पुरुष-बोधक प्रत्ययों की संप्राप्ति होती है। इस नियम को अर्थात् सूत्र-संख्या ३-१६१ को पूर्वोक्त सूत्र-संख्या ३-१६० का अपवाद की समझना चाहिये। तदनुसार इस सूत्र में वर्णित विधान पूर्वोक्त कमणि-भावे प्रयोग-अर्थक प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' के लिये अपवाद-स्वरूप ही है; ऐसा ग्रन्थकार का मन्तव्य है। उपर्युक्त धातुओं के कर्मणि भावे-प्रयोग के अर्थ में उदाहरण इस प्रकार हैं:- दृश्यते-दीसइ (उससे) देखा जाता है; उच्यते वुच्चइ-(उससे) कहा जाता है।
दृश्यते संस्कृत का कर्मणि-रूप है। इसका प्राकृत रूप दीसइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६१ से मूल संस्कृत-धातु 'दृश' में स्थित अन्त्य 'श्' के आगे कर्मणि-प्रयोग-अर्थ प्रत्यय 'डीस' की संप्राप्ति होने से तथा प्राप्त प्रत्यय डीस' में स्थित आदि 'डकार' इत्संज्ञक होने से लोप; १-१० से शेष धातु अंश 'दृ' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' का आगे कर्मणि-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ईस' की संप्राप्ति होने से इसमें स्थित आदि स्वर 'ई' का सद्भाव होने के कारण से लोप; १-५ से शेष हलन्त-धातु-अंश'दृ' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्यय 'ईस' की संधि होकर मूल संस्कृत कर्मणि प्रायोगिक रूप 'दृश्य' के स्थान पर प्राकृत में कर्मणि प्रयोग अर्थक-अंग 'दीस' की संप्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत की आदेश प्राप्ति होकर दीसइ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ उच्यते संस्कृत का अकर्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप वुच्चइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६१ से मूल संस्कृत धातु 'वच्' में स्थित अन्त्य 'च' के आगे भावे प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'डुच्च' की संप्राप्ति होने से तथा प्राप्त प्रत्यय 'डुच्च' में स्थित आदि 'डकार' इत्संज्ञक होने से लोप; १-१० से शेष धातु-अंश 'व' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे भावे-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'उच्च' की संप्राप्ति होने से इसमें स्थित आदि स्वर 'उ' का सद्भाव होने के कारण से लोप; १-५ से शेष हलन्त धातु अंश 'व्' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्यय 'उच्च' की संधि होकर मूल संस्कृत भावे-प्रायोगिक रूप 'उच्च' के स्थान पर प्राकृत में भावे प्रयोग अर्थक अंग 'वुच्च' की संप्राप्ति और ३-१२९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर वुच्चइ रूप सिद्ध हो जाता है।।३-१६२।।
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196 : प्राकृत व्याकरण
सी ही हीअ भूतार्थस्य ।। ३-१६२।। भूतार्थे विहितोद्यतन्यादिः प्रत्ययो भूतार्थः तस्य स्थाने सी ही हीअ इत्यादेशा भवन्ति।। उत्तरत्र व्यञ्जनादी अविधानात् स्वरान्तादेवायं विधिः। कासी। काही। काही। अकार्षीत्। अकरोत्। चकार वेत्यर्थः। एवं ठासी। ठाही। ठाहीआ। आर्षे। देविन्दो इणमब्बवी इत्यादौ सिद्धावस्थाश्रयणात् हस्तन्याः प्रयोगः।।
अर्थः- संस्कृत-भाषा में भूतकाल के तीन भेद किये गये हैं; जिनके नाम इस प्रकार हैं:(१) सामान्य- भूतः- इसका अपर नाम अद्यतन-भूतकाल भी है और इसको लुङ्लकार कहते हैं। (२) ह्यस्तन- भूतः- इसका अपर नाम अनद्यतन-भूतकाल भी है और इसको लङ्लकार कहते हैं। (३) परोक्ष- भूतः- इसको लिट्लकार कहते हैं। संस्कृत भाषा में इस प्रकार तीन भूतकालिकलकार हैं; प्राचीनकाल
में इन के अर्थों में भेद किया जाकर तदनुसार इनका प्रयोग किया जाता था; परन्तु आजकल की प्रचलित संस्कृत भाषा में बिना भेद के इनका प्रयोग किया जाता है। इस सम्बन्ध में कोई दृढ़ नियम नहीं माना जाता है। आधुनिक समय में लकारों का भूतकाल के अर्थ में बिना किसी भी प्रकार का भेद किये प्रयोग कर लिया जाता है। इनका सामान्य परिचय इस प्रकार है:(१) अति निकट रूप से व्यतीत हुए काल में अथवा गत कुछ दिनों में की गई क्रिया के लिए अथवा उत्पन्न हुई
क्रिया के लिये सामान्य भूतकाल का अथवा अद्यतन-भूतकाल का प्रयोग किया जाता है। (२) अति निकटकाल की अपेक्षा से कुछ दूर के काल में अथवा कुछ वर्षों पहिले की गई क्रिया के लिये अथवा
उत्पन्न हुई क्रिया के लिये ह्यस्तन-भूतकाल का अथवा अनद्यतन-भूतकाल का प्रयोग किया जाता है। (३) अत्यन्त दूर के काल में अथवा अनेकानेक वर्षों पहिले की गई क्रिया के लिये अथवा उत्पन्न हुई क्रिया के लिये परोक्ष-भूतकाल का प्रयोग किया जाता है। जो क्रिया अपने प्रत्यक्ष में हुई हो, उसके लिये परोक्ष-भूतकाल का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। अन्य-भाषाओं की व्याकरण में जैसे पूर्ण भूत, अपूर्ण भूत ओर संदिग्ध भूत के नियम और रूप पाये जाते हैं; वैसे रूप और नियम संस्कृत भाषा में नहीं पाये जाते हैं; इन सभी के स्थान पर संस्कृत भाषा में केवल या तो सामान्य भूत का प्रयोग किया जायेगा अथवा परोक्ष-भूत का; यही
परम्परा प्राकृत भाषा के लिये भी जानना चाहिये। प्राकृत भाषा में संस्कृत भाषा के समान भूतकाल अर्थक उपर्युक्त तीनों लकारों का अभाव है; इसमें तो सभी भूत-कालिक-लकारों के लिये इनसे सम्बन्धित प्रथम-द्वितीय-तृतीय पुरुषों के लिये तथा एकवचन एवं बहुवचन के लिये एक जैसे ही समान रूप के भूतकाल-अर्थक-प्रत्यय पाये जाते हैं; धातुओं के साथ में इनकी संयोजना करने से प्रत्येक प्रकार का भूत-कालिक-लकार बन जाया करता है। अन्तर है तो इतना सा है कि व्यञ्जनान्त धातुओं के लिये और स्वरान्त धातुओं के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार के भूतकात-अर्थक-प्रत्यय हैं। इस प्रकार प्राकृत भाषा में सर्व सामान्य सुलभता की बात यह है कि व्यञ्जनान्त धातु के लिये अथवा स्वरान्त धातु के लिये तीनों पुरुषों में एवं दोनों वचनों में तथा सभी भूत-कालिक-लकारों में एक जैसे ही प्रत्यय पाये जाते हैं। इस सूत्र-संख्या ३-१६२ में स्वरान्त धातुओं में जोड़े जाने वाले भूतकाल-अर्थक-प्रत्ययों का निर्देश किया गया है: व्यञ्जनान्त धातओं में जोड़े जाने वाले भतकाल-अर्थक-प्रत्ययों का उल्लेख इससे आगे आने वाले सूत्र-संख्या ३-१६३ में किया जाने वाला है। इस प्रकार इस सूत्र में यह बतलाया गया है कि यदि प्राकृत भाषा में किसी भी स्वरान्त धातु का किसी भी भूतकालिक लकार में, किसी भी पुरुष का और किसी भी वचन का कैसा भी रूप बनाना हो तो प्राकृत भाषा की उस स्वरान्त धातु के मूल रूप के साथ में 'सी, ही अथवा हीअ' प्रत्यय की संयोजना कर देने से भूतकाल के अर्थ में इष्ट पुरुष वाचक और इष्टवचन-बोधक रूप का निर्माण हो जायेगा। इस विवेचना से यह प्रमाणित होता है कि संस्कृत-भाषा में भूतकाल-बोधक-लकारों में प्रत्ययों के स्थान पर सभी पुरुष-बोधक-अर्थों में तथा सभी वचनों के अर्थों में प्राकृत में 'सी, ही और हीअ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 197 सूत्र-संख्या ३-१६३ में 'व्यंजनादीअ' के उल्लेख से यही समझना चाहिये कि सूत्र-संख्या ३-१६२ में वर्णित भूतकाल-द्योतक प्रत्यय 'सी, ही, हीअ' केवल स्वरान्त धातुओं के लिये ही है। इस विषयक स्पष्टीकरण इस प्रकार है:
भूतकालबोधक प्रत्यय केवल स्वरान्त धातुओं के लिये तथा एकवचन एवं बहुवचन के लिये प्रथम पुरुष - सी, ही, हीअ
द्वितीय पुरूष - सी, ही, हीअ
तृतीय पुरूष - सी, ही, हीअ सूत्र की वृत्ति में दो उदाहरण इस प्रकार दिये गये हैं:संस्कृत रूप
प्राकृत रूपान्तर हिन्दी-अर्थ १ अकार्षीत् (आदि नव रूप तीनों पुरुषों में और तीनों कासी अथवा काही मैं अथवा हमने तूने अथवा वचनों में लुङ्लकार में
अथवा काहीअ तुमने उसने अथवा उन्होंने
किया अथवा किया था अथवा २ अकरोत् (आदि नव रूप लङलकार में)
कर चुके थे। ३ चकार (आदि नव रूप लिङलकार में) १ अस्थात् (आदि नव रूप-तीनों पुरुषों में और तीनों ठासी अथवा ठाही मैं अथवा हम; तू अथवा तुम; वचनों में लुङलकार में
अथवा ठाहीअ वह अथवा वे ठहरे; या ठहरे २ अतिष्ठत् (आदि नव रूप लङ् लकार में)
थे अथवा ठहर चुके थे। ३ तस्थौ (आदि नव रूप लिट् लकार में)
इस प्रकार तीनों लकारों में; इनके तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों (अथवा दोनों वचनों में) प्राकृत भाषा में रूपों की तथा प्रत्ययों की जैसी ही समानता होती है। इस प्रकार की रूप-रचना प्राकृत भाषा में जानना चाहिये। ___ आर्ष-प्राकृत में कुछ अन्तर कहीं-कहीं पर पाया जाता है; उसका उदाहरण इस प्रकार है:- देवेन्द्रः एषः अब्रवीत् देविन्दो इणमब्बवी-देवराज इन्द्र ऐसा बोला; इस उदाहरण में संस्कृत भूत- कालिक क्रियापद के रूप 'अब्रवीत' के स्थान पर प्राकृत में 'अब्बवी रूप प्रदान किया गया है। यह यस्तन-भूतकाल का अर्थात् लङ्लकार का रूप है और संस्कृत रूप के आधार (पर) से ही प्राकृत भाषा के वर्ण-परिवर्तन सम्बन्धित नियमों द्वारा इसकी प्राप्ति हुई है। अतएव ऐसे भूतकालिक क्रियापदों के रूपों को आर्ष प्राकृत के रूप मान लिये हैं। ____ अकार्षीत्, अकरोत् और चकार संस्कृत के भूतकालिक लकारों के प्रथमपुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी लकारों के सभी पुरुषों के और सभी वचनों के प्राकृत-रूपान्तर समुच्चय रूप में तीन होते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- कासी, काही और काही। इनमें सूत्र-संख्या ४-२६४ से मूल संस्कृत-धातु 'कृ' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१६२ से भूतकाल के रूपों के निर्माण हेतु प्राप्तांग 'का' में संस्कृतीय भूतकालिक-लकारों के अर्थों में प्राप्त सभी पुरुषों के एकवचनों के द्योतक सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'सी, ही और हीअ' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर कासी, काही और काहीअ रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ अस्थात्, अतिष्ठत् और तस्थौ संस्कृत के अकर्मक रूप हैं। इन सभी लकारों के सभी पुरुषों के और सभी वचनों के प्राकृत-रूपान्तर समुच्चय रूप से तीन होते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- ठासी, ठाही और ठाही। इनमें सूत्र-संख्या ४-१६ से मूल संस्कृत-धातु 'स्था' के स्थानापन्न रूप 'तिष्ठ्' के स्थान पर प्राकृत में 'ठा' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१६२ से भूतकाल के रूपों के निर्माण हेतु प्राप्तांग 'ठा' में संस्कृत भूत-कालिक-लकारों के अर्थों में प्राप्त सभी पुरुषों के एवं वचनों के द्योतक सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'सी, ही और हीअ' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर प्राकृत में 'ठा' धातु के भूतकालवाचक रूप ठासी, ठाही और ठाहिअ सिद्ध हो जाते हैं।
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198 : प्राकृत व्याकरण
देवेन्द्रः=देव+ इन्द्रः संस्कृत का रूप है। इसका प्राकृत रूप देविन्दो होता है। इसमें सूत्र - सख्या १-१० से तत्पुरुष समासात्मक शब्द देवेन्द्र की संधि भेद करने से प्राप्त स्वतंत्र शब्द 'देव' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे रहे हुए शब्द 'इन्द्र' में स्थित आदि स्वर 'इ' का सद्भाव होने के कारण से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त शब्द 'देव' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'व्' के साथ में आगे रहे हुए शब्द 'इन्द्र' में स्थित आदि स्वर 'इ' की संधि; २७९ से 'द्र' में स्थित व्यंजन 'र्' का लोप और ३-२ से प्राप्तांग 'देविन्द' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद देविन्दो सिद्ध हो जाता है।
'इणं' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-८५ में की गई है।
अब्रवीत् संस्कृत का सकर्मक रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप अब्बवी होता है। इसमें सूत्र- संख्या २- ७९ से 'ब्र' में स्थित व्यंजन र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए व्यंजन वर्ण 'ब' को द्वित्व 'ब्ब की प्राप्ति और १-११ से पदान्त हलन्त व्यजंन 'त्' का लोप होकर अब्बवी रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१६२।।
व्यञ्जनादीअः ।। ३-१६३।।
व्यञ्जनान्ताद्धातोः परस्य भूतार्थस्याद्यतन्यादि प्रत्ययस्य ईअ इत्यादेशो भवति।। हुवीअ। अभूत्। अभवत् । बभूवेत्यर्थः।। एवं अच्छीअ । आसिष्ट । आस्त । आसांचक्रे वा ।। गेण्हीअ । अगृहीत्। अगृह्णत्। जग्राह वा ।।
अर्थः- प्राकृत भाषा में पाई जाने वाली धातुओं में संस्कृत के समान गण-भेद नहीं होता है; परन्तु फिर भी प्राकृत धातुएँ दो भेदों में विभाजित हैं; कुछ व्यंजनान्त होती हैं तो कुछ स्वरान्त होती है; तदनुसार भूतकाल के अर्थ में प्राप्त प्राकृत-प्रत्ययों में भेद पाया जाता है। इस प्रकार के विधि-विधान से स्वरान्त धातुओं में भूतकाल के अर्थ में प्राप्त प्राकृत-प्रत्ययों का सूत्र- संख्या ३-१६२ में वर्णन किया जा चुका है; अब व्यञ्जनान्त धातुओं के लिये भतू - काल के अर्थ में प्राप्त प्राकृत-प्रत्य का उल्लेख इस सूत्र से किया जा रहा है। यह तो पहले ही लिखा जा चुका है कि संस्कृत भाषा में भूतकाल के अर्थ में जिस तरह से तीन लकारों का -'लुङ् -लङ्-लिट्' अर्थात् ' अद्यतन, ह्यस्तन अथवा अनद्यतन और परोक्ष' का विधान है, वैसा विधान प्राकृत भाषा में नहीं पाया जाता है; एवं इन लकारों के तीनों पुरुषों के तीनों वचनों में जिस प्रकार से भिन्न-भिन्न प्रत्यय पाये जाते हैं वैसी सभी प्रकार की विभिन्नताओं का तथा प्रत्ययों का भेद प्राकृत भाषा में नहीं पाया जाता है; अतएव संक्षिप्त रूप से इस सूत्र में यही बतलाया गया है कि प्राकृत भाषा में पाई जाने वाली व्यञ्जनान्त धातुओं में उनके मूल रूप के साथ में ही किसी भी प्रकार के भूतकाल के अर्थ में और किसी भी पुरुष के किसी भी वचन के अर्थ में केवल एक ही प्रत्यय 'ईअ' की संयोजना कर देने से इष्ट भूतकाल अर्थक और इष्ट पुरुष के इष्टवचन अर्थक प्राकृत क्रियापद का रूप बन जाता है। प्राकृत में भूतकाल के अर्थ में व्यंजनान्त धातुओं में 'इस' प्राप्त प्रत्यय 'ईअ' को संस्कृत में भूतकाल के अर्थ में प्राप्त सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर आदेश प्राप्त प्रत्यय समझना चाहिये। इस विषयक उदाहरण इस प्रकार हैं:
संस्कृत-रूप
हिन्दी- अर्थ
१ अभूत् (आदि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में; लुङ्लकार में)
२ अभवत् (आदि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में; लङ्लकार में)
३ बभूव (आदि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में; लिट्लकार में)
१ आसिष्ठ (आदि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों अच्छीअ वचनों में; लुङ्लकार में)
२ आस्त (आदि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों
वचनों में; लङ्लकार में)
प्राकृत रूपान्तर हुवीअ
मैं अथवा हम; तू अथवा तुम और वह अथवा वे हुए; हुए थे और हो चुके थे।
मै अथवा हम; तू अथवा तुम और वह अथवा वे बैठे; बैठे थे और बैठ चुके थे।
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३ आसांचक्रे (आदि नवरूप; तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में; लिट्लकार में)
१ अग्रही (आदि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में; लुङ्लकार में)
२ अगृह्णात् (आदि नवरूप; तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में; लङ्लकार में)
३ जग्राह (आदि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों
वचनों में; लिट्लकार में)
गेहीअ
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 199
इस प्रकार प्राकृत भाषा में व्यंजनान्त धातुओं में भूतकाल के अर्थ में संस्कृत में प्राप्त तीनों लकारों के सभी पुरुषों के सभी वचनों के अर्थ में प्राप्त सभी प्रत्ययों के स्थान पर केवल एक ही प्रत्यय 'इअ' की आदेश प्राप्ति होती है। तदनुसार वाक्य-रचना में पाये जाने वाले सम्बन्ध विशेष को देख करके पुरुष विशेष का और वचन विशेष का ज्ञान कर लिया जाता है अथवा स्वरूप पहिचान लिया जाता है।
मैंने अथवा हमने; तूने अथवा तुमने; उसने अथवा उन्होंने; लिया; लिया था अथवा ले चुके थे या स्वीकार किया; स्वीकार किया था अथवा स्वीकार कर चुके थे।
अभूत्, अभवत् और बभूव संस्कृत के भूत-कालिक लकारों के प्रथमपुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी लकारों का सभी-पुरुषों का और सभी वचनों का प्राकृत रूपान्तर समुच्चय रूप से एक ही हुवीअ होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु भू= भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हुव्' अंग की आदेश प्राप्ति और ३-१६३ से आदेश-प्राप्त अंग 'हुव्' में भूत-कालिक - लकारों में सभी पुरुषों के सभी वचनों में प्राप्तव्य संस्कृत प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल एक ही प्रत्यय 'ईअ' की आदेश प्राप्ति होकर प्राकृत रूप हुवीअ सिद्ध हो जाता है।
आसिष्ठ, आस्त और आसांचक्रे संस्कृत के भूत-कालिक-लकारों के प्रथमपुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप है। इन सभी लकारों का, सभी पुरुषों का और सभी वचनों का प्राकृत - रूपान्तर समुच्चय रूप से एक ही अच्छीअ होता है। इसमें सूत्र- संख्या ४- २१५ से मूल संस्कृत - धातु 'आस्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'स्' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से आदेश प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से द्वित्व प्राप्त 'छ्छ' में से प्रथम 'छ्' के स्थान पर 'च्' की प्राप्ति; १ - ८४ से प्राप्तांग 'आच्छ' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे संयुक्त व्यंजन 'च्छ' का सद्भाव होने के कारण से हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; और ३-१६३ से उपर्युक्त रीति से प्राकृत में प्राप्तांग धातु रूप ' अच्छ' में भूत-कालिक - लकारों में सभी पुरुषों के सभी वचनों में प्राप्तव्य संस्कृत प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल एक ही 'प्रत्यय 'ईअ' की आदेश प्राप्ति होकर प्राकृत रूप अच्छीअ सिद्ध हो जाता है।
ग्रह, अहणात् और जग्रह संस्कृत के भूत-कालिक लकारों के प्रथमपुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं इन सभी कारों का, सभी पुरुषों का और सभी वचनों का प्राकृत रूपान्तर समुच्चय रूप से केवल एक ही गेही होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४- १०९ से मूल संस्कृत - धातु 'ग्रह' के स्थान पर प्राकृत में 'गेण्ह' अंग-रूप की आदेश प्राप्ति और ३- १६३ से प्राकृत में प्राप्तांग धातु रूप 'गेण्ह' में भूत-कालिक-लकारों में सभी पुरुषों के सभी वचनों में प्राप्तव्य संस्कृत प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल एक ही प्रत्यय 'ईअ' की आदेश प्राप्ति प्राकृत रूप गेण्हीअ सिद्ध हो जाता है । ३-१६४।।
तेनास्तेरास्यहेसी ।।३-१६४।।
अस्तेर्धातोस्तेन भूतार्थेन प्रत्ययेन सह आसि अहेसि इत्यादेशा भवतः । आसि सो तुमं अहं वा । आसि। ये आसन्नित्यर्थः । एवं अहेसि ।।
अर्थः-संस्कृत धातु 'अस्' के प्राकृत रूपान्तर में भूतकालिक तीनों लकारों के सभी पुरुषों में तथा इनके सभी वचनों में संस्कृत प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में आदेश प्राप्त प्रत्ययों की संयोजना होने पर 'अस् धातु+पुरुष बोधक प्रत्यय के
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200 : प्राकृत व्याकरण स्थान पर केवल दो रूपों की आदेश प्राप्ति हो जाती है। वे रूप इस प्रकार हैं:-आसि और अहेसि। इन आदेश-प्राप्त दोनों रूपों में से प्रत्येक रूप द्वारा भूतकालिक लकार के सभी पुरुषों के सभी वचनों का अर्थ प्रतिध्वनित हो जाता है। सारांश रूप से तात्पर्य यह है कि भूतकाल में अस् धातु के केवल दो रूप होते हैं:- १ आसि और २ अहेसि; ये ही रूप सभी पुरुषों में तथा सभी वचनों में प्रयुक्त होते हैं। उदाहरण इस प्रकार हैं :- सः आसीत्, त्वम् आसीः, अथवा अहम् आसम्-सो, तुमं अहं वा आसि अथवा अहेसि-वह था अथवा तू था अथवा मैं था; इस उदाहरण में यह बतलाया गया है कि 'आसीत् आसीः और आसम्' प्रथम द्वितीय तृतीय पुरुष के एकवचन के क्रियापद के रूपों के स्थान पर प्राकृत में केवल एक ही क्रियापद का 'आसि अथवा अहेसि' का प्रयोग होता है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- ये आसन्–जे आसि अथवा अहेसि=जो
थे; यह उदाहरण बहुवचनात्मक है; फिर भी इसमें एकवचन के समान ही किसी भी प्रकार के पुरुष भेद का विचार किये बिना ही 'आसन्' संस्कृत रूप के स्थान पर 'आसि अथवा अहेसि' का प्रयोग कर दिया गया हैं। यों वचन का अथवा पुरुष का और प्रत्यय भेद का विचार नहीं करते हुए समुच्चय रूप से संस्कृत तीनों लकारों के अर्थ में प्राकृत में आदेश-प्राप्त रूप 'आसि अथवा अहेसि' का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार से प्राकृत में भूतकाल के अर्थ में लकारों की दृष्टि से मर्यादा-भेद की अत्यधिक न्यूनता पाई जाता है; जो कि ध्यान देने योग्य है। ___ आसीत, आसीः और आसम संस्कृत के भूतकाल के प्रथम-द्वितीय-तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूपान्तर आसि और अहेसि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१६४ से मूल संस्कृत धातु 'अस्' के साथ में भूतकालवाचक प्राकृत प्रत्ययों की संयोजना होने पर दोनों के ही स्थान पर 'आसि अथवा अहेसि रूपों को आदेश प्राप्ति होकर प्राकृत के रूप 'आसि और अहेसि सिद्ध हो जाते हैं।
'से' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८६ में की गई है। 'तुम' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-९० में की गई है।
अहं सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१०५ में की गई है। 'वा' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६७ में की गई है। 'जे' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५८ में की गई है।
आसन् संस्कृत के भूतकालवाचक लङ् लकार के प्रथमपुरुष के बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत-रूपान्तर आसि और अहेसि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१६४ से मूल संस्कृत-धातु 'अस्' के साथ में भूतकालवाचक प्राकृत -प्रत्ययों की संयोजना होने पर दोनों के ही स्थान पर 'आसि और अहेसि' रूपों की आदेश प्राप्ति होकर प्राकृत-रूप 'आसि और अहेसि' सिद्ध हो जाते हैं। ३-१६४।।
ज्जात्सप्तम्या इर्वा ॥३-१६५॥ सप्तम्यादेशात् ज्जात्पर इर्वा प्रयोक्तव्यः।। भवेत्। होज्जइ। होज्ज। __ अर्थः- यहाँ पर 'सप्तमी' शब्द से 'लिङ्लकार' का तात्पर्य है। यह लिङ्लकार छह प्रकार के अर्थों में प्रयुक्त होता है। जो कि इस प्रकार है:- १ विधि, २ निमन्त्रण, ३ आमन्त्रण, अथवा निवेदन ४ अधीष्ट अथवा अभीष्ट अर्थ, ५ संप्रश्न
और ६ प्रार्थना। प्राकृत भाषा में मूल धातु के आगे 'ज्ज' प्रत्यय की संयोजना कर देने से सप्तमी का अर्थात् लिङ्लकार का रूप बन जाता है। यह प्रत्यय तीनों प्रकार के पुरुषों के दोनों वचनों में प्रयुक्त होता है। वैकल्पिक रूप से 'ज्ज' प्रत्यय के आगे कभी-कभी 'इ' की प्राप्ति भी होती है। जैसेः- भवेत्-होज्जइ अथवा होज्ज-होवे। इस विषयक विशेष वर्णन आगे सूत्र-संख्या ३-१७७ और ३-१७८ में किया जा रहा है। ___ भवेत् संस्कृत का लिङ्लकार का प्रथमपुरुष का एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप होज्जइ और होज्ज होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू=भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग-रूप की आदेश प्राप्ति; ३-१७७ से विधि-अर्थ में 'ज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१६५ से प्राप्त प्रत्यय 'ज्ज' के पश्चात् वैकल्पिक रूप से इ' की प्राप्ति प्राकृत रूप होज्जइ और होज सिद्ध हो जाते हैं। ३-१६५।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 201 भविष्यति हिरादिः ।।३-१६६।। भविष्यदर्थे विहिते प्रत्यये परे तस्येवादिर्हिः प्रयोक्तव्यः।। होहिइ। भविष्यति भविता वेत्यर्थः।। एवं होहिन्ति। होहिसि। होहित्था। हसिहिइ। काहिइ।। __ अर्थः-संस्कृत-भाषा में भविष्यतकाल के दो भेद पाये जाते हैं; एक तो अनद्यतन भविष्यत अर्थात् लुट्लकार और दूसरा सामान्य भविष्यत् अर्थात् लुटलकार; किन्तु प्राकृत भाषा में दोनों प्रकार के भविष्यत्कालवाचक लकारों के स्थान पर एक ही प्रकार के प्रत्ययों का प्रयोग होता है। प्राकृत भाषा में भविष्यत्कालवाचक रूपों के निर्माण करने की सामान्य विधि इस प्रकार है कि सर्वप्रथम धातु के मूल अंग के आगे 'हि' प्रत्यय जोड़ा जाता है और तत्पश्चात् जिस पुरुष के जिस वचन का रूप बनाना हो उसके लिये उसी पुरुष के उसी वचन के लिये कहे गये वर्तमानकाल-द्योतक पुरुष-बोधक प्रत्यय लगा देने से भविष्यत्कालवाचक रूप का निर्माण हो जाता है। तदनुसार भविष्यत्कालवाचक प्रत्ययों की सामान्य स्थित इस प्रकार से होती है:एकवचन
बहुवचन प्रथम पुरुष - हिइ, हिए
हिन्ति हिन्ते, हिइरे द्वितीय पुरूष - हिसि, हिसे
हित्था, हिह। तृतीय पुरूष - हिमि
हिमो, हिमु, हिम। तृतीय पुरुष के एकवचन में तथा वैकल्पिक रूप से अन्य प्रत्यय भी होते हैं; उनका वर्णन आगे सूत्र-संख्या ३-१६७; ३-१६८ और ३-१६९ आदि में किया जाने वाला है। इस प्रकार ग्रंथकार का तात्पर्य यही है कि भविष्यत्काल के अर्थ में धातु में सर्वप्रथम 'हि' का प्रयोग किया जाना चाहिये; तत्पश्चात् वर्तमानकाल-बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जानी चाहिये। जैसे:-भविष्यति अथवा भविता-होहिइ होगा अथवा होने वाला होगा। भविष्यन्ति अथवा भवितारः-होहिन्ति होंगे अथवा होने वाले होंगे। भविष्यसि अथवा भवितासि-होहिसि-तू होगा अथवा तू होने वाला होगा। भविष्यथ अथवा भवितास्थ-होहित्था-तुम होंगे अथवा तुम होने वाले होंगे। हासिष्यति अथवा हसिता-हसिहिइ-वह हँसने वाला होगा। करिष्यति अथवा कर्ता काहिइ-वह करेगा अथवा करने वाला होगा। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि संस्कृत में प्राप्त भविष्यत्कालवाचक लुटलकार और लुट्लकार के स्थान पर प्राकृत में केवल एक ही लकार होता है तथा इसी सामान्य लकार के आधार से ही भविष्यत्कालवाचक दोनों लकारों का अर्थ प्रतिध्वनित हो जाता है। ___ भविष्यति अथवा भविता संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के प्रथमपुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनका प्राकृत रूप होहिइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु 'भ् भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग-रूप की प्राप्ति; ३-१६६ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'हो' में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३९ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'होहि' में प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप होहिइ सिद्ध हो जाता है।
भविष्यन्ति, भवितारः संस्कृत के भविष्यत्कालवाचक लट्लकार और लुट्लकार के प्रथमपुरुष के बहुवचन के रूप हैं। इनका प्राकृत रूप (एक ही) होहिन्ति होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल-संस्कृत धातु 'भू=भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अङ्ग रूप की प्राप्ति; ३-१६६ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'हो' में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४२ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग। 'होहि' में प्रथमपुरुष के बहुवचन के अर्थ में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होहिन्ति रूप सिद्ध हो जाता है।
भविष्यसि अथवा भवितासि संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के द्वितीय पुरुष के एकवचन के रूप है। इनका प्राकृत रूप (समान रूप से) होहिसि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु भू=भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अङ्ग रूप की प्राप्ति; ३-१६६ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'हो' में 'हि' प्रत्यय
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202: प्राकृत व्याकरण
की प्राप्ति और ३- १४० से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'होहि' में द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होहिसि रूप सिद्ध हो जाता है।
के
भविष्यथ अथवा भवितास्थ संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लृट्लकार और लुट्लकार के द्वितीय पुरुष बहुवचन के रूप हैं। इनका प्राकृत-रूप (समान रूप से) होहित्था होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु 'भू= भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग-रूप की प्राप्ति; ३ - १६६ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'हो' में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १० से भविष्यत्काल- अर्थक प्राप्तांग 'होहि' में स्थित अन्त्य स्वर 'इ' का आगे प्राप्त पुरुष-बोधक प्रत्यय ‘इत्था' में स्थित आदि स्वर 'इ' का सद्भाव होने के कारण से लोप; ३ - १४३ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्त हलन्त-अंग ‘होह' में द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में ' इत्था' प्रत्यय की प्राप्ति और १-५ से प्राप्त रूप 'होह और इत्था' की संधि होकर होहित्था रूप सिद्ध हो जाता है।
हसिष्यति अथवा हसिता संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लृट्लकार और लुट्लकार प्रथमपुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनका प्राकृत रूप (समान रूप से) हसिहिइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या -३ - १५७ से मूल प्राकृत धातु 'हस्' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हि' का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ३-१६६ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'हसि' में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३- १३९ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'हसिहि' में प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसिहिइ रूप सिद्ध हो जाता है। 'काहिइ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-५ में की गई है । ३ - १६६ ।।
मि- मो- मु- मेस्सा हा न वा।। ३–१६७।।
भविष्यत्यर्थे मिमोमुमेषु तृतीय त्रिकादेशेषु परेषु तेषामेवादी स्सा हा इत्येतौ वा प्रयोक्तव्यौ । हेरपवादौ । पक्षे हिरपि ।। होस्सामि, होहामि । होस्सामो होहामो । होस्सामु होहामु । होस्साम होहाम।। पक्षे । होहिमि । होहिमु । हिम।। क्वचितु हा न भवति । हासिस्सामो । हसिहिमो ।।
अर्थ:- प्राकृत भाषा में भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में अथवा बहुवचन के धातुओं में जब क्रमशः ‘मि' प्रत्यय अथवा मो- मु-म प्रत्यय की संयोजना की जा रही हो तब सूत्र - संख्या ३ - १६६ के अनुसार भविष्यत्काल-द्योतक प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'स्सा' अथवा 'हा' प्रत्यय की भी प्राप्ति हुआ करती है। इस प्रकार से तृतीय पुरुष के एकवचन में अथवा बहुवचन में भविष्यत्काल- द्योतक प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'स्सा' अथवा 'हा' की प्राप्ति को पूर्वोल्लिखित भविष्यत्काल- द्योतक प्रत्यय 'हि' के लिये अपवाद रूप विधान ही समझना चाहिये। चूँकि यह अपवाद रूप प्राप्ति भी वैकल्पिक - स्थित वाली ही है इसलिये पक्षान्तर में तृतीय पुरुष के एकवचन के अथवा बहुवचन के प्रत्ययों का सद्भाव होने पर भविष्यत्काल- द्योतक प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति का सद्भाव भी (वैकल्पिक रूप से) होता ही है । उक्त वैकल्पिक-स्थित-सूचक-विधान को स्पष्ट करने वाले उदाहरण इस प्रकार हैं:- भविष्यामि अथवा भवितास्मि होस्सामि और होहामि अथवा पक्षान्तर में होहिमि भी होता है। इसका हिन्दी - अर्थ यह है कि-मैं होऊँगा अथवा होने वाला होऊँगा । बहुवचन - द्योतक उदाहरण इस प्रकार से हैं:- भविष्यामः अथवा भवितास्म होस्सामो होहामो; होस्सामु होहामु; होस्साम होहाम; अथवा पक्षान्तर में होहिमो, होहिमु, होहिम; इन सभी का हिन्दी-अर्थ यह है कि-'हम होंगे अथवा हम होने वाले होंगे। पाठक गण इन उदाहरणों में यह देख सकेगे कि भविष्यत्काल द्योतक प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' के अतिरिक्त वैकल्पिक रूप से 'स्सा' और 'हा' प्रत्ययों की भी प्राप्ति हुई है। ऐसी प्राप्ति केवल तृतीय पुरुष के एकवचन में अथवा बहुवचन में ही होती है; प्रथम पुरुष में अथवा द्वितीय पुरुष में ऐसी प्राप्ति क अभाव ही जानना चाहिये।
कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि उपर्युक्त प्राप्त प्रत्यय 'स्सा' ओर 'हा' में से केवल एक ही प्रत्यय 'स्सा' की प्राप्ति होती है और 'हा' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- हसिष्यामः - हसिस्सामो और हसिहिमो । यहाँ पर 'हसिहामों' रूप
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 203 का अभाव प्रदर्शित कर दिया गया है। परन्तु इस स्थित को वैकल्पिक-भाव वाली जानना; जैसा कि वृत्ति में 'क्वचिद्' शब्द देकर स्पष्टीकरण किया गया है। __ भविष्यामि अथवा भवितास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप है। इनके प्राकृत रूप (समान रूप से) होस्सामि, होहामि और होहिमि होते है। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू' =भव के स्थान पर प्राकृत में हो अङ्ग रूप की प्राप्ति; ३-१६७ और ३-१६६ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रमशः 'स्सा, हा और हि' प्रत्यय के मूल प्राप्तांग 'हो' में प्राप्ति और ३-१४१ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रमशः प्राप्तांग 'होस्सा, होहा और होहि' में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप होस्सामि, होहामि और होहिमि सिद्ध हो जाते हैं। __ भविष्यामः और भवितास्मः संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लृट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के बहुवचन के रूप है। इनके प्राकृत-रूप (समान-रूप) होस्सामो, होहामो, होस्सामु, होहामु, होहिमु, होस्साम, होहाम, होहिम होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६०से मूल संस्कृत-धातु 'भू भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग रूप की प्राप्ति; ३-१६७ और ३-१६६ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रमशः 'स्सा, हा और हि' प्रत्यय की मूल प्राप्तांग 'हो' में प्राप्ति ओर ३-१४४ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रमशः प्राप्तांग 'होस्सा, होहा और होहि' में तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में क्रमशः 'मो, मु और म' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर होस्सामो, होहामो, होस्सामु, होहामु, होहिमु, होस्साम, होहाम और होहिम रूप सिद्ध हो जाते हैं।
हसिष्यामः और हसितास्मः संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के बहुवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान रूप से) हसिस्सामो और हसिहिमो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३–१५७ से मूल प्राकृत-रूप 'हस' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत्-कालवाचक प्रत्यय 'स्सा' और 'हि' का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ३-१६७ और ३-१६६ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'हसि' में क्रमशः 'स्सा' और 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति
और ३-१४४ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रमशः प्राप्तांग 'हसिस्सा' और 'हसिहि' में तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हसिस्सामो और हसिहिमो' रूप सिद्ध हो जाते हैं।।३-१६७।।
मो-म-मानां हिस्सा हित्था।।३-१६८॥ धातोः परौ भविष्यति काले मो मु मानां स्थाने हिस्सा हित्था इत्येतो वा प्रयोक्तव्यो।। होहिस्सा। होहित्था। हसिहिस्सा। हसिहित्था। पक्षे। होहिमो होस्सामो। होहामो। इत्यादि।
अर्थः- भविष्यत्काल के अर्थ में धातुओं में तृतीय पुरुष के बहुवचन बोधक प्रत्यय 'मो, मु, म' परे रहने पर तथा भविष्यत्काल-द्योतक प्रत्यय 'हि अथवा स्सा अथवा हा' होने पर कभी-कभी वैकल्पिक रूप से ऐसा होता है कि उक्त भविष्यत्काल-द्योतक प्रत्यय 'हि-स्सा-हा' के स्थान पर और उक्त पुरुष-बोधक प्रत्यय 'मो, मु, म के स्थान पर अर्थात् दोनों ही प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर धातुओं में हिस्सा' अथवा हित्था' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के बहुवचन का अर्थ अभिव्यक्त हो जाता है। यों धातुओं में रहे हुए 'हि-स्सा-हा' प्रत्ययों का भी लोप हो जाता है और 'मो मु-म' प्रत्ययों का भी लोप हो जाता है; तथा दोनों प्रकार के इन लुप्त प्रत्ययों के स्थान पर 'हिस्सा अथवा हित्था' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में भविष्यत्काल का रूप तैयार हो जाता है। जैसे:- भविष्यामः अथवा भवितास्मः होहिस्सा और होहित्था हम होंगे; चूँकि यह विधान वैकल्पिक-स्थित वाला है अतएव पक्षान्तर में होहिमो, होस्सामो और होहामो' इत्यादि रूपों का भी निर्माण हो सकेगा। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- हसिष्यामः अथवा हसितास्म-हसिहिस्सा और हसिहित्था; हम हँसेंगे; पक्षान्तर में हसिहिमो, हसिसामो आदि रूपों का भी सद्भाव होगा। इस प्रकार से वैकल्पिक स्थिति का सद्भाव भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के बहुवचन के सम्बन्ध में जानना चाहिये।
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204 : प्राकृत व्याकरण
भविष्यामः भवितास्मः संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के बहुवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान-रूप से) होहिस्सा, होहित्था, होहिमो, होस्सामो ओर होहामो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु भू भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग रूप की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम और द्वितीय रूपों में ३-१६८ से भविष्यत्काल के अर्थ में तथा तृतीय पुरुष के बहुवचन के संदर्भ में क्रमशः 'हिस्सा और हित्था' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर 'होहिस्सा और होहित्था' रूप सिद्ध हो जाते हैं। __ तृतीय रूप होहिमो में सूत्र-संख्या ३-१६६ से उपर्युक्त रीति से प्राप्त धातु अंग 'हो' में भविष्यत्काल-अर्थक प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१४४ से भविष्यत्काल-बोधक प्राप्तांग ‘होहि' में तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होहिमो रूप सिद्ध हो जाता है। 'होस्सामो और होहामो रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६७ में की गई है।
हसिष्यामः और हसितास्मः संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के बहुवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान-रूप से) हसिहिस्सा और हसिहित्था होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५७ से मूल प्राकृत धातु "हस" में स्थित अन्त्य "अ" के स्थान पर आगे भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हिस्सा और हित्था" का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'हसि'' में ३-१६८ से भविष्यत्काल के अर्थ में तथा तृतीय पुरुष के बहुवचन के संदर्भ में क्रमशः 'हिस्सा और हित्था' प्रत्ययों की संप्राप्ति होकर हसिहिस्सा और हसिहित्था रूप सिद्ध हो जाते हैं। ३-१६८।।
मेः स्सं॥ ३-१६९॥ धातोः परो भविष्यति काले म्यादेशस्य स्थाने स्सं वा प्रयोक्तव्यः।। होस्सा हसिस्सं। कित्तइस्स।। पक्षे। होहिमि। होस्सामि। होहामि कित्तइहिमि॥ __ अर्थः- भविष्यत्काल के अर्थ में धातुओं में तृतीय पुरुष के एकवचन बोधक प्रत्यय "मि'' परे रहने पर तथा भविष्यत्काल-द्योतक प्रत्यय "हि, स्सा अथवा हा' होने पर कभी-कभी वैकल्पिक रूप से ऐसा होता है कि उक्त भविष्यत्काल-द्योतक प्रत्यय “हि स्सा-हा" के स्थान पर अर्थात् दोनों ही प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर धातुओं में केवल 'स्सं प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन का अर्थ प्रकट हो जाता है। यों धातुओं में रहे हुए हि-स्सा-हा प्रत्ययों का लोप हो जाता है और 'मि' प्रत्यय का भी लोप हो जाता है तथा दोनों ही प्रकार के इन लुप्त प्रत्ययों के स्थान पर केवल 'स्सं प्रत्यय की ही आदेश प्राप्ति होकर तृतीय पुरूष के एकवचन के अर्थ में भविष्यत्काल का रूप तैयार हो जाता है। जैसेः- भविष्यामि अथवा भवितास्मि होस्सं-मैं होऊँगा; चूँकि यह विधान वैकल्पिक-स्थान वाला है अतएव पक्षान्तर में होहिमि, होस्सामि और होहामि ‘रूपों का भी निर्माण हो सकेगा। अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं:- हसिस्यामि अथवा हसितास्मि-हसिस्सं मैं हँसूगा। कीर्तयिष्यामि कित्तइस्स; पक्षान्तर में कित्तइहिमि=मैं कीर्तन करूँगा; इत्यादि। ___ इस प्रकार से वैकल्पिक-स्थित का सद्भाव भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन के सम्बन्ध में जानना चाहिये।
भविष्यामि अथवा भवितास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान-रूप) से होस्सं, होहिमि, होस्सामि और होहामि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु 'भू=भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग-रूप की आदेश प्राप्ति; तत्पश्चात् सर्वप्रथम रूप में ४-१६९ से प्राप्तांग 'हो' में भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त-सूत्रों में कथित प्राप्त प्राकृत-प्रत्ययों के स्थान पर 'स्सं प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर होस्सं रूप सिद्ध हो जाता है।
शेष रूप 'होहिमि, होस्सामि तथा होहामि' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६७ में की गई है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 205 हसिष्यामि अथवा हसितास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनका प्राकृत-रूप (समान-रूप से) हसिस्सं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१५७ से मूल प्राकृत 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'हसि' में सूत्र-संख्या ३-१६९ से भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त सूत्रों के कथित प्राप्तव्य प्राकृत-प्रत्ययों के स्थान पर 'स्सं प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर हसिस्सं रूप सिद्ध हो जाता है।
कीर्तयिष्यामि संस्कृत का भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार का तृतीय पुरुष के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप कित्तइस्सं और कित्तइहिमि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७९ से'त' में स्थित रेफ रूप 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए रेफ रूप 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-८४ से आदि वर्ण 'की' में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर आगे प्राप्त संयुक्त व्यंजन 'त्त' का सद्भाव होने के कारण से हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'यि' वर्ण में स्थित 'य' व्यञ्जन का लोप; इस प्रकार संस्कृत-अंग रूप 'कीर्तयि' से प्राकृत में प्राप्तांग 'कित्तइ' में ३-१६९ से भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ष्यामि' के स्थान पर प्राकृत में प्रत्ययों के स्थान पर 'स्सं प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर कित्तइस्सं रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-१६६ से प्राकृत रूप के समान ही प्राप्तांग 'कित्तई' में भविष्यत्काल सूचक प्राप्त प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१४१ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'कित्तइहि' में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कित्तइहिमि रूप भी सिद्ध हो जाता है। ३-१६९।।
कृ-दो-हं ॥३-१७०।। करोतेर्ददातेश्च परो भविष्यति विहितस्य म्यादेशस्य स्थाने हं वा प्रयोक्तव्यः॥ काह। दाह। करिष्यामि दास्यामीत्यर्थः।। पक्षे। काहिमि। दाहिमि। इत्यादि।। ___ अर्थः- संस्कृत भाषा में पाई जाने वाली धातु 'कृ' और 'दा' के प्राकृत-रूपान्तर 'का' तथा 'दा' में भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्त प्राकृत-प्रत्यय 'हि' आदि के परे रहने पर तथा तृतीय पुरुष के एक-वचन-बोधक प्रत्यय 'मि' के परे रहने पर कभी-कभी वैकल्पिक रूप से ऐसा होता है कि उक्त भविष्यत्काल-द्योतक प्रत्यय 'हि' आदि के स्थान पर और उक्त पुरुष-बोधक प्रत्यय 'मि' के स्थान पर अर्थात् दोनों ही प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर उक्त दोनों धातुओं में केवल 'ह' प्रत्यय की ही आदेश प्राप्ति होकर भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन का अर्थ प्रकट हो जाता है। यों प्राकृत धातु का अथवा 'दा' में रहे हुए भविष्यत्काल-द्योतक प्रत्यय 'हि' आदि का भी लोप हो जाता है और तृतीय पुरुष के एकवचन-अर्थक प्रत्यय 'मि' का भी लोप हो जाता है; तथा दोनों ही प्रकार के इन लुप्त प्रत्ययों के स्थान पर केवल एक ही प्रत्यय 'ह' की ही आदेश प्राप्ति होकर तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में भविष्यत्काल का रूप इन धातुओं का तैयार हो जाता है। जैसे:- करिष्यामि अथवा कर्तास्मि-काह=मैं करूँगा अथवा मैं करता रहूंगा; चूँकि यह विधान वैकल्पिक स्थित वाला है अतएव पक्षान्तर में 'काहिमि' आदि रूपों का भी निर्माण हो सकेगा। 'दा' धातु का उदाहरण इस प्रकार है:दास्यामि अथवा दातास्मि-दाहं मैं देऊँगा अथवा मैं देता रहूंगा। पक्षान्तर में वैकल्पिक स्थिति होने के कारण 'दाहिमि' रूप का भी सद्भाव होगा। यह सूत्र केवल प्राकृत धातु 'का' ओर 'दा' के भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन के सम्बन्ध में ही बनाया गया है। ___करिष्यामि और कर्तास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के एकवचन
के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान रूप से) काहं और काहिमि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२१० से मूल संस्कृत-धातु 'कृ' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर प्राकृत में 'का' अङ्ग-रूप की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम-रूप में सूत्र-संख्या ३-१७० से प्राप्तांग 'का' में भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त सूत्रों के कथित प्रत्यय 'हि' और 'मि' दोनों के ही स्थान पर 'ह' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर 'काहं' रूप सिद्ध हो जाता है।
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206 : प्राकृत व्याकरण
द्वितीय रूप 'काहिमि' में 'का' अङ्ग रूप की प्राप्ति प्रथम रूप के समान ही होकर सूत्र-संख्या ३-१६६ से प्राप्तांग 'का' में भविष्यत्काल-सूचक प्राप्त प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१४१ से भविष्यत-काल के अर्थ में प्राप्तांग 'काहि' में ततीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर काहिमि रूप भी सिद्ध हो जाता है।
दास्यामि और दातास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान-रूप से) दाहं और दाहिमि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१७० से मूल प्राकृत धातु 'दा' में भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त सूत्रों में (३-१६६ और ३-१४१ में) कथित प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' और 'मि' दोनों के ही स्थान पर 'ह' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर दाहं रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय-रूप 'दाहिमि' में सूत्र-संख्या ३-१६६ से प्राप्तांग 'दा' में भविष्यत्काल-सूचक प्राप्त प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-४१ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'दाहि' में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दाहिमि रूप भी सिद्ध हो जाता है।।३-१७०।। श्रु-गमि-रुदि-विदि-दृशि-मुचि-वचि-छिदि-भिदि-भुजां सोच्छं गच्छं रोच्छं
वेच्छं दच्छं मोच्छं बोच्छं छेच्छं भेच्छं भोच्छं ।। ३-१७१।। श्रादीनां धातूनां भविष्यद्विहितम्यन्तानां स्थाने सोच्छमित्यादयो निपात्यन्ते। सोच्छं। श्रोष्यामि।। गच्छं। गमिष्यामि।। संगच्छं। संगस्ये। रोच्छं। रोदिष्यामि।। विद ज्ञाने। वेच्छं। वेदिष्यामि।। दच्छं। द्रक्ष्यामि।। मोच्छ। मोक्ष्यामि। वोच्छं। वक्ष्यामि।। छेच्छं। छेत्स्यामि।। भेच्छं। भेत्स्यामि। भोच्छं। भोक्ष्ये।।। ___ अर्थः- संस्कृत-भाषा की इन दस (अथवा ग्यारह) धातुओं श्रृ, गम्, (संगम), रूद्, विद्, दृश, मुच्, वच्, छिद्, भिद्, और भुज् के प्राकृत-रूपान्तर में भविष्यत्कालबोधक प्रत्यय के स्थान पर और तृतीय पुरुष के एकवचनार्थक प्रत्यय के स्थान पर रूढ़ रूप की प्राप्ति होती है और इसी रूढ़ रूप से ही भविष्यत्कालवाचक तृतीय पुरुष के एकवचन का अर्थ प्रकट हो जाता है। इस प्रकार से प्राप्त रूढ रूपों में न तो भविष्यत्काल-बोधक प्रत्यय 'हिस्सा-अथवा हा' की ही आवश्यकता होती है और न तृतीय पुरुष के एकवचनार्थक प्रत्यय 'मि' की ही आवश्यकता पड़ती है। इस विधि से प्राप्त ये रूप 'निपात' कहलाते हैं। उपर्युक्त संस्कृत भाषा की इन दस (अथवा ग्यारह) धातुओं के प्राकृत-रूपान्तर में भविष्यत्काल-बोध
क-अवस्था में पाये जाने वाले रूढ़ रूप में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में केवल अनुस्वार की प्राप्ति होकर भविष्यत्काल अर्थक तृतीय पुरुष के एकवचन का रूढ़ रूप बन जाता है। जैसे:- (१) श्रोष्यामि-सोच्छं-मैं सुनूँगा; (२) गमिष्यामि गच्छं=मैं जाऊँगा; (३) संग्रस्ये-संगच्छं-मैं स्वीकार करूँगा अथवा मैं मेल रक्खूगा; (४) रोदिष्यामि रोच्छं-मैं रोऊँगा; (५) वेदिष्यामि-वेच्छं-मैं जानूंगा; (६) द्रक्ष्यामि-दच्छं=मैं देखूगा; (७) मोक्ष्यामि=मोच्छं=मैं छोडूंगा; (८) वक्ष्यामि-वोच्छं-मैं कहूँगा; (९) छेत्स्यामि छेच्छं-मैं छेदूंगा; (१०) भेत्स्यामि=भेच्छं-मैं भेदूंगा और (११) भोक्ष्ये भोच्छं-मै खाऊंगा। उपर्युक्त धात्वादेश स्थिति केवल भविष्यत्काल के लिये ही होती है। इसी विषयक विशेष विवरण सूत्र-संख्या ३-१७२ में दिया जाने वाला है।
श्रोष्यामि संस्कृत का सकर्मक रूप है। इसका प्राकृत-रूपान्तर सोच्छं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से सम्पूर्ण संस्कृत पद श्रोष्यामि के स्थान पर प्राकृत में सोच्छं रूप की आदेश प्राप्ति होकर भविष्यत्काल-अर्थक तृतीय पुरुष के एकवचन का बोधक रूप सोच्छं सिद्ध हो जाता है।
गमिष्यामि संस्कृत का भविष्यत्काल अर्थक तृतीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूपांतर गच्छं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से संपूर्ण संस्कृत पद गामिष्यामि के स्थान पर प्राकृत में 'गच्छं' रूप सिद्ध हो जाता है। __संगस्ये संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूप संगच्छं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से संस्कृत पद
के स्थान पर प्राकृत-पद की आदेश प्राप्ति होकर संगच्छं पद की सिद्धि हो जाती है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 207 रोदिष्यामि संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर रोच्छं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से सम्पूर्ण-पद के स्थान पर प्राकृत-पद की आदेश प्राप्ति होकर रोच्छं रूप की सिद्धि हो जाती है। __इसी प्रकार से शेष सात प्राकृत-रूपों में वेच्छं, दच्छं, मोच्छं, वोच्छं, छेच्छं, भेच्छं और भोच्छं भी सूत्र-संख्या ३-१७१ से ही सस्कृत सम्पूर्ण क्रियापदों के रूपों की क्रमिक रूढ-रूपात्मक आदेश प्राप्ति होकर क्रम से ये प्राकृत क्रियापद के रूप स्वयमेव और अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं। ३-१७१।।
सोच्छादय इजादिषु हि लुक् च वा।। ३-१७२।। श्वादीनां स्थाने इजादिषु भविष्यदादादेशेषु यथासंख्यं सोच्छादयो भवन्ति। ते एवादेशा अन्त्य स्वराद्यवयवर्जा इत्यर्थः। हिलुक् च वा भवति।। सोच्छिइ। पक्षे। सोच्छिहिइ। एवं सोच्छिन्ति। सोच्छिहिन्ति। सोच्छिसि। सोच्छिहिसि। सोच्छित्था। सोच्छिहित्था। सोच्छिह। सोच्छिहिह। सोच्छिमि। सोच्छिहिमि। सोच्छिस्सामि। सोच्छिहामि। सोच्छिस्स। सोच्छं। सोच्छिमो। सोच्छिहिमो। सोच्छिसामो। सोच्छिहामो। सोच्छिहिस्सा। सोच्छिहित्था। एवं मुमयोरपि। गच्छि।। गच्छिहिइ। गच्छिन्ति। गच्छिहिन्ति। गच्छिसि। गच्छिहिसि। गच्छित्था। गच्छिहित्था। गच्छिह। गच्छिहिह। गच्छिमि। गच्छिहिमि। गच्छिस्सामि। गच्छिहामि। गच्छिस्सं। गच्छं। गच्छिमो। गच्छिहिमो। गच्छिस्सामो। गच्छिहामो। गच्छिहिस्सा। गच्छिहित्था। एवं मुमयोरपि।। एवं रूदादीनामप्युदाहार्यम्।। ___ अर्थः- सूत्र-संख्या ३-१७१ में जिन संस्कृत धातुओं के प्राकृत-रूपान्तर भविष्यत्कालवाचक अवस्था के अर्थ में रूढ रूप से प्रदान किये गये हैं; उन रूढ रूपों में वर्तमानकालद्योतक पुरुष बोधक प्रत्ययों की संयोजना करने से उसी पुरुष बोधक अर्थ की अभिव्यंजना भविष्यत्काल के अर्थ में प्रकट हो जाती है। वैकल्पिक रूप से कभी-कभी उन रूढ रूपों के आगे भविष्यत कालबोधक-प्रत्यय 'हि' की अथवा तृतीय पुरुष के सद्भाव में 'स्सा, हा' की अथवा 'हिस्सा, हित्था' की प्राप्ति भी होती है। तत्पश्चात् पुरुष बोधक प्रत्ययों की जोड़ क्रिया की जाती है। सारांश यह है कि इन रूढ़ रूपों में भविष्यतकाल बोधक मूल प्रत्यय 'हि' का वैकल्पिक रूप से लोप होता है। शेष सम्पूर्ण क्रिया भविष्यत् के प्रदर्शन के अर्थ में अन्य धातुओं के समान ही इन रूढ प्राप्त धातु रूपों के लिये भी जानना चाहिये। उदाहरण इस प्रकार हैं-श्रोष्यति सोच्छिइ-वह सुनेगा। पक्षान्तर में भविष्यत्काल अर्थक प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति होने पर। श्रोष्यति का प्राकृत-रूपांतर 'सोच्छिहिइ''वह सनेगा' ऐसा ही होगा। प्रथमपुरुष के बहुवचन का दृष्टान्तः-श्रोष्यन्ति-सोच्छिन्ति और पक्षान्तर में सोच्छिहिन्ति-वे सुनेंगे। द्वितीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्त :-श्रोष्यसि सोच्छिमि और पक्षान्तर में सोच्छिहिसि-तू सुनेगा। द्वितीय पुरुष के बहवचन का दृष्टांत :-श्रोष्यथ-सोच्छित्था और सोच्छिह: पक्षान्तर में सोच्छिहित्था और सोच्छिाहिह-तम सुनोगे। तृतीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः- श्रोष्यामि सोच्छिमि; पक्षान्तर में- सोच्छिहिमि, सोच्छिस्सामि, सोच्छिहामि, सोच्छिस्सं और सोच्छं-मैं सुनूँगा। तृतीय पुरुष के बहुवचन का दृष्टान्तः- श्रोष्यामः सोच्छिहिमो; पक्षान्तर में-सोच्छिम्सामी, सोच्छिहामो, सोच्छिहिस्सा, सोच्छिहित्था; सोच्छिहिमु और सोच्छिस्सामु तथा सोच्छिहामु; सोच्छिहिम और सोच्छिस्साम तथा सोच्छिहाम-हम सुनेंगे। इसी सिद्धान्त की संपुष्टि ग्रन्थकार पुनः 'गम् गच्छ' धातु द्वारा करते हैं:- प्रथमपुरुष के एकवचन का दृष्टान्त-गमिष्यति=गच्छिइ; पक्षान्तर में गच्छि-हिइ-वह जावेगा। प्रथमपुरुष के बहुवचन का दृष्टान्तःगमिष्यन्ति गच्छिन्ति; पक्षान्तर में गच्छिहिन्ति वे जावेंगे। द्वितीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः- गमिष्यसि-गच्छिसि; पक्षान्तर में गच्छिहिसि-तू जावेगा। द्वितीय पुरुष के बहुवचन का दृष्टान्तः- गमिष्यथ-गच्छित्था और गच्छिह; पक्षान्तर में गच्छिहित्था
और गच्छिहिह-तुम जाओगे। तृतीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः- गमिष्यामि गच्छिमि; पक्षान्तर में गच्छिहिमि, गच्छिस्सामि, गच्छिहामि, गच्छिस्सं और गच्छं-मैं जाऊँगा। तृतीय पुरुष के बहुवचन का दृष्टान्तः- गमिष्यामः-गच्छिमो; पक्षन्तर में गच्छिहिमो, गच्छिस्सामो, गच्छिहामो, गच्छिहिस्सा, गच्छिहित्था; गच्छिहिमु, गच्छिस्सामु, गच्छिहामु, गच्छिहिम, गच्छिस्साम और गच्छिहाम-हम जावेंगे। इसी प्रकार से शेष रही हुई उपर्युक्त धातुओं के भी रूप स्वयमेव समझ लेने चाहिये।
उपर्युक्त उदाहरणों में कुछ एक पुरुष बोधक प्रत्ययों से सम्बन्धित उदाहरण वृत्तिकार ने नही दिये हैं; उन्हें स्वयमेव जान लेना चाहिये; वे प्रत्यय इस प्रकार हैं:- ए, न्ते, इरे और से।
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208 : प्राकृत व्याकरण
श्रोष्यति संस्कृत के भविष्यत्काल प्रथमपुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप सोच्छिइ और सोच्छिहिइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से मूल संस्कृत धातु 'श्रु' के स्थान पर प्राकृत में भविष्यत्काल के प्रयोगार्थ सोच्छ' की आदेश प्राप्ति; ३-१५७ से प्राप्तांग 'सोच्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत्काल बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ३-१६६ से द्वितीय रूप में प्राप्तांग 'सोच्छि' में भविष्यत्काल के बोधनार्थ हि' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१७२ से प्रथम रूप में भविष्यत्काल बोधक प्राप्त प्रत्यय 'हि' का वैकल्पिक रूप से
और ३-१२९ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्तांग 'सोच्छि और सोच्छिहि' में प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में प्रत्यय 'इ' की प्राप्ति होकर सोच्छिड और सोच्छिहिइ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
श्रोष्यन्ति संस्कृत के भविष्यत्काल प्रथमपुरुष के बहुवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है इसके प्राकृत रूप सोच्छिन्ति और सोच्छिहिन्ति होते हैं इनमें सोच्छि और साच्छिहि अंग रूपों की प्राप्ति उपर्युक्त एकवचनात्मक रूपों के समान ही जानना चाहिये; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४२ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्तांग ‘सोच्छ ओर सोच्छिहि' में प्रथमपुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'न्ति' की प्राप्ति होकर सोच्छिन्ति और सोच्छिहिन्ति रूप सिद्ध हो जाते हैं।
श्रोष्यसि संस्कृत के भविष्यत्काल द्वितीय पुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप सोच्छिसि और सोच्छिहिसि होते हैं। इनमें 'सोच्छि और सोच्छिहि' अंग रूपों की प्राप्ति प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में वर्णित उपर्युक्त सूत्र-संख्या ३-१७१; ३-१५७;३-१६६ और ३-१७२ से जानना चाहिये, तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४० से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्तांग 'सोच्छि ओर सोच्छिहि' में द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप सोच्छिसि और सोच्छिहिसि सिद्ध हो जाते हैं। ___ श्रोष्यथ संस्कृत के भविष्यत्काल अर्थक द्वितीय पुरुष के बहुवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूप सोच्छित्था सोच्छिह, सोच्छिहित्था, सोच्छिहिह होते हैं। इनमें 'सोच्छि और सोच्छिहि' मूल अंग-रूपों की प्राप्ति प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में वर्णित उपर्युक्त सूत्र-संख्या ३-१७१;३-१५७,३-१६६ और ३-१७२ से जानना चाहिये; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४३ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्तांग 'सोच्छि और सोच्छिहि' में द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में क्रम से प्राप्त प्रत्यय 'इत्था और ह' की चारों अंगों में प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप-'सोच्छित्था; सोच्छिह, सोच्छिहित्था और सोच्छिहिह' सिद्ध हो जाते हैं। यह विशेषता और ध्यान में रहे कि सूत्र-संख्या १-१० से प्राप्त प्रत्यय 'इत्था' के पूर्वस्थ स्वर 'इ' का लोप हो जाता है। तत्पश्चात् रूप निर्माण होता है।
श्रोष्यामि संस्कृत के भविष्यत्काल तृतीय पुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूप सोच्छिमि, सोच्छिहिमि, सोच्छिस्सामि, सोच्छिहामि, सोच्छिस्सं ओर सोच्छं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से मूल संस्कृत धातु 'श्रु' के स्थान पर प्राकृत में भविष्यत्काल के प्रयोगर्थक 'सोच्छ' की आदेश प्राप्ति; ३-१५७ से प्रथम रूप से लगाकर पाँचवें रूप तक प्राप्त प्राकृत-शब्द 'सोच्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ३-१६६ और ३-१६७ से द्वितीय रूप, तृतीय रूप और चतुर्थ रूप में पूर्वोक्त रीति से प्राप्तांग 'सोच्छि' में भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हि' स्सा और हा' की क्रम से प्राप्ति; ३-१७२ से प्रथम रूप में भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हि' का लोप और ३-१४१ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्त प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपांग-'सोच्छि, सोच्छिहि, सोच्छिस्सा और सोच्छिहा' में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' की प्राप्ति होकर क्रम से प्रथम चार रूप 'सोच्छिमि सोच्छिहीमि, सोच्छिस्सामि और सोच्छिहामि' सिद्ध हो जाते हैं।
पंचम रूप सोच्छिस्सं में मूल प्राकृत अंग 'सोच्छि' की प्राप्ति उपर्युक्त चार रूपों में वर्णित विधि-विधानानुसार जानना चाहिये; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'सोच्छि' में सूत्र-संख्या ३-१६९ से भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन के भाव में केवल 'स्सं प्रत्यय की ही प्राप्ति होकर एवं शेष सभी एतदर्थक प्राप्त प्रत्ययों का अभाव होकर पंचम रूप-'सोच्छिस्सं' सिद्ध हो जाता है।
छटे रूप 'सोच्छं' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१७१ में की गई है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 209 श्रोष्यामः संस्कृत के भविष्यत्काल तृतीय पुरुष के बहुवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप यहाँ पर केवल छह ही दिये गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- १-सोच्छिमो, २ सोच्छिहिमो, ३ साच्छिस्सामो, ४ सोच्छिहामो, ५ सोच्छिहिस्सा और ६ सोच्छिहित्था। इनमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से मूल संस्कृत-धातु 'श्रु' के स्थान पर प्राकृत में भविष्यत्काल के प्रयोगार्थक सोच्छं रूप की आदेश-प्राप्ति; ३-१५७ से प्राप्तांग 'सोच्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत-कालवाचक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपों में सूत्र- संख्या ३-१६६ और ३-१६७ से क्रमशः भविष्यत-कालवाचक प्रत्यय 'हि, स्सा और हा' की प्राप्ति; ३-१७२ से प्रथम रूप में भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हि' का अथवा स्सा' और हा' की प्राप्ति; ३-१७२ से प्रथम रूप में भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हि' का अथवा 'स्सा' का अथवा 'हा' का वैकल्पिक रूप से लोप; अन्त में सूत्र-संख्या ३-१४४ से उपर्युक्त रीति से भविष्यत्-अर्थ में प्राप्तांग 'सोच्छि, सोच्छिहि, सोच्छिस्सा और सोच्छिहा' में तृतीय पुरुष में बहुवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति होकर क्रम से प्रथम चार रूप 'सोच्छिमो, सोच्छिहिमो, सोच्छिस्सामो
और सोच्छिहामो सिद्ध हो जाते हैं। ___ पाँचवें और छटे रूप 'सोच्छिहिस्सा तथा सोच्छिहित्था में मूल अङ्ग 'सोच्छि' की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-विधानों के अनुसार ही होकर सूत्र-संख्या ३-१६८ से भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के बहुवचन के सद्भाव में केवल क्रम से 'हिस्सा तथा हित्था' प्रत्ययों की ही प्राप्ति एवं शेष सभी एतदर्थक प्राप्त प्रत्ययों का अभाव होकर क्रम से पाँचवाँ और छट्ठा रूप 'सोच्छिहिस्सा और सोच्छिहित्था' भी सिद्ध हो जाते हैं। ___ गमिष्यति संस्कृत के भविष्यत्काल प्रथमपुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूप गच्छिइ और गच्छिहिइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से मूल संस्कृत धातु 'गम्' के स्थान पर प्राकृत में भविष्यत्काल के प्रयोगार्थ 'गच्छ' रूप की आदेश प्राप्ति; ३-१५७ से प्राप्तांग 'गच्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ३-१६६ से द्वितीय रूप में प्राप्तांग 'गच्छि' में भविष्यत्काल के बोधनार्थ 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१७२ से प्रथम-रूप में भविष्यत्काल-बोधक प्राप्त प्रत्यय 'हि' का वैकल्पिक रूप से लोप और ३–१३९ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्तांग ‘गच्छि' और 'गच्छिहि' में प्रथम-पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' की संप्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'गच्छिइ और गच्छिहिइ' सिद्ध हो जाते हैं। ___ गमिष्यन्ति संस्कृत के भविष्यत्काल प्रथमपुरुष के बहुवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप गच्छिन्ति और गच्छिहिन्ति होते हैं। इनमें भविष्यत्काल के अर्थ में मूल अंग रूप 'गच्छि और गच्छिहि' की उपर्युक्त एकवचन के अर्थ में प्राप्तांग रूपों के समान ही होकर इनमें सत्र-संख्या ३-१४२ से प्रथमपरुष के बहवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'न्ति' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप गच्छिन्ति और गच्छिहिन्ति सिद्ध हो जाते हैं। ___ गमिष्यसि संस्कृत के भविष्यत्काल द्वितीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक-क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप गच्छिसि और गच्छिहिसि होते हैं। इनमें भविष्यत्काल-अर्थक अंग रूपों की प्राप्ति प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में वर्णित उपर्युक्त सूत्र-संख्या ३-१७१; ३-१५७; ३-१६६ और ३-१७२ से जानना चाहिये; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४० से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्तांग 'गच्छि और गच्छिहि' में द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' की प्राप्ति होकर गच्छिसि और गच्छिहिसि रूप सिद्ध हो जाते है। ___ गमिष्यथ संस्कृत के भविष्यत्काल द्वितीय पुरुष के बहुवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप गच्छित्था, गच्छिह, गच्छिहित्था और गच्छिहिह होते हैं। इनमें भविष्यत्काल-द्योतक अंग रूप 'गच्छि और गच्छिहि' की प्राप्ति इसी सूत्र में ऊपर वर्णित प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में कथित सूत्र-संख्या-३-१७१, ३-१५७, ३-१६६ और ३-१७२ से जानना चाहिए; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४३ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्तांग 'गच्छि और गच्छिहि' में द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में क्रम से प्राप्त प्रत्यय 'इत्था और ह' की चारों अंगों में प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप गच्छित्था, गच्छिह, गच्छिहित्था और गच्छिहिह सिद्ध हो जाते हैं। इनमें इतनी और विशेषता जानना चाहिये कि
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210 प्राकृत व्याकरण
प्रथम और तृतीय रूपों में ' इत्था' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर सूत्र - संख्या १ - १० से अंग रूप 'गच्छि और गच्छिहि' में स्थित अन्त्य 'इ' के आगे प्राप्त ' इत्था' प्रत्यय में स्थित आदि स्वर 'इ' का सद्भाव होने के कारण से लोप हो जाता है।
गमिष्यामि संस्कृत के भविष्यत्काल तृतीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप गच्छिमि, गच्छिहिमि, गच्छिस्सामि, गच्छिहामि, गच्छिस्सं और गच्छं होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३ - १७१ से मूल संस्कृत धातु 'गम्' के स्थान पर प्राकृत में भविष्यत्काल के प्रयोगार्थ 'गच्छ' की आदेश प्राप्ति; ३ - १५७ से प्रथम रूप से लगाकर पाँचवें रूप तक प्राप्त प्राकृत शब्द 'गच्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ३ - १६६ और ३- १६७ से द्वितीय रूप; तृतीय रूप और चतुर्थ रूप में पूर्वोक्त ि से प्राप्तांग 'गच्छि' में भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हि, स्सा, और हा' की क्रम से प्राप्ति; ३ - १७२ से प्रथम रूप में भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हि, स्सा, अथवा हा' का लोप और ३- १४१ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्त प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपांग गच्छि, गच्छिहि, गच्छिस्सा और गच्छिहां में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' की प्राप्ति होकर क्रम से प्रथम चार रूप गच्छिमि, गच्छिहिमि, गच्छिस्सामि और गच्छिहामि सिद्ध हो जाते हैं।
गच्छस्सं में मूल प्राकृत- अंग 'गच्छि' की प्राप्ति उपर्युक्त चार रूपों में वर्णित विधि-विधानानुसार जानना चाहिये। तत्पश्चात् प्राप्तांग 'गच्छि' में सूत्र - संख्या ३ - १६९ से भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में केवल 'स्सं' प्रत्यय की ही प्राप्ति होकर शेष सभी एतदर्थक प्रत्ययों का अभाव होकर पंचम रूप गच्छिस्सं सिद्ध हो जाता है।
छट्ठे रूप 'गच्छं' की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - १७१ में की गई है।
गमिष्यामः संस्कृत के भविष्यत्काल तृतीय पुरुष के बहुवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप यहां पर केवल छह ही दिये गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- १ गच्छिमो, २ गच्छिहिमो, ३ गच्छिस्सामो, ४ गच्छिहामो, ५ गच्छिहिस्सा और ६ गच्छिहित्था । इनमें प्राकृत रूपांग 'गच्छि' की प्राप्ति इसी सूत्र में उपर्युक्त तृतीय- पुरुष के एकवचन
अर्थ में वर्णित सूत्र - संख्या ३ - १७१ तथा ३ - १५७ से जान लेना चाहिये; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'गच्छि' में सूत्र - संख्या ३--१६६ और ३- १६७ से 'हि स्सा और हा' की क्रम से प्राप्ति; ३- १७२ से प्रथम रूप में भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हि अथवा स्सा अथवा हा' का लोप; और ३- १४४ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्त प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपांग 'गच्छि, गच्छिहि, गच्छिस्सा और गच्छिहा' में तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति होकर क्रम से प्रथम चार रूप 'गच्छिमो, गच्छिहिमो, गच्छिस्सामो और गच्छिहामो' सिद्ध हो जाते हैं।
गच्छिहिस्सा और गच्छिहित्था में मूल अङ्ग 'गच्छि' की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-विधानों के अनुसार ही होकर सूत्र - संख्या ३-१६८ से भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के बहुवचन के सद्भाव में केवल क्रम से 'हिस्सा तथा हित्था' प्रत्ययों की ही प्राप्ति होकर एवं शेष सभी प्रत्ययों का अभाव होकर क्रम से पाँचवाँ तथा छट्टा रूप 'गच्छिहिस्सा और गच्छिहित्था ' भी सिद्ध हो जाते हैं । । ३ - १७२ ।।
दुसुमु विध्यादिष्वेकस्मिंस्त्रयाणाम् ।।३ - १७३ ।।
विध्यादिष्वर्थेषूत्पन्नानामेकेत्वेर्थे वर्तमानानां त्रयाणामपि त्रिकाणां स्थाने यथासंख्यं दु सु मु इत्येते आदेशा भवन्ति ।। हसउ सा । हससु तुमं । हसामु अहं । । पेच्छउ । पेच्छसु। पेच्छामु । दकारोच्चारणं भाषान्तरार्थम्॥
अर्थः- संस्कृत में प्राप्त आज्ञार्थक विधिअर्थक और आशीषर्थक-भाव के बोधक पृथक्-पृथक् प्रत्यय पाये जाते हैं; परन्तु प्राकृत भाषा में उपर्युक्त तीनों प्रकार के लकारों के प्रत्यय एक जैसे ही होते हैं; तदनुसार प्राकृत भाषा: उक्त-लकारों के ज्ञानार्थ प्राप्त प्रत्ययों का विधान इस सूत्र में किया गया है। प्राकृत भाषा के व्याकरण की रचना करने वाले विद्वान् महानुभाव उपर्युक्त तीनों प्रकार के लकारों के अर्थ में अलग-अलग रूप से प्राप्तव्य प्रत्ययों का विधान नहीं करके एक प्रकार के प्रत्ययों का विधान कर देते हैं; ऐसी परिस्थिति में वाचक अथवा पाठक की बुद्धि का ही यह कर्तव्य रहा जाता
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 211 है कि वह समयानुसार तथा सम्बन्धानुसार विचार करके यह निर्णय करले कि-यहां पर क्रियापद में प्रदत्त लकार आज्ञार्थक है अथवा विधिअर्थक है अथवा आशीषर्थक है। इस सूत्र में उपर्युक्त लकारों के अर्थ में प्राप्तव्य एकवचन-बोधक प्रत्ययों का क्रम से विधान किया गया है; जो कि इस प्रकार है:
प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में दु-उ' की प्राप्ति होती है।
द्वितीय पुरुष के एकवचन में सद्भाव में 'सु' प्रत्यय आता है और तृतीय पुरुष के एकवचन के अस्तित्व में 'मु' प्रत्यय की संयोजना की जाती है। यों तीनों प्रकार के पुरुषों के एकवचन के अर्थ में उपर्युक्त तीनों लकारों में से किसी भी लकार के प्रकटीकरण में क्रमशः :उ, सु, मु' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- प्रथमपुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः- सा हसतु अथवा सा हसेत् अथवा सा हस्यात-हसउ सा-वह हँसे। द्वितीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः- त्वम् हस अथवा त्वम् हसतात्ः त्वम् हसे; त्वम् हस्याः-तुमं हससु-तू हँसा तृतीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तःअहम् हसानि; अहम् हसेयम्; अहम् हस्यासम् अहं हसामु=मैं हंतूं। उपर्युक्त लकारों के विधि-विधान की संपुष्टि के लिये दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- प्रथमपुरुष के एकवचन का दृष्टांत (स) पश्यतु; (स) पश्येत्; (स) दृश्यात्- (स) पेच्छउ-वह देखे। अथवा वह दर्शनीय बने। द्वितीय-पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः-(त्वम्) पश्य अथवा (त्वम्) पश्यतात्; (त्वम्) पश्येः; (त्वम्) द्दश्याः - (तुम) पेच्छसु-तू देख अथवा तू दर्शनीय बन (अथवा, तू दर्शनीय हो); तृतीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः(अहम्) पश्यानि; (अहम्) पश्येम; (अहम्) दृश्यासम्=(अहम्) पेच्छामु-मैं देखू अथवा देखने योग्य बनें।
लोट्लकार का प्रयोग मुख्यतः 'आज्ञा, निमंत्रण, प्रार्थना, उपदेश और आशीर्वाद' आदि अर्थों में होता है। जबकि लिङ्लकार का उपयोग 'सम्भव, आज्ञा, निवेदन, प्रार्थना, इच्छा, आशीर्वाद, आशा तथा शक्ति' आदि अर्थों में हुआ करता है।
प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'उ' है; परन्तु सूत्र में 'उ' नहीं लिखकर 'दु' का उल्लेख करने का तात्पर्य केवल उच्चारण की सुविधा के लिये है। जैसा कि यही अर्थ सूत्र की वृत्ति में प्रदत्त भाषान्तरार्थम्' पद से अभिव्यक्त किया गया है।
हसतु, हसेत् और हस्यात् संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषार्थक के प्रथमपुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप हसउ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त प्राकृत धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१७३ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में प्रथमपुरुष के एकवचन के सद्भाव में प्राकृत में 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसउ रूप सिद्ध हो जाता है।
'सा' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-३३ में की गई है।
हस अथवा हसतात, हसेः और हस्याः संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और अशीषार्थक के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप हससु होता है। इनमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त प्राकृत धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१७३ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हस' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में प्राकृत में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हससु रूप सिद्ध हो जाता है।
'तुम' सर्वनाम की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-९० में की गई है।
हसानि, हसेयम् और हस्यासम् संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक के तृतीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप हसामु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त प्राकृत धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५५ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१७३ से प्राकत में प्राप्तांग 'हसा' के उक्त तीनों लकारों के अर्थ में ततीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में प्राकृत में 'मु प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसामु रूप सिद्ध हो जाता है।
'अहं' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१०५ में की गई है।
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212 : प्राकृत व्याकरण __ पश्यतु, पश्येत् और दृश्यात् संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक के प्रथमपुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप पेच्छउ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१८१ से मूल संस्कृत-धातु 'दृश' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१७३ से आदेश-प्राप्त प्राकृत धातु 'पेच्छ' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में प्रथमपुरुष के एकवचन के सद्भाव में प्राकृत में केवल 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेच्छउ रूप सिद्ध हो जाता है।
पश्य, पश्यतात्, पश्येः और दृश्याः संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक लिङ् के द्वितीय पुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक रूप पेच्छसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१८१ से मूल संस्कृत धातु 'दृश' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ' की आदेश प्राप्ति और ३-१७३ से आदेश प्राप्त प्राकृत धात् 'पेच्छ' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवचन के सदभाव में प्राकृत में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेच्छसु रूप सिद्ध हो जाता है। ___ पश्यानि, पश्येयम् और दृश्यासम् संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक के तृतीय पुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप पेच्छामु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१८१ से मूल संस्कृत धातु 'दृश्' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ' की आदेश प्राप्ति; ३-१५५ से आदेश प्राप्त धातु 'पेच्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१७३ से प्राकृत में प्राप्तांग 'पेच्छा' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में प्राकृत में 'मु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेच्छामु रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१७३।।
सोर्हिा ।। ३-१७४।। पूर्वसूत्रविहितस्य सोः स्थाने हिरादेशो वा भवति।। देहि। देसु।।
अर्थः- आज्ञार्थक अर्थात् लोट-लकार के; विधिअर्थक अर्थात् लिङ्लकार के और आशीषर्थक लिङ्लकार के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत में सूत्र-संख्या ३-१७३ में जिस 'सु' प्रत्यय का विधान किया गया है, उस प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'हि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। इस प्रकार से प्राकृत भाषा में उक्त तीनों प्रकार के लकारों के द्वितीय-पुरुष के एकवचन के सद्भाव में दो प्रत्ययों की प्राप्ति हो जाती है; जो कि इस प्रकार हैं:- (१) 'सु' और (२) 'हि'। मुख्य प्रत्यय तो 'सु' ही है; किन्तु वैकल्पिक रूप से इस 'हि' प्रत्यय की भी उक्त 'सु' प्रत्यय के स्थान पर आदेश प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- देहि, (=दत्तात्); दद्या और देयाः-देहि और देसु-तू दे; तू देने वाला हो और तू देने योग्य (दाता) हो। इस प्रकार से अन्य प्राकृत धातुओं में भी तीनों प्रकार के लकारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में सूत्र-संख्या ३-१७३ से प्राप्त प्रत्यय 'सु' के स्थान पर 'हि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से की जा सकता है।
देहि, दत्तात, दद्याः और देया संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक, और आशीषर्थक द्वितीय पुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से दो रूप-'देहि और देसु' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२३८ से मल प्राकत धात 'दा' में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्राकृत में प्राप्तांग 'दे' में क्रम से सूत्र-संख्या ३-१७४ से तथा ३-१७३ से उक्त तीनों प्रकार के लकारों के द्वितीय-पुरुष के एकवचन के सद्भाव में क्रम से 'हि' और 'सु' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर 'देहि' और 'देसु' रूप सिद्ध हो जाते हैं। ३-१७४।।
अत इज्ज-स्विज्ज-हिज्जे-लको वा।। ३-१७५।। अकारात्परस्य सोः इज्जसु इज्जहि इज्जे इत्येते लुक् च आदेशा वा भवन्ति।। हसेज्जसु। हसेज्जहि। हसेज्जे। हस। पक्षे। हससु।। अत इति किम्। होसु।। ठाहि।।
अर्थः- आज्ञार्थक, विध्यर्थक और आशीषर्थक के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत में सूत्र-संख्या ३-१७३ में जिस 'सु' प्रत्यय का विधान किया गया है उस प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर केवल अकारान्त धातुओं में ही वैकल्पिक
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 213 रूप से ‘इज्जसु अथवा इज्जहि अथवा इज्जे' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। इस प्रकार से प्राकृत भाषा में क् कारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में केवल अकारान्त धातुओं में चार प्रत्ययों की प्राप्ति हो जाती है। जो कि इस प्रकार है:- (१) 'सु', (२) इज्जसु; (३) इज्जहि और (४) इज्जे । मुख्य प्रत्यय तो 'सु' ही है; किन्तु वैकल्पिक रूप से इन तीनों प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय की कभी-कभी उक्त 'सु' प्रत्यय के स्थान पर आदेश प्राप्ति हो जाती है। कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि उपर्युक्त चारों प्रकार के प्रत्ययों में से किसी भी प्रकार के प्रत्यय की संयोजना नहीं होकर अर्थात् उक्त प्रत्ययों का सर्वथा लोप होकर केवल मूल प्राकृत धातु के ' अविकल - रूप' मात्र के प्रदर्शन से अथवा बोलने से उक्त लकारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में ' भावाभिव्यक्ति' अर्थात् वैसा अर्थ प्रकट हो जाता है। इस प्रकार से उक्त चार प्रकार के प्रत्ययों के अतिरिक्त ' प्रत्यय - लोप' वाला पांचवाँ रूप और जानना चाहिये। यह स्थिति केवल अकारान्त धातुओं के लिये ही जाननी चाहिये। उदाहरण इस प्रकार है:- (त्वम्) हस अथवा हसतात् (त्वम्) हसेः और (त्वम्) हस्याः = ( = (तुमं) हसेज्जसु, हसेज्जहि, हसेज्जे और हस | पक्षान्तर में 'हससु' भी होता है। इन सभी रूपों का यही हिन्दी अर्थ है कि- (तू) हँस; (तू) हँसे और (तू) हँसने वाला हो।
प्रश्नः- केवल अकारान्त धातुओं के लिये ही उपर्युक्त चार प्रत्ययों का वैकल्पिक विधान क्यों किया गया है? अन्य स्वरान्त धातुओं में इन प्रत्ययों की संयोजना का विधान क्यों नहीं किया गया है ?
उत्तरः- चूकि प्राकृत भाषा में अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य स्वरान्त धातुओं में उक्त लकारों से सम्बन्धित द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ की अभिव्यक्ति में केवल दो प्रत्यय 'सु' और 'हि' की प्राप्ति ही पाई जाती है; इसलिये परम्परा में प्रतिकूल विधान करना अनुचित एवं अशुद्ध है; इसी दृष्टिकोण से केवल अकारान्त-धातुओं के लिये ही उपर्युक्त विधान सुनिश्चित किया गया है। अन्य स्वरान्त धातुओं के उदाहरण इस प्रकार हैं: - (त्वम्) भव अथवा भवतात : (त्वम् ) भवेः और (त्वम्) भूया:= (तुम) होसु = तू हो अथवा तू होवे अथवा तू होने योग्य हो। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- (त्वम्) तिष्ठ अथवा तिष्ठतात्; (त्वम्) तिष्ठेः और (त्वम्) तिष्ठयाः- (तुम) ठाहि= तू ठहर; तू ठहरे और तू ठहरने योग्य हो । इन उदाहरणों में दी गई धातुएँ 'हो' और ठा' क्रम से ओकारान्त और आकारान्त हैं; इसलिये सूत्र - संख्या ३ - १७५ के विधि-विधान से अकारान्त नहीं होने के कारण से उक्त तीनों लकारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में अकारान्त धातुओं में प्राप्तव्य प्रत्यय ‘इज्जसु, इज्जहि, इज्जे और लुक्' की प्राप्ति इनमें नहीं हो सकती है। इसलिये यह सिद्धांत निश्चित हुआ कि केवल आकारांत धातुओं में ही उक्त चार प्राप्तव्य प्रत्यय जोड़े जा सकते हैं; अन्य स्वरान्त धातुओं में ये चार प्रत्यय नहीं जोड़े जा सकते है।
हस अथवा हसतात् हसे: और हस्याः संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से यहाँ पर पाँच रूप दिये गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- (१) हसेज्जसु, (२) हसेज्जहि, (३) हसेज्जे, (४) हस और (५) हससु । इनमें से प्रथम तीन रूपों में सूत्र - संख्या १ - १० से मूल प्राकृत अकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त प्रत्यय 'इज्जसु, इज्जहि और इज्जे' में आदि में 'इ' स्वर का सद्भाव होने के कारण से लोप; ३ - १७५ से प्राकृत में प्राप्त हलन्तांग ‘हस्' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवन के सद्भाव में प्राकृत में क्रम से 'इज्जसु, इज्जहि और इज्जे' प्रत्ययों की प्राप्ति; १ - ५ हलन्त - अंग ' हस्' के साथ में उक्त प्रत्ययों की संधि होकर हसेज्जसु, हसेज्जहि और हसेज्जे रूप सिद्ध हो जाते हैं।
चतुर्थ रूप 'हस' में मूल अकारान्त धातु 'हस' के साथ में सूत्र - संख्या ३- १७५ के उक्त प्रत्ययों का लोप होकर उल्लिखित कारों के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवचन में संदर्भ के 'हस' रूप सिद्ध हो जाता है।
पाँचवे रूप 'हससु' की सिद्धि सूत्र - संख्या ३- १७३ में की गई है।
भव अथवा भवतात्, भवेः और भूयाः संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक के द्वितीय एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप होस
के
पुरुष
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214 : प्राकृत व्याकरण होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु 'भू भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१७३ से प्राकृत में आदेश-प्राप्त धातु-अङ्ग 'हो' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय-पुरुष के एकवचन के सद्भाव में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप होसु सिद्ध हो जाता है।
तिष्ठ अथवा तिष्ठतात, तिष्ठेः और तिष्ठयाः संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक द्वितीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप ठाहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से मूल संस्कृत-धातु 'स्था-तिष्ठ्' के स्थान पर प्राकृत में 'ठा' रूप की आदेश प्राप्ति
और ३-१७४ से प्राकृत में आदेश-प्राप्त धातु अङ्ग 'ठा' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय-पुरुष के एकवचन के सद्भाव में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ठाहि' रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१७५।।
बहुषु न्तु ह मो ।। ३-१७६।। विध्यादिषूत्पन्नानां बहुष्वर्थेषु वर्तमानानां त्रयाणां त्रिकाणां स्थाने यथासंख्यं न्तु ह मो इत्येते आदेशा भवन्ति। न्तु। हसन्तु। हसन्तु हसेयुर्वा। ह। हसह। हसता हसेत वा। मो। हसामो। हसाम। हसेम वा।। एवं तुवरन्तु। तुवरह। तुवरामो॥
अर्थः- संस्कृत में प्राप्त आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक के प्रथम-द्वितीय और तृतीय पुरुष के द्वितवचन में तथा बहुवचन में जो प्रत्यय धातुओं में नियमानुसार संयोजित किये जाते हैं; उन प्राप्त प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में जिन-आदेश-प्राप्त प्रत्ययों की उपलब्धि है; उनका विधान इस सूत्र में किया गया है; तदनुसार प्राकृत धातुओं में उक्त लकारों के अर्थ में प्रथम-पुरुष के बहुवचन में 'न्तु प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है; द्वितीय पुरुष के बहुवचन में 'ह' प्रत्यय का सद्भाव होता है और तृतीय पुरुष के बहुवचन में 'मो' प्रत्यय का आदेश भाव जानना चाहिये। यों तीनों लकारों के द्विवचन के तथा बहुवचन के प्रत्ययों के स्थान पर केवल एक-एक प्रत्यय की ही क्रम से 'न्तु, ह और मो' प्रथमपुरुष में द्वितीय-पुरुष में और तृतीय पुरुष में आदेश प्राप्ति जाननी चाहिये इनके क्रम से उदाहरण इस प्रकार हैं:_ 'न्तु' प्रत्यय के उदाहरणः- हसन्तु; हसेयुः और हस्यासुः-हसन्तु-वे हँसे; वे हँसते रहें अथवा वे हँसने योग्य हों। द्वितीय पुरुष के बहुवचनार्थ-प्रत्यय 'ह' का उदाहरणः- हसत; हसेत और हस्यास्त-हसह आप हँसो; आप हँसे और आप हँसने योग्य हों। तृतीय पुरुष के बहुवचनार्थक प्रत्यय 'मो' का दृष्टान्तः- हसाम; हसेम और हस्यास्म-हसामो-हम हँसे; हम हँसते रहें और हम हँसने योग्य हों। संस्कृत में हस्' धातु परस्मैपदी है, तदनुसार उपर्युक्त उदाहरण परमैपदी-धातु का प्रदर्शित किया गया है; अब त्वर-जल्दी करना' धातु का उदाहरण दिया जाता है; यह धातु आत्मनेपदीय है। प्राकृत में परस्मैपदी और आत्मनेपदी जैसा धातु-भेद नहीं पाया जाता है; अतएव संस्कृत में जैसे परस्मैपदी-अर्थक प्रत्यय भिन्न होते हैं और आत्मनेपदी-अर्थक प्रत्यय भी भिन्न होते है; वैसी पृथक्ता प्राकृत में नहीं है। इसी तात्पर्य-विशेष का बोध कराने के लिये संस्कृत आत्मनेपदी धातु का उदाहरण ग्रंथकार वृत्ति में प्रदान कर रहे हैं। प्रथमपुरुष के बहुवचन का उदाहरण:- त्वरन्ताम्; त्वरेरन् और त्वरिषीरन्=तुवरन्तु-वे शीघ्रता करें; वे शीघ्रता करते रहें और वे शीघ्रता करने योग्य हों। द्वितीय पुरुष के बहुवचन का उदाहरणः- त्वरध्वम्; त्वरेध्वम् और त्वरिषीध्वम्-तुवरह-आप जल्दी करो; आप जल्दी करें और आप जल्दी करने वाले हों। तृतीय पुरुष के बहुवचन का उदाहरणः- त्वरामहै; त्वरेमहि और त्वरिषीमहि-तुवरामो हम शीघ्रता करें; हम शीघ्रता करते रहें और हम शीघ्रता करने वाले हों। इस प्रकार प्राकृत भाषा में आज्ञार्थक, विधि अर्थक और आशीषर्थक लकारों के बहुवचन में प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय पुरुष के अर्थ में क्रमशः समान रूप से 'न्तु, ह और मो' प्रत्यय का सद्भाव जानना चाहिये। प्राकृत में परस्मैपदी और आत्मनेपदी जैसे धातु-भेद का अभाव होने से प्रत्यय-भेद का भी अभाव ही होता है।
हसन्तु, हसेयुः और हस्यासुः संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक प्रथमपुरुष के बहुवचन के अकर्मक परस्मैपदीय क्रियापद के रूप है। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप हसन्तु
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 215 होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से प्राकृत हलन्त धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१७६ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हस' में उक्त तीनों प्रकार के लकारो के अर्थ में प्रथम-पुरुष के बहुवचन के सद्भाव में प्राकृत में 'न्तु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसन्तु रूप सिद्ध हो जाता है। ____ हसत, हसेत और हस्यास्त संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक, और आशीषर्थक के द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अकर्मक परम्मैपदी क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप हसह' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त प्राकृत धातु 'हस, में विकरण अन्त्य 'अ' की प्राप्ति और ३-१७६ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हस' में उक्त तीनों प्रकार के लकारों के अर्थ में द्वितीय-पुरुष के बहुवचन के सद्भाव में प्राकृत में केवल एक ही प्रत्यय 'ह' की प्राप्ति होकर 'हसह' रूप सिद्ध हो जाता है।
हसाम हसेम और हस्यास्म संस्कृत के क्रमशः उपर्युक्त तीनों प्रकार के लकारों के तृतीय पुरुष के बहुवचन के अकर्मक परस्मैपदी क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप हसामो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त प्राकृत धातु 'हस' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५५ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१७६ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हसा' में उक्त तीनों प्रकार के लकारों के अर्थ में तृतीय पुरुष के बहुवचन के सद्भाव में प्राकृत में केवल एक ही प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति होकर हसामा रूप सिद्ध जाता है।
त्वरन्ताम्, त्वरेरन और त्वरिषीरन् संस्कृत के क्रमशः उक्त तीनों लकारों के प्रथमपुरुष के बहुवचन के अकर्मक आत्मनेपदी क्रियापद के रूप है। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप तुवरन्तु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१७० से मूल संस्कृत धातु 'त्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'तुवर' की आदेश प्राप्ति और ३-१७६ से उक्त तीनों लकारों के प्रथमपुरुष के बहुवचन के सद्भाव में प्राकृत में प्राप्तांग 'तुवर' में 'न्तु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तुवरन्तु रूप सिद्ध हो जाता है। ... त्वरध्वम्, त्वरेध्वम् और त्वरिषीध्वम् संस्कृत के क्रमशः उक्त तीनों प्रकार के लकारों के द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अकर्मक आत्मनेपदी क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप तुवरह होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१७० से मूल संस्कृत धातु त्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'तुवर' की आदेश प्राप्ति और ३-१७६ से उक्त तीनों लकारों के द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तांग 'तुवर' में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तुवरह रूप सिद्ध हो जाता है।
त्वरामहे, त्वरेमहि और त्वरिषीमहि संस्कृत के क्रमशः उक्त तीनों प्रकार के लकारों के तृतीय पुरुष के बहुवचन के अकर्मक आत्मनेपदी क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप तुवरामो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१७० से मूल संस्कृत-धातु त्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'तुवर की आदेश प्राप्ति; ३-१५५ से आदेश-प्राप्त धातु अङ्ग 'तुवर' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे 'मो' प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'आ' की प्राप्ति और ३-१७६ से प्राप्त प्राकृत अंग 'तुवरा' में उक्त तीनों प्रकार के लकारों के तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्राकृत में 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तुवरामो रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१७६ ।।
वर्तमाना-भविष्यन्त्योश्च ज्ज ज्जा वा ॥३-१७७॥ वर्तमानाया भविष्यन्त्याश्च विध्यादिषु च विहितस्य प्रत्ययस्य स्थाने ज्ज ज्जा इत्येतावादेशौ वा भवतः। पक्षे यथाप्राप्तम्।। वर्तमाना।। हसेज्ज। हसेज्जा। पढेज्ज। पढेज्जा। सुणेज्ज। सुणेज्जा।। पक्षे। हसइ। पढइ। सुणइ।। भविष्यन्ती। पढेज्ज। पढेज्जा पक्षे।। पढिहिइ।। विध्यादिषु। हसेज्ज। हसिज्जा। हसतु। हसेद्वा इत्यर्थः पक्षे। हसउ।। एवं सर्वत्र। यथा तृतीयत्रये। अइवाएज्जा। अइवायावेज्जा। न समणुजाणामि। न समणुजाणे-ज्जा वा। अन्येत्वन्यासामपीच्छन्ति। होज्जा भवति। भवेत्। भवतु। अभवत्। अभूत्। बभूव। भूयात्। भविता। भविष्यति। अभविष्यद्वेत्यर्थः।
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216 : प्राकृत व्याकरण __ अर्थः- प्राकृत भाषा में वर्तमानकाल के; भविष्यत्काल के; आज्ञार्थक; विधिअर्थक और आशीषर्थक के तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में प्राप्त सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ज्ज और ज्जा' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है और इस प्रकार केवल 'ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्यय की ही संयोजना कर देने से उक्त लकारों के किसी भी प्रकार के पुरुष के किसी भी वचन का अर्थ संदर्भ के अनुसार उत्पन्न हो जाता है। यह स्थित वैकल्पिक है; अतएव पक्षान्तर में उक्त लकारों के अर्थ में कहे गये प्रत्ययों की प्राप्ति भी यथा-नियमानुसार होती ही है। वर्तमानकाल का दृष्टान्त इस प्रकार है:- हसति, (हसन्ति, हससि, हसथ, हसामि और हसामः) हसेज्ज और हसेज्जा=पक्षान्तर में-हसइ (हसए, हसन्ति, हसन्ते, हसिरे, हससि, हससे, हसित्था, हसह, हसामि, हसामो, हसामु और हसाम) वह हँसता है; (वे हँसते हैं; तू हँसता है, तुम हँसते हो; मैं हँसता हूं और हम हँसते हैं।) दूसरा उदाहरणः-पठति-(पठन्ति, पठसि, पठथ, पठामि और पठामः)=पढेज्ज और पढेज्जा पक्षान्तर में-पढइ; (पढए, पढन्ति, पढन्ते, पढिरे, पढसि, पढसे, पढित्था, पढह, पढामि, पढामो, पढामु और पढाम)-वह पढ़ता है; (वे पढ़ते हैं; तू पढ़ता है; तुम पढ़ते हो; मैं पढ़ता हूं और हम पढ़ते हैं)। तीसरा उदाहरण:- श्रृणोति-(श्रृण्वन्ति, श्रृणोषि, श्रृणुथ, श्रृणोमि, और श्रृणुमः अथवा श्रृण्मः)-सुणेज्ज अथवा सुणेज्जा-पक्षान्तर में-सुणइ; (सुणए; सुणन्ति, सुणन्ते, सुणिरे, सुणसि, सुणसे, सुणित्था, सुणह, सुणामि, सुणामो, सुणामु और सुणाम)-वह सुनता है; (वे सुनते हैं; तू सुनता है; तुम सुनते हो; मैं सुनता हूं और हम सुनते हैं।
भविष्यत्काल का उदाहरण इस प्रकार है:- पठिष्यति-(पठिष्यन्ति, पठिष्यसि, पठिष्यथ, पठिष्यामि और पठिष्यामः) पढेज्ज और पढेज्जा; पक्षान्तर में पढिहिइ (पढिहिए, पढिहिन्ति पढिहिन्ते पढिहिरे, पढिहिसि, पढिहिसे; पढिहित्था, पढिहिह, पढिहिमि, पढिहिमो, पढिहिमु, पढिहिम)-वह पढ़ेगा (वे पढ़ेंगे, तू पढ़ेगा, तुम पढोगे; मैं पढूँगा और हम पढ़ेंगे)।
आज्ञार्थक और विधि-अर्थक के क्रमशः उदाहरण इस प्रकार हैं:- हसतु-हसतात् (हसन्तु; हस-हसतात् और हसत; हसानि तथा हसाम) तथा हसेत (हसेयुः हसेः और हसेत; हसेयम् तथा हसेम)-हसेज्ज और हसिज्जा अथवा हसेज्जा; पक्षान्तर में हसउ (हसन्तु; हस्सु तथा हसह; हसामु और हसामो)=वह हँसे; (वे हँसे;तू हँस तथा तुम हँसो; मैं हँसूं और हम हँसें); वह हँसता रहे; (वे हँसते रहें; तू हँसता रह तथा तुम हँसते रहो; मैं हँसता रहूं और हम हँसते रहें) यो क्रम से लोट्लकार के तथा लिङ्लकार के 'ज्ज-ज्जा' प्रत्ययों के साथ में प्राकृत रूप जानना चाहिये। यही पद्धति अन्य प्राकृत धातुओं के सम्बन्ध में भी 'ज्ज वा ज्जा' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर वर्तमानकाल, भविष्यत्काल, आज्ञार्थक लकार और विधिअर्थक लकार के अर्थ में तीनों पुरुषों के दोनों वचनों के सदभाव में समझ लेना चाहिये। इसी तात्पर्य को समझाने के लिये पनः दो उदाहरण क्रम से और दिये जाते हैं:- अतिपातयति (अतिपातयति, अतिपातयसि, अतिपातयथ, अतिपातयामि और अति-पातयामः) अइवाएज्जा और अइवायावेज्जा वह उल्लंघन कराता है; (वे उल्लंघन कराते हैं; तू उल्लंघन कराता है; तुम उल्लंघन कराते हो; मै उल्लंघन कराता हूँ; और हम उल्लंघन कराते हैं)। इस प्रकार से प्राकृत क्रियापद के रूप 'अइवाएज्ज और अइवायावेज्जा' का अर्थ वर्तमानकाल के प्रेरणार्थक भाव में किया गया है। किसी भी प्रकार का परिवर्तन किये बिना इन्हीं प्राकृत क्रियापद के रूपों द्वारा 'भविष्यत्काल के, आज्ञार्थक लकार के और विधि अर्थक लकार के तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में भी प्रेरणार्थक भाव की अभिव्यंजना उपर्युक्त वर्तमानकाल के समान ही की जा सकती है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- न समनुजानामिन समणुजाणामि अथवा न समणुजाणेज्जा=मैं अनुमोदन नहीं करता हूँ अथवा मैं अच्छा नहीं मानता हूं। इस उदाहरण में यह बतलाया गया है कि वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' के स्थान पर 'ज्जा प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुई है ग्रंथकार इस प्रकार की विवेचना करके यह सिद्धान्त निश्चित करना चाहते हैं कि प्राकृत भाषा में वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, आज्ञार्थक के और विधि-अर्थक के तीनों पुरुषों के दोनों वचनों के अर्थ में धातुओं में प्राप्त सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'ज्ज अथवा ज्जा' इन दो प्रत्ययों की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति होती है।
प्राकृत भाषा के अन्य वैयाकरण-विद्वान् यह भी कहते हैं कि संस्कृत-भाषा में पाये जाने वाले कालवाचक दस ही लकारों के तीनों पुरुषों के सभी प्रकार के वचनों के अर्थ में प्राप्त कुल ही प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में 'ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्यय की संयोजना कर देने से प्राकृत भाषा में उक्त लकारों के सभी पुरुषों के इष्ट-वचन का तात्पर्य अभिव्यक्त हो जाता है। इस मन्तव्य का संक्षिप्त तात्पर्य यही है कि धातु में किसी भी काल के किसी भी पुरुष के किसी भी वचन के केवल
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 217 'ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्यय को जोड़ देने से उक्त काल के उक्त पुरुष के उक्त वचन का अर्थ परिस्फुटित हो जाता है। उदाहरण इस प्रकार हैं :- भवति, भवेत्, भवतु, अभवत्, अभूत् बभूव, भूयात्, भविता, भविष्यति और अभविष्यत् - होज्ज= वह होता है; वह होवे ; वह हो; वह हुआ; वह हुआ था; वह हो गया था; वह होने योग्य हो, वह होने वाला हो, वह होगा और वह हुआ होता। इस उदाहरण से प्रतीत होता है कि प्राकृत के क्रियापद के रूप 'होज्ज' से ही किसी भी लकार के किसी भी पुरुष के किसी भी वचन का अर्थ निकाला जा सकता है। प्राकृत भाषा में यों केवल दो प्रत्यय ही 'ज्ज और ज्जा' सार्वकालिक और सार्ववाचनिक तथा सार्वपौरूषेय हैं। किन्तु ध्यान में रहे कि यह स्थिति वैकल्पिक है।
हसति, हसन्ति, हससि, हसथ, हसामि और हसामः संस्कृत के वर्तमानकाल के तीनों पुरुषों के क्रमशः एकवचन और बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप समान रूप से एवं समुच्चय रूप से हसेज्ज और होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ४- २३९ से मूल प्राकृत हलन्त धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्तिः ३ - १५९ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे प्राप्त प्रत्यय 'ज्ज और ज्जा' का सद्भाव होने के कारण से 'ए' की प्राप्ति और ३-१७७ से प्राप्तांग 'हसे' में उक्त वर्तमानकाल के तीनों पुरुषों के दोनों वचनों के अर्थ में प्राप्त सभी संस्कृत प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ज्जा' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप हसेज्ज और हसेज्जा सिद्ध हो जाते हैं।
पठति, पठन्ति, पठसि, पठथ, पठामि और पठामः संस्कृत के वर्तमानकाल के तीनों पुरुषों के क्रमश: एकवचन के और बहुवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप समुच्चय रूप से पढेज्ज और पढेज्जा होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १९९ से मूल संस्कृत - धातु 'पठ्' में स्थित हलन्त व्यंजन 'व्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; ४ - २३९ से प्राप्त हलन्त प्राकृत धातु 'पढ्' में विकरण-प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३ - १५९ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१७७ से प्राप्तांग 'पढे' में वर्तमानकालवाचक सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल 'ज्ज और ज्जा' प्रत्ययों की क्रमशः प्राप्ति होकर 'पढेज्ज और पढेज्जा' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
शृणोति, शृण्वन्ति, शृणोषि शृणुथ, शृणोमि और शृणुमः संस्कृत के वर्तमानकाल के तीनों पुरुषों के क्रमशः एकवचन के तथा बहुवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप समान रूप से और समुच्चय रूप से सुणेज्ज तथा सुणेज्जा होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या २- ७९ से संस्कृत में प्राप्त विकरण प्रत्यय सहित पंचमगणीय धातु-अंग 'शृणु' में स्थित 'श्रृ' के 'र्' व्यंजन का लोप ; १ - २६० से लोप हुए 'र्' व्यंजन के पश्चात् शेष रहे हुए 'शु' में स्थित तालव्य 'श्' के स्थान पर प्राकृत में दन्त्य 'स्' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण्' की प्राप्ति' ४ - २३८ से प्राप्त 'णु' में स्थित अन्त्य स्वर 'उ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३ - १५९ से प्राकृत में प्राप्तांग 'सुण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर ‘ए' की प्राप्ति और ३- १७७ से प्राप्तांग 'सुणे' में वर्तमान-कालिक सभी पुरुषों के सभी वचनों के अर्थ में प्राप्तव्य संस्कृत सभी प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल दो प्रत्यय ही 'ज्ज तथा ज्जा' की क्रम से प्राप्ति होकर सुणेज्ज और सुणेज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'हसइ' क्रियापद - रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ -१३९ में की गई है। 'पढइ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १९९ से की गई है।
शृणोति संस्कृत के वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप सुणइ होता है। इसमें 'सुण' अंग की प्राप्ति इसी सूत्र में वर्णित उपर्युक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३- १३९ से प्राप्तांग 'सुण' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप सुणइ सिद्ध हो जाता है।
पठिष्यति, पठिष्यन्ति, पठिष्यसि, पठिष्यथ, पठिष्यामि और पठिष्यामः संस्कृत के भविष्यत्काल के तीनों पुरुषों के क्रमशः एकवचन के तथा बहुवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनमें प्राकृत रूप समान रूप से पढेज्ज तथा पढेज्जा होते हैं। इनमें प्राकृत- अंग-रूप 'पढे' की प्राप्ति इसी सूत्र में वर्णित उपर्युक्त-रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३-१७७ से प्राप्तांग 'पढे' में भविष्यत्काल के सभी पुरुषों के सभी वचनों के अर्थ में संस्कृत सर्व-प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल दो प्रत्यय ही 'ज्ज तथा ज्जा' की क्रम से प्राप्ति होकर पढेज्ज तथा पढेज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
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218 : प्राकृत व्याकरण
पठिष्यति संस्कृत के भविष्यत्काल के प्रथमपुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप पढिहिइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से मूल संस्कृत हलन्त धातु 'पठ्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ठ' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त प्राकृत धातु 'पढ् के अन्त्य हलन्त व्यंजन द' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५७ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; ३-१६६ से प्राप्त प्राकृत धातु अङ्ग पढि' में भविष्यत्काल बोधक प्राप्त प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१३९ से भविष्यदर्थक प्राप्तांग 'पढिह' में प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पढिहिइ का सिद्ध हो जाता है। ___ हसतु, हसतात्, हसन्तु, हस-हसतात्, हसत, हसानि, हसाम और हसेत्, हसेयुः, हसेः, हसेत, हसेयम्, हसेम, संस्कृत के आज्ञार्थ और विधि-लिङ्ग अर्थक तीनों पुरुषों के एकवचन के तथा बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप समान रूप से और समुच्चय रूप से हसेज्ज तथा हसिज्जा (अथवा हसेज्जा) होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१५९ से मूल प्राकृत धातु 'हस्' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; तथा द्वितीय रूप में ४-२३८ से उक्त 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; यों क्रम से प्राप्तांग 'हसे और हसि' में सूत्र-संख्या ३-१७७ से आज्ञार्थ और विधि-लिङ्ग के तीनों पुरुषों के दोनों वचनों के अर्थ में प्राप्तव्य संस्कृत सर्व प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल दो प्रत्यय 'ज्ज तथा ज्जा' की ही क्रम से प्राप्ति होकर हसेज्ज हसिज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'हसउ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१७६ में की गई है।
अतिपातयति, अतिपातयन्ति, अतिपातयसि, अतिपातयथ, अतिपातयामि और अतिपातयामः संस्कृत के वर्तमानकाल के प्रेरणार्थक क्रियावाले तीनों पुरुषों के क्रमशः दोनों वचनों के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप समान रूप से अइवाएज्जा और अइवायावेज्जा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत धातु 'अतिपत्' में स्थित प्रथम 'त्' का लोप; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ३-१५३ से प्रेरणार्थक-भाव के अस्तित्व के कारण से प्राप्त व्यंजन 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; ४-२३९ से संस्कृत की मूल-धातु 'अतिपत्' के अन्त्य हलन्त व्यंजन 'त्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से उक्त प्राप्त अन्त्य 'त्'; का पुनः लोप; १-१८० से लोप हुए 'त् के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; ३-१५९ से प्रथम रूप में लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति नहीं होकर 'ए' की प्राप्तिः ३-१४९ से द्वितीय रूप में प्राप्तांग 'अइवाय' में प्रेरणार्थक भाव के अस्तित्व में आवे' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से द्वितीय रूप में प्राप्तांग 'अइवाय' के साथ में प्रत्यय 'आवे' की संधि होकर 'अइवायावे' अङ्ग की प्राप्ति; अंत में सूत्र-संख्या ३-१७७ से क्रम से प्राप्तांग 'अइवाए' और 'अइवायावे' में वर्तमानकालवाचक तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में संस्कृत सर्व-प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल 'ज्जा' की प्राप्ति होकर अइवाएज्जा और अइवायावेज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है।
समनुजानामि संस्कृत के वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप समणुजाणामि और समणुजाणेज्जा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२२८ से दोनों ही 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-१५४ से प्रथम रूप में प्राप्तांग 'समणुजाण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१४१से प्रथम रूप वाले प्राप्तांग 'समणुजाणा' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप समणुजाणामि सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-१५९ से प्राप्तांग 'समणुजाण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'समणुजाणे' में सूत्र-संख्या ३-१७७ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' के स्थान पर 'ज्जा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप समणुजाणेज्जा भी सिद्ध हो जाता है।
'वा' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६७ में की गई है। __ भवति, भवेत् भवतु, अभवत, अभूत, बभूव भूयात्, भविता, भविष्यति, और अभविष्यत् संस्कृत के क्रमशः
लट, लिङ, लोट, लङ्, लुङ, लिट, लिङ् (आशिषि), लुट्, लूट और लङ्लकारों के प्रथमपुरुष के एकवचन के अक्रर्मक
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 219 क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर समुच्चय रूप से प्राकृत में एक रूप होज्ज होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६० से संस्कृत में प्राप्त धातु 'भू=भव् के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग-रूप की प्राप्ति और ३-१७७ की वृत्ति से उक्त दस ही लकारों के अर्थ में संस्कृत सर्व-प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल 'ज्ज' प्रत्यय की ही प्राप्ति होकर उक्त दस लकारों के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत क्रियापद का रूप 'होज्ज' सिद्ध हो जाता है। ३-१७७।
मध्ये च स्वरान्ताद्वा ॥३-१७८।। स्वरान्ताद्वातोः प्रकृति प्रत्यययोर्मध्ये चकारात् प्रत्ययानां च स्थाने ज्ज ज्जा इत्येतो वा भवतः वर्तमाना भविष्यन्त्योर्विध्यादिषु च।। वर्तमाना। होज्जइ। होज्जाइ। होज्जा होज्जा। पक्षे। होई।। एवं होज्जसि। होज्जासि। होज्जा होज्जा।। पक्षे। होसि इत्यादि।। भविष्यन्ति। होज्जहिइ। होज्जाहिइ। होज्जा होज्जा। पक्षे। होहिइ।। एवं होज्जहिसि। होज्जाहिसि। होज्ज। होज्जा। होहिसि। होज्जहिमि। होज्जाहिमि। होज्जस्सामि। होज्जहामि। होज्जस्सं। होज्ज होज्जा। इत्यादि।। विध्यादिषु। होज्जउ। होज्जाउ। होज्ज। होज्जा। भवतु भवेद्वेत्यर्थः पक्षे। होउ।। स्वरान्तादितिकिम्। हसेज्ज। हसेज्जा। तुवरेज्ज तुवरेज्जा।।
अर्थः- प्राकृत भाषा में जो स्वरान्त धातुएं हैं; उन स्वरान्त धातुओं के मूल अंग और संयोजित किये जाने वाले वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, आज्ञार्थक और विधिअर्थक के प्रत्यय इन दोनों के मध्य में-वैकल्पिक रूप से 'ज्ज अथवा ज्जा' की प्राप्ति (विकरण प्रत्यय जैसे रूप से) हुआ करती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, आज्ञार्थक और विधिअर्थक के बोधक प्राप्त प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ज्ज अथवा ज्जा' की आदेश प्राप्ति भी हुआ करती है। निष्कर्ष रूप से वक्तव्य यह है कि स्वरान्त धातु और उक्त लकारों के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्ययों के मध्य में 'ज्ज अथवा ज्जा' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है। तथा कभी-कभी उक्त लकारों के अर्थ में प्राप्त सभी प्रकार के पुरुष बोधक तथा सभी प्रकार के वचन बोधक प्रत्ययों के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से 'ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है। उक्त लकारों से सम्बन्धित उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं; सर्व-प्रथम वर्तमानकाल के उदाहरण दिये जा रहे हैं:- भवति होज्जइ, होज्जाइ; होज्ज तथा होज्जा; वैकल्पिक-पक्ष होने से पक्षान्तर में 'होइ' भी होता है। भवसि-होज्जसि, होज्जासि; होज्ज तथा होज्जा; वैकल्पिक-पक्ष होने से पक्षान्तर में होसि' भी होता है। उपर्युक्त दोनों उदाहरण क्रम से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के तथा द्वितीय पुरुष के एकवचन के हैं। अब भविष्यत्काल के उदाहरण प्रदर्शित किये जा रहे हैं:- भविष्यसित होज्जहिइ, होज्जाहिइ, होज्ज तथा होज्जा। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने के कारण से पक्षान्तर में 'होहिइ' रूप भी होता है। इनका हिन्दी-अर्थ होता है। वह होगा अथवा वह होगी। दूसरा उदाहरण भविष्यति होज्जहिसि, होज्जाहिसि, होज्ज तथा होज्जा। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में होहिसि रूप का सद्भाव होगा। इनका हिन्दी अर्थ होता है:-तू होगा अथवा तू होगी। तीसरा उदाहरण:- भविष्यामि होज्जहिमि, होज्जाहिमि; होज्जस्सामि, होज्जहामि; होज्जस्सं, होज्ज तथा होज्जा, पक्षान्तर में होहिमि भी होता है। इनका अर्थ यह है कि:- मैं होऊँगा अथवा मैं होऊँगी। ___ आज्ञार्थक और विधि-अर्थक के उदाहरण इस प्रकार हैं:- भवतु और भवेत् होज्जउ, होज्जाउ; होज्ज तथा होज्जा; होज्जा; पक्षान्तर में 'होउ' भी होता है। इनका यह अर्थ है कि-वह हो अथवा वह होवे। इन उदाहरणों से यह विदित होता है कि वैकल्पिक रूप से स्वरान्त धात और प्रत्यय के मध्य में 'ज्ज अथवा ज्जा'की प्राप्ति हई
स्वरान्त धातु आर प्रत्यय क मध्य में 'ज्ज अथवा ज्जा' की प्राप्ति हुई है तथा पक्षान्तर में प्रत्ययों के स्थान पर ही 'ज्ज अथवा ज्जा' का आदेश हो गया है। साथ में यह भी बतला दिया गया है कि उपर्युक्त दोनों विधि-विधान वैकल्पिक स्थित वाले होने से तृतीय अवस्था में न तो 'ज्ज अथवा ज्जा' का धातु और प्रत्यय के मध्य में आगम ही हुआ है और न प्रत्ययों के स्थान पर आदेश ही हुआ है; किन्तु पूर्व-सूत्रों में वर्णित सर्व-सामान्य रूप से उपलब्ध लकारबोधक प्रत्ययों की ही प्राप्ति हुई है। यों तीनों प्रकार की स्थित का क्रमशः उपयोग किया गया है; जो कि ध्यान देने योग्य है।
प्रश्नः- मूल सूत्र में 'स्वरान्त' पद का उपयोग करके ऐसा विधान क्यों बनाया गया है कि केवल स्वरान्त धातु और प्राप्त लकार-बोधक प्रत्ययों के मध्य में ही 'ज्ज अथवा ज्जा' का वैकल्पिक रूप से आगम होता है?
उत्तरः- जो धातु स्वरान्त नहीं होकर व्यञ्जनान्त हैं; उनमें मूल धातु अंग और प्राप्त लकारबोधक प्रत्ययों के मध्य में
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220 : प्राकृत व्याकरण आगम-रूप से 'ज्ज अथवा ज्जा' की प्राप्ति नहीं होती है; इसलिये उन धातुओं की ऐसी विशेष स्थिति का प्रदर्शन कराने के लिये ही मूल-सूत्र में 'स्वरान्त' पद की संयोजना की गई है, किन्तु ऐसी स्थित में भी यह बात ध्यान में रहे कि व्यंजनान्त अंग और प्रत्ययों के मध्य में ज्ज अथवा ज्जा' का आगम नहीं होने पर भी लकार-बोधक प्राप्त प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति तो होती है। जैसे:- हसति, हससि, हसामि, हसिष्यति, हसिष्यसि, हसिष्यामि, हसतु और हसेत् हसेज्ज अथवा हसेज्जा वह हँसता है, तू हँसता है; मैं हँसता हूं, वह हँसेगा, तू हँसेगा, मैं हँसूगा; वह हँसे और वह हँसता रहे। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- त्वरते, त्वरसे, त्वरे, त्वरिष्यते, त्वरिष्यसे, त्वरिष्ये, त्वरताम्, त्वरस्व, त्वरै, त्वरेत, त्वरेथाः और त्वरेय-तुवरेज्ज और तुवरेज्जा-वह शीघ्रता करता है, तू शीघ्रता करता है, मैं शीघ्रता करता हूँ, वह शीघ्रता करेगा, तू शीघ्रता करेगा, मैं शीघ्रता करूँगा; वह शीघ्रता करे, तू शीघ्रता कर, मैं शीघ्रता करूँ, वह शीघ्रता करता रहे, तू शीघ्रता करता रह और मैं शीघ्रता करता रहूं। इन 'ज्ज और ज्जा' प्रत्ययों के सम्बन्ध में विस्तार -पूर्वक सूत्र-संख्या ३-१७७ में बतलाया गया है; अतः विशेष-विवरण की यहाँ पर आवश्यकता नहीं रह जाती है। __ भवति संस्कृत के वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूपान्तर होज्जइ, होज्जाइ होज्ज, होज्जा और होइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु भू=भव् के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम और द्वितीय रूपों में सूत्र-संख्या ३-१७८ से प्राप्तांग 'हो' में 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की (विकरण रूप से) वैकल्पिक-प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होज्ज तथा होज्जाइ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय और चतुर्थ रूपों में उपर्युक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ तथा ३-१७७ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ज्ज और ज्जा' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर तृतीय और चतुर्थ रूप होज्ज तथा होज्जा' भी सिद्ध हो जाते हैं। पंचम रूप होई की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९ में की गई है।
भवसि संस्कृत के वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूपांतर होज्जसि, होज्जासि, होज्ज, होज्जा और होसि होते हैं। इनमें से प्रथम और द्वितीय रूपों में उपर्युक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की (विकरण-रूप से) वैकल्पिक प्राप्ति और ३-१४० से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के समान ही प्राकृत में भी सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होज्जासि रूप सिद्ध हो जाता है। ___ तृतीय और चतुर्थ रूपों में उपर्युक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से तथा ३-१७७ से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ज्ज' और ज्जा' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर तृतीय तथा चतुर्थ रूप होज्ज और होज्जा' भी सिद्ध हो जाते हैं।
पंचम रूप 'होसि' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४५ में की गई है।
भविष्यति संस्कृत के भविष्यत्काल के प्रथमपुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूपान्तर होज्जहिइ, होज्जाहिइ, होज्ज, होज्जा और होहिइ होते हैं। इनमें से प्रथम और द्वितीय रूपों में उपर्युक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से 'ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्ययों की (विकरण रूप से) वैकल्पिक प्राप्ति; ३-१६६ से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में भविष्यत्कालवाचक अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१३९ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राकृत में क्रम से प्राप्तांग 'होज्जहि तथा होज्जाहि' में प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होज्जहिइ और होज्जाहिइ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय और चतुर्थ रूप 'होज्ज तथा होज्जा' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से तथा ३-१७७ से प्राप्तांग 'हो' में भविष्यत्कालवाचक प्राकृत प्रत्ययों के स्थान पर क्रम से 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की वैकल्पिक रूप से भविष्यत्कालवाचक अर्थ में आदेश
प्राप्ति होकर 'होज्ज तथा होज्जा' रूप भी सिद्ध हो जाते हैं।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 221 पंचम रूप 'होहिइ' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६६ में की गई है।
भविष्यसि संस्कृत के भविष्यत्काल के द्वितीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूपांतर होज्जहिसि, होज्जाहिसि, होज्ज, होज्जा और होहिसि होते हैं। इनमें से प्रथम और द्वितीय रूपों में उपर्युक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की (विकरण-रूप) वैकल्पिक-प्राप्ति; ३-१६६ से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में भविष्यत्कालवाचक-अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१४० से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राकृत में क्रम से प्राप्तांग 'होज्जहि तथा होज्जाहि' में द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'होज्जहिसि तथा होज्जाहिसि' सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय और चतुर्थ रूप 'होज्ज तथा होज्जा' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से तथा ३-१७७ से (उपरोक्त रीति से) प्राप्तांग 'हो' में भविष्यत्-काल-वाचक रूप से प्राप्तव्य द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ वाले प्रत्ययों के स्थान पर क्रम से 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों को वैकल्पिक रूप से आदेश-प्राप्ति होकर 'होज्ज तथा होज्जा' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
पञ्चम रूप 'होहिसि' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६६ में की गई है;
भविष्यामि संस्कृत के भविष्यत्काल के तृतीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूपान्तर क्रम से होज्जहिमि, होज्जाहिसि, होज्जस्सासि, होज्जहामि, होज्जस्सं, होज्ज और होज्जा होते हैं; इनमें से प्रथम पांच रूपों में उपरोक्त रीति से प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की (विकरण रूप से) क्रम से वैकल्पिक-प्राप्ति; तत्पश्चात् क्रम से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में सूत्र-संख्या ३-१६६ से तथा ३-१६७ से भविष्यत् काल-वाचक अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि, स्सा, हा' की क्रम से प्रथम द्वितीय रूपों में तथा तृतीय-चतुर्थ रूपों में प्राप्ति; यों क्रम से भविष्यत्-काल-वाचक अर्थ में क्रम से प्राप्तांग प्रथम-द्वितीय-तृतीय और चतुर्थ रूप 'होज्जहि, होज्जहि, होज्जाहि, होज्जस्सा और होज्जहा' में सूत्र-संख्या ३-१४१ से तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय
की प्राप्ति होकर 'होज्जहिमि, होज्जाहिमि, होज्जस्सामि और होज्जहामि रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___पंचम रूप 'होज्जस्सं' में 'होज्ज' अङ्ग की प्राप्ति उपर्युक्त रीति से होकर सूत्र-संख्या ३-१६९ से भविष्यत्काल के अर्थ में प्राप्तांग 'होज्ज' में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' के स्थान पर 'स्सं प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर 'होज्जस्सं रूप सिद्ध हो जाता है।
छट्टे और सातवें रूप 'होज्ज तथा होज्जा' में 'हो' अङ्ग की उपर्युक्त रीति से प्राप्ति होकर तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१७८ से तथा ३-१७७ से भविष्यत-काल के अर्थ में प्राप्त सभी प्रकार के प्राकृत प्रत्ययों के स्थान पर केवल 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की ही क्रम से प्राप्ति होकर 'होज्ज तथा होज्जा' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
भवतु तथा भवेत् संस्कृत के क्रम से आज्ञार्थक, तथा विधि लिङ् के प्रथमपुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप समान रूप से यहाँ पर पाँच दिये गये हैं; होज्जउ, होज्जाउ, होज्ज, होज्जा तथा होउ। इनमें धातु-अंग रूप 'हो' की प्राप्ति उपर्युक्त रीति-अनुसार; तत्पश्चात्-प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या ३-१७८ से 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की (विकरण रूप से) वैकल्पिक प्राप्ति और ३-१७३ से क्रम से प्राप्तांग 'होज्ज तथा होज्जा' में लोट् लकार के तथा लिङ्लकार के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत में 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'होज्जउ तथा होज्जाउ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय और चतुर्थ रूपों में प्राप्तांग 'हो' में सूत्र-संख्या ३-१७८ से तथा ३-१७७ से लोट्लकार के और लिङ्लकार के अर्थ में प्राप्त सभी प्रकार के पुरुष बोधक प्रत्ययों के स्थान पर क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से केवल 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की ही आदेश प्राप्ति होकर 'होज्ज तथा होज्जा' रूप भी सिद्ध हो जाते हैं।।
पंचम रूप 'होउ' में उपर्युक्त रीति से 'हो' अंग की प्राप्ति होने के पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१७३ से लोट्लकार के तथा विधि-लिङ् प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'होउ' रूप भी सिद्ध हो जाता है।
हसति, हससि, हसामि, हसिष्यति, हसिष्यसि, हसिष्यामि, हसतु, और हसेत् आदि संस्कृत के क्रम से वर्तमानकाल
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222 : प्राकृत व्याकरण के, भविष्यत्काल के, आज्ञार्थक और विधिअर्थक प्रथम-द्वितीय-तृतीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर समान रूप से प्राकृत में 'हसेज्ज तथा हसेज्जा' रूप होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से प्राकृत में प्राप्त मूल हलन्त धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति, ३-१५९ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१७८ से तथा ३-१७७ से प्राप्तांग 'हसे में सभी प्रकार के लकारों के अर्थ में तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में प्राप्त सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'ज्ज तथा ज्जा प्रत्ययों की क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति होकर 'हसेज्ज तथा हसेज्जा' रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ त्वरते, त्वरसे, त्वरे, त्वरिष्यते, त्वरिष्यसे, त्वरिष्ये, त्वरताम्, त्वरस्व, त्वरै, त्वरते, त्वरेथाः और त्वरेय (आदि) रूप संस्कृत के क्रम से वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, आज्ञार्थक और विधि लिंग के प्रथम-द्वितीय-तृतीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक आत्मनेपदी क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर तथा अन्य लकारों के अर्थ में उपलब्ध अन्य सभी रूपों के स्थान पर भी प्राकृत में समान रूप से तुवरेज्ज तथा तुवरेज्जा रूप होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-१७० से मूल संस्कृत-धातु 'त्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'तुवर्' की आदेश प्राप्ति; ४-२३९ से आदेश प्राप्ति हलन्त धातु 'तुवर्' में विकरण-प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५९ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१७८ से तथा ३-१७७ से प्राप्तांग 'तवरे में सभी प्रकार के लकारों के अर्थ में तीनों परुषों के दोनों वचनों के प्राप्त सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति होकर तुवरेज्ज तथा तुवरेज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं।।३-१७८।।।
क्रियातिपत्तेः।। ३-१७९।। क्रियातिपत्तेः स्थाने ज्ज ज्जा वादेशौ भवतः।। होज्जा होज्जा। अभविष्यदित्यर्थः। जइ होज्ज वण्णणिज्जो।।
अर्थः- 'हेतु-हेतुमद्भाव' के अर्थ में क्रियातिपत्ति लकार का प्रयोग हुआ करता है। इसको संस्कृत में लङ्लकार कहते हैं। जब किसी होने वाली क्रिया का किसी दूसरी क्रिया के नहीं होने पर नहीं होना पाया जाय; तब इस क्रियातिपत्ति अर्थक लुङ्लकार का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- सुवृष्टिः अभविष्यत् तदा सुभिक्षम् अभविष्यत् यदि अच्छी वृष्टि हुई होती तो सुभिक्ष अर्थात् अन्न आदि की उत्पत्ति भी अच्छी हुई होती। इस उदाहरण से प्रतीत होता है कि सुभिक्ष का होना अथवा नहीं होना वष्टि के होने पर अथवा नहीं होने पर निर्भर करता है: यों'वष्टि' कारण रूप होती हई 'सभिक्ष फल रूप होता है;इसीलिये यह लकार हेतुमत् भाव रूप कहा जाता है। इसीका अपर-नाम क्रियातिपत्ति भी है। यही संस्कृत का लुङ् लकार है; जो कि अंग्रेजी में-(Conditonal Mood) कहलाता है। क्रियातिपत्ति की रचना में यह विशेषता होती है कि 'कारण एवं कार्य रूप से अवस्थित तथा 'ऐसा होता तो ऐसा हो जाता' यों शर्त रूप से रहे हुए दो वाक्यों का एक संयुक्त वाक्य बन जाता है। इसमें प्रदर्शित की जाने वाली दोनों क्रियाओं का किसी भी प्रतिकूल सामग्री से 'अभाव जैसी स्थिति' का रूप दिखलाई पड़ता है। इस लकार को हिन्दी में 'हेतु-हेतुमद् भूतकाल' कहते हैं। तथा गुजराती-भाषा में यह 'संकेत-भूतकाल' नाम से भी बोला जाता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- जइ मेहो होज्ज, तया तणं होज्जा=यदि जल वर्षा हुई होती तो घास हुआ होता। इस उदाहरण से विदित होता है कि पूर्व वाक्यांश- कारण रूप है और उत्तर वाक्यांश कार्य रूप अथवा फल रूप है। यों हेतु हेतुमतभाव (Cause and effect) के अर्थ में क्रियातिपति का प्रयोग होता है।
प्राकृत भाषा में धातुओं के प्राप्तांगों में ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्ययों की संयोजना कर देने से उन धातुओं का रूप क्रियातिपत्ति नामक लकार के अर्थ में तैयार हो जाता है। यों संस्कृत भाषा में क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्तप्य प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल 'ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- अभविष्यत्, अभविष्यन्, अभविष्यः, अभविष्यत, अभविष्यम् और अभविष्याम होज्ज तथा होज्जा-वह हुआ होता, वे हुए होते' तू हुआ होता, तुम हुए होते, मैं हुआ होता
और हम हुए होते। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- यदि अभविष्यत् वर्णनीयः जई होज्ज वण्णणिजो-यदि वर्णन योग्य हुआ होता (वाक्य अधूरा है); इस प्रकार से 'कारण कार्यात्मक क्रियातिपत्ति का स्वरूप समझ लेना चाहिये। कोई-कोई आचार्य कहते हैं कि इसका प्रयोग भूतकाल के समान ही भविष्यत्काल के अर्थ में भी हो सकता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 223 अभविष्यत्, अभविष्यन्, अभविष्यः, अभविष्यत, अभविष्यम् और अभविष्याम संस्कृत के क्रियातिपत्ति-बोधक लुङ्लकार के तीनों पुरुषों के एकवचन के तथा बहुवचन के क्रमशः अकर्मक परस्मैपदी क्रियापद के रूप है। इन सभी रूपों का प्राकृत रूपान्तर समान रूप से 'होज्ज एवम् होज्जा' होता है। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू=भव्' के स्थान पर 'हो' अंग की प्राप्ति और ३-१७९ से क्रियातिपत्ति के अर्थ में तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में संस्कृत प्रत्ययों के स्थान पर समुच्चय रूप से प्राकृत में 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होकर 'होज्ज तथा होज्जा' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'जई अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४० में की गई है। क्रियातिपत्ति-अर्थक होज्ज' क्रियापद के रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
वर्णनीयः संस्कृत के विशेषणात्मक अकारान्त पुंलिंग के प्रथमा विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप वण्णणिज्जो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से रेफ रूप 'र' व्यंजन का लोप, २-८९ से लोप हुए रेफ रूप '' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' वर्ण को द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-८४ से प्राप्त दीर्घ वर्ण 'णी' में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर आगे संयुक्त व्यंजन का सद्भाव होने के कारण से ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-२४५ के सहयोग से तथा १-२ की प्ररेणा से विशेषणीय प्रत्ययात्मक वर्ण 'य' के स्थान पर 'ज' की आदेश प्राप्ति; २-८९ से आदेश-प्राप्त वर्ण 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से विशेषणात्मक स्थिति में प्राप्तांग प्राकृत शब्द 'वण्णणिज्ज' में पुल्लिंग अकारान्तात्मक होने से प्रथम विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतपद 'वण्णणिज्जो' सिद्ध हो जाता है।।३-१७९।।
न्त-माणौ। ३-१८०॥ क्रियातिपत्तेः स्थाने न्तमाणो आदेशौ भवतः।। होन्तो। होमाणो। अभविष्यदित्यर्थः।। हरिण-टाणे हरिणङ्क जइ सि हरिणाहिवं निवेसन्तो। न सहन्तो च्चिअ तो राहु-परिहवं से जिअन्तस्य।।
अर्थः-सूत्र-संख्या ३-१७९ में पूर्ण अर्थक क्रियातिपचि के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ज्ज तथा ज्जा' का उल्लेख किया जा चुका है; किन्तु यदि अपूर्ण हेतु-हेतुमद्-भूतकालिक क्रियातिपत्ति का रूप बनाना होता इस अर्थ में धातु के प्राप्तांग में 'न्त तथा माण' प्रत्यय की संयोजना करने के पश्चात् उक्त अपूर्ण हेतु-हेतुमद्भूतकालिक क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्त रूप में अकारान्त संज्ञा पदों के समान ही विभक्तिबोधक प्रत्यय की संयोजना करना आवश्यक हो जाता है; तद्नुसार वह प्राप्त क्रियातिपत्ति का रूप जिस विशेष्य के साथ में सम्बन्धित होता है; उस विशेष्य के लिंगवचन और विभक्ति अनुसार ही इस क्रियातिपत्ति अर्थक पद में भी लिंग की, वचन की और विभक्ति की प्राप्ति होती है। इस प्रकार ये अपूर्ण हेतु-हेतुमद् भूतकालिक क्रियातिपत्ति के रूप विशेषणात्मक स्थिति को प्राप्त करते हुए क्रियार्थक संज्ञा जैसे पद वाले हो जाते हैं; इसलिये इनमें इनसे सम्बन्धित विशेष्यपदों के अनुसार ही लिंग की, वचन की और विभक्ति प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। ऐसा होने पर प्राकृत रूपों के साथ में सहायक क्रिया 'अस्' के रूपों का सद्भाव वैकल्पिक रूप से होता है। जैसेः- अभविष्यत्-होन्तो अथवा होमाणो होता (हुआ) होता। इस उदाहरण में अपूर्ण हेतु हेतुमद् भूतकालिक क्रियातिपत्ति रूप से प्राप्त रूप होन्त तथा होमाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में प्रत्यय 'डो ओ'की प्राप्ति बतलाई हई है। यों प्राप्त विभक्तिबोधक प्रत्ययों की प्राप्ति अन्य अपूर्ण हेतु-हेतुमद्भूतकालिक क्रियातिपत्ति के रूपों के लिये भी समझ लेनी चाहिये। ग्रन्थकार ग्रंथान्तर से उक्त तात्पर्य को स्पष्ट करने के लिये निम्न प्रकार से वृत्ति में गाथा को उद्धृत करते हैं:गाथा:- हरिण ट्ठाणे हरिणङ्क! जइसि हरिणाहिवं निवेसन्तो।।
न सहन्तो च्चिअ तो राहु-परिहवं से जिअन्तस्स।। संस्कृत :- हरिण-स्थाने हरिणाङ्क ! यदि हरिणाधिपं न्यवेशयिष्यः।।
नासहिष्यथा एव तदा राहु परिभवं अस्य जेतुः।। (अथवा जयतः।।) अर्थः-अरे हरिण को गोद में धारण करने वाला चन्द्रमा! यदि तू हरिण के स्थान पर हरिणाधिपति-सिंह को धारण
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224 : प्राकृत व्याकरण करने वाला होता, तो निश्चय ही तब तू राहु से पराभव को- (तिस्कार को) सहन करने वाला नहीं होता; क्योंकि राहु सिंह से जीता जाने वाला होने के कारण से (वह राहु अवश्यमेव सिंह से डर जाता)। __इस उदाहरण में 'निवेसन्तो, सहन्तो और जिअन्तस्स' पद अपूर्ण हेतु-हेतुमद्-भूतकालिक क्रियातिपत्ति के रूप हैं। इनमें उक्त-अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'न्त' की प्राप्ति हुई है तथा विभक्तिबोधक-प्रत्यय 'डोओ' की और 'स्स' की सम्बन्धानुसार प्राप्ति होकर पदों का निर्माण हुआ है। इस तरह से यह सिद्धान्त प्रमाणित होता है कि उक्त-अर्थक क्रियातिपत्ति के पदों में विशेष्य के अनुसार अथवा सम्बन्ध के अनुसार विभक्तिबोधक प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। यों ये क्रियातिपत्ति अर्थक पद संज्ञा के समान ही विभक्तिबोधक प्रत्ययों को धारण करने वाले हो जाते हैं।
अभविष्यत् संस्कृत के क्रियातिपत्ति प्रथमपुरुष के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत-रूप होन्तो और होमाणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु 'भू=भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' की आदेश प्राप्ति; ३-१८० से प्राप्तांग 'हो' में क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राकृत में क्रम से 'न्त तथा माण' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति और ३-२ से क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्तांग 'होन्त तथा होमाण' में प्रथमा-विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुंल्लिग में संस्कृत प्राप तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो ओ; प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप होन्तो और होमाणो' सिद्ध हो जाते हैं। ___ हरिण-स्थाने संस्कृत के सप्तमी-विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत-रूप हरिण-टाणे होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से 'स्था के स्थान पर 'ठा' की प्राप्ति; २-८९ से आदेश-प्राप्त 'ठ्' के स्थान पर द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति; २-९० से द्वित्व-प्राप्त पूर्व'ठ के स्थान पर'ट् की प्राप्ति; १-२२८ से'न' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति और ३-११ से प्राकत में प्राप्तांग 'हरिण-टाण' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन के अर्थ में संस्कत-प्राप्तव्य प्रत्यय-ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद 'हरिणट्ठाणे' सिद्ध हो जाता है।
हरिणाङ्क संस्कृत के सम्बोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत-रूप हरिणङ्क होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'णा में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे संयक्त वर्ण'' का सदभाव होने के कारण से हस्व स्वर'अ' की प्राप्ति और ३-३८ से सम्बोधन के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'डो-ओ' की प्राप्ति का वेकल्पिक रूप से अभाव होकर 'हरिणङ्क' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जई अव्यय की सिद्धि सत्र-संख्या १-४० में की गई है। 'सि' क्रियापद-रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या ३-१४६ में की गई है।
हरिणाधिपम् संस्कृत के द्वितीया विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हरिणाहिवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की आदेश -प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ३-५ से प्राकृत में प्राप्त-शब्द 'हरिणाहिव' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन के के अर्थ में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'व' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत पद हरिणाहिवं सिद्ध हो जाता है।
न्यवेशयिष्यः संस्कृत के क्रियातिपत्ति के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर निवेसन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से मूल संस्कृत धातु 'निवेशय्' में स्थित तालव्य ‘श के स्थान पर प्राकृत में दन्त्य 'स' की प्राप्ति; १-११ से संस्कृत धातु में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'य' का लोप; ३-१८० से प्राकृत में प्राप्तांग 'निवेस' में कियातिपत्ति के अर्थ में 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्राकृत में क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्तांग 'निवेसन्त' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निवेसन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है।
असहिष्यथाः संस्कृत के क्रियातिपत्ति के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवचन का आत्मनेपदी क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूप सहन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से प्राकृत में प्राप्त हलन्त-धातु 'सह' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१८० से प्राकृत में प्राप्तांग 'सह' में क्रियातिपत्ति के अर्थ में 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्राकृत में क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्तांग 'सहन्त' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद 'सहन्तो सिद्ध हो जाता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 225 "च्चिअ' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१८४ में की गई है।
'तदा' संस्कृत का अव्यय है। इसका प्राकृत-(अपभ्रंश) में 'तो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-४१७ से मूल संस्कृत अव्यय 'तदा' के स्थान पर प्राकृत-(अपभ्रंश) में 'तो' सिद्ध हो जाता है।
राहु-परिभवं संस्कृत के द्वितीया विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप राहु-परिहवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'भ' वर्ण के स्थान पर 'ह' वर्ण की आदेश प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन के अर्थ में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व- वर्ण 'व' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत-पद राहु-परिहवं सिद्ध हो जाता है। 'से' सर्वनाम की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८१ में की गई है।
जेतुः (अथवा जयतः) संस्कृत के षष्ठी विभक्ति के एकचचन का (अथवा तः प्रत्ययांत अव्ययात्मक पद का) रूप है। इसका प्राकृत में क्रियातिपत्ति के अर्थ में षष्ठी-विभक्ति पूर्वक जिअन्तस्स रूप होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से संस्कृत-विशेषणात्मक पद 'जित' में स्थित हलन्त 'त्' का लोप; ३-१८० से क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तांग 'जिअ में 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१० से क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्तांग "जिअन्त' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जिअन्तस्स' सिद्ध हो जाता है।।३-१५०॥
शत्रानशः ॥३-१८१॥ शतृ आनश् इत्येतयोः प्रत्येक 'न्त माण' इत्येतावादेशौ भवतः ।। शतृ। हसन्तो हस- माणो। आनश्। वेवन्तो वेवमाणो। __ अर्थः-कृदन्त चार प्रकार के होते हैं; जिनके नाम इस प्रकार है:- हेत्वर्थ कृदन्त, सम्बन्धभूतकृदन्त, कर्मणिभूतकृदन्त और वर्तमानकृदन्त; इनमें से तीन कृदन्तों के सम्बन्ध में पूर्व में दूसरे और तीसरे पादों में यथा स्थान पर वर्णन किया जा चुका है। चौथे वर्तमान-कृदन्त का वर्णन इसमें किया जाता है। वर्तमान-कृदन्त में प्राप्त सब रूप संज्ञा जैसे ही माने जाते हैं; इसलिये इनमें तीनों प्रकार के लिंगों का सद्भाव माना जाता है और संज्ञाओं के समान ही विभक्तिबोधक प्रत्ययों की भी इनमें संयोजना की जाती है। संस्कृत में वर्तमान-कृदन्त के निर्माणार्थ धातु में सर्वप्रथम दो प्रकार के प्रत्यय लगाये जाते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- (१) शतृ अत्=और (२) शानच-आन अथवा मान। ये प्रत्यय ऐसे अवसर पर होते हैं; जबकि दो क्रियाएं साथ-साथ में होती हों। जैसे:- तिष्ठन् खादति-वह बैठा हुआ खाता है। हसन् जल्पति-वह हँसता हुआ बोलता है। कम्पमानः गच्छति-वह कांपता हुआ जाता है। इत्यादि।
प्राकृत भाषा में वर्तमानकृदन्त भाव का निर्माण करना हो तो धातुओं में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'शतृ और आनश' में से प्रत्येक के स्थान पर 'न्त और माण' दोनों ही प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। चूँकि संस्कृत-भाषा में तो धातुऐं मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं- परस्मैपदी और आत्मनेपदी; तदनुसार परस्मैपदी धातुओं के वर्तमान-कृदन्त के रूप बनाने के लिये केवल 'शतृ=अत्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है और आत्मनेपदी धातुओं के वर्तमान कृदन्त के रूप बनाने के लिये 'शानच्=आन अथवा मान' प्रत्यय की प्राप्ति होती है परन्तु प्राकृत भाषा में धातुओं का ऐसा भेद परस्मैपदी अथवा
आत्मनेपदी जैसा नहीं पाया जाता है; इसलिये प्राकृत भाषा की धातुओं में वर्तमान कृदन्त के रूपों का निर्माण करने के लिये 'न्त और माणं' दोनों प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय की संयोजना की जा सकती है। इसीलिये कहा गया है कि संस्कृत प्राप्त वर्तमान कृदन्तीय प्रत्यय 'शतृ-अत् और शान-आन अथवा मान; में से प्रत्येक के स्थान पर 'न्त और माण' दोनों प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर प्राकृतधातु में किसी भी एक प्रत्यय की संयोजना कर देने से वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में उस धातु का रूप बन जाता है। तत्पश्चात् सर्वसामान्य संज्ञाओं के समान ही सम्बन्धित लिंग एवं वचन के अनुसार सभी विभक्तियों में उन वर्तमान कृदन्त-सूचक पदों में अधिकृत विभक्ति के एकवचन के रूप में हसन्) =हसन्त अथवा हसमाण; (प्रथमा विभक्ति के एकवचन के रूप में 'हसन्तो अथवा हसमाणो') हंसता हुआ। वेपमान; (प्रथमा
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226 : प्राकृत व्याकरण विभक्ति के एकवचन के रूप में वेपमानः)-वेवन्त और वेवमाण; (प्रथमा विभक्ति के एकवचन के रूप में वेवन्तो और वेवमाणो। इन उदाहरणों से स्पष्ट रूप से यह ज्ञात होता है कि संस्कृत-भाषा में परस्मैपदी और आत्मनेपदी धातुओं में क्रम से 'शत-अत् और शानच-(आन अथवा) मान' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है; किन्तु प्राकृत भाषा की धातुओं में उपर्युक्त प्रकार के भेदों का अभाव होने से वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में 'न्त तथा माण' प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय की संयोजना की जा सकती है। तत्पश्चात् यहाँ पर प्राप्त रूपों में अकारान्त पुल्लिंग के समान ही प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में सूत्र-संख्या ३-२ से प्राप्त प्रत्यय 'डो-ओ' की संयोजना की गई है। यों अन्य विभक्तियों के सम्बन्ध में भी वर्तमान कृदन्त के अर्थ में प्राप्त रूपों की स्थिति को समझ लेना चाहिये। __ हसत्-हसन् संस्कृत के वर्तमान कृदन्त के प्रथमा विभक्ति के एकवचन का पुल्लिंग-द्योतक रूप है। इसके प्राकृत रूप हसन्तो और हसमाणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२३७ से प्राकृत में प्राप्त हलन्त धातु 'हस' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति' ३-१८१ से प्राप्त धातु अंग 'हस' में वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'शत-अत्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'न्त और माण' प्रत्ययों की प्राप्ति और ३-२ से वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राप्तांग अकारान्त प्राकृतपद 'हसन्त और हसमाण' में पुल्लिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद हसन्तो और हसमाणो सिद्ध हो जाते हैं।
वेपमानः संस्कृत के वर्तमान-कृदन्त के एकवचन का पुल्लिंग-द्योतक रूप है। इसके प्राकृत रूप वेवन्तो और वेवमाणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३१ से मूल संस्कृत धातु 'वे' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'ए' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ४-२३९ से आदेश-प्राप्त हलन्त व्यञ्जन 'व्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१८१ से प्राकृत में प्राप्तांग 'वेव' में वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'शानच्=मान' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'न्त और माण' प्रत्ययों की प्राप्ति
और ३-२ से वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राप्तांग अकारान्त पुल्लिंग प्राकृतपद 'वेवन्त तथा वेवमाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में 'डो ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद वेवन्तो तथा वेवमाणो क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। ३-१८१।।
ई च स्त्रियाम्।। ३-१८२॥ __स्त्रियां वर्तमानयोः शत्रानशोः स्थाने ई चकारात् न्तमाणौ च भवन्ति।। हसई। हसन्ती। हसमाणी। वेवई। वेवन्ती। वेवमाणी।।
अर्थः- प्राकृत भाषा में स्त्रीलिंग के अर्थ में वर्तमान-कृदन्त भाव का निर्माण करना हो तो धातुओं में संस्कृत प्रत्यय 'शतृ-अत् और शानच्=आन अथवा मान' में से प्रत्येक के स्थान पर 'न्त और माण तथा ई' यों तीनों ही प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। परन्तु यह ध्यान में रहे कि स्त्रीलिंग स्थिति के सद्भाव में जैसे संस्कृत में परस्मैपदी धातुओं में उक्त प्रत्यय 'शतृ-अत्' के स्थान पर 'ती अथवा न्ती' प्रत्यय की स्वरूप प्राप्ति हो जाती है तथा आत्मनेपदी धातुओं में उक्त प्रत्यय 'शानच्=आन अथवा मान' के स्थान पर आना अथवा माना' प्रत्यय की स्वरूप प्राप्ति होती है, वैसे ही प्राकृत भाष में भी स्त्रीलिंग स्थित के सद्भाव में उक्त रीति से आदेश-प्राप्त वर्तमान-कृदन्त-अर्थक प्रत्यय 'न्त और माण' के स्थान पर 'न्तो, न्ता, माणी और माणा' प्रत्ययों की स्वरूप प्राप्ति हो जाती है। जहाँ पर वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में स्त्रीलिंग स्थिति के सद्भाव में उक्त प्रत्यय 'न्ती, न्ता, माणी ओर माणा' प्रत्ययों की संयोजना नहीं की जायेगी; वहाँ पर केवल धातु अंग में दीर्घ 'ई' की संयोजना कर देने मात्र से ही वह पद स्त्रीलिंगवाचक होता हआ वर्तमान कदन्त-अर्थक पद बन जायेगा। इस प्रकार प्राकृत भाषा में स्त्रीलिंग के सद्भाव में वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में धातुओं में पाँच प्रकार के प्रत्ययों की प्राप्ति हो जाती है; जो कि इस प्रकार है:- 'ई, न्ती, न्ता, माणा और माणी'। तत्पश्चात् वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राप्त दीर्घ ईकारान्त अथवा आकारान्त स्रलिंगवाचक पदों के सभी विभिक्तियों के रूप पहले वर्णित ईकारान्त और आकारान्त स्त्रीलिंग वाचक संज्ञा शब्दों के समान ही बन जाया करते हैं। जैसे प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में वर्तमान-कृदन्त सूचक स्त्रीलिंग वाचक पदों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- हसती अथवा हसन्तीहसई, हसन्ती (हसन्ता), हसमाणी (और हसमाणा)-हँसती हुई (स्त्री) दूसरा उदाहरणः- वेपमाना-वेवई, वेवन्ती, (वेवन्ता), वेवमाणी (और वेवमाणा) काँपती
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__ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 227 हुई। यों अन्य विभक्तियों के रूपों की भी वर्तमान-कृदन्त के सद्भाव में स्वयमेव कल्पना कर लेनी चाहिये। - हसती अथवा हसन्ती संस्कृत के वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राप्त प्रथमा विभक्ति के एकवचन के स्रीलिंग-द्योतक रूप हैं। इनके प्राकृत रूप हसइ, हसन्ती और हसमाणी होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से मूल हलन्त प्राकृत धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१८२ से तथा ३-१८१ से क्रम से प्रथम रूप में तथा द्वितीय-तृतीय रूपों में प्राप्त धातु-अङ्ग 'हस्' में वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राकृत प्रत्यय 'इ' और 'न्त तथा माण' प्रत्ययों की प्राप्ति; ३-३२ से द्वितीय और तृतीय रूपों में वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राप्त पद 'हसन्त और हसमाण' में स्त्रीलिंग-भाव के प्रदर्शन में डीई' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'हसन्ती तथा हसमाणी' की प्राप्ति और ३-२८ से वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राप्त स्त्रीलिंग-पद 'हसई, हसन्ती और हसमाणी' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृत प्रत्यय 'सि' का प्राकृत में लोप होकर प्राकृत-पद 'हसई, हसन्ती और हसमाणी' सिद्ध हो जाते हैं। __ वेपमान संस्कृत के वर्तमान-कृदन्त के प्रथमा विभक्ति के एकवचन का स्त्रीलिंग-द्योतक रूप है। इसके प्राकृत-रूप वेवई, वेवन्ती और वेवमाणी होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३१ से मूल संस्कृत धातु 'वेप्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति, ४-२३९ से प्राप्त प्राकत हलन्त धात रूप'वेव में विकरण प्रत्यय'अकी प्राप्ति; ३-१८२ से तथा ३-१८१ से प्राप्तांग धातु 'वेव' में क्रम से प्रथम रूप में तथा द्वितीय-तृतीय रूपों में वर्तमान कृदन्त के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ई' और न्त तथा माण' प्रत्ययों की प्राप्ति; ३-३२ से द्वितीय और तृतीय रूपों में वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राप्त पद 'वेवन्त और वेवमाण' में स्त्रीलिंग-भाव के प्रदर्शन में 'ङी-ई' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'वेवन्ती और वेवमाणी' रूपों की प्राप्ति; और ३-२८ से वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राप्त स्त्रीलिंग-पद 'वेवई, वेवन्ती
और वेवमाणी' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य संस्कृत प्रत्यय 'सि' का प्राकृत में लोप होकर प्राकृत-पद 'वेवई, वेवन्ती और वेवमाणी' सिद्ध हो जाते हैं। ।३-१८२।।
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र विरचितायां सिद्ध हेमचन्द्राभिघानस्वोपज्ञ शब्दानुशासनवृत्तौ अष्टमस्याध्यायस्य तृतीयः पादः॥३॥
इस प्रकार श्री हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन' नामक संस्कृत-प्राकृत व्याकरण के आठवें अध्याय का तीसरा पाद 'स्वोपज्ञ वृत्ति सहित' अर्थात् स्व-निर्मित संस्कृत-टीका-'प्राकशिका' सहित समाप्त हुआ। इसके साथ-साथ 'प्रियोदय' नामक हिन्दी व्याख्या रूप विवेचन भी तृतीय पाद का समाप्त हुआ।।
पादान्त-मंगलाचरण ऊर्ध्व स्वर्ग-निकेतनादपि तले पातालमूलादपि; त्वत्कीर्तिभ्रंमति क्षितीश्वरमणे पारे पयोधेरपि। तेनास्याः प्रमदास्वभावसुलभैरूच्चाव चैश्चापले
स्ते वाचंयम-वृत्तयोपि मुनयो मौनव्रतं त्याजिताः॥१॥ अर्थः- हे राजाओं में मणि-समान श्रेष्ठ राजन्! तुम्हारी यशकीर्ति ऊँचाई में तो स्वर्ग-लोक तक पहुंची हुई है और नीचे पाताल-लोक की अन्तिम-सीमा तक का स्पर्श कर रही है। मध्य-लोक में यही तुम्हारी कीर्ति पृथ्वी को घेरने वाले महासमुद्र के भी उस द्वितीय किनारे को पार कर गई है। तुम्हारी यह कीर्ति स्त्री-स्वरूप होने के कारण से स्त्री-जन-स्वभाव-जनित इसकी सुलभ चंचलता के कारण से वाणी पर नियंत्रण रखने वाले तथा वाचं-यम-वृत्ति को धारण करने वाले मुनियों को भी अपना मौन-व्रत छोड़ना पड़ रहा है। अर्थात् मौन-व्रत को ग्रहण किए हुए ऐसे बड़े-बड़े मुनिराजों को भी आपकी विशद तथा विमल कीर्ति ने बोलने के लिये विवश कर दिया है।
ॐ !! सर्वविदे नमः!!
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228 : प्राकृत व्याकरण
अथ चतुर्थ पादः
इदितो वा ॥४-१॥ सूत्रे ये इदितो धातवो वक्ष्यन्ते तेषां ये आदेशास्ते विकल्पेन भवन्तीति वेदितव्यम्। तत्रैव चोदाहरिष्यते।।
अर्थः- यहाँ से आगे जिन सूत्रों में संस्कृत-धातुओं के स्थान पर प्राकृत में आदेश-विधि कही जायगी; उन सभी आदेश-प्राप्त धातुओं की स्थिति विकल्प से ही होती है; ऐसा जानना चाहिये। आदेश-प्राप्त धातुओं के उदाहरण यथास्थान पर, वहां पर ही प्रदर्शित किये जाएँगें। कहने का तात्पर्य यह है कि संस्कृत धातुओं के स्थान पर प्राकृत-भाषा में एक ही धातु के स्थान पर एक ही अर्थ वाली अनेक धातुओं के शब्द रूप पाये जाते हैं; उन सभी का संग्रह इस चतुर्थ-पाद में आदेश रूप से एवं वैकल्पिक रूप से किया गया है।।४-१।। कथेर्वज्जर-पज्जरोप्पाल-पिसुण-संघ-बोल्ल-चव-जम्प-सीस-साहाः ॥४-२।। __ कथे र्धातोर्वज्जरादयो दशादेशा वा भवन्ति।। वज्जरइ। पज्जरइ। उप्पालइ। पिसुणइ। संघई। बोल्लइ। चवइ। जम्पइ। सीसइ। साहइ।। उब्बुक्कइ इति तूत्पूर्वस्य बुक्क भाषणे इत्यस्य। पक्षे। कहइ।। एते चान्यैर्देशीषु पठिता अपि अस्माभिर्धात्वादेशीकृता विविधेषु प्रत्यधेषु प्रतिष्ठन्तामिति।। तथा च। वज्जरिओ कथितः वज्जरिऊण कथयित्वा। वज्ज-रणं कथनम्। वज्जरन्तो कथयन्। वज्जरिअव्वं कथयितत्व्यमिति रूप सहस्राणि सिध्यन्ति। संस्कृत-धातुवच्च प्रत्ययलोपागमादि विधिः।। ।
अर्थः- संस्कृत धातु 'कथ्' अर्थात् 'कहना' के स्थान पर प्राकृत भाषा में दस प्रकार के आदेश-रूपों की विकल्प से प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार हैं:- कथ्= (१) वज्जर, (२) पज्जर, (३) उप्पाल, (४ पिसुण, (५) संघ, (६), बोल्ल, (७) चव (८) जम्प, (९) सीस और (१०) कह। इन धातुओं में और आगे आने वाली सब अकारान्त धातुओं में सूत्र-संख्या ४-२३९ से विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति होकर व्यंजनान्त धातुओं जैसी स्थिति से ये धातु 'अकारान्त' स्थिति को प्राप्त हुई हैं। इन अकारान्त रूप से दिखाई पड़ने वाली धातुओं के सम्बन्ध में इस स्थिति का सदैव ध्यान रहे।
वृत्ति में आदेश-प्राप्त धातुओं को उदाहरण पूर्वक इस प्रकार समझाया गया है:- कथयति-वज्जरइ, पज्जरइ, उप्पालइ, पिसणड. संघर्ड. बोल्लड.चवई. जम्पई.सीसड और साहडः इन दस ही धात रूपों का एक ही अर्थ है वह कहता है। चूंकि यह आदेश-विधि वैकल्पिक है अन्तः पक्षान्तर में कथयति के स्थान पर कहइ रूप भी होता है। प्रश्नः- 'उब्बुक्कइ' इस रूप की प्राप्ति कैसे होती है?
उत्तरः- बुक्क धातु का अर्थ भाषण करना होता है; न कि कथन करना; इसलिये बुक्क धातु को अधिकृत धातु कथ् के स्थान पर आदेश-स्थिति की प्राप्ति नहीं होती है। इस बुक्क धातु में उत्' उपसर्ग है; जो कि 'उ' अथवा 'उब्' के रूप में अवस्थित है। इस विवेचन से संस्कृत धातु रूप भाषते के स्थान पर प्राकृत में उब्बुक्कइ रूप की आदेश प्राप्ति हुई है।
संस्कृत-धातुओं के स्थान पर प्राकृत में उपलब्ध धातु-रूपों को अन्य वैयाकरणों ने 'देशी भाषाओं के धातु-रूपों की संज्ञा दी है; परन्तु हमने (हेमचन्द्र ने) तो इन धातु-रूपों को वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्त धातु ही मानी है, तथा ये प्राकृत भाषा की ही धातुएं हैं; ऐसा पूर्णतया मान लिया गया है; इसलिये इनमें विविध काल-बोधक प्रत्ययों को तथा आज्ञार्थक आदि सभी लकारों के एवं कृदन्तो के प्रत्ययों को जोड़ना चाहिये। थोड़े से उदाहरण इस प्रकार हैं:
(१) कथितः वज्जरिओ-कहा हुआ; (२) कथयित्वा-वज्जरिऊण कह करके; (३) कथनम् वज्जरणं-कहना, कथन करना; (४) कथयन् वज्जरन्तो कहता हुआ; (५) कथयितव्यम् वज्जरिअव्वं-कहना चाहिये; यों हजारों रूपों की साधना स्वयमेव कर लेनी चाहिये।
इन धातुओं में प्रत्यय, लोप, आगम' आदि की विधियाँ संस्कृत-धातुओं के समान ही जाननी चाहिये।४-२।।
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दुःखे णिव्वरः ||४-३।।
दुःखविषयस्य कथेणिव्वर इत्यादेशो वा भवति ।। णिव्वरइ दुःखं कथयतीत्यर्थः ॥
अर्थ:- 'दुख को कहना, दुःख को प्रकट करना इस अर्थ में प्राकृत में विकल्प से 'णिव्वर' इस प्रकार के धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे- दुःखं कथयति णिव्वरइ = वह दुःख को कहता है; दुःख को प्रकट करता है ।।४-३।। जुगुप्से झुण-दु गुच्छ-दुगुञ्छाः ।।४-४।।
प्रेय आदेशा वा भवन्ति ।। झुणइ । दुगुच्छ । दुगुञ्छइ । पक्षे। जुगुच्छइ ।। गलोपे। दुउच्छइ । दुउञ्छइ । जुउच्छइ ।।
अर्थः- ‘घृणा करना, निन्दा करना' इस अर्थ में प्रयुक्त होने वाली संस्कृत - धातु 'जुगुप्स' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से तीन प्रकार की धातुओं की आदेश प्राप्ति होती है। वे क्रम से यों हैं: (१) झुण, (२) दुगुच्छ और (३) दुगुञ्छ। उदाहरण इस प्रकार है:- जुगुप्सति - झुणइ, दुगुच्छइ, दुगुञ्छइ = वह घृणा करता है अथवा वह निन्दा करता है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में जुगुच्छइ ऐसा रूप भी होगा ।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 229
सूत्र - संख्या १ - १७७ से मूल धातु जुगुच्छ में से विकल्प से 'ग' का लोप होने पर पूर्वोक्त तीनों रूपों की क्रम से वैकल्पिक प्राप्ति यों होगी :- (१) दुउच्छइ, (२) दुउञ्छइ और (३) जुउच्छइ = वह घृणा करता है अथवा निन्दा करता है।।४-४।। बुभुक्षि- वीज्योर्णीरव-वोज्जौ ।।४-५।।
बुभुक्षेराचार क्विबन्तस्य च वीजेर्यथासंख्यमेतावादेशौ वा भवतः ।। णीरवइ । बहुक्ख इ। वोज्जइ । वीजइ । । अर्थ:- 'भूख' अर्थक संस्कृत धातु 'बुभुक्ष' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'णीरव' धातु की आदेश प्राप्ति होती है; यों' बुभुक्ष' के स्थान पर बुहुक्ख और णीरव दोनों धातुओं का प्रयोग होता है। जैसे- बुभुक्षति - णीरवइ अथवा बुहुक्ख-वह भूख अनुभव करता है अथवा वह भूखा है। इसी प्रकार से 'हवा के लिये पंखा करना' इस अर्थवाली और आचार अर्थक क्विप् प्रत्ययान्त वाली धातु 'वीज्' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'वोज्ज' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे - वीजयति = वोज्जइ अथवा वीजइ = वह पंखा करता है। यों क्रम से दोनों धातुओं के स्थान पर विकल्प से उपर्युक्त धातुओं की आदेश प्राप्ति जानना चाहिये । । : ४-५ ॥
ध्या - गो र्झा - गौ ॥४-६।।
अनयोयथा -संख्यं झा गा इत्यादेशौ भवतः झाइ । झाअइ । णिज्झाइ । णिज्झाअइ । निपूर्वोदर्शनार्थः । गाइ । गाय । झांण । गाणं ।।
अर्थः- संस्कृत धातु 'ध्यै' के स्थान पर प्राकृत में 'झा' धातु को नित्य रूप से आदेश प्राप्ति होती है इसी प्रकार से गायन करने अर्थक धातु 'गे' के स्थान पर भी नित्य रूप से 'गा' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे- ध्यायति=झाइ अथवा झाअइ = वह ध्यान करता है।
ध्यान पूर्वक देखने के अर्थ में जब 'ध्यै' धातु के पूर्व में 'निर' उपसर्ग की प्राप्ति होती है, उस समय में भी 'ध्यै' के स्थान पर 'झा' धातु-रूप की ही आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-निर्ध्यायति णिज्झाइ अथवा णिज्झाअइ = वह ध्यान पूर्वक देखता है। 'गै' धातु का उदाहरण यों है:- गायति-गाइ अथवा गायइ-वह गाता है- गायन करता है।
इसी सूत्र - सिद्धान्त से संस्कृत शब्द 'ध्यान' और (गायन अथवा ) 'गान' के स्थान पर प्राकृत में 'झाण' और 'गाण' शब्दों की क्रम से प्राप्ति होती है। जैसे- ध्यानम् = झाणम् और गानम् = गाणं। ये दोनों शब्द नपुंसकलिंग होने से इनमें सूत्र - संख्या ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। सूत्र - संख्या १ - २३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से झाणं और गाणं रूपों की सिद्धि हो जाती है । ४-६।।
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230 : प्राकृत व्याकरण
ज्ञो जाण-मुणौ ।।४-७॥ जाणत ॥ण मुण इत्यादेशौ भवतः।। जाणइ। मुणइ। बहुलाधिकारात् क्वचित् विकल्पः। जाणि णाय। जाणिऊण। णाऊण। जाणणं। णाणं। मणइ इति तु मन्यतेः॥ । ___ अर्थ:-जानने रूप ज्ञानार्थक धातु 'झा' के स्थान पर प्राकृत में नित्यरूप से 'जाण और मुण' इन दो धातुओं की क्रम से आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-जानाति-जाणइ अथवा मुणइ वह जानता है। बहुलं' सूत्र का सर्वत्र अधिकार होने से कहीं-कहीं पर विकल्प से 'ज्ञा' से प्राप्त रूप 'णा' भी देखा जाता है। जैसे:- ज्ञातं-जाणिअं अथवा णायं-जाना हुआ। ज्ञात्वा जाणिऊण अथवा णाऊण जान करके। ज्ञानम्-जाणणं अथवा णाणं-जानना रूप ज्ञान। यों वैकल्पिक-स्थिति का भी ध्यान रखना चाहिये।
प्राकृत में जो ‘मणइ रूप देखा जाता है; उसकी प्राप्ति तो 'मानने-स्वीकार करने, अर्थक संस्कृत धातु 'मन्' से हुई है। जैसे- मन्यते-मणइ-वह मानता है अथवा वह स्वीकार करता है। यों मण धातु को जाण और मुण धातुओं से पृथक् ही समझना चाहिये। ।।४-७||
उदो ध्मो धुमा॥४-८॥ उदः परस्य ध्मो धातो—मा इत्यादेशो भवति।। उद्धुमाइ॥
अर्थः- उद् उपसर्ग जुड़ा हुआ है जिसकी, ऐसी 'ध्मा' धातु के स्थान पर प्राकृत में 'धुमा' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-उद्धमति-उद्धमइ-वह प्रदीप्त करता है; वह तपाता है।।४-८।।
श्रदो धो दहः।। ४-९॥ श्रदःपरस्य दधातेर्दह इत्यादेशो भवति।। सद्दहइ। सद्दहमाणो जीवो।।
अर्थः- श्रुत् अव्यय के साथ संस्कृत धातु 'धा के प्राप्त रूप 'दधाति' में रहे हुए 'दधा' अंश के स्थान पर प्राकृत में 'दह' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे- श्रद्दधाति-सद्दहइ-वह श्रद्धा करता है, वह विश्वास करता है। श्रद्धमानो जीवः सद्दहमाणो जीवो श्रद्धा करता हुआ जीव आत्मा।। ४-९।।।
पिबेः पिज्ज-डल्ल-पट्ट-घोटाः।। ४-१०।। पिबते रेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति।। पिज्जइ। डल्लइ। पट्टइ। घोट्टइ। पिअइ।।
अर्थः- संस्कृत धातु 'पा=पिब' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'पिज्ज, डल्ल, पट्ट और घोट्ट' इन चार आदेशों की प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पिब् के स्थान पर 'पिअ रूप भी होता है। उदाहरण इस प्रकार है:- पिबति-पिज्जइ, डल्लइ, पट्टइ और घोट्टइ वह पीता है; वह पान करता है। पक्षान्तर में पिबति के स्थान पर पिअइ रूप की प्राप्ति भी होगी।।४-१०॥
उद्वातेरोरुम्मा वसुआ ॥४-११।। उत्पूर्वस्य वातेः ओरुम्मा वसुआ इत्येतावादेशौ वा भवतः ओरुम्माइ। वसुआइ। उव्वाइ।।
अर्थः-उत् उपसर्ग सहित 'वी' धातु के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'आरुम्मा और वसुआ रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में उद्वा-उद्वा' के स्थान पर 'उव्वा' रूप भी होगा। उदाहरण यों है:-उद्वाति-ओरुम्माइ, वसुआइ और उव्वाइ-वह हवा करता है।।४-११।।
__ निद्रातेरोहीरोङ् घौ ।। ४–१२।। निपूर्वस्य द्राते:ओहीर उङ्घ-इत्यादेशौ वा भवतः।। ओहीरइ। उङ्घइ। निद्दाइ।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 231 अर्थः- नि उपसर्ग सहित 'द्राधातु के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'ओहीर और उच' इन दो रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'निद्रा' के स्थान पर 'निद्दा' रूप भी होगा। जैसे:- निद्राति-ओहरिइ, उङइ और निद्दाइ-वह निद्रा लेता है ।।४-१२।।
__ आघेराइग्घः ।।४-१३।। आजिघ्रते राइग्घ इत्यादेशो वा भवति।। आइग्घइ। अग्घाइ।
अर्थः- संस्कृत धातु 'आजिघ्' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'आइग्घ' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में अग्घा रूप भी होगा। जैसे-आजिघ्रति आइग्घइ और अग्घाइ-वह सूंघता है।।४-१३॥
स्नातेरब्भुत्तः।। ४-१४॥ स्नातेरब्भुत्त इत्यादेशो वा भवति।। अब्भुत्तइ। णहाइ।।
अर्थः- संस्कृत धात, 'स्ना' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'अब्भुत्त' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'हा' रूप भी होगा। जैसे-स्नाति अब्भुत्तइ और ण्हाइ-वह स्नान करता है।।४-१४।।
समः स्त्यः खाः ॥४-१५॥ संपूर्वस्य स्त्यायतेः खा इत्यादेशो भवति।। संखाइ। संखाय।।
अर्थः- सम् उपसर्ग के साथ संस्कृत धातु 'स्त्यै-स्त्याय' के स्थान पर प्राकृत में 'खा' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे संस्त्यायति-संखाइ-वह घेरता है, वह फैलाता है। वह सर्व प्रकार से चिन्तन करता है। संस्त्यनम् संखायं ध्यान करना, चिन्तन करना।। ४-१५।।
स्थष्ठा-थक्क-चिट्र-निरप्पाः ।। ४-१६।। __ तिष्ठतेरेते चत्वार आदेशा भवन्ति। ठाइ। ठाअइ। ठाणं। पट्टिओ। उट्ठिओ। पट्टाविओ। उट्ठाविओ। थक्कइ। चिट्ठइ। चिट्ठऊण। निरप्पइ।। बहुलाधिकारात् क्वचिन्न भवति। थि। थाणं। पत्थिओ। उत्थिओ। थाऊण।
अर्थः- ठहरने अर्थ वाली संस्कृत धातु 'स्था-तिष्ठ' के स्थान पर प्राकृत में चार आदेश रूपों की प्राप्ति होती है। वे इस प्रकार हैं:- (१) ठा, (२) थक्क (३) चिट्ठ और (४) निरप्प। उदाहरण इस प्रकार हैं:- तिष्ठति-ठाइ, ठाअइ, थक्कइ, चिट्ठइ, निरप्पइ वह ठहरता है। अन्य उदाहरण भी इस प्रकार हैं:- (१) स्थानम्-ठाणं स्थान। ( प्रस्थितः पट्रिओ-जाता हुआ; (३) उत्थितः उट्रिओ-उठता हुआ अथवा उठा हुआ; (४) प्रस्थापितः पट्टाविओ-रखा हुआ अथवा रखता हुआ; (५) उत्थापितः उठ्ठाविओ-उठाया हआ, स्थित्वा चिट्रिऊण-ठहर करके। ___ बहुल सूत्र के अधिकार से कहीं-कहीं पर उक्त आदेश प्राप्ति नहीं भी होती है, जैसे कि- स्थितम् थिअं-ठहरा हुआ, रखा हुआ। स्थानं थाणं-स्थान। प्रस्थितः पत्थिओ-प्रस्थान किया हुआ, जाता हुआ। उत्थितः उत्थिओ उठा हुआ और स्थित्वा थाऊण ठहर करके। यों सर्वत्र आदेश रहित स्थिति को भी समझ लेना चाहिये। ।।४-१६।।
उदष्ठ-कुक्कुरौ ॥४-१७॥ उदः परस्य तिष्ठतेः ठ कुक्कुर इत्यादेशौ भवतः।। उट्ठइ।। उक्कुक्कुरइ।।
अर्थः-उत् उपसर्ग सहित होने पर 'स्था-तिष्ठ्' धातु के स्थान पर 'ठ' और कुक्कुर' धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- उत्तिष्ठति-उट्ठइ और उक्कुक्कुरइ-वह उठता है ।।४-१७।।
म्लेर्वा-प्वायौ।। ४-१८।। म्लायतेर्वा पव्वाय इत्यादेशौ वा भवतः।। वाइ। पव्वायइ। मिलाइ।
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232 : प्राकृत व्याकरण ___अर्थः- मुरझाना अथवा कुम्हलाना अर्थ वाली संस्कृत धातु 'म्लै' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'वा और पव्वाय' इन दो धातुओं की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षांतर में 'मिला' रूप की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण इस प्रकार हैं:- म्लायति-वाइ, पव्वायइ और मिलाइ-वह कुम्हलाता है, वह मुरझाता है ।। ४-१८।।
निर्मो निम्माण-निम्मवौ ।। ४-१९।। निर् पूर्वस्य मिमीतेरेतावादेशौ भवतः। निम्माणइ। निम्मवइ॥ ___ अर्थः- निर् उपसर्ग सहित 'मा' धातु के स्थान पर प्राकृत में 'निम्माण और निम्मव' ऐसे दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- निर्मिमीते-निम्माणइ और निम्मवइ-वह निर्माण करता है।। ४-१९।।
क्षेर्णिज्झरो वा ।।४-२०॥ क्षयतेर्णिज्झर इत्यादेशो वा भवति।। णिज्झरइ। पक्षे झिज्जइ।।
अर्थः- नष्ट होना अर्थ वाली संस्कृत धातु 'क्षि' के स्थान पर प्राकृत में 'णिज्झर' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'झिज्ज' रूप की भी प्राप्ति होगी। जैसे-क्षयति अथवा क्षयते-णिज्झरइ अथवा झिज्जइ-वह क्षीण होता है, वह नष्ट होता है ।। ४-२०।।
छदे णे णुम-नूम-सन्नुम-ढक्कौम्वाल-पव्वालाः।।४-२१।। छदेय॑न्तस्य एते षडादेशा वा भवन्ति।। णुमई। नूमइ। णत्वे णूमइ। सनुमइ। ढक्कइ। ओम्वालइ। पव्वालइ। छायइ॥
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय 'णिच् पूर्वक 'छद्-छादि' धातु के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से छह धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है, वे क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) णुम, (२) नूम, (३) सन्नुम, (४) ढक्क, (५) ओम्वाल और (६) पव्वाल। सूत्र-संख्या १-२२९ से आदेश-प्राप्त रूप नूम में स्थित आदि नकार को णकार की प्राप्ति होने पर सातवां आदेश प्राप्त रूप 'णूम' भी देखा जाता है।
वैकल्पिक पक्ष होने से आठवां रूप 'छाय' भी होगा। सभी के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- छादयति (अथवा छादयते)=(१) णुमइ, (२) नूमइ, (३) णूमइ, (४) सन्नुमइ, (५) ढक्कइ, (६) ओम्वालइ, (७) पव्वालइ और (८) छायइ-वह ढांकता है, वह आच्छादित करता है।। ४-२१।।
निति पत्योर्णि होडः ॥४-२२।। निवृगःपतेश्च ण्यन्तस्य णिहोड इत्यादेशो वा भवति। णिहोडइ। पक्ष। निवारेइ पाडेइ।।
अर्थः-'नि' उपसर्ग सहित 'ग्' धातु और 'पत्' धातु में प्रेरणार्थक ‘ण्यन्त' प्रत्यय साथ होने पर दोनों धातुओं के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'णिहोड' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः- निवारयति-णिहोडइ-वह रुकवाता है, पक्षान्तर में निवारयति के स्थान पर निवोरइ भी होगा। पातयति=णिहोडइ-वह गिराता है और पक्षान्तर में पाडेइ रूप भी होगा ।। ४-२२।
दूङो दूमः ।। ४-२३॥ दूडो ण्यन्तस्य दूम इत्यादेशो भवति।। दूमेइ मज्झ हिअयं।।
अर्थः-प्ररेणार्थक ण्यन्त प्रत्यय साथ रहने पर दूङ् धातु के स्थान पर प्राकृत में दूम धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-दुनोति मम हृदयं-दूमेइ मज्झ हिअयं वह मेरे हृदय को दुःखी करता है-पीड़ा पहुँचाता है।।४-२३।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 233
धवले र्दुमः।। ४-२४।। धवलयतेर्ण्यन्तस्य दुमादेशो वा भवति॥ दुमइ। धवलइ। स्वराणां स्वरा (बहुलम्) (४-२३८) इति दीर्घत्वमपि। दूमि धवलितमित्यर्थः।।
अर्थः- प्रेरणार्थक ‘ण्यन्त' प्रत्यय के साथ संस्कृत धातु 'धवल' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'दुम' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः-धवलयति दुमइ अथवा धवलइ-वह सफेद कराता है, वह प्रकाशमान कराता है।
सूत्र-संख्या ४-२३८ के विधान से प्राकृत भाषा के पदों में रहे हुए स्वरों के स्थान पर प्रायः अन्य स्वरों की अथवा दीर्घ के स्थान पर हस्व स्वर की और हस्व स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- धवलितम् दूमिअं अथवा दुमिअं-सफेद कराया हुआ अथवा प्रकाशमान कराया हुआ ।। ४-२४।।
तुले रोहामः।। ४-२५।। तुलेण्यन्तस्य ओहाम इत्यादेशो वा भवति। ओहामइ। तुलई।।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु 'तुल' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'ओहाम' धातु रूप की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। जैसे :- तुलयति ओहामइ=वह तोल कराता है। पक्षान्तर में 'तुलइ =वह तोल कराता है।।४-२५।।
विरचेरोलुण्डोल्लुण्ड-पल्हत्थाः।।४-२६॥ विरेचयतेय॑न्तस्य ओलुण्डादयस्नय आदेशा वा भवन्ति।। ओलुण्डइ। उल्लुण्डइ। पल्हत्थइ। विरेअइ।। __ अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय 'ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु 'विरेच्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से तीन धातु आदेश हुआ करते हैं; जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) ओलुण्ड, (२) उल्लुण्ड और (३) पल्हत्थ। पक्षान्तर में विरेअ रूप भी होगा। उदाहरण यों है:-विरेचयति-ओलुण्डइ, उल्लुण्डइ, पल्हत्थइ-वह बाहर निकलवाता है; वह विरेचन (झराना टपकाना) कराता है। पक्षान्तर में विरेचयति का विरेअइ रूप भी बनेगा।। ४-२६।।
तडेराहोड-विहोडौ।।४-२७।। तडेय॑न्तस्य एतावादेशो वा भवतः। आहोडइ। विहोडइ। पक्षे। ताडेइ।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु 'तड्' के स्थान पर प्राकृत में 'आहोड' और 'विहोड' ऐसी दो धातुओं की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'ताड' रूप की भी प्राप्ति होगी। जैसेः- ताडयति=आहोडइ और विहोडइ-वह मारपीट कराता है, वह ताड़ना कराता है। पक्षान्तर में तोडेइ' रूप होगा ।।४-२७।।
मिश्रेर्वीसाल-मेलवौ।।४-२८॥ मिश्रयतेय॑न्तस्य वीसाल मेलव इत्यादेशौ वा भवतः।। वीसालइ। मेलवइ। मिस्सइ।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु 'मिथ्र' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वे हैं (१) वीसाल और मेलवा पक्षान्तर में 'मिस्स' रूप भी होगा। उदाहरण यों है:- मिश्रयति-वीसालइ और मेलवइ-वह मेल मिलाप कराता है, वह भेल संभेल कराता है। पक्षान्तर में मिस्सइ रूप होता है।।४-२८||
उद्धृलेर्गुण्ठः ॥ ४-२९॥ उद्भूलेर्ण्यन्तस्य गुण्ठ इत्यादेशो वा भवति।। गुण्ठइ। पक्षे। उद्धलेइ।।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित तथा उद् उपसर्ग सहित संस्कृत धातु 'धूल' के स्थान पर प्राकृत में 'गुण्ठ' धातु-रूप को विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में उर्दूल रूप भी बनेगा। जैसे:-उद्धृलयति-गुण्ठइ अथवा उद्धृलेइ-वह ढंकाता है वह व्याप्त कराता है, वह अच्छिादित कराता है ।। ४-२९।।
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234 : प्राकृत व्याकरण
भ्रमेस्तालिअण्ट - तमाडौ ।।४-३०।।
भ्रमयतेर्ण्यन्तस्य तालिअण्ट तमाड इत्यादेशौ वा भवतः ।। तालिअण्टइ। तमाडइ । भामेइ । भमाडे । भमावेइ || अर्थः- प्रेरणार्थक 'ण्यन्त' प्रत्यय सहित संस्कृत धातु 'भ्रम्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'तालिअण्ट' और 'तमाड' ऐसे दो धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- भ्रमयति = तालिअण्टइ और तमाडइ = वह घुमाता है। 'भामेइ, भमाडेइ, भमावेइ' रूप भी होते हैं ॥। ४-३०।।
नशेर्विउड - नासव - हारव - विप्पगाल - पलावाः । । ४ - ३१॥
नशेर्ण्यन्तस्य एते पञ्चादेशा वा भवन्ति । विउडइ । नासवइ । हारवइ । विप्पगालइ । पलावइ । पक्षे । नासइ ||
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय 'ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु 'नश्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से पांच धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वे क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) विउड, (२) नासव, (३) हारव, (४) विप्पगाल और (५) पलाव | इनके उदाहरण इस प्रकार हैं :- नाशयति-विउडइ, नासवइ, हारवइ, विप्पगालइ और पलावइ = वह नाश कराता है।
पक्षान्तर में नासइ भी होगा और इसका अर्थ भी वह नाश कराता है, होगा ।।४-३१।।
दृरोदव - दंस - दक्खवाः।।४-३२।।
दृर्ण्यन्तस्य एते त्रय आदेशा भवन्ति । । दावइ । दंसइ । दक्खवइ । दरिसइ ||
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय 'ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु दृश के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से तीन आदेश होते हैं; वे क्रम से यों हैं:- (१) दाव, (२) दंस और (३) दक्खव । इनके उदाहरण इस प्रकार हैं:- दर्शयति=दावइ, दंसइ और दक्खवइ=वह बतलाता है अथवा वह प्रदर्शित कराता हैं पक्षान्तर में दरिसइ रूप होता है ।।४-३२ ||
उद्घटेरुग्ग: ।।४-३३॥
उत्पूर्वस्य घटेर्ण्यन्तस्य उग्ग इत्यादेशो वा भवति ।। उग्गइ। उग्घाडइ।।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ' ण्यन्त' सहित तथा उत उपसर्ग सहित संस्कृत धातु 'घट्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से ‘उग्ग' ऐसे धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती हैं। जैसे:- उद्घाटयति-उग्गइ = वह प्रारम्भ कराता है अथवा वह खुला कराता है। पक्षान्तरे उग्घाडइ रूप भी होता है ।।४-३३ ।।
स्पृहः सिहः ।।४-३४॥
स्पृह ण्यन्तस्य सिह इत्यादेशो भवति ।। सिहइ ।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय 'ण्यन्त' सहित संस्कृत - धातु 'स्पृह' के स्थान पर प्राकृत भाषा में नित्य रूप से 'सिंह' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- स्पृहयति - सिहइ = वह चाहना-इच्छा कराता है ।।४-३४।।
संभावेरासंघः ।।४-३५।।
संभावयतेरासङ्घ इत्यादेशो व भवति ।। आसङ्घइ । संभावइ ||
अर्थः-संस्कृत-धातु संभावय के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'आसङ्घ' ऐसे धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती हैं। पक्षान्तर में संभावय के स्थान के पर 'संभाव' रूप भी होगा । जैसे- संभावयति आसङ्घइ, पक्षान्तर में संभावइ-वह संभावना कराता है ।। ४-३५ ।।
उन्नमेरूत्थंघोल्लाल-गुलु गुञ्छोप्पेलाः ।। ४-३६।।
उत्पूर्वस्य नमेर्ण्यन्तस्य एते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । उत्थङ्घइ । उल्लालइ । गुलुगुञ्छइ । उप्पेलइ। उन्नामइ ।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 235 अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित तथा उत् उपसर्ग सहित संस्कृत-धातु 'नम्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में वैकल्पिक रूप से चार धातुओं की आदेश प्राप्ति होती हैं। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) उत्थंघ, (२) उल्लाल (३) गुलुगुञ्छ और (४) उप्पेल। पक्षान्तर में 'उन्नाम' रूप की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण इस प्रकार है :उन्नामयति-उत्थंघइ, उल्लालइ, गुलुगुञ्छइ, उप्पेलइ और उन्नामइ, वह ऊँचा उठाता है। वह उपर उठाता है।।४-३६।।
प्रस्थापेः पट्रव-पेण्डवौ ।।४-३७।। प्रपूर्वस्य तिष्टतेय॑न्तस्य पटुव पेण्डव इत्यादेशौ वा भवतः ।। पटुवइ। पेण्डवइ। पट्टावा।।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित तथा 'प्र' उपसर्ग सहित संस्कृत-'धातु प्रस्थाप' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'पट्रव और पेण्डव' रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः- प्रस्थापयति-पट्टवइ और पेण्डवइ-वह स्थापित करवाता है। पक्षान्तर में 'पट्ठावइ' रूप भी होता है ।।४-३७।।
विज्ञपेर्वोक्कावुको ।।४-३८।। विपूर्वस्य जानतेय॑न्तस्य वोक्क अवुक्क इत्यादेशौ वा भवतः।। वोक्कइ। अवुक्कइ। विण्णवइ।।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय 'ण्यन्त सहित तथा 'वि' उपसर्ग सहित विशेष ज्ञान कराने अर्थक अथवा विनय-विनति कराने अर्थक संस्कृत धातु 'विज्ञप' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'वोक्क' और 'अवुक्क' ऐसी दो धातुओं की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में विज्ञापय' का प्राकृत रूपान्तर 'विण्णव' भी बनेगा। उदाहरण इस प्रकार है:विज्ञापयति वोक्कइ, अवुक्कइ और विण्णवइ-वह विशेष ज्ञान करवाता है अथवा वह विनति करवाता है ।। ४-३८।।
अर्परल्लिव-चच्चुप्प-पणामाः।।४-३९।। अर्पर्ण्यन्तस्य एते त्रय आदेशा वा भवन्ति।। अल्लिवइ। चच्चुप्पइ। पणामइ। पक्षे अप्पेइ।।
अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु 'अर्प' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से तीन धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार से हैं:- (१) अल्लिव, (२) चच्चुप्प और (३) पणाम। पक्षान्तर में 'अप्प' रूप भी बनेगा। चारों के उदाहरण इस प्रकार है:- अर्पयतिअल्लिवइ, चच्चुप्पइ, पणामइ और अप्पेइ-वह अर्पण करवाता है ।।४-३९।।
यापेर्जवः।।४-४०॥ यापेर्ण्यन्तस्य जव इत्यादेशो वा भवति।। जवइ। जावे ।।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' संस्कृत-धातु 'याप्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जव' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'जाव' रूप की भी प्राप्ति होगी ही। जैसे:- यापयति-जवइ अथवा जावेइ-वह गमन करवाता है; वह व्यतीत करवाता है।। ४-४०।।
__प्लावेरोम्वाल-पव्वालौ ।। ४-४१॥ प्लवते य॑न्तस्य एतावादेशौ वा भवतः।। ओम्वालइ। पव्वालइ। पावे।।।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ण्यन्त' सहित 'भिगोने-तर बतर करने' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्लाव' के स्थान पर प्राकृत भाषा में ओम्वाल और पव्वाल ऐसी दो धातुओं की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। ___ पक्षान्तर में प्लावय के स्थान पर 'पाव' रूप की भी प्राप्ति होगी। जैसे :- प्लावयति-ओम्वालइ, पव्वालइ और पावेइ-वह भिगोवाता है, वह तर-बतर करवाता है। वह भिंजवाता है ।।४-४१।।
विकोशेः पक्खोडः ॥४-४२॥ विकोशयते म धातोर्ण्यन्तस्य पक्खोड इत्यादेशो वा भवति॥ पक्खोडइ। विकोसइ।।
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236 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय 'ण्यन्त' सहित 'विकसित कराना, फैलाना' अर्थक संस्कृत धातु 'विकोश' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'पक्खोड' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है।
पक्षान्तर में विकोशय के स्थान पर विकोस रूप की भी प्राप्ति होगी। जैसे- विकोशयति-पक्खोडइ अथवा विकोसइ-वह विकसित कराता है, वह फैलाता है ।।४-४२ ॥
रोमन्थे रोग्गाल - वग्गोलौ ।।४-४३ ।।
रोमन्थेर्नामधातोर्ण्यन्तस्य एतावादेशौ वा भवतः ।। ओग्गालइ । वग्गोल | रोमन्थइ ।।
अर्थ:- 'चबाई हुई वस्तु को पुनः चबाना' इस अर्थ में काम आने वाली धातु 'रोमन्थ' के साथ जुड़े हुए प्रेरणार्थक प्रत्यय 'ण्यन्त' पूर्वक सम्पूर्ण धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में ' ओग्गाल और वग्गोल' आदेश की प्राप्ति विकल्प से होती है। पक्षान्तर में 'रोमन्थ' का सद्भाव भी होगा। जैसे- रोमन्थयति = ओग्गालइ, वग्गोलइ अथवा रोमन्थइ = वह चबाई हुई वस्तु को पुनः चबाता है - वह पगुराता है ॥४-४३।।
कमेर्णिहुवः।। ४-४४॥
कमेःस्वार्थेण्यन्तस्य णिहुव इत्यादेशो वा भवति।। णिहुवइ। कामेइ।।
अर्थः-स्वार्थ में प्रेरणार्थक प्रत्यय 'ण्यन्त' पूर्वक संस्कृत - धातु कम् के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'णिहुव' की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। प्रेरणार्थक णिच् प्रत्यय की संयोजना से 'कम' धातु का रूप 'काम' हो जायेगा। जैसे:कामयते=णिहुवइ अथवा कामेइ = वह अपने लिये काम भोगों की इच्छा करता है; अथवा इच्छा कराता है।।४-४४।।
प्रकाशेर्णुव्वः ।। ४-४५।।
प्रकाशेर्ण्यन्तस्य णुव्व इत्यादेशो वा भवति ।। णुव्वइ । पयासेइ ||
अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित संस्कृत-धातु 'प्रकाश' के स्थान पर प्राकृत भाषा में णुव्व की प्राप्ति विकल्प से होती है। पक्षान्तर में 'पयास' रूप की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- प्रकाशयति-णुव्वइ अथवा पयासेइ = वह प्रकाश करवाता है ।४-४५ ।। कम्पेर्विच्छोलः।।४-४६॥
कम्पेर्ण्यन्तस्य विच्छोल इत्यादेशो वा भवति । विच्छोलइ । कम्पेई ।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु कम्प के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'विच्छोल' की भी प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'कम्प' की भी प्राप्ति होगी। जैसे- कम्पयति- विचेलई अथवा कम्पई-वह कंपाता है, वह धुजवाता है ॥ ४-४६॥
आरोपेर्वल || ४-४६॥
आरूहे पर्यन्तस्य वल इत्यादेशो वा भवति ।। वलइ । आरोवे ।।
अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय ' ण्यन्त' सहित संस्कृत - धातु आरूह के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'वल' की प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में आरोव को भी प्राप्ति होगी। जैसे:-आरोहयति-वलइ अथवा आरोवेइ = वह चढवाता है। ।।४-४७।।
दोलेरङ्खोलः ।।४ - ४८॥
दुःस्वार्थे ण्यन्तस्य रङ्खोल इत्यादेशो वा भवति ।। रङ्खोल । दोलई ।।
अर्थः- स्वार्थ रूप में प्रेरणार्थक प्रत्यय ' ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु दुल् के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'रङ्खोल' की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'दोल' की भी प्राप्ति होगी। जैसे- दोलयति = रङ्खोलइ अथवा दोलइ-वह हिलाता है अथवा वह झुलाता है ।।४-४८ ।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 237
रजेराव ॥४-४९।। रञ्जय॑न्तस्य राव इत्यादेशो वा भवति।। रावेइ। रजेइ।।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु रञ्ज के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'राव' की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में रज की भी प्राप्ति होगी। जैसे- रञ्जयति रावेइ अथवा रजेइ-वह रंग लगाता है, वह खुशी करता है।।४-४९।।
घटे: परिवाडः।।४-५०।। घटेर्ण्यन्तस्य परिवाड इत्यादेशो वा भवति।। परिवाडेइ। घडेइ।।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित संस्कृत-धातु 'घट्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'परिवाड' की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में घड की प्राप्ति भी होगी। जैसे:-घटयति-परिवाडेइ अथवा घडेइ-वह निर्माण करवाता है। वह रचवाता है ।। ४-५०॥
वेष्टेः परिआलः ॥ ४-५१।। वेष्टेय॑न्तस्य परिआल इत्यादेशो वा भवति।। परिआलेइ। वेढेइ।।
अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित संस्कृत-धातु 'वेष्ट् के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'परिआल' की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में वेढ की भी प्राप्ति होगी। जैसे :- वेष्टयति-परिआलेइ अथवा वेढेइ-वह लपेटता है अथवा लपेटाता है ।।४-५१।।
क्रियः किणो वेस्तु क्के च।। ४-५२।। णेरिति निवृत्तम्। क्रीणातेः किण इत्यादेशो भवति। वेः परस्य तु द्विरुक्तःकेश्चकारात्किणश्च भवति।। किणइ। विक्केइ। विक्किणइ।। __ अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' संबंधी प्रक्रिया एवं इससे संबंधित आदेश प्राप्ति की यहाँ से समाप्ति हो गई है। अब केवल सामान्य रूप से होने वाली आदेश प्राप्ति का ही वर्णन किया जावेगा।
खरीदने अर्थक संस्कृत-धातु 'क्रीणा' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'किण' आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- क्रीणाति अथवा क्रीणीते किणइ वह खरीदता है।
जिस समय में क्री धातु के साथ में 'वि' उपसर्ग जुड़ा हुआ होता है तब प्राकृत भाषा में आदेश प्राप्त किण धातु में रहे हुए 'कि' को द्वित्व 'क्के' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे-विक्रीणाति-विक्केइ-वह बेचता है। यह ध्यान में रहे कि द्वित्व 'क्के की प्राप्ति होने पर 'विकिण' धातु में रहे हुए 'णकार' का लोप हो जाता है। ___ मूल सूत्र में 'चकार' दिया हुआ है, जिसका तात्पर्य यह है कि कभी-कभी 'विकिण' धातु में रहे हुए 'कि' को द्वित्व 'क्कि' की प्राप्ति होकर 'णकार' का लोप भी नहीं होता है। जैसे-विक्रीणाति-विक्किणइ-वह बेचता है ।।४-५२।।
भियो भा-बीहौ ॥४-५३।। बिभेतेरेतावादेशो भवतः।। भाइ। भाइ बीहइ। बीहिआ। बहुलाधिकाराद् भीओ।
अर्थः-डरने अर्थक संस्कृत धातु 'भो' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'भा और बोह' की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- भयति-भाई-वह डरता है; बिभेति बीहइ वह डरता है। भीतं भाइअं और बीहिअं-हरा हुआ अथवा डरे हुए को।
बहुलं सूत्र के अधिकार से 'भीतः' विशेषण का रूपान्तर भीओ भी होता है। भीओ का अर्थ 'डरा हुआ' ऐसा है।४-५३॥
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238 : प्राकृत व्याकरण
आलीङोली ॥४-५४।। आलीयतेः अल्ली इत्यादेशो भवति।। अल्लियइ। अल्लीणो।।
अर्थ :- 'आ' उपससे सहित 'ली' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'अल्ली' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे- आलीयते अल्लियइ-वह आता है, वह प्रवेश करता है, वह आलिङ्गन करता है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:आलीनः-अल्लीणो=आया हुआ, प्रवेश किया हुआ, थोड़ा-सा झुका हुआ ।। ४-५४||
निलीङोर्णिलीअ-णिलुक्क-णिरिग्घ-लुक्क-लिक्क-ल्हिक्काः॥४-५५।। निलीङ् एते षडादेशा वा भवन्ति।। णिलीअइ। णिलुक्कइ। णिरिग्घइ। लुक्कइ। लिक्कइ। ल्हिक्कइ। निलिज्जइ।।
अर्थः- भेटना अथवा जोड़ना अर्थ में प्रयुक्त होने वाली संस्कृत धातु 'नि+ली निली' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से छह धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वे क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) णिलीअ, (२) णिलुक्क, (३) णिरिग्घ, (४) लुक्क, (५) लिक्क और (६) ल्हिक्क। ___ वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'निली' के स्थान पर 'निलिज्ज' रूप की भी प्राप्ति होगी। सभी के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- निलीयते-णिलीअइ, णिलुक्कइ, णिरिग्घइ, लुक्कइ, लिक्कइ ल्हिक्कइ अथवा निलिज्जइ-वह भेटता है, वह मिलाप करता है।।४-५५।।
विलीङेविरा।।४-५६।। विलीउर्विरा इत्यादेशो वा भवति।। विराइ। विलिज्जइ॥
अर्थः- 'नष्ट होना, निवृत्त होना' आदि अर्थक संस्कृत-धातु 'वि+लो' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'विरा' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'वि+ली' के स्थान पर 'विलिज्ज' रूप की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- विलीयते-विराइ अथवा विलिज्जइ-वह नष्ट होता है अथवा वह निवृत्त होता है ।। ४-५६।।
रुतेस्ज -रुण्टौ ।।४-५७।। रौतेरेतावादेशौ वा भवतः।। रुञ्जइ। रुण्टइः रवइ।।
अर्थः- आवाज करने अर्थक संस्कृत धातु 'रू' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'रुञ्ज और रुण्ट' की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'रु' के स्थान पर 'रव' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- रौति रुञ्जइ, रुण्टइ अथवा रवइ-वह आवाज करता है ।। ४-५७।।।
श्रुटे हणः।।४-५८।। शृणोते र्हण इत्यादेशो वा भवति।। हणइ। सुणइ।।
अर्थः- सुनने अर्थक संस्कृत-धातु 'श्रु' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'हण' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'श्रु' का 'सुण' रूपान्तर भी होगा। जैसे:- शृणोति-हणइ अथवा सुणइ-वह सुनता है।।४-५८॥
धूगे (वः ॥४-५९।। धुनाते धुंव इत्यादेशो वा भवति।। धुवई। धुणइ।।
अर्थः- 'कंपाना-हिलाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'धू' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'धुव' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में धू' का धुण रूपान्तर भी होगा। जैसेः- धुनाति-धुवइ अथवा धुणइ-वह कंपाता है-वह हिलाता है।।४-५९।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 239 भुवेर्हो हुव-हवाः।।४-६०।। भुवो धातोर्हो हुव हव इत्येते आदेशा वा भवन्ति ॥ होइ। होन्ति हुवइ। हुवन्ति। हवइ। हवन्ति। पक्षे। भवइ। परिहीण विहवो। भविउं। पभवइ। परिभवइ। संभवइ।। क्वचिदन्यदपि। उन्भुअइ। भत्त। __ अर्थः- ‘होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'भू-भव्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'हो, हुव और हव' ऐसे तीन धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'भ=भव्' का 'भव' रूपान्तर भी होगा। जैसे:- भवति-होइ, हुवइ और हवइ अथवा भवइ-वह होता है। बहुवचन के उदाहरण इस प्रकार हैं:- भवन्ति होन्ति, हुवन्ति और हवन्ति अथवा भवन्ति-वे होते हैं।
कुछ प्रकीर्णक उदाहरण वृत्ति में इस प्रकार दिये गये हैं:(१) परिहीन-विभवः परिहीण विहवो-धन-वैभव से हीन हुआ। इस उदाहरण में भव' के स्थान पर 'हव' रूप को
प्रदर्शित किया गया है। (२) भवितुम् भविउं होने के लिये। इस हेत्वर्थ-कृदन्त के रूप में संस्कृत-धातु-रूप 'भव्' के स्थान पर प्राकृत
भाषा में भी 'भव्' रूप को ही प्रदर्शित किया गया है। (३) प्रभवति-पभवइ-वह समर्थ होता है, वह पहुंचता है अथवा वह उत्पन्न होता है। इस वर्तमान-कालिक क्रियापद ___ में संस्कृत धातु रूप 'प्र+भव' के स्थान पर प्राकृत भाषा में भी 'प+भव' का प्रयोग किया गया है। (४) परिभवति-परिभवइ-वह पराजय करता है अथवा तिरस्कार करता है। यहाँ पर भी 'भव' के स्थान पर भव'
रूप का ही प्रदर्शन किया गया है। संभवति-संभवइ-(अ) वह उत्पन्न होता है, (ब) संभावना होती है अथवा (स) उत्कट संशय होता है। इस उदाहरण में भी 'भव' ही प्रदर्शन किया गया है।
कहीं-कहीं पर 'भू-भव्' के स्थान पर उपर्युक्त रूपों के अतिरिक्त अन्य रूप भी देखे जाते हैं। जैसे:उद्भवति-उब्भुअइ-वह उत्पन्न होता है। इस उदाहरण में 'भूभव्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में भुअ रूप का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है। ऐसे विभिन्न तथा अनियमित रूपों के संबंध में 'बहुलं' सूत्र की स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये।
कभी-कभी सर्वथा अनियमित रूप भी 'भू-भव' के प्राकृत भाषा में देखे जाते हैं। जैसे-'भूतम् भत्त' =उत्पन्न हुआ। यह कर्मणि भूतकृदन्त का रूप है। ऐसे रूपों की प्राप्ति 'आर्षम्' सूत्र से सम्बन्धित है; ऐसा समझना चाहिये ।। ४-६०।।
अविति हुः ॥४-६१॥ विद्वजे प्रत्यये भुवो हु इत्यादेशो वा भवति।। हुन्ति। भवन्। हुन्तो। अवितीति किम्। होइ।।
अर्थः- 'वि' उपसर्ग नहीं होने की स्थिति में 'भू-भव' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'हु' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-भवन्ति-हुन्ति-वे होते हैं। भवन्-हुन्ता होता हुआ। इन उदाहरणों में भव' के स्थान पर 'हु' का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है।
प्रश्न:- “वि' उपसर्ग का निषेध क्यों किया गया है?
उत्तरः- जहाँ पर 'वि' उपसर्ग पूर्वक अर्थ होगा वहां पर 'भू भव' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में हु' की आदेश प्राप्ति नही होगी। जैसे-भवति-होइ-वह विशेष प्रकार से होता है। यों यहाँ पर 'हुरूप का निषेध कर दिया गया है।।४-६१ ।।
पृथक-स्पष्टे णिव्वडः॥४-६२।। पृथग्भूते स्पष्टे च कर्तरि भुवो णिव्वड इत्यादेशो भवति।। णिववडइ। पृथक स्पष्टो वा भवतीत्यर्थः॥
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240 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः- पृथक अर्थात् अलग करने के अर्थ में और स्पष्टीकरण करने के अर्थ में 'भू भव' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'णिव्वड' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे- पृथग्भवति अथवा स्पष्टो भवति-णिव्वडइ-वह अलग होता है अथवा वह स्पष्ट होता है ।।४-६२।।
प्रभो हुप्पो वा ।।४-६३।। प्रभु कर्तृकस्य भुवो हुप्प इत्यादेशो वा भवति।। प्रभुत्वं च प्रपूर्वस्यैवार्थः। अङ्गे च्चिअ न पहुप्पइ। पक्षे। पभवेइ।। __ अर्थ:- जब 'भू-भव्' धातु के साथ में 'प्र' उपसर्ग जुड़ा हुआ हो और जब 'प्र' उपसर्ग का अर्थ शक्ति-सम्पन्नता हो तो ऐसे समय में 'प्र+भव' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'हुप्प' आदेश की प्राप्ति होगी। इसका तात्पर्य यही है कि 'शक्ति-सम्पन्नता' अर्थ पूर्वक 'भू-भव' धातु को विकल्प से 'हुप्प' आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'पभव' प्राप्ति का भी संविधान जानना चाहिये। जैसे-हे अंगे! चैव न प्रभवति हे सुन्दर अंगों वाली! निश्चय ही वह शक्ति सम्पन्न नहीं होता है। इसका प्राकृत-रूपान्तर इस प्रकार है:- अंगे! च्चिअ न पहुप्पइ। पक्षान्तर में पहुप्पइ' के स्थान पर 'पभवेइ' रूप भी बनता है।।४-६३।।
क्ते हूः।।४-६४।। भुवःक्त प्रत्यये हूरादेशो भवति।। हू। अणुहूआ पहू।।
अर्थः- कर्मणि भूतकृदन्त प्रत्यय 'क्त-त' के साथ में 'भू' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में हु' धातु की आदेश । प्राप्ति होती है। जैसे-भूतम्-हूअं-हुआ। अन्य उपसर्ग पूर्वक 'भू' धातु के उदाहरण इस प्रकार हैं:
(१) अनुभूतम् अणुहूअं अनुभव किया हुआ। (२) प्रभूतम पहूअं बहुत।।४-६४।।
॥४-६५॥ कृगः कुण इत्यादेशो वा भवति।। कुणइ। करइ।। ___ अर्थः- संस्कृत 'कृ-करना' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'कुण' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'कर' की प्राप्ति भी जानना। जैसे-करोति कुणइ अथवा करइ-वह करता है ।।४-६५।।
काणेक्षिते णिआरः ।।४-६६।। काणेक्षितविषयस्य कृगो णिआर इत्यादेशो वा भवति।। णिआरइ। काणेक्षितं करोति।
अर्थः-कानी नजर से देखने अर्थक धातु 'कृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'णिआर' की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे- काणेक्षितं करोति=णिआरइ-वह कानी नजर से देखता है ।।४-६६।।
निष्टम्भावष्टम्भे णिछह-संदाणं।।४-६७।। निष्टम्भविषयस्यावष्टम्भविषयस्य च कृगो यथासंख्यं णिठुह संदाण इत्यादेशौ वा भवतः।। णिठ्ठहइ। निष्टम्भं करोति। संदाणइ। अवष्टम्भं करोति।।
अर्थः- “निश्चेष्ट करना अथवा चेष्टा रहित होना' इस अर्थक संस्कृत-धातु 'निष्टम्भ पूर्वक कृ' के स्थान पर प्राकृतं भाषा में विकल्प से 'णिठुइ' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- निष्टम्भ करोति=णिठुहइ-वह निश्चेष्ट करता है अथवा वह चेष्टा रहित होता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 241 इसी प्रकार से अवलम्बन करना अथवा सहारा लेना' इस अर्थक संस्कृत-धातु 'अवष्टम्भपूर्वक कृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'संदाण' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे- अवष्टम्भं करोति-संदाणइ-वह अवलम्बन करता है अथवा वह सहारा लेता है। ___पक्षान्तर में निष्टम्भं करोति का प्राकृत रूपान्तर 'निट्ठभं करेइ' ऐसा भी होगा; तथा 'अघष्टम्भं करोति' का प्राकृत रूपान्तर ओट्ठभं करेइ' भी होगा। ४-६७।।
श्रमे वावम्फः ॥४-६८॥ श्रमविषयस्य कृगो वावम्फ इत्यादेशो वा भवति।। वावम्फइ। श्रमं करोति।।
अर्थः- श्रम विषयक 'कृ' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'वावम्फ' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे- श्रमं करोति वावम्फइ-वह परिश्रम करता है। पक्षान्तर में श्रमं करोति' का 'समं करेइ' भी होगा ।। ४-६८।।
मन्युनौष्ठमालिन्ये णिव्वोलः ॥४-६९।। मन्युना करणेन यदोष्ठमालिन्यं तद्विषयस्य कृगो णिव्वोल इत्यादेशो वा भवति। णिव्वोलइ। मन्युना ओष्ठं मलिनं करोति। __ अर्थः-'क्रोध के कारण से होठ को मलिन करने' विषयक संस्कृत धातु 'कृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'णिव्वोल' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे- 'मन्युना ओष्ठं मलिनं करोति' =णिव्वोलइ-वह क्रोध से होठ को मलिन करती है अथवा करता है। पक्षान्तर में 'मन्नुणा ओळं मलिणं करेइ' भी होगा।।४-६९।।
शैथिल्यलम्बने पयल्लः ॥४-७०॥ शैथिल्य विषयस्य लम्बन विषयस्य च कृगः पयल्लः इत्यादेशो वा भवति। पयल्लइ। शिथिली भवति, लम्बते वा।।
अर्थः- 'शिथिलता करना' अथवा "ढीला होना- लटकना" इस विषयक संस्कृत धातु 'कृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'पयल्ल' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-शिथिलीभवति (अथवा) लम्बते पयल्लइ वह शिथिलता करता है अथवा वह ढिलाई करता है- वह ढीला होता है। पक्षान्तर में सिढिलई अथवा लम्बेइ होगा ।। ४-७०।।
निष्पाताच्छोटे णीलुञ्छः ।।४-७१।। निष्पतनविषयस्य आच्छोटनविषयस्य च कृगो णीलुच्छ इत्यादेशो भवति वा ॥ णीलुञ्छइ। निष्पतति। आच्छोटयति वा॥
अर्थः- "गिरने अथवा कूदने विषयक संस्कृत धातु 'कृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'णीलुञ्छ' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-निष्पतति=णीलुञ्छइ-वह गिरता है और आच्छोटयति=णीलुञ्छइ-वह कूदता है। पक्षान्तर में णिप्पडइ और आछोडइ भी होगा ।। ४-७१।।
क्षुरे कम्मः ।।४-७२।। क्षुर विषयस्य कृगः कम्म इत्यादेशो वा भवति।। कम्मइ। क्षुरं करोतीत्यर्थः।।
अर्थः- 'हजामत करने' अर्थक 'कृ' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'कम्म' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-क्षुरं करोति-कम्मइ-वह हजामत कराता है। पक्षान्तर में 'खुरं करेइ ऐसा भी होगा ॥ ४-७२।।
चाटौ गुललः ॥४-७३॥ चाटु विषयस्य कृगा गुलल इत्यादेशो वा भवति।। गुललइ। चाटु करोतीत्यर्थः।।
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242 : प्राकृत व्याकरण ___ अर्थः- 'खुशामद करना-चाटुकारी करना' 'कृ' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'गुलल' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-चाटुकरोति गुललइ-वह खुशामद करता है-वह चाटुकारी करता है। पक्षान्तर में चाडुकरेइ' ऐसा भी होगा।। ४-७३।।
स्मरेझै-झूर-भर-भल-लढ-विम्हर-सुमर-पयर-पम्हुहाः।।४-७४।। स्मरेरेते नवदेशा वा भवन्ति।। झरइ। झूरइ। भरइ। भलइ। लढइ। विम्हरइ। समुरइ। पयरइ। पम्हुहइं सरइ।।
अर्थः- ‘स्मरण करना-याद करना' अर्थक संस्कृत धातु 'स्मर' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से नव धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वे क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) झर, (२) झूर, (३) भर, (४) भल, (५) लढ (६) विम्हर, (७) सुमर, (८) पयर और (९) पम्हुह। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'स्मर्' के स्थान पर 'सर' रूप की भी प्राप्ति होगी। इनके उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- स्मरति= (१) झरइ, (२) झूरइ, (३) भरइ, (४) भलइ, (५) लढइ, (६) विम्हरइ, (७) सुमरइ, (८) पयरइ, (९) पम्हुहइ और (१०) सरइ-वह स्मरण करता है अथवा याद करता है; यों दस ही क्रियापदों का एक ही अर्थ होता है।।४-७४।।
विस्मुः पम्हुस-विम्हर-वीसराः ॥४-७५।। विस्मरतेरेते आदेशा भवन्ति। पम्हसइ। विम्हरइ। वीसरइ।।
अर्थः-'भूलना-भूल जाना' अथवा 'विस्मरण करना' अर्थक संस्कृत धातु 'विस्मर' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में तीन धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार हैं:- (१) पम्हुस, (२) विम्हर और (३) वीसर। इनके उदाहरण इस प्रकार हैं:- विस्मरति पम्हुसइ, विम्हरइ और वीसरइ-वह भूलता है अथवा वह विस्मरण करता है।। ४-७५।।
व्याहगेः कोक्क-पोक्कौ।।४-७६ ।। व्याहरतेरेतावादेशो वा भवतः। कोक्कइ। हस्वत्वे तु कुक्कइ। पोक्कइ। पक्षे। वाहरइ।।
अर्थः- 'बुलाना, आह्वान करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'व्याह' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) कोक और पोक्क। सूत्र-संख्या १-८४ से विकल्प से दीर्घ स्वर के स्थान पर आगे संयुक्त व्यंजन होने पर हस्व स्वर की प्राप्ति होती है। अतः 'कोक्क' के स्थान पर 'कुक्क' की भी प्राप्ति हो सकती है, पक्षान्तर में व्याह धातु का 'वाहर' रूप भी प्राप्त होगा।
उक्त चारों धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- व्याहरति= (१) कोक्कइ, (२) कुक्कइ (३) पोक्कइ और (४) वाहरइ-वह बुलाता है, वह आह्वान करता है ।। ४-७६।।
प्रसरेः पयल्लोवेल्लौ ।।४-७७।। प्रसरतेः पयल्ल उवेल्ल इत्येतावादेशौ वा भवतः।। पयल्लइ। उवेल्लइ। पसरइ।।
अर्थः- 'पसरना, फैलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्र+सृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से दो धातु की आदेश प्राप्ति होती है। वे ये हैं:- (१) पयल्ल और (२) उवेल्ल। पक्षान्तर में 'प्र+सृ' के स्थान पर 'पसर' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- प्रसरति= (१) पयल्लइ (२) उवेल्लइ और (३) पसरइ वह पसरता है अथवा वह फैलता है ।। ४-७७।।
महमहो गन्धे ॥४-७८॥ प्रसरतेर्गन्धविषये महमह इत्यादेशो वा भवति।। महमहइ मालइ। मालइ-गन्धो पसरइ।। गन्ध इति किम्। पसरइ।। अर्थः- 'गन्ध फैलना' इस संपूर्ण अर्थ में प्राकृत भाषा में विकल्प से 'महमह' धातु की आदेश प्राप्ति होती है।
जहां पर 'गन्ध फैलता है ऐसे अर्थ में 'गन्ध' शब्द स्वयमेव विद्यमान हो वहां पर 'महमह' धातु रूप का प्रयोग नहीं किया जा सकता है, किन्तु 'पसर' धातु रूप का ही प्रयोग किया जा सकेगा। इसलिए वृत्ति में 'गन्ध इतिकिम् गन्ध ऐसा
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 243 क्यों? प्रश्न उठाकर आगे 'पसरइ क्रिया पद द्वारा यह समाधान किया गया है कि 'गन्ध' कर्ता के साथ 'पसर' क्रिया का प्रयोग होगा। जैसे:- मालती-गन्धः प्रसरति मालइ गन्धो पसरइ-मालती-लता का गन्ध फैलता है। यों 'महमह' धातु-रूप की विशेष स्थिति को समझना चाहिये ।।४-७८।।
निस्सरेीहर-नील-धाड-वरहाडाः ॥४-७९॥ निस्सरतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति।। णीहरइ। नीलइ। धाडर। वरहाडइ। नीसरइ॥ __ अर्थः- 'बाहर निकलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'निस्+सृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से चार धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है जो कि क्रम से इस प्रकार है:- (१) णीहर (२) नील (३) धाड और (४) वरहाड। वैकल्पिक पक्ष होने से 'निस्+सृ' के स्थान पर 'नीसर' धातु की भी प्राप्ति होगी। पाँचों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- निःसरति (१) णीहरइ, (२) नीलइ, (३) धाडइ, (४) वरहाडइ, और (५) नीसरइ-वह बाहिर निकलता है ।। ४-७९।।
जाग्रेजग्गः ॥४-८०।। जागर्तेर्जग्ग इत्यादेशो वा भवति।। जग्गइ। पक्षे जागरइ।।
अर्थः- 'जागना अथवा सचेत-सावधान होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'जागृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जग्ग' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'जागृ' के स्थान पर 'जागर' धातु-की भी प्राप्ति होगी। दोनों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- जागर्ति-जग्गइ अथवा जागरइ-वह जागता है- वह निद्रा त्यागता है अथवा वह सावधान सचेत होता है ॥४-८०।।
व्याप्रेराअड्डः ॥४-८१।। व्याप्रियतेराअड्ड इत्यादेशो वा भवति।। आअड्डेइ। वावरेइ।
अर्थः- 'व्याप्त होना, काम लगना' अर्थक संस्कृत धातु 'व्या+पृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से आअड्ड' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'व्या+पृ' के स्थान पर 'वावर' धातु की भी प्राप्ति होगी। जैसेव्याप्रियते आअड्डेइ अथवा वावरेइ-वह काम में लगता है ।।४-८१।।।
संवृगेः साहर-साहट्टौ ॥४-८२।। संवृणोतेः साहर साहट्ट इत्यादेशौ वा भवतः।। साहरइ। साहट्टइ संवरइ।
अर्थः- 'संवरण करना, समेटना' अर्थक संस्कृत धातु 'सं+वृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से दो धातु 'साहर और साहट्ट' की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'सं+वृ' के स्थान पर 'संवर' धातु की भी प्राप्ति होगी। तीनों धातुओं के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- संवृणोति=(१) साहरइ, (२) साहट्टइ और (३)संवरइ-वह संवरण करता है अथवा वह समेटता है ।। ४-८२।।।
आट: सन्नामः ।।४-८३॥ आद्रियतेः सन्नाम इत्यादेशो वा भवति।। सन्नामइ। आदरइ।।
अर्थः- 'आदर करना-सम्मान करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'आ+द' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'सन्नाम' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'आ+द' के स्थान पर 'आदर' धातु की भी प्राप्ति होगी। जैसे:-आद्रियते सन्नामइ अथवा आदरइ-वह आदर करता है अथवा वह सम्मान करता है- सम्मान करता है ।। ४-८३।।
प्रहगेः सारः ॥४-८४॥ प्रहरतेः सार इत्यादेशो वा भवति।। सारइ। पहरइ।। अर्थः- 'प्रहार करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्र-ह' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'सार' धातु की आदेश
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244: प्राकृत व्याकरण
प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'प्र+ह्न के स्थान पर 'पहर' की भी प्राप्ति होगी। दोनों धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- प्रहरति-सारइ अथवा पहरइ = वह प्रहार करता है - वह चोट करता है ।।४-८४ ।।
अवतरेरोह - ओरसौ ।।४-८५ ।।
अवतरतेः ओह ओरस इत्यादेशौ वा भवतः ।। ओह । ओरसइ । ओअरइ ||,
अर्थः- 'नीचे उतरना' अर्थक संस्कृत धातु 'अव + तृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'ओह तथा ओरस' ऐसे दो धातु की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'अव+तृ' धातु के स्थान पर 'ओअर' धातु की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण यों हैं: अवतरति = (१) ओहइ, (२) ओरसइ और (३) ओअरइ = वह नीचे उतरता है ।। ४-८५।। शकेश्चय - तर - तीर - पाराः ।।४-८६ ।
शक्नोतेरते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ चयइ । तर । तीरइ । पारइ । सक्कइ । त्यजतेरपि चयइ । हानिं करोति ।। तरतेरपि तरइ ।। तीरयतेरपि तीरइ ।। पारयतेरपि पारे । कर्म समाप्नोति ।।
अर्थः-'सकना-समर्थ होना' अर्थक संस्कृत धातु 'शक्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से चार धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) चय, (२) तर, (३) तीर और (४) पार । पक्षान्तर में 'शक्' के स्थान पर 'सक्क' की भी प्राप्ति होगी। पाँचों धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:-- शक्नोति = (१) चयइ। (२) तरइ, (३) तीरइ, (४) पारइ और (५) सक्कइ = वह समर्थ होता है। उपर्युक्त आदेश प्राप्त चारों धातु द्वि-अर्थक है, अतएव इनके क्रियापदीय रूप इस प्रकार से होंगे :- (१) त्यजति = चयइ = वह छोड़ता है अथवा वह हानि करती हैं (२) तरति=तरइ-वह तैरता है। (३) तरीयति=तीरइ = वह समाप्त करता है अथवा वह परिपूर्ण करता है। और (४) पारयति - पारेइ-वह पार पहुँचा है अथवा पूर्ण करता है-कार्य की समाप्ति करता है। यों चारों आदेश प्राप्त धातु द्वि-अर्थक होने से संबंधानुसार ही इनका अर्थ लगाया जाना चाहिये; यही तात्पर्य वृत्तिकार का है ।।४-८६ ।।
फक्कस्थक्कः ।।४-८७।।
फक्कते स्थक्क इत्यादेशो वा भवति ।। थक्कइ ॥
अर्थः- 'नीचे जाना' अर्थक संस्कृत धातु 'फक्क' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'थक्क' धातु की आदेश प्राप्ति होती है । जैसे-- फक्कति = थक्कइ = वह नीचे जाता है अथवा वह अनाचरण करता है ।। ४-८७ ।।
श्लाघः सलहः ।।४-८८ ।।
श्लाघते : सलह इत्यादेशो भवति ।। सलहइ ।
अर्थः- 'प्रशंसा करना' अर्थक संस्कृत धातु 'श्लाघ्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'सलह' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे :- श्लाघते - सलहइ - वह प्रशंसा करता है ।। ४-८८ ।।
खचेर्वे अङः ||४-८९।।
खचते अड इत्यादेशो वा भवति ।। वेअडइ । खचइ ||
अर्थः-‘जड़ना' अर्थक संस्कृत धात, 'खच्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'वेअड' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'खच' भी होगा जैसे:- खचति = वेअडइ अथवा खचइ वह जड़ता है- जमाता है ।। ४-८९ ।। पचे: सोल्ल- पउलौ ।।४-९०।।
पचते: सोल्ल पउल इत्यादेशौ वा भवतः ।। सोल्लइ । पउलइ । पयइ ||
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 245 अर्थः- 'पकाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'पच्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'सोल्स और पउल ऐसे दो धातु-की आदेश प्राप्ति होती है। रूपान्तर 'पय' भी होगा। जैसेः- पचति-सोल्लइ और पउलइ अथवा पयइ-वह पकाता है ।। ४-९०॥
मुचेश्छड्डा व हेड-मेल्लोस्सिक्क-रेअवणिल्लुञ्छ-धंसाडाः॥४-९१॥ मुच्चतेरेते सप्तादेशा वा भवन्ति।। छड्डइ। अवहेडइ। मेल्लइ। उस्सिक्कइ। रेअवइ। णिल्लुञ्छइ। धंसाडइ। पक्षे। मुअइ। __अर्थः- ‘छोड़ना-त्याग करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मुच्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से सात धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) छड्ड, (२) अवहेड, (३) मेल्ल, (४) उस्सिक्क, (५)रेअव, (६) णिल्लुञ्छ और (७) धंसाड, पक्षान्तर में 'मुअ' भी होगा। यों आठों ही धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- मञ्चति-(१) छड्डइ (२) अवहेडइ, (३) मेल्लई, (४) उस्किइ, (५) रेअवइ, (६) णिल्लुञ्छइ, (७) धंसाडइ अथवा मुअई-वह छोड़ता है अथवा वह त्याग करता है ।। ४-९१।।
दुःखे णिव्वलः ॥४-९२॥ दुःख विषयस्य मुचेः णिव्वल इत्यादेशो वा भवति।। णिव्वलेइ। दुःखं मुझतीत्यर्थः।।
अर्थः- 'दुःख को छोड़ना' अर्थ में संस्कृत-धातु 'मुच्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'णिव्वल' (धातु) की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- दुःखं मुञ्चति-णिव्वलेइ-वह दुःख को छोड़ता है। पक्षान्तर में दुहं मुअइ होगा।।४-९२।।
वच्चेर्वेहव-वेलव-जूर वो मच्छाः ।।४-९३॥ वचतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति।। वेहवइ। वेलवइ। जूरवइ। उमच्छइ। वञ्चइ।।
अर्थः- 'ठगना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वञ्च' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से चार धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) वेहव, (२) वेलव, (३) जूरव और उमच्छ। रूपान्तर 'वञ्च' भी होगा। उक्त पांचों धातु-रूपों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- वञ्चति= (१) वेहवइ, (२) वेलवइ। (३) जूरवइ, (४) उमञ्चइ और (५) वञ्चइ-वह ठगता है।। ४-९३।
रचरूग्गहावह-विड, विड्डाः ॥४-९४॥ रचेर्धातोरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति। उग्गहइ। अवहइ। विडविड्डइ। रयइ।
अर्थः- "निर्माण करना, बनाना' अर्थक संस्कृत धातु 'रच' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से तीन (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है:- (१) उग्गह, (२) अवह और (३) विडविड्ड। वैकल्पिक पक्ष होने से 'रय' भी होगा। उक्त चारों धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- रचयति=(१) उग्गहइ, (२) अवहइ, (३) विडविड्डइ और (४) रयइ वह निर्माण करती है-वह रचती है अथवा वह बनाती है।। ४-९४।।
समारचेरूवहत्थ-सारव-समार-केलायाः ॥४-९५॥ समारचेरेतेचत्वार आदेशा वा भवन्ति।। उवहत्थइ। सारवइ। समारइ। केलायइ। समारयइ।
अर्थः- 'रचना बनाना' अर्थक संस्कृत 'समारच' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से चार धातु (रूपों ) की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) उवहत्थ, (२)सारव, (३) समार और (४) केलाय।
वैकल्पिक पक्ष होने से 'समा+रच्' के स्थान पर 'समारय' भी होगा। उदाहरण इस प्रकार हैं:- समारचयति=(१)उवहत्थइ, (२) सारवइ, (३) समारइ, (४) केलायइ और (५) समारयइ-वह रचता है-वह बनाती है ।। ४-९५।।
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246 : प्राकृत व्याकरण
सिचेः सिच्च-सिम्पो ॥४-९६।। सिञ्चतेरेतावादेशो वा भवतः।। सिञ्चइ। सिम्पइ। सेअइ॥
अर्थः- 'सींचना' अर्थक संस्कृत धातु 'सिच्' के स्थान पर विकल्प से प्राकृत भाषा में सिञ्च और सिम्प' ऐसे दो (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में सिच्' का 'सेअ भी होगा। उदाहरण इस प्रकार हैं:- सिञ्चति=(१) सिच्चइ, (२) सिम्पइ और (३) सेअइ-वह सींचता है अथवा सींचती है ।। ४-९६।।
प्रच्छः पुच्छः ॥४-९७॥ पृच्छेः पुच्छादेशो भवति।। पुच्छइ।।
अर्थः- 'पूछना अथवा प्रश्न करना' अर्थक संस्कृत धातु 'प्रच्छ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'पुच्छ' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-पृच्छति-पुच्छइ-वह पूछती है अथवा वह प्रश्न करती है ।। ४-९७।।
गर्जेर्बुक्कः ॥ ४-९८॥ गर्जतेर्बुक्क इत्यादेशो वा भवति।। बुक्कइ। गज्जइ।
अर्थ:- 'गर्जन करना अथवा गरजना' अर्थक संस्कृत धातु 'ग' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'बुक्क' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'गज्ज' की प्राप्ति भी होगी। जैसे- गर्जति-बुक्कइ अथवा गज्जइ-वह गर्जन करता है अथवा वह गरजता है ।। ४-९८।।
वृषे ढिक्कः ॥४-९९।। वृष-कर्तृकस्य गर्जेढिक्क इत्यादेशो वा भवति।। ढिक्कइ। वृषभो गर्जति।।
अर्थः- 'बैल-साण्ड गर्जना करता है' इस अर्थ वाली गर्जना अर्थक धातु के लिये प्राकृत भाषा में विकल्प से 'ढिक्क' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-वृषभो गर्जति-(उसहो) ढिक्कइ-बैल गर्जना करता है। प्राकृत रूपान्तर 'उसहो गज्जइ' ऐसा भी होगा।। ४-९९।
राजे रग्घ-छज्ज-सह-रीर-रेहाः ॥४-१००।। राजेरते पञ्चादेशा वा भवन्ति।। अग्घइ। छज्जइ। सहइ। रीरइ। रेहइ। रायइ।।।
अर्थः- शोभना, विराजना, चमकना' अर्थक संस्कृत-धातु 'राज्' के स्थान पर प्राकृत- भाषा में विकल्प से पांच (धातु)-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) अग्घ, (२) छज्ज, (३) सह, (४) रीर और (५) रेह। रूपान्तर में 'राय' की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- राजते= (१) अग्घइ, (२) छज्जइ, (३) सहइ, (४) रीरइ, (५) रेहइ, और रायइ वह शोभता है, वह विराजता है अथवा वह चमकता है । ४-१००।।
मस्जेराउड्ड-णिउड्ड-बुड्ड-खुप्पाः।।४-१०१।। मज्जतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्तिां आउड्डइ। णिउढइ। बुड्डइ। खुप्पइ। मज्जइ।।
अर्थः- 'मज्जन करना, डूबना अथवा स्नान करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मस्ज्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से चार (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। (१) आउड्ड, (२) णिउड्ड, (३) बुड्डू और (४) खुप्प। वैकल्पिक-पक्ष होने से 'मज्ज' की प्राप्ति भी होगी। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- मज्जति= (१) आउड्डइ, (२) णिउड्डइ, (३) बुड्डइ, (४) खुप्पइ, और (५) मज्जइ-वह स्नान करता है, वह डूबती है, वह मज्जन करती है ।। ४-१०१।।
पुजेरारोल-वमालौ ॥४-१०२।। पुजेरेतावादेशो वा भवतः। आरोलइ। वमालइ। पुञ्जइ।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 247 अर्थः- 'एकत्र करना, इकट्ठा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'पुळ्' के स्थान पर प्राकृत-भाष में विकल्प से दो (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। (१) आरोल और (२) वमाल। (३) विकल्प पक्ष होने से 'पुञ्ज' की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- पुंजयति=(१) आरोलइ, (२) वमालइ और (३) पुंजइ-वह एकत्र करता है, वह इकट्ठा करती है ।।४-१०२॥
लस्जे र्जीहः ॥४-१०३।। लज्जते र्जीह इत्यादेशो वा भवति।। जीहइ। लज्जइ।।
अर्थः- 'लज्जा' करना, शरमाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'लस्ज्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जीह' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'लज्ज' की भी प्राप्ति होगी। जैसे- लज्जति–जीहइ अथवा लज्जइ-वह लज्जा करती है, वह शरमाती है ।। ४-१०३।।
तिजेरोसुक्कः ॥४-१०४॥ तिजेरोसुक्क इत्यादेशो वा भवति ।। ओसुक्कइ। तेअण।।
अर्थः- 'तीक्ष्ण करना, तेज करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'तिज्' के स्थान पर प्राकृत-भाष में विकल्प से 'ओसुक्क' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'तेअ' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- तेजयति (अथवा तिजति)=ओसुक्कइ, तेअइ-वह तीक्ष्ण करती है, वह तेज करता है। तेअधातु से संज्ञा-रूप 'तेअणं' की प्राप्ति होती है। नपुंसक लिंगवाले संज्ञा शब्द 'तेअण' का अर्थ 'तेज करना, पैनाना, उत्तेजन' ऐसा होता है ।। ४-१०४।।
मृजेरुग्घुस-लुञ्छ-पुंछ-पुंस-फुस-पुस-लुह-हुल-रोसाणाः।।४-१०५।। मृजेरेते नवादेशा वा भवन्ति।। उग्घुसइ। लुञ्छइ। पुच्छइ। पुंसइ। फुसइ। लुहइ। हुलइ। रोसाणइ। पक्षे मज्जइ।।
अर्थः- 'मार्जन करना, शुद्ध करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मृज्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से नव (धातु-) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। (१) उग्घुस, (२) लुञ्छ, (३) पुञ्छ, (४) पुंस, (५) फुस, (६) पुस, (७) लुह, (८) हुल, (९) रोसाण । वैकल्पिक पक्ष होने से 'मज्ज भी होगा। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- माटि=(१) उग्घसई. (२) लछड (३) पुञ्छइ, (४) पुंसइ, (५) फुसइ, (६) पुसइ, (७) लुहइ, (८) हुलइ, (९) रोसाणइ पक्षे मज्जइ-वह मार्जन करता है, वह शुद्ध करता है ।। ४-१०५।। भजेर्वमय-मुसुमूर-मूर-सूर-सूड-विर-पविरञ्ज करञ्ज-नीरजाः ॥४-१०६॥ __ भजेरेते नवादेशा वा भवन्ति ।। वेमयइ। मुसुमूरइ। मूरइ। सूरइ, सूडइ। विरइ। पविरञ्जइ। करजइ। नीरजइ। भजइ॥ __ अर्थः- ‘भाँगना-तोड़ना' अर्थक संस्कृत-धातु 'भंज्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से नव धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। (१) वेमय, (२) मुसुमूर, (३) मूर, (४) सूर, (५) सूड, (६) विर, (७) पविरंज, (८) करंज और (९) नीरंज। वैकल्पिक पक्ष होने से 'भंज्' भी होगा। उदाहरण क्रम से यों हैं:- भनक्ति-(१) वेमयइ, (२) मुसुमूरइ, (३) मूरइ, (४) सूरइ, (५) सूडइ, (६) विरइ, (७) पविरञ्जइ (८) करञ्जइ (९) नीरञ्जइ, और (१०) भञ्जइ-वह भाँगता है अथवा वह तोड़ता है।। ४-१०६।।
अनुव्रजेः पडिअग्गः॥४-१०७॥ अनुव्रजेः पडिअग्ग इत्यादेशो वा भवति। पडिअग्गइ। अणुवञ्चइ।। अर्थः- 'अनुसरण करना, पीछे जाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'अनु+व्रज' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से
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248 : प्राकृत व्याकरण 'पडिअग्ग' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'अणुवच्च' भी होगा। उदाहरण क्रम से यों हैं:-अनुव्रजति-पडिअग्गइ पक्षान्तर में अणुवच्चइ-वह अनुसरण करता है, वह पीछे जाती है ।। ४-१०७।।
अर्जेविंढवः ॥ ४-१०८।। अर्जेविढव इत्यादेशो वा भवति।। विढवइ। अज्जइ॥
अर्थः- उपार्जन करना, पैदा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'अर्ज' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'विढव' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'अज्ज' भी होगा। उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:अर्जयति-विढवइ पक्षान्तर में अज्जइ-वह उपार्जन करता है, अथवा वह पैदा करती है ॥४-१०८।
युजो जुञ्ज जुज्ज-जुप्पाः ।।४-१०९।। युजो जुञ्ज जुज्ज जुप्प इत्यादेशा भवन्ति।। जुञ्जइ। जुज्जइ। जुप्पइ।।
अर्थः-'जोड़ना, युक्त करना' अर्थक संस्कृत धातु 'युज्', के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जुञ्ज, जुज्ज और जुप्प' ऐसे तीन धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'जुज' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:युज्यते=(१) जुञ्जइ, (२) जुज्जइ, (३) जुप्पइ पक्षान्तर में जुजइ-वह जोड़ता है, वह युक्त करता है ।।४–१०९।।
भुजो भुञ्ज-जिम-जेम कम्माण्ह-चमढ-समाण-चड्डाः ।। ४-११०॥ भुज एतेऽष्टादेशा भवन्ति।। भुञ्जइ। जिमइ। जेमइ। कम्मेइ। अणहइ। समाणइ चमढइ। चड्डइ।।
अर्थः- 'भोजन करना, खाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'भुज्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से आठ (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। (१) भुञ्ज, (२) जिम, (३) जेम, (४) कम्म, (५) अण्ह, (६) चमढ़, (७) समाण और (८) चड्ड। वैकल्पिक पक्ष होने से 'भुज' की भी प्राप्ति होगी। इनके उदाहरण इस प्रकार है:- भुनक्ति (अथवा) भुङक्ते= (१) भुञ्जइ, (२) जिमइ, (३) जेमइ, (४) कम्मेइ, (५) अण्हइ, (६) चमढइ, (७) समाणइ, (८) चड्डइ, पक्षान्तर में भुजइ-वह भोजन करता है, वह खाती है।। ४--११०।।
वोपेन कम्मवः ।। ४-१११॥ उपेन युक्तस्य भुजेः कम्मव इत्यादेशो वा भवति।। कम्मवइ। उवहुज्जइ।।
अर्थः- 'उप' उपसर्ग सहित भुज् धातु के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'कम्मव' (धातु-) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'उवहुज्ज' की भी प्राप्ति होगी। उदाहरणा यों हैं:- उपभुनक्ति-कम्मवइ अथवा पक्षान्तर में उवहुज्जइ-वह उपभोग करता है ।। ४-१११।।
घटेर्गढः॥४-११२॥ घटतेर्गढ इत्यादेशो वा भवति।। गढइ। घडइ।।
अर्थः- ‘बनाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'घट्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'गढ़' (धातु-) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने स 'घड' की भी प्राप्ति होगी। जैसेः- घटति (अथवा घटते)= गढइ अथवा अथवा घडइ-वह बनाता है।।४-११२।।।
समो गलः।।४-११३॥ सम्पूर्वस्य घटते र्गल इत्यादेशो वा भवति।। संगलइ। संघडइ।।
अर्थः- 'सम्-सं' उपसर्ग सहित संस्कृत-धातु 'घट्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'गल' (धातु-) रूप की आदेश प्राप्ति होती है, यों संस्कृत-धातु 'संघट' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'संगल' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होगी। जैसे:- संघटते-संगलइ अथवा संघडइ-वह संघटित करता है, वह मिलाती है ।। ४-११३।।
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हासेन स्फुटे र्मुरः ॥४-११४।।
हासेन करणेन यः स्फुटिस्तस्य मुरादेशो वा भवति ।। मुरइ । हासेन स्फुटति । ।
अर्थः- 'मुस्कराना, सामान्य रूप से हँसना' अर्थक संस्कृत धातु 'स्फुट्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'मुर' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'फुट' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- हासेन स्फुटति - मुरइ अथवा फुटइ = वह हँसी के कारण से प्रसन्न होता है अथवा खिलती है ।।४ - ११४।।
मण्डोश्चिञ्च-चिञ्चअ - चिञ्चिल्ल, रोड - टिविडिक्काः ।।४-११५।।
मण्डेरेते पञ्चादेशा वा भवन्ति ।। चिञ्च । चिञ्चअइ । चिञ्चिल्ल । रीड । टिविडिक्कइ । मण्डइ ।
अर्थ:- 'मंडित करना, विभूषित करना शोभा युक्त बनाना' अर्थक संस्कृत - धात् 'मण्डय' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से पाँच धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) चिञ्च, (२) चिञ्चअ, (३) चिञ्चिल्ल, (४) रोड और (५) टिविडिक्क । पक्षान्तर में 'मण्ड' की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:मण्डयति=(१) चिञ्चइ, (२) चिञ्चअइ (३) चिञ्चिल्लइ, (४) रीडइ, (५) टिविडिक्कर, पक्षान्तर में मण्डइ =वह मंडित करता है, वह शोभा युक्त बनाता है ।।४ - ११५ ।।
तुडे स्तोड - तुट्ट - खुट्ट - खुडोक्खु डोल्लुक्क णिलुक्क-लुक्कोल्लू राः ।।४-११६।।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 249
डेरे वादेशा वा भवन्ति ।। तोडइ । तुट्टइ। खुवृइ । खुडइ। उक्खुडइ। उल्लुक्कइ । णिलुक्कइ । उल्लूरइ । तुडइ॥ अर्थः- ‘तोड़ना, खंडित करना, टुकड़ा करना' अर्थक संस्कृत - धातु 'तुड़' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से नव धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है :- (१) तोड़, (२) तुट्ट, (३) खुट्ट, (४) खुड, (५) उक्खुड, (६) उल्लुक्क, (७) णिलुक्क, (८) लुक्क और (९) उल्लूर । पक्षान्तर में 'तुड' भी होगा। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- तुडति=(१) तोडइ, (२) तुट्टइ, (३) खुट्टइ, (४) खुडइ, (५) उक्खुडइ, (६) उल्लुक्कइ, (७) णिल्लुक्कइ, (८) लुक्कइ, (९) उल्लुरइ, पक्षान्तर में (१०) तुडइ = वह तोड़ता है, वह खंडित करती है अथवा वह टुकड़ा करता है । । ४ - ११६ ।। घूर्णो घुल- घोल - घुम्म-पहल्लाः।।४-११७।।
घूर्णेरेते चत्वार आदेशा भवन्ति । घुलइ । घोल । घुम्मइ । पहल्लाइ ।।
अर्थः-‘घूमना, काँपना, डोलना, हिलना' अर्थक संस्कृत - धातु 'घूर्ण' के स्थान पर प्राकृत भाषा में चार (धातु-) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वे इस प्रकार है:- (१) घुल, (२) घोल, (३) घुम्म और (४) पहल्ल । उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं- धूणति = (१) घूलई, (२) घोलइ (३) घुम्मई और (४) पहल्लई = वह घूमता है अथवा वह काँपती है, वह डोलता है, वह हिलता है ।। ४-११७।।
विवृतेर्ढसः।।४-११८।।
विवृतेस इत्यादेशो वा भवति ।। ढंसइ । विवट्टइ ||
अर्थः- ‘धंसना, धंसकर रहना, (गिर पड़ना)' अर्थक संस्कृत धातु 'विवृत्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'ढप' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से विवट्ट भी होगा। जैसे:- विवर्तते-ढंसइ अथवा विवट्टइ-वह धंसता है, वह धंस कर रहती है (अथवा वह गिर पड़ती है) ।।४ - ११८ ।।
क्वथेरट्टः ।।४-११९।।
क्कथेरट्ट इत्यादेशो वा भवति ।। अट्टइ। कढइ ।।
अर्थः- ‘क्वाथ करना' ‘उबालना - पकाना' अर्थक संस्कृत - धातु 'क्कथ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में में विकल्प
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250 : प्राकृत व्याकरण
से 'अदृ' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'कढ' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- क्वथति = अट्टइ अथवा कढइ= वह क्वाथ करता है वह उबालता है अथवा वह पकाती है ।४-११९ ।।
ग्रन्थेर्गण्ठः ।।४ - १२०।।
ग्रन्थेर्गण्ठ इत्यादेशो वा भवति ।। गण्ठ । गण्ठी ॥
अर्थः- ‘गूँथना, रचना, बनना' अर्थक संस्कृत धातु 'ग्रन्थ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'गंठ' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'गंथ' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- ग्रथ्नाति = गण्ठइ अथवा गंथ = वह गूँथती हैं अथवा वह रचना करता है।
संस्कृत स्त्रीलिंग संज्ञा शब्द 'ग्रन्थि' का प्राकृत रूपान्तर 'गंठी' होगा। 'गंठी' का तात्पर्य है ' गाँठ अथवा 'जोड़' । 'गण्ठ' धातु से ही 'गंठी' शब्द का निर्माण हुआ है । । ४ - १२० ।।
मन्थेर्घुसल - विरोलौ । । ४ - १२१ ।।
मन्थेर्घुसल विरोल इत्यादेशौ वा भवतः ।। घुसलइ । विरोलइ । मन्थइ ।
अर्थः- 'मथना, विलोड़ना करना' अर्थक संस्कृत धातु 'मथ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'घुसल और विरोल' ऐसे दो धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'ग्रन्थ' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- मन्थति-घुसलइ, विरोलइ अथवा मन्थइ-वह मथता है, वह मर्दन करता है अथवा वह विलोड़न करती है।।४ - १२१ ।।
ह्लादेरवअच्छः ।।४-१२२।।
ह्लादते र्ण्यन्तस्याण्यन्तस्य च अवअच्छ इत्यादेशो भवति ।। अवअच्छइ । ह्लादयति वा । । इकारो ण्यन्तस्यापि परिग्रहार्थः ॥
अर्थः- ‘आनन्द पाना अथवा खुश होना' अर्थक संस्कृत धातु 'हाद' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'सामान्य कालवाचक क्रिया रूप में' अथवा 'प्रेरणार्थक वाचक क्रिया रूप में दोनों ही स्थितियों में केवल 'अवअच्छ' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। ‘अप्रेरणार्थक क्रियावाचक रूप' का उदाहरण यों है:- ह्लादते = अव अच्छइ = वह आनन्द पाता है, वह खुश होती है। प्रेरणार्थक क्रियावाचक रूप का दृष्टान्त इस प्रकार से है:- ह्लादयति-अवअच्छइ-वह आनन्द कराता है, वह खुश कराती है। यों दोनों स्थितियों में प्राकृत भाषा में उपर्युक्त रीति से केवल एक ही धातु रूप होता है।
'इकार' उच्चारण 'सूत्र प्रक्रिया' में प्रेरणार्थक प्रत्यय 'णि' का बोधक अथवा संग्राहक माना जाता है; ऐसा ध्यान में रखा जाना चाहिये ।। ४-१२२।।
नेः सदो मज्जः
||४-१२३।।
निपूर्वस्य सदो मज्ज इत्ज्यादेशो भवति ।। अत्ता एत्थ
मज्ज ||
अर्थः- ‘नि' उपसर्ग सहित संस्कृत धातु 'सद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'मज्ज' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- आत्मा अत्र निसीदति = अत्ता एत्थ णुमज्जइ - आत्मा यहां पर बैठती है ।।४ - १२३ ॥
छिदेर्दुहाव- णिच्छल्ल - णिज्झौड - णिव्वर - णिल्लूर-लूराः ।।४-१२४ ॥
छिदेरेते षडादेशा वा भवन्ति ।। दुहावइ । णिच्छल्लइ । णिज्झौड । णिव्वर । पिल्लू-रइ । लूर | पक्षे । छिन्दइ ||
अर्थः- 'छेदना, खण्डित करना' अर्थक संस्कृत धात, 'छिद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से छह धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) दुहाव, (२) णिच्छल्ल, (३) णिज्झोड, (४) णिव्वर, (५) पिल्लूर और (६) लूर । वैकल्पिक पक्ष होने से 'छिंद' की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण क्रम से यों हैं:- छिनत्ति = (१)
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 251 दुहावइ, (२) णिच्छलइ, (३) णिज्झोडइ (४) णिव्वरइ, (५) पिल्लूरइ, (६) लूरइ। पक्षान्तर में छिन्दइ-वह छेदता है अथवा वह खण्डित करती है ।। ४-१२५।।
___ आङा ओ अन्दोद्दालौ ॥४-१२५।। आङा युक्तस्य छिदेरोअन्द उद्दाल इत्यादेशौ वा भवतः ओअन्दइ। उद्दालइ। अच्छिन्दइ।।
अर्थः- 'आ' उपसर्ग सहित संस्कृत-धातु 'छिद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'ओअन्द, उद्दाल' ऐसे दो धातु-रूपों की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से अच्छिन्द की भी प्राप्ति होती है। उदाहरण यों हैं:अच्छिनति ओअन्दइ, उद्दालइ अथवा अच्छिन्दइ-वह खींच लेता हे अथवा वह हाथ से छीन लेती है।।४-१२५।।
मृदो मल-मढ-परिहट-खड्ड-चड्ड-मड्ड-पन्नाडाः ॥४-१२६॥ मृद्नातेरेते सप्तादेशा भवन्ति।। मलइ। मढइ। परिहट्टइ। खड्डइ। चड्डइ। मड्डइ। पन्नाडइ।।
अर्थः- 'मर्दन करना, मसलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मृद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में सात धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार हैं:-(१) मल, (२) मढ, (३) परिहट्ट, (४) खड्ड, (५) चड्ड, (६) मड्ड और (७) पन्नाड। इनके उदाहरण इस प्रकार हैं:- मृद्नाति=(१) मलइ, (२) मढइ, (३) परिहट्टइ, (४) खड्डइ, (५) चड्डइ, (६) मड्डइ और (७) पन्नाडइ-वह मर्दन करता है अथवा वह मसलती है ।। ४-१२६ ।।
स्पन्देश्चुलुचुलः॥४-१२७।। स्पन्देश्चुलुचुल इत्यादेशो वा भवति।। चुलुचुलइ। फन्दइ।।
अर्थ'-'फडकना, थोड़ा हिलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'स्पन्द्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'चुलुचुल' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'फन्द' की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण यों हैं:- स्पन्दति-चुलुचुलइ अथवा फन्दइ-वह फरकती है अथवा वह थोड़ा हिलता है।। ४-१२७।।
निरः पदेर्वलः।। ४-१२८॥ निपूर्वस्य पदेवल इत्यादेशो वा भवति।। निव्वलइ। निप्पज्ज।।
अर्थः- "निर्' उपसर्ग सहित संस्कृत धातु 'पद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'निव्वल' धातु रूप कर आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'निप्पज्ज' की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण इस प्रकार है:- निष्पद्यते निव्वलइ अथवा निप्पजइ-वह निष्पन्न होता है, वह सिद्ध होता है अथवा वह बनती है।। ४-१२८।।
विसंवदेर्विअट्ट-विलोट-फंसाः॥४-१२९।। विसंपूर्वस्य वदेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति।। विअट्टइ। विलोट्टइ। फंसइ। विसंवयइ।।
अर्थः- 'वि' उपसर्ग तथा 'सं' उपसर्ग, इस प्रकार दोनों उपसर्गो के साथ संस्कृत-धातु 'वद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से तीन धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार हैं:- (१) विअट्ट (२) विलोट्ट और (३) फंस। वैकल्पिक पक्ष होने से 'विसंवय' को भी, प्राप्ति होगी। उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- विसंवदति=(१) विअट्टइ (२) विलोट्टइ, (३) फंसइ और (४) विसंवयइ-वह अप्रमाणित करता है अथवा वह असत्य साबित करता है ।। ४-१२९।।
शदो झड-पक्खोडौ ॥४-१३०।। शीयतेरेतावादेशौ भवतः।। झडइ। पक्खोडइ॥ अर्थः- 'झड़ना, टपकना' अर्थक संस्कृत-धातु 'शद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति
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252 : प्राकृत व्याकरण होती है। वे यों हैं:- (१) झड और (२) पक्खोड। उदाहरण इस प्रकार हैं:- शीयते-झडइ और पक्खोडइ-वह झड़ता है, वह टपकती है, वह धीरे-धीरे कम होती है ।। ४-१३०।।
आक्रन्देीहरः॥४-१३१।। आक्रन्देीहर इत्यादेशो वा भवति।। णीहरइ। अक्कन्दइ।।
अर्थः- आक्रन्दन करना, चिल्लाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'आ+क्रन्द्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'णीहर' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से अक्कन्द भी होगा। जैसे:- आक्रन्दति=णीहरइ अथवा अक्कन्दइ-वह आक्रंदन करती है अथवा वह चिल्लाता है ।।४-१३१।।
खिदेर्जूर-विसूरौ ।।४-१३२।। खिदेरेतावादेशो वा भवतः। जूरइ। विसूरइ। खिज्जइ।।
अर्थः- खेद करना, अफसोस करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'खिद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जूर और विसूर' ऐसे दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष में 'खिज्ज' की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण यों है:- खिद्यते=(१) जूरइ, (२) विसूरइ और पक्ष में खिज्जइ-वह खेद करता है, वह अफसोस करती है ।। ४-१३२।।
रुधेरुत्थङ्घः ॥ ४-१३३।। रुधेरुत्थङ्घ इत्यादेशो वा भवति।। उत्थष्ठइ। रुन्घइ।।
अर्थः- 'रोकना' अर्थक संस्कृत-धातु 'रुध्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'उत्थंघ' धातु -रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'रुन्ध' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- रुणद्धि-उत्थंघइ अथवा रुन्धइ वह रोकता है ।। ४-१३३।।
निषेधेर्हक्कः॥ ४-१३४॥ निषेधतेर्हक्क इत्यादेशो वा भवति।। हक्कइ। निसेहइ।।
अर्थ :- ‘निषेध करना, निवारण करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नि+षिध्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'हक्क' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'निसेह' भी होगा। जैसे:- निषेधति-हक्कइ अथवा निसेहइ-वह निषेध करती है अथवा निवारण करता है।।४–१३४।।
क्रुधेर्जूरः।।४-१३५।। क्रुधेर्जूर इत्यादेशो वा भवति।। जूरइ । कुज्झइ।
अर्थः- 'क्रोध करना, गुस्सा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'क्रुध' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जूर' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से कुज्झ' भी होगा। जैसे:- क्रुध्यति-जूरइ अथवा कुज्झइ-वह क्रोध करता है, वह गुस्सा करता है।।४-१३५।।
जनो जा-जम्मौ।।४-१३६॥ जायते ॥य जम्म इत्यादशौ भवतः ।। जाअइ। जम्मइ।। ___ अर्थः-'उत्पन्न होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'जन' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'जा' और 'जम्म' की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:-जायते-जाअइ और जम्मइ वह उत्पन्न होता है।। ४-१३६।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 253 ततनेस्तड-तड्ड-तड्डव-विरल्ला ।। ४-१३७।। तनेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति। तडइ। तड्डइ। तड्डवइ। विरल्लइ। तणइ।। अर्थः- 'विस्तार करना, फैलाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'तन' के स्थान पर प्राकृत भाषा में चार धातु-रूपों की आदेश-प्राप्ति विकल्प से होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:-(१) तड, (२) तड, (३) तड्डव और (४) विरल्ल। वैकल्पिक पक्ष होने से 'तण' भी होगा। उदाहरण क्रम से यों हैं:- तनोति= (१) तडइ, (२) तड्डइ, (३) तड्डवइ, (४) विरल्लइ। पक्षान्तर में तणइ-वह विस्तार करता है अथवा वह फैलाती है।। ४-१३७||
तृपस्थिप्पः ।। ४–१३८|| तृप्यते स्थिप्प इत्यादेशो भवति।। थिप्पइ।। __ अर्थः- 'तृप्त होना, संतुष्ट होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'तृप्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'थिप्प' (अथवा थिंप) आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- तृप्यति-थिप्पइ (अथवा थिंपइ)= वह तृप्त होती है, वह सन्तुष्ट होता है।।४-१३८।।
उपसरल्लिअः ।। ४-१३९।। उपपूर्वस्य सृपेः कृतगुणस्य अलिअ इत्यादेशो वा भवति।। अलिअइ । उवसप्पइ।।
अर्थः-संस्कृत धातु 'सृप्' में स्थित ऋक 'र' स्वर को गुणा करके प्राप्त धातु रूप 'सर्प' के पूर्व में 'उप' उपसर्ग को संयोजित करने पर उपलब्ध धातु रूप 'उपसर्प' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'अल्लिअ' की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'उवसप्प' भी होगा। जैसे:-उपसर्पति अल्लिअइ अथवा उवसप्पइ-वह पास में, समीप में जाता है।।४-१३९।। ।
संतपेझैङ्ख।। ४-१४०॥ संतपे झंड इत्यादेशो वा भवति।। झंखइ। पक्षे। संतप्तइ।।
अर्थः-'संतप्त होना, संताप करना' अर्थक संस्कृत धातु 'सं+तप्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'झंख' की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'संतप्प' भी होगा। जैसे:- संतपति-झङ्खइ अथवा संतप्पइ वह संतप्त होता है अथवा वह संताप करती है।।४-१४०।।
व्यापेरोअग्गः।। ४-१४१॥ व्याप्नोतेरोअग्ग इत्यादेशौ वा भवति।। ओअग्गइ। वावेइ।।
अर्थः- 'व्याप्त करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वि+आप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'ओअग्ग' की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने वाव' भी होगा। जैसे:- व्याप्नोति-ओअग्गइ अथवा वावेइ वह व्याप्त करता है।।४-१४१।।
समापेः समाणः।।४-१४२।। समाप्नोतेः समाण इत्यादेशो वा भवति।। समाणइ। समावे॥
अर्थः- 'समाप्त करना, पूरा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'सम्+आप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'समाण की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'समाव' भी होता है। जैसेः- समाप्नोति-समाणइ अथवा समावेइ = वह समाप्त करता है अथवा वह पूरा करती है।।४-१४२।।
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254 : प्राकृत व्याकरण क्षिपे गलत्थाड्डक्ख-सोल्ल-पेल्ल-णोल्ल-छुह-हुल-परी-घत्ताः।। ।।४-१४३।।
क्षिपेरेते नवादेशा वा भवन्ति।। गलत्थइ। अड्डक्खइ। सोल्लइ। पेल्लई। णोल्लइ। हसत्वे तु णुलइ। छुहइ। हुलइ। परीइ। घत्तइ। खिवइ। ___ अर्थः-' फेंकना, डालना' अर्थक संस्कृत धातु 'क्षिप्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से नव धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है, जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) गलत्थ, (२) अड्डक्ख, (३) सोल्ल, (४) पेल्ल, (५) णोल्ल, (६) छुह, (७) हुल (८) परी और (९) घत्त। वैकल्पिक पक्ष होने से 'खिव' भी होगा।
उपर्युक्त धातुओं में से पांचवी धातु 'णोल्ल' में स्थित 'ओकार' स्वर को विकल्प से हस्वत्व की प्राप्ति होने पर वैकल्पिक रूप से 'णोल्ल' के स्थान ‘णुल्ल' रूप की प्राप्ति हुआ करती है। संस्कृत-धातु 'क्षिप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में उक्त ग्यारह प्रकार के धातु-रूप उपलब्ध होते हैं। इनके उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- क्षिपति=(१) गलत्थइ, (२) अड्डक्खइ (३) सोल्लइ, (४) पेल्लइ, (५) णोल्लइ, (६) णुलइ, (७) छुहइ (८) हुलइ (९) परीइ, (१०) घत्तइ (११) और खिवइ-वह फेंकती है अथवा वह डालता है।। ४-१४३।।
उत्क्षिपेर्गुलगुञ्छोत्थंघाल्लत्थोब्भुत्तोस्सिक्क-हक्खुवाः ।। ४-१४४॥ उत्पूर्वस्य क्षिपेरेते षडादेशा वा भवन्ति। गुलगुञ्छइ। उत्थंघइ। अल्लत्थइ। उब्भुत्तइ। उस्सिक्कइ। हक्खुवइ। उक्खिवइ॥ __ अर्थः- 'उत्' उपसर्ग सहित संस्कृत धातु 'क्षिप्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से छह धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो इस प्रकार हैं:- (१) गुलगञ्छ, (२) उत्थंघ, (३) अल्लत्थ, (४) उब्भुत्त, (५) उस्सिक और (६) हक्खुव। वैकल्पिक पक्ष होने से उक्खिव भी होगा। उदाहरण इस प्रकार हैं:- उत्क्षिपति=(१) गुलगुञ्छइ, (२) उत्थंघइ, (३) अल्लत्थइ, (४) उब्भुत्तइ, (५) उस्सिक्कइ, (६) हक्खुवइ। पक्षान्तर में उक्खिवइ= वह ऊँचा फेंकता है।।४-१४४।।
आक्षिपर्णीरवः ॥४-१४५॥ आङ् पूर्वस्य क्षिपेरिव इत्यादेशो वा भवति ॥ णीरवइ। अक्खिवइ।
अर्थः- 'आ' उपसर्ग सहित संस्कृत-धातु 'क्षिप्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से ‘णीरव' की आदेश प्राप्ति होती है। वेकल्पिक पक्ष होने से 'अक्खिव' भी होगा। जैसे:- आक्षिपति-णीरवइ अथवा अक्खिवइ-वह आक्षेप करती है, वह टीका करता है अथवा वह दोषारोपण करती है ।। ४-१४५।।
स्वपेः कमवस-लिस-लोद्राः ।। ४-१४६।। स्वपेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति ।। कमवसइ। लिसइ। लोइ। सुअइ।।
अर्थः- 'सोना अथवा सौ जाना, शयन करना' अर्थक संस्कृत धातु 'स्वप्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से तीन (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है (१) कमवस, (२) लिस और (३) लोट्ट। वैकल्पिक पक्ष होने से 'सुप' भी होगा। उदाहरण यों है:- स्वपिति= (१) कमवसइ, (२) लिसइ, (३) लोट्टइ अथवा सुअइवह सोता है, वह शयन करती है।। ४-१४६।।
वेपेरायम्बायज्झौ ।। ४-१४७॥ वेपेरायम्ब आयज्झ इत्यादशो वा भवतः ।। आयम्बइ। आयज्झइ। वेवइ।। अर्थः- 'कांपना अथवा हिलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वे' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'आयम्ब और आयज्झ' ऐसे दो धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक-पक्ष होने से 'वेव' भी होगा। उदाहरण
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 255 क्रम से इस प्रकार हैं:- वेपते= (१) आयम्बइ, (२) आयज्झइ अथवा (३) वेवइ-वह कांपती है, वह हिलता है अथवा वह थरथराती है।। ४-१४७।।
विलपेझङ्ख-वडवडौ ।। ४-१४८।। विलपेझंख-वडवड इत्यादेशो वा भवतः।। झंखइ। वडवडइ। विलवइ।।
अर्थः- 'विलाप करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वि+लप्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा से 'झंख और वडवड' ऐसे दो (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'विलव' भी होगा। जैसे-विलपति= (१) झंखइ, (२) वडवडइ और (३) विलवइ= वह विलाप करता है, वह जोर-जोर से रूदन करती है।। ४-१४८।।
लिपो लिम्पः।। ४-१४९।। लिम्पतेर्लिम्प इत्यादेशो भवति।। लिम्पइ।।
अर्थः- 'लीपना, लेप करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'लिप्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'लिम्प' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- लिम्पति लिम्पइ = वह लिपती है, वह लेप करता है।। ४-१४९।।
गुप्येर्विर-णडौ।। ४-१५०॥ गुप्यतेरेतावादेशो वा भवतः।। विरइ। णडइ। पक्षे। गुप्पइ।।
अर्थः- 'व्याकुल होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'गुप्य' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'विर' और 'णड' ऐसे दो (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'गुप्प' भी होता है। जैसे:- गुप्यति-विरइ, णडइ अथवा गुप्पइ-वह व्याकुल होता है, वह घबड़ाती है।।४-१५०।।
क्रपो वहो णिः।।४-१५१।। कृपे अवह इत्यादेशो ण्यन्तो भवति ॥ अवहावेइ। कृपां करोतीत्यर्थः।।
अर्थः- 'कृपा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'क्रप्' के स्थान पर 'प्रेरणार्थक प्रत्यय 'णिच' पूर्वक प्राकृत भाषा में 'अवह+आवे' =अवहावे रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- कृपां करोति अथवा क्रपते अवहावेइ-वह कृपा करता है, वह दया करती है।। ४-१५१।।
प्रदीपेस्तेअव-सन्दुम-सन्धुक्काब्भुत्ता।। ४-१५२॥ प्रदीप्यतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति।। तेअवइ। सन्दुमइ। सन्धुक्कइ। अब्भुत्तइ। पलीवइ।।
अर्थः- ‘जलाना सुलगाना' अथवा 'प्रकाशित होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्र+दीप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से चार धातु-(रूपों) की आदेश प्राप्ति होती है। (१) तेअव, (२) संदुम, (३) संधुक्क और (४) अब्भुत्त। वैकल्पिक, पक्ष होने से 'पलीब' भी होगा। जैसे:- प्रदीप्यते, = (१) तेअवइ (२) सन्दुमइ, (३) सन्धुक्कइ, (४) अब्भुत्तइ पक्षान्तर में पलीवइ=वह प्रकाशित होता है अथवा वह जलाती है, वह सुलगाती है ।। ४-१५२।।
लुभेः संभावः।। ४-१५३।। लुभ्यतेः संभाव इत्यादेशो वा भवति ।। संभावइ। लुब्भइ।।
अर्थः- 'लोभ करना, आसक्ति करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'लुभ्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'संभाव' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'लुब्भ' भी होता है। जैसे- लुभ्यति-संभावइ अथवा लुब्भइ= वह लोभ करता है, वह आसक्ति करती है।। ४-१५३।।
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256 : प्राकृत व्याकरण
क्षुभेः खउर-पड्डुहौ।। ४-१५४।। क्षुभेः खउर पड्डुह इत्यादेशो वा भवतः।। खउरइ पड्डुहइ। खुब्भइ।।
अर्थः- 'क्षुब्ध होना , डर से विह्वल होना' अर्थक संस्कृत धातु 'क्षुम्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'खउर तथा पड्डुह' ऐसे दो (धातु) रूपों की आदेश-प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'खुब्भ' भी होता है। जैसे:- क्षुभ्यति खउरइ, पड्डुहइ अथवा खुब्भइ-वह क्षुब्ध होता है, वह डर से विह्वल होती है।। ४-१५४।।
आङो रभे रम्भ-ढवौ ।। ४-१५५।। आङः परस्य रभे रम्भ ढव इत्यादेशो वा भवतः।। आरम्भइ। आढवइ। आरभइ।।
अर्थः- 'आ' उपसर्ग संस्कृत-धातु 'रभ्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'आरम्भ और आढव' ऐसे दो (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'आरभ भी होता है। जैसे:- आरभते= आरम्भइ, (२) आढवइ, और (३) आरभइ-वह आरम्भ करता है, वह शुरू करती है ।। ४-१५५।।
उपालम्भे झंख-पच्चार-वेलवाः ।। ४-१५६।। उपालम्भेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति।। झंखइ । पच्चारइ। वेलवइ। उवालम्भइ।।
अर्थः- 'उपालम्भ देना, उलाहना देना, ठपका देना' अर्थक संस्कृत-धातु 'उपा+लंभ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से तीन (धात रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि कम से इस प्रकार हैं:- (१)
(२) पच्चार, और (३) वेलव। वैकल्पिक पक्ष होने से 'उवालम्भ' भी होता है। जैसे :- उपालम्भते= (१) झंखइ, (२) पच्चारइ, (३) वेलवइ। पक्षान्तर में उवालम्भइ वह उपालम्भ देती है अथवा वह उलाहना देता है।। ४-१५६।।
अवेर्जुम्भो जम्भा।। ४-१५७।। जृम्भेर्जम्मा इत्यादेशौ भवति वेस्तु न भवति।। जम्भाइ। जम्भाअइ। अवेरिति किम्। केलि-पसरो विअम्भइ।।
अर्थः- 'जभाइ लेना' अर्थक संस्कृत-धातु 'जृम्भ' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'जम्भा अथवा जम्भाअ (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- जृम्भते = जम्भाइ अथवा जम्भाअइ-वह जम्भाई लेता है।
उपर्युक्त संस्कृत-धातु 'जृम्भ' में यदि 'वि' उपसर्ग जुड़ा हुआ हो तो 'जम्भ' के स्थान पर 'जम्भा अथवा जम्भाअ धातु-रूप की आदेश प्राप्ति नहीं होगी। ऐसे समय में 'वि+जृम्भ' संस्कृत धातु-रूप का प्राकृत-रूपान्तर 'विअम्भ' होगा। ऐसी स्थिति होने के कारण वि उपसर्ग का 'विधि-निषेध' प्रदर्शित किया गया है। जैसे:- केलि-प्रसरः विजृम्भते-केलि-पसरो विअम्भइ-कदली-पौधा का फैलाव विकसित होता है ।।४-१५७।।
भाराक्रान्ते नमे, र्णिसुढः ।।४-१५८।। भाराक्रान्ते कर्तरि नमेर्णिसुढ़ इत्यादशौ भवति। र्णिसुढइ। पक्षे। णवइ। भाराक्रान्तो नमतीत्यर्थः।।
अर्थः- 'भार से आक्रान्त होकर-दबाव पड़कर-नीचे नमना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नम्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'णिसुद' (धातु-रूप) की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- भाराक्रान्तो नमति= णिसुढ़इ-बोझ के कारण वह नमती है, अथवा झुकता है। कभी-कभी इसी अर्थ में 'नम' का ‘णव' ऐसे प्राकृत-रूपान्तर भी कर लिया जाता है। जैसे:नमति=णवइ।। ४-१५८।।
विश्रमे र्णिव्वा ।। ४-१५९।। विश्राम्यते र्णिव्वा इत्यादेशौ वा भवति ॥ णिव्वाइ।। वीसमइ।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 257 अर्थः- “विश्राम करना, थकने पर आराम करना' अर्थक संस्कृत धातु 'वि+श्रम् विश्राम्य' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'णिव्वा' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'विसम' भी होता है। जैसे:- विश्राम्यति= णिव्वाइ अथवा वीसमइ वह विश्राम करता है ।। ४-१५९।।
आक्रमेरोहावोत्थार च्छुन्दाः ।। ४-१६०॥ आक्रमतेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति । ओहावइ। उत्थारइ। छुन्दइ। अक्कमइ।।
अर्थः- 'आक्रमण करना, हमला करना अर्थक संस्कृत धातु 'आक्रम' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से तीन (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) ओहाव, (२) उत्थार, और (३) छुन्द। वैकल्पिक पक्ष होने से 'अक्कम' भी होता है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- आक्रमते = (१) ओहावइ, (२) उत्थारइ, (३) छुन्दइ। पक्षान्तर में अक्कमइवह आक्रमण करता है वह हमला करता है ।। ४-१६०।।
भ्रमेष्टिरिटिल्ल-ढुंदल्ल-ढंढल्ल-चक्कम्म-भम्मड-भमड-भमाडतलअंट-झंट-झम्प-भुम-गुम-फुम-फुस-दुम-दुस-परी-पराः।। ४-१६१।।
भ्रमेरेतेष्टादशादेशा वा भवन्ति।। टिरिटिल्लइ। दुन्दुल्लइ। ढढल्लइ। चक्कम्मइ। भम्मडइ। भमडइ। भमाडइ। तलअंटइ। झंटइ। झंपइ। भुमइ। गुमइ। फुमइ। फुसइ। दुमइ। दुसइ। परीइ। परइ। भमइ।। ___ अर्थ- 'घुमना, फिरना' अर्थक संस्कृत-धातु 'भ्रम' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से अठारह (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) टिरिटिल्ल, (२) दुन्दुल्ल, (३) ढंढल्ल, (४) चक्कम्म, (५) भम्मड, (६) भमड, (७) भमाड, (८) तलअंट, (९) झंट, (१०) झंप, (११) भुम, (१२) गुम, (१३) फुम, (१४) फुस, (१५) ढुम, (१६) दुस, (१७) परी और (१८) पर। वैकल्पिक पक्ष होने से 'भम' भी होता है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- भ्रमति= (१) टिरिटिल्लइ, (२) ढुंढुल्लइ, (३) ढंदल्लइ, (४) चक्कम्मइ, (५) भम्भडइ, (६) भमडइ, (७) भमाडइ, (८) तलअंटइ, (९) झंटइ, (१०) झंपइ, (११) भुमइ, (१२) गुमइ, (१३) फुमइ, (१४) फुसइ, (१५) ढुमइ, (१६) दुसइ (१७) परीइ, (१८) परइ, पक्षान्तर में भमइ- वह घूमती है, वह फिरता है।।४-१६१।।
गमेरइ-अइच्छाणुवज्जावज्जसोक्कुस-पच्चड्ड-पच्छन्दणिम्महणी-णणणोलुक्क-पदअ-रम्भ-परिअल्ल-वोल-परिअल णिरिणास
णिवहावसेहावहरा ।। ४-१६२।। गमेरेते एकविंशतिरादेशा वा भवन्ति।। अईइ। अइच्छइ। अणुवज्जइ। अवज्जसइ। उक्कुसइ। अक्कुसइ। पच्चड्डइ। पच्छन्दइ। णिम्महइ। णीइ। णीणइ। णीलुक्कइ। पदअइ। रम्मइ। पणीअल्लइ। वोलइ। परिअलइ। णिरिणासइ। णिवहइ। अवसेहइ। अवहरइ। पक्षे। गच्छइ। हम्मइ। णिहम्मइ। णीहम्मइ। आहम्मइ। पहम्मइ। इत्येते तु हम्म गतावित्यस्यैव भविष्यन्ति।।
अर्थः- 'गमन करना, जाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'गम् गच्छ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में इक्कीस (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) अई, (२) अइच्छ, (३) अणुवज्ज, (४) अवज्जस, (५) उक्कुस, (६) अक्कुस, (७) पच्चड्ड, (८) पच्छन्द, (९) णिम्मह, (१०) णी, (११) णीण, (१२) णीलुक्क, (१३) पदअ, (१४) रम्भ, (१५) परीअल्ल, (१६) वोल, (१७) परीअल, (१८) णिरिणास, (१९) णिवह, (२०) अवसेह, और (२१) अवहर। वैकल्पिक पक्ष होने से 'गच्छ' भी होता है। उक्त बावीस प्रकार के धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:
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258 : प्राकृत व्याकरण
गच्छति= (१) अईइ, (२) अइच्छइ, (३) अणुवज्जइ, (४) अवज्जसइ, (५) उक्कुसइ, (६) अक्कुसइ, (७) पच्चड्डइ, (८) पच्छन्दइ, (९) णिम्महइ, (१०) णीइ, (११) णोणइ; (१२) णीलुक्कइ, (१३) पदअइ, (१४) रम्भइ, (१५) परिअल्लइ, (१६) वोलइ, (१७) परिअलइ, (१८) णिरिणासइ, (१९) णिवहइ, (२०) अवसेहइ, (२१) अवहरइ, और (२२) गच्छइवह गमन करता है अथवा वह गमन करती है।
संस्कृत-भाषा में 'गमन करना, जाना' अर्थक 'हम्म' ऐसी एक और धातु है इसके आधार से प्राकृत-भाषा में भी 'जाना' अर्थ में 'हम्म' धातु रूप का प्रयोग देखा जाता है:- हम्मति हम्मइ वह जाता है अथवा वह गमन करती है। । उपर्युक्त 'हम्म' धातु के पूर्व में क्रम से णि, णी, आ, और प, उपसर्गों की संयोजना करके इसी 'जाना-अर्थ में चार (धातु) रूपों का और भी निर्माण कर लिया जाता है, जो कि क्रम से इस प्रकार है:- (१) णिहम्म, (२) णीहम्म, (३) आहम्म, और (४) पहम्म। इनके उदाहरण इस प्रकार हैं:- (१) निहम्मति= णिहम्मइ = वह जाती है अथवा गमन करता है। (२) निहम्मतिणीहम्मइ वह निकलती है अथवा वह बाहर जाता है। (३) आहम्मति= आहम्मइ= वह आता है अथवा वह आगमन करता है। प्रहम्मति = पहम्मइ= वह तेज गति से जाता है, वह शीघ्रता पूर्वक गमन करता है। इस प्रकार से 'जाना' अर्थक 'हम्म' धातु के विभिन्न प्रयोगों को समझ लेना चाहिये ।।४-१६२।।
. आङा अहिपच्चुअः।। ४-१६३।। आङा सहितस्य गमेः अहिपच्चुअ इत्यादेशो वा भवति।। अहिपच्चुअइ। पक्षे आगच्छइ।।
अर्थ:- 'आ' उपसर्ग सहित संस्कृत-धातु 'गम् गच्छ' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से अहिपच्चुअ (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'आगच्छ' भी होता है। जैसे:- आगच्छति अहिपच्चुअइ अथवा आगच्छइ-वह आता है।। ४-१६३।।।
समा अब्भिडः ॥४-१६४॥ समायुक्तस्य गमेः अब्भिड इत्यादेशो वा भवति।। अब्भिडइ। संगच्छ।।।
अर्थः- 'सं' उपसर्ग सहित संस्कृत धातु 'गम गच्छ' के स्थान पर प्राकृत-- भाषा में विकल्प 'अब्भिड' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'संगच्छ' भी होता है। जैसे:- संगच्छति= अब्भिडइ अथवा संगच्छइ-वह संगति करता है अथवा वह मिलती है ।। ४-१६४।।
अभ्याडोम्मत्थः ।।४-१६५।। अभ्याङ भ्यां युक्तस्य गमे : उम्मत्थः इत्यादेशो वा भवति।। उम्मत्थइ। अब्भागच्छइ। अभिमुखमागच्छतीत्यर्थः।।
अर्थः- 'अभि' उपसर्ग तथा 'आ' उपसर्ग सहित संस्कृत-धातु 'गम् गच्छ' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'उम्मत्थ' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'अब्भागच्छ' भी होता है। जैसे:अभ्यागच्छति =उम्मत्थइ अथवा अब्भागच्छइ =वह सामने आता है, वह अभिमुख आती है ।। ४-१६५।।
प्रत्याङा पलोट्टः ।।४-१६६।। प्रत्याभ्यां युक्तस्य गमेः पलोट इत्यादेषो वा भवति।। पलोट्टइ। पच्चागच्छइ।। ____अर्थः- 'प्रति उपसर्ग और 'आ' उपसर्ग सहित संस्कृत-धातु 'गम्= गच्छ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'पलोट्ट' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में संस्कृत-धातु- 'प्रति+आ+गम्-प्रत्यागच्छ' का
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 259 प्राकृत- रूपान्तर 'पच्चागच्छ' भी होता है। जैसे :- प्रत्यागच्छति पलोदृइ अथवा पच्चागच्छइ = वह लौटता है अथवा वह वापिस आती है ।। ४- १६६ ।।
=
रामेः पड़िसा - परिसामौ ।। ४-१६७।।
रामेरेतावादेशौ वा भवतः ॥ पडिसाइ । परिसामइ । समइ ||
अर्थः- 'शान्त होना, क्षुब्ध नहीं होना' अर्थक संस्कृत धातु 'शम् - शाम्य' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'पडिसा और परिसाम' की आदेश प्राप्ति होती है। 'सम' भी होता है। तीनों धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- शाम्यति=पडिसाइ, परीसामइ और समइ = वह शान्त होता है अथवा वह क्षुब्ध नहीं होता है ।। ४-१६७।। रमेः संखुड्ड - खेड्डोब्भाव - किलिकिञ्च - कोट्टुम- मोट्टाय - णीसर - वेल्ला: ।। ४-१६८।। रमतेरेतेष्टादेशा वा भवन्ति । संखुड्डूइ | खेड्डू । उब्भावइ । किलिकिञ्च । कोट्टुमइ । मोट्टाइ । णीसरइ । वेल्लइ ।
रमइ ।
अर्थः- 'क्रीड़ा करना, खेलना' अर्थक संस्कृत धातु 'रम्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से आठ धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) संखुड्ड, (२) खेड्ड, (३) उब्भाव, (४) किलिकिञ्च, (५) कोट्टाय, (६) मोट्टाय, (७) णीसर और (८) वेल्ल । वैकल्पिक पक्ष होने से 'रम्' भी होता है। उक्त 'खेलना' अर्थक नव ही धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- रमते = (१) संखुड्डइ, (२) खेड्डइ, (३) उब्भावइ, (४) किलिकिञ्चइ, (५) कोट्टुमइ, (६) मोट्टायइ, (७) णीसरइ (८) वेल्लइ और (९) रमइ = वह खेलता है अथवा वह क्रीड़ा करता है ।। ४- १६८ ॥
पुरेरग्घाडाग्घवोध्दुमाङगुमाहिरेमाः ।।४-१६९ ।।
पुरेरेतेपञ्चादेशा वा भवन्ति ।। अग्घाड । अग्घवइ । उद्धमाइ । अंगुमइ । अहिरेमइ । पूरइ ।।
अर्थ:-'पूर्ति करना, पूरा करना' अर्थक संस्कृत धातु 'पूर्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से पांच धातुरूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) अग्घाड, (२) अग्घव, (३) उद्धमा, (४) अंगुम और (५) अहिरेम। वैकल्पिक पक्ष से 'पूर' भी होता है और उक्त छह धातुओं के उदाहरण क्रम
'इस प्रकार है:उद्धुमाइ (४) अंगुमइ, (५) अहिरेमइ और (६) पूरइ = वह पूर्ति करता है
पूरयति = (१) अग्घाडइ, (२) अग्घवइ, अथवा वह पूरा करता है । । ४ - १६९ ।।
त्वरस्तुवर - जअडौ । । ४ - १७० ।।
त्वरतेरेतावादेशौ भवतः । तुवरइ । जअडइ । तुवरन्तो । जअडन्तो ।।
अर्थः- 'त्वरा करना, शीघ्रता करना' अर्थक संस्कृत धातु 'त्वर' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'तुवर और अड' ऐसे दो धातु - रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। इन दोनों धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:(त्वरयति अथवा ) त्वरते तरइ अथवा जअडइ = वह शीघ्रता करता है, वह जल्दी करता है। इस धातु का वर्तमान दन्त का उदाहरण इस प्रकार है:- त्वरन् तुवरन्तो जअडन्तो शीघ्रता करता हुआ, उतावला करता हुआ । । ४ - १७० ।।
त्यादिशत्रोस्तूरः ।।४ - १७१ ।।
त्वरतेस्त्यादौ शतरि च तूर इत्यादेशो भवति ।। तूरइ । तूरन्तो ।।
अर्थः- 'त्वरा करना, शीघ्रता करना' अर्थक संस्कृत धातु 'त्वर' आगे कालबोधक प्रत्यय 'ति - इ' आदि होने पर अथवा वर्तमान कृदन्त बोधक प्रत्यय 'रातृ - अत- न्त अथवा माण' होने पर 'त्वर' का प्राकृत रूपान्तर आदेश
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260 : प्राकृत व्याकरण रूप से 'तूर' होता है। जैसे:- त्वरति अथवा त्वरते-तूरइ-वह जल्दी करता है, वह शीघ्रता करता है। त्वरन्-तूरन्तो (अथवा तूरमाणो) जल्दी करता हुआ। यों तूर' के अन्य रूपों की भी स्वयमेव साधना कर लेनी चाहिये॥ ४-१७१।।
तुरो त्यादौ ॥४-१७२।। त्वरो त्यादो तुर आदेशो भवति ।। तुरिओ। तुरन्तो।।
अर्थः- 'शीघ्रता करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'त्वर' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'ति-इ' आदि काल बोधक प्रत्यय तथा कृदन्त आदि बोधक प्रत्यय आगे रहने पर 'तुर' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे:- त्वरितः तुरओ-शीघ्रता किया हुआ। त्वरन् =तुरन्तो= शीघ्रता करता हुआ। यों अन्य रूपों की भी स्वयमेव कल्पना कर लेनी चाहिये।। ४-१७२।।
क्षरः खिर-झर-पज्झर-पच्चड-णिच्चल-णि?आः।। ४-१७३।। क्षरेरेते षड् आदेशा भवन्ति ।। खिरइ । झरइ। पज्झरइ। पच्चडइ। णिच्चलइ। णिटुअइ।।
अर्थः- "गिरना, गिर पड़ना, टपकना, झरना' अर्थक संस्कृत-धातु 'क्षर' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में छह धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) खिर, (२) झर, (३) पज्झर, (४) एच्चड, (५) णिच्चल और (६) णिटुं। इनके उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) क्षरति= (१) खिरइ, (२) झरइ, (३) पज्झरइ, (४) पच्चडइ, (५) णिच्चलइ और (६) णिटुट्अइ= वह गिर पड़ता है, वह टपकता है अथवा वह झरता है ।। ४-१७३।।
उच्छल उत्थल्लः ।। ४-१७४।। उच्छलतेरुत्थल्ल इत्यादेशो भवति ।। उत्थल्लइ ।। अर्थः- "उछलना, कूदना' अर्थक संस्कृत-धातु 'उत्+ शल्-उच्छल्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'उत्थल्ल' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- उच्छलति-उत्थल्लइ-वह उछलता है अथवा वह कूदता है ।। ४-१७४।।
विगलेस्थिप्प-गिटुहौ ।। ४-१७५।। विगलतेरेतावादेशौ वा भवतः ॥ थिप्पइ। णिटुहइ । विगलइ।। अर्थः- 'गलजाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वि-गल्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'थिप्प और णिटुह' ऐसे दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'विगल' भी होता है। तीनों धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:-विगलति= (१) थिप्पइ, (२) णिटटुहइ, और (३) विगलइ= वह गल जाता है, वह जीर्ण-शीर्ण हो जाता है।।४-१७५।।
दलि-वल्योर्विसट्ट-वम्फो।। ४-१७६॥ दले वेलेश्च यथासंख्यं विसट्ट वम्फ इत्यादेशौ वा भवतः। विसट्टइ। वम्फइ। पक्षे। दलइ। वलइ।। __ अर्थ:- ‘फटना, टूटना, टुकड़े-टुकड़े होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'दल' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प स 'विसट्ट' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'दल' भी होता है। दोनों धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से यों है:-दलति= विसट्टइ अथवा दलइ =वह फटता है, वह टूटता है अथवा वह टुकड़े-टुकड़े होता है। ___ 'लौटना, वापिस आना, अथवा मुड़ना, टेड़ा होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वल' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'वम्फ' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती हैं। वैकल्पिक होने से 'वल' भी होता है। दोनों धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- वलति-वम्पइ अथवा वलइ-वह लौटता है, अथवा वह टेढ़ा होता है ।। ४-१७६।।
भ्रंशः फिड-फिट-फुड-फुट-चुक्क-भल्लाः ॥ ४-१७७॥ भ्रंशेरेते षडादेशा वा भवन्ति। फिडइ। फिट्टइ।। फुडइ। फुटइ। चुक्कइ।भुल्लइ। पक्षे। भंसइ।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 261 अर्थः- 'फुटना, फटना, टुटना अथवा नष्ट होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'भ्रंश' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से छह धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) फिड, (२) फिट्ट, (३) फुड, (४) फुट, (५) चुक्क, और (६) भुल्ल। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में संस्कृत-धातु-रूप 'भ्रंश' का प्राकृत-रूपान्तर 'भंस' भी होता है। उक्त सातों प्रकार के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं :- भ्रश्पते (अथवा भ्रंश्यति)= (१) फिडइ, (२) फिट्टइ, (३) फुडइ, (४) फुटइ, (५) चुक्कइ, (६) भुल्लइ, और (७) भंसइ-वह फूटता है, वह फटता है टूटता है अथवा वह नष्ट-भ्रष्ट होता है।। ४-१७७।।।
नशेर्णिरणास-णिवहावसेह-पड़िसा-सेहावहराः ।। ४–१७८।। नशेरेते षडादेशा वा भवन्ति। णिरणासइ। णिवहइ। अवसेहइ। पडिसा। सेहइ। अवहरइ। पक्षे। नस्सइ।।
अर्थः- 'पलायन करना, भागना' अर्थक संस्कृत धातु 'नश के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से छह धातु-रूपों की आदेशप्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) णिरणास (२) णिवह, (३) अवसेह, (४) पड़िसा, (५) सेह और (६) अवहर। वैकल्पिक पक्ष होने स 'नस्स' भी होता है। यों उक्त एकार्थक सातों धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- नश्यति= (१) णिरणासइ, (२) णिवहइ, (३) अवसेहइ, (४) पडिसाइ, (५) सेहइ, (६) अवहरइ और (७) नस्सइ-वह पलायन करता है अथवा वह भागता है ।। ४-१७८।।
आवात्काशोवासः ।। ४-१७९।। अवात् परस्य काशो वास इत्यादेशो भवति ॥ ओवासइ।।।
अर्थः- 'अव' उपसर्ग के साथ रही हुई संस्कृत-धातु 'काश' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'अव+कारा' का 'ओवास' रूपान्तर होता है। जैसे:- अवकाशति-ओवसइ-वह शोभा है अथवा वह विराजित होता है।। ४-१७९।।
संदिशेरप्पाहः ॥ ४-१८०॥ संदिशतेरप्पाह इत्यादेशौ वा भवति।। अप्पाहइ। संदिसइ।।
अर्थः- 'संदेश देना, खबर पहुँचाना' अर्थक संस्कृत धातु 'सं+दिर के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'अप्पाह' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'संदिस' भी होता है। जैसे:- सदिशति= " अप्पहइ अथवा संदसिइ-वह संदेश देता है अथवा वह खबर पहुँचाता है। ।। ४-१८०।। दृशो निअच्छा पेच्छा वयच्छाव यज्झ-वज्ज-सव्वव-देखो-अक्खावखाव
अक्ख-पुलोअ-पुलअ-निआव आस-पासाः ।।४-१८१॥ दृशेरेते पञ्चदशादेशा भवन्ति।। निअच्छइ। पेच्छइ। अवयच्छइ। अवयज्झइ। वज्जइ। सव्ववइ। देक्खइ ओअक्खइ। अवक्खई। अवअक्खई। पुलोएइ। पुलएइ। निअइ। अवआसइ। पासइ।। निज्झाअइ इति तु निध्यायतेः स्वरादत्यन्ते भविष्यति।।
अर्थः- 'देखना' अर्थक संस्कृत-धातु 'दृश्=पश्य' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में पन्द्रह धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) निअच्छ, (२) पेच्छ, (३) अवयच्छ, (४) अवयज्झ, (५) वज्ज; (६) सव्वव, (७) देख, (८) ओअक्ख, (९) अवक्ख (१०) अवअक्ख, (११) पुलोए, (१२) पुलए, (१३) निअ, (१४) अवआस और (१५) पास।।४-१८१।।
प्राकृत-धातु 'निज्झा' की प्राप्ति तो संस्कृत-धातु 'नि+ध्यै' के आधार से होती है। उक्त रूप से प्राप्त प्राकृततु 'निज्झा' आकारान्त होने से स्वरान्त है और इसलिये सूत्र संख्या ४-२४० से इसमें काल-बोधक प्रत्ययों की संयोजना करने के पूर्व विकल्प से 'अ' विकरण-प्रत्यय की प्राप्ति होती है। इस धातु का काल बोधक प्रत्यय सहित उदाहरण इस प्रकार है:-निध्यायति-निज्झाअइ (अथवा निज्झाइ)=वह देखता है अथवा वह निरीक्षण करता है।
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262 : प्राकृत व्याकरण __'दृश्=पश्य' के स्थान पर आदेश प्राप्त पन्द्रह धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- पश्यति(१) निअच्छइ, (२) पेच्छइ, (३) अवयच्छइ, (४) अवयज्झइ, (५) वज्जइ, (६) सव्ववइ, (७) देक्खइ, (८)
ओअक्खइ, (९) अवक्खइ, (१०) अवअक्खइ, (११) पुलोएइ, (१२) पुलएइ, (१३) निअइ, (१४) अवआसइ, और, (१५) पासइ-वह देखता है ।।४-१८१।।
स्पृशः फास-फंस-फरिस-छिव-छिहालुं खालिहाः।। ४–१८२।। स्पृशतेरेते सप्त आदेशा भवन्ति।। फासइ। फंसइ। फरिसइ। छिवइ। छिहइ। आलुखइ। आलिहइ॥
अर्थः- 'स्पर्श करना, छूना' अर्थक संस्कृत धातु 'स्पर्श' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में सात धातुओं की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि वे क्रम से इस प्रकार है:- (१) फास (२) फंस, (३) फरिस, (४) छिव, (५) छिह (६) आलुख
और (७) आलिह। उक्त सातों एकार्थक धातुओं के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- स्पृशति-(१) फासइ, (२) फसइ, (३) फरिसइ, (४) छिवइ, (५) छिहइ, (६) आलुखइ और (७) आलिहइ-वह छूता है अथवा वह स्पर्श करता है।। ४-१८२।।
प्रविशे रिअः ॥४-१८३॥ प्रविशेः रिअ इत्यादेशौ वा भवति ॥ रिअइ। पविसइ।।
अर्थः- 'प्रवेश करना, पैठना, घुसना, अर्थक संस्कृत धातु 'प्र+विश' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'रिअ' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'पविस' भी होता है। जैसेः- पविशति-रिअइ अथवा पविसइ-वह प्रवेश करता है, वह घुसता है, वह अन्दर जाता है ।। ४-१८३।।
प्रान्मृश-मुषोह॒सः ।। ४-१८४।। प्रात्परयो म॑शति मुष्णात्योर्व्हस इत्यादेशो भवति।। पम्हुसइ। प्रमृशति। प्रमुष्णाति वा॥
अर्थः- 'प्र' उपसर्ग सहित 'स्पर्श करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्र+मृश' के स्थान पर तथा 'प्र' उपसर्ग सहित 'चोरना, चोरी करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्र+मुष्' के स्थान पर यों दोनों धातुओं के स्थान पर प्राकृत-भाषा में केवल एक ही धातु-रूप 'पम्हुस' की आदेश प्राप्ति होती है। द्वि अर्थक प्राकृत-धातु 'पम्हुस' का प्रांसगिक अर्थ संदर्भ के अनुसार कर लिया जाना चाहिये। उदाहरण इस प्रकार है:- प्रमृशति-पम्हुसइ-वह स्पर्श करता है अथवा वह छूता है। प्रमुष्णाति-पम्हुसइ-वह चोरता है अथवा वह चोरी करता है। यों प्रसंगानुसार अर्थ को समझ लेना चाहिये।।४-१८४।।
पिषे र्णिवह-णिरिणास-णिरिणज्ज-रोञ्च-चड्डा ।। ४-१८५।। पिषेरेते पञ्चादेशा भवन्ति वा।। णिवहइ। णिरिणासइ। णिरिणज्जइ। रोञ्चइ। चड्डइ। पक्षे। पीसइ॥
अर्थः- 'पीसना, चूर्ण करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'पिश' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से पांच धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) णिवह, (२) णिरिणास, (३) णिरिणज्ज, (४) रोञ्च और (५) चड्ड। वैकल्पिक पक्ष होने से 'पीस' भी होता है। उक्त छह धातुओं के उदाहरण इस प्रकार हैं :- पिनष्टि = (१) णिवहइ, (२) णिरिणासइ, (३) णिरिणज्जइ, (४) रोञ्चइ, (५) चड्डइ और (६) पीसइ-वह पीसता है अथवा वह चूर्ण करता है। ।। ४-१८५।।।
भषे(क्कः ।। ४–१८६।। भषेर्भुक्क इत्यादेषो वा भवति। भुक्कइ। भसइ।
अर्थः- ' कना, कुत्ते का बोलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'भष्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'भुक्क' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'भस' भी होता है जैसे:- भषति-भुक्कइ अथवा भसइ-वह
कुत्ता भूकता है।। ४-१८६।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 263
कृषेः कडू-साअड्डाचाणञ्छाइञ्छाः ॥ ४-१८७।। कृषेरेते षडादेशा वा भवन्ति।। कड्डइ। साअड्डइ। अञ्चइ। अणच्छइ। अयञ्छइ। आइञ्छइ। पक्षे। करसिइ।
अर्थः- खेती करना अथवा खींचना' अर्थक संस्कृत-धातु 'कृष्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से छह धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) कडू, (२) साअड, (३) अञ्च, (४) अणच्छ, (५) अयञ्छ और (६) आइञ्छ। वैकल्पिक पक्ष होने से 'करिस' भी होता है। उक्त एकार्थक सातों धातुओं के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं :- कर्षति= (१) कडुइ, (२) साअड्डइ, (३) अञ्चइ, (४) अणच्छइ, (५) अयञ्छइ, (६) आइञ्छइ और (७) करिसइ-वह खीचता है अथवा वह खेती करता है।।।४-१८७।।
असावखोडः ॥४-१८८॥ असि विषयस्य कृषेरक्खोड इत्यादेशो भवति।। अक्खोडेइ। असिं कोशात् कर्षतीत्यर्थः॥
अर्थः- 'तलवार को म्यान में से खीचना' इस अर्थक संस्कृत-धातु 'कृष' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'अक्खोड' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- कर्षति अक्खोडेइ-वह तलवार को म्यान में से खींचता है ।। ४-१८८।।
गवेषेर्दूदुल्ल-ढण्ढोल-गमेस-घत्ताः ।। ४-१८९॥ गवेषेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति।। ढुंदुल्लइ। ढंढोलइ। गमेसइ। घत्तइ। गवेसइ।।
अर्थः- 'ढूँढना, खोजना, अन्वेषण करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'गवेष्=गवेषय' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से चार धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) ढुंदुल्ल, (२) ढंढोल, (३) गमेस और, (४) घत्त। वैकल्पिक पक्ष होने से 'गवेस' भी होता है। जैसे:- गवेषयति= (१) ढुंढुल्लइ, (२) ढंढोलइ, (३) गमेसइ, (४) घत्तइ, और (५) गवेसइ-वह ढूंढता है, वह खोजता है अथवा वह अन्वेषण करता है। ।। ४-१८९।।
श्लिषेः सामग्गावयास-परिअन्ताः ।। ४-१९०॥ रिलष्यतेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति।। सामग्गइ। अवयासइ। परिअन्तइ। सिलेसइ।। अर्थः- 'आलिंगन करना, गले लगना' अर्थक संस्कृत-धातु 'श्लिष' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से तीन धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) सामग्ग, (२) अवयास और, (३) परिअन्त। वैकल्पिक पक्ष होने से 'सिलेस' भी होता है। उक्त चारों एकार्थक धातुओं के उदाहरण यों हैं :श्लिष्यति=(१) सामग्गइ, (२) अवयासइ, (३) परिअन्तइ और (४) सिलेसइ= वह आलिंगन करता है अथवा वह गले लगता है। ।। ४-१९०।।
म्रक्षे श्रचोप्पडः ।। ४-१९१॥ म्रक्षेश्चाप्पड इत्यादेशौ वा भवति।। चोप्पडइ। मक्खइ।। अर्थः- 'स्निग्ध करना अथवा घी तेल आदि लगाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'म्रक्ष' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'चोप्पड' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'मक्ख' भी होता है। जैसे:म्रक्षति= चोप्पडइ अथवा मक्खइ-वह स्निग्ध करता है अथवा वह घी-तेल आदि लगाता है।।४-१९१।।
कांक्षेराहहिलंघाहिलंख-वच्च-वम्फ-मह-सि-विलुम्पाः।।४-१९२॥
कांक्षतेरेतेष्टादेशा वा भवन्ति।। आहइ। अहिलंघइ। अहिलंखइ। वच्चइ। वम्फइ। महइ। सिहइ। विलुंपइ। कंखइ॥
अर्थः- 'चाहना, अभिलाषा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'कांक्ष्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से आठ
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264 : प्राकृत व्याकरण धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) आह, (२) अहिलंघ, (३) अहिलंख, (४) वच्च (५) वम्फ, (६) सह (७) सिंह और (८) विलुम्प। वैकल्पिक पक्ष होने से 'कंख' भी होता है। यों उक्त एकार्थक नव धातु-रूपों के क्रम से उदाहरण इस प्रकार हैं:- कांक्षति= (१) आहइ (२) अहिलंघइ, (३) अहिंलखइ (४) वच्चइ, (५) वम्फइ, (६) महइ, (७) सिहइ, (८) विलुम्पइ और (९) कंखइवह इच्छा करता है, वह चाहना करता है अथवा वह अभिलाषा करता है।। ४-१९२।।
प्रतीक्षेः सामय-विहीर-विरमालाः।। ४-१९३।। प्रतीक्षेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति।। सामयइ। विहीरइ। विरमालइ। पडिक्खइ।। अर्थः- 'राह देखना, बाट जोहना' अथवा प्रतीक्षा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्रति+ईक्ष = प्रतीक्ष' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से तीन धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) सामय, (२) विहीर, और (३) विरमाल। वैकल्पिक पक्ष होने से 'पडिक्ख' भी होता है। चारों धातुओं के उदाहरण क्रम में यों हैं:- प्रतीक्षते = (१) सामयइ, (२) विहीरइ, (३) विरमालइ, और (४) पडिक्खइ-वह राह देखता है, वह बाट जोहता है अथवा वह प्रतीक्षा करता है।।४-१९३।।
तक्षे स्तच्छ-चच्छ-रम्प-रम्फाः ॥४-१९४॥ तक्षेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति।। तच्छइ। चच्छइ। रम्पइ। रम्फइ। तक्खइ।।
अर्थः- 'छीलना, काटना' अर्थक संस्कृत-धातु 'तक्ष' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से चार धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) तच्छ, (२) चच्छ, (३) रम्प, (४) रम्फ। वैकल्पिक पक्ष होने से 'तक्ख' भी होता है। पांचो धातुरूपों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- तक्ष्णोति = (१) तच्छइ, (२) चच्छइ, (३) रम्पइ, (४) रम्फइ और (५) तक्खइ =वह छीलता है अथवा वह काटता है।। ४-१९४।।
विकसेः कोआस वोसट्रो ।।४-१९५।। विकसेरेतावादेशो वा भवतः।। कोआसइ। वोसट्टइ। विअसइ॥
अर्थः- “विकसित होना, खिलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वि+कस' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'कोआस और वोसट्ट' ऐसे दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'विअस' भी होता है। तीनों धातुरूपों के उदाहरण यों है:- विकसति = (१) कोआसइ, (२) वोसट्टइ और विअसइ वह विकसित होता है अथव वह खिलता है। ।। ४-१९५।।
हसे गुज।। ४-१९६।। हसेर्गुञ्ज इत्यादेशों वा भवति।। गुञ्जइ।। हसइ।
अर्थः- 'हँसना, हास्य करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'हस्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'गुंज' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'हस' भी होता है। जैसेः- हसति-गुंजइ, अथवा हसइ-वह हँसता है अथवा वह हास्य करता है। ।। ४-१९६।।।
__ संसेर्व्हस-डिम्भौ ॥ ४-१९७।। संसेरेतावादेशो वा भवतः ।। ल्हसइ।। परिल्हसइ सलिल-वसणं। डिम्भइ। संसइ।।
अर्थः- 'खिसकना, सरकना, गिर पड़ना' अर्थक संस्कृत-धातु 'संस' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'ल्हस और डिम्भ' ऐसे दो धातु-रूपों की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'संस' भी होता है। तीनों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- संसते = (१) ल्हसइ, (२) डिम्भइ और (३) संसइ =वह खिसकता है, सरकता है अथवा वह गिर जाता है। ।। ४-१९७।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 265
'परि' उपसर्ग के साथ 'संस्' के स्थान पर आदेश प्राप्त 'ल्हस' धातु का रूप 'परिरल्हस' भी बनता है। इसका उदाहरण इस प्रकार है:- सलिल-वसनं पिरस्रंसते-सलिल-वसणं परिल्हसइ-पानी वाला (अथवा पानी में रहा हुआ) कपड़ा खिसकता है अथवा सरकता है।।४-१९७।।
त्रसेडेर बोज्ज वज्जाः ॥४-१९८॥ सेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति।। डरइ। बोज्जइ। वज्जइ। तसइ। अर्थः- 'डरना, भय खाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'त्रस्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'डर, बोज्ज, और वज्ज' ऐसे तीन धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'तस' भी होता है। उक्त चारों धातु-रूपों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- त्रस्यति= (१) डरइ, (२) बोज्जइ, (३) वज्जइ, और (४) तसइ-वह डरता है अथवा वह भय खाता है।।४-१९८।।
न्यसोणिम–णुमो॥४-१९९।। न्यस्यतेरतावदेशो भवतः।। णिमइ। णुमइ।।
अर्थः- 'स्थापना करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नि+अस् के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'णिम' और णुम ऐसे दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। दोनों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- न्यस्यति-णिमइ तथा णुमइ-वह स्थापना करता है, वह रखता है अथवा वह धरता है।।४-१९९।।
पर्यसः पलोट-पल्लट-पल्हत्थाः ।।४-२००।। पर्यस्येतेरेते त्रय आदेशा भवन्ति।। पलोट्टइ। पल्लट्टइ। पल्हत्थइ।।
अर्थः- 'फेंकना, मार गिराना' अथवा 'पलटना विपरीत होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'परि+अस्=पर्यस्य' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में तीन धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है, जो कि क्रम से इस प्रकार है:- (१) पलोट्ट, (२) पल्लट्ट, और (३) पल्हस्थ। तीनो के उदाहरण यों हैं:- पर्यस्यति=(१) पलोट्टइ (२) पल्लइट्टइ और (३) पल्हत्थइ-वह पलटता है, अथवा वह विपरीत होता है।।४-२००।।
निःश्वसे झङ्खः।।४-२०१।। निःश्वसेझंट इत्यादेशो वा भवति।। झंखइ। नीससइ।
अर्थः- 'निःश्वास लेना' अथवा 'नीसासा डालना' अर्थक संस्कृत-धातु 'निर्+श्वस्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'झंख' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'नीसस' भी होता है। जैसे:निःश्वसिति-झंखइ अथवा नीससइ-वह निःश्वास लेता है अथवा वह नीसासा डालता है।।४-२०१।।
उल्लसे रूस लोसुम्भ-णिल्लस-पुलआअ-गुञ्जोल्लारोआः।।४-२०२।।
उल्लसेरेते षडादेशा वा भवन्ति।। ऊसलइ। ऊसुम्भई। णिल्लसइ। पुलआअइ। गुजोल्लइ। हस्वत्वे तु गुजुल्लइ। आरोअइ। उल्लसइ।।
अर्थः- 'उल्लसित होना, आनंदित होना, खुश होना, तेज होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'उत्+लस्=उल्लस्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से छह धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है:(१) ऊसल, (२) ऊसुम्भ, (३) णिल्लस, (४) पुलआअ, (५) गुञ्जोल्ल और (६) आरो।
सूत्र-संख्या १-८४ से 'गुंजोल्ल' धातु-रूप में रहे हुए दीर्घ स्वर 'ओ' के स्थान पर आगे संयक्त व्यबजन 'ल्ल' होने कारण से 'उ' की प्राप्ति विकल्प से हो जाती है, तदनुसार 'गुंजोल्ल' के स्थान पर 'गुंजुल्ल' रूप की अवस्थिति
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266 : प्राकृत व्याकरण
भी विकल्प से पाई जाती है । यों उपर्युक्त आदेश प्राप्त छह धातुओं के स्थान पर सात धातु रूप समझे जाने चाहिये। वैकल्पिक पक्ष होने से 'उल्लस' भी होता है। आठों ही धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- उल्लसति = (१) ऊसलइ, (२) ऊसुम्भइ, (३) णिल्लसइ, (४) पुलआअइ, (५) गुंजोल्लइ, (६) गुंजुल्लइ, (७) आरोअइ और (८) उल्लसइ=वह उल्लसित होता है, अथवा वह आनंदित होता है, वह तेज- युक्त होता है । । ४ - २०२ ।।
भासेर्भिसः।।४-२०३।।
भासेर्भिस इत्यादेशौ वा भवति ।। भिसइ । भासइ ||
अर्थः- 'प्रकाशमान होना, चमकना' अर्थक संस्कृत धातु 'भास्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'भिस्' धातु- रूप की प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में संस्कृत - धातु 'भास्' का प्राकृत रूपान्तर 'भसं' भी होता है । जैसे:- भासते - भिसइ अथवा भासइ = वह प्रकाशमान होता है अथवा चमकता है ।।४ - २०३ ।।
ग्रसेर्घिसः ।।४-२०४॥
सेर्धिस इत्यादेशो वा भवति ।। घिस । गसइ ||
अर्थः- 'ग्रसना, निगलना, भक्षण करना' अर्थक संस्कृत धातु 'ग्रस' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'घिस' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'गस' भी होता है। जैसे:- ग्रसति-घिसइ अथवा गसइ = वह ग्रसता है, वह निगलता अथवा वह भक्षण करता है ।।४-२०४ ।।
अवाद्गाहेर्वाहः ४-२०५।।
अवात् परस्य गाहेर्वाह इत्यादेशौ वा भवति । ओवाहइ । ओगाह ।
अर्थः- 'अव' उपसर्ग के साथ में रही हुई संस्कृत धातु 'गाह' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'विकल्प से 'वाह' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'गाह' भी होता है।
उपर्युक्त संस्कृत उपसर्ग 'अव' का प्राकृत रूपान्तर दोनों धातु-रूपों में 'ओ' हो जाता है, यह ध्यान में रखा जाना चाहिये। दोनों धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- अवगाहयति = ओवाहइ अथवा ओगाहइ=वह सम्यक प्रकार से ग्रहण करता है, वह अच्छी तरह से हृदयंगम करता है । । ४ - २०५ ।।
आरुहेश्चड-वलग्गौ।।४–२०६।।
आरूहेरेतावादेशौ वा भवतः । चडइ । वलग्गइ। आरूहइ।।
अर्थः- 'आरोहण करना, चढ़ना, अर्थक संस्कृत - धातु 'आ+रुह' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'चड और वलग्ग' ऐसे दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में संस्कृत - धातु 'आरूह' का प्राकृत-रूपान्तर ‘आरुह' भी होता है। जैसे - आरोहति = (१) चडइ, (२) वलग्गइ और (३) आरूहइ = वह आरोहण करता है अथवा वह चढ़ता है ।।४ - २०६ ॥
मुहेर्गुम्म - गुम्मडौ । । ४ -२०७।।
मुहेरेतावादेशौ वा भवतः । गुम्मइ । गुम्मडइ । मुज्झइ ॥
अर्थः- 'मुग्ध होना अथवा मोहित होना' अर्थक संस्कृत धातु 'मुह' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'विकल्प से 'चड और गुम्मड' ऐसे दो धातु-रूपों की आदेशप्राप्ति होती हैं। वैकल्पिक पक्ष होने से 'मुज्झ' भी होता है। तीनों धातु - रूपों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- मुह्यति = (१) गुम्मइ, (२) गुम्मडइ, और (३) मुज्झइ = वह मुग्ध होता है अथवा वह मोहित होता है ।।४-२०७।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 267
दहेरहिऊलालुं खौ।।४-२०८।। दहेरेतावादेशौ वा भवतः।। अहिऊलइ। आलुखई। डहइ।।
अर्थः- 'जलाना, दहन करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'दह' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'अहिऊल और 'आलुंख' ऐसे दो धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'डह' भी होता है। उक्त तीनों धातु-रूपों के उदाहरण कम से इस प्रकार है:- दहति= (१) अहिऊलई (२) आलुखेइ और (३) डहइ-वह जलाता है अथवा वह दहन करता है।।४-२०८।।
ग्रहो वल-गेण्ह-हर-पंग-निरुवाराहि पच्चुआः।।४-२०९॥ ग्रहेरेते षडादेशो वा भवन्ति।। वलइ। गेण्हइ। हरइ। पंगइ। निरुवारह। अहिपच्चुअइ।
अर्थः- 'ग्रहण करना, लेना, अर्थक संस्कृत-धातु 'ग्रह' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में छह धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) वल, (२) गेण्ह, (३) हर, (४) पंग, (५) निरूवार और (६)
अहिपच्चुअ इनके उदाहरण यों हैं:- गृहणाति= (१) वलइ, (२) गण्हइ, (३) हरइ, (४) पंगई, (५) निरूवारइ, और (६) अहिपच्चुअइ-वह ग्रहण करता है अथवा वह लेता है।।४-२०९।।
क्त्वा -तुम्-तव्येषु-घेत्।।४-२१०।। ग्रहः क्त्वा-तुम्-तव्येषु घेत् इत्यादेशौ वा भवति।। क्त्वा। घेत्तूण। घेतूआण। क्वचिन्न भवति। गेण्हि। तुम्। घेत्तूं। तव्य। घेत्तव्व।। ___ अर्थः- 'दो क्रियाओं के पूर्वापर संबंध को बताने वाले 'करके अर्थ वाले संबंधार्थ कृदन्त के प्रत्यय लगाने पर, तथा 'के लिये' अर्थ वाले हेत्वर्थ कृदन्त के प्रत्यय लगाने पर और 'चाहिये' अर्थ वाले 'तव्य' आदि प्रत्यय लगाने पर संस्कृत-धातु 'ग्रह' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'घेत्' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। संस्कृत-प्रत्यय 'क्त्वा' वाले संबंधार्थ कृदन्त का उदाहरण यों है:- गृहीत्वा घेत्तूण और घेत्तुआण आदि-ग्रहण करके। कभी-कभी 'ग्रह' धातु के स्थान पर उक्त संबंधार्थ कृदन्त के प्रत्यय लगाने पर 'घेत्' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति नहीं होती है।
जैसे:- गृहीत्वा=गेण्हिअ ग्रहण करके। ___ हेत्वर्थ कृदन्त के प्रत्यय 'तुम्' सम्बन्धी उदाहरण 'ग्रह घेत' का इस प्रकार है:- ग्रहीतुम्=घेत्तुं ग्रहण करने के लिये। 'चाहिये' अर्थक 'तव्य' प्रत्यय का उदाहरण यों है:- ग्रहीतव्यम्=घेत्तव्वं-ग्रहण करना चाहिये अथवा ग्रहण करने के योग्य है। यों 'ग्रह' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में उक्त अर्थो में आदेश प्राप्त 'घेत्' धातु-रूप की स्थिति को जानना चाहिय।।४-२१०।।
वचो वोत॥४-२१॥ तर्वोत् इत्यादेशो भवति क्त्वा-तुम्-तव्येषु।। वोत्तूण। वोत्तुं। वोत्तव्वं
अर्थः- 'करके अर्थ वाले सम्बन्धार्थ कृदन्त के प्रत्यय लगने पर, तथा 'के लिये' अर्थ वाले हेत्वर्थ कृदन्त के प्रत्यय लगने पर और 'चाहिये' अर्थ वाले 'तव्य' आदि प्रत्यय लगने पर संस्कत-धात 'वद' के स्थान पर प्राकत-१ में 'वोत' धात-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। उक्त तीनों प्रकार के क्रियापदों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:(१) 'क्त्वा' प्रत्यय, का उदाहरणः उक्त्वा -वोत्तूण कह करके अथवा बोल करके (२) 'तुम्' प्रत्यय का उदाहरण:वक्तुम्वोत्तुं बोलने के लिये अथवा कहने के लिये। (३) 'तव्य' प्रत्यय का उदाहरण:- वक्तव्यम्=वोत्तव्वं बोलना चाहिये अथवा कहना चाहिये, बोलने के योग्य है अथवा कहने के योग्य है।।४-२११ ।।
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268 : प्राकृत व्याकरण
रुद-भुज-मुचां तोऽन्त्यस्य।।४-२१२।। एषामन्त्यस्य क्त्वा-तुम्-तव्येषु तो भवति।। रोत्तूण। रोत्तुं। रोत्तव्व।। भोत्तूण। भोत्तुं॥ भोत्तव्व।। मोत्तूण। मोत्तूं मोत्तव्व। ____ अर्थः- 'संस्कृत-धातु 'रूद्-रोना, भुज् खाना और मुच-छोड़ना' के प्राकृत-रूपान्तर में संबंधार्थ कृदन्त, हेत्वर्थ कृदन्त और 'चाहिये' अर्थक 'तव्य' प्रत्यय लगाने पर धातुओं के अन्त में रहे हुए 'द' व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर 'त' व्यञ्जनाक्षर की प्राप्ति होती है। जैसे:- रूद्रू त्, भुज=भुत और मुच=मुत।
उपर्युक्त परिवर्तन के अतिरिक्त यह भी ध्यान में रहे कि सूत्र संख्या ४-२३७ के विधान से उपयुक्त धातुओं में आदि अक्षरों में रहे हुए 'उ' स्वर को गुण-अवस्था प्राप्त होकर 'ओ' स्वर की प्राप्ति हो जाती है। यों प्राकृत-रूपान्तर में 'रुद्' का रोत्' का 'भुज का भोत्' और 'मुच का मोत्' हो जाता है।। इनके उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:(१) रूदित्वा रोत्तूण-रो करके, रूदन करके (२) रोदितुम रोत्तुं रोने के लिये, रूदन करने के लिये और (३) रूदितव्यम्=रोत्तव्वं-रोना चाहिये अथवा रोने के योग्य है। (४) भुक्त्वा -भोत्त्ण-खा करके अथवा भोजन करके, (५) भोक्तुम-भात्तुं खाने के लिये अथवा भोजन करने के लिये (६) भोक्तव्यम्=भोत्तव्वं खाना चाहिये अथवा खाना के योग्य है। (७) मुक्त्वा =मोत्त्ण-छोड़ करके, त्याग करके (८) मोक्तुम्=मोत्तुं-छोड़ने के लिये अथवा त्याग करने के लिये (९) मोक्तव्यम्=मोत्तव्वं छोड़ना चाहिये अथवा छोड़ने के योग्य है।।४-२१२।।
दृशस्तेन ट्ठः॥४-२१३।। द्दषोन्त्यस्य तकारेण सह द्विरुक्तष्ठकारो भवति।। दठूण। दर्छ। दट्ठव्व॥
अर्थः- 'संबंधार्थ कृदन्त, हेत्वर्थ कृदन्त और 'चाहिये' अर्थक 'तव्य' प्रत्ययों की संयोजना होने पर संस्कृत-धातु 'दृश' के प्राकृत-रूपान्तर में 'त' सहित अन्त्यव्यञ्जन के स्थान पर द्वित्व '8' की प्राप्ति होती है। जैसे:धष्ट्वा-दठूण-देख करके, द्रष्टुंदटुं-देखने के लिये और द्रष्टव्यम्=दट्ठव्वं-देखना चाहिये अथवा देखने के योग्य।।४-२१३।।
आ कृगो भूत-भविष्यतोश्च।।४-२१४॥ कृगोन्त्यस्य आ इत्यादेशो भवति।। भूत-भविष्यत् कालयोश्चकारात् क्त्वा-तुम्-तव्येषु च। काही। अकार्षीत्। अकरोत्। चकार वा।। काहिइ। करिष्यति। कर्ता वा।। क्त्वा। काउण। तुम्, काउ॥ तव्या कायव्व।। __ अर्थः- 'संबंधार्थ कृदन्त, हेत्वर्थ कृदन्त और 'चाहिये' अर्थक 'तव्य' प्रत्यय लगने पर तथा भूतकालीन तथा भविष्यत् कालीन प्रत्यय लगने पर संस्कृत-धातु 'कृग'='कृ', के अन्त्यस्वर 'ऋ के स्थान पर 'आ' स्वर की प्राप्ति होती है। उक्त रीति से प्राकृत-भाषा में रूपान्तरित 'का' धातु के पांचों क्रियापदीय रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) कृत्वा-काऊण करके, (२) कर्तुम्-काउं-करने के लिये, कर्तव्यं कायव्वं करना चाहिये अथवा करने के योग्य, अकार्षीत्-(अकरोत् अथवा चकार) काहीअ-उसने किया, करिष्यति (अथवा कर्ता)=काहइ-वह करेगा, (अथवा वह करने वाला है) यों 'करने' अर्थक प्राकृत-धातु 'का' का स्वरूप। जानना चाहिये।।४-२१४ ।।
गमिष्यमासां छः।।४-२१५॥ एषामन्त्यस्य छो भवति।। गच्छइ। इच्छइ। जच्छइ। अच्छइ।।
अर्थः- 'प्राकृत-भाषा में संस्कृत-धातु 'गम्, इष्, यम् और आस्' मे स्थित अन्त्य व्यञ्जन के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। यों 'गम् का गच्छ', 'इष का इच्छ', 'यम् का जच्छ' और 'आस् का अच्छ' हो जाता है। इनके उदाहरण यों हैं:- (१) गच्छतिगच्छइ-वह जाता है, (२) इच्छति-इच्छइ-वह इच्छा करता है, वह चाहना करता है, (३) यच्छति-जच्छइ-वह विराम करता है, वह ठहरता है अथवा वह देता है, आस्ते अच्छइ-वह उपस्थित होता है अथवा वह बैठता है।।४-२१५।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 269
छिदि-भिदो न्दः॥४-२१६।। अनयोरन्त्यस्य नकाराक्रान्तो दकारो भवति।। छिन्दइ। भिन्दइ।।
अर्थः- संस्कृत-धातु 'छिद' और 'भिद्' के प्राकृत-रूपान्तर में अन्त्य 'द' के स्थान पर हलन्त 'नकार' पूर्वक 'द' अर्थात् 'न्द' की प्राप्ति होती है। जैसे:- छिनत्ति-छिन्दइ-वह छेदता है; भिनत्ति भिन्दइ-वह भेदता है अथवा वह काटता है।।४-२१६।।
युध-बुध-गृध-क्रुध-सिध-मुहां ज्झः।।४-२१७।। एषामन्त्यस्य द्विरुक्तो झो भवति।। जुज्झइ। बुज्झइ। गिज्झइ। कुज्झइ। सिज्झइ। मुज्झइ।
अर्थः- 'संस्कृत--धातु 'युध, बुध, गृध्, क्रुध्, सिध् और मुह' के अन्त्य व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'ज्झ' व्यञ्जन की प्राप्ति होती है। इन धातुओं में अन्य वर्णों संबधों परिवर्तन पूर्वोक्त प्रथम पाद तथा द्वितीय पाद में वर्णित संविधान के अनुसार स्वयमेव समझ लेना चाहिये, तदनुसार युद्ध करने अर्थक संस्कृत-धातु 'युध्' का 'जुज्झ' हो जाता है, समझने' अर्थक संस्कृत धातु बुध के स्थान पर बुज्झ बन जाता है। आसक्त होने अर्थक संस्कृत धातु 'गृध्' के स्थान पर 'गिज्झ' की प्राप्ति हो जाती है। क्रोध करने' अर्थक धातु 'क्रुध्='कुज्झ' के रूप में परिवर्तन होता है। 'सिद्ध होना, सफल होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'सिध्' 'सिज्झ मे बदल जाता है। यों 'मोहित होना' अर्थक धातु 'मुह', का 'मुज्झ' बन जाता है। इनके क्रियापदीय उदाहरण इस प्रकार हैं:- (१) युध्यते-जुज्झइ-वह युद्ध करता है, (२) बुध्यते बुज्झइवह समझता है, (३) गृध्यति=गिज्झइ-वह आसक्त होता है, (४) क्रुध्यति-कुज्झइ-वह क्रोध करता है, (५) सिध्यति-सिज्झइ-वह सिद्ध होता है अथवा वह सफल होता है और (६) मुह्यति-मुज्झइ-वह मोहित होता है।।४-२१७।।
रुधो न्ध-म्भौ च॥४-२१८॥ रुधोन्त्यस्य न्ध म्भ इत्येतो चकारात् ज्झश्च भवति।। रून्धइ। रूम्भइ। रूज्झइ।।
अर्थः- 'रोकना अर्थक संस्कृत-धातु 'रूध्' के अन्त्य व्यबजन 'ध' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'न्ध' की, अथवा 'म्भ' की प्राप्ति हो जाती है। मुल-सूत्र में 'चकार' दिया हुआ है, तदनुसार 'ध्' के स्थान पर 'ज्झ' की प्राप्ति भी सूत्र-संख्या ४-२१७ से हो जाती है; यों 'रुध्' के प्राकृत में 'रुन्ध, रुम्भ और रूज्झ' तीन रूप पाये जाते है।। इनके उदाहरण इस प्रकार हैं:- रूणद्धि-(१) रून्धइ, (२) रूम्भइ, (३) रूज्झइ वह रोकता है।।४-२१८।।
सद-पतोर्डः॥४-२१९।। अनयोरन्तस्य डो भवति।। सडइ। पडइ।।
अर्थः- 'गल जाना अथवा सुख जाना, शक्तिहीन हो जाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'सद्' और 'गिरना, भ्रष्ट होना अर्थक संस्कृत-धातु 'पत्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्, त्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'ड, व्यञ्जन की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- सीदति-सडइवह गल जाता है, वह सूख जाता है अथवा वह शक्तिहीन हो जाता है। पतति-पडइ-वह गिरता है अथवा वह भ्रष्ट होता है।।४-२१९।।
क्वथ-वर्धा ढः।।४-२२०॥ अनयोरन्त्यस्य ढो भवति।। कढइ। वड्डइ पवय-कलयलो।। परिअड्डइ लायण्ण।। बहुवचनाद् वृधेः कृतगुणस्य वर्धेश्चाविशेषेण ग्रहणम्॥
अर्थः- 'क्वाथ करना, उबालना, तपाना, गरम करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'क्वथ' के अन्त्य अक्षर 'थ्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'ढ,' अक्षर की आदेश प्राप्ति होती है इसी प्रकार से 'बढ़ना, उन्नति करना' अर्थक
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270 : प्राकृत व्याकरण
संस्कृत-धातु 'वृध-वध् के अन्त्य अक्षर 'ध' के स्थान पर भी प्राकृत भाषा 'ढ' अक्षर की आदेश प्राप्ति होती है। प्राकृत-भाषा में रूपान्तरित 'कढ और वड्ड' की अन्य साधनिकाऐं स्वयमेव साध लेनी चाहिये। रूपान्तरित धातुओं के उदाहरण इस प्रकार हैं:- क्वथ्यते= (अथवा क्वथति) कढइ-वह क्वाथ करता है अथवा वह उबालता है। वर्धते प्लवक-कलकलः वड्डइ पवय-कलयलो उथल पुथल जैसा प्रचंड कोलाहल बढ़ता है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- परिवर्धते लावण्यं-परिअडइ लावण्यं सौन्दर्य बढ़ता है।
प्रश्न:- मूल-सूत्र में 'क्वथ-वर्ध' ऐसे दो शब्दों की स्थिति होते हुए भी 'वर्धा' जैसा बहुवचनात्मक क्रियापदीय रूप क्यों दिया गया है? |
उत्तर:- संस्कृत धातु -'वृर्ध' में स्थित ऋ' का क्रियापदीय रूपों में गुण विकार होकर मूल-धातु 'वर्ध' रूपों में रूपान्तरित हो जाती है और ऐसा होने से उक्त दो धातुओं के अतिरिक्त इस तीसरी धातु की भी प्राप्ति हो जाती है:यों सामान्य रूप से तीनों धातओं को ध्यान में रखकर ही मल-सत्र में बहवचन का प्रयोग किया गया है। यही बहुवचन-ग्रहण का तात्पर्य है। ऐसा स्पष्टीकरण वृत्ति में भी किया गया है।।४-२२०।।
वेष्टः ॥४-२२१॥ वेष्ट वेष्टने इत्यस्य धातोः क ग ट ड इत्यादिना (२-७७) ष लोपेऽन्त्यस्य ढो भवति॥ वेढइ। वेढिज्जइ।।
अर्थः- 'लपेटना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वेष्ट्र में स्थित हलन्त 'षकार' व्यञ्जन का सूत्र-संख्या २-७७ से लोप हो जाने के पश्चात्, शेष रहे हुए धातु-रूप 'वेट' के 'टकार' व्यञ्जन के स्थान पर ढकार व्यञ्जन की प्राप्ति हो जाती है। जैसेः- वेष्टते वेढइ-लपेटता है अथवा वह घेरता है। दूसरा उदाहरण यों है:- वेष्ट्यते वेढिज्जइ-उससे लपेटा जाता है।।४-२२१।।
समोल्लः ।।४- २२२॥ संपूर्वस्य वेष्टतेरन्त्यस्य द्विरुक्त लो भवति।। संवेल्लइ।।
अर्थः- 'सं' उपसर्ग साथ में होने पर 'वेष्ट धातु में 'षकार' का लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए अन्त्य वर्ण 'टकार' के स्थान पर द्वित्व रूप से 'ल्ल' की प्राप्ति प्राकृत-भाषा में आदेश रूप से होती है। जैसे:संवष्टेते संवेल्लइ-वह (अच्छी तरह से) लपेटता है।।४-२२२।।
वोदः॥४-२२३।। उदः परस्य वेष्टतेरन्त्यस्य ल्लो वा भवति।। उव्वेल्लइ। उव्वेढइ॥
अर्थः- 'उत्' उपसर्ग साथ में होने पर 'वेष्ट धातु में स्थित 'षकार' का लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए अन्त्य वर्ण 'टकार' के स्थान पर विकल्प से द्वित्व रूप से 'ल्ल' की प्राप्ति प्राकृत-भाषा में आदेश रूप से होती है। जैसे:- उद्वेष्टते उव्वेढइ अथवा उव्वेल्लइ-वह बंधन मुक्त करता है, अथवा वह पृथक् करता है।।४-२२३।।।
स्विदां ज्जः।।४-२२४|| स्विदि प्रकाराणमन्त्यस्य द्विरुक्तो जो भवति।। सव्वङ्ग-सिज्जिरीए। संपज्जइ। खिज्जइ।। वहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम्॥
अर्थः- 'पसीना होना' अर्थक स।। स्कृत-धातु 'स्विद्' तथा 'सम्पन्न होना, सिद्ध होना, मिलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'संपद्' और 'खेद करना, अफसोस करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'खिद' इत्यादि ऐसी धातु के अन्त्य व्यञ्जन 'द' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में द्वित्व रूप से 'ज्ज' व्यञ्जन की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:सर्वाङ्ग-स्वेदनशीलायाः सव्वङ्ग-सिज्जिरीए सभी अंगों मे पसीने वाली का। संपद्यते-संपज्जइ-वह सम्पन्न होता है अथवा वह मिलता है। खिद्यति-खिज्जइ-वह खेद करता है अथवा वह अफसोस करता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 271 मूल-सूत्र में 'स्विदां' ऐसे बहुवचनान्त पद के प्रयोग करने का कारण यही है इस प्रकार की द्वित्व 'ज्ज' वाली धातुएं प्राकृत-भाषा में अनेक हैं जो कि 'दकारान्त' संस्कृत-धातुओं से संविधानुसार प्राप्त हुई है।।४-२२४।।
व्रज-नृत-मदां च्चः।।४-२२५।। एषामन्त्यस्य द्विरुक्तश्चो भवति।। वच्चइ। नच्चइ। मच्चइ।। अर्थः- 'जाना, गमन करना' अर्थक स।। स्कृत-धातु 'व्रज' 'नाचना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नृत्' और 'गर्व करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मृद्' के अन्त्य हलन्त व्यञजन के स्थान पर प्राकृत-भाषा में द्वित्व रूप से 'च्च' आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- व्रजति-वच्चइ वह जाता है, वह गमन करता है। नृत्यति-नच्चइ-वह नाचता है। माद्यति मच्चइ वह गर्व करता है, अथवा वह थकता है वह प्रमाद करता है।।४-२२५ ।
रूद-नमोर्वः॥४-२२६।। अनयोरन्त्यस्य वो भवति।। रूवइ। रोवइ। नवइ।। अर्थः- 'रोना' अर्थक संस्कृत-धातु 'रूद्' और 'नमना, नमस्कार करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नम्' के अन्त्य
पर प्राकृत-भाषा में 'व' व्यञ्जनाक्षर की प्राप्ति होती है। जैसे:- रोदितिरुवइ अथवा रोवइ-वह रोता है, वह रुदन करता है। नमति नवइ-वह नमता है अथवा वह नमस्कार करता है।।४-२२६ ।।
उद्विजः ४-२२७॥ उद्विजतेरन्त्यस्य वो भवति।। उव्विवइ। उव्वेवो।।
अर्थः- 'उद्वेग करना, खिन्न होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'उद्-विज्' =उद्विज' के अन्त्य व्यञ्जनाक्षर 'ज' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'व' व्यञ्जनाक्षर की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- उद्विजति (अथवा उद्विजते)=उव्विवइ-वह उद्वेग करता है, वह खिन्न होता है। उद्वेगः उव्वेवो वह शोक करता है, वह रंज करता है।।४-२२७।।
खाद-धावो लुक।।४-२२८।। अनयोरन्त्यस्य लुग् भवति।। खाइ। खाअइ। खाहिइ। खाउ। धाइ धाहिइ। धाउ।। बहुलाधिकारात् वर्तमाना भवष्यित्विधि-आदि-एकवचन एवं भवति।। तेनेह न भवति।। खादन्ति। धावन्ति।। क्वचिन्न भवति। धावइ पुरओ।।
अर्थः- 'भोजन करना, खाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'खाद्' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का और 'दौड़ना' अर्थक संस्कृत धातु 'धाव्' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'व' का प्राकृत-भाषा में लोप होकर केवल 'खा' और 'धा' ऐसे धातु रूप की ही प्राप्ति होती है।
सूत्र-संख्या ४-२४० से उपर्युक्त रीति से प्राप्त धातु 'खा' और 'धा' आकारान्त हो जाने से इनमे कालबोधक प्रत्यय लगने के पहिले विकरण रूप से 'अ' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होती है। उदाहरण यों हैं:खादिति-खाइ-अथवा खाअइ-वह खाता है। (२) खादिष्यति खाहिइ-वह खावेगा। (३) खादतु-खाउ-वह खावे। (४) धावति-धाइ और धाअइ-वह दौड़ता है। (५) धाविष्यति धाहिइ-वह दौड़ेगा। (६) धावतु-धाउ-वह दौड़े। _ 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार-सामर्थ्य से 'खाद्' का 'खा' और 'धाव्' का 'धा' वर्तमानकाल, भविष्यत्काल और विधिलिङ आदि लकारों के एकवचन में ही होता है। इस कारण से बहुवचन में 'खा' और 'धा' ऐसा धातु रूप नहीं होकर 'खाद्' तथा 'धाव्' ऐसा धातु रूप ही होगा। जैसे:- खानन्ति खादन्ति-वे खाते है और धावन्ति धावन्ति-वे दौड़ते है।। __ कहीं-कहीं पर संस्कृत-धातु 'धाव्' के स्थान पर 'धा' रूप की प्राप्ति एक वचन में नहीं होकर 'धाव' रूप की प्राप्ति भी देखी जाती है। जैसे:- धावति पुरतः धावइ पुरओ-वह आगे दौड़ता है।।४-२२८।।
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272 : प्राकृत व्याकरण
सृजोरः।।४-२२९॥ सृजो धातोरन्त्यस्य रो भवति।। निसिरइ। वोसिरइ। वोसिरामि।।
अर्थः- संस्कृत-धातु 'सृज' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ज' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'र' व्यञ्जनाक्षर की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) निसृजति=निसिरइ-वह बाहिर निकलता है अथवा वह त्याग करता है। (२) व्युत्सृजति वोसिरइ=वह परित्याग करता है। अथवा वह छोड़ता है। (३) व्युत्सृजामि-वोसिरमि=मैं परित्याग करता हूँ अथवा मैं छोड़ता हूँ।।४-२२९।।
शकादीनां द्वित्वम्।।४-२३०॥ षकादीनामन्त्यस्य द्वित्वं भवति।। षक। सक्कइ।। जिम्। जिम्मइ।। लग। लग्गइ।। मम्। मग्गइ।। कुप। कुप्पइ।। नष्। नस्सइ।। अट्। परिअट्टइ।। लुट्। पलोट्टइ।। तुट। तुट्टइ।। नट्। नट्टइ।। सिव। सिव्वइ।। इत्यादि।।
अर्थः- 'संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'शक्' आदि कुछ एक धातुओं के अन्त्य व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत भाषा में उसी व्यञ्जन को द्वित्व रूप की प्राप्ति होती है। जैसे:-(१) शक्नोति सक्कड-वह समर्थ होता है। (२) जेमति (अथवा जेमते)-जिम्मइ-वह खाता है अथवा वह भक्षण करता है। (३) लगति लग्गइ-संयोग होता है, मिलाप होता है। (४) मगति= भग्गइ-वह गमन करता है, वह चलता है। (५) कुप्यति कुप्पइ-वह क्रोध करता है। (६) नश्यति=नस्सइ-वह नष्ट होता है। (७) परिअट्टति-परिअट्ठइ वह परिभ्रमण करता है, वह चारों ओर घूमता है। (८) प्रलुटतिपलोट्टइ-वह लौटता है। (९) तुटति-तुट्टइ वह झगड़ता है अथवा वह दुःख देता है, (१०) नटति नट्टइ-वह नृत्य करता है वह नाचता है। सीव्यति-सिव्वइ-वह सीता है, वह सीवण करता है। इत्यादि रूप से अन्य उपलब्ध प्राकृत-धातु का स्वरूप भी इसी प्रकार से 'द्वित्व' रूप में समझ लेना चाहिये।।४-२३०।।
स्फुटि-चलेः॥४-२३१॥ अनयोरन्त्यस्य द्वित्वं वा भवति।। फुट्टइ। फुडइ। चल्लइ। चलइ।।
अर्थः- 'विकसित होना, खिलना अथवा टूटना-फूटना अर्थक संस्कृत-धातु 'स्फुट' के अन्त्य व्यत्रजन 'टकार' के स्थान पर और 'चलना, गमन करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'चल' के अन्त्य व्यञ्जन 'लकार' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'विकल्प से इसी व्यञ्जन को 'द्वित्व' रूप की प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) स्फुटति-फुटइ अथवा फुडइ-वह विकसित होता है, वह खिलता है अथवा वह टूटता है-वह फूटता है। (२) चलति-चल्लइ अथवा चलइ=वह चलता है अथवा वह गमन करता है।।४- २३१।।
प्रादेर्मीलेः।।४-२३२।। प्रादेःपरस्य मीलेरन्त्यस्य द्वित्वं वा भवति।। पमिल्लइ। पमीलई। निमिल्लइ। निमीलइ। समिल्लइ। समीलइ। उम्मिल्लइ। उम्मीलइ। प्रादेरिति किम्। मीलइ।
अर्थः- 'मूंदना, बन्द करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मील' के पूर्व में यदि 'प्र, नि, सं, उत्' आदि उपसर्ग जुड़े हुए हो तो 'मील्' धातु के अन्त्य हलन्त व्यञ्जनाक्षर 'लकार' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) प्रमिलति-पमिल्लइ अथवा पमीलइ-वह संकोच करता है, वह सकुचाता है। (२) निमिलति-निमिल्लइ अथवा निमीलइ-वह आँख मूंदता है अथवा वह आँख मींचता है। (३) संमीलति-संमील्लइ अथवा समिलइ-वह सकुचाता है अथवा संकोच करता है। (४) उन्मीलति-उम्मिल्लइ अथवा उम्मिलइ-वह विकसित होता है, वह खुलता है अथवा वह प्रकाशमान होता है। यों अन्य उपसर्गों के साथ में भी 'मिल्ल और मील की स्थिति को समझ लेना चाहिये।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 273 प्रश्न:- 'प्र' आदि उपसर्गों के साथ ही विकल्प से द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होती है, ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि 'मिल्' धातु के पूर्व में 'प्र' आदि उपसर्ग नहीं जुड़े हुए होगें तो इस 'मिल्' धातु में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जनाक्षर ‘लकार' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:- मीलति = मीलइ = वह मूंदता है, वह बन्द करता है । यों एक ही रूप 'मीलइ' ही बनता है :- इसके साथ 'मिल्लइ' रूप नहीं बनेगा । । ४ - २३२ ।।
उवर्णास्यावः ४-२३३॥
धातोरन्त्यस्योवर्णस्य अवादेशो भवति ।। न्हुङ् । निण्हवइ ।। हु । निहवइ । च्युङ् । चवइ ।। रू। रवइ ।। कु । कवइ।। सू।। सवइ । पसवइ ।
अर्थ:- 'संस्कृत धातुओं में स्थित अन्त्य स्वर 'उ' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'अव' की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे :- निन्हुते - निण्हवइ = वह अपलाप करता है, वह निंदा करता है । निन्हुते - निहवइ = वह अपलाप करता है। च्यवति=चवइ-वह मरता है, वह जन्मान्तर में जाता है। रौति = रवइ = वह बोलता है, वह शब्द करता है अथवा वह रोता है। कवति=कवइ-वह शब्द करता है, वह आवाज करता है। सूते-सवइ वह उत्पन्न करता है, वह जन्म देता है। प्रसूते=पसवइ=वह जन्म देता है अथवा उत्पन्न करता है।
उपर्युक्त उदाहरण में ‘नि+न्हु-निण्हव, नि+हु-निहव, च्यु - चव, रू-रव, कु= कव, और सू- सव' धातुओं को देखने से विदित हो जाता है कि इनमें 'उ' अथवा 'ऊ' स्वर के स्थान पर 'अव' अक्षरांश की प्राप्ति हुई है ।।४-२३३ ।। ऋवर्णास्यारः ४-२३४॥
धातोरन्त्यस्य ऋवर्णस्य आरादेशो भवति ।। करइ । धरई । मरइ । वरइ । सरइ । हरइ । तरइ । जरइ ||
अर्थः- ‘संस्कृत-धातुओं में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'अर' अक्षारांश की प्राप्ति होती है | जैसे:- कृ=कर | धृ = धर । मृ-मर । वृ=वर | सृ-सर । ह हर । तृ-तर। और जू-जर । क्रियापदीय उदाहरण इस प्रकार हैं:- (१) करोति=करइ=वह करता है । (२) धरति = धरइ = वह धारण करता है। (३) म्रियते = मरइ = वह मरता है अथवा वह देह त्याग करता है। वृणोति-वरइ अथवा वह पंसद करता है वह सगाइ- संबन्ध करता है अथवा वह सेवा करता है। (४) सरति=सरइ=वह जाता है, वह सरकता है। (५) हरति - हरइ = वह चुराता है, वह ले जाता है (६) तरति = तरइ = वह पार जाता है अथवा वह तैरता है । (७) जरति- जरइ - वह अल्प होता है अथवा वह छोटा होता है।।४-२३४।।
वृषादीनामरिः । । ४ - २३५।।
वृष इत्येवं प्रकाराणां धातूनाम् ऋवर्णस्य अरिः इत्यादेशौ भवति ।। वृष । वरिसइ । । कृष । करिसइ ।। मृष मरिसइ।। हृष् हरिसइ।। येषामरिरादेशौ दृश्यते ते वृषादयः ।।
अर्थः- ‘संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'वृष् आदि ऐसी कुछ धातुऐं हैं, जिनका प्राकृत रूपान्तर होने पर इनमें अवस्थित 'ऋ' स्वर के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'अरि' अक्षरांश की आदेश प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- वृष-वरिस । कृष्=करिस। मृष् मरिस। हृष्-हरिस। इस आदेश - संविधान के अनुसार जहाँ-जहाँ पर अथवा जिस-जिस धातु में 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'अरि' आदेश रूप अक्षरांश दृष्टिगोचर होता हो तो उन-उन धातुओं को 'वृषादय' धातु- श्रेणी में अथवा धातु- गण के रूप में समझना चाहिये । वृत्ति में आये हुए धातुओं के क्रियापदीय उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) वर्षति=वरिसइ=बरसता है, वृष्टि करता है। (२) कर्षति = करिसइ - वह खिंचता है। (३) मर्षति = मरिसइ = वह सहन करता 'अथवा वह क्षमा करता है। (४) हृष्यति - हरिसइ - वह खुश होता है, वह प्रसन्न होता है । । ४ - २३५ ।।
रुषादीनां दीर्घः ।।४–२३६॥
रुष इत्येवं प्रकराणां धातूनां स्वरस्य दीर्घो भवति ।। रूस । तूसइ । सूसइ । दूसइ । पूसइ । सीसइ । इत्यादि ।
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274 : प्राकृत व्याकरण
___ अर्थः- संस्कृत-भाषा में उपलब्ध हस्व स्वर वाली 'रुष्' आदि ऐसी कुछ धातुऐं है, जिनका प्राकृत रूपान्तर होने पर इनमें अवस्थित 'हस्व स्वर' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'दीर्घ स्वर' की आदेश प्राप्ति हो जाती है। जैसे:रुष-रूस। तुष-तूस। शुष्-सूस। दुष-दूस। पुष्=पूस। और शिष्=सीस आदि-आदि। इनके क्रियापदीय उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) रुष्यति-रूसइ-वह क्रोध करता है। (२) तुष्यति-तूसइ-वह खुश होता है। (३) शुष्यति-सूसइ-वह सूखता है। (४) दूष्यति दूसइ-वह दोष देता है अथवा वह दूषण लगाता है। (५) पुष्यति-पूसइ-वह पुष्ट होता है अथवा वह पोषण करता है और (६) शेषति (अथवा शेषयति)-सीसइ-वह शेष रखता है, बचा रखता है। (अथवा वह वध करता है, हिंसा करता है)।।४-२३६।।
युवर्णस्य गुणः।।४-२३७॥ धातोरिवर्णस्य च क्ङित्यपि गुणो भवति । जेऊण। नेऊण। नेइ। नेन्ति। उड्डेइ। उड्डेन्ति मोत्तूण। सोऊण। क्वचिन्न भवति। नीओ। उड्ढीणो॥ ___ अर्थः- संस्कृत-धातुओं के प्राकृत-रूपान्तर में 'कित् अथवा उित्' अर्थात् कृदन्त वचक और कालबोधक प्रत्ययों की संयोजना होने पर भी प्राकृत-भाषा में धातुओं रहे हुए 'इ वर्ण' का और 'उ वर्ण' का गुण हो जाता है। जैसे:जित्वा जेउण-जीत करके। नित्वा नेउण-ले जा करके। नयति नइ-वह ले जाता है। नयन्ति-नेन्ति-वे ले जाते है। 'डी' धातु का उदाहरणः- उत्+डयते-उड्डयते-उड्डेइ वह आकाश में उड़ता है। उत्+डयन्ते-उड्डयन्ते उड्डेन्ति वे अकाश में उड़ जाते है।। इन उदाहरणों में 'जि' का 'जे'; 'नी' का 'ने' तथा 'डी' का 'डे' स्वरूप प्रदर्शित करके यह वतलाया गया है कि इनमें 'इ वर्ण के स्थान पर 'ए' वर्ण की गुण रूप से प्राप्ति हुई है। अब आगे 'उ' वर्ण के स्थान पर 'ओ' वर्ण की गुण रूप से प्राप्ति प्रदर्शित की जाती है। जैसे:- मुक्त्वा -मोत्तूण-छोड़ करके। श्रुत्वा-सोऊण-सुन करके। यों 'इ' वर्ण का गुण 'ए' और 'उ' वर्ण का गुण 'ओ' होता है; इस स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये। कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है जबकि 'इ' वर्ण के स्थान पर 'ए' वर्ण की और 'उ' वर्ण के स्थान पर 'ओ' वर्ण की गुण-प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- नीतः=नीओले जाया हुआ। उड्डीन' =उड्डीणो-उड़ा हुआ। यहां पर 'नी' में स्थित और 'ड्डी' में स्थित 'इ' वर्ण को 'ए' वर्ण' के रूप में गुण-प्राप्ति नहीं हुई है। __ मूल-सूत्र में उल्लिखित 'यु वर्ण के आधार से 'इ' वर्ण तथा 'उ' वर्ण की प्रति ध्वनि समझी जानी चाहिये
और इसी प्रकार से वृत्ति में प्रदर्शित 'इ' वर्ण के आगे 'च वर्ण' के आधार से सूत्र संख्या ४-२३६ की श्रङ्खलानुसार 'उ वर्ण' की संप्राप्ति समझी जानी चाहिये।।४-२३७।।
स्वराणा स्वरः।।४-२३८॥ धातुषु स्वराणां स्थाने स्वरा बहुलं भवन्ति। हवइ। हिवइ।। चिणइ। चुणइ।। सद्दहण।। सद्दहाण।। धावइ। धुवइ।। रूवइ। रोवइ।। क्वचिन्नित्यम्। देइ।। लेइ। विहेइ। नासइ।। आर्षे। बेमि।।
अर्थः- संस्कृत-भाषा की धातुओं में रहे हुए स्वरों के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में अन्य स्वरों की आदेश-प्राप्ति बहुतायत रूप से हुआ करती है। जैसेः- (१) भवति-हवइ और हिवइ-वह होता है, (२) चयति चिणइ और चुणइ-वह इकट्ठा करता है। (३) श्रद्धानं सद्दहणं और सद्दहाणं श्रद्धा अथवा विश्वास। (४) धावति धावइ और धुवइ-वह दौड़ता है। (५) रोदिति-रूवइ और रोवइ वह रोता है, वह रूदन करता है। इन उदाहरणों को देखने से विदित होता है कि संस्कृतीय धातुओं में अवस्थित स्वरों के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विभिन्न स्वरों की आदेश प्राप्ति हुई है। यों अन्य धातुओं के सम्बन्ध में भी स्वयमेव कल्पना कर लेनी चाहिये। ___ कभी-कभी ऐसा भी पाया जाता है कि संस्कृतीय धातुओं में रहे हुए स्वरों के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में नित्य रूप से अन्त्य स्वर की उपलब्धि आदेश रूप से हो जाती है। जैसे:- ददाति (अथवा दत्ते)=देइ-वह देता है, वह सौंपता है। लाति-लेइ-वह लेता है अथवा ग्रहण करता है। बिभेति-विहेइ-वह डरता है, वह भय खाता है।
नश्यति-नासेइ-वह नाश पाता है अथवा वह नष्ट होता है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 275 आर्ष प्राकृत में स्वरों के स्थान पर अन्य स्वरों की प्राप्ति देखी जाती है। जैसे:- ब्रवीमि बेमि-मैं कहता हूँ अथवा प्रतिपादन करता हूँ।।४-२३८||
व्यञ्जनाददन्ते।।४-२३९।। व्यञ्जनान्ताद्धातोरन्ते अकारो भवति।। भमइ। हसइ। कुणइ। चुम्बइ। भणइ। उवसमइ। पावइ। सिञ्चइ। रून्धइ। मुसइ। हरइ। करइ।। शबादीनां च प्रायः प्रयोगो नास्ति।। __ अर्थ:- जिन संस्कृत-धातुओं के अन्त में हलन्त व्यञ्जन रहा हुआ है, ऐसी हलन्त व्यञ्जनान्त धातुओं के प्राकृत-रूपान्तर में अन्त्य हलन्त व्यञ्जन में विकरण प्रत्यय के रूप से 'अकार' स्वर की आगम प्राप्ति हुआ करती है; यों व्यञ्जनान्त धातु प्राकृत-भाषा में अकारान्त धातु बन जाती है तथा तत्पश्चात् इसी प्रकार से बनी हुई अकारान्त प्राकृत-धातुओं में काल-बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जाती है।। जैसे:- भम्=भम। हस्-हस। कुण-कुण और चुम्ब-चुम्ब इत्यादि। क्रियापदीय उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) भ्रमति=भमइ-वह घुमता है, वह परिभ्रमण करता है। (२) हसति हसइ-वह हँसता है। (३) कराति-कणइ वह करता है। (४) चम्बति-चम्बइ वह चम्बन है। (५) भणति भणइ-वह पढ़ता है। वह कहता है। (६) उपशाम्यति-उवसमइ-वह शांत होता है, वह क्रोध रहित होता है। (७) प्राप्नोति-पावइ-वह पाता है। (८) सिञ्चति-सिंचइ-वह सींचता है। (९) रूणद्धि-रून्धइ-वह रोकता है। (१०) मुष्णाति-मुसइ-वह चोरी करता है। (११) हरति हरइ वह हरण करता है। (१२) करोति-करइ-वह करता है। इन व्यञ्जनान्त धातुओं के अन्त में 'अकार' स्वर का आगम हुआ है। यों अन्यत्र व्यञ्जनान्त धातुओं के सम्बन्ध में भी 'अकार' आगम की स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये। 'शप्' आदि अन्य विकरण प्रत्ययों का आगम प्रायः प्राकृत--भाषा की धातुओं में नहीं हुआ करता है।।४-२३९।।
स्वरादनतो वा।।४-२४०।। अकारान्तवर्जितात् स्वरान्ताद्धातोरन्ते अकारागमो वा भवति।। पाइ पाअइ। धाइ धाअइ। जाइ जाअइ। झाइ झाअइ। जम्भाइ जम्भाअइ। उव्वाइ उव्वाअइ। मिलाइ मिलाअइ। विक्केइ विक्केअइ। होउण होउऊण। अनत इति किम् चिइच्छइ। दुगुच्छइ।।
अर्थः- प्राकृत-भाषा में अकारान्त धातुओं को छोड़कर किसी भी अन्य स्वरान्त-धातु के अन्त में काल-बोधक प्रत्यय जोड़ने के पूर्व विकल्प से विकरण प्रत्यय के रूप में 'अकार' स्वर की आगम-रूप से प्राप्ति हुआ करती है। यों अकारान्त धातु के सिवाय अन्य स्वरान्त धातु और काल-बोधक प्रत्यय के बीच में 'अकार' स्वर की प्राप्ति विकल्प रूप से हो जाया करती है। जैसेः- पाति-पाइ अथवा पाअइ-वह रक्षण करता है। धावति-धाइ अथवा धाअइ-वह दौड़ता है। याति जाइ अथवा जाअइ-वह जाता है। ध्यायति-झाइ अथवा झाअइ-वह ध्यान करता है। जृम्भति-जम्भाइ अथवा जम्भाअइ-वह जम्हाई (जॅम्भाई) लेता है। उद्वाति-उव्वाइ अथवा उव्वाअइ-वह सूखता है, वह शुष्क होता है। म्लायति-मिलाइ अथवा मिलाअइ-वह म्लान होता है, वह निस्तेज होता है। विक्रीणाति-विक्केइ अथवा विक्केअइ-वह बेचता है। भूत्वा होऊण अथवा होअऊण होकर के। यों उपर्युक्त उदाहरण में अकारान्त धातु के सिवाय अन्य स्वरान्त धातुओं का प्रयोग करके 'धातु तथा प्रत्यय' के बीच में 'अकार' स्वर का आगम विकल्प से प्रस्तुत किया गया है। इस आगम रूप से प्राप्त 'अकार' स्वर के आ जाने से भी अर्थ में कोई अन्तर नहीं आता है। इस प्रकार की स्थिति को अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये।
प्रश्न:- 'अकारान्त धातुओं में उक्त रीति से प्राप्तव्य आगम-रूप 'अकार' स्वर की प्राप्ति का निषेध क्यों किया गया है?
उत्तर:- प्राकृत-भाषा का रचना-प्रवाह ही ऐसा है कि अकारान्त धातु और काल-बोधक प्रत्ययों के बीच में कभी-कभी आगम रूप से 'अकार' स्वर की प्राप्ति नहीं होती है और इसलिये अकारान्त धातुओं को छोड़ करके
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276 : प्राकृत व्याकरण
अन्य स्वरान्त धातुओं के लिये ही विकल्प से 'अकार' रूप स्वर की आगमन-प्राप्ति का विधान किया गया है। जैसे:चिकित्सति का 'चिइच्छइ' ही प्राकृत - रूपान्तर होगा; न कि 'चिइच्छअइ' होगा। इसी प्रकार से जुगुप्सति का प्राकृत-रूपान्तर ‘दुगुच्छइ' ही होगा, न कि 'दुगुच्छअइ' । दोनो उदाहरणों का हिन्दी अर्थ क्रम से इस प्रकार है:(१) वह दवा करता है और (२) वह घृणा करता है, वह निन्दा करता है ।।४-२४०।। चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो ह्रस्वश्च ।।४-२४१।।
चयादीनां धातुनामन्ते णकारागमो भवति, एषां स्वरस्य च ह्रस्वो भवति ।। चि। चिणइ । जि। जिइ । श्रु । सुणइ। हु। हुणइ। स्तु। थुणइ। लू। लुणइ। पू। पुणइ । धुग् । धुणइ ।। बहुलाधिकारात् स्वचित् विकल्पः । उच्चिणइ । उच्चेइ। जेऊण । जिणिऊण । जयइ । जिइ । । सोऊण । सुणिऊण ।।
अर्थः- ‘(१) चि= (चय)=इकट्ठा करना, (२) जि=(जय्) जीतना, (३) श्रु-सुनना, (४) हु = हवन करना, (५) स्तु=स्तुति करना, (६) लू-लुणना, छेदना, (७) पू= पवित्र करना, और (८) धू= धुनना- कंपना, इन संस्कृत धातुओं के प्राकृत रूपान्तर में काल-बोधक प्रत्यय को जोड़ने के पूर्व 'णकार' व्यञ्जनाक्षर की आगमन-प्राप्ति होती है तथा धातु के अन्त में यदि दीर्घ स्वर रहा हुआ हो तो उसको ह्रस्व स्वर की प्राप्ति हो जाती है तथा धातु के अन्त में यदि दीर्घ स्वर रहा हुआ हो तो उसको ह्रस्व स्वर की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार की स्थिति से इनका प्राकृत रूपान्तर यों हो जाता है :- (१) चिण, (२) जिण, (३) सुण, (४) हुण (५) थुण, (६) लुण, (७) पुण, और (८) धुण, क्रियापदीय उदाहरण क्रम से यों हैं: - (१) चिनोति - चिणइ = वह इकट्ठा करता है, (२) जयति = जिणइ = वह जीतता है, (३) शृणोति = सुणइ = वह सुनता है, (४) जुहोति=हुणइ = वह हवन करता है, (५) स्तौति = थुणइ = वह स्तुति करता है, (६) लुनाति = लुणइ-वह लूणता है, वह काटता है, (७) पुनाति = पुणइ = वह पवित्र करता है और (८) धुनाति = धुणइ - वह धुनता है, वह कँपता है।
'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से कहीं-कहीं पर प्राकृत रूपान्तर में उक्त धातुओं में प्राप्तव्य 'णकार' व्यञ्जनाक्षर की आगम प्राप्ति विकल्प से भी होती है। जैसे:- उच्चिनोति = उच्चिणइ अथवा उच्चेइ-वह (फूल आदि को तोड़कर) इकट्ठा करता है। जित्वा=जेऊण अथवा जिणिऊण जीत करके, विजय प्राप्त करके । श्रुत्वा = सोऊण अथवा सुणिऊण-सुन करके, श्रवण करके। इन उपर्युक्त उदाहरणों में 'णकार' व्यञ्जनाक्षर की आगम-प्राप्ति विकल्प से हुई है। यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये । । ४ - २४१ ।।
नवा कर्म-भावे व्व क्यस्य च लुक् ॥४- २४२।।
पादीनां कर्मणि भावे च वर्तमानामन्ते द्विरुक्तो वकारागमो वा भवति, तत्संनियोगे च क्यस्य लुक् ।। चिव्वइ चिणिज्जइ । जिव्वइ जिणिज्जइ । सुव्वइ । सुणिज्जइ । हुव्वइ हुणिज्जइ । थुव्वइ थुणिज्जइ । लुव्वइ लुणिज्जइ । पुव्वइ पुणिज्जइ । धुव्वइ धुणिज्जइ । । एवं भविष्यति । चिव्विहिइ । इत्यादि ।।
अर्थः- संस्कृत भाषा में कर्मवाच्य तथा भाववाच्य बनाने के लिये धातुओं में आत्मनेपदीय काल- बोधक प्रत्यय जोड़ने के पूर्व जैसे 'यक्' =य' प्रत्यय जोड़ा जाता है। वैसे ही प्राकृत भाषा में भी कर्म - वाच्य तथा भाव - वाच्य बनने के लिये धातुओं में काल बोधक-प्रत्यय जोड़ने के पूर्व 'ईअ' अथवा 'इज्ज' प्रत्यय जोड़े जाते हैं, यह एक सर्व-सामान्य नियम है, परन्तु 'चि, जि, सु, हु, थु, लु, पु, और धु' इन आठ धातुओं में उपर्युक्त कर्मणि-भावे प्रयोग वाचक प्रत्यय 'इअ अथवा इज्ज' के स्थान पर द्विरुक्त अर्थात् द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति भी विकल्प से होती है और तत्पश्चात् वर्तमानकाल, भविष्यकाल आदि के कालबोधक प्रत्यय जोड़े जाते हैं यों 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप होकर इनके स्थान पर केवल 'व्व' प्रत्यय की विकल्प से आदेश प्राप्ति हो जाती है।
वृत्ति में 'च क्यस्य लुक' ऐसे जो शब्द लिखे गये है, इनमे 'च' अव्यय से यह तात्पर्य है बतलाया गया है कि इन धातुओं में 'व्व' प्रत्यय जुड़ने पर सूत्र संख्या ४- २४१ से प्राप्त होने वाले 'णकार' व्यञ्जनाक्षर की आगम-प्राप्ति नहीं होगी । 'क्यस्य' पद यह विधान किया गया है कि 'ईअ और इज्ज' प्रत्ययों का लोप हो जाएगा। ऐसा अर्थबोध 'लुक्' विधान से जानना ।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 277
उपर्युक्त आठों ही धातुओं के उभय-स्थिति वाचक उदाहरण वर्तमान-काल में क्रम से इस प्रकार हैं:चीयते चिव्वइ अथवा चिणिज्जइ-उससे इकट्ठा किया जाता है। (२) जियते जिव्वइ अथवा जिणिज्जइ-उससे जीता जाता है। (३) श्रूयते-सुव्वइ अथवा सुणिज्जइ उससे सुना जाता है। (४) स्तूयते-थुव्वइ अथवा थुणिज्जइ-उससे स्तुति की जाती है। (५) हूयते-हुव्वइ अथवा हुणिज्जइ-उससे हवन किया जाता है (६) लूयते-लुव्वइ अथवा लुणिज्जइ-उससे लूणा जाता है उससे काटा जाता है। (७) पूयते-पुव्वइ अथवा पुणिज्जइ-उससे पवित्र किया जाता है और (८) धूयते धुव्वइ अथवा धुणिज्जइ-उससे धूना जाता है अथवा उससे कंपा जाता है।
इन उदाहरणों को ध्यान-पूर्वक देखने से विदित होता है कि जहां पर 'व्व' प्रत्यय का आगम है, वहां पर 'ण' और 'इज्ज' का लोप है तथा जहां पर 'ण' और 'इज्ज' प्रत्यय है वहां पर 'व्व' प्रत्यय नहीं है।
भवष्यित्-काल में भी ऐसे ही उदाहरण स्वयमेव कल्पित कर लेने चाहिये। विस्तार भय से केवल नमूना रूप एक उदाहरण वृत्ति में दिया गया है, जो इस प्रकार है:- चीयिष्यते-चिव्विहिइ (अथवा चिणीज्जिहिइ)=उससे इकट्ठा किया जायेगा। अन्य ऐसे ही उदाहरणों के संबंध में वृत्ति में 'इत्यादि' शब्द से यह भलामण दी गई है की बाकी के उदाहरणों को स्वयम् ही सोच ले।।४-२४२।।
म्मश्चेः।।४-२४३॥ चगः कर्मणि भावे च अन्ते संयुक्तो मो वा भवति।। तत्सनियोगे क्यस्य च लुक्॥ चिम्मइ। चिव्वइ। चिणिज्जइ। भविष्यति। चिम्मिहिइ। चिविहिइ। चिणिज्जिहिइ।।
अर्थः- 'इकट्ठा करना' अर्थक धातु 'चि' के कर्माणिभावे प्रयोग में काल-बोधक प्रत्यय जोड़ने के पूर्व विकल्प से संयुक्त अर्थात् द्वित्व 'म्म' की आगम-प्राप्ति विकल्प से होती है और ऐसा होने पर कर्मणि भावे-प्रयोग-बोधक प्रत्यय 'व्व' अथवा 'ईअ' अथवा -'इज्ज' का लोप हो जाता है। यों 'चि' धातु में 'म्म, व्व, ईअ, इज्ज' चारों के प्रत्ययों में से भी किसी एक का प्रयोग कर्मणि -भावे अर्थ में किया जा सकता है। परन्तु यह ध्यान में रहे कि 'म्म अथवा व्व' प्रत्यय का सद्भाव होने पर सूत्र-संख्या ४-२४१ से प्राप्त होने वाले ‘णकार' व्यञ्जनाक्षर की प्राप्ति नहीं होगी। ऐसा बोध वृत्ति में दिये गये 'च' अव्वय से जानना उदाहरण इ स प्रकार है:- चीयते-चिम्मइ, चिव्वइ, चिणिज्जइ अथवा चिणिअइ-उससे इकट्ठा किया जाता है। भविष्यत्-काल संबंधी उदाहरण इस प्रकार हैं:चीयिष्यते-चिम्मिहिइ, चिव्विहिइ, चिणिज्जिहिइ, (अथवा चिणीअहिइ)-उससे इकट्ठा किया जायगा। बाकी के उदाहरण खुद ही जान लेना।।४-२४३।।
हन्खनोन्त्यस्य।।४-२४४॥ अनयोः कर्म भावे न्त्यस्य द्विरूत्तो मो वा भवति।। तत्संनियोगे क्यस्य च लुक्॥ हम्मइ, हणिज्जइ। खम्मई, खणिज्जइ। भवष्यिति। हम्मिहिइ। हणिहिइ। खम्मिहिइ। खणिहिइ।। बहुलाधिकारात् हन्तेः कर्तर्यपि॥ हम्मइ। हन्तीत्यर्थः।। क्वचिन्न भवति।। हन्तव्व।। हन्तूण। हओ।।। ____ अर्थः- संस्कृत धातु "हन् और खन्" के प्राकृत-रूपान्तर में कर्मणि-भावे प्रयोग में अन्त्य हलन्त "नकार" व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर द्विरुक्त अर्थात् द्वित्व ‘म्म' की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है और इस प्रकार द्वित्व 'म्म' के आदेश प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे-बोधक प्राकृत-प्रत्यय 'ईअ और इज्ज' का लोप हो जाता है। जहां पर द्वित्व "म्म" की प्राप्ति नहीं होगी। वहां पर कर्मणि-भावे-बोधक प्रत्यय 'ईअ' अथवा 'इज्ज' का सद्भाव रहेगा। जैसे:- हन्यते-हम्मइ अथवा हणिज्जइ-वह मारा जाता है। खन्यते-खम्मइ अथवा खणिज्जइ वह खोदा जाता है। भविष्यत्-कालीन उदाहरण यों हैं:- हनिष्यते हम्मिहिइ-वह मारा जायेगा। हनिष्यति; (हनिष्यते)-हणिहिइ वह मारेगा अथवा वह मारा जायेगा। खनिष्यते-खम्मिहिइ-वह खोदा जावेगा। खनिष्यति; खनिष्यते-खणिहिइ-वह खोदेगा; अथवा वह खोदा जावेगा।
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278 : प्राकृत व्याकरण
"बहुलम्" सूत्र के अधिकार से "हन्' धातु के कर्तरि-प्रयोग में अन्त्य "नकार" व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर द्वित्व "म्म" की प्राप्ति विकल्प से हो जाती है। जैसे:- हन्ति-हम्मइ अथवा (हणइ) वह मारता है। कहीं कहीं पर उक्त रीति से प्रदर्शित "नकार" के स्थान पर द्वित्व "म्म" की प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:- हन्तव्यम् हन्तव्वं मारने योग्य है, अथवा मारा जाना चाहिये हत्वा हन्तूण मार करके। हतः हओ-मारा हुआ; इत्यादि। यों "हन् और खन्" धातुओं के प्राकृत-रूपान्तर में प्रयोग-विशेषों में प्राप्तव्य द्वित्व "म्म" की वैकल्पिक-स्थिति को जानना चाहिये।।४-२४४।।
ब्भो दुह-लिह-वह-रूधामुच्चतः।।४-२४५॥ दुहादीनामन्त्यस्य कर्म भावे-द्विरुक्तो 'भो' वा भवति।। तत् संनियोगे क्यस्य च लुक्। वहे रकारस्य च उकारः।। दुब्मइ दुहिज्जइ। लिब्भइ लिहिज्जइ। बुब्मइ वहिज्जइ। रूब्मइ रून्धिज्जइ। भवविष्यति। दुभिहिइ दुहिहिइ इत्यादि।।
अर्थः- प्राकृत-भाषा में 'दुह, लिह, वह और रुध(सूत्र-संख्या ४-२१८ से ) रून्ध धातुओं के अन्त्य व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर कर्मणि-भावे प्रयोग में द्विरुक्त अथवा द्वित्व भ्म= (सूत्र-संख्या २-९० से) 'ब्भ' की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है और इस प्रकार से आदेश प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे-प्रयोग संबंधी प्राकृत-प्रत्यय 'ईअ और इज्ज का लोप हो जाता है। कर्मणि-भावे अर्थ में यों इन उपरोक्त धातुओं में कभी तो 'ब्भ' होता है और कभी 'ईअ अथवा इज्ज होता है। यह भी ध्यान रहे कि उपरोक्त 'वह' धातु में 'ब्भ' की प्राप्ति होने पर 'व' में स्थित 'अकार' को 'उकार' की प्राप्ति होकर 'वु' स्वरूप का सद्भाव हो जाता है। इन धातुओं के दोनों प्रकार क्रम से इस प्रकार से है:- (१) दुह्यते दुब्भइ अथवा दुहिज्जइ-वह दूहा (दूध निकाला) जाता है। (२) लिह्यते-लिब्भइ अथवा लिहिज्जइ वह चाटा जाता है। (३) उह्यते वुब्भइ अथवा वहिज्जइ-उठाया जाता है अथवा वह ले जाया जाता है। (४) रूध्यते रूब्भइ अथवा रून्धिज्जइ-वह रोका जाता है। इन उदाहरणों को ध्यान पूर्वक देखने से विदित होता है कि 'दुह, लिह, वह और रूध" के अन्त्य अक्षर "ह तथा ध" के स्थान पर कमणि-भावे प्रयोगार्थ में "ब्भ" की आदेश प्राप्ति विकल्प से हुई है। जहां "ब्भ" नहीं है वहां पर "इज्ज' प्रत्यय आ गया है। भविष्यत्काल संबंधी उदाहरण इस प्रकार हैं:- धोक्ष्यते=ढब्भिहिइ अथवा दुहिहिइ-वह दूहा जायेगा। इत्यादि।।४-२४५।।
दहो ज्झः॥४-२४६॥ दहोऽन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो झो वा भवति।। तत्संनियोगे क्यस्य च लुक्। डज्झइ। डहिज्जइ। भविष्यति। डज्झिहिइ। डहिहिइ॥
अर्थः- जलाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'दह' का प्राकृत-रूपान्तर 'डह' होता है; इस प्रकार के प्राप्त 'डह' धातु के कर्माणि- भावे प्रयोग में काल-बोधक प्रत्यय जोड़ने के पूर्व 'डह' धातु के अन्त्य व्यञ्जनाक्षर 'हकार' के स्थान पर द्विरुक्त अथवा द्वित्व 'झ=(सूत्र संख्या २-६०) से 'ज्झ' की आदेशप्राप्ति विकल्प से होती है तथा ऐसा होने पर कर्मणि-भावे अर्थक प्राकृत-प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। यदि 'हकार' के स्थान पर 'ज्झ नहीं किया जायगा तो ऐसी स्थिति में 'ईअ अथवा इज्झ' प्रत्यय का सद्भाव अवश्य रहेगा। जैसे:- दह्यते-डज्झइ अथवा डहिज्ज्ड्=जलाया जाता है। भविष्यत्-कालीन दृष्टान्त यों है:- दहिष्यते-डज्झिहिइ, डहिहिइ-जलाया जायगा।।४-२४६।।
बन्धो न्धः।।४-२४७॥ बन्धेर्धातोरन्त्यस्य न्ध इत्यवयवस्य कर्मभावे ज्झो वा भवति।। तत्सनियोगे क्यस्य च लुक्॥ बज्झइ। बन्धिज्जइ भवष्यिति। बज्झिहिइ। बन्धिहिइ।।
अर्थः- 'बांधना' अर्थक धातु 'बन्ध' के अन्त्य अक्षर अवयव 'न्ध' के स्थान पर कर्मणिभावे-अर्थ में काल-बोधक
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 279 प्रत्यय जुड़ने के पूर्व 'ज्झ' अक्षरावयव की विकल्प से प्राप्ति होती है तथा ऐसा होने पर कर्मणिभावे-अर्थक प्राकृत-प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। यदि 'न्ध' के स्थान पर 'ज्झ नहीं किया जायगा तो ऐसी स्थिति में ईअ अथवा इज्ज' प्रत्यय का सद्भाव अवश्य रहेगा। जैसेः- बध्यते-बज्झइ अथवा बन्धिज्जइ=बांधा जाता है। भविष्यत्-कालीन उदाहरण यों है:- बन्धिष्यते बज्झिहिइ अथवा बन्धिहिइ=बांधा जायगा।
'बन्धिहिइ क्रियापद कर्मणि-भावे-प्रयोग में प्रर्दशित करते हुए भविष्यत्-काल में लिखा गया है और ऐसा करते हुए कर्मणिभावे अर्थ वाले प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का जो लोप किया गया है, इस संबंध मे।। सूत्र-संख्या ३-१६० की वृत्ति का विधान ध्यान में रखना चाहिय। इसमें यह स्पष्ट रूप से बतलाया है कि 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से कहीं-कहीं पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का विकल्प से लोप हो जाता है और ऐसा होने पर कर्मणि-भावे अर्थ की उपस्थिति हो सकती है।
सूत्र-संख्या ४-२४३ से ४-२४९ तक में प्रर्दशित भवष्यित्-कालीन उदाहरणों के संबंध में भी यहीं बात ध्यान में रखनी चाहिये। इनमें विकल्प से 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप करके भी कर्मणि-भावे अर्थ में भविष्यत्-काल प्रदर्शित किया गया है, तदनुसार इसका कारण उक्त सूत्र-संख्या ३-१६० की वृत्ति ही है।।४-२४७।।
समनूपाद्र्धेः ॥४-२४८॥ समनूपेभ्यः परस्य रूधेरन्त्यस्य कर्म-भावे ज्झो वा भवति।। तत्सनियोगे क्यस्य च लुक्। संरुज्झइ। अणुरूज्झइ। उवरुज्झइ। पक्षे। संरून्धिज्जइ।। अणुरून्धिज्जइ। उवरून्धिज्जइ। भविष्यति। संसज्झिहिइ। संरून्धिहिइ। इत्यादि।।
अर्थः- 'सं, अनु, और उप' उपसर्गों में से कोई भी उपसर्ग साथ में हो तो 'रूध-रून्ध' धातु के अन्त्य अवयव 'रूप 'न्ध' के स्थान पर कर्मणि-भावे प्रयोगार्थ में विकल्प से 'ज्झ' अवयव रूप अक्षरों की आदेश प्राप्ति होती है तथा इस प्रकार के 'ज्झ' की आदेश प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे-अर्थ-बोधक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। यों 'न्ध' के स्थान पर 'उझ' की आदेश प्राप्ति नहीं है वहां पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्यय का सद्भाव अवश्यमेव रहेगा। जैसे:- संरूज्झइ अथवा संरूधिज्जइ-रोका जाता है, अटकाया जाता है। अनुरूध्यते अणुरूज्झइ अथवा अणुरून्धिज्जइ अनुरोध किया जाता है, प्रार्थना की जाती है अथवा अधीन हुआ जाता है, सुप्रसन्नता की जाती है। उपरुध्यते-उवरूज्झइ अथवा उवरुन्धिज्जइरोका जाता है, अड़चने डाली जाती है अथवा प्रतिबन्ध किया जाता है। भविष्यत-कालीन दष्टान्त यों है:-संरून्धिष्यते-संरूज्झिहिड अथवा संरून्धिहिड-रोका अटकाया जायेगा। इत्यादि रूप से शेष प्रयोगों को स्वयमेव समझ लेना चाहिये। 'सरून्धिहइ क्रियापद भविष्यत्-कालीन होकर कर्मणि-भावे अर्थ में बतलाया जाने पर भी 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप विधान सूत्र- संख्या ३-१६० की वृत्ति से किया गया है। इसको नहीं भूलना चाहिये।।४-२४७।।
___ गमादीनां द्वित्वम्।।४-२४९।। गमादीनामन्त्यस्य कर्म-भावे द्वित्वं वा भवति।। तत्सनियोगे क्यस्य च लुक्॥ गम्। गम्मइ। गमिज्जइ। हस्। हस्सइ। हसिज्ज्इ।। भण् भण्णइ। भणिज्जइ।। छुप्। छुप्पइ। छुविज्इ।। रूद-नमो वः (४-२२६) इति कृतवकारादेशो रूदिरत्र पठयते। यव् रूव्वइ। रूविज्जइ।। लम्। लब्मइ। लहिज्जइ।। कथ् कत्थइ। कहिज्जइ। भुज्। भुज्जइ भुज्जिइ।। भविष्यति। गम्मिहिइ। गमिहिइ। इत्यादि।।
अर्थः- 'गम्, हस, भण, छुव' आदि कुछ एक प्राकृत धातुओं के कर्मणि-भावे-अर्थक प्रयोगों में इन धातुओं के अन्त्य अक्षर को द्वित्व अक्षर की प्राप्ति विकल्प से हो जाती है। यों द्वित्व-रूपता की प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे-बोधक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। जहां पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का सद्भाव रहेगा वहाँ पर उक्त द्वित्व-रूपों की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। यों दोनों में से या तो द्वित्व-अक्षरत्व रहेगा अथवा 'ईअ
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280 : प्राकृत व्याकरण
या इज्ज' प्रत्यय ही रहेगा। जैसे:- (११) गम्यते= गम्मइ अथवा गमिज्जइ-जाया जाता है। (२) हस्यते-हस्सइ अथवा हसिज्जइ-हँसा जाता है। (३) भण्यते भण्णइ अथवा भणिज्जइ-कहा जाता है, बोला जाता है। (४) छुप्यते छुप्पइ अथवा छुविज्जइ-स्पर्श किया जाता है।
सूत्र-संख्या ४-२२६ में विधान किया गया है कि 'रूद् और नम्' धातुओं के अन्त्य अक्षर को 'वकार' अक्षर की आदेश प्राप्ति हो जाती है। तद्नुसार यहां पर संस्कृति धातु 'रूद्' को 'रूव' रूप प्रदान करके इसका उदाहरण दिया जा रहा है। (५) रूद्यते-रूव्वइ अथवा रूविज्जइ रोया जाता है -रूदन किया जाता है। (६) लभ्यते-लब्भइ अथवा लहिज्जइ-प्राप्त किया जाता है। (७) कथ्यते कत्थइ अथवा कहिज्जइ कहा जाता है। इन 'लभ् और कथ' धातुओं में इसी सूत्र से प्रथम बार तो 'द्वित्व' 'भ्म और थ्य' की प्राप्ति हुई है और पुनः सूत्र-संख्या २-६० से 'ब्भ तथा त्थ' की प्राप्ति होने से उपर्युक्त उदाहरणों में 'लब्भ तथा कत्थ' ऐसा स्वरूप प्रदर्शित किया गया है। (८) भुज्यते भुज्जइ अथवा भुजिज्जइ-खाया जाता है, भोगा जाता है। यहां पर 'भुज्' को 'भुंज्' की प्राप्ति सूत्र-संख्या ४-११० से हुई है, यह ध्यान में रखना चाहिये। ___ भविष्यत्-कालीन दृष्टान्त इस प्रकार से है:- गमिष्यते गम्मिहिइ अथवा गमिहिइ जाया जायगा; इत्यादि रूप से समझ लेना चाहिये।।४-२४९।।
ह-क-तु-ज्रामीरः॥४-२५०।। एषामन्त्यस्य ईर इत्यादेशो वा भवति।। तत्सनियोगे च क्य-लुक्।। हीरइ। हरिज्जइ।। कीरइ। करिज्जइ।। तीरइ। तरिज्जइ। जीरइ। जरिज्जइ।।
अर्थः-प्राकृत-भाषा में (१) हरना, चोरना' अर्थक धातु 'ह' के, (२) 'करना' अर्थक धातु 'कृ' के, (३) 'तरना, पार पाना' अर्थक धातु 'तृ' के, और (४) 'जीर्ण होना' अर्थक धातु 'रॉ' के कर्मणि भावे-प्रयोग में अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'ईर' अक्षरावयव की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है; अर्थात् 'ह का हीर', 'कृ का कीर', 'तृ का तीर' और 'का जीर' हो जाता है और ऐसा होने पर कर्मणि-भावे-प्रयोगाथक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। यों जहाँ पर इन धातुओं में 'ईअ अथवा इज्ज' का सद्भाव है वहाँ पर इन धातुओं के अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'ईर' आदेश की प्राप्ति नहीं होती है। 'ईर' आदेश की प्राप्ति होने पर ही 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप होता है; यह स्थिति वैकल्पिक है उक्त चारों प्रकार की धातुओं के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- हियते-हीरइ अथवा हरिज्जइ-हरण किया जाता है अथवा चुराया जाता है। (२) क्रियते कीरइ अथवा करिज्जइ-किया जाता हैं। (३) तीर्यते-तीरइ अथवा तरिज्जइ-तैरा जाता है, पार पाया जाता है, और (४) जीर्यते-जीरइ अथवा जरिज्जइ-जीर्ण हुआ जाता है। कर्मणि-भावे-प्रयोगार्थ में उक्त चारों धातुओं की यों उभय स्थिति को सम्यक् प्रकार से समझ लेना चाहिये।।४-२५०॥
अर्जेविढप्पः ।।४-२५१।। अन्त्यस्येति निवृत्तम्। अर्जेविढप्प इत्यादेशौ वा भवति।। तत्सनियोगे क्यस्य च लुक् विढप्पइ। पक्षे। विढविज्जइ। अज्जिज्जइ।। ___ अर्थः- उपर्युक्त सूत्र-संख्या ४-२५० तक अनेक धातुओं के अन्त्यक्षर को आदेश प्राप्ति होती रही है; परन्तु अब इस सूत्र से आगे के सूत्रों में धातुओं के स्थान पर वैकल्पिक रूप से अन्य धातुओं की आदेश-प्राप्ति का संविधान किया जाने वाला है, इसलिये अब यहाँ से अर्थात् इस सूत्र से 'अन्त्य' अक्षर की आदेश प्राप्ति का संविधान समाप्त हुआ जानना। ऐसा उल्लेख इसी सूत्र की वृति के आदि शब्द से समझना चाहिये।
'उपार्जन करना, पैदा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'अर्ज' का प्राकृत-रूपान्तर 'अज्ज' होता है; परन्तु इस प्राकृत-धात् 'अज्ज' के स्थान पर कर्मणि-भावे-प्रयोगार्थ में प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'विढप्प अथवा विढव' धातु-रूप की आदेश-प्राप्ति होती है और ऐसी आदेश प्राप्ति विकल्प से होने पर कर्मणि-भावे-बोधक प्रत्यय 'ईअ
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 281 अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है यों इन 'ईअ अथवा ईज्ज' प्रत्ययों का लोप होने पर ही 'विढप्प अथवा विढव' धातु रूप की विकल्प से आदेश प्राप्ति जानना । तत्पश्चात् काल बोधक-प्रत्ययों की इस आदेश-प्र -प्राप्त धातु रूप से संयोजना की जाती है।
जहाँ 'अर्ज' का प्राकृत रूपान्तर 'अज्ज' यदि रहेगा तो कर्मणि भावे - प्रयोगार्थ में इस 'अज्ज' धातु में 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्यय की संयोजना करके तत्पश्चात् ही काल-बोधक-प्रत्ययों की संयोजना की जा सकेगी। जैसे:अर्ण्यते= विढप्पइ (अथवा विढवइ) अथवा अज्जिज्जइ-उपार्जन किया जाता है, पैदा किया जाता है। यों 'विढप्प अथवा विढव' में 'ईअ, इज्ज' प्रत्यय का लोप है, जबकि 'अज्ज' में 'इज्ज' प्रत्यय का सद्भाव है।
'बहुलम् ' सूत्र के अधिकार से कहीं-कही पर 'विढव' आदेश प्राप्त धातु में भी 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्यय का सद्भाव देखा जाता है। जैसा कि वृत्ति में उदाहरण दिया गया है कि:- अर्ज्यते = विढविज्जइ-पैदा किया जाता है, उपार्जन किया जाता है । । ४ - २५१ ।।
ज्ञो णव्व-ज्जौ ॥४-२५२॥
जानातेः कर्म-भावे णव्व णज्ज इत्यादेशौ वा भवतः ।। तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् ।। णव्वइ, गज्जइ । पक्षे । जाणिज्जइ। मुणिज्जइ।। प्रज्ञो र्णः ।। ( २- ४२ ) इति णादेशे तु । णाइज्जइ । । नञपूर्वकस्य । अणाइज्जइ ॥
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अर्थः- 'जानना' अर्थक संस्कृत धातु 'ज्ञा' के प्राकृत रूपान्तर में कर्मणि - भावे प्रयोग में 'ज्ञा' के स्थान पर 'णव्व और णज्ज' ऐसे दो धातु-रूपों की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है । यों आदेश प्राप्ति होने पर कर्मणि - भावे अर्थ-बोधक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है केवल 'णव्व अथवा णज्ज' में काल-बोधक प्रत्यय जोड़ने मात्र से ही कर्मणि भावे - बोधक- अर्थ की उत्पत्ति हो जाती है। दोनों के क्रम से उदाहरण यों हैं:- ज्ञायते = णव्वइ अथवा णज्जइ-जाना जाता है।
सूत्र - संख्या ४- २४२ से प्रारम्भ करके सूत्र - संख्या ४- २५७ तक कुछ एक धातुओं के कर्मणि भावे - अर्थ में नियमों का संविधान किया जा रहा है और इस सिलसिले में 'क्यस्य च लुक् ऐसे शब्दों का भी प्रयोग किया जा रहा है, तद्नुसार 'क्य=य' प्रत्यय संस्कृत भाषा में कर्मणि भावे - अर्थ में धातुओं के मूल स्वरूप ही जोड़ा जाता है और इसी ‘क्य=य' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत भाषा में सूत्र - संख्या ३ - १६० से 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्यय - की प्राकृत-धातु में संयोजना करके कर्मणि भावे - अर्थक प्रयोग का निर्माण किया जाता है; परन्तु कुछ एक धातुओं में इस 'य' प्रत्यय बोधक 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप हो जाने पर भी कर्मणि भावे - अर्थ प्रकट हो जाता है; ऐसा 'क्य च लुक्' शब्दों से समझना चाहिये।
ऊपर 'ज्ञा' धातु के 'णव्व और णज्ज' रूपों की आदेश-प्राप्ति वैकल्पिक बतलाई गई है; अतः पक्षान्तर में 'ज्ञा' धातु के सूत्र - संख्या ४-७ से 'जाण और मुण' प्राकृत धातु रूप होने से इनके कर्मणि भावे - अर्थ में क्रियापदीय रूप यों होगें :- ज्ञायते=जाणिज्जइ अथवा मुणिज्जइ जाना जाता है। 'णव्वइ तथा गज्जइ' में 'इज्ज' प्रत्यय का लोप है, जबकि ‘जाणिज्जइ और मुणिज्जइ' में 'इज्ज' प्रत्यय का सद्भाव है, इस अन्तर को ध्यान में रखना चाहिये । किन्तु इन चारों क्रियापदों का अर्थ तो 'जाना जाता है' ऐसा एक ही है।
सूत्र - संख्या २- ४२ से 'ज्ञा' के स्थान पर 'णा' रूप की भी आदेश प्राप्ति होती है और ऐसा होने पर 'ज्ञायते' का एक प्राकृत-रूपान्तर 'णाइज्जइ' का अर्थ भी 'जाना जाता है' ऐसा ही होगा। यदि 'नहीं' अर्थक प्रत्यय 'न अथवा अ' 'ज्ञा' धातुओं में जुड़ा हुआ होगा तो इसके क्रियापदीय रूप यों होंगे :- न ज्ञायते=अज्ञायते=अणाइज्जइ नहीं जाना जाता है। यों 'ज्ञा' धातु के प्राकृत भाषा में कर्मणि भावे - अर्थ में क्रियापदीय - स्वरूप जानना चाहिये ॥ ४ - २५२ ।।
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282 : प्राकृत व्याकरण
व्याहगे हिप्पः।।४-२५३।। व्याहरतेः कर्म-भावे वाहिप्प इत्यादेशो वा भवति।। तत्संनियोगे क्यस्य च लुक।। वाहिप्पइ। वाहरिज्ज्इ।।
अर्थः- 'बोलना, कहना अथवा आह्वान करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'व्या+ह' का प्राकृत-रूपान्तर 'वाहर' होता है; परन्तु कर्मणि-भावे-प्रयोग में उक्त धातु 'व्याह' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में वाहिप्प' ऐसे धातु रूप की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है तथा ऐसी वैकल्पिक आदेश-प्राप्ति होने पर प्राकृत-भाषा में कर्मणि-भावे-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। यों जहाँ पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप हो जायगा वहाँ पर 'व्याह' के स्थान पर 'वाहिप्प' का प्रयोग होगा और जहां पर 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप नहीं होगा वहां पर 'व्याह' के स्थान पर 'वाहर' का प्रयोग होगा। जैसे:- व्याहियते-वाहिप्पइ अथवा वाहहिरज्ज्इ बोला जाता है, अथवा कहा जाता है अथवा आहान किया जाता है।।४-२५३।।
आरभेराढप्पः ।।४-२५४।। आङ् पूर्वस्य रभेः कर्म-भावे आढप्प इत्यादेशो वा भवति। क्यस्य च लुक्॥ आढप्पइ। पक्षे। आढवीअइ।।
अर्थः- 'आ' उपसर्ग सहित 'रभ्' धातु संस्कृत-भाषा में उपलब्ध है, इसका अर्थ 'आरम्भ करना, शुरू करना' ऐसा होता है। इस 'आरम्भ' धातु का प्राकृत-रूपान्तर 'आढव' होता है; परन्तु कर्मणि-भावे-प्रयोग में संस्कृत-धातु 'आरम्भ' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'आढप्प' ऐसे धातु रूप की आदेश-प्राप्ति विकल्प से हो जाती है; तथा ऐसी वैकल्पिक आदेश-प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का प्राकृत-रूपान्तर में लोप हो जाता है। यों जहाँ पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप हो जायगा वहाँ पर 'आ+रम्' के स्थान पर 'आढप्प' का प्रयोग होगा और जहां पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप नहीं होगा वहां पर 'आरम्भ' के स्थान पर 'आढव' धातु रूप का उपयोग किया जाएगा। जैसे:- आरभ्यते=आढप्पइ अथवा आढवीअइ =आरंभ किया जाता है, शुरू किया जाता है।।४-२५४॥
स्निह-सिचोः सिप्पः।।४-२५५।। अनयोः कर्म-भावे सिप्प इत्यादेशो भवति, क्यस्य च लुक।। सिप्पइ। स्निह्यते। सिच्यते वा।।
अर्थः- 'प्रीति करना, स्नेह करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'स्निह' के और 'सींचना, छिटकना' अर्थक संस्कृत-धातु 'सिच्' के स्थान पर कर्मणि-भावे प्रयोगार्थ में प्राकृत-रूपान्तर में 'सिप्प' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है; और ऐसी आदेशप्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे-प्रयोग वाचक प्राकृत-प्रत्यय "ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। उदाहरण यों है:- (१) स्निह्यते सिप्पइ-प्रीति की जाती है, स्नेह किया जाता है। (२) सिच्यते-सिप्पइ-सींचा जाता है, छिटका जाता है। यों " स्निह" और "सिच्" दोनों धातुओं के स्थान पर "सिप्प" इस एक ही धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है परन्तु दोनों अर्थ प्रसंगानुसार समझ लिये जाते है।।४-२५५।।
ग्रहेर्पप्पः ।।४-२५६॥ ग्रहेः कर्मभावे घेप्प इत्यादेशो वा भवति, क्यस्य च लुक्॥ घेप्पइ। गिण्हिज्जइ।।
अर्थः- "ग्रहण करना, लेना' अर्थक संस्कृत-धातु "ग्रह" का प्राकृत-रूपान्तर "गिण्ह" होता है; परन्तु कर्मणि-भावे-प्रयोग में इस "ग्रह" धातु के स्थान पर प्राकृत-भाषा में "घेप्प" ऐसे धातु रूप की आदेश-प्राप्ति विकल्प से होती है; तथा ऐसी वैकल्पिक आदेश-प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे-अर्थबोधक प्रत्यय "ईअ अथवा इज्ज'' का प्राकृत रूपान्तर में लोप हो जाता है; यों जहाँ पर "ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप हो जाएगा वहां पर 'ग्रह' के स्थान पर 'घेप्प' का प्रयोग होगा और जहां पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप नहीं होगा वहाँ पर "ग्रह" के स्थान पर "गिण्ह" धातु-रूप का उपयोग किया जायेगा। जैसे:- ग्रह्यते-घेप्पइ अथवा गिण्हिज्जइ (अथवा गिण्हीअइ)-ग्रहण किया जाता है, लिया जाता है।।४-२५६।।
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स्पृशे रिछप्पः।।४-२५७।।
स्पृशतेः कर्म-भावे छिप्पादेशौ वा भवति, क्य लुक् च ।। छिप्पइ । छिविज्जइ ॥
अर्थः- “छूना, स्पर्श करना" अर्थक संस्कृत - धातु 'स्पर्श' का प्राकृत - रूपान्तर "छिव" होता है; परन्तु कर्मणि-भावे-प्रयोग में इस "स्पृश्" धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में "छिप्प" ऐसे धातु रूप की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है; तथा ऐसी वैकल्पिक आदेश प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे अर्थ-बोधक प्रत्यय "अ अथवा इज्ज" का प्राकृत रूपान्तर में लोप हो जाता है; यों जहाँ पर "ईअ अथवा इज्ज" प्रत्ययों का लोप हो जायगा वहां पर "स्पृर्श" के स्थान पर 'छिप्प' धातु रूप का प्रयोग होगा और जहाँ पर 'ईअ अथवा ईज्ज' प्रत्ययों का लोप नहीं होगा वहां पर ‘स्पृश' के स्थान पर 'छिव' धातु रूप का उपयोग किया जायगा । दोनों प्रकार के दृष्टान्त यों हैं:स्पृश्यते=छिप्पइ अथवा छिविज्जइ (अथवा ) छिवीअइ- छूआ जाता है, स्पर्श किया जाता है।।४-२५७।।
क्तेनाप्फुण्णादयः।।४-२५८।।
अप्फुण्णादयः शब्दा आक्रमि-प्रभृतीनां धातुनाम् स्थाने क्तेन सह वा निपात्यन्ते ।। अप्फुण्णो । आक्रान्तः ॥ अक्कोस।। उत्कृष्टम्।। फुड || स्पष्टम् ।। बोलीणो । अतिक्रांतः । वोसट्टीः । विकसितः । निसुट्टो । निपातितः ।। लुग्गो । रूग्णः।। ल्हिक्को। नष्टः।। पम्हुट्टो । प्रमृष्टः । प्रमुषितो वा ।। विढत्त ।। अर्जितम्।। छित्त ।। स्पृष्टम् ।। निमिअ।। स्थापितम्।। चक्खिअ।। आस्वादितम्। लुअ ।। लुनम्॥ जढ। त्यक्तम्।। झोसिअ । क्षिप्तम्। निच्छुढ॥ उद्वृत्तम्॥ पल्हर्थं पलोट्टं च।। पर्यस्तम् । हीसमण ।। हेषितम् । इत्यादि।।
अर्थः- संस्कृत-भाषा में धातुओं के अन्त में 'तकार' - 'क्त' प्रत्यय के जोड़ने से कर्मणि भूत कृदन्त के रूप बन जाते हैं और तत्पश्चात् ये बने बनाये शब्द ' विशेषण' जैसी स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं तथा संज्ञा - शब्दों के समान ही इनके रूप भी विभिन्न विभक्तियों में तथा वचनों में चलाये जा सकते है। जैसे- गम् से गत = गया हुआ । मन् से मत-माना हुआ । इत्यादि ।
प्राकृत भाषा में भी इसी तरह से कर्मणि - भूत- कृदन्त के अर्थ में संस्कृत भाषा समान ही धातुओं में 'क्त=त' के स्थान पर 'अ' प्रत्यय की संयोजना की जाती है। जैसे:- गतः = = गओ = गया हुआ । मतः =मओ=माना हुआ।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 283
अनेक धातुओं में 'त=अ' प्रत्यय जोड़ने के पूर्व इन धातुओं के अन्त्य स्वर 'अकार' को 'इकार' की प्राप्ति हो जाती है; जैसे:- पठितम् = पढिअं पढा हुआ । श्रुतम् - सुणिअं सुना हुआ । यों रूप बन जाने पर इनके अन्य रूप भी विभिन्न विभक्तियों में बनाये जा सकते है ।।
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उपर्युक्त संविधान का प्रयोग किये बिना भी प्राकृत भाषा में अनेक शब्द ऐसे हैं, जो कि बिना प्रत्ययों के ही कर्मणि- भूत- कृदन्त के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। ऐसे शब्दों की यह स्थिति वैकल्पिक होती है और ये 'निपात से सिद्ध हुए' माने जाते है ।। विभिन्न विभक्तियों में तथा दोनों वचनों में इन शब्दों के रूपे चलाये जा सकते है ।। ऐसे शब्द 'विशेषण की कोटि' को प्राप्त कर लेते हैं, इसलिये ये तीनों लिंगों में प्रयुक्त किये जा सकते है ।। इस प्रकार से ये शब्द 'आर्ष' जैसे ही है ।
'आक्रम्' आदि संस्कृत धातुओं के स्थान पर 'क्त=त=अ' प्रत्यय सहित प्राकृत में विकल्प से जिन धातुओं ने आदेश-स्थिति को निपात रूप से ग्रहण किया है, उन धातुओं में से कुछ एक धातुओं के रूप (बने बनाये रूप में READY MADE रूप में) नीचे दिये जा रहे है ।। यही इस सूत्र का तात्पर्य है ।
(१) आक्रान्तः-अप्फुण्णो दबाया हुआ । (२) उत्कृष्टम् = उक्कोसं उत्कृष्ट, अधिक से अधिक । (३) स्पष्टम्=फुडं=स्पष्ट अथवा व्यक्त, साफ। (४) अतिक्रान्तः = वोलोणो-व्यतीत हुआ, बीता हुआ। (५) विकसितः=वोसट्टो=विकास पाया हुआ, खिला हुआ। (६) निपातितः- निसुट्टो - गिराया हुआ । (७) रूग्ण: =लुग्गो=भाग्न,
=
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284 : प्राकृत व्याकरण
भांगा हुआ अथवा रोगी, बीमार। (८) नष्टः ल्हिक्को नाश पाया हुआ। (९) प्रमृष्टः पम्हटो-चोरी किया हुआ। (१०) प्रमुषितः पम्हुदो-चुराया हुआ। (११) अर्जितम् विढत्तं इकट्रा किया हुआ अथवा कमाया हुआ। पैदा किया हुआ (१२) स्पृष्टम् छित्तं-छुआ हुआ, स्पर्श किया हुआ। (१३) स्थापितम् निमिअं-स्थापित किया हुआ, रखा हुआ। (१४) आस्वादितम् चक्खिों -स्वाद लिया हुआ, चखा हुआ। (१५) लूनम् लुअं लुणा हुआ, काटा हुआ। (१६) त्यक्तम् जढं छोड़ा हुआ, त्यागा हुआ। (१७) क्षिप्तम्-झोसिअं=फेंका हुआ, छोड़ा हुआ, सेवित, आराधित।। (१८) उद्वृत्तम्-निच्छूढं-पीछे मुड़ा हुआ, निकला हुआ। (१९) पर्यस्तम्=पल्हत्थं और पलोट्टं-दूर रखा हुआ, फेंका हुआ, (२०) हेषितम्-होसमणं खंखारा हुआ, घोड़े के शब्द जैसा शब्द किया हुआ। ___कर्मणि-भूत-कृदन्त में यों कुछ एक धातुओं की अनियमित स्थिति ‘आदेश-रूप' सं जाननी चाहिये। यह स्थिति वैकल्पिक है। इस स्थिति में कर्मणि-भूत-कृदन्त-बोधक-प्रत्यय 'त-अ' धातुओं में पहिले से ही (सहजात रूप से) जुड़ा हुआ है। अतएवं 'त-अ' प्रत्यय को पुनः जोड़ने की आवश्यकता नहीं है। यों ये विशेषणात्मक हैं, इसलिये संज्ञाओं के समान ही इन के रूप भी विभिन्न विभक्तियों में तथा वचनों में बनाये जा सकते है।।४-२५८।।
धातवोर्थान्तरेपि।।४-२५९।। उक्तादर्थादर्थान्तरेपि धातवो वर्तन्ते।। बलिः प्राणने पडितः खादनेपि वतंते। वलइ। खादति, प्राणनं करोति वा।। एवं कलिः संख्यानेपि। कलइ। जानाति, संख्यानं करोति वा।। रिगि गतौ प्रवेशेपि।। रिगइ। प्रविशति गच्छति वा।। कांक्षतेर्वम्फ आदेशः प्राकृते। वम्फइ। अस्यार्थः। इच्छति खादति वा।। फक्कते थक्क आदेशः। थक्कइ। नीचां गतिं करोति, विलम्बयति वा।। विलप्युपालम्भ्यो झन्ख आदेशः। झंखइ। विलपति, उपालभते भाषते वा।। एवं पडिवालेइ। प्रतीक्षते रक्षति वा।। केचित् कश्चिदुपसर्गनित्यम्। पहरइ। युध्यते।। संहरइ। संवृणोति। अणुहरइ। सदृशी भवति।। नीहरइ। पुरीषोत्सर्गे करोति।। विहरइ। क्रीड़ति।। आहरइ। खादति॥ पडिहरइ। पुनः पूरयति।। परिहरइ। त्यजति॥ उवहरइ। पूजयति॥ वाहरइ। आह्वयति॥ पवसइ। देशान्तरं गच्छति॥ उच्चुपइ चटति।। उल्लुहइ। निःसरति॥ ___ अर्थः- प्राकृत-भाषा में कुछ एक धातुएं ऐसी हैं, जो कि निश्चित अर्थ वाली होती हुई भी कभी-कभी अन्य अर्थ में भी प्रयुक्त की जाती हुई देखी जाती है। यों ऐसी धातुऐं दो अर्थ वाली हो जाती है; एक तो निश्चित अर्थ वाली और दूसरा वैकल्पिक अर्थ वाली। इन धातुओं को द्वि-अर्थक धातुओं की कोटि में गिनना चाहिये। कुछ एक उदाहरण यों है:- (१) बलइ-प्राणनं करोति अथवा खादति-वह प्राण धारण करता है अथवा वह खाता है। यहाँ पर 'बल' धातु प्राण धारण करने के अर्थ में निश्चितार्थ वाली होती हुई भी 'खाने' के अर्थ में भी प्रयुक्त हुई है। (२) कलइ-संख्यानं करोति अथवा जानाति-वह आवाज करता है अथवा वह जानता है। यहाँ पर 'कल' धातु आवाज करना अथवा गणना करना अर्थ में सुनिश्चित होती हुई भी जानना अर्थ को भी प्रकट कर रही है। (३) रिगइ-प्रविशति अथवा गच्छति-वह प्रवेश करता है अथवा वह जाता है। यहाँ पर 'रिंग' धातु प्रवेश करने के अर्थ में विख्यात होती हुई भी जाना अर्थ को भी प्रदर्शित कर रही है (४) संस्कृत-धातु 'कां' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'वम्फ' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है।। यों ‘वम्फ' धातु के दो अर्थ पाये जाते हैं:- एक तो 'इच्छा करना' और दूसरा खाना-भोजन करना। जैसे:- वम्फइ-इच्छति अथवा खादति-वह इच्छा करता है अथवा वह खाता है (५) संस्कृत-धातु 'फक्क' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'थक्क' धातु-रूप की आदेश-प्राप्ति होकर इसके भी दो अर्थ देखे जाते हैं (अ) नीचे जाना और (ब) विलम्ब करना. ढील करना। इसका क्रियापदीय उदाहरण इस प्रकार है:- थक्कइ-नीचां गतिं करोति अथवा विलम्बयति वह नीचे जाता है अथवा वह विलम्ब करता है वह ढील करता है (६) प्राकृत-धातु 'झंख' के तीन अर्थ देखे जाते हैं:- (अ) विलाप करना, (ब) उलाहना देना, और (स) कहना-बोलना। जैसे:- झंखइ=(अ) विलपति, (ब) उपालभते, (स) भाषते वह विलाप करता है, वह उलाहना देता है अथवा वह बोलता है कहता है। यों संस्कृत-धातु 'विलप और उपालम्' के स्थान पर
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 285 प्राकृत-भाषा में 'झंख' धातु-रूप की आदेश-प्राप्ति विकल्प से होती है। (७) 'पडिवाल' धातु का अर्थ 'प्रतीक्षा करना' है, परन्तु फिर भी 'रक्षा करना' अर्थ में भी प्रयुक्त होती है। जैसे:- पडिवालेइ-प्रतीक्षते अथवा रक्षति-वह प्रतीक्षा करता है अथवा वह रक्षा करता है। यों प्राकृत-भाषा में ऐसी अनेक धातुऐं हैं जो कि वैकल्पिक रूप से दो-दो अर्थों को धारण करती है।।
प्राकृत-भाषा में ऐसी भी कुछ धातुऐं हैं जो उपसर्ग-युक्त होने पर अपने निश्चित अर्थ से भिन्न अर्थ को ही प्रकट करती है और ऐसी स्थिति वैकल्पिक नहीं होकर 'नित्य स्वरूप वाली है। इस संबंध में कुछ एक धातुओं के उदाहरण यों है:- (१) पइरइ=युध्यते-वह युद्ध करता है। यहाँ पर 'हर' धातु में 'प' उपसर्ग जुड़ा हुआ है
और निश्चित अर्थ 'युद्ध करना' प्रकट करता है। (२) संहरइ-संवृणोति-वह संवरण करता है वह अच्छा चुनाव करता है। यहां पर 'हर' धातु में 'सं' उपसर्ग है और इससे अर्थ में परिवर्तन आ गया है। अणुहरइ-सदृशी भवति-वह उसके समान होता है। यहाँ पर 'हर' धातु में 'अणु' उपसर्ग है, जिससे अर्थ-भिन्नता उत्पन्न हो गई है। (४) नीहरइ-पुरीषोत्सर्ग करोति वह मल त्याग करता है वह टट्टी फिरता है। यहाँ पर भी 'हर' धातु में 'नी' उपसर्ग की प्राप्ति होने से अर्थान्तर दृष्टि गोचर हो रहा है। (५) विहरइ-क्रीडति-वह खेलता है-वह क्रीड़ा करता है। यहाँ पर 'हर' धातु में 'वि' उपसर्ग की संयोजना होने से 'विचरना' अर्थ के स्थान पर 'खेलना' अर्थ उत्पन्न हुआ है। आहरइ-खादति वह खाता है अथवा वह भोजन करता है। यहाँ पर आ उपसर्ग होने से 'हरण करना' अथ नहा हाकर 'भाजन करना' अथे उद्भूत हुआ है। (७) पडिहरडू पुनः पूरयति-फिर से भरता है. फिर से परिपूर्ण करता है। यहाँ पर 'पडि' उपसर्ग होने से 'खींचना' अर्थ नहीं निकल कर 'परिपर्ण करना' अर्थ निकल रहा है। (८) परिहरइ-त्यजति-वह छोड़ता है वह त्याग करता है। यहाँ पर 'हरण करना-छीनना' अर्थ के स्थान पर 'त्याग करना' अर्थ बतलाया गया है। (९) उवहरइ-पूजयति वह पूजता है वह आदर सम्मान करता है। यहां पर 'अर्पण करना' अर्थ नहीं किया जा कर 'पूजा करना' अर्थ किया गया है। (१०) वाहरइ-आहवयति-वह बुलाता है अथवा वह पुकारता है। यहाँ 'वा' उपसर्ग को जोड़ करके 'हर' धातु के 'हरण करना' अर्थ को हटा दिया गया है। (११) पवसइदेशान्तरं गच्छति-वह अन्य देश को-परदेश को जाता है। यहाँ पर 'प' उपसर्ग आने से 'वस' धातु के रहना अर्थ का निषेध कर दिया गया है। (१२) उच्चुपइ-चटति-वह चढ़ता है, वह आरूढ़ होता है, वह ऊपर बैठता है। यहाँ पर भी 'उत्-उच' उपसर्ग आने से अर्थ-भिन्नता पैदा ही गई है। (१३) उल्लुहइ-निःसरति-वह निकलता है। यहाँ पर 'उत्=उल्' उपसर्ग का सद्भाव होने से 'लुह' धातु के 'पोंछना साफ करना' अर्थ के स्थान पर 'निकलना' अर्थ बतलाया है। यों उपसर्गो के साथ में धातुओं के अर्थ में बड़ा अन्तर पड़ जाता है तथा अर्थान्तर की प्राप्ति हो जाती है। यही तात्पर्य व्याकरणकार का यहाँ पर सन्निहित है। तदनुसार इस संविधान को सदा ध्यान में रखना चाहिये।।४-५९।।
इति प्राकत-भाषा-व्याकरण-विचार-समाप्त
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286 : प्राकृत व्याकरण
अथ शौरसेनी-भाषा-व्याकरण-प्रारम्भ
तो दोना दौ शौरसेन्यामयुक्तस्य॥४-२६०।। शौरसेन्यां भाषायामनादावपदादौ वर्तमानस्य तकारस्य दकारो भवति, न चेदसौ वर्णान्तरेण संयुक्त भवति।। तदो पूरिद-पदिबेण मारूदिणा मन्तिदो।। एतस्मात्। एदाहि। एदाओ। अनादाविति किम्। तधा करेध जधा तस्स राइणो अणुकम्पणीआ भोमि।। अयुक्तस्येति किम्। मत्तो। अय्य उत्तो असंभाकिद, सक्कार। हला सउन्तले॥
अर्थः- अब इस सूत्र-संख्या ४-२६० से प्रारम्भ करके सूत्र-संख्या ४-२८६ तक अर्थात् सत्तावीस सूत्रों मे। शौरसेनी-भाषा में रूपान्तर करने का संविधान प्रदर्शित किया जायगा। शौरसेनी भाषा में और प्राकृत-भाषा में सामान्यतः एकरूपता है, जहाँ-जहाँ अन्तर है, उसी अन्तर को इन सत्तावीस-सूत्रों में प्रदिर्शित कर दिया जावेगा। शेष सभी संविधान तथा रूपान्तर प्राकृत- भाषा के समान ही जानना चाहिये।
शौरसेनी-भाषा एक प्रकार से प्राकृत ही है अथवा प्राकृत भाषा का अंग ही है। इन दोनों में सब प्रकार से समानता होने पर भी जो अति-अल्प अन्तर है, वह इन सत्तावीस सूत्रों में प्रदर्शित किया जा रहा है। संस्कृत-नाटकों में प्राकृत गद्यांश औरसेनी-भाषा में ही मुख्यतः लिखा गया है। प्राचीन काल में यह भाषा मुख्यतः मथुरा-प्रदेश के आस-पास में ही बोली जाती थी।
संस्कृत भाषा में रहे हुए 'तकार' व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'द' व्यञ्जनाक्षर की प्राप्ति उन समय में हो जाती है जब कि- (१) 'तकार' व्यञ्जनाक्षर वाक्य के आदि में नहीं रहा हुआ हो, (२) जबकि वह 'तकार' किसी पद में आदि में भी न हो और (३) जबकि वह 'तकार' किसी अन्य हलन्त व्यञ्जनाक्षर के साथ संयुक्त रूप से-(मिले हुए रूप से-संधि-रूप से) भी नहीं रहा हुआ हो, तो उसे 'तकार' व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर 'दकार' की प्राप्ति हो जायेगी। उदाहरण इस प्रकार है:- ततः पूरित-प्रतिज्ञा ने मारूतिना मन्त्रितः तदो पूरिद-पदिश्वेण मारूदिणा मन्तिदो-इसके पश्चात् पूर्ण की हुई प्रतिज्ञा वाले हनुमान से गुप्त मंत्रणा की गई। इस उदाहरण में 'ततः' में 'त-का 'द' किया गया है। इसी तरह से 'परित, प्रतिज्ञेन, मारूतिनामन्त्रितः' शब्दों में भी रहे हए 'तकार' व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर 'दकार' व्यञ्जनाक्षर की प्राप्ति हो गई है। (२) एतस्मात् एदाहि और एदाओ इससे। इस उदाहरण में भी 'तकार' के स्थान पर 'दकार' की आदेश-प्राप्ति की गई है। यों अन्यत्र भी ऐसे स्थानों पर 'दकार' की स्थिति को समझ लेना चाहिये।
प्रश्नः- 'वाक्य के आदि में अर्थात् आरंभ में रहे हुए 'तकार' के स्थान पर 'दकार' की आदेश-प्राप्ति नहीं होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ? ____ उत्तरः- चूकि शौरसेनी-भाषा में ऐसा रचना-प्रवाह पाया जाता है कि संस्कृत भाषा की रचना को शौरसेनी भाषा में रूपान्तर करते हुए वाक्य के आदि में यदि 'तकार' व्यञ्जन रहा हुआ हो तो उसके स्थान पर 'दकार' व्यञ्जन की आदेश प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- तथा कुरूथ यथा तस्य राज्ञः अनुकम्पनीया भवामि (अथवा भवेयम्)-तधा करेध जधा तस्स राइणो अणुकम्पणीआ भोमि-आप वैसा (प्रत्यत्न) करते है। जिससे मैं उस राजा की अनुकम्पा के योग्य (दया की पात्र) होती हूं (अथवा होऊँ)। इस उदाहरण में 'तधा' शब्द में स्थित 'तकार' वाक्य के आदि में आया हुआ है और इसी कारण से इस 'तकार' के स्थान पर 'दकार' व्यञ्जनाक्षर की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। यों सभी स्थानों पर वाक्य के आदि में रहे हुए 'तकार' व्यञ्जनाक्षर के सम्बन्ध में इस संविधान को ध्यान में रखना चाहिये।
प्रश्नः- ‘पद अथवा शब्द' के आदि में रहे हुए 'तकार' को भी 'दकार' की प्राप्ति नहीं होती है; ऐसा भी क्यों कहा गया है?
उत्तरः- शौरसेनी-भाषा में ऐसा 'अनुबन्ध अथवा संविधान' भी पाया जाता है, जबकि पद के आदि में रहे हुए 'तकार' के स्थान पर 'दकार' की आदेश-प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- तस्य-तस्स उसका। ततः तदो। इत्यादि। इन पदों के आदि में रहे हुए 'तकार' अक्षरों को 'दकार' अक्षर की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है; यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 287 प्रश्न:- 'संयुक्त रूप से रहे हुए' तकार को भी दकार की प्राप्ति नहीं होती है; ऐसा क्यों कहा गया है। उत्तर :- शौरसेनी - भाषा में उसी 'तकार' को 'दकार' की आदेश - प्राप्ति होती है, जो कि हलन्त न हो; तथा किसी अन्य व्यञ्जनाक्षर के साथ में मिला हुआ न हो; यों 'पूर्ण स्वतन्त्र अथवा अयुक्त तकार के स्थान पर ही 'दकार' की आदेश - प्राप्ति होती है। ऐसा ही संविधान शौरसेनी भाषा का समझना चाहिये। जैसे:- मत्तः = मत्तो-मद वाला अर्थात् मतवाला। आर्यपुत्रः - अय्यउत्तो पति, भर्ता, अथवा स्वामी का पुत्र । हे सखि शकुन्तले-हला सउन्तले ! = हे सखि शकुन्तले!; इत्यादि । इन उदाहरणों में अर्थात् 'मत्त, आर्य पुत्र, और शकुन्तला' शब्दों में 'तकार' संयुक्त रूप से- (मिलावट से ) - रहा हुआ है और इसीलिये इन संयुक्त 'तकारों' के स्थान पर 'दकार' व्यञ्जनाक्षर की आदेश-प्राप्ति नहीं हो सकती है। यही स्थिति सर्वत्र ज्ञातव्य है ।
वृत्ति में ' असम्भाविद-सक्कार' ऐसा उदाहरण दिया हुआ है; इसका संस्कृत रूपान्तर 'असम्भावित सत्कारं ऐसा होता है। इस उदाहरण द्वारा यह बतलाया गया है कि 'प्रथम तकार' के स्थान पर तो 'दकार' की प्राप्ति हो गई है; क्योंकि न तो वाक्य के आदि में है और न पद के ही आदि में है तथा न यह हलन्त अथवा संयुक्त ही है और इन्हीं कारणों से इस प्रथम तकार के स्थान पर 'दकार' की आदेश प्राप्ति हो गई है। जब कि द्वितीय तकार हलन्त है और इसलिये सूत्र - संख्या २- ७७ से उस हलन्त 'तकार' का लोप हो गया है। यों संयुक्त 'तकार' की अथवा हलन्त की स्थिति शौरसेनी भाषा में होती है। इस बात को प्रदर्शित करने के लिये ही यह 'असम्भाविद-सक्कारं उदाहरण वृत्ति में दिया गया है; जो कि खास तौर पर ध्यान देने के योग्य है। इस प्रकार संस्कृतीय तकार की स्थिति शौरसेनी - भाषा में 'दकार' की स्थिति में बदल जाती है; यही इस सूत्र का तात्पर्य है । । ४ - २६० ।।
अधः क्वचित्।।४-६१।।
वर्णान्तरस्याधो वर्तमानस्य तस्य शौरसेन्यां दो भवति । क्वचिल्लक्ष्यानुसारेण । । महन्दो । निच्चिन्दो । अन्देउर ||
अर्थः- यह सूत्र उपर वाले सूत्र - संख्या ४- २६० का अपवाद रूप सूत्र है, क्योंकि उस सूत्र में यह बतलाया गया है, कि संयुक्त रूप से रहे हुए 'तकार' के स्थान पर 'दकार' की प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु इस सूत्र में यह कहा जा रहा है कि कहीं-कहीं पर ऐसा भी देखा जाता है जबकि संयुक्त रूप से रहे हुए 'तकार' के स्थान पर भी 'दकार' की प्राप्ति हो जाती है, परन्तु इसमें एक शर्त है वह यह है कि संयुक्त तकार हलन्त व्यञ्जन के पश्चात् रहा हुआ हो । यहाँ पर 'पश्चात् स्थिति का अवबोधक शब्द 'अधस् लिखा गया है। वृत्ति का संक्षिप्त स्पष्टीकरण यों है कि- 'किसी हलन्त व्यञ्जन के पश्चात् अर्थात् अधस् - रूप से रहे हुए तकार के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'दकार' की आदेश- प्राप्ति हो जाया करती है। 'यह स्थिति कभी-कभी और कहीं-कहीं पर ही देखी जाती है इसी तात्पर्य को वृत्ति में 'लक्ष्यानुसारेण' पद से समझाया गया है उदाहरण इस प्रकार है ( १ ) महान्तः = महन्दी - सबसे बड़ा परम जयेष्ठ। (२) निश्चिन्तः=निच्चिन्दो - निश्चिन्त । (३) अन्तः पुरं - अन्दे उरं रानियों का निवास स्थान। इन तीनों उदाहरणों में 'न्त' अवयव में 'तकार' हलन्त व्यञ्जन 'नकार' के साथ में परवर्ती होकर संयुक्त रूप से रहा हुआ है और इसीलिये इस सूत्र के आधार से उक्त 'तकार' शौरसेनी भाषा में 'दकार' के रूप से परिणत हो गया है। यह स्पष्ट रूप से ध्यान में रहे कि सूत्र - संख्या ४- २६० में ऐसे 'तकार' को 'दकार- स्थिति' की प्राप्ति का निषेध किया गया है। अतः अधिकृत-सूत्र उक्त सूत्र का अपवाद रूप सूत्र है ।।४ - २६१ ।।
वादेस्तावति।।४-२६२॥
शौरसेन्याम् तावच्छब्दे आदेस्तकारस्य दो वा भवति।। दाव। ताव।।
अर्थः- संस्कृत भाषा के 'तावत्' शब्द के आदि 'तकार' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में विकल्प से 'दकार' की आदेश - प्राप्ति होती है। जैसे:- तावत्-दाव अथवा ताव = तब तक ॥। ४-२६२।।
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288 : प्राकृत व्याकरण
आ आमन्त्र्ये सौ वेनो नः।।४-२६३।। शौरसेन्यामिनो नकारस्य आमन्त्रये सौ परे आकारो वा भवति॥ भो कञ्चुइआ। सुहिआ। पक्षे। भो तवस्सि। भी भणस्सि।। ___ अर्थः-'इन्' अन्त वाले शब्दों के अन्त्य हलन्त 'नकार' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में संबोधन-वाचक प्रत्यय 'सु' परे रहने पर 'अकार' की आदेश-प्राप्ति विकल्प से हो जाती है। जैसे:-(१) हे कञ्चुकिन्!= भो कञ्चुइआ अथवा भो कंचुइ-अरे अंतःपुर के चपरासी। (२) हे सुखिन् भो सुहिआ अथवा भो सुहि! है सुख वाले। (३) हे तपस्विन्-भो तवस्सिआ अथवा भो तवस्ति-हे तपश्चर्या करने वाले। हे मनस्विन्=भो मणास्तिआ अथवा भो मणस्सि! हे विचारवान्।। यों 'नकार' के स्थान पर संबोधन के एकवचन में विकल्प से आकार की आदेश-प्राप्ति हो जाती है। पक्षान्तर में 'आ' का लोप हो जायेगा।।४ - २६३।।
मो वा।।४-२६४।। शौरसेन्यामामन्त्र्ये सौ परे नकारस्य मो वा भवति।। भो राय।। भो विअय वम्म।। सुकम्म।। भयवं कुसुमाउह। भयवं! तिथं पवत्तेह। पक्षे। सयल-लोअ-अन्ते आरि भयव हुदवह।।
अर्थः-संबोधन के एकवचन में 'सु' प्रत्यय परे रहने पर शौरसेनी भाषा में संस्कृत नकारान्त शब्दों के अन्त्य हलन्त 'नकार' का लोप हो जाता है; संबोधन वाचक-प्रत्यय का भी लोप हो जाता है और लोप होने वाले 'नकार' के स्थान पर विकल्प से हलन्त 'मकार' की प्राप्ति हो जाती है। यों शौरसेनी भाषा में नकारान्त शब्दों के संबोधन के एकवचन में दो रूप हो जाते हैं; एक तो मकारान्त रूप वाला पद और दूसरा मकारान्त रूप रहित पद्। जैसे:- हे राजन्! भो रायं अथवा भो राय हे राजा। हे विजय-वर्मन्!=भो विअय वम्म! अथवा भो विअय वम्म! हे विजय-वर्मा। हे सुकर्मन्=भो सुकम्म! अथवा भो सुकम्म! हे अच्छे कर्मो वाले। हे भगवान् कुसुभायुध भो भयवं अथवा भो भयव। कुसुमाउह! हे भगवान कामदेव। हे भगवान् तीर्थ प्रवर्तस्व-हे भयवं! (अथवा हे भयव!) तित्थं पवत्तेह-हे भगवान्! (आप) तीर्थ की प्रवृत्ति करो। हे सकल-लोक-अंतश्चारिन्! भगवान्! हुतवह! भो सयल-लोअ-अन्ते आरि! भयव! हुदवह! हे सम्पूर्ण लोक में विचरण करने वाले भगवान अग्निदेव। इन उदाहरणों में यह मत व्यक्त किया गया है कि संबोधन के एक वचन में नकारान्त शब्दो। में अन्त्य नकार के स्थान पर मकार की प्राप्ति (तदनुसार सूत्र-संख्या १-२३ से अनुस्वार की प्राप्ति) विकल्प से होती है।।४-२६४।।
भवद्भगवतोः॥४-२६५।। आमन्त्र्य इति निवृत्तम्। शौरसेन्यामनयोः सौ परे नस्य मो भवति।। किं एत्थ भवं हिदएण चिन्तेदि। एदु भव।। समणे भगवं महवीरे।। पज्जेंलिदो भयवं हदासणो।। क्वचिदन्यत्रापि मघवं पागसासणे। संपाइअवं सीसो। कयव।। करेमि काहं च।।
अर्थः-'संबोधन संबंधी विचारणा की तो समाप्ति हो गई है; ऐसा तात्पर्य वृत्ति में दिये गये 'निवृत्तम्' पद से जानना चाहिये।
'भवत्' तथा 'भगवत्' शब्द के प्रथमा विभक्ति के एकवचन वाचक प्रत्यय 'सु-सि' के परे रहने पर तैयार हुए 'भवान् तथा भगवान्' पदों के अन्त्य नकार के स्थान पर हलन्त 'मकार' की अर्थात् अनुस्वार की प्राप्ति होती है
और प्रथमा विभक्ति-वाचक एकवचन के प्रत्यय का लोप हो जाता है। ऐसा शौरसेनी भाषा में जानना चाहिय; तदनुसार भवान् पद का भवं रूप होता है और भगवान् पद का रूपान्तर 'भयवं' अथवा 'भगवं' होता है विशेष उदाहरण इस प्रकार है:- (१) किं अत्र भवान् हृदयेन चिन्तयति-किं एत्थ भवं हिदएण चिन्तेदि-क्या आप इस विषय में हृदय से चिंतन करते है।। (२) एतु भवान-एदु भवं आप जावे।। (३) श्रमणः भगवान् महावीरः समणे भगवं
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 289 महावीरे=श्रमण-महासाधु भगवान महावीर ने। (४) प्रज्वलितः भगवान् हुताशनः पज्जलिदो भयवं हुदासणो=उज्जवल रूप से जलता हुआ भगवान् अग्निदेव। इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि 'भवत्' और 'भगवत्' शब्दों के प्रथमान्त एक वचन में बने हुए संस्कृतीय पद 'भवान् तथा 'भगवन्' का शौरसेनी भाषा में क्रम से 'भवं और भगवं' (अथवा भयवं)' हो जाता है। ___ कभी कभी ऐसा भी देखा जाता है जबकि अन्य पदों में भी प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अन्त्य हलन्त 'नकार' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में अनुस्वार की प्राप्ति हो जाती है तथा प्रथमा-विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'सु-सि' का लोप हो जाता है। जैसे:- मघवान् पाक शासनः मघवं पाग सासणे=देव राज इन्द्र ने। यहाँ पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन में मघवान् का रूपान्तर 'मघवं' बतलाया है। दूसरा उदाहरण यों है:- संपादितवान् शिष्यः संपाइअवं सीसो पढ़ाये हुए शिष्य ने यहाँ पर भी प्रथमा विभक्ति के एकवचन पद 'संपादितवान्' का रूपान्तर शौरसेनी भाषा में 'सपाइअवं' किया गया है। (३) कृतवान्कायवं=मैं करने वाला हूँ अथवा मैं करूगाँ यों हलन्त 'नकार' के स्थान पर प्रथमा-विभक्ति एकवचन में अनुस्वार की प्राप्ति का स्वरूप जानना।।४-२६५।।
न वा यो य्यः।।४-२६६॥ शौरसेन्यां यस्य स्थाने य्यो वा भवति।। अय्यउत्त पय्याकुलीकदम्हि। सुय्सो। पक्षे। अज्जो। पज्जाउलो। कज्ज-परवसो।।
अर्थः-शौरसेनी भाषा में संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर विकल्प से द्वित्व (अथवा द्विरुक्त) 'य्य' की प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में संयुक्त 'र्य के स्थान पर सूत्र-संख्या २-२४ से तथा २-८९ से द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति भी होती है। (१) हे आर्यपुत्र!-पर्याकुलीकृतास्मि हे अय्यउत्त! (अथवा हे अज्जउत!) पय्याकुलीकदम्हि (अथवा पज्जाकुलीकदम्हि) हे आर्य पुत्र! मैं दुःखी कर दी गई हूँ। (२) सूर्यः सुय्यो अथवा सुज्जो-सूरज। (३) आर्यः अय्यो अथवा अज्जो आर्य, श्रेष्ठ। (४) पर्याकुलः पय्याउलो अथवा पज्जाउलो अथवा पज्जाउलो-घड़ाबया हुआ, दुःखी किया हुआ। (५) कार्य परवशः कज्ज-परवसो अथवा कय्य-परवसो कार्य करने में दूसरों के वश में रहा हुआ। यों शौरसेनी भाषा में 'र्य' के स्थान पर 'य्य' अथवा 'ज्ज' की प्राप्ति विकल्प से होती है।।४-२६६।।
थो धः।।४-२६७॥ ___ शौरसेन्यां थस्य धो वा भवति।। कधेदि, कहेदि।। णाधो णाहो। कधं कह। राजपधो, राजपहो।। अपदादावित्येव। थाम थेओ।। __ अर्थः- संस्कृत-भाषा से शौरसेनी भाषा में रूपान्तर करने पर संस्कृत शब्दों में रहे हुए 'थकार' व्यञ्जन के स्थान पर विकल्प से 'धकार' व्यञ्जन की प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या १-१८७ से 'थकार' के स्थान पर 'हकार' की भी प्राप्ति हो सकती है।। जैसेः- (१) कथयति-कधेदि अथवा कहेदि वह कहता है वह कथन करता है। इस उदाहरण में 'ति' के स्थान पर 'दि' की प्राप्ति सूत्र-संख्या ४-२७३ से जानना। (२) नाथ:=णाधो अथवा णाहो-नाथ, स्वामी, ईश्वर। (३) कथम् कधं अथवा कह कैसे, किस तरह से। (४) राज-पथः-राज-पधो अथवा राज-पहो,मुख्य मार्ग, धोरी मार्ग, मुख्य सड़क। इन उदाहरणों में 'थकार' के स्थान पर 'धकार' की अथवा 'हकार' की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है।
सूत्र-संख्या ४-२६० से यह अधिकृत-सिद्धान्त जानना चाहिये कि उक्त 'थकार' के स्थान पर 'धकार' की अथवा 'हकार' की प्राप्ति पद के आदि में रहे हुए 'थकार' के स्थान पर नहीं होती है और इसीलिये इसी सूत्र की वृत्ति में 'अपदादौ' अर्थात पद के आदि में नहीं, ऐसा उल्लेख किया गया है। वृत्ति में इस विषयक दो उदाहरण भी क्रम से इस प्रकार दिये गये हैं:- (१) स्थाम=थाम-बल, वीर्य, पराक्रम। "स्थामन्" शब्द नपुसंक लिंगी है, इसलिये प्रथमा विभक्ति के एक वचन में "स्थामन्" का रूप "स्थाम" बनता है। (२) स्थेयः=थेओ=रहने योग्य अथवा जो रह
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290 : प्राकृत व्याकरण
प्राप्त
सकता हो, अथवा फैसला करने वाला न्यायधीश। इन उदाहरणों में पदों के आदि में रहने वाले "थकार" के स्थान पर न तो "धकार" की प्राप्ति ही होती है और न "हकार" की प्राप्ति ही। यों "थकार" के स्थान पर "धकार" की अथवा "हकार" की प्राप्ति को जानना चाहिये।।४-२६७।।
इह-हचोर्हस्य।।४-२६८॥ इह शब्द संबंधिनो मध्यमस्येत्था-हचौ (३-१४३) इति विहितस्य हचश्च हकारस्य शौरसेन्यां धो वा भवति।। इध। होध। परित्तायध।। पक्षे। इह। होह। परित्तायह।। ___ अर्थः-संस्कृत शब्द 'इह' में रहे हुए 'हकार' के स्थान पर शौरसेनी-भाषा में विकल्प से 'धकार' की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसेः-इह-इध अथवा इह। यहां पर सूत्र-संख्या ३-१४३ में वर्तमान-काल-बोधक मध्यम-पुरूष-वाचक बहुवचनीय प्रत्यय 'इत्या और ह' कहे गये हैं, तदनुसार उक्त 'हकार' प्रत्यय के स्थान पर भी शौरसेनी-भाषा में विकल्प से 'धकार' रूप प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। यों 'हकार' के स्थान पर विकल्प से 'धकार' की प्राप्ति जानना चाहिये। जैसे:- (१) भवथ होध अथवा होह-तुम होते हो। (२) परित्रायध्वे-परित्तायध अथवा परित्तायह-तुम संरक्षण करते हो अथवा तम पोषण करते हो।।४-२६८।।
भुवो भः॥४-२६९।। भवते हंकारस्य शौरसेन्या भो वा भवति।। भोदि होदि सुवदि।। भवदि। हवदि।।
अर्थः- संस्कृत-भाषा में 'होना' अर्थक 'भू-भव' धातु है; इस 'भव्' धातु के स्थान पर प्राकृत-भाषा में सूत्र-संख्या ४-६० से विकल्प से 'हव' 'हो' और 'हुव' धातु रूपों की आदेश-प्राप्ति होती है; तदनुसार इन आदेश
गत रूपों में स्थित 'हकार के स्थान पर शौरसेनी भाषा में विकल्प से 'भकार' की प्राप्ति होती है और ऐसा होने पर 'हव का भव', 'हो का भो' तथा 'हुव का भुव' विकल्प से हो जाता है। जैसेः- भवति-(१) भोदि, (२) होदि, (३) भुवदि, (४) हुवदि, (५) भवदि और (६) हवदि-वह होता है।
सूत्र-संख्या ४-२७३ से वर्तमानकाल-वाचक तृतीय पुरुष बोधक एक वचनीय प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'दि' की प्राप्ति होती है, जैसा कि ऊपर के उदाहरणों में बतलाया गया है। अतएव क्रियापदों में यह ध्यान में रखना चाहिये।।४-२६९।।
पूर्वस्य पुरवः ४-२७०॥ शौरसेन्यां पूर्व शब्दस्य पुरव इत्यादेशौ वा भवति।। अपुरवं नाडय।। अपुरवागदं।। पक्षे। अपुव्वं पदं।। अपुव्वागदं।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'पूर्व' का प्राकृत-रूपान्तर 'पुव्व' होता है, परन्तु शौरसेनी भाषा में 'पूर्व' शब्द के स्थान पर विकल्प से 'पुरव' शब्द की आदेश-प्राप्ति होती है; यों शौरसेनी भाषा में 'पूर्व के स्थान पर 'परव' और 'पुव्व' ऐसे दोनों शब्द रूपों का प्रयोग देखा जाता है। प्राकृत-भाषा में सूत्र-संख्या २-१३५ से 'पूर्व' के स्थान पर 'पुरिम' ऐसा रूप भी विकल्प से उपलब्ध होता है।
शौरसेनी भाषा संबंधी 'परव' और 'पव्व' शब्दों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है :- (१) अपर्वम नाटकम अपरवं नाडयं अथवा अपव्वं नाडयं-अनोखा नाटक, अदभुत खेल। (२) अपर्वम अगदम अपरवागंद अथवा पव्वागदं अनोखी
औषधि अथवा अद्भुत दवा। (३) अपूर्वम् पदम् अपुव्वं पद अथवा अपुरवं पदं अनोखा पद, अद्भुद शब्द। इत्यादि।।४-२७०।।
क्त्व इय-दणौ।।४-२७१।। __ शौरसेन्यां क्त्वा प्रत्ययस्य इय दूणइत्यादेशो वा भवतः।। भविय, भोदूण॥ हविय, होदूण। पढिय, पढिदूण। रमिय, रन्दूण। पक्षे। भोत्ता। होत्ता। पढित्ता। रन्ता।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 291 अर्थः अव्ययी रूप सम्बन्ध भूत कृदन्त के अर्थ में संस्कृत-भाषा में धातुओं में 'क्त्वा-त्वा' प्रत्यय का योग होता है। ऐसा होने पर धातु का अर्थ 'करके अर्थ वाला हो जाता है। जैसे :-खा करके, पी करके, इत्यादि। शौरसेनी भाषा में संबंध-भूत-कृदन्त के अर्थ में संस्कृत-प्रत्यय 'त्वा' के स्थान पर विकल्प से 'इय अथवा दूण' ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में संस्कृत प्रत्यय 'त्वा' के स्थान पर सूत्र-संख्या २-७९ से तथा २-८९ से 'व' का लोप होकर द्वित्व 'त्ता' की प्राप्ति होने से इस 'त्ता' प्रत्यय को ही संबंध भूत-कृदन्त के अर्थ में संयोजित कर दिया जाता है। जैसे:- भूत्वा भविय, भोदूण, हविय और होदूण अथवा होत्ता-होकर के। पढित्वा=पढिय, पढिदूण, अथवा पढित्ता=पढ करके-अध्ययन करके। रन्त्वा-रमिय, रन्दूण अथवा रन्तारमण करके; खेल करके।।४-२७१।।
कृ-गमो डडुअः।।४-२७२।। आभ्यां परस्य क्त्वा प्रत्ययस्य डित् अडुअ इत्यादेशौ वा भवति।। कडु। गडु। पक्षे। करिय। करिदूण। गच्छिय गच्छिदूण।। __अर्थः- संस्कृत धातु 'कृ=करना' और 'गम् गच्छ-जाना' के संबंध भूत कृदन्त के रूप शौरसेनी भाषा में बनाना हो तो सूत्र संख्या ४-२७१ में वर्णित प्रत्यय 'इय, दूण और त्ता' के अतिरिक्त विकल्प से 'डडुअ-अडुअ' प्रत्यय की भी आदेश-प्राप्ति होती है। 'डडुअ' प्रत्यय में आदि 'ड्' इत् संज्ञा वाला होने से 'कृ' धातु के अन्त्य स्वर 'ऋ' का और 'गम्' धातु के अन्त्य वर्ण 'अम्' का लोप हो जाता है, एवं तत्पश्चात् शेष रहे हुए धातु अंश 'क्' और 'ग' में क्त्वा-त्वा=अर्थक 'अडुअ' प्रत्यय की भी विकल्प से संयोजना की जाती है। जैसे-कृत्वा-कडुअ-करके। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'करिय, करिदूण अथवा करित्ता' रूप भी बनेंगे।। गम् गच्छ का उदाहरण:गत्वा=गडुअ-जाकर के। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'गच्छिय, गच्छिदूण' रूप भी बनेगे।।४-२७२।।
दि रि चे चोः।।४-२७३।। त्यादिनामाद्य त्रयस्याद्यस्येचेचो (३-१३९) इति विहितयोरिचेचोः स्थाने दिर्भवति॥ वेति निवृत्तम्। नेदि। देदि। भोदि। होदि।। ___ अर्थः- वर्तमानकाल-बोधक, तृतीय पुरूष वाचक एक वचनीय प्रत्यय 'ति' अथवा 'ते' के स्थान पर प्राकृत भाषा में सूत्र-संख्या ३-१३९ से 'इ अथवा ए' प्रत्यय की प्राप्ति कही गई है, तद्नुसार प्राकृत-भाषा में प्राप्त इन 'इ अथवा ए' प्रत्ययों के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'दि' प्रत्यय की नित्यमेव आदेश-प्राप्ति होती है। वृत्ति में 'वा इति निवृतम्' शब्दों का तात्पर्य यही है कि वैकल्पिक-स्थिति' का यहाँ पर अभाव है और इसलिये 'दि' प्रत्यय की प्राप्ति नित्यमेव सर्वत्र जानना। जैसे:- नयति-नेदि वह ले जाता है। ददाति देदि वह देता है। भवति-भोदि अथवा होदि-वह होता है।।४-२७३।।
अतो देश्च।।४-२७४।। अकारात् परयोरिचेचोः स्थाने देश्चकाराद् दिश्च भवति। अच्छदे। अच्छदि। गच्छदे। गच्छदि। रमदे। रमदि। किज्जदे। किज्जदि।। अत इति किम् वसुआदि। नेदि। भोदि।। ___ अर्थः-अकारान्त धातुओं में प्राकृत-भाषा में वर्तमान-काल के तृतीय पुरुष के अर्थ में लगने वाले एक वचनीय प्रत्यय 'इ अथवा ए के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'दे' प्रत्यय का प्रयोग होता है। मूल-सूत्र में उल्लिखित 'चकार' से यह अर्थ समझना कि -'उक्त 'दे' प्रत्यय के अतिरिक्त 'दि' प्रत्यय का भी प्रयोग होता है। इस विषयक उदाहरण क्रम से यों है:(१) आस्ते अच्छदे अथवा अच्छदि-वह बैठता है। (२) गच्छति गच्छदि अथवा गच्छदे वह जाता है। (३) रमते-रमदे अथवा रमदि-वह क्रीड़ा करता है:- वह खेलता है। (४) करोति-किज्जदे अथवा किज्जदि-वह करता है; इत्यादि।
प्रश्नः- अकारान्त धातुओं में ही प्रत्यय 'इ अथवा ए' के स्थान पर 'दे' अथवा दि होता है; ऐसा क्यों कहा गया है ?
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292 : प्राकृत व्याकरण
उत्तरः- जो धातु अकारान्त नहीं है; उनमें लगने वाले प्रत्यय 'इ अथवा ए' के स्थान पर 'दे' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है; परन्तु केवल 'दि' प्रत्यय की ही प्राप्ति होती है; ऐसा जानना चाहिये इसलिये 'अकारान्त धातु' शब्द का उल्लेख किया गया है। जैसे:- उद्वाति-वसु आदि-वह सूखता है- वह शुष्क होता है। नयति-नेदि-वह ले जाता है। भवति-भोदि वह होता है। इन उदाहरणों में वसुआ, ने और भो' धातु क्रम से 'अकारान्त, एकारन्त ओकारान्त 'हैं; इसलिये इन धातुओं में शौरसेनी भाषा में 'दि' प्रत्यय की ही प्राप्ति हुई है तथा 'दे' प्रत्यय की प्राप्ति इनमें नहीं होगी। यों अकारान्त के सिवाय अन्य स्वरान्त धातुओं में भी 'दि' प्रत्यय की ही प्राप्ति होगी, न कि 'दे' प्रत्यय की प्राप्ति होगी।।४-२७४।।
भविष्यति स्सिः ।।४-२७५।। शौरसेन्यां भविष्यदर्थे विहिते प्रत्यये परे स्सि भवति। हिस्साहामपवादः।। भविस्सिदि। करिस्सिदि। गच्छिस्सिदि।
अर्थः- प्राकृत-भाषा में सूत्र-संख्या ३-१६६ में तथा ३-१६७ में ऐसा विधान किया गया है कि भविष्यत्-काल-वाचक विधि में धातुओं में वर्तमानकाल-वाचक प्रत्ययों के पूर्व 'हि, अथवा स्सा अथवा हा' प्रत्ययों को जोड़ने से वह क्रियापद भविष्यत्-काल-बोधक बन जाता है। इस सूत्र में शौरसेनी भाषा के लिये उक्त विधान का अपवाद किया गया है और यह निर्णय दिया गया है कि शौरसेनी भाषा में भविष्यत् काल वाचक अर्थ में वर्तमान
प्रत्ययों के पहिले केवल 'स्सि' प्रत्यय की ही प्राप्ति होकर बन जाता है। तदनुसार शौरसेनी भाषा में भविष्यत्काल बोधक अर्थ के लिये धातुओं में वर्तमान-काल-वाचक प्रत्ययों के पूर्व 'हि, अथवा स्सा अथवा हा' विकरण प्रत्ययों की प्राप्ति नहीं होगी। उदाहरण यों है:-(१) भविष्यति भविस्सिदि-वह होगा अथवा वह होगी। (२) करिष्यति करिस्सिदि-वह करेगा अथवा वह करेगी। (३) गमिष्यति=गच्छिस्सिदि-वह जावेगा अथवा वह जावेगी।।४-२७५।।
अतो उसे र्डा दो-डा दू॥४-२७६।। अतः परस्य उसेः शौरसेन्या आदो आदु इत्यादेशोडितो भवतः।। दूरादो य्येव। दूरादु।।
अर्थः- अकारान्त संज्ञा शब्दों के पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'उसि' के स्थान पर शौरसेनी-भाषा में 'आदो और आदु' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। यह आदेश भी 'डित' स्वरूप वाली होने से उक्त 'आदो
और आदु' प्रत्ययों की संयोजना होने के पूर्व उन अकारान्त शब्दों के अन्त्य 'अकार' का लोप हो जाता है और तदनुसार शेष रहे हुए व्यञ्जनान्त शब्दों में इन 'आदो तथा आदु' प्रत्ययों की संयोजना की जाती है। जैसे:- दूरात् एव-दूरादोय्येव-दूर से ही, दूरात्-दूरादु-दूर से। प्राकृत-भाषा में पंचमी विभक्ति के एकवचन में सूत्र-संख्या ३-८ से 'त्तो, दो, दु, हि, हिन्तो और लुक्' ऐसे छह प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होती है; किन्तु शौरसेनी भाषा में तो 'आदो और आदु' ऐसे दो प्रत्ययों की ही आदेश प्राप्ति जाननी चाहिये।।४-२७६ ।।
इदानीमो दाणि।।४-२७७॥ शौरसेन्यामिदानीमः स्थाने दाणिं इत्यादेशो भवति।। अनन्तर करणीयं दाणि आणवेदु अय्यो।। व्यत्ययात् प्राकृते ऽपि। अन्नं दाणिं बोहि।।
अर्थ:- संस्कृत अव्यय 'इदानीम्' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में केवल 'दाणि' ऐसे शब्द रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः- अनन्तर करणीयं इदानीम् आज्ञापयतु हे आर्य! अनन्तर-करणीयं दाणिं आणवेदू अय्यो हे महाराज! अब आप इसके बाद में करने योग्य (कार्य का) आदेश फरमावे।। प्राकृत-भाषा में 'इदानीम्' के स्थान पर तीन शब्द रूप पाये जाते है:- (१) एण्हि, (२) एत्ताहे और (३) इआणि।। किन्तु शौरसेनी-भाषा में तो केवल 'दाणिं' रूप की ही उपलब्धि है। कहीं-कहीं पर 'दाणि और दाणी' रूप भी देखे जाते है।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 293 प्राकृत-भाषा में ऐसा संविधान पाया जाता है कि संस्कृत भाषा के शब्दों में रहे हुए स्वरों का अथवा व्यञ्जनों का परस्पर में 'व्यत्यय' अर्थात् आगे का पीछे और पीछे का आगे होकर संस्कृतीय शब्द प्राकृतीय बन जाते है।। जैसे:- अन्यं इदानीम् बोधिम् अन्नं दाणिं बोहि अब दूसरे को शुद्ध धर्मज्ञान को (बोधि को) समझाओ।।४-२७७।।
तस्मात्ताः॥४-२७८॥ शौरसेन्यां तस्माच्छब्दस्य ता इत्यादेशो भवति।। ता जाव पविसामि। ता अलंएदिणा माणेण।।
अर्थः- 'उस कारण से' अथवा 'उससे' अर्थक संस्कृत-पद 'तस्मात् के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'ता' शब्द रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:- तस्मात् यावत् प्रविशामि=ता जाव पविसामि-उस कारण से तब तक में प्रवेश करता हैं। तस्मात अलम एतेन मानेन ता अलं एदिणा माणेण-उस कारण से इस भान (अभिमान से)-अब बस करो अर्थात् अब अभिमान का त्याग करदो यों 'ता' शब्द का अर्थ ध्यान में रखना चाहिये।।४-२७८।।
मोन्त्याण्णो वेदे तोः।।४-२७९।। शौरसेन्यामन्त्यान्मकारात् पर इदेतोः परयोर्णकारागमो वा भवति॥ इकारे। जुत्तणिम, जुत्त मिण। सरसिं णिमं.सरिसमिण। एकारे। किंणेदं किमेद एवं णेदं एवमेद।।
अर्थः- शौरसेनी भाषा में यदि शब्दान्त्य हलन्त 'मकार' हो और उस हलन्त मकार के आगे यदि 'इकार अथवा एकार' हो तो ऐसे 'इकार अथवा एकार' के साथ में विकल्प से हलन्त 'णकार' की आगम प्राप्ति होती है। 'इकार और एकार' सम्बन्धी उदाहरण इस प्रकार क्रम से हैं:- (१) युक्तम् इदम् जुत्तणिमं अथवा जुत्तामिणं-यह (बात) सही है। (२) सदृशं इदम् सरिसं णिमं अथवा सरिसमिणंयह समान-(एक जैसा है) इन दोनो उदाहरणों में 'इम' के स्थान पर णिमं की प्राप्ति हुई है; यों 'इकार' में 'णकार' की आगम-प्राप्ति को समझ लेना चाहिये। यह आगम प्राप्ति वैकल्पिक है, अतः द्वितीय 'इम' के स्थान पर णिमं की प्राप्ति हुई है; यो इकार में णकार की आगम प्राप्ति को समान लेना चाहिये। इस आगम प्राप्ति वैकल्पिक है अतः द्वितीय इय के स्थान पर णिमं की प्राप्ति नहीं हई है। "एकार' सम्बन्धी उदाहरण यों है- (१) किं एतत् कि णेदं अथवा किमेद=यह क्या है ? (२) एवं एतत् एवं णेदं
अथवा एवमेदं यह ऐसा है। इन उदाहरणों में 'एदं के स्थान पर विकल्प से 'णेदं रूप की प्राप्ति हुइ है; 'एकार' 'णकार' की आगम प्राप्ति को विकल्प से जान लेना चाहिये।।४-२७९।।
एवार्थ य्ये व॥४-२८०॥ एवार्थे य्येव इति निपातः शौरसेन्यां प्रयोक्तव्यः।। मम य्येव बम्भणस्या सोय्येव एसो॥
अर्थ:-'निश्चय-वाचक' संस्कृत-अव्यय 'एव' के स्थान पर अथवा 'एय' के अर्थ में शौरसेनी भाषा में 'य्येव' अव्यय रूप का प्रयोग किया जाना चाहिये। जैसे-(१) मम एव ब्राहमणस्य-ममय्यव बम्भणस्स-मुझ ब्राह्मण का ही। (२) स एव एषः सो य्येव एसो-वह ही यह है। यों इन दोनों उदाहरणों में एव' के स्थान पर 'य्येव' की प्राप्ति हुई है।।४-२८०॥
हजे चेट्याहाने।।४-२८१।। शौरसेन्याम् चेट्याहाने हजे इति निपातः प्रयोक्तव्यः।। हजे च दूरिके।। __ अर्थः- दासी को संबोधन करते समय में अथवा बुलाने के समय में शौरसेनी-भाषा मे 'हब्जे' अव्यय का __ प्रयोग किया जाता है। जैसे- अरे! चतुरिके!=हजे चदुरिके!=अरे चतुर दासी! अरे बुद्विमान दासी।।४-२८१।।।
हीमाणहे विस्मय-निर्वेदे।।४-२८२।। शौरसेन्यां हीमाणहे इत्ययं निपातो विस्मये निर्वेदे च प्रयोक्तव्यः।। विस्मये। हीमाणहे जीवन्त-वच्छा मे जणणी।। निर्वेदे हीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एदेण निय-विधिणो दुव्ववसिदेण।।
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294 : प्राकृत व्याकरण
___ अर्थ:-'आश्चर्य' प्रकट करना हो अथवा 'खेद' प्रकट करना हो तो शौरसेनी भाषा में 'हीमाणहे' ऐसे इस अव्यय का प्रयोग किया जाता है। आश्चर्य-प्रकट करने अर्थक उदाहरण यों हैं:- अहो। जीवन्त-वत्सा मम जननी-हीमाणहे जीवन्त-वच्छा मे जणणी आश्चर्य है कि मेरी माता जीवन-पर्यत्न वात्सल्य भावना रखने वाली है। 'खेद प्रकट करने-अर्थक उदाहरण इस प्रकार से है:- हा! हा!! परिश्रान्ता अहम् एतेन निज-विधेः दुर्व्यवसितेन=हीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एदेण निय-विधेणो दुव्ववसिदेण-अरे! अरे!! खेद है कि-(बड़े दुःख कि बात है कि-) मैं अपने इस भाग्य के विपरीत चले जाने से-(तकदीर से फेर से)-बहुत ही दुःखी हूँ।। यों "हिमाणहे' अव्यय शौरसेनी भाषा में 'आश्चर्य तथा खेद' दोनों अर्थो में प्रयुक्त किया जा सकता है।।४-२८२।।
नन्वर्थ।।४-२८३।। शौरसेन्यां नन्वर्थ णमिति निपातः प्रयोक्तव्यः।। णं अफलोदया। णं अय्य मिस्सेहिं पुढमं य्येव आणत्त।। णं भवं मे अग्गदो चलदि।। आर्षे वाक्यालंकारेपि दृश्यते। नमोत्थु ण।। जया ण॥ तया ण।।
अर्थः-संस्कृत-अव्यय "ननु" के स्थान पर शौरसेनी-भाषा में "ण" अव्यय की आदेश प्राप्ति जानना चाहिये। इस "णं" अव्यय के चार अर्थ क्रम से इस प्रकार होते हैं:- (१) अवधारण अथवा निश्चय, (२) आशंका, (३) वितर्क
और (४) प्रश्न। इन चारों अर्थों में से प्रसंगानुसार उचित अर्थ की कल्पना कर लेनी चाहिये। उदाहरण इस प्रकार से है:- (१) ननु अफलोदया=णं अफलोदया मुझे राङ्गा है कि यह फलोदय वाली नहीं है ननु आर्यमिक्षैः प्रथमम्भिव आज्ञप्रभ=णं अय्य मिस्सेर्हि पढमं य्येव आणत्तं ही पज्य परूषों द्वारा (यह बात) पहिले ही फरमा दी गई है। भवान् मम (अथवा मे) अग्रतः चलति=णं भवं मे अग्गदो चलदि-निश्चय ही आप मेरे से आगे चलते है।। ___ 'ण' अव्यय आर्ष प्राकृत में "वाक्यालंकार" रूप में भी प्रयुक्त किया जाता हुआ देखा जाता है। ऐसी स्थिति में यह "ण" अव्यय अर्थ रहित ही होता है और केवल शोभा-रूप में ही इसकी उपस्थिति रहती है। जैसे:नमोऽस्तु नमोत्थु णं नमस्कार प्रणाम होवे। इसी उदाहरण में 'ण" अर्थ शून्य है और केवल शोभा रूप से ही है। (२) यदा तदा-जयाणं, तयाणं-जब तब। यहाँ पर भी “णं' अव्यय केवल शोभा के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। यों अन्यत्र भी इस "णं" अव्यय की स्थिति को स्वयमेव समझ लेना चाहिये।।४-२८३।।
अम्महे हर्षे।।४-२८४।। शौरसेन्याम् अम्महे इति निपातो हर्षे प्रयोक्तव्यः।। अम्महे एआए सुम्मिलाए सुपलिगढिदो भव॥
अर्थः- 'हर्ष व्यक्त करना हो तब शौरसेनी भाषा में 'अम्महे' ऐसे अव्यय-शब्द का प्रयोग किया जाता है। 'अम्महे' ऐसा शब्द बोलने पर सुनने वाला समझता है कि वक्ता प्रसन्नता प्रकट कर रहा है- खुशी जाहिर कर रहा है। जैसे:- आहा! (ओहो) एतयासुर्मिलया सुपरिगृहीतः भवान् अम्हे एआए सुम्मिलाए सुपलिगढिदो भवं प्रसन्नता की बात है कि इस सूर्मिला (स्त्री विशेष) से आप भली प्रकार से ग्रहण किये गये है।। यों यह हर्षेद्योतक एवं रूढ अर्थक अव्यय है।।४-२८४ ।।
ही ही विदूषकस्य।।४-२८५।। - शौरसेन्याम् ही ही इति निपातो विदूषकाणां हर्षे द्योत्ये प्रयोक्तव्यः।। ही ही भो संपन्ना मणोरधा पिय-वयस्सस्स।
अर्थः- विदूषक-जन अर्थात् राजा के साथ रहने वाला मसखरा-(व्यक्ति-विशेष) जब हर्ष प्रकट करता है तो वह 'ही ही' ऐसा शब्द बोलता है। विदूषक द्वारा 'ही ही' ऐसा बोलने पर सुनने वाले समझ जाते हैं कि यह अपना हर्ष प्रकट कर रहा है। जैसे:- अहो! अरे! अरे! संपन्ना मनोरथाः प्रियवयस्यस्य ही ही भो संपन्ना मणोरधा पिय-वयस्सस्स आहा! आहा! प्रिय मित्र के मनोरथ (मन की भावनाएँ) परिपूर्ण हो गये (अथवा हो गई) हैं।। यों 'ही ही' अव्यय का हर्षद्योतक रूढ अर्थ है। यह अव्यय केवल विदूषक-जनों द्वारा ही प्रयुक्त किया जाता है।।४-२८५।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 295
शेष प्राकृतवत्।।४-२८६।। शौरसेन्यामिह प्रकरणे यत्कार्यमुक्त ततोन्यच्छोरसेन्यां प्राकृतवदेव भवति।। दीर्घहस्वौ मिथो वृत्तौ (१-४) इत्यारभ्य तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य (४-२६०) एतस्मात् सूत्रात् प्राग् यानि सूत्राणि एषु यान्युदाहरणानि तेषु मध्ये अमूनि तदवस्थान्येव शौरसेन्यां भवन्ति, अमूनि पुनरेव विधानि भवन्तीति विभागः प्रतिसूत्रं स्वयमभ्यूह्य दर्शनीयः।। यथा। अन्दावेदी। जुवदि जणो। मणसिला। इत्यादि।। __अर्थः- यह सूत्र सर्व-सामान्य रूप से यह बतलाता है कि शौरसेनी भाषा के लगभग सभी नियम प्राकृत भाषा के समान ही होते है।। जो कुछ भी अन्तर परस्पर में है वह अन्तर सूत्र-संख्या ४-२६० से आरम्भ करके सूत्र-संख्या ४-२८५ के अन्तर्गत प्रदर्शित कर दिया गया है और शेष सभी नियम प्राकृत-भाषा के समान ही जानना; तदनुसार सूत्र-संख्या १-४ से प्रारम्भ करके सूत्र-संख्या ४-२५९ तक के विधि-विधानों को शौरसेनी-भाषा के लिये भी कल्पित कर लेना। यों प्रत्येक सूत्र में प्रदर्शित परिवर्तन जैसा प्राकृत-भाषा के लिये वैसा ही शौरसेनी भाषा के लिये भी स्वयमेव समझ लेना चाहिये।
शौरसेनी भाषा का मूल आधार प्राकृत भाषा ही है, और इसीलिये संस्कृत भाषा से प्राकृत-भाषा की तुलना करने में जिन नियमों का तथा जिन विधि-विधानों का प्रयोग एवं प्रदर्शन किया जाता है उन्हीं नियमों का तथा उन्ही विधि-विधानों का प्रयोग एवं प्रदर्शन भी शौरसेनी भाषा के लिये किया जा सकता है। सूत्र-संख्या ४-२६० से ४-२८५ तक में वर्णित भिन्नता का स्वरूप स्वयमेव ध्यान में रखना चाहिये। कुछ एक उदाहरण यों हैं:संस्कृत
प्राकृत शौरसेनी
हिन्दी अन्तर्वेदि:=
अन्तावेइअन्तावेदी
मध्य की वेदिका। युवति-जनः
जुवइ-अणो= जुवदि-जणो=
जवान स्त्री-पुरूष। मनः शिला
मणसिला मणसिला
मैनशील एक उपधातु यों प्राकृत-भाषा के और शौरसेनी भाषा के एक ही जैसे शब्दों में पूर्ण साम्य होते हुए भी जो यत्-किञ्चित् अन्तर दिखलाई पड़ रहा है, उसका समाधान भी सूत्र-संख्या ४-२६० से लगाकर सूत्र-संख्या ४-२८५ तक में वर्णित विधि-विधानों से कर लेना चाहिये। शेष सब कार्य प्राकृत के समान ही जानना।।४-२८६।।
इति शौरसेनी-भाषा-वितरण समाप्त
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296 : प्राकृत व्याकरण
अथ मागधी-भाषा व्याकरण प्रारम्भ
अत एत् सौ पुसि मागध्याम्॥४-२८७॥ मागध्यां भाषायां सौ परे अकारस्य एकारो भवति पुसि पुल्लिगे। एष मेषः एषे मेषे॥ एषे पुलिषे। करोमि भदन्त। करेमि भन्ते।। अत इति किम् णिही। कली। गिली।। पुंसीति किम् जल।। यदपि "पोराण मद्ध-मागह-भासा-निययं हवइ सुत्त" इत्यादिनार्षस्य अर्धमागध भाषा नियतत्वमाम्नायि वृद्धस्तदपि प्रायोस्यैव विधान्न वक्ष्यमाण लक्षणस्य।। कयरे आगच्छइ।। से तारिसे दुक्खसहे जिइन्दिए। इत्यादि।।। __ अर्थ:-मागधी भाषा में अकारान्त पुल्लिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में "सु" प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य 'अकार' की 'एकार' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- एष मेष:-एशे मेशे यह भेड़। एषः पुरूषः एशे पुलिशे यह आदमी। करोमि भदन्त-करेमि भन्ते हे पूज्य! मैं करता हूँ। इन उदाहरणों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में और संबोधन के एकवचन में "एकार" की स्थिति स्पष्टतः प्रदर्शित की गई है।
प्रश्नः- 'अकारान्त' में ही प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'एकार' की स्थिति क्यों कही गई है ?
उत्तर:- जो शब्द पुल्लिंग होते हुए भी अकारान्त नहीं है, उनमें प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर "एकार" की प्राप्ति नहीं पाई जाती है इसलिये अकारान्त के लिये ही ऐसा विधान किया गया है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) निधिः-णिही-खजाना (२) करिः कली-हाथी (३) गिरिः-गिली-पहाड़ इत्यादि। इन उदाहरणों से ज्ञात होता है कि ये इकारान्त हैं, इसलिये इनमें प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "सु" के स्थान पर "एकार" की प्राप्ति नहीं हुई है; यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।
प्रश्न :- पुल्लिंग में 'एकार' की प्राप्ति होती है, ऐसा क्यों कहा गया? ।
उत्तर- जो शब्द अकरांत होते हुये भी पुल्लिंग नहीं है तो उन शब्दों में भी प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर 'एकार' की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:- जलम् जलं-पानी। इस उदाहरण में "जल" शब्द अकारान्त होते हुए भी पुल्लिग नहीं होकर नपुंसकलिंग वाला है इसलिये इस शब्द में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में "जले" नहीं होकर "जलं" रूप ही बना है। यों अन्य अकारान्त नपुंसकलिंग वाले शब्दों के संबंध में भी यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिये।
आर्षवादी वृद्ध पुरूषों की ऐसी मान्यता है कि "अर्ध मागधी भाषा सुनिश्चित है, अत्यंत पुरानी है और इसलिये इसके नियमों का विधान करने की आवश्यकता नहीं है।। यह बात अपेक्षा विशेष से भले ही ठीक हो, परन्तु इस विषय में हमारा इतना ही निवेदन है कि हम भी प्रायः उन्ही रूपो। का विधान करते हैं और उन्ही के अनुकूल नियमों का निर्धारण करते है, जो कि अर्ध मागधी भाषा के साहित्य में उपलब्ध हैं; अतः पुराणवादियों के मत से प्रतिकूल बात का विधान नहीं किया जा रहा है। जैसे:- कतरः आगच्छति-कयरे आगच्छइ-दो में से कौन आता है? (२) स तादृशः दुःखसहः जितेन्द्रियः-से तारिसे दुक्खसहे जिइन्दिए वह जैसा इन्द्रियों को जीतने वाला है वैसा ही दुःखों को भी सहन करने वाला है। इन उदाहरणों में यह प्रदर्शित किया गया है कि जो पद अकारान्त पुल्लिग वाले हैं उन सब में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सु' प्रत्यय के स्थान पर 'एकार' की ही प्राप्ति प्रदर्शित की गई है; यों 'अर्ध-मागधी' भाषा में उपलब्ध स्वरूप का ही समर्थन किया गया है और इसी की पुष्टि के लिये ही इस सूत्र का निर्माण किया गया है। यों प्राचीन मान्यता को ही संरक्षण प्रदान किया गया है। अतः इसमें विरोध का प्रश्न ही नहीं है।।४-२८७।।
र-सोर्ल-शौ।।४-२८८॥ मागध्यां रेफस्य दन्त्य सकारस्य च स्थाने यथा संख्यं लकारः तालव्य शकारश्च भवति।। ।। नले। कले।। सा हंशे। शुद।। शोभण।। उभयोः शालशे। पुलिशे।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 297
लहश-वश-नमिल शुल-शिल-विअलिद-मन्दाल-लायिदहियुगे।। वील-यिणे पक्खालदु मम शयलम वय्य-यम्बाल।।१।।
अर्थः-मागधी भाषा में रेफरूप 'रकार' के स्थान पर और दन्त्य 'सकार' के स्थान पर क्रम से 'लकार' और तालव्य 'शकार' की प्राप्ति हो जाती है। उदाहरण इस प्रकार है:- 'रकार' से 'लकार' की प्राप्ति का उदाहरण:नरः=नले-मनुष्य। कर:=कले हाथ। 'सकार' से 'शकार' की प्राप्ति का उदाहरणः- हंसः हंशे-हंस पक्षी। सुतम्-शुदं लड़के को। सोभनम् शोभण-सुन्दर।। यदि एक ही पद में दो 'सकार' आ जाये तो भी उन दोनों 'सकारों के स्थान पर 'शकारों की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- सारसः=शालशे सारस जाति का पक्षी विशेष। पुरूषः-पुलिशे।। मनुष्य। 'पुरूष' उदाहरण से यह भी ज्ञात होता है कि मागधी-भाषा में मूर्धन्य 'षकार' के स्थान पर भी तालव्य 'शकार' की प्राप्ति हो जाया करती है। ___ ऊपर सूत्र की वृत्ति में जो गाथा उद्धृत की गई है उसमें यह बतलाया गया है कि मागधी-भाषा में 'रकार' के स्थान पर 'लकार' की, 'सकार' के स्थान पर 'शकार' की, 'तकार' के स्थान पर 'दकार' की, 'जकार' के स्थान पर 'यकार' की और 'द्य' संयुक्तव्यञ्जन के स्थान पर द्वित्व 'य्य' की क्रम से प्राप्ति हो जाती है तथा प्रथमा विभक्ति में अकारान्त के स्थान पर एकारान्त की आदेश प्राप्ति हो जाती है।
वृत्ति में मागधी-गाथा का संस्कृत-अनुवाद इस प्रकार है:- रभस-वश-नम्र-सूर-शिरो-विगलित मन्दार-राजित-आध्रियुगः।। वीर-जिनः प्रक्षालयतु मम सकलमवद्यजम्बालम्।।१।। ___अर्थः- भक्ति के कारण वेग पूर्वक झुकते हुए देवताओं के मस्तकों से गिरते हुए मन्दार जाति के श्रेष्ठ फूलों से जिनके दोनों चरण शोभायमान हो रहे हैं, ऐसे भगवान् महावीर जिनेश्वर मेरे सम्पूर्ण पाप रूपी मैल का अथवा कीचड़ का प्रक्षालन कर दें अथवा दूर कर दे।।
उपर्युक्त वर्ण-परिवर्तन अथवा वर्ण-आदेश का स्वरूप क्रम से बतला दिया गया है, जो कि ध्यान देने योग्य है।।४-२८८।।
स-षोः संयोगे सोऽग्रीष्मे।।४-२८९।। __ मागध्यां सकार षकारयोः संयोगे वर्तमानयोः सो भवति, ग्रीष्मशब्दे तु न भवति। ऊर्ध्वलोपाद्यपवादः।। (स) पक्खलदि हस्ती। बुहस्पदी। मस्कली। विस्मये।। ष। शुस्कदालुं कस्ट।। विस्नु॥ शस्प-कवले। उस्मा। निस्फल।। धनुस्खण्ड।। अग्रीष्म इति किम् गिम्ह-वाशले।। __ अर्थः-मागधी-भाषा में संयुक्त रूप से रहे हुए हलन्त 'सकार' और हलन्त 'षकार' के स्थान पर हलन्त 'सकार' की प्राप्ति हो जाती है। परन्तु यह नियम 'ग्रीष्म' शब्द में रहे हलन्त 'षकार' के लिये लागू नहीं होती है। यों यह प्राप्त हलन्त 'सकार' ऊपर कहे हुए 'लोप आदि' विधियों की दृष्टि से अपवाद रूप ही समझा जाना चाहिये। हलन्त 'सकार' का उदाहरण इस प्रकार है:- (१) प्रस्खलति हस्ति= पक्खलदि हस्ती-हाथी गिरता है। (२) वृहस्पतिः=बुहस्पदी-देवताओं का गुरू। (३) मस्करी-मस्कली-उपहास। (४) विस्मय विस्मये आश्चर्य। इन उदाहरणों में हलन्त 'सकार' की स्थिति हलन्त रूप में ही रही है। अब हलन्त 'षकार' के उदाहरण यों है:- (१) शुष्कतालुम् शुष्क-दालु-सूखा तालु। (२) कष्टम् कस्टं-तकलीफ़ पीड़ा। (३) विष्णुम्-विस्नु-विष्णु की। (४) राष्प-कवल:-शस्प कवले घास का पास। (५) उष्मा उस्मा गरमी। (६) निष्फलं निस्फले-फलरहित, व्यर्थ। (७) धनुष् खण्डम् धनुस्खण्ड-धनुष का टुकड़ा। इन उदाहरणों में हलन्त 'षकार' को हलन्त 'सकार' की प्राप्ति हुई है। यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।
प्रश्न:- 'ग्रीष्म' शब्द में रहे हुए हलन्त 'षकार' को हलन्त 'सकार' की प्राप्ति क्यों नहीं हुई हैं ? उत्तरः- चूंकि संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'ग्रीष्म' शब्द का रूपान्तर मागधी भाषा में 'गिम्ह' ही देखा जाता है;
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298 : प्राकृत व्याकरण
इसलिये ग्रन्थ-कर्ता को भी 'ग्रीष्म' शब्द में रहे हुए हलन्त 'षकार' के लिये उपर्युक्त नियम के प्रतिकूल विधान करना पड़ा है। इसका उदाहरण इस प्रकार है:- ग्रीष्म वासरः गिम्ह वाशले-ग्रीष्म ऋतु का दिन। यों 'ग्रीष्म' का रूपान्तर 'गिम्ह' ही जानना।।४-२८९।।
ट-ष्ठयोस्टः।।४-२९०॥ द्विरुक्तस्य टस्य षकाराक्रान्तस्य च ठकारस्य मागध्यां सकाराक्रान्तः टकारो भवति।। पट्टा पस्टे। भस्टालिका। भस्टिणी।। ष्ठ। शुस्टु कद।। कोस्टागाल।। ___ अर्थः-संस्कृत भाषा के शब्दों में उपलब्ध द्वित्व 'ट्ट' के स्थान पर और हलन्त 'षकार' सहित 'ठकार' के स्थान पर मागधी - भाषा में हलन्त 'सकार' सहित 'टकार' की प्राप्ति होती है। द्वित्व 'टकार' के उदाहरण यों हैं:- (१) पट्टः=पस्टे=पदार्थ विशेष (२) भट्टारिका-भस्टालिका भट्टार की स्त्री। भट्टिनी भस्टिणी भट्ट की स्त्री। 'ष्ठ' के उदाहरण इस प्रकार है:- (१) सुष्ठुकृतम्-शुष्टु-कदं-अच्छा किया हुआ। (२) कोष्ठागारम्=कोस्टागालं-धान्य आदि रखने का स्थान विशेष।।४-२९०।।
स्थ-र्थयोस्तः ॥४-२९१॥ स्थ, र्थ, इत्येतयोः स्थाने मागध्यां सकाराक्रान्तः तो भवति। स्थ। उवस्तिदे। शुस्तिदे।। र्थ। अस्त-वदी। शस्तवाहे॥
अर्थः- संस्कृत भाषा के शब्दों में उपलब्ध 'स्थ' एवं र्थ के स्थान पर मागधी भाषा में हलन्त 'सकार' पूर्वक 'तकार' की प्राप्ति होती है। 'स्थ' के उदाहरणः-(१) उपस्थितः उवस्तिदे-मौजूद-हाजिर, (२) सुस्थितः शुस्तिदे-अच्छी तरह से रहा हुआ। 'थ' के उदाहरण:- (१) अर्थवतिः = अस्त-वदी धन का मालिक। (२) सार्थवाहः-शस्तवाहे सद्-गृहस्थ अथवा बड़ा व्यापारी।।४-२९१।।
ज-द्य-यां-यः।।४-२९२।। मागध्यां जद्ययां स्थाने यो भवति॥ ज। याणदि। यणवदे। अय्युणे। दुय्यणे। गय्यदि। गुण-वय्यिदे॥ द्य। मय्य।। अय्य किल विय्याहले आगदे या यादि। यधाशुलूव।। याण-वत्त।। यदि।। यस्य यत्व-विधानम् आदेर्योजः (१-२४५) इति बाधनार्थम्।
अर्थः- संस्कृत भाषा के शब्दों में उपलब्ध 'ज', 'द्य' और 'य' के स्थान पर मागधी भाषा में 'य' की प्राप्ति होती है। 'ज' के उदाहरण:- (१) जानाति-याणदि, वह जानता है। (२) जनपदः=यणवदे-प्रान्त का कुछ भाग विशेष-परगना, तहसील। (३) अर्जुनः अय्युणे-पाणडु पुत्र, महाभारत का नायक (४) दुर्जनः दुय्यणे-दुष्ट पुरूष। (५) गर्जति=गय्यति गर्जता है। (६) गुणवर्जितः गुण-वय्यिदे-गुणों से रहित।। 'ध' के उदाहरणः- (१) मद्यं मय्यं शराब। (२) अद्य किल=अय्य किल=निश्चय ही आज। (३) विद्याधरः आगतः विय्याहले आगदे-विद्याघर (देवता विशेष) आ गया है।। 'य' के उदाहरणः- (१) याति=यादि जाता है। (२) यथासरूपम्=यधा शलूवं समान रूप वाला। (३) यानवर्तम्=याणवत्तं वाहन विशेष का होना। (४) यति यदि-संन्यासी
इसी व्याकरण के प्रथम पाद में सूत्र-संख्या २४५ में 'आदेोजः के विधानानुसार यह बतलाया गया है कि संस्कृत भाषा के शब्दों में यदि आदि में 'यकार' हो तो उसके स्थान पर 'जकार' की प्राप्ति हो जाती है; इस विधान के प्रतिकूल मागधी-भाषा में 'यकार' के स्थान पर 'यकार' ही होता है, 'जकार' नहीं होता है; ऐसा बतलाने के लिये ही इस सत्र में 'ज' और 'घ' के साथ-साथ 'य' भी लिखा गया है जो कि ध्यान में रखने के योग्य है। यों यह सत्र उक्त-संख्या १-२४५ के प्रतिकूल है अथवा अपवाद स्वरूप है; यह भी कहा जा सकता है। जैसे:- यतिः यदी-साधु अथवा संन्यासी।।४-२९२।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 299
न्य–ण्य-ज्ञ जां वः।।४-२९३।। मागध्यां न्य-ण्य-ज्ञ-च इत्येतेषां द्विरुक्तो बो भवति।। न्य। अहिमचु-कुमाले। अचदिश।। शामब-गुणे। कचका-वलण।। ण्य। पुचवन्ते। अबम्हच॥ पुजाह।। पुच।। ज्ञ। पञाविशाले। शव्वये। अवच।।
च अञ्जली धुणचए। पचले। ___ अर्थः- संस्कृत भाषा के शब्दों में रहे हुए 'न्य, ण्य, ज्ञ, ज' के स्थान पर मागधी भाषा में द्वित्व 'ब' की प्राप्ति होती है। जैसे:- 'न्य' के उदाहरणः- (१) अभिमन्यु-कुमार:=अहिम कुमाले-अर्जुन नामक पांडव का पुत्र।, (२) अन्य दिशम् अझ दिशं दूसरी दिशा को। (३) सामान्यगुणः-शाम गुणे साधारण गुण। (४) कन्यका वरणं कम्ञका वलण-पुत्री की सगाई करने सम्बन्धी वाक्य विशेष।। ‘ण्य' के उदाहरण:- (१) पण्यवन्तः पञ्चवन्ते-पण्यवाले अच्छे कर्मो वाले। (२) अब्रहमण्यम अबम्हचं ब्राह्मण के आचरण करने के योग्य नही।। (३) पुण्याहम् पुञा आशीर्वाद और (४) पुण्यम् पूछ-पवित्र काम; शुभ कार्य। 'ज्ञ' के उदाहरणः- (१) प्रज्ञाविशाल:=पचाविशाले विशाल बुद्धि वाला। (२) सर्वज्ञः शव्वछे सब कुछ जानने वाला। (३) अवज्ञा=अवज्ञा तिरस्कार, अनादर। 'च' के उदाहरणः- अञ्जलि-अञ्चली-हथेली से निर्मित पुट विशेष (२) धनञ्जयः-धणञ्चय अर्जुन पांडु-पुत्र। (३) पञ्जरः पञ्चले-शस्त्र विशेष।।४-२९३।।
व्रजो जः।।४-२९४॥ मागध्यां व्रजेर्जकारस्य वो भवति।। यापवादः।। वझदि।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में रही हुई धातु 'व्रज' के 'ज' व्यञ्जन के स्थान पर मागधी-भाषा में द्वित्व 'ज' की प्राप्ति होती है। यों यह नियम उपर्युक्त सूत्र-संख्या ४-२९२ के लिये अपवाद स्वरूप समझा जाना चाहिये। उदाहरण यों है:- व्रजति-वचदि-वह जाता है।।४-२९४।।।
छस्य श्चोनादौ।।४-२९५॥ मागध्यामनादौ वर्तमानस्य छस्य तालव्य शकाराक्रान्तः चो भवति।। गश्च गश्च।। उश्चलदि। पिश्चिले। पुश्चदि।। लाक्षणिकस्यापि। आपन्न-वत्सलः। आवन्न-वश्चले॥ तिर्यक प्रेक्षते। तिरिच्छि पेच्छड। तिरिधि श्चि पेस्कदि। अनादाविति किम्। छाले।। अर्थः- संस्कृत भाषा में यदि किसी भी पद में छकार आदि अक्षर के रूप में नहीं रहा हुआ हो और हलन्त
में भी नहीं हो तो उस 'छकार' के स्थान पर मागधी भाषा में हलन्त तालव्य 'शकार' के साथ-साथ 'चकार' की प्राप्ति होती है। यों अनादि 'छकार' के स्थान पर 'श्व की प्राप्ति मागधी-भाषा में जाननी चाहिये। जैसे:- (१) गच्छ, गच्छ= गश्च, गश्च जाओ, जाओ। (२) उच्छलतिउश्चलदि वह उछलता है। (३) पिच्छिलः-पिश्चिले पंख वाला। (४) पृच्छति-पुश्चदि-वह पूछता है।
व्याकरण के नियमानसार संस्कत-भाषा से प्राकत भाषा में भी यदि किसी व्यञ्जन के स्थान पर 'छकार' की प्राप्ति हई हो तो उस स्थानापन्न 'छकार' के स्थान पर भी मागधी-भाषा में हलन्त तालव्य शकार सा की-अर्थात् 'श्च' की प्राप्ति हो जाया करती है। जैसे :- (१) आपन्न-वत्सल := आवण्ण-वच्छलो = आवन्न-वश्चले जिसको प्रेम-भावना की प्राप्ति हुई हो वह। (२) तिर्यक् प्रेक्षते-तिरिच्छ पेच्छइ-तिरिश्चि पेस्कदि वह टेढ़ा देखता है।
प्रश्न:- 'अनादि' में रहे हुए 'छकार' के स्थान पर ही 'श्च' की प्राप्ति होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तर:- क्योंकि यदि 'छकार' व्यञ्जन 'शब्द के आदि में रहा हआ होगा तो उस 'छकार' के स्थान पर 'श्च' की प्राप्ति नहीं होगी। जैसेः- क्षारः-छारो-छाले जलने के पश्चात् बचा हुआ क्षार अथवा खार पदार्थ विशेष। यों आदि 'छकार' को 'श्च' की प्राप्ति नहीं है।।४-२९५।।
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300 : प्राकृत व्याकरण
क्षस्य कः।।४-२९६॥ मागध्यामनादौ वर्तमानस्य क्षस्य को जिहामूलीयो भवति।। य के ल-कशो। अनादावित्येव॥ खय-यल-हला-क्षय जलधरा इत्यर्थः।।
अर्थः- संस्कृत-भाषा में अनादि रूप से रहे हुए 'क्ष' के स्थान पर मागधी-भाषा में 'जिव्हामूलीय 'क' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- (१) यक्षः=य के-यक्ष जाति का देवता विशेष। (२) राक्षसः ल करो-राक्षस, बाण-व्यन्तर जाति का देव विशेष।
प्रश्नः- अनादि रूप से रहे हुए 'क्ष' के स्थान पर ही मागधी-भाषा में 'जिव्हामूलीय क' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि 'क्षकार' अनादि में नहीं होकर आदि में रहा हुआ हो तो उसके स्थान पर मागधी-भाषा में 'जिह्वामूलीय क' की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:- क्षय-जलधराः खय-यलहला=नष्ट हुए बादल। यहां पर आदि क्षकार को खकार की प्राप्ति हुई है।।४-२९६।।
स्कः प्रेक्षाचक्षोः॥४-२९७।। मागध्यां प्रेक्षेराचक्षेश्च क्षस्य सकाराक्रान्तः को भवति।। जिव्हामूलीयापवादः।। पेस्कदि। आचस्कदि।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा के 'प्रेक्ष' और 'आचक्ष' में स्थित 'क्षकार' के स्थान पर मागधी-भाषा में हलन्त 'सकार' सहित 'ककार' की प्राप्ति होती है। यह सूत्र उपर्युक्त सूत्र-संख्या ४-२९६ के प्रति अपवाद स्वरूप सूत्र है। उदाहरणों यों है:- (१) प्रेक्षते-पेस्कदि वह देखता है। (२) आचक्षते आचस्कदि वह कहता है।।४-२९७।।
तिष्ठ श्चिष्ठः।।४-२९८॥ मागध्यां स्थाधातोर्यस्तिष्ठ इत्यादेशस्तस्य चिष्ठ इत्यादेशो भवति।। चिष्ठदि।
अर्थः- संस्कृत-धातु 'स्था' के स्थान पर 'तिष्ठ' का आदेश होता है और उसी आदेश प्राप्त 'तिष्ठ' धातु-रूप के स्थान पर मागधी-भाषा में 'चिष्ठ' धातु रूप की आदेश प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- तिष्ठति-चिष्ठदि-वह बैठता है।।४-२९८।।
अवर्णाद्वा उसो डाहः।।४-२९९।। मागध्यामवर्णात् परस्य उसो डित् आह इत्यादेशो वा भवति।। हगे न एलिशाह कम्माह काली। भगदत्त-शोणिदाह कुम्भे। पक्षे भीमशेणस्स पश्चादो हिण्हीअदि। हिडिम्बाए घडुक्कयशोकेण उवशमदि।।
अर्थः- मागधी-भाषा में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में अथवा नपुंसकलिंग में प्राप्तव्य प्रत्यय 'उस्-स्स' के स्थान पर विकल्प से 'डाह-आह' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है। सूत्र में उल्लिखित 'डाह' प्रत्यय में स्थित 'डकार' से संज्ञा शब्दों में स्थित अन्त्य 'अकार' की इत् संज्ञा अर्थात् लोप-स्थिति प्राप्त होती है। ऐसा तात्पर्य प्रदर्शित है। उदाहरण यों है-(१) अहम् न ईदृशः कर्मणःकारी-हगे न एलिशाह कम्माह काली=मैं इस प्रकार के कर्म का करने वाला नहीं हूँ। (२) भगदत्तशोणितस्य कुम्भः=भगदत्त-शोणिदाह कुम्भे-भगदत्त नामक व्यक्ति-विशेष के रक्त का (यह) घड़ा है। इन उदाहरणों में 'एलिशाह, कम्माह और शोणिदाह' षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'स्स' के स्थान पर 'आह' लिखा गया है। वैकल्पिक स्थिति होने से पक्षान्तर में 'स्स' प्रत्यय भी होता है। जैसे:- (१) भीमसेनस्य पश्चात् हिण्डयते भीमशेणस्स पश्चादो हिण्डीअदि=भीमसेन के पीछे-पीछे घूमता है।। (२) हिडिम्बायाः घटोत्कचशोकः न उपशाम्यति हिडिम्बाए घडक्कयशोकेण उवशकमदि-हिडिम्बा राक्षसिंण का (उसके पुत्र) घटोत्कच-(के मृत्यु का) शोक शान्त नहीं होता है। इन उदाहरणों में से प्रथम उदाहरण में भीमशेणाह'
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 301 नहीं बतला कर 'भीमशेणस्स' ऐसा रूप प्रदर्शित किया गया है। द्वितीय उदाहरण में 'हिडिम्बाह' नहीं लिखकार 'हिडिम्बाए' लिखा गया है; जो यह सूचित करता है कि स्त्रीलिंग शब्दों में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'आह' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है। यों 'आह और स्स' प्रत्ययों की वैकल्पिक-स्थिति को समझ लेना चाहिये।।४-२९९।।
आमो डाह वा॥४-३००। मागध्यामवर्णात् परस्य आमोनुनासिकान्तोडित् आहादेशो वा भवति।। शय्यणाहँ सुह।। पक्षे। नलेन्दाण॥ व्यत्ययात् प्राकृतेपि ताहँ। तुम्हाहँ। अम्हाहँ। सरिआहँ। कम्माहँ।।
अर्थः- मागधी-भाषा में अकारान्त पुल्लिग अथवा नपुंसकलिंग वाले शब्दों में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ण' अथवा 'ण' के स्थान पर विकल्प से अनुनासिक सहित 'डाहँ' -आह की प्राप्ति होती है। सूत्र में उल्लिखित 'डाहँ में स्थित 'डकार' इत्संज्ञावाचक होने से 'आह' प्रत्यय लगने के पहिले अकारान्त शब्दों के अन्त्य 'अकार' का लोप हो जाता है। तदनुसार केवल 'आह' प्रत्यय की ही प्राप्ति होती है। उदाहरण यों है:सज्जनानाम् सुखम् शय्यणाहँ सुहं सज्जन पुरूषों का सुख। वैकल्पिक पक्ष होने से षष्ठी-विभक्ति बोधक प्रत्यय 'ण अथवा णं' का उदाहरण भी यों है:- नरेन्द्रणाम्नलिन्दाणं-राजाओं का। मागधी-भाषा में प्रत्यय 'आह' कभी-कभी प्राकृत-भाषा में भी देखा जाता है। ऐसी स्थिति को 'व्यत्यय' स्थिति कही जाती है। प्राकृत भाषा के उदाहरण इस प्रकार हैं:- (१) तेषां ताहँ उनका अथवा उनके। (२) युष्माकम्=तुम्हाहँ-तुम्हारा, तुम्हारे; आपका-आपके। (३) अस्माकम् अम्हाहँ हमारा, हमारे। (४) सरिताम्=सरिआहँ-नदियों का। (५) कर्मणाम्-कम्माहँ कर्मों का-कार्यो का। यों मागधी का प्रभाव प्राकृत-भाषा में भी देखा जाता है।।४-३००।।
अहं वयमोहगे।।४-३०१॥ मागध्यामहं वयमोः स्थाने हगे इत्यादेशो भवति।। हगे शक्कावदालतिस्त-णिवासी धीवले। हगे शंपत्ता।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में उपलब्ध उत्तम पुरूषवाचक सर्वनाम रूप 'अहम् और वयम्' के स्थान पर मागधी भाषा में केवल एक ही रूप 'हगे' की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:- अहम् शकावतार तीर्थनिवासी धीवरः= (१) हगे शक्कावदालतिस्त-णिवाशी धीवले-शक्रावतार नामक तीर्थ का रहने वाला मैं मच्छीमार हूँ। (२) वयम् संप्राप्ताः-हगे शंपत्ता-हम (सब) आनन्द पूर्वक पहुंच गये है।। यों इन दोनों दृष्टान्तों में 'अहम् और वयम्' के स्थान पर 'हगे' रूप की आदेश-प्राप्ति हुई है।।४-३०१।।।
शेषं शौरसेनीवत्।।४-३०२॥ मागध्यां यदुक्तं ततोन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम्। तत्र तो दोनादो शौरसेन्यामयुक्तस्य-(४-२६०)।। पविशदु आवुत्तेशामि-पशादाय।। अधः क्वचित्-(४-२६१)।। अले कि एशे महन्दे कलयले।। वादेस्तावति (४-२६२)। मालेध वा धलेध वा। अयं दाव शे आगमे।। आ आमन्त्र्ये सौ वे नो नः(४-२६३)। भो कञ्चुइआ।। मो वा (४-२६४) भो राय॥ भवद्गवतोः (४-२६५) एदु भवं शमणे भयवं महावीले। भयवं कदन्ते ये अप्पणो प कं उज्झिय पलस्स प:कं पमाणी कलेशि।। नवार्योय्यः (४-२६६)।। अय्य एशे खु कुमाले मलयकेदू।। थो घः (४-२६७)।। अले कुम्भिला कधेहि।। इह हचोर्हस्य (४-२६८) ओ शल ध अय्या ओशल ध।। भुवो भः (४-२६९)।। भोदि।। पूर्वस्य पुरवः (४-२७०)। अपुरवे।। क्त्व इय दूणो (४-२७१)। किं खु शोभणे ब्रह्मणे शित्ति कलिय लबा पलिग्गहे दिण्णे।। क-गमो डडअः (४-२७२) कडुआ। गड्। दिरिचे चौः (४-२७३)। अमच्च ल कशं पिक्खिदु इदोय्येव आगश्चदि।। अतोदेश्च (४-२७४)।। अले किं एशे महन्दे कलयले शुणीअदे।। भविष्यति स्सिः (४-२७५)।। ता कहिंनुकदे लुहिलप्पिए भविस्सिदि।। अतोङसेर्डा दो डादू (४-२७६)। अहं पि भागुलायणादो मुदं पावेमि।। इदानीमो दाणिं (४-२७७)। शुषध दाणिं हगे शक्कावयालतिस्त-णिवाशी
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302 : प्राकृत व्याकरण
धीवले।। तस्मात्ताः (४-२७८)।। ता याव पविशामि।। मोन्त्याण्णो वेदेतोः (४-२७९)।। युत्तं णिम।। शलिशं णिम।। एवार्थेय्येव (४-२८०)। मम य्येव।। हजे चेटयाह्वाने (४-२८१)। हजे चदुलिके।। हीमाणहे विस्मय-निर्वेदे (४-२८२)॥ विस्मये। यथा उदात्तराधवे। राक्षसः हीमाणहे जीवन्त-वश्चा मे जणणी। निर्वेदे।। यथा विक्रान्तभीमे। राक्षसः हीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एदेण निय-विधिणो दुव्ववशिदेण।। णं नन्वर्थे (४-२८३)।। णं अवशलोपशप्पणीया लायाणो॥ अम्म हे हर्षे (४-२८४)।। अम्महे एआए शुम्मिलाए शुपलिगढिदे भव।। ही ही विदूषकस्य (४-२८५)॥ ही ही संपन्ना मे मणोलधा पियवयस्सस्स। शेषं प्राकृतवत् (४-२८६)। मागध्यामपि दीर्घ हस्वौ मिथो वृत्तौ (१-४) इत्यारम्भ तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य (४-२६०) इत्यस्मात् प्राग् यानि सूत्राणि तेषु यानि उदाहरणानि सन्ति तेषु मध्ये अमूनि तद वस्थान्येव मागध्याममूनि पुनरेवं विधानि भवन्तीति विभागः स्वयमभ्यूह्य दर्शनीयः।।
अर्थः- मागधी-भाषा में 'प्राकृत और शौरसेनी' के अतिरिक्त जो कुछ परिवर्तन अथवा रूपान्तर होता है वह ऊपर सूत्र-संख्या (४-२८७) से (४-३०१) में व्यक्त कर दिया गया है। शेष परिवर्तन के संबंध में इस सूत्र में और इसकी वृत्ति में कह दिया गया है कि-अन्य सभी प्रकार का परिवर्तन संस्कृत से मागधी में रूपान्तर करने की दशा में प्राकृत-भाषा में तथा शौरसेनी-भाषा में वर्णित परिवर्तन सम्बन्धी नियमों के अनुसार जानना चाहिये। इस प्रकार के संकेत के साथ-साथ 'प्राकृत तथा शौरसेनी' में वर्णित कुछ मूल सूत्रों के साथ उदाहरण भी वृत्ति में दिये हैं; जिन्हें मैं हिन्दी-अर्थ-पूर्वक निम्न प्रकार से लिख देता हूँ:(१) सूत्र-संख्या ४-२६० में बतलाया है कि 'तकार' का 'दकार' होता है तदनुसार मागधी-भाषा का उदाहरण
इस प्रकार है:- प्रविशतु आयुक्तः स्वामि-प्रसादाय-प्रविशदु आवुत्ते शामिपशादाय-स्वामी की प्रसन्नता के
लिये सचेष्ट प्रवेश करो।। (२) सूत्र-संख्या ४-२६१ में कहा गया है कि हलन्त व्यञ्जन के पश्चात् रहने वाले 'तकार' का भी 'दकार हो जाता
है। जैसे:- अरे! किम् एष महान्तः करतलः-अले! किं एश महन्दे कलयले-क्या यह महान् हथेली है ? (३) सूत्र-संख्या ४-२६२ में लिखा गया है कि 'तावत् अव्यय के आदि 'तकार' के स्थान पर वैकल्पिक रूप
से 'दकार' की प्राप्ति होती है। जैसे:- अयम् तावत् तस्य आगमः; (अधुना) मारयत वा धारयत वा-अयं दाव शे आगमे, (अहुणा) मालेध वा धालेध वा-यह उसका आगमन हो गया है; (अब) मारो अथवा रक्षा
करो। यों 'तावत्' के स्थान पर 'दाव' रूप की प्राप्ति हुई है। (४) सूत्र-संख्या ४-२६३ में संकेत किया गया है कि 'इन्' अन्त वाले शब्दों के संबोधन के एकवचन में 'स्'
प्रत्यय परे रहने पर अन्त्य 'नकार' के स्थान पर विकल्प से 'आकार' की प्राप्ति होती है। जैसे:- भो
कञ्चुकिन्!=भो! कञ्चुइआ अरे कञ्चूकी।। (५) सूत्र संख्या ४-२६४ में यह उल्लेख किया गया है कि-'नकारान्त' शब्दों के एकवचन में 'स' प्रत्यय परे
रहने पर अन्त्य 'नकार' के स्थान पर विकल्प से 'मकार' की प्राप्ति होती है। जैसे:- भो राजन् ! भो रायं-हे
राजा॥ (६) सूत्र-संख्या ४-२६५ में यह प्रदर्शित किया गया है कि-'भवत्' और 'भगवत्' शब्दों के प्रथमा विभक्ति
के एकवचन में 'स्' प्रत्यय प्राप्त होने पर निर्मित पद 'भवान् और भगवान् के अन्त्य 'नकार' के स्थान पर 'मकार' की प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) एतु भवान् श्रमणः भगवान् महावीरः एदु भवं शमणे भयवं माहवीले आप महा प्रभु श्रमण महावीर पधारे है।। (२) भगवन् कृतान्त! य आत्मनः पक्षं त्यक्त्वा परस्य पक्षं प्रमाणी करोषि-हे भयवं कदन्ते! ये अप्पणो पकं उज्झिय पलस्स पकं पमाणी कलशि हे भगवान् यमराज! आप ऐसे हैं, जो कि अपने पक्ष को छोड़ करके दूसरे पक्ष को प्रमाण-स्वरूप करते हो।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 303
(७) सूत्र-संख्या ४-२६६ में यह कथन किया गया है कि शौरसेनी में 'र्य' के स्थान पर द्वित्व 'य्य' की विकल्प
से प्राप्ति होती है। जैसे:- आर्य! एषः खु कुमारः मलयकेतुः=अय्य! एशे खु कुमाले मलयकेदू-हे आर्य! ये
निश्चय ही कुमार मलयकेतु है।।। (८) सुत्र-संख्या ४-२६७ में यह विधान प्रविष्ट किया गया है कि शौरसेनी में विकल्प से 'थ' के स्थान पर
'ध' की प्राप्ति होती है। जैसे:- अरे कुम्भिरा कथय=अले कुम्मिला कधेहि अरे कुम्भिरा! कहो!! (१) सूत्र संख्या ४-२६८ में यह उल्लेख किया गया है कि "इह अव्यय के 'हकार के स्थान पर और वर्तमान कालीन मध्यम परूष के बहवचन के प्रत्यय'ह' के स्थान पर शौरसेनी में विकल्प से 'ध' होता है। जैसे:
अपसरत आर्या! अपसरत आशिलध अय्या है आर्यो! आप हटें; आप हटे।।। (१०)सूत्र-संख्या ४-२६९ में विधान किया गया है कि शौरसनी भाषा में 'भूभव्' धातु के 'भकार' को विकल्प
से 'हकार' की प्राप्ति होती है। अथवा प्राप्त 'हकार' को पुनः विकल्प से 'भकार' की प्राप्ति हो जाती है।
जैसे:- भवति=भोदि (अथवा होदि)-वह होता है। (११) सूत्र-संख्या ४-२७० में कहा गया है कि-शौरसेनी में 'पूर्व' शब्द के स्थान पर 'पुरव' ऐसी आदेश-प्राप्ति
विकल्प से होती है। जैसेः- अपूर्वः अपूरवे अनोखा, विलक्षण।। (१२) सूत्र-संख्या ४-२७१ में सूचित किया गया है कि शौरसेनी-भाषा में सम्बन्ध-कृदन्त सूचक प्रत्यय 'क्त्वा'
के स्थान पर 'इय और दूण' ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति विकल्प से होती है। जैसे:- किम् खलु शोभनः ब्राह्मणो ऽसि इति कृत्वा राज्ञा परिग्रहो दत्तः किं खु शोभणे ब्रह्मणे शि तित्त कलिय लबा पलिग्गहे दिण्णे-क्या निश्चय ही तुम श्रेष्ठ ब्राह्मण हो, ऐसा मान करके राजा द्वारा सम्मानित किये गये हो। यहां पर
'कलिय' पद में 'क्तवा' के स्थान पर 'इय' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुई है। (१३) सूत्र-संख्या-४-२७२ में यह उल्लेख है कि 'कृ' धातु और 'गम्' धातु में 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'डित्' पूर्वक (अन्त्य अक्षर के लोप पूर्वक) 'अडुअ' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति विकल्प से होती है। जैसे:
कृत्वा-कडुअ-करके।। गत्वा=गडुअ-जाकर के।। यो 'अडुअ' की प्राप्ति समझ लेनी चाहिये। (१४) सूत्र-संख्या ४-२७३ में कहा गया है कि-वर्तमानकाल के अन्य पुरूष के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' और 'ए' के स्थान पर 'दि' प्रत्यय रूप की प्राप्ति होती है। जैसे:-अमात्य-राक्षसं प्रेक्षित
इतः एवं आगच्छति-अमच्च-ल-कशं पिक्खिदु इदाय्येव आगश्रचदि-राक्षस नामक मंत्री को देखने के लिये इधर ही
वह आता है अथवा आ रहा है। यहां पर आगश्चदि में 'इ, ए' के स्थान पर 'दि' का प्रयोग हुआ है। (१५) सूत्र-संख्या ४-२७४ में यह समझाया गया है कि अकारान्त धातुओं में वर्तमानकाल के अन्य पुरूष के
एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ और ए' के स्थान पर 'दे' की भी प्राप्ति होती है। जैसे:- अरे! किम् एष महान्तः कलकल, श्रूयते=अले किं एशे महन्दे कलयले शुणीअंद=अरे ! यह बड़ा कोलाहल क्यों सुनाई दे
रहा है? इस उदाहरण में 'शुणीअदे' में 'दे' का प्रयोग हुआ है। (१६) सूत्र-संख्या ४-२७५ में यह सूचना की गई है कि शौरसेनी भाषा में भविष्यत्काल-अर्थक प्रत्ययों में 'हि,
स्सा और हा' के स्थान पर 'स्सि' रूप की प्राप्ति होती है। जैसेः- तदा कुत्र नु गतः रूधिरप्रियः भविष्यति-ता
कहिं नु गदे लुहिलप्पिए भविस्सिदि-उस समय में कहा गया हुआ ही रक्त का प्रेमी होगा।। (१७) सूत्र-संख्या ४-२७६ में यह बतलया गया है कि अकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'आदा
और आदु' ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- अहमपि भागुरायणात् मुद्राम् प्राप्तोमि-अहपि भागुलायणादो मुदं पावेमि=मैं भी भागुरायण से मुद्रा को प्राप्ति करता हूं। यहां पर 'भागुलायणादो' का रूप दिखलाया गया है।
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304 : प्राकृत व्याकरण
(१८) सूत्र-संख्या ४-२७७ में कहा गया है कि शौरसेनी भाषा में 'इदानीम्' के स्थान पर 'दाणिम्' ऐसे रूप
की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- श्रृणुत इदानीम् अहम् शक्रावतार-तीर्थ-निवासी धीवरः शृणध दाणिं हगे शक्कावयाल-तिस्त-णिवाशी धीवले-सुनो। इस समय में मैं शक्रावतार नामक तीर्थ का रहने वाला
घीवर हूँ। (१९) सूत्र-संख्या ४-२७८ में समझाया गया है कि शौरसेनी भाषा में 'तस्मात्' शब्द के स्थान पर 'ता' शब्द
रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- तस्मात् यावत् प्रविशामि-ता याव पविशामि-उस कारण से जब
तक में प्रवेश करता हूँ। (२०) सूत्र संख्या ४-२७९ में लिखा गया है कि शौरसेनी भाषा में पदान्त्य 'म्' के आगे यदि 'इकार' अथवा
'एकार' हो तो इन 'इकार' अथवा 'उकार' के पूर्व में विकल्प से हलन्त 'ण' की आगम प्राप्ति होती है। जैसेः- (१) युक्तम् इमम्=युत्तं णिमं-यह युक्त है-यह ठीक है। (२) सदर्श इम-शलिशं णिमं यह समान है।
इन उदाहरणों में 'इम' में पूर्व में 'णकार' की आगम प्राप्ति हुई है।। (२१) सूत्र-संख्या ४-२८० में सूचित किया गया है कि शौरसेनी-भाषा में 'एव' अर्थक अव्यय के स्थान पर
"य्येव' अव्यय रूप का प्रयोग किया जाना चाहिये। जैसे:- मम एव-मम य्येव-मेरा ही है। (२२) सूत्र-संख्या ४-२८१ में यह संविधान किया गया है कि शौरसेनी भाषा में दासी को पुकारने पर संबोधन
के रूप में 'हचे' शब्द रूप अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- अरे! चतुलीके-हब्बे चदुलिके=अरे!
ओ चतुरिका (दासी) (२३) सूत्र-संख्या ४-२८२ में यह कथन किया गया है कि 'आश्चर्य और खेद प्रकट करने के अर्थ में शौरसेनी
भाषा में 'हीमाणहे' ऐसे शब्द रूप अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- अहो जीवंतवत्सा मम जननी-हीमाणहे जीवन्तवश्चा मे! जीवन्त वत्सा मम जननी-हीमाणहे जीवन्त वश्चा में जणणी-आश्चर्य है कि मेरी माता मेरे पर जीवन पर्यप्त के लिये प्रेम-भावना रखने वाली है। यह कथन 'राक्षस' नामक एक पात्र उदात्तराघव नामक नाटक में व्यक्त करता है। यों 'हीमाणहे' अव्यय विस्मय अर्थ में कहा गया है। निर्वेद-खेद-अर्थक अव्यय के रूप में प्रयुक्त किये जाने वाले 'हीमाणहे' अव्यय का उदाहरण 'विक्रान्त-भीम नामक नाटक से आगे उद्धृत किया जा रहा है:- हा! हा!! परिश्रान्ताः वयम् एतेन निजविवे: दुर्व्यसितेन-हीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एदेण निय-विधिणो दुव्ववशिदेण-अरे! अरे! बड़े दुःख की बात है कि हम इस हमारे भाग्य के दुर्व्यवहार से-(खोटे तकदीर के कारण से) अत्यन्त परेशान हो गये है।। यह
उक्ति एक 'राक्षस' पात्र के मुँह से कहलाई गई है।। (२४) सूत्र-संख्या ४-२८३ में यह वर्णन किया गया है कि शौरसेनी में निश्चय-अर्थक संस्कृत-अव्यय 'ननु'
के स्थान पर 'ण' अव्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:- नन् अवसर-उपसरणीयाः राजानः=णं अवशलोपशप्पणीया लायाणो निश्चय ही राजाओं (की सेवा में) समयानुसार ही (अवसरों की अनुकलता
पर ही) जाना चाहिये।। (२५) सूत्र-संख्या ४-२८४ में यह व्यक्त किया गया है कि शौरसेनी में हर्ष-व्यक्त करने के अर्थ में 'अम्महे'
ऐसे शब्द रूप अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- अहो!! एतस्यै सूर्मिलायै सुपरिगठितः भवान् अम्महे!! एआए शुम्मिलाए शुपलिगढिदे भवं आपने इस सूर्मिला के लिये (इस आभूषण विशेष का) अच्छा गठन
किया है; यह परम हर्ष की बात है। (२६) सूत्र-संख्या ४-२८५ में यह व्यक्त किया गया है कि-शौरसेनी-भाषा में जब कोई विदूषक (भांड आदि
मसखरे) अपना हर्ष व्यक्त करते हैं, तब वे 'ही ही ऐसा शब्द बोलते हैं और यह शब्द अव्यय के अन्तर्गत
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 305 माना जाता है। जैसे:- आ हा हा! संपन्नाः मम मनोरथाः प्रियवयस्याय-ही-ही!! संपन्ना मे मणोलधा पियवयस्सस्स-अहाहा!! (बड़े ही हर्ष की बात है कि) प्रिय मित्र के लिये मेरी जो मन की कल्पनाएं थीं, वे
सब की सब (सानंद) सम्पन्न हुई है।। (२७) सूत्र-संख्या ४-२८६ में सर्व-सामान्य-सूचना के रूप में यह संविधान किया गया है कि शेष सभी विधान
'शौरसेनी-भाषा' के लिये 'प्राकृत-भाषा' के संविधान के अनुसार ही जानना। यों यह फलितार्थ हुआ कि 'मागधी-भाषा' के लिये भी वे सभी नियमोपनियम लागू पड़ते है; जो कि 'प्राकृत-भाषा' के लिये तथा 'शौरसेनी-भाषा' के लिये लिखे गये हैं। इसी बात की संपुष्टि के लिये इसी सूत्र की वृत्ति में ऊपर शौरसेनी-भाषा के लिये लिखित सूत्र-संख्या ४-२६० से लगातार ४-२८६ तक के सूत्रों को उदाहरण पूर्वक
उद्धृत किये हैं। उपरोक्त सूचना के अतिरिक्त ग्रंथ-कर्ता आचार्य श्री ने वृत्ति में सूत्र-संख्या १-४ से आरम्भ करके चारों पादों के सूत्रों को सम्मिलित करते हुए सूत्र-संख्या ४-२५७ तक के सूत्रों में वर्णित सभी प्रकार के विधि-विधानों का 'अधिकार' इस मागधी-भाषा के लिये भी निश्चय-पूर्वक जानना' ऐसा स्पष्टतः निर्देश किया है। इन सूत्रों में जो जो उदाहरण है, जो-जो परिवर्तन, लोप, आगम, आदेश, प्रत्यय, अथवा वर्ण-विकार आदि व्याकरण-सम्बन्धी व्यवस्थाएँ है; वे सब की सब मागधी-भाषा के लिये भी है; ऐसा जानना चाहिये। पाठकों को चाहिये कि वे ऐसी परिकल्पनाएँ कर लें और तर्क-पूर्वक इन्हें सम्यक्-प्रकार से स्वयमेव समझ ले।।४-३०२।।
इति मागधी भाषा व्याकरण समाप्त
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306 : प्राकृत व्याकरण
अथ पैशाची-भाषा-व्याकरण-प्रारम्भ
ज्ञो वः पैशाच्याम्।।४-३०३।। पैशाच्या भाषायां ज्ञस्य स्थाने च भवति।। पचा। सबबा। सव्वञो। बान।। विज्ञान।।
अर्थः-पैशाची-भाषा में संस्कृत-शब्द-रूपों का रूपान्तर करने पर 'ज्ञ' के स्थान पर 'ञ' की प्राप्ति होती है। जैसेः- (१) प्रज्ञा-पञ्चा विशिष्ट बुद्धि। (२) संज्ञा-सका नाम, भावना (३) सर्वज्ञ सव्वो सब जानने वाला। (४) ज्ञानं-ञानं ज्ञान और (५) विज्ञान-विज्ञान-विज्ञान।।४-३०३।।
राज्ञो वा चित्र॥४-३०४॥ पैशाच्यां राज्ञ इति शब्दे यो ज्ञकारस्तस्य चिब् आदेशो वा भवति।। राचित्रा लपित।। रञ्बा लपित।। राचित्रों धन।। रञो धन॥ ज्ञ इत्येव। राजा।। ___ अर्थः-संस्कृत-पद 'राज्ञ' में रहे हुए 'ज्ञ' के स्थान पर पैशाची भाषा में विकल्प से 'चिब्व र्णो को आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:- राज्ञा लपितं-राचिबा लपितं वैकल्पिक पक्ष होने से रझा लपितं राजा से कहा गया है; (२) राज्ञः धनं-राविबों धनं-वैकल्पिक होने से 'रको धनं राजा का धन'।
प्रश्नः- 'ज्ञ' का उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तरः- जहां पर 'राज्ञ' से सम्बन्धित 'ज्ञ' का अभाव होगा। वहां पर 'चिब्' की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:'राज् शब्द से तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'राजा' रूप बनने पर भी इस 'राजा' पद का रूपान्तर पैशाची-भाषा में 'राजा ही होगा।' यों 'ज्ञ' की विशेष स्थिति को जानना चाहिये।।४-३०४।।
न्य-ण्यो जः।।४-३०५॥ पैशाच्यां न्यणयोः स्थाने बो भवति।। कबका। अभिमञ्जू। पुब-कम्मो। पुवाह।।
अर्थः- संस्कृत-भाषा के पदों में रहे हुए वर्ण 'न्य' और 'णय' के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'जा' की प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) कन्यका कञ्चका-पुत्री। (२) अभिमन्यु-अभिमभू-अर्जुन पांडव का पुत्र (३) पुण्य-कर्मा=पुच-कम्मौ पवित्र कर्म करने वाला। (४) पुण्याह-पुवाह-मैं पवित्र हूँ।।४-३०५।।
णो नः॥४-३०६॥ पैशाच्यां णकारस्य नो भवति।। गुन-गन-युत्तो। गुनेन।
अर्थः-संस्कृत-भाषा के शब्दों में रहे हुए 'णकार' के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'नकार' की प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) गुणगण-युक्तः=गुन-गन-युत्तो=गुणों के समूह से युक्त। (२) गुणेनगुनेन-गुण द्वारा-गुण।।४-३०६।।
तदोस्तः ॥४-३०७।। पैशाच्यां तकार-दकारयोस्तो भवति।। तस्य। भगवती। पव्वती। सत।। दस्य मतन परवसो। सतन।। तामोतरो। पतेसो। वतनक। होतु। रमतु।। तकारस्यापि तकार विधानमादेशान्तरबाधनार्थम्। तेन पताका वेतिसो इत्याद्यपि सिद्धं भवति।। __ अर्थः-संस्कृत भाषा के शब्दों में रहे हुए 'तकार वर्ण और 'दकार' वर्ण के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'तकार' की प्राप्ति होती है। यहां पर 'तकार' के स्थान पर पुनः 'तकार' की ही आदेश-प्राप्ति बतलाने का मुख्य कारण यह है कि पाठक सूत्र-संख्या ४-२६० के विधान के अनुसार 'तकार' के स्थान पर 'दकार' की अनुप्राप्ति न कर ले।। इस निर्देश के अनुसार 'पताका' के स्थान पर 'पताका' ही होगा और 'वेतिसो' के स्थान पर 'वेतिसो' ही
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 307
र पैशाची.
होगा। सूत्र-सम्बन्धित अन्य उदाहरण इस प्रकार है:- (१) भगवती भगवती-देवता विशेष; ऐश्वर्य शालिनी। (२) पार्वती पव्वती-महादेवजी की पत्नी; पर्वत-पुत्री। (३) शतं-सत-सौ की संख्या।। 'द' से सम्बन्धित उदाहरण यों है:- (१) मदन-परवशः मतन-परवसो-कामदेव के वश में पड़ा हुआ। (२) सदनम् सतनं मकान, घर। (३) दामोदरः तामोतरो= श्रीकृष्ण वासुदेव का एक नाम। (४) प्रदेश: पतेसो = देश का एक भाग, प्रान्त-विशेष। (५) वदनकम्-वतनक-मुख। (६) भवतु (होदु)-होतु-होवे। (७) रमताम्= (रमदु)-रमतु-वह खेले।।४-३०७।।
लो लः॥४-३०८॥ पैशाच्या लकार स्य लकारो भवति।। सीलं कुलं जलं।। सलिलं।। कमलं।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा के शब्दों में रहे हुए 'लकार' वर्ण के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'लकार' वर्ण की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) शीलम-सील-शील धर्म, मर्यादा। (२) कुलम्=कुलं-कुल अथवा कुटुंब। (३) जलम् जलं पानी। (४) सलिलम्-सलिलं जल अथवा क्रीड़ा-पुर्वक। (५) कमलम्=कमलं कमल पद्म।।४-३०८।।
श-षोः सः॥४-३०९॥ पैशाच्यां शषोः सो भवति।। श। सोभति। सोभन॥ स सी। सक्को। संखो। प। विसमो। विसानो।। नकगचजादिषट्-शम्यन्त सूत्राक्तम् (४-३२४) इत्यस्य बाधकस्य बाध-नार्थोयं योगः।। ___ अर्थः-संस्कृत-भाषा के शब्दों में रहे हुए 'शकार' और 'षकार' वर्ण के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'सकार' वर्ण की आदेश-प्राप्ति होती है। 'श' के उदाहरणः- (१) शोभाति (अथवा शोभते) सोभति-वह शोभा पाता है, वह प्रकाशित होता है। (२) शोभनं-सोमनं शोभा स्वरूप।। (३) शशिः=ससी चन्द्रमा। (४) शक्र:=सक्को-इन्द्र। (५) शंखः संखो-शंख।। 'ष' के उदाहरण :- (१) विषमः=विसमो-जो बराबर नहीं हो; जो अव्यवस्थित हो। (२) विषाणः-विसानो-सींग।। इस अन्तिम उदाहरण में _ "विषाण' में स्थित 'णकार' वर्ण के स्थान प
-भाषा में 'नकार' वर्ण की आदेश-प्राप्ति की जाकर 'णकार' की अभाव-सचक जो स्थिति प्रदर्शित की गई का रहस्य वृत्ति में सूत्र-संख्या ४-३२४ को उद्धृत करके समझाया गया है। जिसका तात्पर्य यह कि सूत्र-संख्या १-१७७ से प्रारम्भ करके सूत्र-संख्या १-२६५ तक का संविधान पैशाची-भाषा में लागू नहीं पड़ता है। इसका विशेष स्पष्टीकरण आगे सूत्र-संख्या-४-३२४ में किया जाने वाले है। तदनुसार ‘णकार' के स्थान पर 'नकार' की स्थिति को जानना चाहिये।। यों यह सूत्र बाधक स्वरूप है और इस प्रकार यह इस बाधा को उपस्थित करता है।।४-३०९।।
हृदये यस्य पः॥४-३१०।। पैशाच्या हृदय-षब्दे यस्य पो भवति।। हितपक।। किं पि किं पि हितपके अत्थं चिन्तयमानी।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा के शब्द 'हृदय' में अवस्थित 'यकार वर्ण के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'पकार' की आदेश-प्राप्ति हो जाती है । जैसे:- हृदयकम् हितपक-हदय:दिल।। किमपि किमपि हृदयके अर्थम् चिन्तयमाणी किं पि किं पि हितपके अत्थं चिन्तयमानी हृदय में कुछ भी कुछ भी (अस्पष्ट-सा) अर्थ को सोचती हुई।। यों 'य' का 'प' हुआ है।।४-३१०।।
. टोस्तुर्वा॥४-३११।। पैशाच्यां टोः स्थाने तुर्वा भवति॥ कुतुम्बक।। कुटुम्बक।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा के शब्दों में रहे हुए 'टकार' वर्ण के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'तु' वर्ण की विकल्प से आदेश-प्राप्ति होती है। जैसेः- कुटुम्बकम्=कुतुम्बकं अथवा कुटुम्बकं-कुटुम्ब वाला।।४-३११ ।।
क्त्व स्तूनः।।४-३१२॥ पैशाच्यां क्त्वा प्रत्ययस्य स्थाने तून इत्यादेशो भवति।। गन्तून। रन्तून। हसितून। पठितून। कधितून॥
अर्थः-संस्कृत-भाषा में सम्बन्ध-अर्थक-कृदन्त बनाने के लिये धातुओं में जैसे 'क्त्वा' प्रत्यय की प्राप्ति होती
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308 : प्राकृत व्याकरण
हैं:- वैसे ही पैशाची-भाषा में उक्त 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तून' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:-(१) । गत्वा = गन्तू न जाकर के। (२) रन्त्वा=रन्तून = रमण करके। (३) हसित्वा हसितून हँस कर के। (४) कथयित्वा-कधितून कह करके; पठित्वा पठितून-पढ़ करके; इत्यादि।।४-३१२।।
धून-त्थू नौ ष्ट्वः ॥४-३१३।। पैशाच्यां ष्ट् वा इत्यस्य स्थाने धून त्थून इत्यादेशौ भवतः। पूर्वस्यापवादः। नदून। नत्थून। तध्दून। तत्थून।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर प्राप्त होने वाले प्रत्यय 'ष्ट्वा' के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'ध्दुन और 'त्थून' ऐसे दो प्रत्यय-रूपों की आदेश-प्राप्ति होती है। यह सूत्र पूर्वोक्त सूत्र-संख्या ४-३१२ के प्रति अपवाद स्वरूप सूत्र है। उदाहरण यों हैं:-(१) नष्टवा-नदून अथवा नत्थून-नाश करके। (२) तष्ट्वा -तध्दून अथवा त्थून-तीव्र करके।।४-३१३।।
र्य-स्न-ष्टां रिय-सिन-सटाः क्वचित्।।४-३१४।। पैशाच्या र्य स्नष्टां स्थाने यथा-संख्य रिय सिन सट इत्यादेशाः क्वचिद् भवन्ति।। भार्या। भारिया। स्नातम्। सिनात।। कष्टम् कसट।। क्वचिदिति किम्। सुज्जो। सुनुसा। तिट्ठो।।
अर्थः-संस्कृत भाषा के शब्दों में रहे हुए 'र्य' 'स्न' और 'ष्ट' के स्थान पर पैशाची-भाषा में इसी क्रम से 'रिय', 'सिन' और 'सट' की प्राप्ति कहीं-कहीं पर देखी जाती है। जैसे:- (१) भार्या भारिया पत्नी। (२) स्नातम्-सिनातं-स्नान किया हुआ। धुलाया हुआ और (३) कष्टम्=कसट-पीड़ा,वेदना।।
प्रश्नः- कहीं-कहीं पर ही होते है। ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- क्योंकि अनेक शब्दों में 'र्य 'स्न' और 'ष्ट' होने पर भी 'रिय', 'सिन' और 'सट' की प्राप्ति हुई नहीं देखी जाती है। जैसे:- (१) सूर्यः-सुज्जो सूरज। (२) स्नुषा-सुनुसा-पुत्र-वधू। (३) तुष्टः तिठ्ठो प्रसन्न हुआ, संतुष्ट हुआ।।४-३१४।।
क्यस्येय्यः ।।४-३१५।। पैशाच्यां क्य प्रत्म्ययस्य इय्य इत्यादेशो भवति।। गिय्यते। दिय्यते। रमिय्यते। पठिय्यते।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में कर्मणी-प्रयोग-भावे प्रयोग के अर्थ में 'क्य'=य' प्रत्यय की प्राप्ति होती है; तदनूसार उक्त 'य' प्रत्यय के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'इय्य' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-(१) गीयते-गिय्यते-गाया जाता है। (२) दीयते-दिय्यते दिया जाता है। (३) रम्यते-रमिय्यते खेला जाता है और (४) पठयते-पठिय्यते-पढ़ा जाता है; इत्यादि।।४-३१५।।
कृगो डीरः।।४-३१६।। पैशाच्यां कृगः परस्य क्यस्य स्थाने डीर इत्यादेशो भवति।। पुधुमतंसने सव्वस्सय्येव संमानं कीरते।
अर्थः- पैशाची-भाषा में कर्मणि-प्रयोग, भावे प्रयोग के अर्थ में 'कृ' धातु में 'क्य-य' प्रत्यय के स्थान पर 'डीर-ईर' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डीर' में स्थित 'डकार' इत्संज्ञक होने से 'कृ' धातु में अवस्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' का लोप हो जाता है और यों अवशेष हलन्त धातु 'क्' में उक्त 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति होगी। उदाहरण यों है:- प्रथम-दर्शने सर्वस्व एवं सम्मानं क्रियते-पु धु मतंसने सव्वस्स य्येव संमानं कीरते-प्रथम में सभी का सम्मान किया जाता है।।४-३१६।।।
याद्दशादे र्दुस्तिः ।।४-३१७॥ ___ पैशाच्यां याद्दश इत्येवमादीनां द्द इत्यस्य स्थाने तिः इत्यादेशो भवति॥ यातिसो। तातिसो। केतिसो। एतिसो। कितिसो। एतिसो। भवातिसो। अञ्बातिसो। युम्हातिसो अम्हातिसो॥
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 309
अर्थ:-संस्कृत-भाषा में 'याद्दश, ताद्दश' आदि ऐसे जो शब्द हैं; इन शब्दों में अवस्थित 'द्द' के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'ति' वर्ण की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-(१) याद्दशः यातिसो जिसके समान। जैसा। (२) ताद्दशः तातिसो उसके समान, वैसा। (३) कीद्दशः केतिसो किसके समान, कैसा। (४) इद्दशः एतिसो इसके समान, ऐसा। (५) भवाद्दशः भवातिसो आप के समान, आप जैसा। (६) अन्याद्दशः अञ्ञातिसो-अन्य के समान, दूसरे के जैसा। (७) युष्माद्दशः युम्हातिसो तुम्हारे समान, तुम्हारे जैसा। (८) अस्माद्दशः=अम्हातिसो हमारे समान, हमारे जैसा। इत्यादि।।४-३१७।।
इचेचः॥४-३१८॥ पैशाच्यामिचेचोः स्थाने तिरादेशौ भवति।। वसुआति।। भोति। नेति। तेति।।
अर्थः-प्राकृत-भाषा में वर्तमानकाल के अन्य पुरूष के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' और 'ए' के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'ति' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे: उद्-वातिवसुआइ-वसुआति-वह सूखता है। भवइ=भवति-भोति-वह होता है। णेइ-नयति-नेति वह ले जाता है। दाइ-ददाति-तेति-वह देता है।।४- ३१८।।
आ-ते श्व।।४-३१९।। पैशाच्याकारात् परयोः इ चे चोः स्थाने ते श्च कारात् तिश्चदेशो भवति।। लपते। लपति। अच्छते। अच्छति। गच्छते। गच्छति। रमते। रमति।। आदिति किम्। होति। नेति।
अर्थः-प्राकृत-भाषा में वर्तमानकाल के अन्य-पुरूष के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' और 'ए' के स्थान पर अकारान्त-धातुओं में पैशाची-भाषा में 'ते' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है। दोनों प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय की अकारान्त धातुओं में संयोजना की जा सकती है। अकारान्त के सिवाय अन्य स्वरान्त धातुओं में केवल 'ति' प्रत्यय की ही प्राप्ति होगी जैसा कि सूत्र-संख्या ४-३१८ में समझाया गया है। उदाहरण यों है:- (१) लपति लवइ-लपते अथवा लपति-वह स्पष्ट रूप से बोलता है। (२) आस्ते अच्छइ अच्छते अथवा अच्छति-वह बैठता है अथवा वह हाजिर होता है। (३) गच्छतिगच्छइ-गच्छते अथवा गच्छति-वह जाता है। (४) रमते-रमइ=रमते अथवा रमति वह खेलता है-वह क्रीड़ा करता है।।
प्रश्नः- 'अकारान्त-धातुओं में ही 'ते' और 'ति' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। ऐसा क्यों लिखा गया है?
उत्तरः- अकारान्त धातुओं के सिवाय अन्य स्वरान्त धातुओं में ते' प्रत्यये की प्राप्ति कदापि नही होती है; उनमें तो केवल 'ति' प्रत्यय की ही प्राप्ति होती है; इसलिये 'अकारान्त-धातुओं का नाम-निर्देश किया गया है। जैसे:भवति होइ-होति-वह होता है। यहां पर 'हो' धातु ओकारान्त होने से होते' रूप की प्राप्ति नही होगी। दूसरा उदाहरणःनयति=णेइ-नेति-वह ले जाता है। यहाँ पर भी 'ने' धातु एकारान्त होने से इसका रूप 'नेते' नहीं बनेगा। यों सर्वत्र अकारान्त धातुओं को और अन्य स्वरान्त-धातुओ की स्थिति को 'ति' अथवा 'ते' प्रत्यय के सम्बन्ध में स्वयमेव समझ लेनी चाहिये।।४-३१९।।।
भविष्यत्येय्य एव।।४-३२०।। पैशाच्यामिचेचोः स्थाने भविष्यति एय्य एव भवति; न तु स्सिः।। तंतदून चिन्तितं रञा का एसा हुवेय्य।।
अर्थः-सस्कृत-भाषा में भविष्यतकाल के अन्य पुरूष के एकवचन में 'ष्यति' प्रत्यय होता है, इसी 'ष्यति' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'हिइ और हिए' हो जाता है; परन्तु पैशाची-भाषा में इन 'हिइ और हिए' प्रत्ययों के स्थान पर केवल ‘एय्य' ऐसे एक ही प्रत्यय की प्राप्ति होती है। यों 'ष्यति' प्रत्यय से नियमानुसार प्राप्त होने वाला 'स्सि' अक्षरात्मक प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति नहीं होगी। जबकि शौरसेनी-भाषा में सूत्र संख्या ४-२७५ से भविष्यत्-काल के अर्थ में (वर्तमान-कालीन प्रत्ययों के पूर्व) 'स्सि' प्रत्ययांश की प्राप्ति होती है। वास्तव में यह 'एय्य' प्रत्यय रूप नहीं होकर प्रत्यय के अर्थ में 'सांकेतिक अक्षर-समूह' मात्र ही है। यों प्राप्तव्य प्रत्यय-रूप 'एय्य' को धातुओं में जोड़ने के समय में धातुओं में रहे हुए अन्त्य स्वर का लोप हो जाता है। यह बात ध्यान मे रखी जानी
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310 : प्राकृत व्याकरण चाहिये। जैसेः- तांद्दष्टवा चिन्तितं राज्ञा का एषा भविष्यति-तं तदून चिन्तितं रक्षा का एसा हुवेय्य चित्र को देख कर के राजा से सोचा गया (की) ऐसी स्त्री कौन होगी? यहाँ पर 'भविष्यति' पद के स्थान पर 'हुवेय्य' ऐसे पद-रूप की प्राप्ति हुई है।।४-३२०।।
अतो उसे र्डातो-डातु॥४-३२१ ।। पैशाच्यामकारात् परस्य उसेर्डितो आतो आतु इत्यादेशौ। भवतः।। ताव च तीए तूरा तो य्येव तिट्ठो। तूरातु। तुमातो। तुमातु। ममातो। ममातु॥ ___ अर्थः- पैशाची-भाषा में पंचमी-विभक्ति के एकवचन में अकारान्त शब्दों में 'डातो आतो' और 'डातु-आतु' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होती है। 'डातो और डातु' प्रत्ययें में 'डकार' इत्संज्ञक होने से अकारान्त-शब्दों में रहे हुए अन्त्य 'अकार' लोप हो जाता है। तत्पश्चात् हलन्त रूप में रहे हुए शब्दों में 'आतो और आतु' प्रत्ययों की संयोजना की जाती है। जैसेः- (१) तावत् च तया दुरात् एवं दृष्टः=ताव च तीए तूरातो य्येव तिट्ठो-और तब तक दूर से ही उस (स्त्री) से देखा गया (२) दुरात्-तुरातु-दुर से। (३) त्वत्-तुभातो, तुमातु-तेरे से-तुझ से। (४) मतु-ममातो, ममातु-मेरे से-मुझ से।।४-३२१।।
त दिदमोष्टा नेन स्त्रियां तु नाए।।४-३२२।। पैशाच्यां तदिदमोः स्थाने टा प्रत्ययेन सह नेन इत्यादेशो भवति।। स्त्री लिंगे तु नाए इत्यादेशो भवति।। तत्थ च नेन कत-सिनानेन।। स्त्रियाम्। पूजितो च नाए पातग्गकुसुमप्पतानेन।। टेति किम्। एवं चिन्तयन्तो गतो सो ताए समीप।
अर्थः-पैशाची-भाषा में 'तद' सर्वनाम और 'इदम्' सर्वनाम के पुल्लिग रूप में तृतीया-विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रत्यय सहित अर्थात् 'अंग+प्रत्यय' के स्थान पर 'नेन' रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) तद्+टा तेन नेन-उस (पुरूष) से। (२) इदम+टा=अनेन नेन इस (पुरूष) से।। इसी प्रकार से उक्त तद् और इदम्' सर्वनामों के स्त्री लिंग-रूप में तृतीया-विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रत्यय दोनों के स्थान पर) 'नाए' रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसेः- (१) तद्+टा-तया=नाए-उस (स्त्री) से। (२) इदम्+ टा=अनया=नाए-इस (स्त्री) से।। अन्य उदाहरण इस प्रकार से है:- (१) तत्र च तेन कृतस्नाने तत्थ च नेन कत-तिनानेन और वहाँ पर स्नान किए हुए उस (पुरूष) से। (२) पूजितश्च तया पादान (प्रत्यग्र)-कुसुम-प्रदानेन-पूजितो च नाए पताग्ग-कुसुम-प्पतानेन-और वह पैरों के अग्र-भाग में फूलों के समर्पण द्वारा उस (स्त्री) से पूजा गया।
प्रश्नः-मूल-सूत्र में 'टा' ऐसे तृतीया-विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय को क्यों संग्रहित किया गया है?
उत्तरः- 'तद् और 'इदम्' सर्वनामों की अन्य-विभक्तियों में इस प्रकार 'अंग और प्रत्यय' के स्थान पर उक्त रीति सेबने बनाये 'रूपों की प्राप्ति नहीं होती है; इसलिये जिस विभक्ति में बनती हो, उसी विभक्ति का उल्लेख किया जाना चाहिये; तदनुसार तृतीया-विभक्ति में ऐसा होने से मूल-सूत्र में यों तृतीया-विभाक्ति के एकवचन के सूचक 'टा' प्रत्यय का संग्रह किया गया है। उदाहरण यों हैं:- एवं चिन्तयतो गतो सः तस्याः समीपं एवं चिन्तयन्तो गतो सो ताए समीपं इस प्रकार से विचार करता हुआ वह उस (स्त्री) के पास में गया। यहाँ पर 'ताए' में षष्ठी विभक्ति है अतः 'नाए' रूप की प्राप्ति यहाँ पर नहीं हुई है। यों 'नाए' रूप की प्राप्ति केवल 'टा' प्रत्यय के साथ में ही जानना चाहिये।।४-३२२।।
शेष शौरसेनीवत्॥४-३२३।। पैशाच्यां यदुक्तं ततोन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनी वद् भवति।। अध ससरीरो भगवं मकर-धजो एत्थ परिब्ममन्तो हुवेय्य। एवं विधाए भगवतीए कधं तापस-वेस-गहनं कत।। एतिसं अतिट्ठ-पुरवं महा धनं तदून। भगवं यति मं वरं पयच्छसि राजं चदाव लोक। ताव चतीए तूरातो य्येव तिट्ठो सो आगच्छमानो राजा।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 311
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अर्थः- पैशाची - भाषा में अन्य भाषाओं की अपेक्षा से जो कुछ विशेषताऐं है; वे सूत्र संख्या ४-३०३ से ४-३२२ तक के सूत्रों में बतला दी गई है। शेष सभी विधि विधान शौरसेनी-भाषा के समान ही जानना चाहिये । शौरसेनी - भाषा में भी जिन अन्य भाषाओं के विधि विधानों के अनुसार जो कार्य होता है; उस कार्य की अनुवृत्ति भी इस पैशाची - भाषा में विवेक- पूर्वक कर लेनी चाहिये। जो विधि-विधान पैशाची भाषा में लागू नहीं पड़ने वाला है; उसका कथन आगे आने वाले सूत्र - संख्या ४- ३२४ में किया जाने वाला है । वृत्ति में पैशाची भाषा और शौरसेनी भाषा की तुलना करने के लिये कुछ उदाहरण दिये गये हैं; उन्हीं को यहाँ पर पुनः उद्धृत किया जा रहा है; जिससे तुलनात्मक स्थिति का कुछ आभास को सकेगा । (१) अथ सशरीरो भगवान् मकरध्वजः अत्र परिभ्रमन्तो भविष्यति अध ससरीरो भगवं मकर - धजो एत्थ परिब्भमन्तो हुवेय्य - अब इसके बाद मूर्तिमन्त होकर भगवान् कामदेव यहाँ पर परिभ्रमण करते हुए होंगे। (२) एवं विधया भगवत्या कथं तापस-वेश-ग्रहणं कृतम् = एवं विधाए भगवतीए कधं तापस - वेस - गहनं कतं - इस प्रकार की आयु और वैभव वाली) भगवती से ( राजकुमारी आदि रूप विशेष स्त्री से) कैसे तापस वेश (साध्वीपना) ग्रहण किया गया है। (३) ईद्दरां अद्दष्टपूर्वं महाधनं दृष्ट्वां= एतिसं अतिट्ट - पूरवं महा धन तद्धून = जिसको पहिले कभी भी नहीं देखा है, ऐसे महाधन को । (विपुल मात्रा वाले और बहुमूल्य वाले धन को ?) देख करके । (४) हे भगवान्! यदि माम् वरं प्रयच्छसि राज्यं च तावत् लोकम् = भगवं यात मं वरं पयच्छसि राजं च ताव लोक = हे भगवान्! यदि आप मुझे वरदान प्रदान करते हैं तो मुझे लोकारान्त तक का राज्य प्राप्त होवे । (५) तावत् च तया दूरात् एव द्दष्टः सः आगच्छमानो राजा=ताव च तीए तूरातो य्येव तिट्ठो सो आगच्छमानो राजा - तब तक आता हुआ वह राजा उससे दूर से ही देख लिया गया। इन उदाहरणों से विदित होता है कि पैशाची भाषा में शेष सभी प्रकार का विधि-विधान शौरसेनी के समान ही होता है ।।४-३२३ ।।
न-क-ग-च-जादि - षट् - शम्यन्तसूत्रोक्तम् ।
पैशाच्यां क-ग-च-ज-त-द- प-य-वा।।४–३२४।।
प्रायो लुक् (१-१७७) इत्यारभ्य षट् - शमी - भाव- सुधा-सत्पपर्णेवादेरछ: ( १ - २६५ ) इति यावद्यानि सूत्राणि तैर्यदुक्तम् कार्य तन्न भवति ।। मकरकेतू । सगर - पुत्त- वचन ।। विजय सेनेन लपित ।। मतन ।। पाप ।। आयुध ।। तेरो ।। एवमन्यसूत्राणामप्युदाहरणानि द्दष्टव्यानि ।।
अर्थः-प्राकृत भाषा में सूत्र - संख्या १ - १७७ से प्रारम्भ करके सूत्र - संख्या १ - २६५ तक जो विधि-विधान एवं लोप आगम आदि की प्रवृत्ति होती है, वैसी प्रवृत्ति तथा वैसा लोप- आगम आदि सम्बन्धी विधि-विधान पैशाची भाषा में नहीं होता है। इसका बराबर ध्यान रखना चाहिये। उदाहरण यों है:- (१) मकर - केतुः = मकरकेतू। इस उदाहरण में प्राकृत भाषा के समान 'क' वर्ण स्थान पर 'ग' वर्ण की प्राप्ति नहीं हुई है। (२) सगर - पुत्त - वचनं सगर - पुत्त - वचनं सगर राजा के पुत्र के वचन । यहाँ पर भी 'ग' कार तथा 'चकार' वर्ण का लोप नहीं हुआ है। (३) विजयसेतेन लपितं - विजयसेनेन लपितं - विजयसेन से कहा गया है। इस मे 'जकार' वर्ण का लोप नहीं हुआ है। (४) मदनं =मतनं= मदन काम देव को । यहाँ पर 'दकार' वर्ण का लोप नहीं हुआ है, परन्तु सूत्र - संख्या ४-३०७ से 'द' वर्ण के स्थान पर 'त' वर्ण की प्राप्ति हुई है। (५) पापं पापं पाप । यहाँ पर भी 'पकार' वर्ण के स्थान पर 'वकार' वर्ण की प्राप्ति नहीं हुई है। आयुधं आयुधं शस्त्र विशेष। यहां पर 'यकार' वर्ण के स्थान पर 'यकार' वर्ण ही कायम रहा है। (७) देवर:- तेवरे = पति का छोटा भाई । यहां पर भी 'दकार' के स्थान पर सूत्र - संख्या ४- ३०७ से 'त' कार वर्ण की प्राप्ति हुई है। यों अन्यान्य उदाहरणों की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये। इस प्रकार से सूत्र - संख्या १ - १७७ से सूत्र - संख्या १ - २६५ तक में वर्णित विधि-विधानों का पैशाची भाषा में निषेध कर दिया गया है ।।४-३२४ ।। इति पेशाची - भाषा-व्याकरण- समाप्त
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312 : प्राकृत व्याकरण
अथ चूलिका - पैशाची - भाषा-व्याकरण प्रारम्भ
चूलिका - पैशाचिके तृतीय - तुर्ययोराद्य- द्वितीयौ ।।४-३२५।।
चूलिका पैशाचिके वर्गाणां तृतीय-तुर्ययोः स्थाने यथासंख्यमाद्यद्वितीयौ भवतः । । नगर ।। नकर ।। मागणः । मक्कनो।। गिरितटम्। किरि-तट ।। मेघः ।। मेखो।। व्याघ्रः । वक्खो। धर्मः। खम्मो ।। राजा। राचा। जर्जरम्। चच्चर ॥ जीमूतः । चीमूतो।। निर्झरः । निच्छरो ।। झर्झरः । छच्छरो तडागम् तटाक ।। मंडलम् । मंटल। डमरूकः । टमरूको। गाढम्। काठ।। षण्ढः। संठो।। ढक्का। ठक्का।। मदनः । मतनो ।। कन्दर्पः । कन्तप्पो ।। दामोदरः । तामोतरो ।। मधुरम् । मथुर। बान्धवः । पन्थवा ।। धूली । थूली । बालकः । पालको।। रभसः। रफसो।। रम्भा । रम्फा । भगवती । फकवती ॥ नियोजितम् । नियोचित ।। क्वचिल्लाक्षणिकस्यापि । पडिमा इत्यस्य स्थाने पटिमा । दाढा इत्यस्य स्थाने ताठा ||
अर्थ:- चूलिका - पैशाचिक - भाषा में 'क' वर्ग से प्रारम्भ करके 'प' वर्ग तक के अक्षरों में से वर्गीय तृतीय अक्षर के स्थान पर अपने ही वर्ग का प्रथम अक्षर हो जाता है और चतुर्थ अक्षर के स्थान पर अपने ही वर्ग का द्वितीय अक्षर हो जाता है। क्रम से इस सम्बन्धी उदाहरण इस प्रकार हैं:- (१) 'ग' कार के उदाहरण- (अ) नगरम् = नकरं = शहर | (ब) मार्गणः=मक्कनो=याचक - मांगनेवाला । (स) गिरि-तटम् - किरि-तटं पहाड़ का किनारा।। (२) 'घ' कार के उदाहरण:- (अ) मेघः-मेखो = बादल । (ब) व्याघ्रः = वक्खो - शेर - चिता (स) धर्मः - खम्मो = धूम || (३) 'ज' कार के उदाहरण:- (अ) राजा=राचा = राजा - नृपति (ब) जर्जरम् - चच्चरं = कमजोर, पीड़ित । (स) जीमूतः - चीमूतो मेघ - बादल ।। (४) 'झ' के उदाहरण:- झर्झरः - छच्छरो - झांझ-बाजा विशेष । । निर्झरः- निच्छरो झरना - स्त्रोत । । (५) 'डकार' के उदाहरण:- (अ) तडागम् - तटाकं = तालाब । (ब) मंडलम् - मंटलं = समूह, अथवा गोल। (स) डमरूकः = टमरूको=बाजा विशेष ।। (६) 'ढकार' के उदाहरण:- (अ) गाढम् = काठं = कठिन मजबूत । (ब) षण्ढः = सण्ठो = नपुंसक । ( स ) ढक्का=ठक्का=बाजा विशेष। (७) 'दकार' के उदाहरण:- (अ) मदन:- मतनो = कामदेव। (ब) कन्दर्पः = कन्तप्पो=कामदेव। (स) दामादरः = तामोतरो = श्रीकृष्ण- वासूदेव ।। (८) 'धकार' के उदाहरण:- (अ) मधुरम - मथुरं मीठा । (ब) बान्धवः=पन्थवो=भाई बन्धु । ( स ) धूली - थूली = धूल - रज ।। (९) 'ब' का उदाहरणः- बालकः = पालको = बच्चा ।। (१०) 'भकार' के उदाहरण:- (अ) रभसः= :- रफसो = सहसा, एकदम । (ब) रम्भा = रम्फा = अप्सरा विशेष । (स) भगवती = फकवती देवी, श्रीमती, (११) 'जकार' का उदाहरण:- नियोजितम् = नियोचितं = कार्य में लगाया हुआ ।।
कहीं-कहीं पर व्याकरण से सिद्व हुए प्राकृत-शब्दों में दो तृतीय अक्षर के स्थान पर प्रथम अक्षर की प्राप्ति हो जाती है और चतुर्थ अक्षर के स्थान पर द्वितीय-अक्षर हो जाता है। जैसे:- प्रतिमा = पडिमा पटिमा = मूर्ति अथवा श्रावक साधु का धर्म विशेष। (२) दंष्ट्रा = दाढा = ताठा - बड़ा दांत अथवा दांत विशेष ।।४-३२५।।
रस्य लो वा ।। ४-३२६।।
चूलिका - पैशाचिके रस्य स्थाने लो वा भवति । पनमथ पनय-पकुप्पित - गोली चलनग्ग - लग्ग - पति - बिंब ॥ तससु नखतप्पनेसुं एकातस-तनु-थलं लुद्द || नच्चन्तस्य य लीला - पातुक्खेवेन कंपिता वसुथा । उच्छल्लन्ति समुद्दा सइला निपतन्ति तं हलं नमथ ।।
=
अर्थः- चूलिका-पैशाचिक - भाषा में 'रकार' वर्ण के स्थान पर 'लकार' वर्ण की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। जैसा कि उपरोक्त गाथा में ' (१) गौरा = गोली, (२) चरण = चलन, (३) तनु - धुर - तनुथलं, (४) रूद्रम = लुद्द और हरं = हल पदों में देखा जा सकता है। इन पांच पदों में 'रकार' वर्ण की स्थान पर 'लकार' बर्ण की आदेश प्राप्ति की गई है। उपरोक्त गाथाओं की संस्कृत छाया इस प्रकार से है:
प्रणमत प्रणय-प्रकुपित - गोरी - चरणाग्र- लग्न - प्रतिबिम्बम् ।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 313
दशसु नख- दर्पणेषु एकादश तनुधरं रूद्रम् ॥ १॥ नृत्यतश्च लीलापादोत्क्षेपेण कंपिता वसुधा । उच्छलन्ति समुद्राः शैला निपतन्ति तं हरं नमत ॥ २॥
अर्थः- उस 'हर महादेव" को तुम नमस्कार करो, जो कि प्रेम-क्रियाओं से क्रोधित हुई पार्वती के चरणों में (उसको प्रसन्न करने के लिये) झुका हुआ है और ऐसा करने से पार्वती के पैरों के दस ही नख-रूपी दस-दर्पणों में जिस (महादेव) का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है और यों जो (महादेव) दस नखों में दस शरीर वाला प्रतीत हो रहा है और ग्यारहावां जिस (महादेव) का खुद का (मूल) शरीर है, इस प्रकार जिस (महादेव) ने अपने ग्यारह (एकादश) शरीर बना है; शरीर बना रखे है; ऐसे रूद्र शिव को तुम प्रणाम करो ॥ १ ॥
'विलक्षण' नृत्य ं करते हुए और क्रीड़ा-वशांत् पैरों को अचिंत्य ढंग से फेंकने के कारण से जिसने पृथ्वी को भी कंपायमान कर दिया है और 'नृत्य तथा क्रीड़ा' के कारण से समुद्र भी उछल रहे है, एवं पर्वत भी टूट पड़ने की स्थिति में है; ऐसे महादेव को तुम नमस्कार करो ।। २ ।।४-३२६ ।।
नादि - युज्योरन्येषाम् ॥४- ३२७ ।।
चूलिका - पैशाचिके पि अन्येषामानार्याणां मतेन तृतीय तुर्ययोरादौ वर्तमानयो र्युजि धातौ च आद्य-द्वितीयो न भवतः।। गतिः गति धर्मः धम्मो || जीमूतः जीमूतो ।। झर्झरः । झच्छरो ।। डमरूकः डमरूको।। ढक्का: ढक्का।। दामोदरः। दामोतरो।। बालकः। बालको।। भगवती । भकवती । नियोजितम् । नियोजित।।
अर्थः-अनेक प्राकृत-व्याकरण के बनाने वाले आचार्यों का मत है कि - चूलिका - पैशाचिक - भाषा में 'क' वर्ग से प्रारम्भ करे 'प' वर्ग तक के तृतीय अक्षर अथवा चतुर्थ अक्षर यदि शब्द के आदि में रहे हुए हों तो इनके स्थान पर सूत्र - संख्या ४- ३२५ से क्रम से प्राप्तव्य प्रथम अक्षर के तथा द्वितीय अक्षर की प्राप्ति नहीं होती है। अर्थात् तृतीय अक्षर के स्थान पर तृतीय ही रहेगा और चतुर्थ अक्षर के स्थान पर चतुर्थ अक्षर ही रहेगा। इसी प्रकार से 'जोड़ना - मिलाना' अर्थक धातु 'युज' में रह हुए 'जकार' वर्ण के स्थान पर 'चकार' वर्ण की प्राप्ति नहीं होगी । यों इन आचार्यों का मत है कि शब्द में अनादि रूप से और असंयुक्त रूप से रहे हुए वर्गीय तृतीय तथा चतुर्थ अक्षरों के स्थान पर क्रम से अपने ही वर्ग के प्रथम तथा द्वितीय अक्षर की प्राप्ति होती है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) 'ग' का उदाहरण :गतिः=गती=चाल। (२) ‘घ' का उदाहरण :- धर्मः = घर्मः=घम्मो-धूप। (३) 'ज' काः-जमूितः -जीमृतो- मेघ- बादल। (४) 'झ' का उदाहरण :- झर्झर :- झच्छरो = झांझ बाजा विशेष । (५) 'ड' का उदाहरण :- डमरूकः - डमरूको-शिवजी का बाजा विशेष । (६) 'ढ' का उदाहरण :- ढक्काः=ढक्का=बाजा विशेष। (७) 'द' का उदाहरण :- दामोदरः = दामोतरो-श्रीकृष्ण वासुदेव। (८) ‘द' का उदाहरण :- बालकः - बालको - बच्चा । (९) 'भ' का उदाहरण :- भगवती - भकवती देवी, श्रीमती । और (१०) 'युज्' धातु का उदाहरण :- नियोजितम् - नियोजितं = जोड़ा हुआ ।।४-३२७।।
शेषं प्राग्वत्।।४-३२८।।
चूलिका - पैशाचिके तृतीय- तुर्ययोरित्यादि यदुक्तं ततोन्यच्छेपं प्राक्तन पैशाचिक वत् भवति ।। नकर ।। मक्कनो ॥ अनयोनों णत्वं न भवति । णस्य च नत्वं स्यात् । एवमन्यदपि ।
अर्थः-चूलिका-पैशाचिक-भाषा में ऊपर कहे हुए सूत्र - संख्या ४-३२५ से ४- ३२७ तक के सूत्रों में वर्णित विधि-विधानों के अतिरिक्त शेष सभी विधि-विधान पैशाचिक भाषा के अनुसार ही जानना चाहिये। 'नकर' (= नगर शहर) में रहे हुए 'नकार' के स्थान पर और 'मक्कनो' (मार्गणः' :- याचक - भिखारी) में रहे हुए 'नकार' के स्थान पर चूलिका - पैशाचिक - भाषा 'कार' की प्राप्ति नहीं होती है । इस भाषा में 'णकार' के स्थान पर 'नकार' की प्राप्ति होती है । यों पैशाचिक भाषा में और चूलिका-पैशाचिक - भाषा में परस्पर में अन्य विधि-विधानों द्वारा होने वाले परिवर्तनो की संप्राप्ति की कल्पना भी स्वयमेव कर लेनी चाहिये; ऐसी विशेष सूचना ग्रन्थकार वृत्ति में ' एवमन्यदपि ' शब्दों द्वारा दे रहे हैं।।४-३२८।। इति चुलिका - पैशाची - भाषा-व्याकरण- समाप्त
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314: प्राकृत व्याकरण
अथ अपभ्रंश-भाषा-व्याकरण-प्रारम्भ
स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रंशे॥४-३२९।। _अपभ्रशे स्वराणां स्थाने प्रायः स्वराः भवन्ति।। कच्चु। काच्च।। वेण। वीण।। बाह। बाहा बाहु॥ पट्ठि। पिट्ठि।। पुट्ठि॥ तणु। तिणु। तृणु।। सुकिदु। सुकिओ। सुकृदु।। किन्नओ। किलिन्नओ।। लिह। लीह। लेह।। गउरि। गोरि।। प्रायोग्रणाद्यस्यापभ्रंशे विशेषो वक्ष्यते, तस्यापि क्वचित् प्राकृतवत् शौरसेनी वच्च कार्य भवति।।
अर्थः- अपभ्रंश-भाषा में संस्कृत भाषा के शब्दों का रूपान्तर करने पर एक ही शब्द में एक ही स्वर के स्थान पर प्रायः विभिन्न विभिन्न स्वरों की प्राप्ति हुआ करती है और यों विभिन्न-स्वर-प्राप्ति से एक ही शब्द के अनके रूप हो जाया करते है।। क्रम से उदाहरण इस प्रकार से है:संस्कृत-शब्द अपभ्रंश-रूपान्तर
हिन्दी (१) कृत्य कच्चु और काच्च
काम। (२) वचन वेण और वीण
वचन। (३) बाहु बाह, बाहा और बाहु
भुजा। (४) पृष्ठ पट्ठि, पिट्टि और पुट्ठि
पीठ। (५) तृण तणु, तिणु और तृणु
तिनका। (६) सुकृत
सुकिदु और सुकिओ तथा सुकृदु = अच्छा काम। (७) क्ल किन्नओ तथा किलिन्नओ
गीला, भीगा हुआ। (८) लेखा लिह, लीह और लेह
लकीर चिन्ह। (९) गौरी = गरि और गोरि
सुन्दरी अथवा पार्वती।। इन उदाहरणों से विदित होता है कि अपभ्रंश-भाषा में एक ही स्वर के स्थान पर अनेक प्रकार के स्वरों की प्राप्ति हुई है। मूल-सूत्र में जो 'प्रायः' अव्यय ग्रहण किया गया है, उस का तात्पर्य यही है कि अपभ्रंश-भाषा में स्वर-सम्बन्धी जो अनेक विशेषताएं रही हुई हैं, उनका प्रदर्शन आगे आने वाले सूत्रों में किया जायगा। तदनुसार अपभ्रंश-भाषा में शब्द-रचना-प्रवृत्ति कहीं कहीं पर प्राकृत भाषा के अनुसार होती है और कहीं कहीं पर शौरसेनी-भाषा के समान भी हो जाया करती है। यह सब आगे यथास्थान पर दर्शाया जावेगा; इस तात्पर्य को प्रायः' अव्यय से मूल-सूत्र में समझाया गया है।।४-३२९।।
स्यादौ दीर्घ-हस्वौ।।४-३३०॥ अपभ्रंशे नाम्नोन्त्यस्वरस्य दीर्घ-हस्वौ स्यादौ प्रायो भवतः।। सौ॥ ढोल्ला सामला धण चम्पा-वण्णी।। णाइ सुवण्ण रेह कस-वट्टइ दिण्णी।।१।। आमन्त्रये।। ढोल्ला मई तु हुं वारिया, माकुरू दीहा माणु।। निद्दए गमिही रत्तडी, दडवड होइ विहाणु।।२।। स्त्रियाम्॥ बिट्टीए ! मइ भणिय तु हुँ, माकुरू बंकी दिट्ठि। पुत्ति ! सकण्णी भल्लि जिवँ मारइ हिअइ पइट्ठि॥३॥ जसि।। एइ ति छोड़ा, एह थलि, एह ति निसिआ खग्ग।। एत्थ मुणी सिम जाणिअइजो न वि वालइ वग्ग।।४।। एवं विभक्त्यन्तरेष्वप्युदाहार्यम्।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 315
अर्थः-अपभ्रश भाषा में संज्ञा शब्दों में विभक्ति वाचक प्रत्यय 'सि, जस्, शस्' आदि जोडने के पूर्व प्राप्त शब्दों में अन्त्य स्वरों के स्थान पर प्रायः हस्व की जगह पर दीर्घ स्वर की प्राप्ति हो जाती है दीर्घ स्वर के स्थान पर हस्व स्वर हो जाया करता है। जैसे कि उदाहरण-रूप में उपरोक्त गाथाओं में प्रदर्शित किया गया है। इनकी क्रमिक विवेचना इस प्रकार है:
(१) प्रथम गाथा में पुल्लिग में प्रथमा विभक्ति के वचन में 'लुक' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'ढोल्ल और सामल' यों आकारान्त होना चाहिये था; जबकि इन्हें 'ढोल्ला और सामला' के रूप में लिखकर अकारान्त को आकारान्त कर दिया गया है। इस प्रकार से 'घृणा और सुवण्णरेहा' स्त्रीलिंगवाचक शब्दों में भी 'लुक' प्रत्यय की प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्ति होने पर भी इन पदों को अकारान्त कर दिया गया है और यों 'धण' तथा 'सुवण्ण-रेह' लिख दिया गया है। गाथा का संस्कृत-अनुवाद और हिन्दी-भाषान्तर निम्न प्रकार से हैं:संस्कृत : विटः श्यामलः धन्या चम्पक-वर्णा।।
__ इव सुवर्ण-रेखा कष-पट्टके दत्ता।।१।। अर्थः- नायक तो श्याम वर्ण (काले रंग) वाला है और नायिका चम्पक वर्ण (स्वर्ण जैसे रंग) वाले चम्पक-फुल के समान है।। यों इन दोनों की जोड़ी ऐसी मालुम होती है कि-मानो सोना परखने के लिये घर्षण के काम में ली जाने वाली काली कसौटी पर 'सोने की रेखा' खीचं दी गई है।।१।।
(२) दूसरी गाथा में 'ढोल्ल' के स्थान पर 'ढोल्ला'; 'वारियों के स्थान पर वारिया'; 'दोहु के जगह पर दीहा और निदाए'-नहीं लिख कर 'निद्दए' लिखा गया है। इस गाथां को संस्कृत तथा हिन्दी रूपान्तर निम्न प्रकार से है। संस्कृत : विट! मया त्वं वारितः, मा कुरू दीर्घ मानम्।।
निद्रया गमिष्यति रात्रिः, शीघ्रं भवति विभातम्।। २।। अर्थः- हे नायक! (तू मुर्ख है), मैनें तुझे रोक दिया था लंबे समय तक अभिमान मत कर; (नायिका से शीघ्र प्रसन्न हो जा) (क्योंकि) निद्रा ही निद्रा में रात्रि व्यतित हो जायेगी और शीघ्र ही सूर्यादय हो जायेगा। (पीछे तुझे पछताना पड़ेगा)।।२।।
(३) तीसरी गाथा में समझाया गया है कि स्त्रीलिंग शब्दों में भी विभक्ति-वाचक प्रत्ययों के पहले अन्त्य स्वरों में परिर्वतन हो जाता है। जैसा कि; 'भणिय, दिट्ठि, भल्लि और पइट्ठि' में देखा जा सकता है। इसका संस्कृत-पूर्वक हिन्दी अनुवाद इस प्रकार से हैं:संस्कृत : पुत्रि! मया भणिता, त्वं मा कुरू वक्रां द्दष्टिम्।।
पुत्रि! सकर्णा भल्लि र्यथा, मारयति हृदये प्रविष्टा।। ३॥ हिन्दी:-हे बेटी! मैंने तुझ से कहा था कि-'तू टेढ़ी नजर से (कटाक्ष पूर्वक दृष्टि से) से मत देख। क्योंकि हे पुत्री! तेरी यह वक्र द्दष्टि हृदय में प्रविष्ट होकर इस प्रकार आघात करती है जिस प्रकार की तेज धार वाला और तेज नोक वाला भाला हृदय में प्रवेश करके आघात करता है। (४) चौथी गाथा में कहा गया है कि प्रथमा के बहुवचन में भी पुल्लिंग में दीर्घ स्वर के स्थान पर हस्व स्वर की प्राप्ति हो जाती है। जैसा कि 'खग्गा' के स्थान पर 'खग्ग' ही लिख दिया गया हो। गाथा का संस्कृत अनुवाद निम्न प्रकार से हैं:संस्कृत : एते ते अश्वाः, एषा स्थली, एते ते निशिताः खड्गाः।
अत्र मनुष्यत्व ज्ञायते, यः नापि वल्गां वालयति।। अर्थः- ये वे ही घोड़े है, यह वही रणभूमि है और ये वे ही तेज धार वाली तलवारें हैं और यहां पर ही मनुष्यत्व विदित हो रहा है; क्योंकि ये (योद्धा) (यहां पर) भय खाकर अपने घोड़ो की लगामें नहीं फेरा करते हैं, अर्थात् पीठ दिखा कर रण- भुमी से भाग जाना ये स्पष्ट रूप से कायरता समझते है। अतएव वास्तव में ये ही वीर है। वृत्ति में ग्रंथाकार कहते हैं कि यों अन्य उदाहरणों की कल्पनाएं अन्य विभक्तियों में पाठक स्वयमेव कर ले।।४-३३०।।
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316 : प्राकृत व्याकरण
स्यमोरस्योत्।।४-३३१।। अपभ्रंशे अकारस्य स्यमोः परयोः उकारो भवति।। दह मुहु भवण-भयंकरू तोसिअसंकरू णिग्गउ रह-वरि चडिअउ। चअमुहु छंमुहु झाइ वि एक्काहिं लाइ विणावइ दइवे घड़िअउ।।१।।
अर्थः-अपभ्रंश-भाषा में अकारान्त शब्दों में प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'सि तथा अम्' प्रत्ययों के स्थान पर 'उ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। यह विधान अकारान्त पुल्लिंग और अकारान्त नपुंसकलिंग वाले सभी शब्दों के लिये जानना चाहिए। उदाहरण के लिये वृत्ति में जो गाथा उद्धृत की गई है उसमें 'दहमुह, भयंकरू, संकरू, णिग्गउ, चडिअउ और घडिअउ' शब्दों में प्रथमा-विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'उ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति की गई है। इसी प्रकार 'चहुमुहु और छंमुहु' पदों में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'उ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति का सद्भाव प्रदर्शित किया गया है। यों अन्यत्र भी प्रथमा-द्वितीया के एकवचन में समझ लेना चाहिये। उक्त गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी भाषान्तर यों जानना चाहिये:संस्कृत : दशमुखः भुवन-भयंकरः तोषित शंकरः, निर्गत रथवरे आरूढः।।
चतुर्मुखं षणमुखंध्यात्वा एकस्मिन् लगित्वा इवदेवेन घटितः।। अर्थः- संसार को भयंकर प्रतीत होने वाला और जिसने महादेव-शंकर को (अपनी तपस्या से) संतुष्ट किया था, ऐसा दशमुख वाला रावण श्रेष्ठ रथ पर चढ़ा हुआ निकला था। चार मुंह वाले ब्रह्माजी का और छह मुख वाले कार्तिकेयजी का ध्यान करके (मानो उनकी कृपा से उन दोनों से दश मुखों की प्राप्ति की हो, इस रीति से) दैव ने-(भाग्य ने एक ही व्यक्ति के दश मुखों का) निर्माण कर दिया है, यों वह प्रतीत हो रहा था।।४-३३१।।
सौ पस्योद्वा॥४-३३२॥ अपभ्रंशे पुल्लिगे वर्तमानस्य नाम्नोकारस्य सौ परे ओकारो वा भवति।। अगलिअ-नेह-निवट्टाहं, जोअण-लक्खु वि जाउ। वरिस-सएण वि जो विलइ; सहि! साक्खहँ सो ठाउ।।१।। पुंसीति किं? अंगहिँ अंगु न मिलिउ, हलि ! अहरे अहरू न पत्तु॥ पिअ जो अन्तिहे मुह-कमलु एम्बइ सुरउ समत्तु।। २।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर विकल्प से 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसा कि उपरोक्त गाथा में 'जो' और 'सो' सर्वमान-रूपों में देखा जा सकता है। यों अपभ्रंश भाषा में अकारन्त पुल्लिग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में तीन प्रत्यय होते हैं, जो कि इस प्रकार है:- (१) 'उ' (४-३३१), (२) 'ओ' (४-४३२) और (३) 'लुक' (४-३४४)। उपरोक्त गाथा का संस्कृत में और हिन्दी में रूपान्तर निम्न प्रकार से है:संस्कृत : अगलितस्नेह-निर्वृत्तानां, योजनलक्षमपि जायताम्॥
वर्षशतेनापि यः मिलति, सखि ! सौख्यानां स स्थानम्॥१॥ अर्थ:-जिनका परस्पर में प्रेम नहीं टूटा है और यदि वह अखंड है तो चाहे वे (प्रेमी) लाख योजन भी दूर चले जाय; तो भी कोई चिन्ता की बात नहीं है, क्योंकि जब कभी चाहे सौ वर्षों में भी उनका मिलना होता है; तो भी है सखि ! वह (मिलना) सुखों का ही स्थान होता है।
प्रश्न:- मूल सूत्र में 'पुल्लिंग में ही ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तर:- अकारान्त में नपुंसकलिंग वाले भी शब्द होते हैं; और उनमें प्रथमा विभक्ति के एक वचन में "ओ" प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है; इसलिये “अकारन्त पुल्लिग' शब्द का उल्लेख किया गया है। अकारान्त नपुंसकलिंग
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 317
वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में केवल दो प्रत्यय ही होते है; जो कि इस प्रकार हैं:- (१) 'उ' और (२) 'लुक'। यों 'ओ' प्रत्यय का निषेध करने के लिये 'पुसि' ऐसे पद का मूल-सूत्र में प्रदर्शन किया गया। उदाहरण के रूप में जो दूसरी गाथा उद्धृत की गई है, उसमें अगुं, मिलिउ, सुरउ और समन्तु' आदि शब्द प्रथमा विभक्ति के एकवचन में होने पर भी ये शब्द अकारान्त नपुंसकलिंग वाले हैं और इसीलिये इनमें 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होकर 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। यों अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये। गाथा का संस्कृत-अनुवाद हिन्दी सहित इस प्रकार है:संस्कृत : अंगैः अंग न मिलितं, सखि ! अधरेण अधरः न प्राप्तः।।
प्रियस्य पष्यन्त्याः मुख-कमलं, एवं सुरतं समाप्तम्॥ २॥ हिन्दी:- हे सखि! अंगों से अंग भी नहीं मिल पाये थे और होठ से होठ भी नहीं मिला था; तथा प्रियतम के मुख-कमल को (बराबर) देख भी नहीं पाई थी कि (इतने में ही) हमारा रति-क्रीड़ा नामक खेल समाप्त हो गया।।४-३३२।।
॥ एट्रि ४-३३३।। अपभ्रंशे अकारस्य टायामकारो भवति।। जे महु दिणणा दिअहडा दइएं पवसन्तेण।। ताण गणन्तिएँ अंगुलिउ जज्जरिआउ नहेण।।१।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य 'टा' के स्थान पर (वैकल्पिक रूप से) 'एँ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। जैसा कि गाथा में आये हुए पद 'दइएँ' से विदित होता है। दयितेन-दइएँ पतिसे। मूल गाथा का संस्कृत-अनुवाद पूर्वक हिन्दी अर्थ इस प्रकार से है:संस्कृत : ये मम दत्ताः दिवसः दयितेन प्रवसता।।
तान् गणयन्त्याः (मम) अंगुल्यः जर्जरिताः नखेन।। __ हिन्दीः-विदेश जाते हुए प्रियतम पतिदेव ने (पुनः लौट आने के लिये) मुझे जितने दिनों की बात कही थी; उन दिनों को नख से गिनते हुए (मेरी) अंगुलियाँ ही घिस गई है; (परन्तु पतिदेव विदेश से नहीं लौटे हैं)।।४-३३३।।
ङि नेच्च।।४-३३४॥ अपभ्रंशे अकारस्य डिना सह इकार एकारश्च भवतः।। सायरू उप्परि तणु धरइ, तलि धल्लइ रयणाई।। सामि सुभिच्चु विपरिहरइ, संभाणेइ खलाई।।१।। तले धल्लइ।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "डि" के स्थान पर "इकार" और "एकार" प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। ऐसा होने पर अकारान्त शब्दों के अन्त में रहे हुए "अ" स्वर का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् शेष व्यञ्जनान्त शब्द में "इकार" की संयोजन की जाती है। जैसा कि गाथा में दिये गये पद पद "तलि'='तले" से जाना जा सकता है। इस "तालि' में सप्तमी बोधक प्रत्यय "इकार'' की प्राप्ति हुई है। गाथा का संस्कृत और हिन्दी भाषान्तर क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : सागरः उपरि तृणानि धरति, तले क्षिपति रत्नानि।।
स्वामी सुभृत्यमपि परिहरति, संमानयति खलान्।। हिन्दी:-समुद्र घास आदि तिनकों को तो ऊपर सतह पर धारण करता है और बहुमूल्य रत्नों को ठेठ नीचे पैंदे में रखता है। (तदनुसार यह सत्य ही है कि) स्वामी अच्छे सेवकों को तो त्याग देता है और दुष्ट (सेवकों) का सम्मान
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318 : प्राकृत व्याकरण
करता है। यहाँ पर 'तले' पद के स्थान पर अपभ्रंश में 'तलि' पद का प्रयोग किया गया है। 'ए' कार पक्ष में 'तले' भी होता है।।४-३३४।।
भिस्येद्वा॥४-३३५॥ अपभ्रंशे अकारस्य भिसि परे एकारो वा भवति।। गुणहिँ न संपइ कित्ति पर फल लिहिआ भुञ्जन्ति।। केसरि न लहइ बोड्डिअ, वि गय लक्खेहिं घेप्पन्ति।।१।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारन्त शब्दों में तृतीया बहुवचन बोधक प्रत्यय 'भिस् हि हि हिँ' के परे रहने पर उन अकारान्त शब्दों में अन्त्य वर्ण 'अ' कार के स्थान पर विकल्प से 'ए' कार की प्राप्ति होती है। जैसा कि गाथा में आये हुए पद 'लक्खेहिं से जाना जा सकता है। द्वितीय पद 'गुणहिँ में अन्त्य अकार को 'एकार' की प्राप्ति नहीं हुई है। यों दोनों प्रकार की स्थिति को जान लेना चाहिये। उक्त गाथा का संस्कृत और हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : गुणैः न संपत्, कीर्तिः परं फलानि लिखितानि भुंजन्ति।
केसरी कपर्दिकामपि न लभते, गजाः लक्षैः गृह्यन्ते।। हिन्दी:-गुणों से केवल कीर्ति मिलती है, न कि धन-संपत्ति। मनुष्य उन्हीं फलों को भोगते हैं, जो कि भाग्य द्वारा लिखे हुए होते हैं। केशरीसिंह गुण-सम्पन्न होते हुए भी उसको कोई भी एक कोड़ी से भी खरीदने को तैयार नहीं होता है; जबकि हाथियों को लाख रूपये देकर भी लोग खरीद लिया करते है।।४-३३५।।
से है-ह॥४-३३६॥ अस्येति पञ्चम्यन्तं विपरिणम्यते। अपभ्रंशे अकारत् परस्य उसे हे-हू इत्यादेशो भवतः।। वच्छहे गृण्हइ फलइँ, जणु कडु-पल्लव वज्जेइ।। तो वि महहुमु सुअणु जिवं ते उच्छगि धरेइ।।१।। वच्छहु गृण्हइ।।
अर्थः-प्राकृत-भाषा में जैसे पचमी विभक्ति के एकवचन में 'त्तो, आओ, आउ, आहि, आहिन्तो और लुक्' प्रत्यय होते हैं; वे प्रत्यय अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों के लिये उक्त विभक्ति में नहीं हुआ करते हैं; इसी अर्थ को व्यक्त करने के लिये ग्रंथकार ने वृत्ति में 'विपरिणम्यते' पद का निर्माण किया है। अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'उसि' के स्थान पर 'हे और हू', ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसा कि गाथा में 'वच्छहे' पद से ज्ञात होता है। तदनुसार 'वृक्षात्' पद का अनुवाद अपभ्रंश भाषा में 'वच्छहे और वच्छहू' दोनों होगा। इसलिये 'वच्छहु गृण्हइ' पदों का समावेश गाथा के बाद भी कर दिया गया है। यहाँ पर 'वच्छहु' पद में 'हू' प्रत्यय को हस्व लिखने का कारण यह है कि आगे पद 'गृण्हइ' में आदि अक्षर संयुक्त होता हुआ 'हू' के आगे आया हुआ है, इसलिये सूत्र-संख्या १-८४ से 'हू' के दीर्घ स्वर 'ऊ' को हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति हुई है। गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : वृक्षात् गृहाति फलानि जनः, कटु पल्ल्वान वर्जयति।।
तथापि महाद्रुमः सुजन इव तान् उत्संगे धरति।।१।। अर्थः-मनुष्य वृक्ष से (मधुर) फलों को तो ग्रहण कर लेता है किन्तु उसी वृक्ष के कडुवे पत्तों को छोड़ देता है। तो भी वह माह वृक्ष उन पत्तों को सज्जन पुरूषों के समान अपनी गोद में ही धारण किये रहता है। जैसे सज्जन पुरूष कटु अथवा मीठी सभी बातों को सहन करते हैं; वैसे ही वृक्ष भी सभी परिस्थितियों को सहर्ष सहन करता है।।४-३३६।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 319
भ्यसो हु।।४-३३७॥ अपभ्रंशे अकारात् परस्य भ्यसः पंचमी बहुवचनस्य हुं इत्यादेशौ भवति।। दुरुड्डाणे पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ।। जिह गिरि-सिंह हुँ पडिअ सिल अन्नु वि चूरू करेइ।।१।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर 'हु प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। जैसा कि गाथा में आये हुए पद 'गिरि-सिंगहुँ-गिरि-श्रृगेभ्यः पहाड़ की चोटियों से जाना जा सकता है। उक्त गाथा का संस्कृत-हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है :संस्कृत : दूरोड्डाणेन पतित खलः आत्मानं जनं (च) मारयति।।
यथा गिरि-श्रृंगेभ्यः पतिता शिला अन्यदपि चूर्णी कराति।। अर्थः-एक दुष्ट आदमी जब दूर से ऊंचाई से छलांग लगाता है तो खुद भी मरता है और दूसरों को भी मारता है; जैसे कि पहाड़ की चोडियों से गिरी हुई बड़ी शिला अपने भी टुकड़े कर डालती है और (उसकी चोट में आये हुए) अन्य का भी विनाश कर देती है।।४-३३७।।
उसः सु-हो-स्सवः।।४-३३८।। अपभ्रंशे अकारात् परस्य ङ सः स्थाने सु, हो, स्सु इति त्रय आदेशा भवन्ति।। जो गुण गोवइ अपणा, पयडा करइ परस्सु॥ तसु हऊँ कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किज्जउं सुअणस्सु।।१।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों के षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर 'सु, हो और 'स्सु' ऐसे तीन प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। सूत्र-संख्या ४-३४५ से इसी विभक्ति में 'लोप' रूप अवस्था की प्राप्ति भी हो सकती है। इनके उदाहरण गाथानुसार क्रम से इस प्रकार हैं:-(१) परस्सु-परस्य-दूसरों के; (२) तसु-तस्य उसके; (३) दुल्लहहो दुर्लभस्य दुर्लभ के और (४) सुअणस्सु-सुजनस्य सज्जन पुरूष के।। इन उदाहरणों में 'सु' 'हो' और 'स्सु' प्रत्यय वाले पदों का सद्भाव देखा जा सकता है। 'लुक्' प्रत्यय होने पर 'जण अथवा जणा' मनुष्य का ऐसा रूप होगा। उपरोक्त गाथा का संस्कृत-अनुवाद सहित हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार हैं:संस्कृत : यः गुणान् गोपयति आत्मीयान् प्रकटान् करोति परस्य।
तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य बलिं करोमि सुजनस्य।।१।। हिन्दी:-मैं अपनी श्रद्धांजलि रूप सद्भावना इस कलियुग में दुर्लभ उस सज्जन और भद्र पुरूष के लिये प्रस्तुत करता हूँ जो कि अपने स्वयं के गुणों को ढांकता है; अपने गुणों की कीर्ति नहीं करता है और दूसरों के गुणों को प्रकट करता है।।४-३३८।।
__ आमो ह।।४-३३९॥ अपभ्रंशे अकारात् परस्यामोमित्यादेशो भवति।। तणहं तइज्जी भगि न वि तें अवड-यडि वसन्ति।। अह जणु लग्गि वि उत्तरइ अह सह सई मज्जन्ति।।१।।
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों के षष्ठी बहुवचन में प्राप्तव्य संस्कृत-प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर 'ह' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से सूत्र-संख्या ४-३४५ से 'लुक्-०' रूप से भी षष्ठी विभक्ति
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320 : प्राकृत व्याकरण
में प्राप्ति हो सकती है। उदाहरण रूप से गाथा में संग्रहित पद इस प्रकार हैं:- (१) तणह-तृणानाम् तिनकों के। गाथा का संस्कृत और हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : तृणानाम् तृतीया भङ्गी नापि, (-नैव), तानि अवट तटे वसन्ति।।
अथ जनः लगित्वा उतरति अथ सह स्वयं मज्जन्ति।। हिन्दी:-जो घास नदी-नाला आदि के किनारे पर उगता है; उसकी दो ही अवस्थाएं होती हैं; तीसरी अवस्था का अभाव है, या तो लोग उनको पकड़ करके उतरते हैं अथवा उनके साथ स्वयं डूब जाते हैं।।४-३३९।।
हुं चेदुदभ्याम्॥४-३४०।। अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां परस्यामो हुं हं चादेशौ भवतः।। दइवु घडावइ वणि तरूहुं सउणिहं पक्क फलाइ।। सो वरि सुक्खु पइट्ठ ण वि कण्णहिं खल-वयणाई।।१।। प्रायोधिकारात् क्वचित् सुपोपि हु।। धवलु विसूरइ सामि अहो, गरूआ भरू पिक्खे वि।। अउं कि न जुत्तउ दुहुँ दिसिहं खंडई दोण्णि करे वि।। २।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में इकारान्त और उकारान्त शब्दों के षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर 'हुं और हं' ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसा कि प्रथम गाथा में आये हुए निम्नोक्त पदों से जाना जा सकता है। (१) तरूहुं-तरूणां-वृक्षों के; (२) सउणिह-शकु-नीनां पक्षियों के लिये) प्राकृत-अपभ्रंश आदि भाषाओं में चतुर्थी और षष्ठी' विभक्तियां एक जैसी ही होती हैं; इसलिये दूसरा पद 'मउणिह' षष्ठी में होता हुआ भी चतुर्थी विभक्ति-बोधक है। गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी भाषान्तर निम्न प्रकार से है:संस्कृत : देवःघटयति वने तरूणां शकुनीनां (कृते) पक्व-फलानि।।
तद् वरं सोख्यं प्रविष्टानि नापि कर्णयोः खल-वचनानि।। हिन्दी:-भाग्य से वन में पक्षियों के लिये वृक्षों पर पके हुए फलों का निर्माण किया हैं; ऐसा होना पक्षियों के लिये बहुत सुखकारी ही है; क्योंकि इससे (पेट-पूर्ति के लिये) पक्षियों को दुष्ट-पुरूषों के वचन तो कानों द्वारा नहीं सुनने पडते हैं; अर्थात् खल-वचन कानों में प्रवेश तो नहीं करते हैं।।१।।
'प्रायः' अधिकार से 'हु' प्रत्यय ‘इकारान्त-उकारान्त' शब्दों के लिये सप्तमी-विभक्ति के बहुत वचन में भी प्रयुक्त होता हुआ देखा जाता है। सप्तमी के बहुवचन में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति आगे आने वाले सूत्र संख्या ४-३४७ से जानना चाहिये। यहां पर 'हु' प्रत्यय की सिद्धि के लिये द्वितीय गाथा में 'दु हुं-द्वयोः दो में ऐसा पद दिया गया है। द्वितीय गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : धवलः खिद्यति (विसूरइ) स्वामिनः गुरूं भारं प्रेक्षय।।
अहं किं युक्तः द्वयोर्दिशो खंडे द्वे कृत्वा।।२।। अर्थः-(कवि कल्पना है कि एक विवेकी) सफेद बैल अपने (एक और जुते हुए) स्वामी को भारी बोझ से (लदा हुआ) देख करके अत्यन्त दुःख का अनुभव करता है और (अपने आप के लिये कल्पना करता है कि)-मैं दो विभागों में क्यों नहीं विभाजित कर दिया गया; जिससे कि मैं जुए की दोनों दिशाओं में दोनों ओर जोत दिया जाता।।४-३४०।।
___ उसि-भ्यस्-डीनां हे-हुं-हयः।।४-३४१।। अपभ्रंशे इदुद्-भ्यां परेषां उसि-भ्यस्-डि इत्ये तेषां यथासंख्यं हे, हु, हि इत्येते त्रय आदेशाः भवन्ति। उसे है।
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गिरि सिलायलु तरूहे फलु घेप्पइ नीसावँन्नु |
घरू मेल्लेप्पिणु, माणुसहं तो वि न रूच्चइ रन्नु || १ ॥ भ्यसो हु ||
तहुं वि वक्कलु फलु मुणि वि परिहणु असणु लहन्ति ।। सामि ति अग्लउं आयरू भिच्चु गृहन्ति ॥ २ ॥
अविरल - पहाउ जि कलि हि धम्मु ॥ ३ ॥
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में इकारान्त शब्दों के और उकारान्त शब्दों के पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृत - प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'हे' प्रत्यय की आदेश - प्राप्ति होती है। इन्हीं शब्दों के पंचमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य संस्कृत-प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर 'हु' प्रत्यय की आदेश - प्राप्ति होती है और सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृत - प्रत्यय 'डि' के स्थान पर 'हि' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति जानना चाहिये। इन तीनों प्रकार के प्रत्ययों के उदाहरण क्रम से उपरोक्त तीनों गाथाओं में दिये गये है ।। जिन्हें मैं क्रम से संस्कृत - हिन्दी अनुवाद सहित नीचे उद्धृत कर रहा हूँ। 'ङसि = हे' के उदाहरण :- (१) गिरि हे - गिरे : = पहाड़ से (२) तरूहे = तरो = वृक्ष से । गाथा का सम्पूर्ण अनुवाद यों हैं
संस्कृत :
गिरेः शिलातलं, तरोः फलं गृह्यते निः सामान्यम् ॥ गृहं मुक्त्वा मनुष्याणां तथापि न रोचते अरण्यम् ॥
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 321
अर्थः- इस विश्व में सोने के लिये सुख पूर्वक विस्तृत शिला तल पहाड़ से प्राप्त हो सकता है और खाने के लिये बिना किसी कठिनाई के वृक्ष से फल प्राप्त हो सकते हैं; फिर भी आश्चर्य है कि अनेक कठिनाईयों से भरे हुए गृहस्थाश्रम को छोड़ करके मनुष्यों को वन-वास रूचिकर नहीं होता है। अरण्यनिवास अच्छा नहीं मालुम होता है। ' भ्यस् = हुं के द्दष्टान्त यों है:- (१) तरूहुं- तरूभ्य:- वृक्षों से और (२) सामिहुं - स्वामिभ्यः मालिकों से । यों दोनो पदों में पंचमी विभक्ति बहुवचन में 'भ्यस्' प्रत्यय के स्थान पर 'हुं' प्रत्यय की आदेश - प्राप्ति हुई है। गाथा का अनुवाद यों हैं:
संस्कृत : तरूभ्य अपि वल्कलं फलं मनुयः अपि परिधानं अरानं लभन्ते ।। स्वामिभ्यः इयत अधिकं (अग्गलउं ) आदरं भृत्याः गृह्णन्ति ॥ २ ॥
हिन्दी : - जिस तरह से मुनिगण वृक्षों से छाल तो पहिनने के लिये प्राप्त करते हैं और फल खाने के लिये प्राप्त करते हैं; उसी तरह से नौकर भी ( अपनी गुलामी के एवज में ) अपने स्वामी से भी खाने पीने और पहिनने की सामग्री के अलावा केवल (नकली रूप से) थोड़ा सा आदर (मात्र हो) अधिक प्राप्त करते है । (फिर भी आश्चर्य है कि उन्हें वैराभ्य नही आता है ) ।। २ ।। 'ङि - हि' का द्दष्टान्त यों है:- कलिहि-कलौ कलियुग में पूरी काव्य पंक्ति का संस्कृत - पूर्वक हिन्दी अनुवाद यो हैं :
-
संस्कृत : अथ विरल - प्रभावः एव कलौ धर्मः ।। ३॥
हिन्दी :
कलियुग में निश्चय ही धर्म अति स्वल्प प्रभाव वाला हो गया है । । ३ । ।४-३४१ ।।
आटो णानुस्वारौ ।।४-३४२ ।।
अपभ्रंशे अकारत् परस्य टा वचनस्य णानुस्वारावादेशौ भवतः । । दइएं पवसन्ते ।।
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों के तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृत - प्रत्यय 'टा' के स्थान पर (१) 'ण' और (२) 'अनुस्वार' यों दो प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। इन आदेश प्राप्त प्रत्ययों के पूर्व मूल अङ्ग रूप अकारान्त शब्दों के अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर सूत्र - संख्या ३-१४ से 'ए' की प्राप्ति हो जायेगी। यों प्राप्त प्रत्ययों का रूप (१) 'एण' और (२) 'ए' हो जायगा । सूत्र - संख्या १ - २७ से 'एण' के स्थान पर 'एण' रूप की भी विकल्प से प्राप्ति होगी । इस प्रकार से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त शब्दों में तीन प्रत्यय हो जायगे।। जैसेः- (१) जिणेण, (२) जिणेणं (३) जिणे । वृत्ति में दिया गया उदाहरण इस प्रकार से है: दइएं
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322 : प्राकृत व्याकरण
और
पवनसन्तेण-दयितेन प्रवसता प्रवास करते हुए (विदेश जाते हुए) पतिदेव से।। इस वाक्य में 'ण' और 'अनुस्वार' दोनों प्रत्ययों का उपयोग प्रदर्शित कर दिया है।। शब्दान्त्य अकार' के स्थान पर 'एकार' की प्राप्ति भी हुई है।।४-३४२।।
एं चेदुतः॥४-३४३॥ अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां परस्य टावचनस्य एं चकारात् णानुस्वारौ च भवन्ति।। ए।। अग्गिएं उण्हउ होइ जगु वाएं सीअलु तेव।। जो पुणु हग्गि सीअला तसु उण्ह त्तणु केव।।१।। णानुस्वारौ। विप्पिअ-आरउ जइ वि पिउ तो वि तं आणहि अज्जु।। अग्गिण दड्डा जइ वि घरू तो तें अग्गि कज्जु।। २।। एवमुकारादप्युदाहाः ।।
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में इकारान्त और उकारान्त शब्दों में, पुल्लिंग और नपुंसकलिगों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृत-प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होती है।। इसके सिवाय मूल-सूत्र में और वृत्ति में प्रदर्शित 'चकार' से सूत्र-संख्या ४-३४२ में वर्णित प्रत्यय अनुस्वार तथा 'ण' की अनुवृत्ति भी कर लेनी चाहिये। यों इकारान्त उकारन्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'एं, अनुस्वार और ण' इन तीन प्रत्ययों। का सद्भाव हो जाता है। इनके अतिरिक्त सूत्र संख्या १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर विकल्प से अनुस्वार की प्राप्ति भी हो जाती है। 'ए' प्रत्यय के उदाहरण उपरोक्त प्रथम गाथा में इस प्रकार दिये गये हैं:- (१) अग्निना-अग्गिएं अग्नि से; (२) वातेन वाएं-हवा से। अनुस्वार का उदाहरणः- (१) अग्निना=अग्गि=अग्गि से। द्वितीय गाथा में 'ण' प्रत्यय र' प्रत्यय का
। एक एक उदाहरण दिया गया है। जो कि इस प्रकार है:- (१) अग्गिण-अग्निना अग्नि से और (२) त तेन उससे; तथा (३) अग्गि=अग्निना=अग्नि से। ये उदाहरण इकारान्त पुल्लिंग शब्द के दिये गये हैं और उकारन्त पुल्लिंग शब्द के उदाहरणों की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये; ऐसी सूचना ग्रन्थकार वृत्ति में देते है। उपरोक्त दोनों गाथाओं का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : अग्निना उष्णं भवति जगत्; वातेन शीतलं तथा।
यः पुनः अग्निना शीतलः, तस्य उष्णत्वं कथम्।। हिन्दी:-यह सारा संसार अग्नि से उष्णता का अनुभव करता है और हवा से शीतलता का अनुभव करता है; परन्तु जो (सन्त-महात्मा) अग्नि से शीतलता का अनुभव कर सकते हैं; उनको उष्णता जनित पीड़ा कैसे प्राप्त हो सकती है? अर्थात् त्यागशील महात्मा को विषय-कषाय रूप अग्नि कुछ भी पीड़ा नहीं पहुंचा सकती है। संस्कृत : विप्रिय कारकः यद्यपि प्रियः तदपि तं आनय अद्य।
अग्निना दग्ध यद्यपि गृहं, तदपि तेन अग्निना कार्यम्।। २।। हिन्दी:-मेरा पति मुझे दुःख देने वाला है; फिर भी उसको आज (ही) यहाँ पर लाओ। (क्योंकि अन्ततोगत्वा वह मेरा स्वामी ही है) जैसे कि अग्नि से यद्यपि सारा घर जल गया है। फिर भी क्या अग्नि का त्याग किया जा सकता हैं? अर्थात् क्या दैनिक कार्यों में अग्नि की आवश्कता पड़ने पर अग्नि का उपयोग नहीं किया जाता है।।४-३४३।।
स्यम्-जस-शसां लक।।४-३४४।। ___ अपभ्रंशे सि, अम्, जस्, शस्, इत्येतेषां लोपो भवति।। एइ ति घोड़ा, एह थलि।। (४-३३०) इत्यादि। अत्र स्यम् जसां लोपः।।
जिवँ जिवं वकिम लोअणहं, णिरू सामलि सिक्खेइ।
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तिवँ तिवँ वम्महु निअय - सर खर- पत्थरि तिक्खे ॥ | १ || अत्र स्यम् शमां लोपः ।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में इकारान्त पुल्लिंग और उकारन्त पुल्लिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के दोनों वचनों में तथा द्वितीया विभक्ति के दोनों वचनों में क्रम से प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि, जस् और अमृ, शम् का लोप हो जाता है। लोप होने के पश्चात् उक्त दोनों विभक्तियों के दोनों वचनों में दो-दो रूप क्रम से ह्रस्व स्वरान्त और दीर्घ स्वरान्त के रूप में बन जावेंगे। अर्थात् ह्रस्व इकार, दीर्घ इकार के रूप में और ह्रस्व उकार, दीर्घ ऊकार के रूप में विकल्प से स्थान पर ग्रहण कर लेता है। जैसा कि सूत्र - संख्या ४- ३३० में लिखित गाथा में अंकित 'थलि' पद से ज्ञात होता है। स्थली =थलि पृथ्वी भाग । यहाँ पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'सि' का लोप हुआ है। उपरोक्त सूत्र - रचना से भी ज्ञात होता है कि अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में भी प्रथमा के दोनों वचनों में तथा द्वितीया के दोनों वचनों में भी विकल्प से इन प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' जस्, अम्, शस् का लोप हो जाता है। लोप प्राप्ति के पश्चात् अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अकार' के स्थान पर विकल्प से दीर्घ स्वर 'आकार' की प्राप्ति होती है। उदाहरण के रूप में सूत्र-संख्या ४-३३० में दी गई गाथाओं के पदों में ये रूप देखे जा सकते हैं :- कुछ उदाहरण इस सूत्र के संदर्भ में दी गई गाथा में भी दिये हैं जो इस प्रकार हैं:- (१) श्यामला - सामलि= श्याम वर्ण वाली नायिका (प्रथमान्त पद)। (२) निजक- शरान-निअय-सर अपने बाणों को (द्वितीया - बहुवचनान्त पद) (३) वक्रिमाणं वकिम= नेत्रों को टेढ़ा करने की वृत्ति को (द्वितीया एक वचनान्त पद) इन उदाहरणों द्वारा उक्त विभक्तियों में प्राप्तव्य प्रत्ययों का लोप प्रदर्शित किया गया है ।। पूरी गाथा का अनुवाद इस प्रकार है:
संस्कृत : यथा यथा वक्रिमाणं लोचनयोः नितरां श्यामला षिक्षते ॥ तथा तथा मन्मथः निजकषरान् खर- प्रस्तरे तीक्षणयति ।।
हिन्दी:-यह श्याम-वर्णीय नव युवती ज्यों ज्यों दोनों आँखों द्वारा कटाक्ष- पूर्वक वक्र देखने की वृत्ति को सीखती हैं; त्यों त्यों कामदेव अपने बाणों को तीक्ष्ण - पत्थर पर अधिकारधिक तीक्ष्ण- तेज करता जा रहा है ।।४-३४४।।
षष्ठयाः।।४-३४५॥
अपभ्रंशे षष्ठया विभक्त्याः प्रायो लुग् भवति ||
संगर-सए हिँ जु वण्णिअइ देक्खु अम्हारा कन्तु ।।
अइमत्तहं चत्तङकु सहं गयकुम्भदं दारन्तु ॥१॥ पृथग्योगो लक्ष्यानुसारार्धः ॥
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 323
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में षष्ठी विभक्ति के एकवचन तथा बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्ययों का विकल्प से अथवा प्रायः लोप होता है; इकारान्त एवं उकारन्त शब्दों में भी षष्ठी एकवचन के प्रत्ययों का सर्वथा लोप हो जाता है; ऐसा होने पर मूल अङग के अन्त्य स्वर को ही विकल्प से दीर्घत्व की प्राप्ति होती है। जैसे:इसि अथवा इसी = ऋषि का । गुरू अथवा गुरू = गुरूजी का । स्त्रीलिंग शब्दों में भी षष्ठी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय का विकल्प से लोप होता है । वृत्ति में उद्धत गाथा में षष्ठी विभक्ति वाले तीन पद आये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:-(१) अइमत्तहं-अतिमत्तानां - बहुत ही मदोन्मत्त हुओं की ; (२) चत्तङ्कुसहं त्यक्तांकुशानाम् - जिन्होंने अंकुश (हाथी को संभालने का छोटा सा हथियार विशेष) को चुभाकर दिये जाने वाले आदेश को मानने से इन्कार कर दिया हैं-ऐसे (हाथियों) को; (३) गय= गजानाम् = हाथियों को । इन उदाहरणों में से प्रथम दो उदाहरणों में तो षष्ठी - बहुवचन-बोधक-प्रत्यय 'ह' का अस्तित्व है; जबकि तीसरे पद में उक्त प्रत्यय का लोप हो गया हैं; यों षष्ठी विभक्ति में प्राप्तव्य प्रत्यय की 'प्रायः ' स्थिति कही गई है। गाथा का अनुवाद इस प्रकार हैं:
संस्कृत : संगरशतेषु यो वणयते पष्य अस्माकं कान्तम् ॥
अतिमत्तानां त्यक्तङ्कुषानां मजानां कुभ्भान् दारयन्तम्॥
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324 : प्राकृत व्याकरण
____ अर्थः-अति मदोन्मत्त और अंकुश को भी नहीं मानने वाले ऐसे हाथियो। की गर्दनों का विदारण करने वाले और ऐसा पराक्रम होने के कारण से जिसके यश का वर्णन सैकड़ों युद्धों में किया जाता है; ऐसे हमारे पति को देखो।।१।। _ 'गय कुम्भई पद का निर्माण समास रूप में भी हो सकता हैं और ऐसा होने पर 'गयाहं पद में रहे हुए प्रत्यय 'ह' का व्याकरणनसार लोप हो जाता हैं: परन्त यहाँ पर प्राप्तव्य प्रत्यय 'ह' का लोप 'समास नहीं करके ही बतलाने का ध्येय हैं; इसलिये इस 'गय' पद को 'कुम्भइ' पद से पृथक ही समझना चाहिये। इस मन्तव्य को समझाने के लिये ही वृत्तिकार ने वृत्ति में 'पृथक-योगो' अर्थात् 'दोनों को अलग-अलग समझों' ऐसी सूचना उक्त पदों से दी है। 'लक्ष्यानुसारार्थः' का तात्पर्य यह है कि:-व्याकरण के नियम का अनुसरण करने के लिये ही उक्त पद ‘गय' को षष्ठी वाला ही समझो।।४-३४५।।
आमन्त्र्ये जसो होः।।४-३४६।। अपभ्रंशे आमन्त्र्येर्थे वर्तमानान्नाम्नः परस्य जसो हो इत्यादेशो भवति। लोपापवादः।। तरूणओ तरूणिहो मुणिउ मइँ करहु म अप्पहो घाउ।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में संबोधन के बहुवचन में संज्ञाओं में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर (विकल्प से) 'हो' प्रत्यय रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। इस सूत्र को सूत्र-संख्या ४-३४४ के स्थान पर अपवाद रूप समझना चाहिये। उदाहरण इस प्रकार है:- हे तरूणाः ! हे तरूण्यः (च) ज्ञातं मया, आत्मनः घातं मा कुरूत-तरूण्हो! तरूणिहो! मुणिउ मइँ, करहु म अप्पहो घाउ-अरे नवयुवको। और अरे नवयुतियों ! मैंने (सत्य) ज्ञान प्राप्त किया हैं; इसलिये तुम अपने आपको (विषय-अग्नि में डाल कर के) आत्म-घात मत करो। यहाँ पर 'तरूण्हो और तरूणिहो' पद संबोधन-बहुवचन के रूप में प्राप्त होकर 'हो' प्रत्ययान्त है।।४-३४६।।
भिस्सुपोर्हि।।४-३४७।। अपभ्रंशे भिस्सुपोः स्थाने हिं इत्यादेशौ भवति।। गुणहिं न संपइ कित्ति पर। (४-३३५)॥ सुप्॥ भाईराहि जिवँ भारइ मग्गेहिं तिहिं वि पयट्टइ।।
अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में तृतीया के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस् के स्थान पर 'हिं' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती हैं; इसी प्रकार से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'सुप' के स्थान पर भी अपभ्रंश भाषा में 'हिं' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है।। दोनो के क्रम से उदारहरण इस प्रकार हैं:
(१) गुणैः न संपत् कीर्तिः परं-गुणहिं न संपइ कित्ति पर=गुणों से संपत्ति नहीं प्राप्त की जा सकती हैं; परन्तु (गुणों से) कीर्ति प्राप्त की जा सकती है।। (पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३३५ में देखो) (२) भागीरथी यथा भारते त्रिषु मार्गेषु प्रवर्तते=भाईरहि जिवँ भारइ मग्गेहिं तिहिं वि पयट्टइ-जैसे गंगा नदी भारतवर्ष में तीन मार्गों में बहती है। यहाँ पर 'भग्गेहि और तिहिं' पदों में सप्तमी-बहुवचन-बोधक-अर्थ में 'सुप्' प्रत्यय के स्थान पर 'हिं' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति जाती है।।४-३४७।।
स्त्रियां जस्-शसोरूदोत्।।४-३४८।। __ अपभ्रशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परस्य जसः शसश्च प्रत्येकमुदोतावादेशौ भवतः। लोपापवादो।। जसः। अंगुलिउ जज्जरयाउ नहेण।। (४-३३३) शसः।
सुन्दर-सव्वङगाउ विलालिणीओ पेच्छन्ताण।।१।। वचन-भेदान्न यथा-संख्यम्।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में सभी प्रकार के स्त्रीलिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर 'उ' और 'ओ' ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से इन्हीं स्त्रीलिंग शब्दों के
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 325
द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर उक्त 'उ' और 'अ' ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति जानना चाहिये । यों प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में उक्त प्रत्ययों की संयोजना करने के पहिले प्रत्येक स्त्रीलिंग शब्द के अन्त्य स्वर को विकल्प से हस्व के स्थान पर दीर्घत्व की और दीर्घ स्वर के स्थान पर ह्रस्व स्वर की प्राप्ति भी क्रम से हो जाती है। ऐसा होने से दोनों विभक्तियों के बहुवचन में प्रत्यय शब्द के लिये चार चार रूपों की प्राप्ति हो जाया करती है वह सूत्र सूत्र - संख्या ४- ३४४ के प्रति अपवाद रूप सूत्र है। दोनों ही विभक्तियों के बहुवचनों में समान रूप से प्रत्ययों का सद्भाव होने से 'यथा' संख्यम् अर्थात् 'क्रम से' ऐसा कहने की आवश्यकता नहीं रही है। दोनों विभक्तियों के क्रम 'उदाहरण इस प्रकार हैं:
( १ ) अंगुल्यः जर्जरिताः नखेन = अंगुलिउ जज्जरियाउ नहेण = ( गणना करने के कारण से नख से अंगुलियाँ जर्जरित हो गई हैं; पीड़ित हो गई है । । यहाँ पर प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के अर्थ में 'उ' प्रत्यय' की प्राप्ति हुई है। पूरी गाथा सूत्र संख्या सूत्र संख्या ४- ३३३ में देखना चाहिये ।
(२) सुन्दर-सर्वांगी: विलासिनी: प्रेक्षमाणानाम् = सुन्दर - सव्वंगाउ विलालिणीओ (विलासिणीओ) पेच्छन्ताण सभी अंगों से सुन्दर आन्नद मग्न स्त्रियों को देखते हुए (पुरूषों) के लिये (अथवा पुरूषों के हृदय में ) । । यहाँ पर भी द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में से 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों को प्रदर्शित किया गया है ।।४-३४८ ॥
ट ए।।४-३४९॥
अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानाननाम्नः परस्याष्टायाः स्थाने ए इत्यादेशौ भवति ।। निअ - मुह- करहिं वि मुद्ध कर अन्धारइ पडिपेक्खइ || ससि-मंडल-चंदिमए पुणु काइं न दूरे देवख ॥ | १ || जहिं मरगय-कन्तिए संवलिअ ||
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में सभी प्रकार के स्त्रीलिंग शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' 'स्थान पर 'ए' ऐसे एक ही प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'ए' की संयोजना करने के पहिले शब्द के अन्त में रहे हुए हस्व स्वर को दीर्घ स्वर की और दीर्घ स्वर को ह्रस्व की ह्रस्व स्वर की प्राप्ति विकल्प से हो जाती है । यों स्त्रीलिंग शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से दो दो रूपों की प्राप्ति होती है। जैसे: - चन्द्रिकया = चंदिमए - चांदनी से । यहाँ पर 'ए' प्रत्यय के पूर्व 'चंदिमा ' से 'चदिम' हो गया है। (२) कान्त्या = कन्तिए - कांति से आभा से || वृत्ती में दी गई गाथाओं का अनुवाद क्रम से इस प्रकार हैं:निज मुख करैः अपि मुग्धा करं अन्धकारे प्रतिपेक्षते ।। राशि- मंडल - चन्द्रिकया पुनः किं न दूरे पष्यति १ ॥
संस्कृत :
हिन्दी:- ( विषयों में आसक्त हुई) मुग्धा (स्त्री) अपने मुख को किरणों से भी अन्धकार में अपने हाथ को देख लेती है; तो फिर पूर्ण चन्द्र- मंडल की चांदनी से दूर दूर तक क्यों नहीं देख सकती हैं? अथवा किन किन को नहीं देखती है || १ ||
(२) संस्कृत : - यत्र मरकत - कान्त्या संवलितम् = जहिं मरगय-कन्तिए संलिअं जहाँ पर मरकत - मणि की कान्ति से- आभासे - घेराये हुए को - आच्छादित को । ( गाथा अपूर्ण है) ।। २ ।। शेष रूपों की कल्पना स्वयमेव कर लेना चाहिये।।४-३४९।।
डस्-ङस्योर्हे।।४-३५०॥
अपभ्रंशे स्त्रियाम् वर्तमानान्नाम्नः परयोर्डस् ङसि इत्येतयोर्हे इत्यादेशौ भवति ।। ङसः । तुच्छ - मज्झेहे तुच्छ - जपिरहे ।
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326 : प्राकृत व्याकरण
तुच्छच्छ-रोमावलिहे तुच्छ-राय तुच्छयर-हासहे। पिय-वयणु अलहन्ति-अहे तुच्छकाय-वम्मइ निवासहे। अन्नु जु तुच्छउं तहे धणहे तं अक्खणह न जाइ। कटरि थणं तरू मुद्धडहे जे मणु विच्चि ण माइ।।१।। उसेः। फोडेन्ति जे हियडउँ अप्पणउँ ताहँ पराई कवणघण। रक्खेज्जहु लोअहो अप्पणा बालहे जाया विसम थण।। २।।
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिंग शब्दों में पंचमी विभक्ति में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'हे' प्रत्यय रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से षष्ठी विभक्ति में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर 'हे' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति हो जाया करती है। सूत्र-संख्या ४-३४५ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में उक्त रीति से आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'हे' का लोप भी प्रायः हो जाया करता है। इसके अतिरिक्त प्राप्तव्य प्रत्यय 'हे' की संयोजना करने के पूर्व अथवा 'हे' प्रत्यय के लोप होने के पूर्व स्त्रीलिंग शब्दों में अन्त्य रूप से रहे हुए स्वर को हस्व से दीर्घत्व और दीर्घ से हृस्वत्व की प्राप्ति भी वैकल्पिक रूप से जो जाया करती हैं; यों पंचमी विभक्ति के एकवचन में दो रूपों की प्राप्ति होती है और षष्ठी विभक्ति के एकवचन में चार रूपों की प्राप्ति का विधान जानना चाहिये। वृत्ति में पंचमी और षष्ठी विभक्तियों के रूपों को प्रदर्शित करने के लिये जो गाथाएँ उद्धृत की गई हैं; उनमें आये हुए पदों में 'हे' प्रत्यय को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया गया है। गाथाओं का संस्कृत और हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : तुच्छ-मध्यायाः तुच्छ जल्पन-शीलायाः।
तुच्छाच्छ रोमावल्याः तुच्छ रागायाः तुच्छतरहासायाः।। प्रियवचनमलभमानायाः तुच्छकायमन्मथनिवासायाः।। अन्यद् यत्तुच्छं तस्याः धन्यायाः तदाख्यातुं न याति।।
आश्चर्यं स्तानान्तरं मुग्धायाः येन मनो वर्त्मनि न माति।। अर्थः-सूक्ष्म अर्थात् पतली कमरवाली, अल्प बोलने के स्वभाववाली, पतले और सुन्दर केशों-वाली, अल्प कोपवाली अथवा अल्प रागवाली, बहुत थोड़ा हँसने वाली, प्रिय पति के वचनों को नहीं प्राप्त करने से दुबले शरीर वाली, जिसके पतले और सुन्दर शरीर में कामदेव ने निवास कर रखा है ऐसी; इतनी विशेषताओं वाली उस धन्य अर्थात् अहो भाग्यवाली मुग्धा नायिका का जो दूसरा भाग सूक्ष्म है-अर्थात् पतला है; उसका वर्णन नहीं जा सकता है।। अपनी चंचलता के कारण से परिभ्रमण करता हुआ जो सूक्ष्म आकृतिवाला मन विस्तृत मार्ग में भी नहीं समाता है; आश्चर्य है कि ऐसा वही मन (उक्त नायिका के) स्थूल स्तनों के मध्य में अवकाश नहीं होने पर भी वहाँ पर समा गया है। उपरोक्त अपभ्रंश पदों में षष्ठी विभक्ति-बोधक प्रत्यय 'ङस् हे' का सद्भाव स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया गया है। अब पंचमी बोधक प्रत्यय 'हे' वाली गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : स्फोटयतः यो हृदयं आत्मीयं, तयोः परकीया का घृणा।
__ रक्षतः लोकाः आत्मानं बालायाः जातो विषमो स्तनौ।। ३।। हिन्दी:-जो (स्तन) खुद के हृदय को ही विस्फोटित करके उत्पन्न हुए हैं; उनमें दूसरों के लिये दया कैसे हो सकती हैं ? इसलिये हे लोगों ! इस बाला से अपनी रक्षा करो; इसके ये दोनों स्तन अत्यन्त विषम प्रकृति के-(घातक स्वभाव के) हो गये है।।३।। इस गाथा में 'बालहे' पद पंचमी विभक्ति एकवचन के रूप में कहा गया है।।४-३५०।।
भ्यसामो हुः॥४-३५१॥ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानानाम्नः परस्य भ्यस आमश्च हु इत्यादेशो भवति।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 327
भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कन्तु।। लज्जेज्जन्तु वयंसिअहु जइ भग्गा घरू एन्तु।।१।। वयास्याभ्यो वयस्यानाम् वेत्यर्थः।। .
अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिंग वाले शब्दों में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर 'हु' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर 'हु' की आदेश प्राप्ति (विकल्प से) जानना चाहिये। सूत्र-संख्या ४-३४५ से प्राप्त प्रत्यय 'हु का प्रायः लोप हो जाया करता है। इस संविधान के अतिरिक्त यह भी विशेषता है कि इस प्राप्त प्रत्यय 'हु' में अथवा 'लोप-विधान' के पर्व स्त्रीलिंग शब्दों में रहे हए अन्त्य स्वर को विकल्प से हस्व से दीर्घत्व की और दीर्घ से हस्वत्व की प्राप्ति भी होती है। यों पंचमी विभक्ति के बहुवचन में स्त्रीलिंग शब्दों में दो रूप होते हैं और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में चार चार रूप हो जाते हैं। उदाहरण के रूप में गाथा में जो पद 'वयसि अहु' दिया गया है; उसको पंचमी और षष्ठी के बहुवचन में दोनों में गिना जा सकता है। जैसा कि:- वयस्याभ्यः अथवा वयस्यानाम् वयंसिअहु-मित्रों से अथवा मित्रों के बीच में पूरी गाथा का संस्कृत हिन्दी रूपान्तर यों है:संस्कृत : भव्यं भूतं यन्मारितः भगिनि ! अस्मदीयः कान्तः।
अलज्जिष्यत् वयस्याभ्यः यदि भग्नः गृहं ऐष्यत्।। अर्थः- हे बहिन ! यह बड़ा अच्छा हुआ कि मेरे पति (युद्व में युद्ध करते-करते) मारे गये। यदि वे हार कर (अथवा कायर बन कर) घर पर आ जाते तो मित्रों से (अथवा मित्रों के बीच में) लज्जित किये जाते। (उनकी हँसी उड़ाई जाती)।।४-३५१।।
हि॥४-३५२।। अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमनानाम्नः परस्य डेः सप्तम्येकवचनस्य हि इत्यादेशो भवति।। वायस उडावन्तिअए पिउ दिट्रिउ सहस ति।। अद्धा वलया महि हि गय अद्धा फुट्ट तड त्ति।।१।।
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिंग शब्दों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'डि' के स्थान पर 'हि' प्रत्यय रूप की आदेश प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'हि' की संयोजना करने के पूर्व स्त्रीलिंग शब्दों के अन्त्य स्वर की विकल्प से 'हस्वत्व से दीर्घत्व'की और 'दीर्घत्व से हस्वत्व' की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार से अपभ्रंश भाषा में सभी स्त्रीलिंगवाचक शब्दों के सप्तमी विभक्ति के एकवचन में दो-दो रूप हो जाते है। जैसे:- महिहि, महीहि-पृथ्वी पर। धेणुहि, धेणूहि धेणूहि=गाय पर-गाय में। मालडिआहि, मालाडिअहि-माला में-माला पर। गाथा का अनुवाद यों हैं :संस्कृत : वायसं उड्डापयन्त्या प्रियो दृष्टः सहसेति।।
अर्धानि वलयानि मह्यां गतानि, अर्धानि स्फुटितानि तटिति।। हिन्दी:-शकुन शास्त्र में मकान के मुंडेर पर बैठकर कौए द्वारा 'काँव-काँव' किये जाने वाले शब्द से किसी के भी आगमन की सूचना मानी जाती है तदनुसार किसी एक स्त्री द्वारा कौए की काँव-काँव वाचक ध्वनि को सुनकर उसको उड़ाने के लिये ज्यों ही प्रयत्न किया गया तो अचानक ही उसको अपने प्रिय पति विदेश से घर आते हुए दिखलाई पड़े। इससे उस स्त्री को हर्ष मिश्रित रोमाञ्च हो आया और ऐसा होने पर उसके हाथ में पहिनी हुई चूड़ियाँ में से आधी तो धरती पर गिर पड़ी और आधी 'तड़ाक' ऐसे शब्द करते ही तड़क गई।।४-३५२ ।।
क्लीबे जस्-शसोरि।।४-३५३॥ अपभ्रंशे क्लीबे वर्तमानानाम्नः परयो र्जस्-शसोः इं इत्यादेशौ भवति॥
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328 : प्राकृत व्याकरण
कमलई मेल्लवि अलि उलई करि-गंडाइं महन्ति।। असुलह मेच्छण जाहं भलि ते ण वि दूर गणन्ति।।१।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में नपुंसकलिंग वाले शब्दों के प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में और तृतीया विभक्ति के बहुवचन में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस् और शस' के स्थान पर केवल एक ही प्रत्यय 'ई' की आदेश प्राप्ति होती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'इं की संयोजना करने के पूर्व नपुंसकलिंग वाले शब्दों के अन्त्य स्वर को विकल्प से 'हस्वत्व' से दीर्घत्व' और 'दीर्घत्व से हृस्वत्व की प्राप्ति क्रम से हो जाती है। यों इन विभक्तियों में दो-दो रूप हो जाया करते हैं। जैसे:- नेत्तइ।। नेत्ताइ-आँखों ने अथवा आँखों को। धणुइं, धणूइं, धणुइंधुनष्यों ने और धनुष्यों को। अच्छिई, अच्छीइं नेत्रों ने और नेत्रों को। वृत्ति में दी हुई गाथा में (१) अलि-उल-अलि-कुलानि= भँवरों का समूह प्रथमा-बहुवचननान्त पद है। (२) कमलइं-कमलानि-कमलों को तथा (३) करि-गंडाइं-करिगंडान् हाथियों के गंड-स्थलों को; ये दो पद द्वितीया बहुवचननान्त हैं। पूरी गाथा का अनुवाद इस प्रकार है:संस्कृत : कमलानि मुक्त्वा अलि कुलानि करिगंडान् कांक्षन्ति।।
असुलभं एष्टुं येषां निर्बधः (भलि), ते नापि (=नैव) दूरं गणयन्ति॥१॥ हिन्दी:-भँवरों का समूह कमलों को छोड़ करके हाथियों के गंड स्थलों की इच्छा करते हैं; इसमें यही रहस्य है कि जिनका आग्रह (अथवा लक्ष्य) कठिन वस्तुओं को प्राप्त करने का होता है, वे दूरी की गणना कदापि नहीं किया करते हैं।।१।।४-३५३।।
कान्तस्यात उं स्यमोः।।४-३५४।। अपभ्रंशे क्लीबे वर्तमानस्य ककारान्तस्य नाम्नो योकारस्तस्य स्यमोः परयोः उं इत्यादेशो भवति।। अनु जु तुच्छउं तहें धणहे।
भग्गउं देक्खिवि निअय-बलु-बलु पसरिअउं परस्सु।। उम्मिलइ ससि-रेह जिवँ करि करवालु पियस्सु।।१।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में नपुंसकलिंग वाले शब्दों के अन्त में 'ककार' वर्ण हो और उस 'ककार' वर्ण का सूत्र संख्या १-१७७ से लोप हो जाने पर शेष रहे हुए अन्त्य वर्ण 'अकार में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में और द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'उ' और लोप रूप शून्य के स्थान पर केवल 'उ' प्रत्यय की ही आदेश प्राप्ति
अन्त्य वर्ण 'व
क' का लोप
लोप हो जाने पर शेष रहे हुए 'अ' वर्ण को 'उत्त' स्वर की संज्ञा प्राप्ति हो जाती है। ऐसे शब्दों में ही उक्त दोनों विभक्तियों के एकवचन में केवल 'उ' प्रत्यय की आदेश प्र प्राप्ति जानना चाहिये। जैसे:- नेत्रक्रम् नेत्तउं-आँख ने अथवा आँख को। अक्षिकम् अच्छिउं आँख ने अथवा आँख को। गाथा में आये हुए प्रथमा द्वितीया विभक्तियों के एकवचन वाले पद इस प्रकार हैं:
(१) भग्नक = भग्गउं-टूटती हुई को- भागती हुई को।(२) प्रसृतक पसरिअउ = फैलती हुई को। (३) तुच्छकम्=तुच्छउं-तुच्छ को।। पूरी गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : भग्नकं द्दष्टवा निजकं बलं, बलं प्रसृतकं परस्य।।
उन्मीलति शशिलेखा यथा करे, करवालः प्रियस्य।।१।। अर्थः-अपनी फौज को भागते हुए अथवा बिखरते हुए देख करके और शत्रु की फौज को जीतते हुए एवं फैलते हुए देख करके मेरे प्रियतम के हाथ में तलवार यों यमकती हुई-शत्रुओं के गर्दनों को काटती हुई दिखाई देने लगी कि जिस प्रकार आकाश में उगते हुए बाल-चन्द्रमा की 'रेखा अथवा लेखा' सुन्दर दिखाई पड़ती है।।४-३५४॥
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 329
सर्वादे डसेरे ॥४-३५५।। अपभ्रंशे सर्वादे रकारान्तात् परस्य उसेहा इत्यादेशो भवति।। जहां होन्तउ आगदो। तहां होन्तउ आगदो। कहां होन्तउ आगदो।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'सर्व-सव्व' आदि अकारान्त सर्वनामों के पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'उसि' के स्थान पर 'हां' प्रत्यय रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) यस्मात् भवान् आगतः जहां होन्तउ आगदो जहाँ से आप आये है। (२) तस्मात् भवान् आगतः-तहां होन्तउ आगदो-वहाँ से आप आये है। (३) कस्मात् भवान् आगतः कहाँ होन्तउ आगदो-कहाँ से आप आये है।।४-३५५।।
किमो डिहे वा।।४-३५६॥ अपभ्रंशे किमो कारान्तात् परस्य उसे र्डिहे इत्यादेशौ वा भवति।। जइ तहे तुटउ नेहडा मई सुहं न वि तिल-तार।। तं कि वंकेहिं लोअणेहिं जोइज्जउं सयवार॥१॥
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'किम् सर्वनाम के अङ्ग रूप 'क' शब्द में पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि के स्थान पर डिहे इहे' प्रत्यय रूप की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। 'डिहे' प्रत्यय में 'डकार' इत्-संज्ञक होने के अङ्ग रूप के अन्त्य 'अ' का लोप होकर शेष अङ्ग रूप हलन्त 'क' में 'इहे' प्रत्यय की संयोजना की जानी चाहिये। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'काहां और कहां रूपों की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण के रूप में गाथा में 'किहे' पद दिया गया है, जिसका अर्थ है:- किस कारण से।। पूरी गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : यदि तस्याः त्रुट्यतु स्नेहः मया सह नापि तिलतारः(?)
तत् कस्मात् वक्राभ्याम् लोचनाभ्याम् द्दश्ये (अहं) शतवारम्।। हिन्दी:-यदि उसका प्रेम मेरे प्रति टूट गया है और प्रेम का अंश मात्र भी मेरे प्रति नहीं रह गया है तो फिर मैं किस कारण से उसके टेढ़े-टेढ़े नेत्रों से सैकड़ों बार देखा जाता हूँ? अर्थात् तो फिर मुझे वह बार-बार क्यों देखना चाहती है?।।४-३५६।।
ढे हि।।४-३५७॥ अपभ्रंशे सर्वादेकारान्तात् परस्य ः सप्तम्येक वचनस्य हिं इत्यादेशो भवति।। जर्हि कप्पिज्ज्जइ सरिण सरू छिज्जइ खरिगण खग्गु॥ तहिं तेहइ भड-घड निवहि कन्तु पयासइ मग्गु।।१।। एक्कहिं अक्खिहिं सावणु अन्नहिं भद्दवउ॥ माहउ महिअल-सत्थरि गण्डे-त्थले सरउ।। अंगिहिं गिम्ह सुहच्छी-तिल-वणि मग्ग सिरू।। तहे मुद्धहे मुह-पंकइ आवासिउ सिसिरू।। २।। हिअडा फुट्टि तडत्ति करि कालक्खेवे काइ।। देक्खउं हय-विहि कहिं ठवइ पई विणु दुक्ख-सयाइ।। ३।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'सर्व-सव्व' आदि अकारान्त सर्वनाम वाचक शब्दों के सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डि' के स्थान पर 'हिं' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। वृत्ति में दी गई गाथाओं में आये हुए निम्नोक्त पद सप्तमी के एकवचन में 'हिं' प्रत्यय के साथ क्रम से इस प्रकार हैं:
(१) जहिं यस्मिन् (अथवा यत्र)-जिसमें (अथवा जहाँ पर)।
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330 : प्राकृत व्याकरण
(२) तहि-तस्मिन् (अथवा तत्र)-उसमें (अथवा वहाँ पर)। (३) एक्कहिं एकस्मिन्-एक में। (४) अन्नहि अन्यस्मिन-दसरे में। (५) कहि-कस्मिन् कहाँ पर। तीनों गाथाओं का संस्कृत और हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : यस्मिन् कल्प्यते शरेण शरः, छिद्यते खड्गेन खड्गः।।
तस्मिन् ताद्दशे भट घटा निवहे कान्तः प्रकाशयति मार्गम्।।१।। हिन्दी:-जहाँ पर अर्थात् जिस युद्ध में बाण से बाण काटा जाता है अथवा काटा जा रहा है और जहाँ पर तलवार से तलवार काटी जा रही है। ऐसे भयंकर युद्व में रणवीर रूपी बादलों के समूह में (मेरा बहादुर) पति (अन्य वीरों को) युद्ध कला का आदर्श मार्ग बतलाता है (अथवा बतला रहा है)।।१।। संस्कृत : एकस्मिन् अक्ष्णि श्रावणः, अन्यस्मिन् भाद्रपदः।
माधवः (अथवा माघः) महीतलस्त्रं गण्ड स्थले शरत्।। अंगेशु ग्रीष्मः सुखासिका तिलवने मार्गशीर्षः।
तस्याः मुग्धायाः मुख पंकजे आवासितः शिशरः।। २।। हिन्दी:-इस काव्य रूप श्लोक में ऐसी नायिका की स्थिति का वर्णन किया गया है; जो कि अपने पति से दूर स्थल पर अवस्थित है। पति-वियोग से इस नायिका की आँखों में अश्रु-प्रवाह प्रवाहित होता रहता है, इससे ऐसा मालूम होता है कि मानों इसकी एक आँख में श्रावण मास का निवास स्थान है और दूसरी में भाद्रपद मास है। (पत्र और पुष्पों से निर्मित) उसका भूमि तल पर बिछाया हुआ बिस्तरा बसंत ऋतु के समान अथवा माघ मास के समान प्रतीत होता है। उसके गालों पर शरत्-ऋतु की आभा दिखाई देती है और अङ्ग-अङ्ग पर (वियोग-जनित-उष्णता के कारण से) ग्रीष्म ऋतु का आभास प्रतीत हो रहा है। (जब वह शांति के लिये) तिल उगे हुए खेतों में बैठती है तो ऐसा मालूम होता है कि मानों वहाँ पर मार्ग-शीर्ष मास का समय चल रहा है। ऐसी उस मुग्धा नायिका के मुखकमल की स्थिति है कि मानों उसके मुख-कमल पर 'शिशिर ऋतु का निवास स्थान है।।२।। संस्कृत : हृदय ! स्फुट तटिति (शब्द) कृत्वा काल क्षेपेण किम्।।
पश्यामि हत विधिः क्व स्थापयति त्वया विना दुःख शतानि।। ३।। हिन्दीः- हे हृदय ! 'तड़ाक' ऐसा शब्द करके अथवा करते हुए फट जा-विदीर्ण हो जा; ऐसा करने में विलम्ब करने से क्या (लाभ) है? क्योंकि मै देखता हूँ कि यह दुर्भाग्य तेरे सिवाय अन्यत्र इन सैकड़ों दुःखों को कहाँ पर स्थापित करेगा? अर्थात् इन आपतित सैंकड़ों दुःखों को झेलने की अपेक्षा से तो मृत्यु का वरण करना ही श्रेष्ठ है।।४-३५७।।
यत्तत्किंभ्यो ङसो डासु न वा॥४-३५८॥ अपभ्रंशे यत्तत्-किम् इत्येतेभ्यो कारान्तेभ्यः परस्य उसो डासु इत्यादेशो वा भवति। कन्तु महारउ हलि सहिए निच्छइं रूसइ जासु।। अत्थिहिं सत्थिहिं हत्थिहिं वि ठाउ वि फेडइ तासु।।१।। जीविउ कासु न वल्लहउं धणु पुणु कासु न इठु।। दोण्णि वि अवसर-निवडिआई तिण-सम गणइ विसिठ्ठ।। २।। - अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'यत् तत् और किम्' सर्वनामों के अकारान्त पुल्लिंग अवस्था में षष्ठी विभक्ति के एक
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 331 वचन में संस्कृत प्रत्यय "उस" के स्थान पर 'डासु-आसु" प्रत्यय की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। "डासु" रूप लिखने का तात्पर्य यह है कि "यत्-ज'", "तत्-त" और "किम्-क' में स्थित अन्त्य स्वर 'अकार" का "डासु-आसु" प्रत्यय जोड़ने पर लोप हो जाता है। यों "डासु" में स्थित "डकार" इत्संज्ञक है। गाथाओं में इन सर्वनामों के जो उदाहरण दिये हैं; वे क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) जासु-यस्य जिसका; (२) तासु-तस्य-उसका और (३) कासु-कस्य=किसका।। गाथाओं का अनुवाद निम्न प्रकार से है:संस्कृत : कान्त अस्मदीयः हला सखिके! निश्चयेन रूष्यति यस्य।।
___ अस्त्रैः शस्त्रै हस्तै रपि स्थान मपि स्फोटयति तस्य।।१।। हिन्दी:- हे सखि ! हमारा कान्त-प्रियपति-जिस पर निश्चय से रूठ जाता है-अथवा क्रोध करता है; तो उसके स्थान को भी निश्चय ही अस्त्रों से, शास्त्रों से और (यहाँ तक कि) हाथों से भी नष्ट कर देता है।।१।। संस्कृत : जीवितं कस्य न वल्लभकं, धनं पुनः कस्य नेष्टम्।।
द्वे अपि अवसर निपतिते, तृणसमे गणयति विशिष्टः।। २।। हिन्दी:- किसको (अपना) जीवन प्यारा नहीं है? और कौन ऐसा है जिसको कि धन (प्राप्ति) की आकांक्षा नहीं है? अथवा धन प्यारा नहीं है ? किन्तु महापुरूष कठिनाईयों के क्षणों में भी अथवा समय पड़ने पर भी दोनों को ही (जीवन तथा धन को भी) तृण घास तिनके के समान ही गिनता है। अर्थात् दोनों का परित्याग करने के लिये विशिष्ट पुरूष तत्पर रहते हैं।।२।।४-३५८।।
स्त्रियां डहे।।४-३५९॥ अपभ्रंशे स्त्रीलिंगे वर्तमानेभ्यो यत्तत्-किंभ्यः परस्य ङसो डहे इत्यादेशो वा भवति।। जहे केरउ। तहे केरउ। कहे केरउ।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिंग वाचक सर्वनाम 'या-जा', सा' और 'का' के षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'उस्' के स्थान पर 'डहे अहे' प्रत्यय की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। 'डहे रूप लिखने का यह रहस्य है कि 'जा, सा अथवा ता और का' में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' का 'डहे-अहे' प्रत्यय जोड़ने पर लोप हो जाता है। यों 'डहे' प्रत्यय में अववस्थित 'डकार' इत्संज्ञक है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- (१) यस्याः कृते जहे केरउ जिसके लिये।(२) तस्याः कृते-तहे केरउ-उसके लिये और (३) कस्यः कृते कहे केरइ-किसके लिये।।४-३५९।।
यत्तदः स्यमोधूत्रं ॥४-३६०।। अपभ्रंशे यत्तदोः स्थाने स्यमोः परयोर्यथासंख्यं धंत्रं इत्यादेशौ वा भवतः।। प्रगणि चिट्ठदि नाहु धंत्रं राणि करदि न भ्रन्ति।।१।। पक्षे। तं बोल्लिअइ जु निव्वहइ।।
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में 'यत' सर्वमान के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय प्राप्त होने पर तथा द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय प्राप्त होने पर मूल शब्द 'यत्' और 'प्रत्यय' दोनों के स्थान पर दोनों विभक्तियों में 'ध्र" रूप की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'तत् सर्वनाम में भी प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की संयोजना होने पर तथा द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय जुड़ने पर मूल शब्द 'तत्' और विभक्ति-प्रत्यय दोनों के स्थान पर दोनों विभक्तियों में 'त्र' रूप की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार से हैं:
(१) प्रागंणे तिष्ठति नाथः यत् यद् रणे करोति न भ्रान्तिम्-प्रगणि चिट्ठदि नाहु घुत्रं राणि करदि न भ्रन्ति= (क्योंकि) मेरे पति आंगन में विद्यमान है; इसलिये रण-क्षेत्र में संदेह को (अथवा भ्रमण को) नहीं करता है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'यत्' के स्थान पर 'जु रूप की और 'तत्' के स्थान 'तं' रूप की भी प्राप्ति होगी।
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332 : प्राकृत व्याकरण
उदाहरण यों हैं:- तं बोल्लिअइ जु निव्वहइ-तत् जल्प्यते यत् निर्वहति (उससे) वही बोला जाता है, जिसको वह निभाता है।।४-३६०||
इदम दमुः क्लीबे।।४-३६१।। अपभ्रंशे नपुसंकलिंगे वर्तमानयेदमः स्यमोः परयोः इमु इत्यादेशौ भवति।। इमुकुलु तुह तणउ।। इमु कुलु देक्खु।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में इदम् सर्वनाम के नपुंसकलिंगवाचक रूप में प्रथमा विभक्ति में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' की संयोजना होने पर तथा द्वितीया विभक्ति में 'अम्' प्रत्यय प्राप्त होने पर मूल शब्द 'इदम् और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर दोनों विभक्तियों के एकवचन में 'इमु रूप की आदेश प्राप्ति होती है।। जैसे:- (१) इदम् कुलम् इमु कुलु-यह कुल-यह वंश। (२) तव तृणम्=तुह तणंउ-तुम्हारा घास अथवा त्वत् तणयं-तुह तणउं-तुम से सम्बन्ध रखने वाला (यह कुल है) (३) इदं कुलं पश्य-इमु कुलु देक्खु-इस कुल को देख।।४-३६१।।
एतदः स्त्री-पुं-क्लीबे एह-एहो-एहु॥४-३६२।। अपभ्रंशे स्त्रियां पुसि नपुंसक वर्तमानस्यैतदः स्थाने स्यमोः परयोर्यथा-संख्यम् एह एहो एहु इत्यादेशा भवति।। एएह कुमारी एहो नरू एहु मणोरह-ठाणु।।। एहउँ वढ चिन्तन्ताहं पच्छइ होइ विहाणु।।१।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'एतत् सर्वमान के पुल्लिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय प्राप्त होने पर तथा द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय प्राप्त होने पर मूल शब्द 'एतत्' और 'प्रत्यय' दोनों के स्थान पर 'एहो' पद रूप की आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'एतत् सर्वमान के स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में तथा द्वितीया के एकवचन में मूल शब्द और प्रत्यय के स्थान पर 'एह' पद रूप की आदेश प्राप्ति नपुंसकलिंग में भी 'एतत् सर्वनाम की
और द्वितीया के एकवचन में मल शब्द तथा प्रत्यय दोनों के स्थान पर 'एह पद रूप की आदेश प्राप्ति जानना चाहिये;। उदाहरण क्रम से यों हैं:- (१) एषो नरः-एहो नरू=यह नर पुरूष। (२) एषा कुमारी एहकुमारी यह कन्या। (३) एतन्मनोरथ स्थानम्-एहु मणोरह-ठाणु-यह मनोरथ स्थान।। पूरी गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : एषा कुमारी एष (अहं) नरः एतन्मनोरथ-स्थानम्।।
एतत् मूर्खाणां चिन्तमानानां पश्चात् भवति विभातम्।।१।। हिन्दी:-यह कन्या है और मैं पुरूष हूँ; यह (मेरी) मन-कल्पनाओं का स्थान है; यों सोचते हुए मूर्ख पुरूषों के लिये शीघ्र ही प्रातः काल हो जाता है (और उनकी मनो-कामनाएं ज्यों की त्यों ही रह जाती है।)।।१।।४-३६२।।
एइर्जस-शसोः ।।४-३६३।। अपभ्रंशे एतदो जस्-शसोः परयोः एइ इत्यादेशो भवति।। एइ ति घोड़ा एह थलि। (४-३३०) एइ पेच्छ।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'एतत् सर्वमान में प्रथमा विभक्ति बहुवचन वाचक प्रत्यय 'जस्' की प्राप्ति होने पर तथा द्वितीया विभक्ति बहुवचन वाचक प्रत्यय 'शस्' की संयोजना होने पर मूल शब्द 'एतत् और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर दोनों ही विभक्तियों में 'एइ' पद-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- एते ते अश्वाः=एइ ति घोड़ा-ये वे (ही) घोड़े। (२) एषा स्थली-एह थलि-यह भूमि।। एतान् पश्य-एइ पेच्छ-इनको देखो।।४-३६३।।
अदस ओइ।।४-३६४॥ अपभ्रंशे अदसः स्थाने जस् शसोः परयोः आइ इत्यादेशौ भवति।। जइ पुच्छह घर वड्डाइं तो वड्डा घर ओइ।। विहलिअ-जण-अब्भुद्धरणु कन्तु कुडीरइ जोइ।।१।।
अमूनि वर्तन्ते पृच्छ वा।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 333
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'अदस्' सर्वनाम में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की संयोजना होने पर मूल शब्द 'अदम' और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर दोनों ही विभक्तियों में 'ओइ पद रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- अमी-ओइ-वे (अथवा ये) और अमून् ओइ-उनको (अथवा इनको)।। नपुंसकलिंग वाचक उदाहरण यों हैं:- (१) अमूनि वर्तन्ते ओइ वट्टन्ते-वे होते हैं अथवा बरतते है। (२) अमूनि पृच्छ ओइ पुच्छ उनको पूछो।। (३) घर जोइ-गृहाणि अमूनि-वे घर; इत्यादि।। गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : यदि पृच्छथ महान्ति गृहाणि, तद् महान्ति गृहाणि अमूनि।।
विह्वलित-जनाभ्युद्धरणं कान्तं कुटीरके पश्य।।१।। हिन्दी:- यदि तुम बड़े घरों के सम्बन्ध में पूछना चाहते हो तो बड़े घर वे है।। दुःख से व्याकुल हुए पुरूषों का उद्धार करने वाले (मेरे) प्रियतम को कुटीर में (झोपड़ें में) देखो।।१।।४-३६४।।
इदम आयः।।४-३६५।। अपभ्रंशे इदम् शब्दस्य स्यादौ आय इत्यादेशो भवति।। आयई लोअहो लोअणइं जाई सरई न भन्ति।। अप्पिए दिटुइ मउलिअहिं पिए दिट्ठइ विहसन्ति।।१।। सोसउ म सोसउ च्चिअ उअही वडवानलस्स किं तेण।। जं जलइ जले जलणो आएण वि किं न पज्जत्त।। २।। आयहो दव-कलेवरहों जं वाहिउ तं सारू।। जइ उट्ठब्भइ तो कुहइ अह डज्झइ तो छारू।। ३।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'इदम् सर्वनाम के स्थान पर विभक्ति बोधक प्रत्यय 'सि, जस्' आदि की संयोजना होने पर 'आय' अङ्ग रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) आयई-इमानि-ये। (२) आएण=एतेन इससे। (३) आयहो=अस्य-इसका; इत्यादि।। गाथाओं का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद क्रम से यों है:संस्कृत : इमानि लोकस्य लोचनानि जाति स्मरन्ति, न भ्रान्तिः।।
अप्रिये दृष्टे मुकुलन्ति, प्रिये दृष्टे विकसन्ति।।१।। हिन्दी:-इसमें संदेह नहीं है कि जनता की ये आँखें अपने पूर्व जन्मों का स्मरण करती है। जब इन्हें अप्रिय (बातें) दिखलाई पड़ती हैं तब ये बंद हो जाती है और जब इन्हें प्रिय (बातें) दिखलाई पड़ती है, तब ये खिल उठती है अथवा ये खुल जाती हैं।।१।। संस्कृत : शुष्यतु मा शुष्यतु एव (=वा) उदधिः वडवानलस्य किं तेन।।
__ यद् ज्वलति जले, ज्वलनः एतेनापि किं न पर्याप्तम्।। २।। हिन्दी:-समुद्र परिपूर्ण रूप से सूखे अथवा नहीं सूखे, इससे वडवानल नामक समुद्री अग्नि को क्या (तात्पर्य) है? क्योंकि यदि वह वड़वानल नामक प्रचंड अग्नि जल में जलती रहती है तो क्या इतना ही पर्याप्त नहीं है? अर्थात् जल में अग्नि का जलते रहना ही क्या विशिष्ट शक्ति-शीलता का द्योतक नही है?।। २।। संस्कृत : अस्य दग्धकलेवरस्य यद् वाहितं (=लब्धम्) तत्सारम्।।
यदि आच्छाद्यते तत्कुथ्यति यदि दह्यते तत्क्षारः।। ३।। इस नश्वर (और निकम्मे) शरीर से जो कुछ भी (पर-सेवा आदि रूप) कार्य की प्राप्ति कर ली जाय तो वही (बात) सार रूप होगी; क्योंकि (मृत्यु प्राप्त होने पर) यदि इसको ढांक कर रखा जाता है तो यह सड़ जाता है और यदि इसको जला दिया जाता है तो केवल राख ही प्राप्त होती है।।४-३६५।।
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334: प्राकृत व्याकरण
सर्वस्य साहो वा ।।४-३६६।।
अपभ्रंशे सर्व-शब्दस्य साह इत्यादेशौ वा भवति ।।
साहु वि लोउ तडफड वढत्तणहो तणेण ।। वड्ढप्पणु परिपाविअइ हत्थिं मोक्क लडेण ॥१॥ पक्षे । सव्वुवि ॥
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में 'सर्व' सर्वनाम के स्थान पर 'सव्व' अङ्ग की प्राप्ति होती है और विकल्प से 'सर्व' स्थान पर 'साह' अङ्ग रूप की प्राप्ति भी देखी जाती है। जैसे:- सर्वः सव्वु और साहु-सब । यों अन्य विभक्तियों में भी 'साह' के रूप समझ लेना चाहिये ।। गाथा का अनुवाद यों है:
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संस्कृत : सर्वोऽपि लोकः प्रस्पन्दते (तडप्फडइ) महत्त्वस्य कृते ।। महत्त्वं पुनः प्राप्यते हस्तेन मुक्तेन ॥ १ ॥
हिन्दी :- विश्व में रहे हुए सभी मनुष्य बड़प्पन प्राप्त करने के लिये तड़फड़ाते रहते हैं- व्याकुलता मय भावनाएं रखते हैं; परन्तु बड़प्पन तभी प्राप्त किया जा सकता है; जबकि मुक्त हस्त होकर दान दिया जाता है। अर्थात् त्याग से ही, दान से ही - बड़प्पन की प्राप्ति की जा सकती है । । ४ - ३६६ ।
किमः काइं-कवणौ वा ।।४-३६७।।
अपभ्रंशे किमः स्थाने काई कवण इत्यादेशो वा भवतः ।। इन सु आवइ दुइ घरू काई अहो मुहुं तुज्झ ॥ aणु जु खंडइ त सहिए सो पिउ होइ न मज्झ ॥ १ ॥
काई न दूरे देवख ।। (४-३४९)
फोडन्ति जे हिअडउं अप्पणउं ताहं पराई कवण घण ॥ रक्खेज्जहु लोअहो अप्पणा बालहे जाया विसम थण || २ || सुपुरिस कंगुहे अणुहरहिं भण कज्जें कवणेण ।। जिवँ जिवँ वट्टत्तणु लहहिं तिवँ तिवँ नवहिँ सिरेण || ३ || जइससणेही तो मुइअ अह जीवइ निण्णेह ||
बिहिं वि पयारेहिं गइअ धण किं गज्जहि ख़ल मेह ॥ ४ ॥
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में 'किं' सर्वनाम स्थान पर मूल अङ्ग रूप से 'काई' और 'कवण' ऐसे अंग रूपों की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। पक्षान्तर में 'किं' अंग रूप का सद्भाव भी होता है। 'काई' के विभक्ति वाचक रूपों का निर्माण 'बुद्धि' आदि अथवा 'इसी' आदि इकारान्त शब्दों के समान जानना चाहिये। कुछ उदाहरण इस प्रकार है:- (१) किम्-काई - क्यों अथवा किस कारण से। (२) का= कवण = कैसी ? (३) केन=कवणेण किस कारण से। (४) किम्-किं=क्यों; इत्यादि । । वृत्ति में दी गई गाथाओं का अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:
संस्कृत : यदि न स आयाति, दूति ! गृहं किं अधो मुखं तव । । वचनं यः खंडयति तव, सखिके ! सप्रियो भवति न मम ॥ १ ॥
हिन्दी:- नायिका अपनी दूती से पूछती है कि हे दूति: यदि वह (नायक) मेरे घर पर नहीं आता है, तो (तू) अपने मुख को नीचा क्यों करती है)? हे सखि ! जो तेरे वचनों को नहीं मानता है अथवा तेरे वचनों का उल्लंघन करता है; वह मेरा प्रियतम नहीं हो सकता है । । १ ॥
संस्कृत :
स्फोटयतः यौ हृदयं आत्मीयं, तयोः परकीया का घृणा ? रक्षत लोकाः आत्मानं बालाया; जातौ विषमौ स्तनौ ॥ २॥
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 335 हिन्दी:- जो स्वयं के हृदय को चीर करके अथवा फोड़ करके उत्पन्न होते है; उनमें दूसरों के लिये दया के भाव कैसे अथवा क्यों कर हो सकते हैं? हे लोगों ! अपना बचाव करो; इस बाला के दो (निर्दयी और) कठोर स्तन उत्पन्न हो गये है।।२।। संस्कृत : सुपुरूषाः कंगोः अनुहरन्ति भण कार्येण केन?
यथा यथा महत्त्वं लभन्ते तथा तथा नमन्ति शिरसा।। ३।। हिन्दी:-कंगु नामक एक पौधा होता है, जिसके ज्यों-ज्यों फल आते हैं त्यों-त्यों वह नीचे की ओर झुकता जाता है; उसी का आधार लेकर कवि कहता है किः कृपा करके मुझे कहो कि किस कारण से अथवा किस कार्य से सज्जन पुरूष कंगु नामक पौधे का अनुसरण करते हैं? सज्जन पुरूष जैसे-जैसे महानता को प्राप्ति करते जाते हैं, वैसे-वैसे वे सिर से झुकते जाते हैं अथवा अपने सिर को झुकाते जाते हैं। नम्र होते रहते हैं।।३।। संस्कृत : यदि सस्नेहा तन्मृता, अथ जीवति निःस्नेहा।।
द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां गतिका, धन्या, किं गर्जसि ? खल मेघ।।४।। हिन्दीः-अपनी नायिका से दूर (विदेश में) रहते हुए एक नायक उमड़ते हुए मेघ को संकेत करता हुआ अपनी मनोभावनाएं यों व्यक्त करता है कि यदि वह मेरी प्रियतमा मुझसे प्रेम करती है तो मेरे वियोग में वह अवश्य ही मर गई होगी और यदि वह जीवित है तो निश्चय ही समझो कि वह मुझसे प्रेम नहीं करती है, कारण कि वियोग-जनित दुःख का उसमें अभाव है। दोनों ही प्रकार की गतियाँ मेरे लिये अच्छी हैं, इसलिये हे दुष्ट बादल! (व्यर्थ में ही) क्यों गर्जना करता है? तेरी गर्जना से न तो मुझे खेद उत्पन्न होता है, और न सुख ही उत्पन्न होता है।।४।।४-३६७।।
युष्मदः सौ तुहुं।।४-३६८।। अपभ्रंशे युष्मदः सौ परे तुहु इत्यादेशो भवति।। भमर म रूण झुणि रण्णडइ सा दिसि जोइ म रोइ।।
सा मालइ देसन्तरिअ जसु तुहुँ मरहि विओइ।।१।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में "तू-तुम" वाचक सर्वनाम "युष्मद्" में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "सि" की प्राप्ति होने पर मूल शब्द "युष्मद्" और "प्रत्यय" दोनों के स्थान पर "तुहुँ" पद रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः- त्वम् त्वम्=तुहुं-तू।। गाथा का अनुवाद यों है :-- संस्कृत : भ्रमर ! मा रूण झुणु शब्दं कुरू, तां दिशं विलोकय मा रूदिहि।।
सा मालती देशान्तरिता, यस्याः त्वं म्रियसे वियोगे।।१।।। हिन्दी:-हे भंवरा ! "रूण झुण-रूण झुण" शब्द मत कर; उस दिशा को देख और रूदन मत कर। वह मालती का फूल तो बहुत ही दूर है; जिसके वियोग में तू मर रहा है।।१।।४-३६८।।
जस्-शसोस्तुम्हे तुम्हइं।।४-३६९।। अपभ्रंशे युष्मदो जसि शसि च प्रत्येकं तुम्हे तुम्हइं इत्यादेशौ भवतः।। तुम्हे तुम्हइं जाणह।। तुम्हे तम्हइं पेच्छइ।। वचन भेदो यथासंख्य निवृत्त्यर्थः।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में "तु-तुम" वाचक सर्वनाम "युष्मद्" शब्द में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में "जस्" प्रत्यय की प्राप्ति होने पर मूल शब्द "युष्मद्" और "जस्-प्रत्यय' दोनों के स्थान पर "तुम्हे और तुम्हइं" ऐसे दो पद-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से इस "युष्मद्" शब्द में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में "शस्' प्रत्यय की संयोजना करने पर मूल शब्द "युष्मद्" और प्रत्यय "शस्" दोनों के स्थान पर प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के समान ही "तुम्हे और तुम्हइं" ऐसे ही दो पद-रूपों की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसेः- यूयम्
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336 : प्राकृत व्याकरण
जानीथ तुम्हे जाणह अथवा तुम्हइं जाणह-तुम जानते हो। युष्मान् पश्यति-तुम्हे पेच्छइ अथवा तुम्हइं पेच्छइ-तुमको वह देखता है- आपको वह देखता है। इन आदेश प्राप्त पदों को पथक पथक रूप से लि
वह दखता है। इन आदेश प्राप्त पदों को पृथक पृथक रूप से लिखने का तात्पर्य यह है कि "दोनों ही पद" प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में समान रूप से होते हैं; क्रम से नहीं होते है।। यों 'यथासंख्य" रूप का अर्थात् "क्रम-रूप" का निषेध करने के लिये ही "वचन-भेद" शब्द का वृत्ति में उल्लेख किया गया है।।४-३६९।।
___टा-ङय्मा पई पइ।।४-३७०॥ अपभ्रंशे युष्मदः टा डि अम् इत्येतैः सह पई तई इत्यादेशौ भवतः।। टा।। मुई मुक्काहं वि वर-तरू फिट्टइ पत्तत्तणं न पत्ताण।। तुह पुणु छाया जइ होज्ज कहविता तेहिं पत्तेहिं।।१।। महु हिअउं तई ताए तुहुँ सवि अन्ने विनडिज्जइ।। पिअ काई करउं हउं काई तुहं मच्छे मच्छु गिलिज्जइ।। २।। डिना। पई मई बेहिं वि रण-गयहिं को जयसिरि तक्केइ।। केसहिं लेप्पिणु जम-धरिणि भण सुहु को थक्केइ।। ३।। एवं तइ।। अमा। पई मेल्लन्तिहे महु भरणु मई मेल्लन्तहो तुज्झु।। सारस जसु जो वेग्गला सो कि कृदन्तहो सज्झ।।४।। एवं तइं।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद्' सर्वनाम में तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रत्यय का योग होने पर मूल शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पर 'पई और तई ऐसे पदों की नित्य आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से इसी 'युष्मद्' सर्वनाम में सप्तमी विभक्ति वाचक 'डि' प्रत्यय की संप्राप्ति होने पर मूल शब्द और प्रत्यय दानों के ही स्थान पर 'पई और तई ऐसे दो पदों की नित्य आदेश प्राप्ति जानना चाहिये। यही संयोग द्वितीया विभक्ति वाचक प्रत्यय 'अम्' के मिलने पर भी मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय 'अम्' दोनों का लोप होकर दोनों के स्थान पर भी 'पई और तइं पदों की आदेश प्राप्ति नित्यमेव हो जाती है। मूल सूत्र में "टा, ङि, अम्' का क्रम व्यवस्थित नहीं होकर जो अव्यवस्थित क्रम बतलाया गया है अर्थात् पहिले 'द्वितीया, तृतीया, और सप्तमी' का क्रम बतलाना चाहिये था वहाँ पर 'तृतीया, सप्तमी और द्वितीया' का बतलाया है। इसमें 'सूत्र-रचना' से संबन्धित' सिद्धांत कारण रूप से रहा हुआ है। वह कारण यों है कि सूत्र-रचना में सर्व प्रथम 'अल्पातिअल्प' अक्षरों वाला पद लिखा जाता है और बाद में क्रमिक रूप से अधिक अक्षरों वाले पद को स्थान दिया जाता है अतएव उक्त सत्र-र
दिया जाता है अतएव उक्त सूत्र-रचना सिद्धांततः सही है और इसमें कोई भी व्यतिक्रम नहीं किया गया है:
'पइं और तइं पदों के उदाहरण क्रम से तीनों विभक्तियों में यों है:(१) त्वाम्=पइं अथवा तइं-तुझ को। (२) त्वया पइं अथवा तइं-तुझ से। (३) त्वयि पइं और तइं-तुझ में; तुझ पर। वृत्ति में आई हुई गाथाओं का अनुवाद क्रम से यों हैं:संस्कृत : त्वया मुक्तानामपि वरतरो विनश्यति (फिट्टइ) न पत्रत्वं पत्राणाम्।।
तव पुनः छाया यदि भवेत् कथमपि तदा तैः पत्रेः (एव)।।१।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 337 हिन्दी:-हे श्रेष्ठ वृक्ष ! तुझसे अलग हुए भी पत्तों का पत्तापना नष्ट नहीं होता है; फिर भी यदि किसी तरह से तेरे उन पत्तों से उस समय भी छाया होती हो।। इस गाथा के आदि में त्वया' के स्थान पर 'पई पद का उपयोग किया गया है। संस्कृत : मम हृदयं त्वया, तया त्वं, सापि अन्येन विनाट्यते।।
प्रिय! किं करोम्यहं? किं त्व? मत्स्येन मत्स्यं : गिल्यते।। २।। हिन्दी:-कोई एक नायिका अपने नायक से कहती है कि- हे प्रियतम! मेरा हृदय तुम से अधिकृत कर लिया गया है और तुम उस (स्त्री विशेष) से अधिकृत कर लिये गये हो और वह (स्त्री) भी अन्य किसी (पुरुष विशेष) में अधिकृत कर ली गई है। अब हे स्वामीनाथ! (तुम ही बतलाओ कि) मैं क्या करूँ? और तुम भी क्यो करो? (इस विश्व में तो) बड़ी मछली से छोटी मछली निगल ली जाती है। (यहां पर तो यही न्याय है कि सबल निर्बल को सताता रहता है।। २।। संस्कृत : त्वयि मयि द्वयोरपि रणगतयोः को जयश्रियं तर्कयति।।
केशैर्गृहीत्वा यमगृहिणी, भण, सुखं कस्तिष्ठति।। ३।। हिन्दीः-तुम्हारे और मेरे दोनों ही के रण-क्षेत्र में उपस्थित होते हुए कौन विजय लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये इच्छा करता है? आशा करता है अथवा अपेक्षा रखता है ? यमराज की धर्म-पत्नी को (अर्थात् मृत्यु को) केशों द्वारा ग्रहण करके (याने मृत्यु के मुख के मुख में चले जाने पर) कहो बोलो ! कौन सुख पूर्वक रह सकता है ?।। ३।। संस्कृत : त्वां मुञ्चत्याः मम मरणं, मां मुञ्चतस्तव।।
सारसः (यथा) यस्य दूरे (वेग्गला), स कृतान्तस्य साध्यः।। हिन्दी:-यदि मैं तुमको छोड़ दूं तो मेरी मृत्यु हो जायेगी और यदि तुम मुझको छोड़ देते हो तो तुम मर जाओगे। (दोनों ही-प्रियतम और प्रियतमा-परस्पर में एक दूसरे के वियोग में मृत्यु प्राप्त कर लेगें-जैसे कि-) नर सारस और मादा सारस यदि एक दूसरे से अलग हो जाते हैं तो वे यमराज के अधिकार में चले जाते हैं-अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।।४।।
वृत्ति में कहा गया है कि जैसे 'पई' का प्रयोग गाथाओं में किया गया है; वैसे ही 'तइं का प्रयोग भी स्वयमेव समझ लेना चाहिये।।४।। ४-३७०।।
भिसा तुम्हेहि।।४-३७१॥ अपभ्रंशे युष्मदो भिसा सह तुम्हेहिं इत्यादेशो भवति।। तुम्हेहिं अम्हेहिं जं किं अउं दिटुउं बहुअ-जणेण।। तं तेवड्डउं समर-भरू निज्जिउ एक-खणेण।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद्' सर्वनाम शब्द के साथ में तृतीया विभक्ति के बहुवचन वाले प्रत्यय 'भिस्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय 'भिस्' दोनों के स्थान पर 'तुम्हेहिं' ऐसे एक पद की ही नित्यमेव आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- युष्माभिः तुम्हेहि-तुम (सब) से अथवा आप (सब) से गाथा का अनुवाद यों है:
युष्माभिः अस्माभिः यत् कृतं दृष्टं बहुक-जनेन।। तद् (तदा) तावन्मात्रः समर भरः निर्जितः एक क्षणेन।।१।। हिन्दी:-जो कुछ आप (सब) से और हम (सब) से किया गया है, वह सब अनेकों पुरूष द्वारा देखा गया है। क्योंकि (हमने) एक क्षण मात्र में ही इतनी बड़ी लड़ाई जीत ली है-शत्रु को पलक मारते ही धराशयी कर दिया है।।१।।४-३७१।।
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338 : प्राकृत व्याकरण
ङसि-ङस्भ्यां तउ तुज्झ तुध्र।।४-३७२।। अपभ्रंशे युष्मदो उसि-उस् भ्यां सह तउ तुज्झ तुध्र इत्येते त्रय आदेशा भवति।। तउ होन्तउ आगदो। तुज्झ होन्तउ आगदो। तुध्र होन्तउ आगदो।। ङसा। तउगुण-संपइ तुज्झ मदि तुध्र अणुत्तर खन्ति।। जइ उप्पत्तिं अन्न जण महि-मंडलि सिक्खन्ति।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद्' सर्वनाम शब्द के साथ में पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की संयोजना होने पर मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय 'उसि' दोनों ही के स्थान पर नित्यमेव 'तउ अथवा तुज्झ अथवा तु,' ऐसे तीन पद-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- त्वत्-तउ अथवा तुज्झ अथवा तुध्र-तुझसे तेरेसे।। इसी प्रकार से 'युष्मद्' सर्वनाम शब्द के साथ में षष्ठी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'ङस्' का संयोग होने पर उसी प्रकार से मूल शब्द 'युष्मद्' और प्रत्यय 'ङस्' दोनों ही के स्थान पर वैसे ही 'तउ अथवा तुज्झ अथवा तुध्र ऐसे समान रूप से ही इन तीनों पद-रूपों की नित्यमेव आदेश प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- तव अथवा ते तउ अथवा तुज्झ अथवा तुध्र-तेरा, तेरी, तेरे (एकवचन के अर्थ में तुम्हारा, तुम्हारी, तुम्हारे)।। वृत्ति में दिये गये उदहारणों का अनुवाद इस प्रकार से हैं:.. त्वत् भवतु अथवा भवेत् आगतः=(१) तउ होन्तउ आगदो (२) तुज्झ होन्तउ आगदो (३) तुध्र होन्तउ आगदो-तेरे से अथवा तुझसे आया हुआ (अथवा प्राप्त हुआ) होवे।। 'ङस्' प्रत्यय से सम्बन्धित आदेश-प्राप्त पद-रूपों के उदाहरण गाथा में दिये गये हैं; तदनुसार गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : तव गुण-संपदं तव मतिं तव अनुत्तरां क्षान्तिम्।।
यदि उत्पद्य अन्य-जनाः मही-मंडले शिक्षन्ते।। हिन्दी:-(मेरी यह कितनी उत्कट भावना है कि) इस पृथ्वी मंडल पर उत्पन्न होकर अन्य पुरूष यदि तुम्हारी गुण-संपत्ति को, तुम्हारी बुद्धि को और तुम्हारी असाधारण-अत्युत्तम क्षमा को सीखते हैं-इनका अनुकरण करते हैं (तो यह कितनी अच्छी बात होगी ?) यो गाथा में 'तव' पद रूप के स्थान पर क्रम से 'तउ तुज्झ और तुध्र' आदेश-प्राप्त पद-रूपों का प्रयोग किया गया है।।४-३७२।।
भ्यसाम्भ्यां तुम्हह।।४-३७३।। अपभ्रंशे युष्मदो भ्यस् आम् इत्येताभ्याम् सह तुम्हहं इत्यादेशो भवति।। तुम्हहं होन्तउ आगदो। तुम्हहं केरउं धणु।।
अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद् सर्वनाम शब्द के साथ में पंचमी-विभक्ति बहुवचन-बोधक प्रत्यय 'भ्यस्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय 'भ्यस्' दोनों के स्थान पर 'तुम्हह ऐसे पद-रूप की नित्यमेव आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- युष्मत्-तुम्हह-तुम से-आप से। इसी प्रकार से इसी सर्वनाम शब्द 'युष्मत्' के साथ में चतुर्थी बहुवचन बोधक प्रत्यय 'भ्यस्' का और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का बोधक प्रत्यय 'आम्' का सम्बन्ध होने पर मूल शब्द 'युष्मद्' और प्रत्यय दोनों के स्थान पर भी उसी प्रकार से 'तुम्हह' पद रूप की नित्यमेव आदेश प्राप्ति जानना चाहिये। जैसे:
(१) युष्मभ्यम्=तुम्हह-तुम्हारे लिये अथवा आपके लिये। (२) युष्माकम्=तुम्हह-तुम्हारा, तुम्हारी, तुम्हारे और आपका, आपकी, आपके, इत्यादि।।
सुत्र में और वृत्ति में 'चतुर्थी-विभक्ति' का उल्लेख नहीं किया गया है परन्तु सूत्र-संख्या ३-१३१ के विधान से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग की अनुमति दी गई है; इसलिये यहाँ पर चतुर्थी विभक्ति का
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 339 उल्लेख नहीं होने पर भी शब्द-व्युत्पत्ति को समझाने के लिये चतुर्थी विभक्ति की आदेश-प्राप्ति भी समझा दी गई है। वृत्ति में दिये गये उदाहरणों का स्पष्टीकरण यों हैं:
(१) युष्मत् भवतु आगतः=तुम्हह होन्तउ आगदो-तुम्हारे से- (आपसे) आया हुआ (प्राप्त हुआ) होवे। (२) युष्मभ्यम् करोमि धनुः-तुम्हहं केरउं धणु=मैं तुम्हारे लिये धनुष्य करता हूँ। (३) युष्माकम् करोमि धनुः-तुम्हहं केरउं धणु-मैं तुम्हारे-आपके-धनुष्य को करता हूँ।।४-३७३।।
तुम्हासु सुपा।।४-३७४।। अपभ्रशे युष्मदः सुपा सह तुम्हासु इत्यादेशौ भवति।। तुम्हासु ठि।। __ अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद्' सर्वनाम शब्द में सप्तमी विभक्ति बहुवचन बोधक प्रत्यय 'सुप्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय 'सुप' दोनों के स्थान पर नित्यमेव 'तुम्हासु' ऐसे पद रूप की आदेश प्राप्ति है। जैसे:- युष्मासु स्थितम्-तुम्हासु ठिअं-तुम्हारे पर अथवा तुम्हारे में रहा हुआ है। आप पर अथवा आप में स्थित है।।४-३७४।।
सावस्मदो हउ।।४-३७५।। अपभ्रंशे अस्मदः सौ परे हउं इत्यादेशोभवति।। तसु हउं कलिजुगि दुल्लहहो।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'मैं-हम' वाचक 'अस्मद्' सर्वनाम शब्द में प्रथमा विभक्ति के एकवचन बोधक प्रत्यय 'सि' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'सि' दोनों के स्थान पर नित्यमेव 'हउं' पद रूप की आदेश प्राप्ति है। जैसे:- तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य-तसु हउं कलिजुगि दुल्लहहो उस दुर्लभ का मैं कलियुग में (पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३३८ में दी गई है।) यों 'मैं' अर्थ में 'हउं' का प्रयोग होता है।।४-३७५ ।।
जस्-शसोरम्हे अम्हइं।।४-३७६॥ अपभ्रंशे अस्मदो जसि शसि च परे प्रत्येकम् अम्हे अम्हई इत्यादेशो भवतः॥ अम्हे थोवा रिउ बहुअ कायर एम्व भणति।। मुद्धि ! निहालहि गयण-यलु कइ जण जोण्ह करन्ति।।१।। अम्बणु लाइवि जे गया पहिअ पराया के वि।। अवस न सुअहिं सुहच्छिअहिं जिवं अम्हई तिवं ते वि।। २॥ अम्हे देक्खइ। अम्हइं देक्खइ। वचन भेदो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः।।
अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'अस्मद्' सर्वनाम शब्द के साथ में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय 'जस्' की संप्राप्ति होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'जस्' दोनों के स्थान पर नित्यमेव 'अम्हे' और 'अम्हई' ऐसे दो पद रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- वयम् अम्हे अथवा अम्हइं हम इसी प्रकार से इसी 'अस्मद्' सर्वनाम शब्द के साथ में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन को बतलाने वाले प्रत्यय 'शस्' का संयोग होने पर इस 'अस्मद्' शब्द और 'शस्' प्रत्यय दोनों के स्थान पर सदा ही 'अम्हे और अम्हइं ऐसे प्रथमा बहुवचन के समान ही दो पद-रूपों की प्राप्ति का विधान जानना चाहिये। जैसे:-अस्मान (अथवा नः) अम्हे और अम्हइं हमको अथवा हम।। गाथाओं का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : वयं स्तोकाः, रिपवः बहवः, कातराः एवं भणन्ति।।
मुग्धे! निभालय गगन तलं, कतिजनाः ज्योत्स्नां कुर्वन्ति।।
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340 : प्राकृत व्याकरण
हिन्दी:- योद्धा युद्ध में जाते हुए अपनी प्रियतमा को कहता है कि कायर लोग ऐसा कहते हैं कि-हम थोड़े है और शत्रु बहुत है; (परन्तु) हे मुग्धे-हे प्रियतमे ! आकाश को देखो-आकाश की ओर दृष्टि करो, कि कितने ऐसे हैं जो कि चन्द्र-ज्योत्स्ना की-चाँदनी को-किया करते हैं ?।।१।। अर्थात् चन्द्रमा अकेला ही चांदनी करता है। संस्कृत : अम्लत्वं लागयित्वा ये गताः पथिकाः परकीयाः केऽपि।।।
अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायां यथा वयं तथा तेऽपि।। २।। अर्थः- जो कोई भी पर-स्त्रियों पर प्रेम करने वाले पथिक अर्थात् यात्री प्रेम लगा करके (परदेश) चले गये है; वे अवश्य ही सुख की शैय्या पर नहीं सोते होंगे; जैसे हम (नायिका विशेष) सुख-शैय्या पर नहीं सोती हैं; वैसे ही वे भी होगे।। २।।
ऊपर की गाथाओं में 'अम्हे हम' और 'अम्हइं-हम' ऐसा समझाया गया है। 'हमको' के उदाहरण यों है।।
अस्मान् (अथवा) नः पश्यति-अम्हे देखइ अथवा अम्हइं देक्खइ-वह हमको अथवा हमें देखता है। इन आदेश प्राप्त पदों को पृथक् पृथक् रूप से लिखने का तात्पर्य यह है कि दोनों ही पद अर्थात् 'अम्हे और अम्हई प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में समान रूप से होते हैं; क्रम रूप से नहीं होते है।। यों यथा-संख्य' रूप का अर्थात् 'क्रम-रूप' का निषेध करने के लिये ही 'वचन-भेद' शब्द का वृत्ति के अन्त में उल्लेख किया गया है।।४-३७६।।
टा-ङयमा मइ।।४-३७७।। अपभ्रंशे अस्मदः टा डि अम् इत्येतैः सह मई इत्यादेशो भवति।। टा।। मई जाणिउं पिअ विरहिअहं कवि धर होइ विआलि।। णवर मिअङ् कुवि तिह तवइ जिह दिणयरू खय-गालि।। डिना। पइं मई बेहिं वि रण-गयहि।। अमा। भई मेल्लन्तहो तुज्झु।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'अस्मद्' सर्वनाम शब्द में तृतीया विभक्ति के एकवचन-अर्थक प्रत्यय 'टा' का संयोग हाने पर मूल शब्द 'अस्मद् और प्रत्यय 'टा' दोनों के स्थान पर 'मइ' ऐसे एक ही पदरूप की नित्यमेव
आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:- मया मइं-मुझसे, मेरे से।। इसी प्रकार से इसी सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के साथ में सप्तमी विभक्ति के एकवचन के अर्थ वाले प्रत्यय 'डि' का सम्बन्ध होने पर भी मूल शब्द 'अस्मद् और प्रत्यय डि' दोनों ही के स्थान पर वही 'मई ऐसे पद-रूप की सदा ही आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-मयि-मई-मुझ पर, मुझ में, मेरे पर, मेरे में,। द्वितीया विभक्ति के संबंध में भी यही नियम है कि जिस समय में इस 'अस्मद्' सर्वनाम के शब्द के साथ में द्वितीया विभक्ति के एकवचन के अर्थ वाले प्रत्यय 'अम्' की संप्राप्ति होती है, तब भी मूल शब्द 'अस्मद् और प्रत्यय 'अम्' दोनो ही के स्थान पर 'मई ऐसे इस एक ही पद की हमेशा ही आदेश प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- माम्=मइं-मुझको, मेरे को, मुझे।। 'टा' अर्थ को समझाने के लिये वृत्ति में जो गाथा दी गई है; उसका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : मया ज्ञातं प्रिय ! विरहितानां कापि धरा भवति विकाले।
केवलं (=परं) मृगाडोकपि तथा तपति यथा दिनकरः क्षयकाले।। अर्थ:-हे प्रियतम ! मेरे से ऐसा समझा गया था कि प्रियतम के वियोग से दुःखित व्यक्तियों के लिये संध्या-काल में शायद कुछ भी सान्त्वना का आधार प्राप्त होता होगा; किन्तु ऐसा नही है; देखो ! चन्द्रमा भी संध्याकाल में उसी प्रकार से उष्णता प्रदान करने वाला प्रतीत हो रहा है; जैसा कि सूर्य उष्णतामय ताप प्रदान करता रहता है।।१।। इस गाथा में 'मया' के स्थान पर 'मई पद रूप का प्रयोग किया गया है। ___ 'ङि' का उदाहरण यों है:- त्वयि मयि द्वयोरपि रण गतयों:-पई मइं बेहिं विरण-गयहिं युद्ध-क्षेत्र मे गये हुए तुझ पर और मुझ पर दोनों ही पर। (पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३७० में देखो)।। यहाँ पर 'मयि' के स्थान पर 'मई का प्रयोग है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 341
'अम्' का द्दष्टान्त इस प्रकार है:-माम् मुञ्चतस्तव मई मेल्लन्तहो तुन्झ=मुझ को छोड़ते हुए तेरी। (पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३७० में दी गई है)।। गाथा के इस चरण में 'माम् पद के स्थान पर 'मई पद प्रदर्शित किया गया है।।४-३७७।।
अम्हेहिं भिसा।।४-३७८।। अपभ्रंशे अस्मदो भिसा सह अम्हेहिं इत्यादेशो भवति।। तुम्हेहिं अम्हेहिं जं किअउं।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'अस्मद्' सर्वनाम शब्द के साथ में तृतीया विभक्ति के बहुवचन वाले प्रत्यय 'भिस्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद् और प्रत्यय भिस्' दोनों के स्थान पर 'अम्हेहिं' ऐसे एक ही पद की नित्यमेव आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- युष्माभिः अस्माभिः यत् कृतम्=तुम्हेहिं अम्हेहिं जं किअउं-तम्हारे से, हमारे से जो किया गया है।।४-३७८।।
महु मज्झ ङसि-ङस-भ्याम्॥४-३७९।। अपभ्रंशे अस्मदो उसिना उसा च सह प्रत्येकं महु मज्झु इत्यादेशौ भवतः।। महु होन्तउ गदो। मज्झु होन्तउ गदो।। उसा।
महु कन्तहो बे दोसडा, हेल्लि ! म झङ्खहि आलु। देन्तहो हउं पर उव्वरिअ जुज्झन्तहो करवालु।। जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि ! मज्झु पिएण। अह भग्गा अम्हहं तणा तो तें मारिअडेण।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'मैं-हम' वाचक सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के साथ में पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'उसि' प्रत्यय की संयोजना होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'ङसि' दोनों ही के स्थान पर नित्यतमेव 'महु'
और 'मज्झु' ऐसे दो पद-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- मत्-महु और मुज्झु-मुझसे अथवा मेरे से। इसी प्रकार से इसी सर्वनाम शब्द "अस्मद्" के साथ में षष्ठी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय "डस्" का संबंध होने पर उसी प्रकार से मूल शब्द "अस्मद्" और प्रत्यय "उस्" दोनों ही के स्थान पर वैसे ही 'मह' और 'मज्झ' ऐसे समान रूप से ही इन दोनों पद रूपों की सदा ही आदेश प्राप्ति जानना चाहिये। जैसे:-मम अथवा मे अथवा मज्झु-मेरा, मेरी, मेरे। वृत्ति में आया हुआ पञ्चमी-अर्थक उदाहरण यों है:- मत् भवतु गतः महु होन्तउ गदो अथवा मज्झु होन्तउ गदो-मेरे से (अथवा मेरे पास से) गया हुआ होवे।। षष्ठी-अर्थक उदाहरण गाथाओं में दिया गया है; जिनका अनुवाद क्रम से यों है:संस्कृत : मम कान्तस्य द्वौ दोषो, सखि ? मा पिधेहि अलीकम्।।
ददतः परं अहं उर्वरिता, युध्यमानस्य करवालः।।१।। हिन्दी:-हे सखि ! मेरे प्रियतम पति में केवल दो ही दोष है; इन्हें तु व्यर्थ ही मत छिपा। जब वे दान देना प्रारम्भ करते हैं, तब केवल मैं ही बच रह जाती हूँ अर्थात् मेरे सिवाय सब कुछ दान में दे देते है और जब वे युद्ध क्षेत्र में युद्ध करते हैं तब केवल तलवार ही बची रह जाती है और सभी शत्रु नाम-शेष रह जाते है।। इस गाथा में 'मम=मेरे अर्थ में 'मह' आदेश-प्राप्ति पद-रूप का प्रयोग किया गया है।।१।। संस्कृत : यदि भग्नाः परकीयाः, तत् सखि ! मम प्रिंयेण।।
अथ भग्नाः अस्मदीयाः, तत् तेन मारितेन।। २।। हिन्दी:-हे सखि ! यदि शत्रु-गण मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं अथवा (रण-क्षेत्र को छोड़कर के) भाग गये है; तो (यह सब विजय) मेरे प्रियतम के कारण से (ही है) अथवा यदि अपने पक्ष के वीर पुरूष रण-क्षेत्र को छोड़ कर भाग खड़े हुए हैं तो (समझो कि) मेरे प्रियतम के वीर गति प्राप्त करने के कारण से (ही वे निराश होकर रण क्षेत्र को छोड़ आये हैं)।।२।। __ इस गाथा में 'मम='अर्थ में 'मज्झु' ऐसे आदेश प्राप्त पद-रूप का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है।।४-३७९ ।।
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342 : प्राकृत व्याकरण
अम्हहं भ्यसाम्-भ्याम्॥४-३८०।।
अपभ्रंशे अस्मदो भ्यसा आमा च सह अम्हहं इत्यादेशो भवति ।। अम्हहं होन्तउ आगो । । आमा । अह भग्गा अम्हहं तणा ।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'मैं - हम' वाचक सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के साथ में पंचमी विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय 'भ्यस्' का सम्बन्ध होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'भ्यस्' दोनों ही के स्थान पर 'अम्मह ऐसे पद-रूप की नित्यमेव आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- अस्मत्-अम्हां - हमारे से अथवा हमसे । । इसी प्रकार से इसी सर्वनाम शब्द ‘अस्मद्' के साथ में चतुर्थी बहुवचन बोधक प्रत्यय 'भ्यस्' का तथा षष्ठी विभक्ति के बहुवचन के द्योतक प्रत्यय 'आम्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और इन प्रत्ययों के स्थान पर हमेशा ही 'अम्मह' ऐसे पद-रूप की आदेश प्राप्ति का संविधान है जैसे:- अस्मभ्यम् = अम्हहं = हमारे लिये और अस्माकम् (अथवा नः) = अम्हहं=हमारा, हमारी, हमारे ।। सूत्र में और वृत्ति में 'चतुर्थी विभक्ति' का उल्लेख नहीं होने पर भी सूत्र - संख्या ३ - १३१ के संविधानानुसार यहाँ पर चतुर्थी विभक्ति का भी उल्लेख कर दिया गया है सो ध्यान में रहे । वृत्ति में आये हुए उदाहरणों का भाषान्तर यों है :- (१) अस्मत् भवतु आगतः = अम्हहं होन्तउ आगदो - हमारे से आया हुआ होवे। (२) अथ भग्नाः अस्मदीयाः तत् = अह भग्गा अम्हहं तणा= यदि हमारे पक्षीय (वीर- गण ) भाग खड़े हुए हों तो वह (पूरी गाथा ४- ३७९ में दी गई है ) ।। यों पंचमी बहुवचन में और षष्ठी बहुवचन में 'अम्हह पद रूप की स्थिति को जानना चाहिये ।।४-३८० ।।
सुपा अम्हासु।।४-३८१।।
अपभ्रंशे अस्मदः सुपा सह अम्हासु इत्यादेशौ भवति ।। अम्हासु ठिअ ।।
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में ‘मैं- हम' वाचक सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के साथ में सप्तमी विभक्ति के बहुवचन के द्योतक प्रत्यय 'सुप्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'सुप' दोनों ही के स्थान पर नित्यमेव 'अम्हासु' ऐसे पद-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- अस्मासु स्थितम् = अम्हासु ठिअं= हमारे पर अथवा हमारे में रहा हुआ है। । ४ - ३८१ ।। त्यादेराद्य त्रयस्य संबन्धिनो हिं न वा ।।४-३८२।।
त्यादीनामाद्य त्रयस्य संबन्धिनो बहुष्वर्थेषु वर्तमानस्य वचनस्यापभ्रंशे हिं इत्यादेशौ वा भवति ।। मुह - कबरि-बन्ध तहे सोह धरहि ।।
नं मल्ल - जुज्झु ससि - राहु-करहि ।।
त सहहिं कुरल भमर - उल - तुलिअ ।
नं तिमिर - डिम्भ खेल्लन्ति मिलिअ ॥१॥
अर्थः- सूत्र - संख्या ४- ३८२ से ४- ३८८ तक में क्रियाओं में जुड़ने वाले काल-बोधक प्रत्ययों का वर्णन किया है। यों सर्व सामान्य रूप से तो जो प्रत्यय प्राकृत भाषा के लिये कहे गये हैं, लगभग वे सब प्रत्यय अपभ्रंश भाषा में भी प्रयुक्त होते हैं। केवल वर्तमानकाल में, आज्ञार्थ में और भविष्यत्काल में ही थोड़ा सा अन्तर है; जैसा कि इन सूत्रों में बतलाया गया है।
वर्तमानकाल में 'वह-वे' वाचक अन्य पुरूष के बहुवचन में अपभ्रंश भाषा में प्राकृत भाषा में वर्णित प्रत्ययों के अतिरिक्त एक प्रत्यय 'हिं' की प्राप्ति विशेष रूप से और विकल्प रूप से अधिक होती है। जैसे:- कुर्वन्ति = करिहिं- वे करते हैं। धरतः धरहिं - वे दो धरण करते है ।। रोभन्ते = सहहिं - वे शोभा पाते हैं । । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'न्ति, न्ते और इरे' प्रत्ययों की प्राप्ति भी होगी। जैसे:- क्रीड़न्ति खेल्लन्ति, खेल्लन्ते और खेल्लिरे = वे खेलते हैं अथवा वे क्रीड़ा करते हैं ।। वृत्ति में प्रदत्त छन्द का अनुवाद यों है:
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 343
संस्कृत : मुख-कबरी-बन्धौ तस्याः शोभा धरतः।।
ननु मल्ल-युद्धं शशिराहू कुरूतः।। तस्याः।। शोभन्ते कुरलाः भ्रमर-कुल-तुलिताः।।
ननु भ्रमर-डिम्भाः क्रीड़न्ति मिलिताः।।१।। हिन्दी:-उस नायिका के मुख और केश-पाशों से बंधी हुई वेणी अर्थात् चोटी इस प्रकार की शोभा को धारण कर रही है कि मानों 'चन्द्रमा और राहू' मिलकर के मल्ल-युद्व कर रहे हो।। उसके बालों के गुच्छे इस प्रकार से शोभा को धारण कर रहे है कि मानों भंवरो के समूह ही संयोजित कर दिये हो।। अथवा मानों छोटे छोटे बाल-भ्रमर-समूह ही मिल करके खेल कर रहे हो।।४-३८२।।
मध्य-त्रयस्याद्यस्य हिः॥४-३८३॥ त्यादीनां मध्यत्रयस्य यदाद्यं वचनं तस्यापभ्रंयरो हि इत्यादेशो वा भवति।। बप्पीहा पिउ पिउ भणवि कित्तिउ रूअहि हयास।। तुह जलि महु पुणु वल्लहइ बिहुँ वि न पूरिअ आस।।१।। आत्मने पदे। बप्पीहा कई वोल्लिअण निग्घिण वार इ वार।। सायरि भरिअइ विमल-जलि लहहि न एक्कइ धार।। २।। सप्तम्याम्। आयहिं जम्महिं अन्नहिं वि गोरि सुदिज्जहि कन्तु॥ गय-मत्तहं चत्तंकुसहं जो अब्भिडइ हसन्तु।। ३।। पक्षे। रूअसि। इत्यादि।।
अर्थः-वर्तमानकाल में मध्यम पुरूष में एकवचन के अर्थ में प्राकृत भाषा में वर्णित प्रत्ययों के अतिरिक्त अपभ्रंश भाषा में एक प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति अधिक रूप से और वैकल्पिक रूप से होती है। जैसे:- रादिषि रूअहि-तू रोता है। पक्षान्तर में 'रूअसि =तू रोता है; ऐसा रूप भी होगा। आत्मनेपदीय द्दष्टान्त यों है: लभसे-लहहि-तू प्राप्त करता है। पक्षान्तर में लहसि-तू प्राप्त करता है; ऐसा भी होगा। सप्तमी-अर्थ में अर्थात् विनति अर्थक सामन्य वर्तमानकाल में भी मध्यम-पुरूष के एकवचन के अर्थ में विकल्प से 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति अधिक रूप से होती हुई देखी जाती है। जैसा कि:- दद्याः दिज्जहि-तू देना अर्थात् देने की कृपा करना। गाथाओं का अनुवाद क्रम से यों हैं:संस्कृत : चातक ! 'पिउ, पिउ': (पिबामि, पिबामि, अथवा प्रिय ! प्रिय! इति)
भणित्वा कियद्रोदिषि हताश।।
तव जले मम पुनर्वल्लभे द्वयोरपि न पूरिता आशा।।१।। हिन्दी:-नायिका विशेष अपने प्रियतम के नहीं आने पर 'चातक' पक्षी को लक्ष्य करके कहती है कि-हे चातक! पानी पीने की तुम्हारी इच्छा जब पूरी नहीं हो रही है तो फिर तुम 'मैं पीऊंगा' ऐसा बोलकर क्यों बार-बार रोते हो? मैं भी प्रियतम, प्रियमतम' ऐसा बोलकर निराश हो गई हूँ।। इसलिये तुम्हें तो जल-प्राप्ति में और मुझे प्रियतम-प्राति में, दोनों के लिये आशा पूर्ण होने वाली नहीं है।।१।। संस्कृत : चातक ! किं कथनेन निर्घण वारं वारम्।।
सागरे भृते विमल-जलेन, लभसे न एकामपि धाराम्॥ हिन्दी:-अरे निर्दयी चातक ! (अथवा हे निर्लज्ज चातक!) बार-बार एक ही बात को कहने से क्या लाभ है? जबकि समुद्र के स्वच्छ जल से परिपूर्ण होने पर भी, उससे तू एक बूंद भी नहीं प्राप्त कर सकता है; अथवा नही पाता है।।२।।
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344 : प्राकृत व्याकरण
संस्कृत : अस्मिन् जन्मनि अन्यस्मिन्नपि गौरि! तं दद्याः कांतम्।।
- गजानां मत्तानां त्यक्तांकुषानां य संगच्छते हसन्।। ३॥ हिन्दी:-कोई एक नायिका विशेष अपने प्रियतम की रण-कुशलता पर मुग्ध होकर पार्वती से प्रार्थना करती है कि 'हे गौरि ! इस जन्म में भी और पर जन्म में भी उसी पुरुष को मेरा पति बनाना; जो कि ऐसे मदोन्मत्त हाथियों के समूह में भी हँसता हुआ चला जाता है; जिन्होने कि-(जिन हाथियों ने कि) अंकुश के दबाव का भी परित्याग कर दिया है।। ३।।४-३८३।।
बहुत्वे हुः।।४-३८४॥ त्यादीनां मध्यमत्रयस्य संबन्धि बहुष्वर्थेषु वर्तमानं यद्वचनं तस्यापभ्रंशे हु इत्यादेशौ वा भवति।। बलि अब्भत्थणि महु-महणु लहुई हुआ सोइ।। जइ इच्छहु वड्डत्तणउं देहु म मग्गहु कोइ।।१॥ पक्षे। इच्छह। इत्यादि।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में वर्तमानकाल के मध्यम पुरूष के बहुवचन के अर्थ में प्राकृत-भाषा में प्राप्तव्य प्रत्ययों के अतिरिक्त एक प्रत्यय 'हु' की विकल्प से और विशेष रूप से आदेश प्राप्ति होती है प्राकृत-भाषा में इसी अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इत्था' और 'ह' प्रत्ययों की प्राप्ति अपभ्रंश भाषा में भी नियमानुसार होती है। जैसे:इच्छथ-इच्छहु-तुम इच्छा करते हो। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षांतर में 'इच्छित्था और इच्छह' रूपों की प्राप्ति भी होगी। ददध्वे-देहु-तुम देते हो। पक्षान्तर में 'देह' और 'देइत्था' रूप भी बनते हैं।। पूरी गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : बलेः अभ्यर्थने मधुमथनों लघुकीभूतः सोऽपि।।
__ यदि इच्छथ महत्त्वं (वड्डत्तणउं) दत्त, मा मार्गयत कमपि।।१।। हिन्दी:-मधु नामक राक्षस को मथने वाले भगवान् विष्णु को भी बलि राजा से भीख मांगने की दशा में छोटा अर्थात् 'वामन' होना पड़ा था; इसलिये यदि तुम महानता चाहते हो तो देओ; परन्तु किसी भी मांगो मत।।१।।४-३८४।।
अन्त्य-त्रयस्यादयस्य उ॥४-३८५॥ त्यादीनामन्त्र्यस्य यदाद्यं वचनं तस्यापभ्रंशे उं इत्यादेशो वा भवति।। विहि विणडउ पीडन्तु गह मं धणि करहि विसाउ।। संपइ कड्कउं वेस जिवँ छुड्ड अग्घइ ववसाउ।।१।। बलि किज्जउं सुअणस्सु।। पक्षे कडामि इत्यादि।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में वर्तमानकाल के अर्थ में 'मैं' वाचक उत्तम पुरूष के एकवचन में प्राकृत भाषा में प्राप्तव्य प्रत्यय के अतिरिक्त एक प्रत्यय 'उ' की आदेश प्राप्ति विकल्प रूप से और विशेष रूप से होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'मि' प्रत्यय की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- कर्षामिकड्ढउं=मैं खींचता हूँ। पक्षान्तर में 'कड्ढामि' रूप भी होगा। बलिं करोमि सुजनस्य-बलि किज्जउं सुअणस्सु-सज्जन पुरूष के लिये मैं (अपना) बलिदान करता हूँ।। पक्षान्तर में 'किज्जउं के स्थान पर 'किज्जमि' रूप भी होगा। गाथा का भाषान्तर इस प्रकार है:संस्कृत : विधि विनाटयतु ग्रहाः पीडयन्तु मा धन्ये ! कुरू विषादम्॥
संपदं कर्षामि वेषमिव, यदि अर्घति (=स्यात्) व्यवसायः॥१॥ हिन्दी:-मेरा भाग्य भले ही प्रतिकुल होवे, और ग्रह भी भले ही मुझे पीड़ा प्रदान करें; परन्तु हे मुग्धे ! हे धन्ये! तू खेद मत कर। जैसे मैं अपने कपड़ों को-(ड्रेस को-वेष को (आसानी से पहिन लेता हूं, वैसे ही धन-सम्पत्ति को भी आसानी से आकर्षित कर सकता हूँ-खीचं सकता हूँ; यदि मेरा व्यवसाय अच्छा है-यदि मेरा धन्धा फलप्रद है तो सब कुछ शीघ्र ही अच्छा ही होगा।।४-३८५।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 345
बहुत्वे हुँ।।४-३८६।। त्यादीनामन्त्यत्रयस्य संबन्धि बहुष्वर्थेषु वर्तमान यद्वचनं तस्य हूं इत्यादेशो वा भवति।। खग्ग-विसाहिउ जहिं लहहुँ पिय तहिं देसहिं जाहु।। रण-दुब्भिक्खें भग्गाई विणु जुज्झें न वलाहु।।१।।
पक्षे। लहिमु। इत्यादि।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में वर्तमानकाल के अर्थ में 'हम' वाचक उत्तम पुरूष के बहुवचनार्थ में प्राकृत भाषा में उपलब्ध प्रत्ययों के अतिरिक्त एक प्रत्यय 'हु की आदेश प्राप्ति विकल्प से और विशेष रूप से होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'मो, मु म' प्रत्ययों की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- (१) लभामहे-लहहुँ-हम प्राप्त करते हैं।। पक्षान्तर में 'लहमो, लहुमु, लहम, लहिमु' इत्यादि रूपों की प्राप्ति होगी। (२) यामः-जाहु-हम जाते है; पक्षान्तर में जामो हम जाते है।। (३) वलामहे वलाहुं हम रह सकते है।। पक्षान्तर में वलामो हम रह सकते हैं। पूरी गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : खड्ग विसाधितं यत्र लभामहे, तत्र देशे यामः।।
रण-दुर्भिक्षेण भग्नाः विना युद्धेन न वलामहे॥१॥ हिन्दी:-हम उस देश को जावेंगे अथवा जाते हैं; जहां पर की तलवार से सिद्ध होने वाले कार्य को प्राप्त कर सकते हो।। युद्व के दुर्भिक्ष से अर्थात् युद्व के अभाव से निराश हुए हम बिना युद्ध के (सुख पूर्वक) नही रह सकते हैं।।४-३८६ ।।
हि-स्वयोरिदुदेत्।।४-३८७।। पञ्यमम्यां हि-स्वयोरपभ्रंशे इ, उ, ए इत्येते त्रय आदेशा वा भवन्ति।। इत्। कुञ्जर ! सुमरि म सल्लइउ सरला सास भ मेल्लि।। कवल जि पाविय विहि-वसिण ते चरि माणु म मेल्लि।।१।। उत्। भमरा एत्थु वि लिम्बडइ के वि दियहडा विलम्बु।। घण-पत्तलु छाया बहुलु फुल्लइ जाम कयम्बु।। २।। एत्। प्रिय एम्बहिं करे सेल्लु करि छड्डहि तुहं करवालु।। जं कावालिय बप्पुडा लेहिं अभग्गु कवालु।। ३।। पक्षे । सुमरहि। इत्यादि।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में आज्ञार्थकवाचक लकार के मध्यम पुरूष के एकवचन में प्राकृत भाषा में इसी अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि और स' अपेक्षा से तीन प्रत्यय 'इ, उ, ए' की प्राप्ति विशेष रूप से और आदेश रूप से होती है। यह स्थिति वैकल्पिक है: इसलिये इन तीन आदेश-प्राप्त प्रत्ययों 'इ. उ. ए. के अतिरिक्त 'हि और स' प्रत्यय की प्राप्ति भी होती है। जैसे:- स्मर-सुमरि-याद कर। (२) मुञ्च-मेल्लि छोड़ दे। (३) चर-चरि-खा। पक्षान्तर में 'सुमरसु और सुमरहि, मेल्लसु, मेल्लहि, चरसु, चरहि' इत्यादि रूपों की प्राप्ति भी होगी; ये उदाहरण 'इ' प्रत्यय से सम्बन्धित है। 'उ' का उदाहरण यों हैं:-विलम्बस्व-विलम्बु-प्रतीक्षा कर। पक्षान्तर में 'विलम्बसु और विलम्बहि' रूपों की प्राप्ति भी होगी। 'ए' का उदारहणः- कुरू करे-तू कर। पक्षान्तर में 'करसु और करहि' रूप भी होगें। तीनों गाथाओं का अनुवाद क्रमशः यों हैं:संस्कृत : कुञ्जर ! स्मर मा सल्लकीः, सरलान् श्रासान् मा मुञ्च।।
कवलाः ये प्राप्ताः विधिवशेन, तांरंचर, मानं मा मुञ्च।।१॥
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346 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः- हे गजराज ! हे हस्ति - रत्न ! 'सल्लकी' नामक स्वादिष्ट पौधों को मत याद कर और (उनके लिए ) गहरे जो पौधे (खाद्य रूप से ) प्राप्त हुए हैं, उन्ही को खा और अपने सम्मान
वास मत छोड़ भाग्य के कारण से को - आत्म- गौरव को मत छोड़ ॥ १ ॥
संस्कृत :
भ्रमर ! अत्रापि निम्बके कति (चित् ) दिवसान् विलम्बस्व ॥ धनपत्रवान् छाया बहुलो फुल्लति यावत् कदम्बः ॥ २॥
हिन्दी:- हे भँवर ! अभी कुछ दिनों तक प्रतीक्षा कर और इसी निम्ब वृक्ष (के फूलों) पर (आश्रित रह) जब तक कि सघन पत्तों वाला और विस्तृत छाया वाला कदम्ब नामक वृक्ष नहीं फूलता है; (तब तक इसी निम्ब वृक्ष पर आश्रित होकर रह ) || २||
संस्कृत :
प्रिय ! एवमेव कुरू भल्लं, करे त्यज त्वं करवालम् ॥ येन कापालिका वराकाः लान्ति अभग्नं कपालम् ॥ ३॥
हिन्दीः-कोई नायिका विशेष अपने प्रियतम की वीरता पर मुग्ध होकर कहती है कि -'हे प्रियतम ! तुम भाले को अपने हाथ में इस प्रकार थामकर शत्रुओं पर वार करो कि जिससे वे मृत्यु को तो प्राप्त हो जाये परन्तु उनका सिर अखंड ही रहे, जिससे बेचारे कापालिक (खोपड़ी में आटा मागंकर खाने वाले) अखंड खोपड़ी को प्राप्त सके। तुम तलवार को छोड़ दो- तलवार से वार मत करो।।४-३८७।।
वर्त्स्यति - स्यस्य सः ।।४-३८८ ।।
अपभ्रंशे भविष्यदर्थ-विषययस्य त्यादेः स्यस्य सो वा भवति ।। दिअहा जन्ति झडप्पडहिं पडहिं मणोरह पच्छ ।।
जं अच्छइ तं माणिअइ होसइ करतु म अच्छि ॥१॥ पक्षे | होहि ||
अर्थः- प्राकृत भाषा में जैसे भविष्यत्काल के अर्थ में वर्तमानकाल वाचक प्रत्ययों के पहिले 'हि' की आगम-प्राप्ति होती है; वेसे ही अपभ्रंश भाषा में भी भविष्यत्काल के अर्थ में उक्त 'हि' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से वर्तमानकाल वाचक प्रत्ययों के पहिले 'स' की आगम प्राप्ति होती है। जैसे:- भविष्यति होसइ अथवा होहिइ = वह होगा। गाथा का अनुवाद यों है:
संस्कृत :
दिवसा यान्ति वेगै; पतन्ति मनोरथाः पश्चात् ॥
यदस्ति तन्मान्यते भविष्यति (इति) कुर्वन् मा आश्व॥ १ ॥
हिन्दी:-दिन प्रतिदिन अति वेग से व्यतीत हो रहे हैं और मन - भावनाऐं पीछे पड़ती जा रही हैं अर्थात् ढीली पड़ती जा रही है अथवा लुप्त होती जा रही है। 'जो होना होगा अथवा जो है सो हो जायगा' ऐसी मान्यता मानता हुआ आलसी होकर मत बैठे जा।।४-३८८ ।।
क्रियेः कीसु । । ४ - ३८९ ।।
क्रिये इत्येतस्य क्रियापदस्यापभ्रंशे कीसु इत्यादेशौ वा भवति ।।
सन्ता भोग जु परिहरइ, तसु कन्तहो बलि कीसु ॥
तसु दइवेण विमुण्डियउं, जसु खल्लि हडउं सीसु ॥ १ ॥
पक्षे। साध्यमानावस्थात् क्रिये इति संस्कृत शब्दादेश प्रयोगः । बलि किज्जउं सुअणस्सु ।।
अर्थ:-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'क्रिये' क्रियापद के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में विकल्प से 'किस' ऐसे क्रियापद की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'किज्जउ' ऐसे पद रूप की भी प्राप्ति होगी ।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 347
जैसे:-क्रिये-कीसु अथवा किज्जउं-मैं करता हूँ मैं करती हूँ। साध्यमान अवस्था में 'क्रिये' का रूप 'किज्ज' होगा। जिसकी सिद्धि इस प्रकार से की जायेगी:- "क्रिय' में स्थित 'र' का सूत्र-संख्या २-७९ से लोप और १-२४८ से 'य' के स्थान पर द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति होकर 'क्रिय' के स्थान पर 'किज्ज' रूप की आदेश प्राप्ति जानना चाहिये। 'कीसु' क्रियापद को समझने के लिये जो गाथा दी गई है, उसका अनुवाद यों है: संस्कृत : सतो भोगान् यः परिहरति तस्य कान्तस्य बलिं क्रिये।।
तस्य देवेनैव मुण्डितं, यस्य ख्ल्वाटं शीर्षम्॥१॥ हिन्दी:-मैं अपनी श्रद्धांजलि उस प्रिय व्यक्ति के लिये समर्पित करता हूँ; जो कि भोग-सामग्री के उपस्थित होने पर- विद्यमान होने पर उसका त्याग करता है। किन्तु जिसके पास भोग सामग्री है ही नहीं; फिर भी जो कहता है कि-'मैं भोगों को छोड़ता हूँ।' ऐसा व्यक्ति तो उस व्यक्ति के समान है, जिसका सिर गंजा है और भाग्य ने जिसको पहिले से ही 'केश-विहीन कर दिया है अर्थात् जिसका मुण्डन पहिले ही कर दिया गया है।।१।।
'कीसु' के वैकल्पिक रूप 'किज्जलं' का उदाहरण यों है:- बलिं करोमि सुजनस्य बलिं किज्जउं सुअणस्सु=मैं सज्जन पुरूष के लिये बलिदान करता हूँ। (सूत्र-संख्या ४-३३८ में यह गाथा पूरी दी गई है)।।४-३८९।।
भुवः पर्याप्तौ हुच्चः ।।४-३९०।। अपभ्रंशे भुवो धातोः पर्याप्तावर्थे वर्तमानस्य हुच्च इत्यादेशौ भवति।। अइत्तुंगत्तणु जं थणहं सोच्छयउ, न हु लाहु।। सहि ! जइ केवइ तुडि-वसेण, अहरि पहुच्चइ, नाहु।।१।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में संस्कृत धातु 'भु-भव' के स्थान पर 'समर्थ हो सकने' के अर्थ में अर्थात् 'पहुँच सकने' के अर्थ में 'हुच्च' रूप की आदेश प्राप्ति होती है।। जैसे:- (१)प्रभवति-पहुच्चइ-वह समर्थ होता है-वह पहुँच सकता है। (२) प्रभवन्ति पहुच्चहिँ वे समर्थ होते हैं- वे पहुँच सकते हैं।। गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : अतितुङगत्वं यत्स्तनयोः सच्छेदकः न खलु लाभः।
सखि । यदि कथमपि त्रटिवशेन अधरे प्रभवति नाथः॥१॥ हिन्दी:-हे सखि ! दोनों स्तनो की अति ऊँचाई हानि रूप ही है न कि लाभ रूप है। क्योंकि मेरे प्रियतम अधरों तक (होठों का अमृत-पान करने के लिये) कठिनाई के साथ और देरी के साथ ही पहुँच सकने में समर्थ होते है।।४-३९०।।
ब्रगो ब्रू वो वा।।४-३९१।। अपभ्रंशे ब्रूगा धातो बूंव इत्यादेशौ वा भवति।। ब्रूवह सुहासिउ कि पि॥ पक्षे। इत्तउं ब्रोप्पिणु सउणि, ट्ठिउ पुणु दूसासणु ब्रोप्पि।। तोहउं जाणउं एहो हरि जइ महु अग्गइ ब्रोप्पि।।१।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'बोलना' अर्थक धातु 'ब्र' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में विकल्प से 'ब्रूव' ऐसे धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'ब्रू रूप की भी प्राप्ति होगी। (१) जैसे:- ब्रूते-ब्रूवइ और ब्रूइ-वह बोलता है। (२) ब्रूत सुभाषितं किचित्-ब्रूवह सुहासिउ किपि-कुछ भी सुन्दर अथवा अच्छा भाषण बोलो। गाथा का अनुवाद इस प्रकार से है:संस्कृत : इयत् उक्त्वा शकुनिः स्थितः पुनर्दु शासन उक्त्वा।।
तदा अहं जानामि, एष हरिः यदि ममाग्रतः उक्त्वा ।।१।। हिन्दी:-दुर्योधन कहता है कि शकुनि इतना कहकर रूक गया है, ठहर गया है। पुनः दुष्शासन (भी) बोल करके (रूक गया है)। तब मैनें समझा अथवा समझता हूँ कि यह श्रीकृष्ण है; जो कि मेरे सामने बोल करके खड़े हैं। यों इस गाथा में 'ब्रू' धातु के अपभ्रंश में तीन विभिन्न क्रियापद-रूप बतलाये गये है।।४-३९१ ।।
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348 : प्राकृत व्याकरण
व्रजे तुंबः।।४-३९२॥ अपभ्रंशे व्रजते र्धातो वुज इत्यादेशौ भवति। वुबइ। वुअप्पि। वुबेप्पिणु।।
अर्थः-'घुमना, जाना, गमन करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'व्रज्' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'वुब' ऐसे धातु-रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसेः-व्रजति-वुअइ-वह जाता है-वह घूमता है अथवा वह गमन करता है। व्रजित्वा-वुबेप्पि और वुप्पिणु-जाकर के, घूम करके अथवा गमन करके।।४-३९२ ।।
दशेः प्रस्सः ॥४-३९३।। अपभ्रंशे दृशे र्धातोः प्रस्स इत्यादेशो भवति।। प्रस्सदि।
अर्थः-संस्कृत भाषा में 'देखना' अर्थ में उपलब्ध धातु 'दृश्=पश्य' के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में प्रस्स' ऐसे धातु-रूप की नित्यमेव आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-पश्यति प्रस्सदि वह देखता है।।४-३९३||
ग्रहे गुणहः॥४-३९४॥ अपभ्रंशे ग्रहे र्धातो गुण्ह इत्यादेशो भवति।। पढ गृण्हेप्पिणु व्रतु।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में 'ग्रहण करना-लेना' अर्थ में उपलब्ध धातु 'ग्रह' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'गृह' ऐसे धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः- (१) गृह्णति-गृण्हइ वह ग्रहण करता है-वह लेता है। (२) पठ गृहीत्वा व्रतम्=पढ गृण्हेप्पिणु व्रतु-व्रत-नियम को ग्रहण करके-अंगीकार करके-पढ़ो-अध्ययन करो।।४-३९४।।
तक्ष्यादीनां छोल्लादयः॥४-३९५।। अपभ्रंशे तक्षि-प्रभृतीनां धातूनां छोल्ल इत्यादय आदेशा भवन्ति।। जिव तिवं तिक्खा लेवि कर जइ ससि छोल्लिजन्त॥ तो जइ गोरिहे मुह-कमलि सरि सिम कावि लहन्तु॥१॥ आदि ग्रहणाद् देशीषु ये क्रियावचना उपलभ्यन्ते ते उदाहार्याः।। चूडल्लउ चुण्णी होइ सइ मुद्धि ! कवोलि निहित्तउ।। सासानल-जाल-झलक्किअउ, वाह-सलिल-संसित्तउ।। २।। अब्भड वंचिउ बे पयई पेम्मु निअत्तइ जावें।। सव्वासण-रिउ-संभवहो, कर परिअत्ता तावँ।। ३॥ हिअइ खुडुक्कइ गोरडी गयणि घुडुक्कइ मेहु।। वासा-रत्ति-पवासुअहं विसमा संकडु एहु॥४॥ अम्मि ! पओहर वज्जमा निच्चु जे संमुह थन्ति।। महु कन्तहो समरङ्गणइ गय-घड भज्जिउ जन्ति।। ५।। पुत्ते जाएं कवणु गुण, अवगुणु कवणु मुएण।। जा बप्पीकी भुंहडी चम्पिज्जइ अवरेण।। ६।। तं तेत्तिउ जलु सायरहो सो तेवडु वित्थारू।। तिसेहे निवारणु पलुवि नवि पर धुढुअइ असारू।। ७।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में 'छोलना-छिलके उतारना' अर्थक उपलब्ध धातु 'तक्ष के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'छोल्ले' ऐसे धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। यों अन्य अनेक धातु अपभ्रंश भाषा में आदेश रूप से प्राप्त
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 349 होती हुई देखी जाती है, उनकी आदेश प्राप्ति का विधान स्वयमेव समझ लेना चाहिये । वृत्ति में आई हुई गाथाओं का भाषान्तर क्रम से इस प्रकार है:
संस्कृत : यथा तथा तीक्ष्णान् करान् लात्वा यदि शशी अतक्षिष्यत । । तदा जगति गौर्या मुख-कमलेन सद्दशतां कामपि अलप्स्यत ॥१॥
हिन्दी:-(बिना विचार किये) जैसी तैसी तीक्ष्ण-कठोर किरणों को लेकर के चन्द्रमा ( कमलमुखियों के मुख की शोभा को) छीलता रहेगा तो इस संसार में (अमुक नायिका विशेष के गौरी के मुख कमल की समानता को कहीं पर भी किसी के साथ भी नहीं प्राप्त कर सकेगा || १ |
संस्कृत : कङकणं चूर्णी - भवति स्वयं मुग्धे ! कपोले निहितम्।। श्वासानल ज्वाला-संतप्तं बाष्प - जल-संसिक्तम् ॥ २॥
हिन्दी:- हे ( सुन्दर गालों वाली) मुग्ध - नायिका ! श्वास- निश्वास लेने से उत्पन्न गर्मी अथवा अग्नि की ज्वालाओं से (झाल से) गरम हुआ और बाष्प अर्थात् भाप के (अथवा नेत्रों के आँसु रूप) जल से भीगा हुआ एवम् गाल पर रखा हुआ (तुम्हारा यह) कंकड़-चूड़ी चूर्ण चूर्ण हो जायगी टूट जायगी। गरम होकर भीगा हुआ होने से अपने आप ही तड़क कर कंकण टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा । इस गाथा में 'तापय्' धातु के स्थान पर 'झलक' धातु का प्रयोग किया गया है; जो कि देशज है ॥ १ ॥
संस्कृत : अनुगम्य द्वे पदे प्रेम निवर्तते यावत् ।।
सर्वाषन-रिपु-संभवस्य कराः परिवृत्ताः तावत् ॥ ३॥
हिन्दी:- प्रेमी के कदमों का अनुकरण करने मात्र से ही परिपूर्ण प्रेम निष्पन्न हो जाता है - प्रेम-भावनाऐं जागृत हो जाती हैं और ऐसा होने पर जो जल उष्ण प्रतीत हो रहा था और जिस चन्द्रमा की किरणें उष्णता उत्पन्न कर रही थी; वे तत्काल ही निवृत्त हो गई अर्थात् प्रेमी के मिलते ही परम शीतलता का अनुभव होने लग गया। इस गाथा में 'अनुगम्य' क्रियापद के स्थान पर देशज भाषा में उपलब्ध 'अब्भड वचिउ' क्रियापद का प्रयोग किया गया है।। ३।। संस्कृत : हृदये शल्यायते गौरी, गगने गर्जति मेघः ॥
वर्षा - रात्रे प्रवासिकानां विषमं संकटमेतत् ॥ ४॥
हिन्दी:- (प्रियतमा पत्नी को छोड़ करके विदेश की यात्रा करने वाले) प्रवासी यात्रियों को वर्षा - कालीन रात्रि के समय में इस भयंकर संकट का अनुभव होता है; जबकि हृदय में तो गौरी ( का वियोग-दुःख) कांटे के समान कसकता है-दुःख देता है और आकाश में (उस दुःख को दुगुना करने वाला) मेघ अर्थात् बादल गर्जता है। इस गाथा में 'शल्यायते' संस्कृत - क्रियापद के स्थान पर देशज क्रियापद 'खुडुक्कर' का प्रयोग किया गया है और इसी प्रकार से 'गर्जति' संस्कृत धातु रूप के बदले में देशज - धातु रूप 'घुडुक्कइ' लिखा है; जो कि ध्यान देने के योग्य है ॥ ४ ॥
संस्कृत :
अम्ब! पयोधरौ वज्रमयो नित्यं यो सम्मुखो तिष्ठतः ॥ मम कान्तस्य समरङगणके गज-घटाः भङ्क्तुं यातः ।। ५ ।।
हिन्दी:- हे माता ! रण-क्षेत्र में हाथियों के समूह को विदारण करने कि लिये जाते हुए गमन करते हए - मेरे प्रियतम सम्मुख सदा ही जिन वज्रसम कठोर दोनों स्तनों की ( स्मृति ) सम्मुख रहती है; ( इस कारण से उसको कठोर वस्तु का भंजन करने का सदा ही अभ्यास है और ऐसा होने से हाथियों के समूह को विदारण करने में उन्हें कोई कठिनाई अनुभव नहीं होती है ) ।। ५ ।।
संस्कृत :
पुत्रेण जातेन को गुण, अवगुणः कः मृतेन ।।
यत् पैतृकी (बप्पीकी) भूमिः आक्राम्यते ऽपरेण ।। ६ ।।
हिन्दी:- यदि (पुत्र के रहते हुए भी) बाप-दादाओं की अर्जित भूमि शत्रु द्वारा दबाली जाती है - अधिकृत कर ली
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350 प्राकृत व्याकरण
जाती है तो ऐसे पुत्र के उत्पन्न होने से अथवा जीवित रहने से क्या लाभ है? और (ऐसे निकम्मे पुत्र के ) मर जाने से भी कौन सी हानि है? (निकम्मे पुत्र का तो मरना अथवा जीवित रहना दोनों ही एक समान ही है) इस गाथा में 'बप्पीकी और चम्पिज्जइ' ऐसे दो पदों की प्राप्ति देशज भाषा से हुई है; जो कि ध्यान में रखने योग्य है ।। ६ ।। तत् तावत् जलं सागरस्य, स तावन् विस्तारः ।। तृषो निवारणं पलमपि नैव परं शब्दायते असारः ।। ७।।
संस्कृत :
हिन्दी:-समुद्र का जल अति मात्रा वाला होता है और उसका विस्तार भी अत्यधिक होता है; किन्तु थोड़ी देर के लिये भी सी प्यास भी मिटाने के लिये वह समर्थ नहीं होता है; फिर भी निरर्थक गर्जना करता रहता है; (अपनी महानता का अनुभव कराता रहता है) इस गाथा में 'घुट ठुअइ' ऐसा जो क्रियापद आया है, वह देशज है। यों अपभ्रंश भाषा में अनेकानेक देशज पदों का प्रयोग किया गया है; जिन्हें स्वयमेव समझ लेना चाहिये । । ४ - ३९५ ।।
अनादौ स्वरादसंयुक्तानां क -ख-त-थ-प-फां, ग-घ-द-ध-ब- भाः ।।४-३९६॥
अपभ्रंशेऽपदादौ वर्तमानानां स्वरात् परेषामसंयुक्तानां क ख त थ प फां स्थाने यथा संख्यं ग घ द ब भाः प्रायो भवन्ति । । कस्य मा ।
जं दिट्ठ सोम - गणु असइहिं हसिउ निसंकु ।
पिअ - माणुस - विच्छोह - गरु गिलिगिलि राहु मयंकु ॥ १ ॥
खस्य घः ।
अम्मीए सत्थावत्थेहिं सुधिं चिन्तिज्जइ माणु ॥ पिए दिट्ठे हल्लोहलेण को चेअइ अप्पाणु ॥ २॥
तथ्पफानां दधबभाः ।
सबधु करेप्पिणु कधिदु मइं तसु पर सभलउं जम्मु ॥
सुनं चान चारहडि, न पम्हट्ठउ धम्मु || ३ ||
अनादाविति किम्। सबधु करेप्पिणु । अत्र कस्य गत्वं न भवति ।। स्वरादिति किम् ।
गिलिगिलि राहु मयङकु ।। असंयुक्तानामिति किम् । एक्कहिं अक्खिहिं सावणु ॥ प्रायोधिकारात् क्वचिन्न भवति । जइ केवँइ पासीसु पिउ अकिआ कुड्ड करीसु ॥
पाणीउ नवइ सरावि जिवँ सव्वङगें पर सीसु ॥ ४ ॥
उअ कणिआरू फफुल्लिअउ कञ्चन - कन्ति पयासु ।। गौरी-वयण - विणिज्जअउ नं सेवइ वण- वासु ॥ ५॥
अर्थः- संस्कृत भाषा में 'क, ख, त, थ, प और फ' इतने अक्षरों में से कोई भी अक्षर यदि पद के प्रारंम्भ में नहीं रहा हुआ हो और संयुक्त भी अर्थात् किसी अन्य अक्षर के साथ में भी मिला हुआ नहीं हो एवं किसी भी स्वर के पश्चात् रहा हुआ हो तो अपभ्रंश में 'क' के स्थान पर 'ग'; 'ख' के स्थान पर 'घ'; 'त' के स्थान पर 'द', 'थ'; के स्थान पर 'ध'; 'प' के स्थान पर 'ब' और 'फ' के स्थान पर 'भ' की प्राप्ति हो जाती है। ऐसी आदेश - प्राप्ति नित्यमेव नहीं होती है परन्तु प्राय: करके हो जाती है। जैसे:- 'क' के स्थान पर 'ग' प्राप्ति का उदाहरण:-शुद्धि करः-सुद्धि-गरो=पवित्रता को करने वाला। 'ख' से 'घ' : - सुखेन सुघें सुख से । 'त' का द' :- जीवितं जीविदु-जीवन जिंदगी। 'थ' का धः- कथितम् = क धदु कहा हुआ । 'प' का 'ब' :- गुरू-पदम् = गुरू- बयु - गुरू के चरण को । 'फ' का 'भ' :- सफल म्= सभलु - सफल ।। वृत्ति में आई हुई गाथाओं का भाषान्तर क्रम से यों है:
संस्कृत :
यद् दृष्टं सोम - ग्रहणमसतीभिः हसितं निःषङकम् ॥ प्रिय- मनुष्य - विक्षोभकरं, गिल गिल, राहो ! मृगाङकम् ॥१॥
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 351 हिन्दी:- 'राहु' द्वारा चन्द्रमा को ग्रहण किया जाता हुआ जब असती अर्थात् काम-भावनाओं से युक्त स्त्रियों द्वारा देखा गया, तब उन्होंने निडर होकर हंसते हुए कहा कि-'हे राहु ! प्रिय जनों में 'विक्षोभ-घबराहट' पैदा करने वाले इस चन्द्रमा को त निगल जा-निगल जा। इस गाथा में 'विक्षोभ कर के स्थान पर 'विच्छोह-गरू' पद का रूपान्तर करते हुए 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है।।१।। संस्कृत : अम्ब ! स्वस्थावस्थेः सुखेन चिन्त्यते मानः।।
प्रिये द्दष्टे व्याकुलत्वेन ( हल्लोहल ) कश्चे तयति आत्मानम्॥ २॥ हिन्दी:-हे माता ! शान्त अवस्था में रहे हुए व्यक्तियों द्वारा ही सुख पूर्वक आत्म-सम्मान का विचार किया जाता है किन्तु जब प्रियतम दिखाई पड़ता है अथवा उसका मिलन होता है तब भावनाओं के उमड़ पड़ने के कारण से उत्पन्न हुई व्याकुलता की स्थिति में कौन अपने (सम्मान) को सोचता है-विचारता है ? ऐसी स्थिति में तो 'मिलने' की उतावलता-हल्लोहलपना रहता है। इस गाथा में 'सुखेन' के स्थान पर 'सुधिं' का रूपान्तर करते हुए 'ख' अक्षर के स्थान पर 'घ' अक्षर की प्राप्ति का बोध कराया गया है।। २।। संस्कृत : शपथं कृत्वा कथितं मया, तस्य परं सफलं जन्म।।
यस्य न त्यागः, नाच आग्भटी, नाच प्रमृष्टः धर्मः।। ३।। हिन्दी:- जिसने न तो त्याग-वृत्ति छोड़ी है, न सैनिक-वृत्ति का ही परित्याग किया है और न विशुद्ध धर्म को ही छोड़ा है; उसी का जन्म विशिष्ट रूप से सफल, है; ऐसी बात मुझसे शपथ पूर्वक कही गई है।
। गाथा में 'शपथं के स्थान पर 'सबध': 'कथितं' के स्थान पर 'कधिद' और 'सफल' के स्थान पर 'सभलउं' लिख कर यह सिद्ध किया है कि 'प' के स्थान पर 'ब'; 'थ' के स्थान पर 'ध' और 'त' के स्थान पर 'द' तथा 'फ' के स्थान पर 'भ' की प्राप्ति अपभ्रंश भाषा में होती है।। ३।।। प्रश्न:-'क-ख-त-थ-प-फ' अक्षर पद के आदि में नहीं होने चाहिये; ऐसा विधान क्यों किया गया है ?
अत्तर:-यदि उक्त अक्षरों में से कोई भी अक्षर पद के आदि में रहा हुआ होगा तो उसके स्थान पर आदेश रूप से प्राप्तव्य अक्षर 'ग-घ-द-ध-ब-भ' की आदेश प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:-कृत्वा करेप्पिणु-करके; यहाँ पर 'क' वर्ग के आदि में है, अतः इसके स्थान पर 'ग' अक्षर की आदेश प्राप्ति नहीं होगी। यों आदि में स्थिति को भी समझ लेना चाहिये।
प्रश्न:- यदि ‘क-ख-त-थ-प-फ' अक्षर स्वर के पश्चात् रहे हुए होगें, तभी इनके स्थान पर 'ग-घ-द-ब-भ' अक्षरों की क्रम से प्राप्ति होगी; ऐसा भी क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि ये स्वर के पश्चात् नहीं रहे होंगे तो इनके स्थान पर आदेश-रूप से प्राप्तव्य अक्षरों की आदेश प्राप्ति भी नहीं होगी, ऐसी अपभ्रंश-भाषा में परंपरा है; इसलिये स्वर से परे होने पर ही इनके स्थान पर उक्त अक्षरों की आदेश-प्राप्ति होगी; ऐसा समझना चाहिये। जैसः- मृगाङकम्-मयङ्कु-चन्द्रमा को। इस उदाहरण में हलन्त व्यञ्जन 'ङ' के पश्चात् 'क' वर्ण आया हुआ है जो कि 'स्वर' के परवर्ती है इसलिये 'क' के स्थान पर 'ग' वर्ण की आदेश-प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्य उक्त शेष अक्षरों के सम्बन्ध में भी 'स्वर-परवर्तित्व' के सिद्धान्त को ध्यान में रखना चाहिये।
प्रश्न:- असंयुक्त अर्थात् हलन्त रूप से नहीं होने पर ही 'क-ख-त-थ-प-फ' के स्थान पर 'ग-घ-द-ध-ब-भ' व्यंजनों की क्रम से आदेश प्राप्ति होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तर:-यदि 'क-ख-त-थ-प-फ' व्यञ्जन पूर्ण नहीं है अर्थात् स्वर से रहित होकर अन्य किसी दुसरे व्यञ्जन के साथ में ये अक्षर रहे हुए होंगे तो इनके स्थान पर 'ग-घ-द-ध-ब-भ' व्यजनों की क्रम से प्राप्तव्य आदेश प्राप्ति नही होगी; ऐसी अपभ्रंश भाषा में परपंरा है; इसलिये 'असंयुक्त स्थिति का उल्लेख और सद्भाव किया गया है। जैसे:- एकस्मिन अक्षिण श्रावणः= एक्कहिं अक्खिहिं सावणु-एक आँख में श्रावण (अर्थात् आँसुओं की झड़ी) है।
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352 : प्राकृत व्याकरण
इस उदाहरण में 'क के स्थान पर ग' वर्ण की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। यों शेष अन्य उक्त व्यंजनों के संबंध में भी स्वयमेव कल्पना कर लेनी चाहिये। (पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३५७ में प्रदान की गई है।)
वृत्ति में ग्रन्थकार ने 'प्रायः अव्यय का प्रयोग करके यह भावना प्रदर्शित की है कि इन व्यञ्जनों के स्थान पर प्राप्तव्य व्यञ्जनों की आदेश-प्राप्ति कभी-कभी नहीं होती है। जैसे कि अकतं-अकिआ नहीं किया हआ। नवके नवइ-नये मे।। इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि 'क' वर्ण स्वर के पश्चात् रहा हुआ है, अनादि में स्थित है और असंसुक्त भी है, फिर भी इसके स्थान पर आदेश रूप से प्राप्तव्य 'ग' वर्ण की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्य उक्त शेष व्यञ्जनों के संबंध में भी 'प्रायः' अव्यय का ध्यान रखते हुए जान लेना चाहिये कि सभी स्थानों पर आदेश-प्राप्ति का होना जरूरी नहीं है। वृत्ति में उल्लिखित चौथी एवं पाँचवीं गाथा का भाषान्तर क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियं अकृतं कौतुकं करिष्यामि।
पानीयं नवके शरावे यथा सर्वाङगेण प्रवेक्ष्यामि।।४।। हिन्दी:-यदि किसी प्रकार से संयोग वशात् मेरी अपने प्रियतम से भेंट हो जायगी तो मैं कुछ ऐसी आश्चर्य जनक स्थिति उत्पन्न कर दूँगी; जैसा कि पहिले कभी भी नहीं हुई होगी। मैं, अपने संपूर्ण शरीर को अपने प्रियतम के शरीर के साथ में इस प्रकार से आत्म-सात् (एकाकार) कर दूँगी; जिस प्रकार कि नये बने हुए मिट्टी के शरावले में पानी अपने आपको आत्म-सात् कर देता है।।४।। संस्कृत : पष्य ! कर्णिकारः प्रफुल्लितकः काञ्चन कांति प्रकाशः।
गौरी वदन-विनिर्जितकः ननु सेवते वनवासम्।। ५।। हिन्दी:-इस कर्णिकार नामक वृक्ष को देखो ! जो कि ताजे फूलों से लदा हुआ होकर परम शोभा को धारण कर रहा है; सोने के समान सुन्दर कांति से देदीप्यमान हो रहा है। गौरी के (नायिका विशेष के) आभापूर्ण सौम्य मुख-कमल की शोभा से भी अधिक शोभायमान हो रहा है। फिर भी आश्यर्च है कि यह वन-वास ही सेवन कर रहा है; वन में रहता हुआ ही अपना कालक्षेप कर रहा है। इस गाथा में 'कर्णिकारः और प्रकाशः पदों में 'क' वर्ण के स्थान पर 'ग' वर्ण की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। 'प्रफुल्लितकः और विनिर्जितकः' पदों में भी क्रम से प्राप्त 'फ' वर्ण तथा 'त' वर्ण के स्थान पर भी क्रम से प्राप्तव्य 'भ' वर्ण की और 'द' वर्ण की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। यों अनेक स्थानों पर 'प्रायः' अव्यय से सूचित स्थिति को हृदयंगम करना याहिये।। ५।।४-३९६ ।।
मोनुनासिको वो वा।।४-३९७।।। अपभ्रंशेऽनादौ वर्तमानस्यासंयुक्तस्य मकारस्य अनुनासिका वकारो वा भवति।। कवलु कमलु। भवरू भमरू। लाक्षणिकस्यापि। जिएँ। तिव। जेवँ।। अनादावित्येव। मयणु।। असंयुक्तस्येत्येव। तसु पर सभलउ जम्मु॥ । ___ अर्थः-संस्कृत भाषा के पद में रहे हुए 'मकार' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में रूपान्तर करने पर अनुनासिक सहित 'वकार' की अर्थात् 'व' की आदेश प्राप्ति विकल्प से उस दशा में हो जाती है जबकि वह 'मकार' पद के आदि में भी नहीं रहा हुआ हो तथा संयुक्त रूप से भी नही रहा हुआ हो। जैसे:-कमलम्=कवलु अथवा कमलु-कमल-फूल।। भ्रवरः भवँरू अथवा भमरू= भँवरा। इन उदाहरणों में 'मकार' पद के आदि में भी नहीं है तथा संयुक्त रूप से भी नहीं रहा हुआ है। व्याकरण सम्बन्धी नियमों से उत्पन्न हुए 'मकार' के स्थान पर भी अनुनासिक सहित 'व' की उत्पत्ति भी विकल्प से देखी जाती है। जैसे:-यथा जिम अथवा जिवँ जिस प्रकार जिस तरह से। तथा तिम अथवा तिव-उस प्रकार से अथवा उस तरह से। यथा जेम अथवा जेवँ जिस प्रकार अथवा जिस तरह से। तथा तेम अथवा तेवँ-उस प्रकार अथवा उस तरह से।।
प्रश्नः-'अनादि' में स्थित 'मकार' के स्थान पर ही 'व' की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है?
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 353
उत्तर:- यदि ‘मकार' पद के आदि में रहा हुआ हो तो उसके स्थान पर 'वकार' की आदेश प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:मदन-मयणु-मदन-कामदेव। यहाँ पर 'मकार' के स्थान पर 'वकॉर' नहीं होगा। क्योंकि यह मकार आदि में स्थित है।
प्रश्नः-'असंयुक्त रूप से रहे हुए ‘मकार' के स्थान पर ही 'वकार' होगा; ऐसा भी क्यों का गया है ?
उत्तरः- 'संयुक्त रूप से रहे हुए 'मकार' के स्थान पर 'वकार' की आदेश प्राप्ति नहीं होती है; ऐसी अपभ्रंश-भाषा में परंपरा है; इसलिये 'संयुक्त' मकार के लिये 'वकार' की प्राप्ति का निषेध किया गया है। जैसे:- जन्म-जम्मु-जन्म होना- उत्पत्ति होना। यहाँ पर 'मकार' संयुक्त रूप से रहा हुआ है इसलिये 'वकार' की यहाँ पर आदेश प्राप्ति नहीं हो सकती है। तस्य परं सफलं जन्म-तसु पर सभलउ जम्मु उसका जन्म बड़ा ही सफल है। (पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३९६ में दी गई है)।।४-३९७।।
वाधो रो लुक्।।४-३९८।। ___ अपभ्रंशे संयोंगादधो वर्तमानो रेफो लुग् वा भवति।। जइ केवइ पावीसु पिउ (देखो-४-३९६) पक्षे। जइ मग्गा पारक्कडा तो सहि! मज्झु प्रियेण।।
अर्थः-संस्कृत भाषा के किसी भी पद में यदि रेफ-रूप 'रकार' संयुक्त रूप से और वर्ण में परवर्ती रूप से अर्थात् अधो रूप से रहा हुआ हो तो उस रेफ रूप 'रकार' का अपभ्रंश-भाषा में विकल्प से लोप हो जाता है। जैसे:-यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियंजई केवँइ पावीसु पिउ-यदि किसी भी तरह से प्रियतम पति को प्राप्त कर लूँगी। इस उदाहरण में 'प्रिय' के स्थान पर 'पिउ' पद को लिख करके 'प्रियं' में स्थित रेफ रूप 'रकार' का लोप प्रदर्शित किया गया है। पक्षान्तर में जहाँ रेफ रूप 'रकार' का लोप नहीं होगा, उसका उदारहरण इस प्रकार से है:यदि भग्नाः परकीयाः तत्-सखि ! मम प्रियेण जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि ! मज्झु प्रियेण हे सखि ! यदि शत्रु पक्ष के लड़वैये (रण-क्षेत्र को छोड़कर) भाग खड़े हुए हैं तो मेरे पति (की वीरता के कारण) से (ही) ऐसा हुआ है। इस दृष्टान्त में 'प्रियेण' के स्थान पर 'प्रियेण' पद का ही उल्लेख करके यह समझाया है कि रेफ रूप 'रकार' का लोप कहीं पर होता है और कहीं पर नहीं भी होता है। यों यह स्थिति उभय-पक्षीय होकर वैकल्पिक है।।४-३९८।।
अभूतोपि क्वचित।।४-३९९।। अपभ्रंशे क्वचिदविद्यमानो पि रेफो भवति।। वासु महारिसि ऍउ भणइ जइ सुइ-सत्थु पमाणु।। मायहं चलण नवरन्ताहं दिवि दिवि गङगा-हाणु।।१।। क्वचिदितिकिम्। वासेण वि भारह-खम्भि बद्ध।।
अर्थः-संस्कृत भाषा के किसी पद में यदि रेफ रूप 'रकार' नहीं है तो भी अपभ्रंश-भाषा में उस पद का रूपान्तर करने पर उस पद में रेफ-रूप 'रकार' की आगम प्राप्ति कभी-कभी हो जाया करती है। जैसे:-व्यासः वासु व्यास नामक ऋषि-विशेष। पूरी गाथा का रूपान्तर यों है:संस्कृत : व्यास-महर्षिः एतद् भणति यदि श्रुति-शास्त्रं प्रमाणम्।।
मातृणां चरणौ नमतां दिवसे दिवसे गङ्गा स्नानम्।।१॥ हिन्दी:-महाभारात के निर्माता व्यास नामक बड़े ऋषि फरमाते है कि यदि वेद और शास्त्र सच्चे हैं याने प्रमाण रूप हैं तो यह बात सच है कि जो विनीत आत्माएं प्रतिदिन प्रातःकाल में अपनी पूजनीय माताओं के चरणों में श्रद्धा पूर्वक नमस्कार प्रणाम करते हैं तो उन विनीत महापुरूषों को बिना गंगा स्नान किये भी 'गङ्गा' में स्नान करने से उत्पन्न होने वाले पुण्य जितने पुण्य की प्राप्ति होती है।।१।।। प्रश्नः- क्वचित् अर्थात् कभी-कभी ही रेफ रूप 'रकार' की आगम प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है?
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354 : प्राकृत व्याकरण
उत्तरः-अनेक पदों में कभी तो रेफ रूप 'रकार' की आगम-प्राप्ति हो जाती है और कभी नहीं भी होती है; इसलिये क्वचित् अव्यय का उपयोग किया गया है। जैसे:- व्यासेनापि भारत स्तम्भे बद्धम् वासेण वि भारह-खम्भि बद्ध-व्यास ऋषि के द्वारा भी भारत रूपी स्तम्भ में बांधा गया है-कहा गया है। इस उदाहरण में 'वासेण' पद में रेफ-रूप 'रकार' का आगम नहीं हुआ है। (१) व्याकरणम् वागरण और वागरण व्याकरण शास्त्र। इस तरह से रेफ-रूप 'रकार' की आगम स्थिति को जानना चाहिये।।४-३९९ ।।
आपद्विपत्-संपदां द इः।।४-४००।। अपभ्रंशे आपद्-विपद्-(संपद)-इत्येतेशां दकारस्य इकारो भवति।। अणउ करन्तहो पुरिसहो आवइ आवइ।। विवइ। संपइ।। प्रायोधिकारात्। गुणहिं न संपय कित्ति पर।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'आपद्, विपद्-संपद्' शब्दों में उपस्थित अन्त्य व्यञ्जन 'दकार' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'इकार' स्वर की आदेश प्राप्ति (कभी-कभी) हो जाती है। जैसे :- (१) आपद्-आवइ-आपत्ति-दुख। (२) विपद्-विवइ-विपत्ति-संकट। (३) संपद्-सैपद-संपत्ति-सुख।। गाथा के चरण का रूपान्तर यों है:__अनयं कुर्वतः पुरूषस्य आपद् आयाति-अणउ करन्तहो पुरिसहो आवइ आवइ-अनीति को करने वाले पुरूष के (लिये) आपत्ति आती है।
'प्रायः' अव्यय के साथ उक्त विधान का अल्लेख होने से कभी-कभी 'आपद्-विपद्-संपद्' में रहे हुए अन्त्य व्यञ्जन 'दकार' के स्थान पर 'इकार' रूप की आदेश-प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:-आपद्-आवय अथवा आवया। (२) विपद्=विवय अथवा विवया और (३) संपद्=संपय अथवा संपया।। गाथा के चरण का रूपान्तर यों है:-गुणैः न संपत् कीर्तिः परं-गुणहिं न संपय किर्त्ति पर गुणों से संपत्ति (धन-द्रव्य) नहीं (प्राप्त होती है-होता है) परन्तु कीर्ति (ही प्राप्त होती है) इस दृष्टान्त में 'सपद्' के स्थान पर 'संपइ' पद का प्रयोग नही किया जाकर 'संपय' पद का प्रयोग किया गया है। यों सर्वत्र समझ लेना चाहिये।।४-४००।।
कथं यथा-तथां थादेरेमेमेहेधा डितः।।४-४०१।। अपभ्रंशे कथं यथा तथा इत्येतेशां थादेरवयवस्य प्रत्येकम् एम इम इह इध इत्येते डितश्रत्वार आदेशा भवन्ति।
केम समप्पउ दुटु दिणु किध रयणी छुडु होइ।।। नव-वहु-दंसण-लालसउ वहइ मणोरह सोइ।।१।। ओ गोरी-मुह-निज्जिअउ वद्दलि लुक्कु मियङकु।। अन्नु विजो परिहविय-तणु सो किवँ भवइ निसङकु।। २।। बिम्बाहरि तणु रयण-वणु किह ठिउ सिरि आणन्द।। निरूवम-रसु पिएं पिअवि जणु सेसहो दिण्णी मुद्द।। ३।। भण सहि ! निहुअउं तेवं मई जइ पिउ दिओ सदोसु।। जेवं न जाणइ मज्झु मणु पक्खावडिअंतासु।।४।। जिवँ जिव॑ वडिकम लोअणह।। ति तिवं वम्महु निअय-सर।। मई जाणिउ प्रिय विरहिअहं कविधर होइ विआली।। नवर मिअङकु वितिह तवइ जिह दिणयरू खय-गालि।। ५।। एवं तिध-जिधावुदाहार्यों।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 355
अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'कथं, यथा और तथा' अव्ययों में स्थित 'थं' और 'था' रूप अक्षरात्मक अवयवों के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'एम, इम, इह और इध' अक्षरात्मक आदेश-प्राप्ति क्रम से होती है। यह आदेश-प्राप्ति 'डित् पूर्वक होती है। इससे यह समझा जाता है कि उक्त तीनों अव्ययों में 'थं और 'था' भाग के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए 'क', 'य' और 'त' भाग में अवस्थित अन्त्य स्वर 'अ' का भी 'एम, इम, इह और इध' आदेश-प्राप्ति के पूर्व लोप हो जाता है और तदनुसार 'कथं' के स्थान पर 'केम, किम, किह और किध' रूपों की प्राप्ति होती है। 'यथा' के स्थान पर 'जेम, जिम, जिध और जिह' रूप होगें और इसी प्रकार से 'तथा' की जगह पर 'तिम, तेम, तिध और तिह' रूप जानना चाहिये। सूत्र-संख्या ४-३९७ के संविधानानुसार 'केम, किम, जेम, जिम, तेम, तिम' में स्थित 'मकार के स्थान पर विकल्प से अनुनासिक सहित 'व' की आदेश-प्राप्ति भी हो जाने से इनके स्थान पर क्रम से 'केवँ, किवँ, जेवँ, जिवँ, तिवँ, तेवँ, रूपों की आदेश-प्राप्ति भी विकल्प से होगी। यो। 'क), यथा और तथा अव्यायों के क्रम से छह छह रूप अपभ्रंश-भाषा में हो जायगे। वृत्ति में दी गई गाथाओं में अव्यय-रूपों का प्रयोग किया गया है; तदनुसार इनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:___ संस्कृत : कथं समाप्यतां दुष्टं दिनं, कथं रात्रिः शीघ्रं (छुडु) भवति।।
नव-वधू-दर्शन-लालसकः वहति मनोरथान् सोऽपि।।१।। हिन्दी:-किस प्रकार से (कब शीघ्रता पूर्वक) यह दुष्ट (अर्थात् कष्ट-दायक) दिन समाप्त होगा और कब रात्रि जल्दी होगी; इस प्रकार की मनो-भावनाओं की 'नई ब्याही हुई पत्नी को देखने की तीव्र लालसावाला' वह (नायक-विशेष) अपने मन में रखता है अथवा मनोरथों को धारण करता है। इस गाथा में 'कथ' अव्यय के स्थान पर आदेश-प्राप्त 'केम और किध' अव्यय रूपों का प्रयोग किया गया है।।१।। संस्कृत : ओ गौरी-मुख-निर्जितकः, वार्दले निलीनः मृगाङकः।।
अन्योऽपि यः परिभूततनुः, स कथं भ्रमति निःषङकम्।। २॥ हिन्दी:-ओह ! (सूचना-अर्थक-अव्यय) गौरी (नायिका-विशेष) के मुख-कमल की शोभा से हार खाया हुआ यह चन्द्रमा बादलों में छिप गया है। दूसरे से हारा हुआ अन्य कोई भी हो, वह निडरता पूर्वक (सम्मान पूर्वक) कैसे परिभ्रमण कर सकता है ? इस गाथा मे 'कथं के स्थान पर 'किव' आदेश-प्राप्त रूप का प्रयोग किया गया है।। २।। संस्कृत : बिम्बाधरे तन्व्याः रदन-व्रणः कथं स्थितः श्री आनंद।।
निरूपम रसं प्रियेण पीत्वेव शेषस्य दत्ता मुद्रा।। ३।। हिन्दी:-हे श्री आनन्द ! सुन्दर शरीर वाली (पतले शरीर वाली) नायिका के लाल लाल होठों पर दांतों द्वारा अकित चिह्न किस प्रकार-शोभा को धारण कर रहा है ? मानों प्रियतम पति देव से अद्वितीय अमृत-रस का पान किया जाकर के (होठों में) अवशिष्ट रस के लिये सील-मोहर लगा दी गई है; (जिससे कि इस अमृत-रस का अन्य कोई भी पान नहीं कर सके) इस गाथा में 'कथं अव्यय के स्थान पर 'किह' आदेश-प्राप्ति रूप का प्रयोग किया गया है।। ३।। संस्कृत : भण सखि ! निभृतकं तथा मयि यदि प्रियः दृष्टः सदोषः।।
यथा न जानाति मम मनः पक्षापतितं तस्य।।४।। हिन्दी:-हे सखि ! यदि मेरे विषय में मेरा प्रियतम तुझ से सदोष देखा गया है तो तू निस्संकोच होकर (प्राइवेट रूप में) मुझे कह दे।। मुझे इस तरीके से कह कि जिससे वह यह नहीं जान सके कि मेरा मन उसके प्रति अब पक्षपात पूर्ण हो गया है। इस गाथा में 'तथा' के स्थान पर 'तेवं लिखा गया है और 'यथा' के स्थान पर 'जेव' का प्रयोग किया गया है।।४।। संस्कृत : यथा यथा वक्रिमाणं लोचनयोः।।
अपभ्रंशः-जिवँ जिवं बङिकम लोअणह।।
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356 : प्राकृत व्याकरण
__ हिन्दी:- जैसे-जैसे दोनों नेत्रों की वक्रता को। यहाँ पर 'यथा, यथा के स्थान पर 'जिवं, जिवँ, का प्रयोग किया गया है। संस्कृत : तथा तथा मन्मथः निजक-शरान।।
___ अपभ्रंशः-ति तिवं वम्महु निअय-सर।। हिन्दी:- वैसे-वैसे कामदेव अपने बाणों को। इस चरण में तथा, तथा' की जगह पर 'ति तिवँ' ऐसे आदेश-प्राप्त रूप लिखे गये है।। संस्कृत : मया ज्ञातं प्रिय ! विरहितानां कापि धरा भवति विकाले।।
केवलं (=परं) मृगाङ्कोकपि तथा तपति यथा दिनकरः क्षयकाले।।५।। हिन्दी:-हे प्रियतम ! मुझसे ऐसा जाना गया था कि प्रियतम के वियोग से दुःखित व्यक्तियों के लिये संध्या-काल में शायद कुछ भी सान्त्वना का आधार प्राप्त होता होगा; किन्तु ऐसा नहीं है। 'देखो ! चन्द्रमा भी मध्यकाल में उसी प्रकार से उष्णता प्रदान करने वाला प्रतीत हो रहा है; जैसा कि सूर्य उष्णतामय ताप प्रदान करता रहता है। इस गाथा में 'तथा' अव्यय के स्थान पर 'तिह' रूप की आदेश-प्राप्ति हुई है और 'यथा' पर 'जिह आदेश प्राप्त अव्यय रूप लिखा गया है।। ५।।
इसी प्रकार से 'कथं, यथा और तथा' अव्यय पदों के स्थान पर आदेश-प्राप्ति के रूप में प्राप्त होने वाले अन्य रूपों के उदाहरणों की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये; ऐसी ग्रन्थकार की सूचना है।।४-४०१।।
याद्दक्ताद्दक्कीद्दगीदशां दादे र्डे हः।।४-४०२।। अपभ्रंशे याद्दगादीनां दादेरवयवस्य डित् एह इत्यादेशो भवति।। मई भणिअउ बलिराय ! तुहुँ केहउ मग्गण एहु।। जेहु तेहु न वि होइ, वढ ! सई नारायणु एहु।।१।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'याद्दा, तादृक्, कीदृक् और ईदृक् शब्दों में अवस्थित अन्त्य भाग 'दृकू के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'डित्-पूर्वक' 'एह अंश-रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। 'डित् पूर्वक कहने का तात्पर्य यह है कि 'दृक् भाग के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए 'या, ता, की और ई के अन्त्य स्वर 'आ,
और ई का भी लोप हो जाता है और तत्पश्चात् ही 'एह' अंश रूप की आदेश प्राप्ति होकर एवं संधि अवस्था प्राप्त होकर क्रम से यों आदेश प्राप्त रूपों की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- यादृक-जेह-जिसके समान; ताद्दक-तेह उसके समान; कीदृक्-केह-किसके समान और ईदृक-एह इसके समान। आदेश प्राप्त रूप विशेषण होने से विशेष्य के समान ही विभक्तियों में भी इनके विभिन्न रूप बन जाते हैं।। गाथा का भाषान्तर यों है:संस्कृत : मया भणितः बलिराज ! त्वं कीदृग् मार्गणः एषः।।
___ यादृक्-तादृक् नापि भवति मूर्ख ! स्वयं नारायणः ईदृक् ।।१।। हिन्दी:-हे राजा बलि ! मैंने तुम्हे कहा था कि यह मांगने वाला किस प्रकार का भिखारी है ? हे मूर्ख ! यह ऐसा वैसा भिखारी नहीं हो सकता है; किन्तु इस प्रकार 'भिखारी' के रूप में स्वयं भगवान् नारायण-विष्णु है।।१।। यों इस गाथा में ‘यादृक् तादृक्, कीदृग् और ईदृक् के स्थान पर क्रम से 'जेहु, तेहु, केहउ और एहु' रूपों का प्रयोग किया गया है।।४-४०२।।
अता डइसः।।४-४०३।। अपभ्रंशे याद्दगादीनामदन्तानां यादृष-तादृष-कीदृषेदृषानां दादेरवयस्य डित् अइस इत्यादेशौ भवति।। जइसो।। तइसो। कइसो। अइसो।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 357
अर्थ:-संस्कृत-भाषा में उपब्लध 'याद्दक, ताइक, कीदक और ईद्दक' शब्दों में 'अत्=अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जब ये शब्द क्रम से 'याद्दश, ताद्दश, कीद्दश, और ईद्दश' रूप में परिणत हो जाते हैं; तब अपभ्रंश-भाषान्तर में इन शब्दों के अन्त्य अवयव रूप 'दश' के स्थान पर 'डित्' पूर्वक 'अइस' अवयव की आदेश प्राप्ति हो जाती है। 'डित्-पूर्वक' कहने का तात्पर्य यह है कि इन शब्दों के अन्त्य अयवय 'दृश' के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए शब्दांश 'या, ता, की और ई' भाग में अवस्थित अन्त्य स्वर 'आ, औ, ई का भी लोप हो जाता है तत्पश्चात् हलन्त रूप से रहे शब्दांश में ही 'अईस' आदेश प्राप्ति की सन्धि हो जाती है। जैसे:- यादृशः जइसो जिसके समान। तादृशः तइसो उसके समान। कीदृशः कइसो-किसके समान और ईदृशः अईसो-इसके समान। ये विशेषण स्वरूप वाले है, इसलिये संज्ञाओं के समान ही इनके विभक्ति-वाचक रूप भी बनते हैं।।४-४०३।।
यत्र-तत्रयोस्त्रस्य डिदेत्य्वत्तु॥४-४०४।। अपभ्रंशे यत्र-तत्र-शब्दयोस्त्रस्य एत्थु अत्तु इत्येतौ डितौ भवतः।। जइ सो घडदि प्रयावदी केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु।। जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि भण तो ताहि सारिक्खु।।१।। जत्तु ठिदो। तत्तु ठिदो॥
अर्थः-संस्कृत भाषा मे उपलब्ध 'यत्र और तत्र' अव्यय रूप शब्दों का अपभ्रंश-भाषा में रूपान्तर करने पर इनके अंत में अवस्थित 'त्र' भाग के स्थान पर 'डित् पूर्वक 'एत्थु और अत्त' ऐसे दो आदेश-रूप अंश-भाग की प्राप्ति होती है। 'डित्' पूर्वक कहने का तात्पर्य यह है कि 'यत्र और तत्र' में अवस्थित 'त्र' भाग के लोप हो जाने के पश्चात् शेषांश 'य' और 'त' में स्थित अन्त्य 'अ' का भी लोप होकर आदेश रूप से प्राप्त होने वाले 'एत्थु' अथवा अत्तु' की उनमें संधि हो जाती है। जैसेः-यत्र-जेत्थु और जत्तु-जहाँ पर। तत्र-तेत्थु और तत्तु वहाँ पर। गाथा का अनुवाद यों
संस्कृत : यदि स घटयति प्रजापतिः, कुत्रापि लात्वा शिक्षाम्।।
यत्रापि तत्रापि अत्र जगति, भण, तदा तस्याः सदृक्षीम्॥ हिन्दी:-यदि विश्व-निर्माता ब्रह्मा इस विश्व में यहाँ पर, वहाँ पर अथवा कहीं पर भी (निर्माणकला की) शिक्षा को पढ करके-अध्ययन करके-(पुरूषों का अथवा स्त्रियों का) निर्माण करता; तभी उस सुन्दर स्त्री के समान अन्य (पुरूष का अथवा स्त्री) का निर्माण करने में समर्थ होता। अर्थात् वह (नायिका) सुन्दरता में बेजोड़ है।
इस गाथा में 'यत्र' के स्थान पर 'जेत्थु' का प्रयोग किया गया 'तत्र' के स्थान पर 'तेत्थु अव्यय रूप लिया गया है। शेष रूपों के क्रम से उदाहरण यों हैं:
(१) यत्र स्थितः=जत्तु ठिदो-जहाँ पर ठहरा हुआ है। (२) तत्र स्थितः तत्तु ठिदो-वहाँ पर ठहरा हुआ है। यों क्रम से आदेश-प्राप्त चारों अव्यय-रूपों की स्थिति को समझ लेना चाहिये।।४-४०४।।
एत्थु कुत्रा।।।४-४०५।। अपभ्रंशे कुत्र अत्र इत्येतयोस्त्रशब्दास्य डित् एत्थु एत्यादेशो भवति।। केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु॥ जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि।। ।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'कुत्र और अत्र' अव्ययों में अवस्थित अन्त्य अक्षर 'त्र' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'डित्' पूर्वक 'एत्थु अवयव की आदेश प्राप्ति होती है। 'डित् पूर्वक कहने का अर्थ यह है कि 'कुत्र और अत्र' अव्यय शब्दों के अन्त्य अक्षर 'त्र' के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए शब्दांश 'कु और अ' में
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358 : प्राकृत व्याकरण
अवस्थित अन्त्य स्वर 'उ' और 'अ' का भी लोप होकर तत्पश्चात् आदेश-रूप से प्राप्त होने वाले अवयव रूप 'एत्थु' की उन शेषांश अक्षरों के साथ संधि हो जाती है। जैसे:-कुत्र-केत्थु कहाँ पर-कहीं पर? और अत्र-यहाँ पर अथवा इसमें।। अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं:(१) कुत्रापि लात्वा शिक्षाम् केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु-कहीं पर भी शिक्षा को ग्रहण करके। यहाँ पर 'कुत्र' के
स्थान पर 'केत्थु' का प्रयोग है। (२) यत्रापि तत्रापि अत्र जगति-जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि-जहाँ पर-वहाँ पर-यहाँ पर-इस जगत् में।। इस चरण में 'अत्र' के स्थान पर 'एत्थु' अव्यय-रूप का प्रयोग प्रदर्शित है।।४ - ४०५।।
यावत्तावतोर्वादेर्मउंमहि।।४-४०६॥ अपभ्रंशे यावत्तावदित्यव्यययो र्वकारादेरवयवस्य म उं महिं इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति।। जाम न निवडइ कुम्भ-यडि-सीह-चवेड-चडक्क।। ताम समत्तहं मयगलहं पइ-पइ वज्जइ ढक्क।।१।। तिलहं तिलतणु ताउं पर जाउं न नेह गलन्ति।। नेहि पण?इ तेज्जि तिल तिल फिट्ठ वि खल होन्ति।। २।। जामहिं विसमी कज्ज-गई जीवहं मज्झे एइ।। तामहिं अच्छउ इयरू जणु सु-अणुवि अन्तरू देइ।। ३।।
अर्थ:-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'यावत् और तावत् अव्ययों में अवस्थित अन्त्य अवयव 'वत्के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'म, उं, और महिं' ऐसे तीन तीन आदेश क्रम से होते है।। जैसे:- यावत्-जाम अथवा जाउं अथवा जामहि-जब तक, जितना। तावत्-ताम अथवा ताउं अथवा तामहि तब तक, उतना।। सूत्र-संख्या ४-३९७ से 'जाम
और ताम' में अवस्थित 'मकार' के स्थान पर अनुनासिक सहित 'वकार' अर्थात् 'वै की आदेश प्राप्ति भी वैकल्पिक रूप से होने से 'जावँ और ताव रूपों की प्राप्ति भी होगी। उक्त अव्यय रूपों की स्थिति को स्पष्ट करने के लिये जो गाथाएँ दी गई हैं; उनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : यावत् न निपतति कुम्भतटे, सिंह-चपेटा-चटात्कारः।।
तावत् समस्तानां मद कलानां (गजाना) पदे पदे वाद्यते ढक्का।।१।। अर्थः-जब तक सिंह के पजे की चपेटों का चटात्कार याने थाप (हाथियों के) गण्ड-स्थल पर अर्थात् गर्दन-तट पर नहीं पड़ती है; तभी तक मदोन्मत्त सभी हाथियों के डग-डग पर (पद-पद पर ऐसी ध्वनि उठती है कि मानों) डमरू बाजा बज रहा हो। इस गाथा में 'यावत्' के स्थान पर 'जाम' का प्रयोग किया गया है और 'तावत्' के स्थान पर 'ताम' अव्यय पदों को स्थान दिया गया है।।१।। संस्कृत : तिलानां तिलत्वं तावत् परं, यावत् न स्नेहाः गलन्ति।।
स्नेहे प्रनष्टे ते एव तिलाः तिलाः भ्रष्ट्वा खलाः भवन्ति।। २।। हिन्दी:-तिलों का तिलपना तभी तक है, जब तक कि तेल नहीं निकलता है। तेल के निकल जाने पर वे ही तिल तिलपने से भ्रष्ट होकर (पतित होकर) खल रूप कहलाने लग जाते है।। इस गाथा में 'यावत् और तावत्' के स्थान पर क्रम से 'जाउं और ताउं रूपों का प्रयोग समझाया गया है।। २।। संस्कृत : यावद् विषमा कार्यगतिः, जीवाना। मध्ये आयाति।।
तावद् आस्तामितरः जनः सुजनोऽप्यन्तरं ददाति।। ३।। हिन्दी:-जब मानव-जीवों के सामने कठोर अथवा विपरीत कार्य स्थिति उत्पन्न हो जाती है; तब साधारण आदमी
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 359
की तो बात ही क्या है ? सज्जन पुरूष भी बाधा देने लग जाता है। इस गाथा में 'यावत्' के स्थान पर 'जामहिं' लिखा है और 'तावत्' की जगह पर 'तामहिं।।' बतलाया है। यों क्रम से 'जाम, जाउं और जामाहिं' तथा 'ताम, ताउं और तामहिं' अव्यय पदों की स्थिति समझाई है।।४ - ४०६।।
वा यत्तदोतोर्डेवडः।।४-४०७।। अपभ्रंशे यद् तद् इत्येतयोरत्वन्तयो वित्तावतो कारादेरवयवस्य डित् एवड इत्यादेशौ वा भवति।। जेवडु अन्तरू रावण-रामहं, तेवडु अन्तरू पट्टण-गामह।। पक्षे। जेत्तुलो। तेत्तुलो।।
अर्थ:-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'यद्' और तद्' सर्वनामों में जब परिमाण-वाचक प्रत्यय 'अतु=अत्' की प्राप्ति होकर 'जितना' अर्थ में यावत्' शब्द बनता है तथा 'इतना' अर्थ में तावत्' शब्द बनता है तब इन ‘यावत् और 'तावत्' शब्दों में रहे हुए अन्त्य अव्यय 'वत्' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'डित' पूर्वक 'एवड' अवयव रूप की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। 'डित् पूर्वक ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि 'यावत् और तावत्' शब्दों में 'वत् अवयव के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए शब्द-भाग 'या' और 'ता' में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' का भी लोप होकर इन हलन्त भाग 'य् तथा त' में आदेश प्राप्त 'एवड' भाग की संधि होकर क्रम से इनका रूप 'जेवड और तेवड' बन जाता है। जैसे:- यावत्-जेवड-जितना। तावत्-तेवड-उतना।। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ४ - ४३५ से 'यावत् और तावत्' में डेत्तुल-एत्तुल प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसी अर्थ में द्वितीय रूप 'जेत्तुल और तेत्तुल' भी सिद्ध हो जाते है।। जैसे:-यावत्-जेत्तुलो जितना और तावत् तेत्तुलो उतना।। वृत्ति में दिया गया उदाहरण इस प्रकार से है:- यावद् अन्तरं रावण रामयोः तावद् अन्तरं पट्टण ग्रामयोः जेवडु अन्तरू रावण-रामह, तेवडु अन्तरू पट्टण-गामहं जितना अन्तर रावण और राम में है उतना अन्तर ग्राम और नगर में है।।४ - ४०७।।
वेदं-किमोर्यादेः॥४-४०८।। अपभ्रंशे इदम् किम् इत्येतयोरत्वन्तयोरियत् कियतो र्यकारादेरवयवस्य डित् एवड इत्योदेशौ वा भवति।। एवडु अन्तरू। केवडु अन्तरू।। पक्षे। एत्तुलो। केत्तुलो।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'इदम् और किम्' सर्वनामों में परिमाण-वाचक प्रत्यय 'अतु-अत्' की प्राप्ति होकर 'इतना और कितना' अर्थ में क्रम से 'इयत् और कियत्' पदों का निर्माण होता है; इन बने हुए 'इयत् और कियत्' पदों के अन्त्य अवयव रूप 'यत्' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में विकल्प से 'डित् पूर्वक 'एयड' अवयव रूप की आदेश प्राप्ति होती है। 'डित् पूर्वक कहने का रहस्य यह है कि 'इयत् और कियत्' पदों में से अन्त्य अवयव रूप 'यत्' का लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए शब्दांश 'इ और कि' में स्थित 'इ' स्वर का भी लोप होकर आदेश प्राप्त 'एवड' शब्दांश की संधि होकर क्रम से ('इयत्' के स्थान पर) एवड' की और ('कियत्' के स्थान पर) 'केवड की आदेश-प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- इयत् अन्तर एवडु अन्तरू-इतना फके-इतना भेद। कियत् अन्तरं केवडु अन्तरू कितना फर्क ? कितना भेद ? वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ४-४३५ से 'इयत्' के स्थान पर 'एत्तुल' की प्राप्ति होगी और 'कियत्' के स्थान पर 'केत्तुल' रूप भी होगा। इयत् कियत सुखं एत्तलु केत्तुलु सुहं इतना कितना सुख।।४-४०८।।
परस्परस्यादिरः॥४-४०९।। अपभ्रंशे परस्परस्यादिरकारो भवति।। ते मुग्गडा हराविआ जे परिविट्ठा ताहं।। अवरोप्परू जोअन्ताहं सामिउ गज्जिउ जाह।।१।।
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360 : प्राकृत व्याकरण
___ अर्थः-संस्कृत-भाषा में पाये जाने वाले विशेषण रूप 'परस्पर' में स्थित आदि 'पकार' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'अकार' की आदेश प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- परस्परस्य अवरोप्परहु आपस का।। गाथा का रूपान्तर संस्कृत भाषा में और हिन्दी भाषा में क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : ते मोगला;, हारिताः ये परिविष्टाः तेषाम्।।
परस्परं युध्यमानानां स्वामी पीड़ितः येषाम्॥१॥ हिन्दी:-परस्पर में युद्ध करने वाले जिन मुगलों का स्वामी पीड़ित था-दुःखी था; और इसलिये उनमें से जो बच गये थे, वे मुगल (म्लेच्छ जाति के सैनिक) हरा दिये गये-उन्हें पराजित कर दिया गया। इस गाथा में 'परस्परं' के स्थान पर 'अवरोप्परू' पद का उपयोग करते हुए आदि 'पकार' के स्थान पर 'अकार' की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है।॥४-४०९।।
कादि-स्थैदोतोरूच्चार-लाघवम्॥४-४१०॥ अपभ्रंशे कादिषु व्यञ्जनेषु स्थितयोः एओ इत्येतयोरूच्चारणस्य लाघवं प्रायो भवति।। सुधैं चिन्तिज्जइ माणु।। (४-३९६)।। तसु हउँ कलि-जुगि दुल्लह हों (४-३३८)।।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा के पदों में 'क-ख-ग' आदि सभी व्यञ्जनों में अवस्थित 'एकार' स्वर के स्थान पर और 'ओकार' स्वर के स्थान पर हस्व 'एकार' के रूप में और ह्रस्व 'ओकार' के रूप में प्रायः उच्चारण किया जाता है। जैसे:- सुखेन चिन्त्येते मानः-सुधैं चिन्तिज्जइ माणु-सुख से सम्मान विचारा जाता है। इस उदाहरण में 'सुधैं' पद के रूप में अवस्थित 'एकार' स्वर की स्थिति हस्व रूप से प्रदर्शित की गई है। हस्व 'ओ' का उदाहरण यों है:
(१) तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य-तसु हउँ कलि-जुगि दुल्लह हाँ कलियुग में उस दुर्लभ का मैं यहाँ पर 'दुल्लह हाँ पद में रहे हुए 'ओकार' स्वर की स्थिति हस्व रूप से समझाई गई है। (२) गुरूजनाय-गुरू जणहाँ-गुरू-जन के लिये।।४- ४१०।।
पदान्ते उं-हुं-हिं-हंकाराणाम्।।४-४११।। अपभ्रंशे पदान्ते वर्तमानानां उं हुं हिं हं इत्येतेशां उच्चारणस्य लाघवं प्रायो भवति।। अन्नु जु तुच्छउं तहँ धणहे।। बलि किज्जउँ सुअणस्सु।। दइउ घडावइ वणि तरूहुं।। तरूहुँ वि वक्कलु। खग्ग-विसाहिउ जहिं लहहुँ।। तणहँ तइज्जी भङ्गि नवि।।
__ अर्थः-अपभ्रंश भाषा के पदों के अन्त में यदि 'उ, हुं, हिं, ह' इन चारों अक्षरों में से कोई भी अक्षर आ जाये . तो इनका उच्चारण प्रायः ह्रस्व रूप से होता है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:
(१) अन्यद् यत्तच्छं तस्याः धन्यायाः अन्नु जु तुच्छउँ तहँ धणहे-उस सौभाग्यशालिनी नायिका के दूसरे भी जो
(अङ्ग) छोटे हैं।। इस चरण में 'तुच्छउँ' को तुच्छउँ लिखकर इस 'उ' को हस्व रूप से 'उँ' ऐसा प्रदर्शित किया है। (२) बलिं करोमि सुजनस्य-बलि किज्जउँ सुअणस्सु-सज्जन पुरूष के लिये मैं बलिदान करता हूँ। इस गाथांश
में 'किज्जउं' के स्थान पर 'किज्जउँ लिखकर 'ॐ की स्थिति हस्व रूप से समझाई है। (३) देवः घटयति वने तरूणां-दइउ घडावइ वणि तरूहुं-विधाता-(ब्रह्मा) जंगल में वृक्षों पर बनाता है। इस गाथा
भाग में 'तरूहुँ' पद में 'हुँ' की स्थिति को 'प्रायः' इस उल्लेख के अनुसार हस्व के रूप से प्रदर्शित नहीं
की गई है। (४) तरूभ्यः अपि वल्कलं-तरूहुँ वि वक्कलु-वृक्षों से भी छाल (रूप वस्त्र) इन पदों में रहे हुए 'तरूहुँ' में 'हूं'
को 'हु' लिख कर उच्चारण की लघुता दिखलाई है।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 361
(५) खङ्ग-विसाधितं यत्र लभामहे खग्ग-विसाहिउं जहिं लहहु तलवार (के बल) से प्राप्त होने वाला (लाभ)
जहाँ पर हम प्राप्त करे।। गाथा के इस भाग में लहहु क्रियापद में अन्त्य अक्षर 'हु' को 'हूँ' नहीं लिखकर
लघु उच्चारण की वैकल्पिक स्थिति को सिद्ध किया है। (६) तृणानां तृतीया भङ्गी नापि-तणहँ तइज्जी भङ्गि नवि-तिनकों की तीसरी स्थिति नहीं भी (होती है)। गाथा के
इस चरण में 'तणह' के स्थान पर 'तणहँ लिख कर यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि पदान्त 'हं' का उच्चारण लघु रूप से होने पर 'हूँ' ऐसा होता है। इन सब उदाहरणों से और इस सूत्र से यही संविधान किया गया है कि पदान्त में रहे हुए 'उ' हु, हिं और हं' के स्थान पर उच्चारण-लघुता की दृष्टि से 'उँ', हु, हिँ और हँ, ऐसा स्वरूप भी होगा।।४ - ४११।।
म्हो म्भो वा।।४-४१२।। अपभ्रंशे म्ह इत्यस्य स्थाने म्भ इति मकाराक्रान्तो भकारो वा भवति।। म्ह इति पक्षम-शम-ष्म-स्म-ह्मां म्हः (२-७४) इति प्राकृत –लक्षण-विहितोऽत्र गृहाते।
संस्कृत तदसंभवात्। गिम्भो। सिम्भो।। बम्भ ते विरला के वि नर जे सव्वङ्ग-छइल्ल।। जे वङ्का ते वञ्चयर, जे उज्जुअ ते बइल्ल।।१।।
अर्थः-सूत्र-संख्या २-७४ में ऐसा विधान आया है कि 'पक्ष्म' में स्थित 'क्ष्म' के स्थान पर और 'शम, ष्म स्म तथा मां के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में 'म्ह' की आदेश प्राप्त होती है; तदनुसार आदेश प्राप्त 'म्ह' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में हलन्त मकार संलग्न मकार की अर्थात् 'म्भ' की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। 'म्ह' की प्राप्ति प्राकृत-भाषा में ही होती है; संस्कृत-भाषा में इसका अभाव है, इसलिये इस सूत्र में जो 'म्ह' के स्थान पर 'म्भ' प्राप्ति का संविधान किया गया है, उसका मूल स्थान प्राकृत-भाषा में रहा हुआ है ऐसा जानना चाहिये। जैसे:-(१) ग्रीष्मः गिम्हो और गिम्भो-उष्णता की ऋतु। यों अपभ्रंश भाषा में 'ग्रीष्मः' शब्द के अर्थ में 'गिम्हो और गिम्भो, दोनों प्रकार के पदों का अस्तित्व है। (२) श्लेश्मा-सिम्हो और सिम्भो और सिम्भो-कफ-खेंखार। इस उदाहरण में भी 'श्लेश्मा' के दो पद 'सिम्हो' और सिम्भो' इस सूत्र के अनुसार बतलाये गये है।। गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : ब्रह्मन् ! ते विरलाः केऽपि नराः, ये सर्वाङ्गच्छेकाः।।
ये वक्राः ते वञ्च (क) तराः, ये ऋजवः ते बलीवर्दाः।। हिन्दी :- ओ ब्राह्मण ! ऐसे पुरूष अत्यन्त ही कम है विरल है; जो कि सभी प्रसंगों में अच्छे और चतुर प्रमाणित हो।। जो वक्र (टेढ़ी) प्रकृति वाले हैं, वे ठग हैं और जो सीधे अर्थात् चतुराई रहित और विवेक रहित होते हुए स्पष्ट वक्ता हैं वे बैल के समान है।। इस गाथा में 'ब्रह्मन्' के स्थान पर 'बम्भ' का प्रयोग करके यह प्रमाणित किया है कि अपभ्रंश भाषा में 'म्ह' के स्थान पर विकल्प से 'म्भ' की प्राप्ति देखी जाती है।।४-४१२।।
अन्यादृशोन्नाइसावराइसौ।।४-४१३।। अपभ्रंशे अन्यादृश शब्दस्य अन्नाइस अवराइस इत्योदेशौ भवतः।। अन्नाइसो। अवराइसो।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध विशेषण शब्द 'अन्यादृशः' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'अन्नाइस और अवराइस' ऐसे दो रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-अन्यादृशः अन्नाइसो और अवराइसो अन्य के समान दूसरे के जैसा।।४-४१३।।
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362 : प्राकृत व्याकरण
प्रायसः प्राउ-प्राइव-प्राइम्व-पग्गिम्वाः॥४-४१४॥ अपभ्रंशे प्रायस् इत्येतस्य प्राउ, प्राइव, प्राइम्व, पग्गिम्व इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति।। अन्ने ते दीहर लोअण, अन्नु तं भुअ-जुअलु। अन्नु सुघण-थण-हारू, तं अन्नु जि मुह-कमलु॥ अन्नु जि केस-कलावु सु अन्नु जि प्राउ विहि।। जेण णि अम्बिणि घडिअ, स गुण-लायण्ण-णिहि।।१।। प्राइव मुणिहं वि भन्तडी, तें मणिअडा गणन्ति।। अखइ निरामइ परमपइ अज्ज वि लउ न लहन्ति।। २।। अंसु-जलें प्राइम्व गोरि अहे सहि ! उव्वत्ता नयण-सर।। तें सम्मुह संपेसिआ देन्ति, तिरिच्छी घत्त पद।। ३।। एसी पिउ रूसेसु हउं रूटी मई अणुणे।।। पग्गिम्ब एइ मणोरहई दुक्करू दइउ करेइ।।४।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले अव्यय रूप 'प्रायस्' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में चार रूपों की आदेश प्राप्ति होती है; जो कि क्रम से इस प्रकार है:-(१) प्राउ, (२) प्राइव, (३) प्राइम्व और (४) पग्गिम्व। आदेश-प्राप्त चारों ही रूपों का अर्थ है:-'बहुत करके'। इन एकार्थक चारों ही रूपों का प्रयोग उपरोक्त गाथाओं में किया गया है; जिनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : अन्ये ते दीर्घ लोचने, अन्यद् तद् भुज युगलम्।।
अन्यः सघन स्तन भारः, तदन्यदेव मुख कमलम्।। अन्य एव केश कलाप; सः अन्य एवं प्रायो विधिः॥१॥
येन नितम्बिनी घटिता, सा गुण लावण्य निधिः।।१।। हिन्दी:-(नायिका विशेष का एक कवि वर्णन करता है कि) :- उसकी दोनों बड़ी-बड़ी आँखें कुछ ही प्रकार की है-याने तुलना में अनिर्वचनीय है। उसकी दोनों भुजाएँ (भी) असाधारण है। उसका सघन और कठोर एवं उन्नत स्तन-भार है। उसके मुख-कमल की शोभा भी अद्वितीय है। उसके केशों के समूह की तुलना अन्य से नहीं की जा सकती है। वह विधाता ही (ब्रह्मा ही) प्रायः कोई दूसरा ही मालूम पड़ता है; जिसने कि ऐसो विशाल नितम्बों वाली तथा गुण एवं सौन्दर्य के भंडार रूप रमणी-रत्न का निर्माण किया है। इस छंद में 'प्रायः' के आदेश-प्राप्त रूप 'प्राउ' का उपयोग किया गया है।।१।। संस्कृत : प्रायो मुनीनामपि भ्रान्तिः ते मणीन् गणयन्ति।।
अक्षये निरामये परम पदे अद्यापि लयं न लभन्ते।। २॥ __ हिन्दी:-अक्सर करके-बहुत करके मुनियों में भी (ज्ञान-दर्शन चरित्र के प्रति) भ्रांति है विपरीतता है; (इस विपरीतता के कारण से माला फेरते हुए भी केवल) वे मणकों को ही गिनते हैं और इसी कारण से अभी तक 'अक्षय-शाश्वत्
और दुःख रहित-निरामय मोक्ष पद को नहीं प्राप्त कर सके है।। इस गाथा में 'प्रायः' की जगह पर 'प्राइव' रूप को स्थान दिया गया है।। २।। संस्कृत : अश्रु जलेन प्रायः गौर्याः सखि ! उद्वृत्ते नयन सरसी।।
ते सम्मुखे संप्रेषिते दत्तः तिर्यग् घातम परम्।। ३।। हिन्दी:-हे सखि ! उस गौरी (नायिका विशेष) के दोनों आँखों रूपी तालाब आँसु रूपी जल से प्रायः लबालब
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 363 हुए हैं। वे (आँख) जब किसी को देखने के लिये इधर-उधर घुमाई जाती है तो वे (आँख) बड़ा तेज आघात पहुँचाती है। इस छद में 'प्रायः' के स्थान पर 'प्राइम्ब' आदेश प्राप्त अव्यय का प्रयोग किया गया है || ३ ||
भरे
संस्कृत :
एष्यति प्रियः, रोषिष्यामि अहं, रूष्टां मामनुनयति । । प्रायः एतान् मनोरथान् दुष्करः दयितः कारयति ।।४।।
हिन्दी:- (कोई एक नायिका अपनी सखी से कहती है कि ) मेरा प्रियतम पति आवेगा; मैं (उसके प्रति कृत्रिम ) रोष करूँगी और जब मुझे क्रोधित हुई देखेगा तो मुझे मनावेगा - खुश करने का प्रयत्न करेगा । यों मेरे इन मनोरथों को वह कठिनाई से वश में आनेवाला प्रेमी पति प्रायः पूर्ण करेगा अथवा करता है। इस गाथा में 'प्रायः ' स्थान पर आदेश - प्राप्ति के रूप में होने वाले चौथे शब्द 'अग्गिम्ब' को प्रदर्शित किया गया है ।।४-४१४।।
वान्यथोनुः।।४-४१५ ।।
अपभ्रंशे अन्यथा शब्दस्य अनु इत्यादेशो वा भवति ।। पक्षे। अन्नह।। विरहाणल-जाल-करालिअउ, पहिउ कोवि बुद्धि वि ठिअओ ।। अनुसिसिर- कालि सीअल - जलहु धूमु कहन्ति हु उट्ठिअओ ॥ १ ॥
अर्थ:-' अन्य प्रकार से दूसरी तरह से इस अर्थ में प्रयुक्त होने वाले संस्कृत अव्यय शब्द ' अन्यथा' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में विकल्प से 'अनु' शब्द रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'अन्नह' रूप की भी प्राप्ति होगी। जैसे :- अन्यथा = अनु अथवा अन्नह = अन्य प्रकार से अथवा दूसरी तरह से । गाथा का अनुवाद यों है:
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संस्कृत : विरहानल ज्वाला करालितः पथिकः कोऽपि मङ्क्तवा स्थितः ।। अन्यथा शिशिर - काले शीतल जलात् धूमः कुतः उत्थितः ॥ १ ॥
हिन्दी:-अपनी प्रियतम पत्नी के वियोग रूपी अग्नि की ज्वालाओं से पीड़ित होता हुआ कोई यात्री - पथिक विशेष जल में डूबकी लगाकर ठहरा हुआ है; यदि वह (अग्नि ज्वाला से ज्वलित) नहीं होता तो ठंड की ऋतु में ठंडे जल में से धूंआ (वाष्परूप) कहाँ से उठता ? इस सुन्दर कल्पनामयी गाथा में 'अन्यथा' के स्थान पर 'अनु' अव्यय रूप का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है ।।४-४१५।।
कुतसः कउ कहन्तिहु ।।४-४१६।।
अपभ्रंशे कुतस् शब्दस्य कउ, कहन्तिहु इत्यादेशौ भवतः ॥ महु कन्तो गुटु - द्विअहो कउ झुम्पड़ा वलन्ति । ।
अह रिउ - रूहिरें उल्हवइ अह अप्पणें न भन्ति ॥ १ ॥
धू कहन्ति अउ ||
अर्थः-'कहाँ से' इस अर्थ में प्रयुक्त किये जाने वाले संस्कृत अव्यय शब्द 'कुतः' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'कउ और कहन्तिहु' ऐसे दो अव्यय शब्द रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- कुतः - कउ और कहन्तिहु = कहाँ से ? गाथा में क्रम से इन दोनों का प्रयोग किया गया है; इसका अनुवाद यों है:
संस्कृत :
मम कान्तस्य गोष्ठ स्थितस्य, कुतः कुटीरकाणि ज्वलन्ति ।। अथ रिपुरुधिरेण आर्द्रयति अथ आत्मना, न भ्रान्तिः ॥ १ ॥
हिन्दी:-अपने भवन में रहते हुए मेरे प्रियतम पति देव की उपस्थिति में झोंपड़ियां कैसे -(कहाँ से किस कारण से) अग्नि द्वारा जल सकती है ? (क्योंकि ऐसा होने पर) उन झोपड़ियों को या तो वह (पति देव ) शत्रुओं के रक्त से
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364 : प्राकृत व्याकरण
उनकी बुझा देगा अथवा अपने खुद के (लड़ते हुए शरीर में से निकले हुए) खून से उन्हें बुझा देगा, इसमें संदेह करने जैसी कोई बात नहीं है। इस गाथा में कुतः' के स्थान पर आदेश-प्राप्त रूप 'कउ' का प्रयोग किया गया है।।१।।।
(२) धूमःकुतः उत्थितः-धूमु कहन्तिहु उट्ठिअउ-धूआँ कहाँ से-(किस कारण से) उठा हुआ है? इस गाथा चरण में 'कुतः' के स्थान पर आदेश प्राप्त द्वितीय रूप 'कहन्तिहु' का उपयोग किया गया है।।४-४१६।।
ततस्तदोस्तोः ॥४-४१७।। अपभ्रंशे ततस् तदा इत्येतयोस्तो इत्यादेशो भवति।। जइ भग्गा पारक्कड़ा, तो सहि ! मज्झु पिएण।। अह भग्गा अम्हहं, तणातो तें मारिअडेण॥१॥
अर्थः-'यदि वैसा है तो-अथवा उस कारण से है तो इस अर्थ में संस्कृत भाषा में 'ततः' अव्यय का प्रयोग किया जाता है; इसी 'ततः अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'तो' अव्यय रूप की आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'तब तो' अर्थ में संस्कृत भाषा में 'तदा' अव्यय प्रयुक्त किया जाता है; इस 'तदा' अव्यय के स्थान पर भी अपभ्रंश भाषा में 'तो' अव्यय रूप की ही आदेश प्राप्ति समझनी चाहिये। यों 'ततः' और 'तदा' दोनों ही अव्ययों के स्थान पर एक जैसे ही 'तो' रूप की आदेश प्राप्ति होती हुई देखी जाती है। जैसे:-ततस्तदा वा जिनागमान् द्योतय तो जिण-आगम जोइ-यदि वैसा है तो अथवा तब तो जैन-शास्त्रों को देख। इस उदाहरण में 'ततः और तदा' के स्थान पर एक ही अव्यय रूप 'तो' की प्ररूपणा की गई है। गाथा का भाषान्तर इस प्रकार है:संस्कृत : यदि भग्नाः परकीयाः, ततः सखि ! मम प्रियेण।।
अथ भग्नाः अस्मदीयाः, तदा तेन मारितेन।।१।। हिन्दी:-हे सखि ! यदि शत्रु-गण मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं; अथवा (रण-क्षेत्र को छोड़कर के) भाग गये हैं तो (यह सब विजय) मेरे प्रियतम के कारण से (ही है)। अथवा यदि अपने पक्ष के वीर पुरूष रण-क्षेत्र को छोड़ करके भाग खड़े हुए हैं तो (भी समझो कि) मेरे प्रियतम के वीर गति प्राप्त करने के कारण से (ही वे निराश होकर रण-क्षेत्र को छोड़ आये है।। इस गाथा में 'ततः और तदा' अव्ययों के स्थान पर एक जैसे ही रूप वाले 'तो' अव्यय रूप का प्रयोग किया गया है।।४-४१७|| एवं-परं-सम-ध्रुवं-मा-मनाक-एम्व पर समाणु ध्रुवु मं मणाउ।।४-४१८।।
अपभ्रंशे एवमादीनाम् एम्वादय आदेशा भवन्ति।। एवम् एम्व। पिय-संगमि कउ निद्दडी, पिअहो परोक्खहो केम्व ? मइं बिन्नी वि विन्नासिआ, निद्द न एम्व न तेम्व।।१।। परमः परः। गुणहि न संपइ, कित्ति पर।। सममः समाणुः। कन्तुजु सीहहो उवमिअइ, तं महु खण्डिउ माणु॥ सीहु निरक्खय गय हणइ पिउ पय-रक्ख-समाणु।। २।। ध्रुवमो ध्रुवुः। चञ्चलु जीविउ, ध्रुवु मरणु पिउ रूसिज्जइ काई।। होसहिँ दिअहा, रूसणा दिव्वइँ वरिस-सयाई।। ३।। मो म।। मं धणि करहि विसाउ।। प्रायो ग्रहणात्।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 365
माणि पण?इ जइ न तणु तो देसडा चइज्ज।। मा दुज्जण-कर-पल्लेवेहि देसिज्जन्तु भमिज्ज।।४।। लोणु विलिज्जइ पाणिएण, अरिखल मेह ! म गज्जु।। बालिउ गलइ सुझुपडा, गोरी तिम्मइ अज्जु।। ५।। मनाको मणाउ।। विहवि पण?ई वकुडउ रिद्धिहिं जण-सामन्नु।। किं पि मणाउं महु पिअहो ससि अणुहरइ न अन्नु।। ६।।
अर्थः- संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले अव्ययों का अपभ्रंश भाषा में भाषान्तर करने पर उनमें कुछ परिवर्तन हो जाता है; उसी परिर्वतन का संविधान इस सूत्र में दिया गया है। इस परिर्वतन को यहाँ पर 'आदेश-प्राप्ति' के नाम से लिखा गया है। अव्ययों की क्रम से सूची इस प्रकार है:-(१)एवं एम्व-इस प्रकार से अथवा इस तरह से। (२) परं-पर-किन्तु-परन्तु। (३) समं समाणु साथ। (४) ध्रुवंध्रुवु निश्चय ही।(५) मा मं=मत, नहीं।। (६) मनाक्-मणउं=थौड़ा सा भी-अल्प भी। इन्हीं अव्ययों का प्रयोग क्रम से गाथाओं में समझाया गया है; तदनुसार इन गाथाओं का संस्कृत में तथा हिन्दी में भाषान्तर क्रम से इस प्रकार से है:संस्कृत : प्रिय संगमे कथं निद्रा ? प्रियस्य परोक्षे कथम् ?
मया द्वे अपि विनाशिते, निद्रा नैवं न तथा।। हिन्दी:-प्रियतम पतिदेव के सम्मिलन होने पर (सुख के कारण से) निद्रा कैसे आ सकती हैं? और प्रियतम पति देव के वियोग में भी (वियोग-जनित-दुःख होने के कारण से भी) निद्रा कैसे आ सकती है ? मेरी निद्रा दोनों ही प्रकार से नष्ट हो गई है। न इस प्रकार से और न उस प्रकार से। इस गाथा में संस्कृत अव्यय ‘एवं' के स्थान पर 'एम्व' का प्रयोग समझाया गया है। 'कथं के स्थान पर 'केम्व' और 'तथा' के स्थान पर 'तेम्व' की स्थिति की भी कल्पना स्वयमेव कर लेना चाहिए।।१।। (२) गुणैः न संपत् कीर्तिः परं-गुणहि न संपइ कित्ति पर गुणों से लक्ष्मी नहीं (प्राप्त होती है) किन्तु कीर्ति ( ही प्राप्त
होती है) इस चरण में 'परं' अव्यय के स्थान पर आदेश प्राप्त अव्यय रूप 'पर' का उपयोग किया गया है। संस्कृत : कान्त यत् सिंहेन उपमीयते, तन्मम खण्डितः मानः।।
सिंहः नीरक्षकान् गजान् हन्ति; प्रियः पदरक्षेः समम्।। हिन्दी:-यदि मेरे पति की तुलना सिंह से की जाती है तो इससे मेरा मान-मेरा गौरव-खण्डित हो जाता है; क्योंकि सिंह तो ऐसे हाथियों को मारता है; जिनका कि कोई रक्षक नहीं है; (अर्थात् रक्षकहीन को मारने में कोई वीरता नहीं है); जबकि मेरा प्रियतम पतिदेव तो रक्षा करने वाले सैनिकों के साथ शत्रु-राजा को मारता है। यों तुलना में मेरा पति सिंह से भी बढ़ चढ़ कर है। इस गाथा में 'सम' अव्यय के स्थान पर 'समाणु' अव्यय का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है।। २॥ संस्कृत : चंचलं जीवितं, ध्रुवं भरणं, प्रिय ! रूष्यते कथं ? ।
भविष्यन्ति दिवसा रोषयुक्ताः (रूसणा) दिव्यानि वर्ष-शतानि।। ३।। हिन्दी:-जीवन चंचल है अर्थात् किसी भी क्षण में नष्ट हो सकता है और मृत्यु ध्रुव याने निश्चित है तो ऐसी स्थिति में हे प्रियतम पतिदेव ! रोष याने क्रोध क्यों किया जाय ? यदि रोष युक्त दिन व्यतीत होंगे तो हमारा प्रत्येक दिन 'देवलोक में गिने जाने वाले सौ सौ वर्षों के समान लम्बा और नहीं काटा जा सकने जैसा प्रतीत होगा। इस गाथा में 'ध्रुवं' के स्थान पर आदेश प्राप्त रूप 'ध्रुव' का प्रयोग किया गया है।। ३।। ____ 'मत-नहीं' अर्थक 'मा' अव्यय के स्थान पर 'म' के प्रयोग का उदाहरण यों है:- मा धन्ये ! कुरू विषादम्-मं धणि ! करहि विसाउ-हे धन्यशील नायिके ! तू खेद को मत कर-खिन्न मत हो। 'प्रायः' के साथ आदेश-प्राप्ति
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366 : प्राकृत व्याकरण
का विधान होने से अनेक स्थानों पर 'मा' के स्थान पर 'मा' का ही और 'म' का भी प्रयोग देखा जाता है। 'मा' और 'म' के उदाहरण गाथा संख्या चार में और पाँच में क्रम से बतलाये गये हैं; उनका अनुवाद यों है:संस्कृत : माने प्रनष्टे यदि न तनुः तत् देशं त्यजेः।।
मा दुर्जन-कर-पल्लवैः दय॑मानः भ्रमेः।।४।। हिन्दी:-यदि आपका मान-समान नष्ट हो जाय तो शरीर का ही परित्याग कर देना चाहिये और यदि शरीर नहीं छोड़ा जा सके तो उस देश का ही (अपने निवास स्थान का ही) परित्याग कर देना चाहिये; जिससे कि दुष्ट पुरूषों के हाथ की अंगुली अपनी ओर नहीं उठ सके अर्थात् वे हाथ द्वारा अपनी ओर इशारा नहीं कर सकें और यों हम उनके आगे नहीं घूम सके।।४।। संस्कृत : लवणं विलीयते पानीयेन, अरे खल मेघ ! मा गर्ज।।
ज्वालितं गलति तत्कुटीरकं, गोरी तिम्यति अद्य।। ५।। हिन्दी:-नमक (अथवा लावण्य-सौन्दर्य) पानी से गल जाता है-याने पिगल जाता है। अरे दुष्ट बादल! तू गर्जना मत कर। जली हुई वह झोंपड़ी गल जायगी और उसमें (बैठी हुई) गौरी-(नायिका-विशेष) आज गीली हो जायगी-भींग जाएगी।। ५।। चौथी गाथा में 'मा' के स्थान पर 'मा' ही लिखा है और पाँचवी में 'मा' की जगह पर केवल 'म' ही लिख दिया है।। संस्कृत : विभवे प्रनष्टे वक्रः ऋद्धो जन-सामान्यः।।
किमपि मनाक् मम प्रियस्य शशी अनुहरति, नान्यः।। ६।। हिन्दी:-संपत्ति के नष्ट होने पर मेरा प्रियतम पतिदेव टेढ़ा हो जाता है अर्थात् अपने मान-सम्मान-गौरव को नष्ट नहीं होने देता है और ऋद्धि की प्राप्ति में याने संपन्नता प्राप्त होने पर सरल-सीधा हो जाता है। मुझे चन्द्रमा की प्रवृत्ति भी ऐसी ही प्रतीत होती है; वह भी कलाओं के घटने पर टेढा-वक्राकार हो जाता है और कलाओं की संपूर्णता में सरल याने पूर्ण दिखाई देता है। यों कुछ अनिर्वचनीय रूप में चन्द्रमा मेरे पतिदेव की थोडी सी नकल करता है; अन्य कोई भी ऐसा नहीं करता है। इस गाथा में 'मनाक्' अव्यय के स्थान पर 'मणाउँ रूप का प्रयोग किया गया है।। ६।।४-४१८।।
किलाथवा-दिवा-सह-नहेः किराहवइ दिवेसहुँ नाहि।।४-४१९।। अपभ्रंशे किलादीनां किरादय आदेशा भवन्ति।। किलस्य किरः।। किर खाइ न पिअइ, न विद्दवइ धम्मि न वेच्चइ रूअडउ।। इह किवणु न जाणइ, जइ जमहो खणेण पहुच्चइ दूअडउ।।१।। अथवो हवइ।। अह वइ न सुवंसह एह खोडि।। प्रायोधिकारात्।। जाइज्जइ तहिं देसडइ लब्भइ पियहो पमाणु। जइ आवइ तो आणिअइ अहवा तं जि निवाणु।। २।। दिवो दिवे। दिवि दिवि गङ्गा-हाणु।। सहस्य सहुँ।। जउ पवसन्तें सहुं न गयअ न मुअ विओएं तस्सु।। लज्जिज्जइ संदेसडा दिन्तेहिं सुहय-जणस्सु।। ३।। नहे नाहि।। एत्तहे मेह पिअन्ति जलु, एत्तहे वडवानल आवट्टइ।। पेक्खु गही रिम सायरहो एक्कवि कणिअनाहिं ओहट्टइ।।४।। अर्थः-इस सूत्र में भी अव्ययों का ही वर्णन है। तद्नुसार संस्कृत भाषा में उपलब्ध अव्ययों के स्थान पर अपभ्रंश
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 367 भाषा में जिस रूप में आदेश प्राप्ति होती है; वह स्थिति इस प्रकार से है:-(१) किल-किर-निश्चिय ही। (२) अथवा अहवइ-अथवा विकल्प से इसके बराबर यह। (३) दिवा दिवे-दिन-दिवस। (४) सह-सहुं-साथ मे।। (५) नहिं नाहि नाहिं नही।। यों अपभ्रंश भाषा में 'किल' आदि अव्ययों के स्थान पर 'किर' आदि रूप में आदेश प्राप्ति होती है। इन अव्ययों का उपयोग वृत्ति में दो गई गाथाओं में किया गया है। उनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : किल न खादति, न पिवति न विद्रवति, धर्मे न व्ययति रूपकम्।।
इह कृपणो न जानाति, यथा यमस्य क्षणेन प्रभवति दूतः।।। हिन्दी:-निश्चय ही कंजूस न ( अच्छा ) खाता है और न ( अच्छा ) पीता है। न सदुपयोग ही करता है और न धर्म- कार्यो में ही अपने धन को व्यय करता है। किन्तु कृपण इस बात को नहीं जानता है कि अचानक ही यमराज का दूत आकर क्षण भर में ही उसको उठा लेगा। उस पर मृत्यु का प्रभाव डाल देगा। इस गाथा में 'किल' अव्यय के स्थान पर आदेश प्राप्त किर' अव्यय का उपयोग समझाया गया है।।१।।
हिन्दी:-अथवा न सुवंशानामेष दोषः अहवइ न सुवंसह एह खोडि=अथवा श्रेष्ठ वंश वालों का-उत्तम खानदान वालों का-यह अपराध नहीं है। इस गाथा चरण में अथवा' के स्थान पर 'अहवइ' रूप की आदेश-प्राप्ति बतलाई है। 'प्राय' रूप से विधान का अधिकार होने के कारण से 'अथवा' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में अनेक स्थानों पर 'अहवा' रूप भी देखा जाता है। इस सम्बन्धी उदाहरण गाथा-संख्या दो में यों है:संस्कृत : यायते (गम्यते) तस्मिन् देशे, लभ्यते प्रियस्य प्रमाणम्।।
यदि आगच्छति तदा आनीयते, अथवा तत्रैव निर्वाणम्।। २।। हिन्दी:-मैं उस देश में जाती हूँ; जहाँ पर कि प्रियतम पतिदेव की प्राप्ति के चिन्ह पाये जाते हो।। यदि वह आता है तो उसको यहाँ पर लाया जायगा अथवा नहीं आवेगा तो मैं वहीं पर ही अपने प्राण दे दूंगी। इस गाथा में 'अथवा' की जगह पर 'अहवा' रूप लिखा हुआ है।। २।। ___ संस्कृतः-दिवसे दिवसे (दिवा दिवा) गङ्ग-स्नानम् दिवि-दिवि-गंगा-हाणु-प्रत्येग दिन गंगा स्नान (करने जितना पुण्य प्राप्त होता है) इस गाथा-पद में 'दिवा' के स्थान पर 'दिवे-दिवि' रूप का उल्लेख किया गया है। संस्कृत : यत् प्रवसता सह न गता न मृता वियोगेन तस्य।।
लज्ज्यते संदेशान् ददतीभिः (अस्माभिः) सुभग जनस्य।। ३।। __ हिन्दी:-जब मेरे पतिदेव विदेश-यात्रा पर गये तब मैं उनके साथ में भी नहीं गई और उनके वियोग में भी। (विरह-जनि -दुख से) मृत्यु को भी नहीं प्राप्त हुई-मृत्यु भी नहीं आई; ऐसी स्थिति में उनको संदेश भेजने में मुझे लज्जा आती है। इस गाथा में 'सह' अव्यय के स्थान पर आदेश-प्राप्त 'सहुँ' अव्यय का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है।। ३।। . संस्कृत : इतः मेघाः पिबन्ति जलं, इतः वडवानल आवर्तते।।
प्रेक्षस्व गभीरिमाणं सागरस्य एकापि कणिका नहि अपभ्रंश्यते।।४।। हिन्दी:-समुद्र के जल को एक ओर तो ऊपर से मेघ-बादल-पीते हैं और दूसरी ओर अन्दर से समुद्राग्नि उसको अपने उदरस्थ करती जाती है। यो समुद्र की गंभीरता को देखा कि इसकी एक बूंद भी व्यथ में नहीं जाती है। इस गाथा में 'नहिं' अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'नाहिं' अव्यय रूप की प्ररूपणा की गई है।।४।।४-४१९।। पश्चादेवमेवैवेदानी-प्रत्युतेतसः पच्छइ एम्वइ जि एस्वहि पच्चलिउ एत्तहे।।४-४२०।।
अपभ्रंशे पश्चादादीनां पच्छइ इत्यादय आदेशा भवन्ति।। पश्चातः पच्छइ। पच्छइ होइ विहाणु। एवमेवस्य एम्वइ। एम्वइ सुरउ समत्तु।। एवस्य जिः।।
जाउ म जन्तउ पल्लवह देक्खउं कइ पय देइ।।
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368 : प्राकृत व्याकरण
हिअइ तिरिच्छी हउं जि पर पिउ डम्बरई करेइ।।१।। इदानिम एम्वहि। हरि नच्चाविउ पङ्गणइ विम्हइ पाडिउ लोउ।। एम्वहिं राह-पओहरहं जं भावइ तं होउ।। २।। प्रत्युतस्य पच्चलिउ।। साव-सलोणी गोरडी नवरवी कवि विस-गण्ठि।। भडु पच्चलिउ सो मरइ, जासु न लग्गइ कण्ठि।। ३।। इतस एत्तहे।। एत्तहे मेह पिअन्ति जलु।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले अव्ययों के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में जैसी आदेश-प्राप्ति होती है; उसी का वर्णन किया जा रहा है। तदनुसार इस सूत्र में छह अव्ययों की आदेश-प्राप्ति समझाई गई है। वे छह अव्यय अर्थ पूर्वक क्रम से इस प्रकार से है:
(१) पश्चात् पच्वइ-पीछे-बाद मे।। (२) एवमेव=एम्वइ=ऐसा ही, इस प्रकार का ही। (३) एव-जि-ही निश्चय ही। (४) इदानीम् एम्वहि-इसी समय में-अभी। (५) प्रत्युत-पच्चलिउ-वैपरीत्य-उल्टापना। (६) इतः एत्तहे-इस तरफ-इधर-एक ओर। यों संस्कृत अव्यय 'पश्चात् आदि के स्थान पर 'पच्छइ' आदि
रूप से आदेश-प्राप्ति होती है। उपरोक्त छह अव्ययों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:(१) पश्चात् भवति विभातम्=पच्छइ होइ विहाणु-पीछे ( तत्काल ही ) प्रभात-प्रातःकाल हो जाता है। (२) एवमेव सुरतं समाप्तम्-एम्वइ सुरउं समत्तु इस प्रकार से ही ( हमारा ) सुरत ( रति-कार्य ) समाप्त हो गया।। संस्कृत : यातु, मा यान्तं पल्लवत, द्रक्ष्यामि कति पदानि ददाति।।
हृदये तिरश्चीना अहमेव परं प्रियः आडम्बराणि करोति।।१।। हिन्दी:-यदि (मेरा पति) जाता है तो जाने दो; जाते हुए उसको मत बुलाओ ! मैं (भी) देखती हूँ कि वह कितने डग भरता है? कितनी दूर जाता है ? क्योंकि मैं उसके हदय में (आगे बढ़ने के लिये) बाधा रूप ही हूँ। (अर्थात् मेरा वह परित्याग नहीं कर सकता है) इसलिये मेरा प्रियतम (जाने का) आडम्बर मात्र ही (केवल ढोंग ही) करता है। इस गाथा में 'अहमेव' पद के स्थान पर 'हउजि' पद का प्रयोग करके यही समझाया है कि 'एव' अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में 'जि' अव्यय रूप की आदेश-प्राप्ति होती है।।१।। संस्कृत : हरिः नर्तितः प्राङ्गणे, विस्मये पातितः लोकः।।
इदानीम् राधा-पयोधरयाः यत् (प्रति) भाति, तद् भवतु॥२॥ हिन्दी:-हरि (कृष्ण) आंगन में नीचा अथवा नचाया गया और इससे जन-साधारण (दर्शक-वर्ग) आश्चर्य (सागर) में डूब गया (अथवा डुबाया गया) (सत्य है कि इस समय में राधा-रानी के दोनों स्तनों को जो कुछ भी अच्छा लगता हो, वह होवे। (उसके अनुसार कार्य किया जावे)।। इस गाथा में 'इदानी' अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'एम्वहि आदेश-प्राप्त- अव्यय-रूप का प्रयोग प्रस्तत किया गया है।। २।। संस्कृत : सर्वसलावण्या गौरी नवा कापि विष-ग्रन्थिः।।
भटः प्रत्युत स म्रियते यस्य न लगति कण्ठे।। ३।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 369 हिन्दी:-सर्व-लावण्य-सौन्दर्य-संपन्न रमणी कुछ नवीन ही प्रकार की (आश्चर्य जनक) विष की (जहर की) गांठ है जिसके कंठ का आलिंगन यदि (अमुक) नवयुवक पुरूष नहीं करता है तो उल्टा मृत्यु को प्राप्त होता है। (जहर के आस्वादन से मृत्यु प्राप्त होती है परन्तु यह जहर कुछ अनोखा ही है कि जिसका यदि आस्वादन नहीं किया जाय तो उल्टा मृत्यु प्राप्त हो जाती है)। इस अपभ्रंश छंद में 'प्रत्युत' अव्यय के स्थान पर 'पच्चलिउ' आदेश प्राप्त अव्यय रूप का प्रचलन प्रमाणित किया है।। ३।।
(३) इतः मेघाः पिबन्ति जलं एत्तहे मेह पिअन्ति जलु इस तरफ (इधर एक ओर तो) मेघ-बादल-जल को पीते है।। इस चरण में 'इतः' के स्थान पर 'एत्तहे' रूप की आदेश प्राप्ति समझाई है।।४-४२०।।
विषण्णोक्त-वर्त्मनो-वुन्न-वुत्त-विच्च।।४-४२१।। अपभ्रंशे विषण्णादीनां वुन्नादय आदेश भवन्ति।। विषण्णस्य वुन्नः। मई वुत्तउं तुहुं धुरू धरहिं कसरहिं विगुत्ताइ।। पई विणु धवल न चडइ भरू एम्वइ वुन्नउ काइ।।१।। उत्त्स्य वुत्तः। मई वुत्तउ।। वर्त्मनो विच्चः। जं मणु विच्चि न माइ।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले दो कृदन्त शब्दों के स्थान पर और एक संज्ञा वाचक शब्द के स्थान पर जो आदेश प्राप्ति अपभ्रंश भाषा में पाई जाती है, उसका संविधान इस सूत्र में किया गया है। वे इस प्रकार से है:-(१) विषण्ण-वुन्न खेद पाया हुआ, दुखी हुआ, डरा हुआ। (२) उक्त वुत्त-कहा हुआ; बोला हुआ। (३) वर्त्मन् विच्च-मार्ग, रास्ता।। इन आदेश प्राप्त शब्दों के उदाहरण वृत्ति में दिये गये है; तदनुसार उनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : मया उक्तं, त्वं धुरं इति, गलि वृषभैः (कसर) विनाटिकाः॥
त्वया विना धवल नारोहति भरः, इदानीं विषण्णः किम्॥१॥ हिन्दी:-मुझसे कहा गया था कि ओ श्वेत बैल ! तुम ही धुरा को धारण करो। हम इन कमजोर बैठ जाने वाले बैलों से हैरान हो चुके है।। यह भार तेरे बिना नहीं उठाया जा सकता है। अब तू दुःखी अथवा डरा हुआ अथवा उदास क्यों है ? इस गाथा में कृदन्त शब्द 'विषण्णः' के स्थान पर अपभ्रंश- भाषा में आदेश प्राप्त 'वुन्नउ' शब्द का प्रयोग समझाया है।।१।।
(२) मया उक्तम्-मई वुत्तउं-मेरे से कहा गया अथवा कहा हुआ। इस चरण में 'उक्तम्' के स्थान पर 'वुत्तउं' की आदेश-प्राप्ति बतलाई गई।
(३) येन मनो वर्त्मनि न माति-जं मणु विच्च न माई-जिस (कारण) से मन मार्ग में नहीं समाता है। इस गाधा चरण में 'वर्ल्सनि' पद के स्थान पर 'विच्चि' पद की आदेश प्राप्ति हुई है। यो तीनों आदेश प्राप्त शब्दों की स्थिति को समझ लेना चाहिये।।४-४२१।।
शीघ्रदीनां वहिल्लादयः॥४-४२२।। अपभ्रंशे शीघ्रादीनां वहिल्लादय आदेशा भवन्ति।। एक्कु कअइ ह वि न आवही अन्नु वहिल्लउ जाहि।। मई मित्तडा प्रमाणिअउ पई जेहउ खलु नाहि।।१।। झकटस्य घङ्घलः॥ जिवँ सुपुरिस तिवँ घङ्घलई, जिवँ नइ तिव॑ वलणाइ।। जिवँ डोङ्गर तिवँ कोट्टरइं हिआ विसूरहि काइ।। २।।
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370 : प्राकृत व्याकरण
अस्पृश्य संसर्गस्य विट्टालः ॥
जे छड्डे विणु रयण निहि अप्परं तडि घल्लन्ति ।। तहं सङ्ग्रहं विट्टालु परू फुक्किज्जन्त भमन्ति ।। ३॥
भयस्य द्रवक्कः ।।
दिवेहिं विढत्तउं खाहि, वढ संचि म एक्कु वि द्रम्मु । को वि द्रवक्कउ सो पडइ, जेण समप्पइ जम्मु ॥ ४ ॥
आत्मीयस्य अप्पणः।। फोडेन्ति जे हिअडउं अप्पणउ।। दृष्टे द्रॊहिः।। एकमेक्कउं जइ वि जोएदि हरि सुटु सव्वायरेण । ।
तो वि हि जहिं कहिं वि राही ।। को सक्कइ संवर वि दड्ढ
नया नेहि पलुट्टा ॥ ५ ॥
गाढस्य निच्चट्टः ||
विहवे कस्सु थिरत्तणउं, जोव्वणि कस्सु मरट्टु । सो लेखडउ पठाविअइ, जो लग्गइ निच्चट्डु ।। ६ ।। असाधारणस्य सड्ढलः॥
कहिं ससहरू कहिं मयरहरू कहिं बरिहिणु कहिं मेहु।। दूर-ठिआहं वि सज्ज हं होइ असड्ढलु नेहु ॥ ७॥ कौतुक्स्य कोड्डः ।।
कुञ्जरू अन्नहं तरू-अरहं कोड्डेण घल्लुइ हत्थु ।। मणु पुणु एक्कहिं सल्लइहि जइ पुच्छह परमत्थु ॥ ८ ॥ क्रीडायाः खेड्ढः।।
खेड्डूयं कय मम्हेहिं निच्छयं किं पयम्पह ||
अणुरत्ताउ भत्ताउ अम्हे मा चय सामि ।। ९॥
रम्यस्य रवण्णः ॥
सरिहिं न सरेहिं, न सरवेरेहिं नवि उज्जाण वणेहि ।। देस रवण्णा होन्ति, वढ ! निवसन्तेहिं सु-अणेहि ।। १० ।। अद्भुतस्य ढक्करिः।
हिअडा पइं एहु बोल्लिअओ महु अग्गइ सय-वार ।।
फुट्टिसु पिए पवसन्ति हउं भण्डय ढक्करि-सार । । ११ ।।
हे सखीत्यस्य हेल्लिः हेल्लि ! म झङ्ख हि आलु । । पृथक् पृथगित्यज्ञस्य जुअं जुअ: ।।
एक्क कुडुल्ली पञ्चहिं रूद्धी तहं पञ्चहं वि जुअं जुअ बुद्धी ||
बहिणु तं घरू कहि किवँ नन्दउ जेत्थु कुडुम्बरं अप्पण - छंदउ ॥१२॥
मूढस्य नालिअ - वढौ।।
जो जिस फसिहूअउ चिन्तइ देई न दम्मु ने रूअउ ।।
रइ वस- भमिरू करग्गुल्लालिउ घरहिं जि कोन्तु गुणइ सो नालिउ ॥ १३ ॥
दिवेहिं विढत्तरं खाहि वढ ।। नवस्य नवखः नवखी कवि विस-गण्ठि ।। अवस्कन्दस्य दडवडः ॥ चलेहि चलन्तेहि लोअणेहिं जे तई दिट्ठा बालि ।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 371
तहिं मयर-द्धय-दडवडउ, पडइ अपूरइ कालि।।१४।। यदेष्छुडुः।। छुडु अग्घइ ववसाउ।। सम्बन्धितः केर-तणौ।१५।। गयउ सु केसरि पिअहु जलु निच्चिन्तई हरिणाइ।। जसु केरएं हुंकारडएं मुहहु पडन्ति तृणाइ।।१५।। अह भग्गा अम्हहं तणा।। मा भैषीरित्यस्य मब्भीसेति स्त्रीलिंगम्।। सत्थावत्थहं आलवणु साहु वि लोउ करेइ।। आदन्नहं भब्भीसडी जो सज्जणु सो देइ।।१६।। यद्-यद् दृष्टं तत्तदित्यस्य जाइ टुिआ।। जइ रच्चसि जाइटुिअए हिअडा मुद्ध-सहाव।। लोहें फुटणएण जिवँ घणा सहेसइ ताव।।१७।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले अनेक शब्दों के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में ऐसे ऐसे शब्दों की आदेश प्राप्ति देखी जाती है जो कि मूलतः देशज भाषाओं के और प्रान्तीय बोलियों के शब्द है। तदनुसार इस सूत्र में ऐसे इक्कीस शब्दों की आदेश-प्राप्ति बतलाई है जो कि मूलतः देशज होते हुए भी अपभ्रंश-भाषा में प्रयुक्त होते हुए पाये जाते हैं। हिन्दी-अर्थ बतलाते हुए संस्कृत भाषान्तर पूर्वक इनकी स्थिति क्रम से इस प्रकार है:
(१) शीघ्रम-वहिल्ल-जल्दी, (२) झकट-धंधल-झगड़ा, कलह। (३) अस्पृश्य-संसर्ग-विट्टाल नहीं छूने लायक वस्तु के साथ अथवा पुरूष के साथ की संगति जाना, अपवित्रता होना। (४) भय-द्रवक्क= भय, डर, भीति। (५) आत्मीय-अप्पण-खुद का। (६) दृष्टि देहि नजर, दृष्टि। (७) गाढ=निच्चट्ट-गाढ़, मजबूत, निविड, सघन। (८) साधारण सढ्ढल साधारण, मामुली, सर्व सामान्य। (९) कौतुक-कोड्ड आश्चर्य, कौतुल, कुतूहल, आश्चर्यमय खेल। (१०)क्रीड़ा-खेड्ड-खेल। (११)रम्य-रवण्ण-सुन्दर, मन को मोहित करने वाला। (१२)अद्भुत ढक्करि अनोखा, आश्चर्य-जनक। (१३)हे सखि हे हेल्लि हे दारिका हे सहेली। (१४)पृथक्-पृथक-जुअंजुअ-अलग अलग। (१५)मूढ=नालिअ तथा वढ-मूर्ख, बेवकूफ अज्ञानी। (१६)नव-नवख-नया ही, अनोखा ही। (१७) अवस्कन्द-दडवड-शीघ्र, जल्दी, शीघ्रता पूर्वक दबाव का पड़ना। (१८) यदि छुडु-यदि, जो शीघ्र, तुरन्त। (१९) सम्बन्धी-केर और तण-सम्बन्ध वाला, सम्बन्धी चीज़; जिसके कारण से। (२०) मा भैषीः भब्भीसा मत डर, अभय वचन।
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372 : प्राकृत व्याकरण
(२१) यद्-यद्-दृष्टं जाइ टुिआ जिस-जिस को देखते हुए; जिस जिस को देखकर के, देखे हुए जिस जिस के
साथ। वृत्ति में इन इक्कीस ही शब्दों का प्रयोग गाथाओं द्वारा तथा गाथा चरणों द्वारा समझाया गया है; तदनुसार उन गाथाओं का और उन गाथा-चरणों का संस्कृत भाषान्तर पूर्वक हिन्दी अर्थ क्रम से यों है:संस्कृत : एक कदापि नागच्छसि, अन्यत् शीघ्रं यासि।।
मया मित्र प्रमाणितः, त्वया यादृशः (त्वं यथा) खलः न हि।।१।। हिन्दी:-तुम कभी एक बार भी मेरे पास नहीं आते हो और दुसरी जगह पर तुम शीघ्रता पूर्वक जाते हो; इससे हे मित्र ! मैंने समझ लिया है कि तुम्हारे समान दुष्ट कोई नहीं है। इस गाथा में "शीघ्रं" के स्थान पर "वहिल्लउ" पद का प्रयोग समझाया है।।१।। संस्कृत : यथा सत्पुरूषाः तथा कलहाः, यथा नद्यः तथा वलनानि।।
यथा पर्वताः तथा कोटराणि, हृदय ! खिद्यसे किम् ? हिन्दी:- जितने सज्जन पुरूष होते हैं, उतने ही झगड़े भी होते है। जितनी नदियां होती हैं, उतने ही प्रवाह भी होते हैं; जितने पहाड़ होते हैं, उतनी ही गुफाएं भी होती हैं; इसलिये हे हृदय ! तू खिन्न क्यों होता है ? इस विश्व में अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ तो अनादि-अनन्त काल से उत्पन्न होती ही आई हैं। इस छंद में "कलह' के स्थान पर "घघल" पद प्रयुक्त हुआ है।। २।। संस्कृत : ये मुक्त्वा रल-निधिं, आत्मानं तटे क्षिपन्ति।।
तेषां श।। खाना संसर्गः केवल फूत्क्रियमाणाः भ्रमन्ति।। ३।। हिन्दी:-जो शंख रत्नों के भंडार रूप समुद्र को छोड़ करके अपने आपको समुद्र के किनारे पर फेंक देते हैं; उन शंखों की स्थिति अस्पृश्य जैसी हो जाती है; और वे सिर्फ दूसरों की फूंक से आवाज करते हुए अनिश्चित स्थानों पर भटकते रहते हैं। इस गाथा में “अस्पृश्य संसर्ग' के स्थान पर "विटालु'' पद का प्रयोग हुआ है।। ३।। संस्कृत : दिवसै अर्जितं खाद मूख ! संचिनु मा एकमपि द्रम्मम्।।
किमपि भयं तत् पतति, येन समाप्यते जन्म।।४।। हिन्दी:-अरे मूर्ख ! जो कुछ भी प्रतिदिन तेरे से कमाया जाता है उसको खा, उसका उपयोग कर और एक पैसे का भी संचय मत कर; क्योंकि अचानक ही कुछ भी भय (मृत्यु आदि) आ सकती है। इस छन्द में "भयं" पद की जगह पर अपभ्रंश भाषा में "द्रवक्कउ" पद का प्रयोग किया गया है।।४||
संस्कृत : स्फोटयतः यो हृदयं आत्मीयं-फोडेन्ति जे हिअडउं अप्पणउं= जो (दोनों स्तन) अपने खुद के (हृदय को ही) फोड़ते हैं-विस्फोटित होकर उभर आते है।। इस गाथा-चरण में संस्कृत-पद "आत्मीय" के बदले में "अप्पउँ" पद प्रदान किया गया है। संस्कृत : एकैकं यद्यपि पष्यति हरिः सुष्टु सर्वादरेण।
तथापि दृष्टिः यत्र कापि राधा, कः शक्नोति संवरीतुं नयने स्नेहेन पर्यस्ते।। ५।। हिन्दी:- यद्यपि हरि (भगवान् श्री कृष्ण) प्रत्येक को अच्छी तरह से और पूर्ण आदर के साथ देखते हैं; तो भी उनकी दृष्टि (नजर) जहाँ कहीं पर भी राधा-रानी है, वहीं पर जाकर जम जाती है। यह सत्य ही है कि प्रेम से परिपूर्ण नेत्रों को (अपनी प्रियतमा से) दूर करने के लिये-(हटाने के लिये) कौन समर्थ हो सकता है ? इस अपभ्रंश-काव्य में 'दृष्टि' के स्थान में 'रोहि' शब्द लिखा गया है।। ५।। संस्कृत : विभवे कस्य स्थिरत्वं ? यौवने कस्य गर्वः ?
स लेखः प्रस्थाप्यते, यः लगति गाढम्।। ६।। हिन्दी:- धन संपत्ति के होने पर भी किसका (प्रेमाकर्षण) स्थिर रहा है? और यौवन के होने पर भी प्रेमाकर्षण
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 373
का गर्व किसका स्थाई रहा है? इसलिये वैसा प्रेम-पत्र भेजा जाय, जो कि तत्काल ही प्रगाढ़ रूप से-निश्चिय रूप से-हृदय को आकर्षित कर सके-हृदय को हिला सके; (ऐसा होने पर वह प्रियतम शीघ्र ही लौट आवेगा) यहाँ पर "गाढम्" के अर्थ में "निच्वटूटु" शब्द लिखा गया है।। ६।। संस्कृत : कुत्र शशधरः कुत्र मकरधरः? कुत्र बी कुत्र मेघः?
दूर स्थितानामपि सज्जनानां भवति असाधारणः स्नेहः।। ७॥ हिन्दी:- कहाँ पर (कितनी दूरी पर) चन्द्रमा रहा हुआ है और समुद्र कहाँ पर अवस्थित है? (तो भी समुद्र चन्द्रमा के प्रति ज्वार-भाटा के रूप में अपना प्रेम प्रदर्शित करता है। इसी प्रकार से मयूर पक्षी धरती पर रहता हुआ भी मेघ को (बादल को)-देखकर के अपनी मधुर वाणी अलापने लगता है। इन घटनाओं को देख करके यह कहा जा सकता है। कि अति दूर रहते हुए भी सज्जन पुरूषों का प्रेम परस्पर में असाधारण अर्थात् अलौकिक होता है। इस गाथा में "असाधारण" शब्द के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में “आसड्डलु" शब्द को व्यक्त किया गया है।। ७।। संस्कृत : कुञ्जरः अन्येषु तरूवरेषु कौतुकेन घर्षति हस्तम्।।
मनः पुनः एकस्यां सल्लक्यां यदि पृच्छथ परमार्थम्।। ८|| हिन्दी:-हाथी अपनी सूंड को केवल क्रीड़ा वश होकर ही अन्य वृक्षों पर रगड़ता है। यदि तुम सत्य बात ही पूछते हो तो यही है कि उस हाथी का मन तो वास्तव में सिर्फ एक 'सल्लकी' नामक वृक्ष पर ही आकर्षित होता है। इस छंद में संस्कत-पद 'कौतकेन' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'कोडण' लिखा गया है।। ८।। संस्कृत : क्रीड़ा कृता अस्माभिः निश्चयं किं प्रजल्पत।।
अनुरक्ताः भक्ताः अस्मान् मा त्यज स्वामिन्॥ ९।। हिन्दी :- हे नाथ ! हमने तो सिर्फ खेल किया था; इसलिये आप ऐसा क्यों कहते हैं? हे स्वामिन्! हम आप से अनुराग रखते हैं और आप के भुक्त है; इसलिये हे दीन दलाल! हमारा परित्याग नहीं करे।। यहाँ पर 'क्रीड़ा' के स्थान पर 'खेड्ड-खेड्डयं' शब्द व्यक्त किया गया है।। ९।। संस्कृत : सरिद्भिः न सरोभिः, न सरावरैः, नापि उद्यानवनैः।।
देशाः रम्याः भवन्ति, मूर्ख ! निवसद्भिः सुजनैः॥१०॥ हिन्दी:-अरे बेवकुफ ! न तो नदियों से, न झीलों से, न तालाबों से और न सुन्दर सुन्दर वनों से अथवा बगीचों से ही देश रमणीय होते हैं; वे (देश) तो केवल सज्जन पुरूषों के निवास करने से ही सुन्दर और रमणीय होते हैं। इस गाथा में 'रम्य' शब्द के स्थान पर 'रवण्ण' शब्द को प्रस्तावित किया गया है।।१०।। संस्कृत : हृदय ! त्वया एतद् उक्तं मम अग्रतः शतवारम्॥
स्फुटिष्यामि प्रियेण प्रवसता (सह) अहं भण्ड! अद्भुतसार।।११।। हिन्दी :- हे हृदय ! तू निर्लज्ज है और आश्चर्यमय ढंग से तेरी बनावट हुई है; क्योंकि तूने मेरे आगे सैंकड़ों बार यह बात कही है कि जब प्रियतम विदेश में जाने लगेंगे तब मैं अपने आपको विदीर्ण कर दूंगा अर्थात् फट जाऊंगा। (प्रियतम के वियोग में हृदय टुकड़े-टुकड़े के रूप में फट जायगा। ऐसी कल्पनाऐं सैंकड़ों बार नायिका के हृदय में उत्पन्न हई है। परन्त फिर भी समय आने पर हृदय विदीर्ण नहीं हआ है: इस पर हृदय को 'भ अद्भुतसार विशेषणों से अलंकृत किया गया है)। इस गाथा में अद्भुत' की जगह पर 'ढक्करि' शब्द को तद्-अर्थक स्थान दिया गया है।।११।।
संस्कृत : हे सखि ! मा पिधेहि अलीकम् हे हेल्लि ! म भङ्घहि आलु-हे सहेली ! तू झुठ मत बोल अथवा अपराध को मत ढोंक। यहाँ पर 'सखी' अर्थ में 'हेल्लि' शब्द का प्रयोग किया गया है। संस्कृत : एका कुटी पञ्चभिः तेषां पञ्चानामपि, पृथक्-पृथक्-बुद्धिः।।
भगिनि ! तद् गृह कथय, कथं नन्दतु यत्र कुटुम्बं आत्मच्छन्दकम्।।१२।।
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374 : प्राकृत व्याकरण
हिन्दी:-एक छोटी सी झोंपड़ी हो और जिसमें पाँच (प्राणी) रहते हों तथा उन पाँचों की ही बुद्धि अलग अलग ढंग से विचरती हो तो हे बहिन ! बोलो; वह घर आनन्दमय कैसे हो सकता है, जबकि सम्पूर्ण कुटुम्ब ही (जहाँ पर) स्वछन्द रीति से विचरण करता हो। (यह कथानक शरीर और शरीर से सम्बन्धित पाँचों इन्द्रियों पर भी घटाया जा सकता है।) इस गाथा में 'पृथक्-पृथक् अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा की दृष्टि से 'जुअं-जुअं अव्यय का प्रस्थापना की गई है।।१२।। संस्कृत : यः पुनः मनस्येव व्याकुलीभूतः चिन्तयति ददाति न द्रम्मं न रूपकम्।।
रतिवष भ्रमण शीलः कराग्रोल्लालितं गृहे एव कुन्तं गणयति स मूढः।।१३॥ हिन्दी:- वह महामूर्ख है, जो कि मन में ही घबराता हुआ सोचता रहता है और न दमड़ी देता है और न रूपया ही। दूसरे प्रकार का महामर्ख वह है जो कि राग अथवा मोह के वश में होकर घमता रहता है और घ को लेकर हाथ के अग्र भाग में ही घुमाता हुआ केवल गणना करता रहता है (कि मैंने इतनी बार भाला चलाया है और इसलिये मैं वीर हूँ तथा कंजूस सोचता है कि मैं इतना-इतना दान कर दूं परन्तु करता कुछ भी नहीं है) इस विशिष्ट गाथा में 'मूढ' शब्द के स्थान पर अपभ्रंश में 'नालिअ-नालिउ' शब्द का प्रयोग किया गया है।
संस्कृतः- दिवसैःअर्जितं खाद मुर्ख ! दिवेहिं विढत्तउं खाहि वढ ! हे मूर्ख ! प्रतिदिन कमाये हुए (खाद्य--पदार्थो) को खा। (कंजूसी मत कर) इस चरण में 'मूर्ख' शब्द वाचक द्वितीय शब्द 'वढ' का अनुयोग है
संस्कृतः-(१६)-नवा कापि विष-ग्रन्थिः-नवखी क वि विसगण्ठि- (यह नायिका) कुछ नई ही (अनोखी ही) विषमय गांठ है: इस गाथा-पाद में नतनता वाचक पद "नवा" के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में "नवखी पद का व्यवहार किया गया है। पुल्लिंग में "नवख" होता है और स्त्रीलिंग में "नवखी' लिखा है। संस्कृत : चलाभ्यां वलमानाभ्यां लोचनाभ्यां ये स्वया दृद्दष्टाः बाले!
तेषु मकर-ध्वजावस्कन्दः पतति अपुर्णे काले।।१४।। हिन्दी:-ओ यौवन संपन्न मदमाती बालिका ! तेरे द्वारा चंचल और फिरते हुए (बल खाते हुए) दोनों नेत्रों से जो (पुरूष) देखे गये है; उन पर उनकी यौवन-अवस्था नहीं प्राप्त होने पर भी (यौवन-काल नहीं पकने पर भी।) काम का वेग (काम-भावना) हठात् शीघ्र ही (बल-पूर्वक) आक्रमण करता है। यहां पर "शीघ्रता-वाचक-हठात्-वाचक" संस्कृत-शब्द "अवस्कन्द" के स्थान पर आदेश प्राप्त शब्द "दडवड" को प्रयुक्त किया गया है।
संस्कृत : यदि अर्घति व्यवसाय: छड़ अग्घइ ववसाउ हिन्दी :- यदि व्यापार सफल हो जाता है। इस गाथा-चरण में "यदि" अव्यय के स्थान पर "छुडु" अव्यय को स्थान दिया गया है। संस्कृत : गतः स केसरी, पिबत जलं निश्चिन्त हरिणाः!।।
__ यस्य संबन्धिना हुंकारेण, मुखेभ्यः पतन्ति तृणानि।।१५।। हिन्दी:-अरे हिरणों ! वह सिंह ( तो अब ) चला गया है; (इसलिये) तुम निश्चिंत होकर जल को पीओ। जिस (सिंह से) सम्बन्ध रखने वाली (भंयकर) गर्जना से-हुँकार से- (खाने के लिये मुंह में ग्रहण किये हुए) घास के तिनके (भी) मुखों से गिर जाते है; (ऐसी हुंकार वाला सिंह तो अब चला गया है)। इस गाथा में "सम्बन्धिना'' पद के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में "केर केरए" पद की अनुरूपता समझाई है।।१५।।।
संस्कृतः-अथ भग्ना अस्मदोया आ भग्गा अम्हं तणा-यदि हमारे से सम्बन्ध रखने वाले भाग गये हैं अथवा मर गये हैं। इस गाथा-पाद में “संबंध" वाचक अर्थ में "तणा" पद का प्रयोग किया गया है। यों अपभ्रंश भाषा में "संबंध-वाचक" अर्थ में "केर और तण" दोनों प्रकार के शब्दों का व्यवहार देखा जाता है। संस्कृत : स्वास्थावस्थानामालपनं सर्वोऽपि लोकः करोति।।
आर्तानां मा भैषीः इति यः सुजनः स ददाति।।१६।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 375 हिन्दी:-आनन्द पूर्वक स्वस्थ अवस्था में रहे हुए मनुष्यों के साथ तो प्रत्येक आदमी बातचीत करता ही है (और ऐसी ही रीति इस स्वार्थमय संसार की है); परन्तु दुखियों को जो ऐसी बात कहता है कि "तुम मत डरो'!; वही सज्जन है। "अभय वचन" कहने वाला पुरूष ही इस लोक में सज्जन कहलाता है। इस गाथा में "मा भैषीः" के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में "मब्भीसडी" की आदेश-प्राप्ति का विधान समझाया गया है।।१६।। संस्कृत : यदि रज्यसे यद् यद्-दृष्टं तस्मिन् हृदय ! मुग्ध स्वभाव !
लोहेन स्फुटता यथा धनः (=तापः ) सहिष्यते तावत्।।१७।। हिन्दी:-अरे मूर्ख-स्वभाव वाले हृदय ! यदि तू जिस जिस को देखता है, उस उसमें आसक्ति अथवा मोह करने लग जाता है तो तुझे उसी प्रकार से कष्ट और चोट सहन करनी पड़ेगी, जिस प्रकार कि दरार पड़े हुए-लोहे "अग्नि का ताप और धन की चोटें" सहन करनी पड़ती है।। इस गाथा में संस्कत-वाक्यांश- "यद-यद-दुष्टं, तत्-तत्" के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में "जाइटिआ-जाइटिअए" ऐसे पद-रूप की आदेश प्राप्ति का उल्लेख किया गया है।।१७।। ___ इस सूत्र में इक्कीस देशज शब्दों का प्रयोग समझाया गया है। इनमें सतरह शब्दों का उल्लेख तो गाथाओं द्वारा किया गया है और शेष चार शब्दों का स्वरूप गाथा-चरणों द्वारा प्ररूपित है।।४ - ४२२।।
हुहुरू-घुग्घादय शब्द-चेष्टानुकरणयोः।।४-४२३।। अपभ्रंशे हुहुर्वादयः शब्दानुकरणे घुग्घादयश्चेष्टानुकरणे यथासंख्यं प्रयोक्तव्याः।। मई जाणिउं बुड्डीसु हउं पेम्म-दहि हुहुरूत्ति।। नवरि अचिन्तिय संपडिय विप्पिय नाव झडत्ति।।१।। आदि ग्रहणात्। खज्जइ नउ कसरक्केहिं पिज्जइ नउ घुण्टेहि।। एम्वइ होइ सुह च्छडी पिएं दिढें नयणेहि।। इत्यादि। अज्जवि नाहु महुज्जि घरि सिद्धत्था वन्देइ।। ताउँजि विरहु गवक्खेहि मक्कड्डु-घुग्घिउ देइ।। ३।।
आदि ग्रहणात्।।
सिरि जर-खण्डी लोअडी गलि मणियडा न वीस।। तो वि गोट्ठडा कराविआ मुद्धए उट्ठ-बईस।।४।। इत्यादि।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में शब्दों के अनुकरण करने में अर्थात् 'ध्वनि' अथवा 'आवाज की नकल' करने में 'हुहुरू' इत्यादि ऐसे शब्द विशेष बाले जाते हैं और चेष्टा के अनुकरण करने में अर्थात् प्रवृत्ति अथवा कार्य की नकल करने में 'घुग्घ' इत्यादि ऐसे शब्द विशेष का उच्चारण किया जाता है। उदाहरण के रूप में दी गई गाथाओं का अनुवाद क्रम से यों है:संस्कृत : मया ज्ञातं मंक्ष्यामि अहं प्रेम-हृदे हुहुरू शब्दं कृत्वा।
केवलं अचिन्तिता संपतिता विप्रिया-नौः झटिति।।१।। हिन्दी:-मैंने सोचा था अथवा मैनें समझा था कि 'हुहुरू-हुहुरू' शब्द करके मैं प्रेम रूपी (प्रियतम-संयोग रूपी) तालाब में खूब गहरी डुबकी लगाऊंगी, परन्तु (दुर्भाग्य से-) बिना विचारे ही अचानक ही (पति के) वियोग रूपी नौका झट से (जल्दी से) आ समुपस्थित हुई।
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376 : प्राकृत व्याकरण
'वृत्ति में आदि' शब्द ग्रहण किया गया है; इससे अन्य शब्दों का अनुकरण करने रूप अनुवृत्ति की परिपाटी भी समझ लेना चाहिये, जैसे कि गाथा-संख्या द्वितीय में 'कसरक्क' शब्द एवं 'घुट' शब्द को ग्रहण करके इस बात की पुष्टि की गई है। उक्त गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : खाद्यते न कसरत्क शब्दं कृत्वा, पीयते न घुट् शब्दं कृत्वा।।
एवमपि भवति सुखासिका, प्रिये दृष्टे नयनाम्याम्।। २॥ हिन्दी:-प्रियतम को दोनों आँखों से देखने पर भी (पूर्ण तृप्ति का अनुभव नहीं होता है क्योंकि वह तृप्ति प्राप्त करने के लिये अन्य खाद्य पदार्थों के समान) न तो 'कसरक-कसरक' शब्द करके खाया ही जा सकता है और न 'घुट-घुट' शब्द करके पीया ही जा सकता है। फिर भी परम आनन्द और अत्यधिक सुख का यों अनुभव किया जा
सकता है।। २।।
चेष्टानुकरण के उदाहरण गाथा-संख्या तृतीय और चतुर्थ में दिये गये हैं; जिनका संस्कृत-अनुवाद सहित हिन्दी भाषान्तर क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : अद्यापि नाथः ममैव गृहे सिद्धार्थान् वन्दते।।
तावदेव विरहः गवाक्षेषु मर्कट-चेष्टां ददाति।। ३।। हिन्दी:- (मेरे प्राण-नाथ प्रियतम विदेश जाने की तैयारी कर रहे हैं और अभी वे स्वामी-नाथ-मेरे घर में ही (मंगलार्थ) सिद्ध-प्रभु की वंदना कर रहे हैं; फिर भी विरह (जनित दुःख की हुँकार) (मन रूपी) खिड़कियों में बन्दर-चेष्टाओं को (घुग्घ-घुग्घ जैसी पीड़ा-सूचक ध्वनियों को) प्रदर्शित कर रही है।। ३।।
'आदि' शब्द के ग्रहण करने से अन्य चेष्टा-सूचक शब्दों का संग्रहण भी समझ लेना चाहिये; जैसा कि गाथा-संख्या चतुर्थ में 'उट्ठ-बईस' शब्द का संग्रह किया हुआ है।। उक्त गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : शिरसि जरा खण्डिता लोम पुटी; गले मणयः न विंशतिः।।
तथापि गोष्ठस्थाः कारिताः मुग्धया उत्थानोपवेशनम्॥४॥ हिन्दी:-इस सुन्दरी के सिर पर जीर्ण-शीर्ण-(फटी-टुटी) कंबली मात्र पड़ी हुई है और गले में मुश्किल से बीस काँच की मणियां वाली कंठी होगी; फिर भी (देखो ! इसके आकर्षक सौन्दर्य के कारण से) इस मुग्धा द्वारा (आकर्षित होकर) कमरें में ठहरे हुए इन पुरूषों ने (कितनी बार) उठ-बैठ (इस मुग्धा को देखने के लिये) की है? इस गाथा में 'चेष्टा- अनुकरण' के अर्थ में 'उट्ठ-बईस' जैसे देशज शब्द का प्रयोग किया गया है। यों अपभ्रंश-भाषा में 'ध्वनि के अनुकरण करने में और चेष्टा के अनुकरण करने में अनेक देशज शब्दों का व्यवहार किया जाता हुआ देखा जाता है।।४-४२३||
घइमादयोऽनर्थकाः।।४-४२४।। अपभ्रंशे घइमित्यादयो निपाता अनर्थकाः प्रयुज्यन्ते।। अम्मडि पच्छायावडा पिउ कलहिअउ विआलि।। घई विवरीरी बुद्धडी होइ विणासहो कालि।।१।। आदि-ग्रहणात् खाई इत्यादयः।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में ऐसे अनेक अव्यय प्रयुक्त होते हुए देखे जाते हैं; जिनका कोई अर्थ नहीं होता है। ऐसे अर्थ-हीन दो अव्यय यहाँ पर लिखे गये हैं; जो कि इस प्रकार से है;-(१) घइं और (२) खाइ।। यों अर्थ हीन अन्य अव्ययों की स्थिति को भी समझ लेना चाहिये। उदाहरण के रूप में 'घई अव्यय का प्रयोग वृत्ति में दी गई गाथा में किया गया है। जिसका अनुवाद इस प्रकार से है:
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संस्कृत :
अम्ब ! पश्चात्तापः प्रियः कलहायितः विकाले || ( नूनं) विपरीता बुद्धिः भवति विनाशम्य काले ॥ १ ॥
हिन्दी :- हे माता ! मुझे अत्यन्त पश्चत्ताप है कि मैंने समय और प्रसंग का बिना विचार किये ही (रति- समय का खयाल किये बिना ही) अपने पति से झगड़ा कर डाला। सच है कि विनाश के समय में (विपत्ति आने के मौके पर) बुद्धि भी विपरीत हो जाती है; उल्टी हो जाती है || १ || इस गाथा में अर्थ-हीन अव्यय - शब्द ' घई' का प्रयोग किया गया है । 'आदि' शब्द के कथन से अन्य अर्थ हीन अव्यय शब्द 'खाइ' इत्यादि के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये। ऐसे शब्दों का प्रयोग पाद-वृत्ति के रूप में भी देखा जा सकता है ।। ४-४२४।।
तादर्थ्ये केहिं-तेहिं-रेसि - रेसिं-तणेणाः ।।४–४२५।।
अपभ्रंशे तादर्थ्ये द्योत्ये केहिं तेहिं रेसि रेसिं तणेण इत्येते पञ्च निपाताः प्रयोक्तव्याः ॥
ढोल्ला ऍंह परिहासडी अइ भण कवणहिँ देसि ||
झज्जउँ त केहिं पिअ ! तुहुँ पुणु अन्नहि रेसि ||
एवं तेहिं रेसि मावुदाहार्यो । वड्डत्तणहो तणेण ।।
अव्यय
अर्थ:-'तादर्थ्य' अर्थात् ' के लिये' इस अर्थ को प्रकट करने के लिये अपभ्रंश भाषा में निम्नोक्त पांच - शब्दों में से किसी भी एक अव्यय शब्द का प्रयोग किया जाता है। (१) केहिं के लिये, (२) तेहिं के लिये, (३) रेसि= के लिये, (४) रेसिं= के लिए (५) तणेण के लिये । उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:
(१) स्वर्गस्यार्थे त्वं जीव- दर्यो कुरू सग्गहो केहि करि जीव-दय-देवलोक के लिये जीव दया को करो ।
(२) कस्यार्थे परिग्रहः = कसु तेहिं परिगहु-किसके लिये परिग्रह (किया जाता है ) ।
(३) मोक्षस्यार्थे दमम् कुरू=मोक्खहो रेसि दमु करि=मोक्ष के लिये इन्द्रियों का दमन करो ।
(४)
| कस्यार्थे अलीकं = कासु तणेण अलिउ-किसके लिये झुठ (बोलता है ) ।
वृत्ति में आई हुई गाथा का अनुवाद यों है:
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संस्कृत : विट ! एष परिहासः अयि ! भण, कस्मिन् देशे ?
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 377
अहं क्षीणा तव कृते, प्रिय ! त्वं पुनः अन्यस्याः कृते ॥ १ ॥
हिन्दी:- हे नायक ! ( हे प्रियतम !) इस प्रकार का मज़ाक (परिहास -विनोद) किस देश में किया जाता है; यह मुझे कहो। मैं तो तुम्हारे लिये क्षीण (दुःखी) होती जा रही हूँ और तुम पुनः किसी अन्य (स्त्री) के लिये (दु:खी होते जा रहे हो) ।। इस गाथा में 'के लिये' ऐसे अर्थ में क्रम से 'केहिं' और 'रेसि' ऐसे दो अव्यय शब्दों का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है।
महत्त्वस्य कृते = वड्डत्तणहो तणेण = बड़प्पन (महानता ) के लिये । यों शेष दो अव्यय शब्द 'तेहिं और रेसि' के उदाहरणों की कल्पना भी स्वयमेव कर लेना चाहिये। ये अव्यय है, इसलिये इनमें विभक्ति-वाचक प्रत्ययों की संयोजना नहीं की जाती है । । ४ - ४२५ ।।
अपभ्रंशे पुनर्विना इत्येताभ्यां परः स्वार्थे डुः प्रत्ययो भवति ।। सुमरिज्जइ तं वल्लहँउ जं वीसरइ मणाउ ||
हिं पुणु सुमर जाउं गउं तहो नेहहो कई नाउ ॥ १ ॥ विण जुज्झें न वलाहुं ॥
पुनर्विनः स्वार्थे डुः ।।४-४२६।।
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378 : प्राकृत व्याकरण __ अर्थः-सूत्र-संख्या ४-४२६ से प्रारम्भ करके सूत्र-संख्या ४-४३० तक में स्वार्थिक प्रत्ययों का वर्णन किया गया है। शब्द में नियमानुसार स्वार्थिक प्रत्यय की संयोजना होने पर भी मूल अर्थ में किसी भी प्रकार की न्यूनाधिकता नहीं हुआ करती है। मूल अर्थ ज्यों का त्यों ही रहता है। इस सूत्र में यह बतलाया गया है कि संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'पनर और विना' अव्यय शब्दों में अपभ्रश भाषा के रूप में रूपान्तर होने पर 'ड' प्रत्यय की स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में अनुप्राप्ति हुआ करती है। स्वार्थिक प्रत्यय 'डु में स्थित 'डकार' वर्ण इत्-संज्ञक है; तदनुसार 'परर्-पुण' में स्थित अन्त्य 'अकार' की लोप होने पर तत्पश्चात् स्वार्थिक प्रत्यय के रूप 'उकार' वर्ण की प्राप्ति होकर 'पुणु' रूप बन जाता है। इसी प्रकार से 'विना' अव्यय शब्द में भी अन्त्य वर्ण 'अकार' का लोप होकर तथा स्वार्थिक प्रत्यय रूप 'उकार' वर्ण की संयोजना होने पर इसका रूप 'विणु' बन जाता है। उदाहरण क्रम से यों है:
(१) ये विना पुनः अवश्यं मुक्तिः न भवति जसु विणु पुणु सिवु अवसे न होइ-जिसके बिना फिर से अवश्य ही मुक्ति नहीं होती है।
इस उदाहरण में 'पुनः' के स्थान पर 'पुणु' लिखा हुआ है और ‘विना' के स्थान पर 'विणु' को जगह दी गई है। यों स्वार्थिक प्रत्यय 'डु-उ' की प्राप्ति होने पर भी इनके अर्थ में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है। यों सर्वत्र समझ लेना चाहिये। गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : स्मर्यते तद् वल्लभं, यद् विस्मर्यते मनाक्।।
यस्य पुनः स्मरणं जातं, गतं, तस्य स्नेहस्य किं नाम ?।।१।। हिन्दी:-जिसका थोड़ा सा विस्मरण हो जाने पर भी पुनः स्मरण कर लिया जाता है; तो ऐसा स्नेह भी प्रिय होता है; परन्तु जिसका पुनः स्मरण करने पर भी यदि उसे भूला दिया जाय तो वह 'स्नेह' नाम से कैसे पुकारा जा सकता है ? इस गाथा में 'पुनः' के स्थान पर स्वार्थिक प्रत्यय के साथ 'पुणु' अव्यय का प्रयोग समझाया है।
(२) बिना युद्धेन न वलामहे विणु जुज्झें न वलाहुं हम बिना युद्ध के (सुख पूर्वक) नहीं रह सकते हैं। इस गाथा-चरण में 'विना' की जगह पर 'विणु' अव्यय-रूप का प्रयोग किया गया है।।४-४२६ ।।
अवश्यमो डें-डौ।।४-४२७।। अपभ्रंशेऽवश्यमः स्वार्थे डें ड इत्येतो प्रत्ययौ भवतः। जिब्भिन्दिउ नायगु वसि करहु जसु अधिन्नई अन्नइ।। मूलि विण?इ तुबिणिहे अवसें सुक्कइं पणणइ।।१।। अवस न सुअहि सुहच्छिअहि।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध अवश्यम्' अव्यय का अपभ्रंश भाषा में रूपान्तर करने पर इसमें 'स्वार्थिक' प्रत्यय के रूप में 'डे और ड' ऐसे दो प्रत्ययों की संयोजना हुआ करती है। स्वार्थिक प्रत्यय 'डे और ड' में स्थित
वर्ण इत्संज्ञक होने से 'अवश्यम् अवस' में स्थित अन्त्य 'अकार' वर्ण लोप हो जाता है और तत्पश्चात् अवस्थित हलन्त 'अवस्' अव्यय में 'ए और अ' की क्रम से प्राप्ति होती है। जैसे:- अवश्यम्=अवसें और अवस-अवश्य-जरूर-निश्चय। उदाहरण के रूप में प्रदत्त गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : जिर्केन्द्रियं नायकं वशे कुरूत, यस्य अधीनानि अन्यानि।।
मूले विनष्टे तुम्बिन्याः अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि।।१।। हिन्दी:-जिसके अधीन अन्य सभी इन्द्रियाँ रही हुई हैं ऐसी नायक-नेता-रूप-जिह्वा-इन्द्रिय को अपने वश में करो; (क्योंकि इसको वश में करने पर अन्य सभी इन्द्रियाँ निश्चय ही वश में हो जाती है)। जैसे कि 'तुम्बिनी' नामक वनस्पति रूप पौधे की जड़ नष्ट हो जाने पर उसके पत्ते तो अवश्य ही सूख जाते हैं-नष्ट हो जाते हैं। इस गाथा में 'अवश्य' अव्यय के स्थान पर 'अवसें' रूप का प्रयोग करके इसमें 'डे-ऐं' अव्यय की स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में सिद्धि की गई है। 'अवस' का उदाहरण यों हैं:
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 379
संस्कृतः-अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायां अवस न सुअहि सुहच्छिअहिं-जरूर ही (निश्चय ही) वे सुख-शैय्या पर नहीं सोते है।। इस गाथा-चरण में 'अवश्यम्' के स्थान पर 'अवस' रूप का प्रयोग करते हुए यह प्रमाणित किया है कि 'अवश्यम्' अव्यय के रूपान्तर में स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'ड=अ' प्रत्यय की संयोजना होती है।।४-४२७।।
एकशसो डि।।४-४२८।। अपभ्रंशे एकशश्शब्दात् स्वार्थे डि भवति।। एक्कसि सील-कलंकि अहं देज्जहिँ पच्छित्ताइ।। जो पुणु खण्डइ अणुदिअहु, तसु पच्छित्ते काइ।।१।।
अर्थ:-'एक बार' इस अर्थ में कहा जाने वाला संस्कृत-अव्यय 'एक्शः' है। इसका रूपान्तर अपभ्रंश- भाषा में करने पर इसमें स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'डि' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डि' में 'डकार' इत्संज्ञक होने से 'एकशः-एक्कस अथवा इक्कस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अकार' का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् प्राप्त हलन्त रूप 'एक्कस् अथवा इक्कस्' में 'डि-इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर व्यवहार-योग्य रूप 'एक्कसि अथवा इक्कसि' की सिद्धि हो जाती है। जैसे:-एकश: एक्कसि और इक्कसि एक बार। गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : एकशः शीलकलकितानां दीयन्ते प्रायश्चित्तानि।।
___ यः पुनः खण्डयति अनुदिवसं, तस्य प्रायश्चित्तेन किम्।। हिन्दी:-जिन व्यक्तियों द्वारा एक बार शील-व्रत का खंडन किया गया है, उनके लिये प्रायश्चित रूप दंड का दिया जाना ठीक है; परन्तु जो व्यक्ति प्रतिदिन शील-व्रत का खण्डन करता है; उसके लिये प्रायश्चित रूप दंड का विधान करने से क्या लाभ है ? वह तो पूर्ण पापी ही है। यहाँ पर 'एकशः' के स्थान पर 'एक्कसि' शब्द रूप का प्रयोग किया गया है।।४-४२८।।
अ-डड-डुल्लाः स्वार्थिक-क-लुक् च।।४-४२९।। अपभ्रंशे नाम्नः परतः स्वार्थे अ, डड डुल्ल, इत्येते त्रयः प्रत्यया भवन्ति; तत्सन्नि-योगे स्वार्थे क प्रत्ययस्य लोपश्च।। विरहानल-जाल-करालिअउ, पहिउ पन्थि जं दिट्ठउ।। तं मेलवि सव्वहि।। पन्थिअहिं सो जि किअउ अग्गिट्ठर।। डउ। महु कन्तहो बे दोसडा।। डुल्ल। एक्क कुडुली पञ्चहि रूद्धी।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध संज्ञा-शब्दों का रूपान्तर अपभ्रंश भाषा में करने पर उनमें स्वार्थिक प्रत्ययों के रूप में तीन प्रत्ययों की प्राप्ति हुआ करती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है:- (१) अ, (२) डड और (३) डुल्ल। इन 'अ अथवा डड अथवा डुल्ल' प्रत्ययों की सं-प्राप्ति संज्ञा-शब्दों में हो सकती है। 'डड और डुल्ल' प्रत्ययों में अवस्थित अन्त्य स्वर का लोप हो जाता है और बाद में रहे हुए हलन्त संज्ञा-शब्दों में इन 'डड-अड' और 'डुल्ल-उल्ल' प्रत्ययों का संयोग किया जाता है। यों स्वार्थिक प्रत्ययों की संघटना की जाती है। जैसे:(१) भव-दोषौ-भव-दोसडा-जन्म-मरण रहना रूप संसार-दोषों का। यहाँ पर 'दोष' शब्द में अड' प्रत्यय की
प्राप्ति हुई है। (२) जीवितकं जीवियअउ जिन्दा रहना-प्राण धारण करना। यहाँ पर संस्कृत स्वार्थिक प्रत्यय 'क' का लोप होकर __ अपभ्रंश भाषा में स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। (३) काय-कुटी-काय-कुडुल्ली-शरीर रूपी झोंपड़ी। इसमें 'डुल्ल-उल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। यह 'कुटी'
शब्द स्त्रीलिंग वाचक होने से प्राप्त प्रत्यय 'डुल्ल-उल्ल में स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'ई' की प्राप्ति सूत्र-संख्या ४-४३१ से हुई है। वृत्ति में दिये उदाहरणों का अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:
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380 : प्राकृत व्याकरण
(१)संस्कृत :विरहानल-ज्वाला-करालितः पथिकः पथि यद् दृष्टः।।
तद् मिलित्वा सर्वैः पथिकैः स एव कृतः अग्निष्ठः।।१।। हिन्दी:- जब किसी एक यात्री को मार्ग में विरह रूपी अग्नि की ज्वालाओं से प्रज्वलित होता हुआ अन्य यात्रियों ने देखा तो सभी यात्रियों ने मिल करके उसको (मृत अवस्था को प्राप्त हुआ जान करके) अग्नि के समपर्ण कर दिया।
(२) मम कातस्य द्वौषौ-महु कन्तहो बे दोसडा-मेरे प्रियतम के दो दोष (त्रुटियाँ) है।। इस गाथा-चरण में 'दोसडा' पद में 'डड अड' इस स्वार्थिक प्रत्यय की प्राप्ति हुई है।
(३) एफा कुटी पश्चमिः रूद्धा-एक्क कुडुल्ली पञ्चेहि रूद्धी-एक (छोटी सी) झोंपड़ी पाँच से रूंधी (रोकी) गई है। इस गाथा-पाद में 'कुडुल्ली पद में 'डुल्ल उल्ल' ऐसे स्वार्थिक प्रत्यय की संयोजना हुई है।।४-४२९।।
योग जाश्चैषाम्॥४-४३०॥ अपभ्रंशे अडडडुल्लानां योगभेदेभ्यो ये जायन्ते डडअ इत्यादयः प्रत्ययाः ते पि स्वार्थे प्रायो भवन्ति।। डड। फोडेन्ति जे हिअडउं अप्पणउ।। अत्र 'किसलय' (१-२६९) इत्यादिना-यलुक्।। डुल्ल। चुडल्लउ चुन्नी होइ सइ।। डुल्लडड।
सामि-पसाउ सलज्जु पिउ सीमा-संधिहिं वासु॥ पेक्खिवि बाहु-बलुल्लडा धण मेल्लइ नीसासु।।१।। अत्रामि। "स्यादौ दीर्घ-हस्वौ" ( ४-४३०) इति दीर्घः। एवं बाहुबलुल्लडउ। अत्र त्रयाणां योगः।।
अर्थः-सूत्र-संख्या ४-४२९ में 'अ, डड, डुल्ल' ऐसे तीन स्वार्थिक प्रत्यय कहे गये है; तदनुसार अपभ्रंश भाषा में संज्ञाओं में कभी कभी इन प्रत्ययों में से कोई भी दो अथवा कभी-कभी तीनों भी एक साथ संज्ञाओं में जुड़े हुए पाये जाते हैं। यों किन्हीं दो के अथवा तीनों के एक साथ जुड़ने पर भी संज्ञाओं के अर्थ में कोई भी अन्तर नहीं पडता है। इस प्रकार से तीनों स्वार्थिक प्रत्ययों के योग से. समस्त रूप से तथा व्यक्त रूप से विचार करने पर कल स्वार्थिक प्रत्ययों की संख्या सात हो जाती है; जो कि क्रम से इस प्रकार लिखे जा सकते है:- (१) अ, (२) डड, (३) डुल्ल, (४) डडअ, (५) डुल्लअ, (६) डुल्लडड, (७) डुल्लडड। इनके उदाहरण इस प्रकार से हैं:
(१) ते कर्णका धन्याः ते धन्ना कन्नुल्लडा-वे कान धन्य है।। इस उदाहरण में 'डुल्लडड' प्रत्ययों की संप्राप्ति है। (२) तानि हृदयकानि कृतार्थानि-हियउल्ला ति कयत्थ-वे हृदय कृतार्थ (सफल) है।। इसमें 'अडल्ल' प्रत्यय है। (३) नवान् श्रतार्थान् धरन्ति नवुल्लडअ सुअत्थ धरहि-नूतन श्रुत-अर्थ (शास्त्र-तात्पर्य) को धारण करते है।।
इसमें तीनों स्वार्थिक प्रत्यय आये हैं: जो कि इस प्रकार से हैं:- डल्लडडअ-उल्लड।। वत्ति में आये हए उदाहरणों का स्वरूप क्रम से इस प्रकार है:(१) स्फोट्यतः यौ हृदयं आत्मीयं-फोडेन्ति जे हिअडउं अप्पणउं-जो (दोनों स्तन) अपने खुद के हृदय को
ही विदारण करते है।। इस चरण में 'हिअडउं' पद में 'डडउ' ऐसे दो स्वार्थिक प्रत्ययों की एक साथ
प्राप्ति हुई है। 'हृदय' शब्द में अवस्थित ‘यकार' का सूत्र-संख्या १-२६९ से लोप हुआ है। (२) कङ्कणं चूर्णी भवति स्वयं-चूडल्लउ चुन्नी होइ सइ (हाथ में पहिना हुआ) कंकण अपने आप ही टुकड़े
टुकड़े होकर चूर्ण रूप हुआ जाता है। इस गाथा-पाद में 'चुड्डल्लउं पद में 'डुल्लअ-उल्लअं' ऐसे दो
प्रत्ययों की प्राप्ति स्वार्थिक-प्रत्ययों के रूप में एक साथ हुई है। संस्कृत : स्वामि-प्रसादं सलज्जं प्रियं सीमासंधौ वासम्।।
प्रेक्ष्य बाहुबलं धन्या मुञ्चिति निश्वासम्।।१।। हिन्दी:-कोई एक नायिका विशेष अपने प्राण पति की इस प्रकार की स्थिति को देख करके अपने आपको धन्य-स्वरूप समझती हुई परम शांति के गम्भीर निश्वास लेती है कि उसके पति के प्रति सेनापति की कृपा-दृष्टि
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 381 है, उसका पति लज्जावान् है, वह (रणक्षेत्र के मोर्चे पर) देश के सीमान्त-भाग पर रहा हुआ है; और अपने प्रचंड बाहुबल का प्रदर्शन कर रहा है।
इस गाथा में 'बाहु-बलुल्लडा' पद में 'डुल्लडड-उल्लड' ऐसे दो स्वार्थिक-प्रत्ययों की संप्राप्ति एक साथ प्रदर्शित की गई है।। 'डुल्ल+डड'- इन दोनों प्रत्ययों में आदि में अवस्थित प्रत्येक 'डकार' वर्ण इत्संज्ञक है इसलिये इनका लोप हो जाता है और शेष रूप में 'उल्ल+अड' रहता है। तत्पश्चात् पुनः सूत्र-संख्या १-१० से 'ल्ल' में स्थित अन्त्य 'अकार' का भी लोप होकर तथा दोनों की संधि होकर 'उल्लड' प्रत्यय के रूप में इनकी स्थिति बनी रह जाती है। 'बाहु-बलुल्लडा' पद में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' की प्राप्ति सूत्र-संख्या ४-३३० के कारण से हुई है। जैसा कि उसमें उल्लेख है कि अपभ्रंश भाषा में संज्ञाओं में विभक्ति-वाचक प्रत्ययों की संयोजना होने पर प्रत्ययान्त-स्थित स्वर कभी हस्व से दीर्घ हो जाते हैं और कभी दीर्घ से हस्व भी हो जाते हैं।
(४) बाहु बलं बाहु-बलुल्लडउ भुजा के बल को। इस पद में 'डल्ल+डड+अ'-उल्ल+अड+अ-उल्लडअ' यों तीनों स्वार्थिक प्रत्ययों की एक साथ आगम-स्थिति स्पष्ट की गई है।अन्तिम स्वार्थिक प्रत्यय 'अ' में विभक्ति-वाचक प्रत्यय 'उ' की संयोजना होने से उसका लोप हो गया है।।४-४३०।।
स्त्रियां तदन्ताड्डीः ।।४-४३१।। अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानेभ्यः प्राक्तन-सूत्र-द्वयोक्त-प्रत्ययान्तेभ्यो डीः प्रत्ययो भवति।। पहिआ दिट्ठी गोरडी, दिट्ठी मग्गु निअन्त।।। अंसूसासेहिं कञ्चुआ तिंतुव्वाणं करन्त।।१।। एक कुडुल्ली पञ्चहिं रूद्वी।।
अर्थः-त्पर उल्लिखित सूत्र-संख्या ४-४२९ और ४ - ४३० में जिन प्रत्ययों की प्राप्ति का संविधान किया गया है; उन प्रत्ययों को यदि स्त्रीलिंग वाचक संज्ञाओं में जोड़ा जाय तो ऐसी स्थिति में उन प्रत्ययों के अन्त में अपभ्रंश-भाषा में 'डी-ई' प्रत्यय की विशेष-प्राप्ति (स्त्रीलिंग-अवस्था में) हुआ करती है। उपरोक्त रीति से प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'डकार' वर्ण इत्संज्ञक है, तदनुसार उन स्त्रीलिंग-वाचक संज्ञाओं में जुड़े हुए स्वार्थिक प्रत्ययों में अवस्थित अन्तिम स्वर का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् हलन्त रूप से रहे हुए उन स्वार्थिक प्रत्ययों वाले संज्ञा शब्दों में इस 'ई' प्रत्यय की संधि योजना होकर वे संज्ञा-शब्द ईकारान्त स्त्रीलिंग वाले हो जाते हैं।
(१) जैसेः-गौरी-गोर+डड-(अड) +ई-गोरडी-पत्नी। (२) कुटी-कुडी+डुल्ल+ई=कुडुल्ली-झोंपड़ी। पुरी गाथा का अनुवाद यों हैं:(१)संस्कृत :पथिक ! दृष्टा, गौरी दृष्टा मार्गमवलोकयन्ती।
अश्रूच्छ्वासैः कञ्चुकं तिमितोद्वानं (आद्र शुष्क) कुर्वती।। हिन्दी:-विदेश में अवस्थित कोई विरही यात्री से पूछता है कि-'अरे मुसाफिर ! क्या तुमने मेरी पत्नी को देखा था ?' इस पर वह उत्तर देता है कि-'हाँ' देखी थी। वह उस मार्ग को टकटकी लगा कर देख रही थी, जिस (मार्ग) से कि तुम्हारे आगमन की सम्भावना थी। तुम्हारे वियोग में वह अपने अश्रु-जल से अपनी कंचुकी को भीगो रही थी तथा पुनः वह भीगी हुई कंचुकी उसके ऊंचे-ऊंचे और गरम श्वासोच्छ्वास से सूखती भी जाती है। ऐसी अवस्था में मैंने तुम्हारी गोरडी-पत्नी को देखा था।।१।।
(२) एका कुटी पञ्चभिः रूद्धा-एक कुडुल्ली पनचहिं रूद्धी एक छोटी सी झोंपडी और वह भी पाँच के द्वारा रूंधी हुई है।।४-४३१।।
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382 : प्राकृत व्याकरण
आन्तान्ताड्डाः ।।४-४३२॥ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानादप्रत्ययान्त-प्रत्ययान्तात् डा प्रत्ययो भवति।। ड्यपवादः।। पिउ आइउ सुअ वत्तडी झुणि कन्नडइ पइट्ट।। तहो विरहहो नासन्त अहो धूलडिआ वि न दिट्ट।।१।।
अर्थः-अपभ्रंश-भाषा में स्त्रीलिंग में रहे हुए संज्ञा शब्दों में स्वार्थिक प्रत्यय लगने के पश्चात् (स्त्रीलिंग-बाधक प्रत्यय) 'डा=आ' प्रत्यय की प्राप्ति (भी) होती है। 'डा' प्रत्यय में अवस्थित 'डकार' वर्ण इत्संज्ञक होने से स्वार्थिक प्रत्यय से संयोजित स्त्रीलिंग शब्दो के अन्त्य स्वर का लोप होकर तत्पश्चात् ही 'आ' प्रत्यय जुड़ता है। यह 'डा आ' प्रत्यय उपरोक्त सूत्र-संख्या ४-४३१ के प्रति अपवाद्-सूचक स्थिति वाला है। जैसे:
(१) वार्तिका=वत्तडिआ बात।
(२).धूलिः धूलडिआ धूलि-रजकण। इन उदाहरणों में 'डा=आ' प्रत्यय की संप्राप्ति देखी जाती है। गाथा का पूरा अनुवाद यों हैं:संस्कृत : प्रियः आयातः, श्रुता वार्ता, ध्वनिः कर्णे प्रविष्टः।।
तस्य विरहस्य नश्यतः, धूलिरपि न दृष्टा।।१।। हिन्दी:-प्रियतम प्राणपति लौट आये हैं; (ऐसे) समाचार मैंने सुने है।। उनकी आवाज भी मेरे कानों में पहुँची है। (इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न होने पर ) उनके विरह से उत्पन्न हुए दुख के नाश हो जाने से (अब उस दुःख की) धूलि भी (अर्थात् सामान्य अंश भी) दृष्टि-गोचर नहीं हो रहा है। (अब वह दुःख पूर्णतया शान्त हो गया है)।।४-४३२।।
अस्येदे।।४-४३३।। अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानस्य नाम्नो योकारस्तस्य आकारे प्रत्यये परे इकारो भवति।। धूलडिआ वि न दिट्ठ।। स्त्रियामित्येव। झुणि कन्नडइ पइट्ट।।
अर्थ:-अपभ्रंश-भाषा में स्त्रीलिंग वाले संज्ञा शब्दों के अन्त में अवस्थित 'अकार' को 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होने के पूर्व 'इकार' वर्ण की प्राप्ति हो जाती है। अर्थात् अन्त्य अकार 'आ' के पहिल 'इकार' में बदल जाता है। जैसे:- धूलि:-धूलि डड-धूलड; धूलड+आ-धूलडिया। यहाँ पर 'धूलड' शब्द में अन्त्य अकार' को 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'इकार' वर्ण की प्राप्ति हो गई है। (पूरे गाथा-चरण के लिये सूत्र-संख्या ४-४३२ देखें।)
प्रश्नः- वृत्ति में ऐसा क्यों लिखा गया है कि स्त्रीलिंगवाले शब्दों में ही 'अकार' को 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति के पूर्व 'इकार' वर्ण की प्राप्ति होती है? ___ उत्तरः-यदि स्त्रीलिंगवाले शब्दों के अतिरिक्त पुल्लिंग अथवा नपुंसकलिंग वाले शब्द होगें तो उनमें अवस्थित अन्त्य 'अकार' को 'इकार' की प्राप्ति नहीं होगी। __ जैसे:-ध्वनिः कर्णे प्रविष्टः-झुणि कन्नडइ पइटु आवाज कान में प्रविष्ट हुई। यहाँ पर 'कन्नड' शब्द में अन्त्य 'अकार' को 'इकार' की प्राप्ति नहीं हुई है।।४-४३३
युष्मदादेरीयस्य डारः॥४-४३४।। अपभ्रंशे युष्मदादिभ्यः परस्य ईय प्रत्ययस्य डार इत्यादेशो भवति।। संदेसें काई तुहारेण, जं सङगहो न मिलिज्जइ।। सुइणन्तरि पिएं पाणिएण पिअ! पिआस किं छिज्जइ।।१।। दिक्खि अम्हारा कन्तु। बहिणि महारा कन्तु।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 383 'हम तुम,
अर्थ:-संस्कृत-भाषा में 'वाला' अर्थ में 'ईय' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है; यह 'ईय' प्रत्यय ' मैं तू, वह और वे' इन पुरूष- बोधक सर्वनामों के साथ में जुड़ा करता है और ऐसा होने पर 'हमारा, तुम्हारा, मेरा, तेरा, उसका और उनका ऐसा अर्थ-बोध प्रतिध्वनित होता है । यों इस अर्थ में अपभ्रंश भाषा में इस 'ई' प्रत्यय के स्थान पर उपरोक्त पुरूष-बोधक सर्वनामों के साथ में 'डार' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डार' में अवस्थित आदि 'डकार' वर्ण इत्संज्ञक होने से उन पुरूष - बोधक सर्वनामों में स्थित अन्त्य स्वर का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् ही शेष रहे हुए उन हलन्त सर्वनामों में 'डार - आर' प्रत्यय की संयोजना हुआ करती है। जैसे:-अम्हारउँ- मेरा । हमारा । युष्मदीयम् - तुम्हारउँ = तुम्हारा । त्वदीयम् = तुहारउँ-तेरा। मदीयम्-अम्हारउँ-मेरा । गाथा का अनुवाद यों है:
-
संस्कृत :
संदेशेन किं युष्मदीयेन, यत्संगाय न मिल्यते ।
स्वप्नान्तरे पीतेन पानीयेन, प्रिय ! पिपासा किं छिद्यते ॥ १ ॥
हिन्दी:-तुम्हारे संदेश से क्या (लाभ) है ? जबकि (संदेश मात्र से तो) तुम्हारे समागम की प्राप्ति (परस्पर में मिलने से होने वाले लाभ की प्राप्ति तो) नहीं होती है। जैसे कि हे प्राणतम प्रियजत! स्वप्न में जल - पान करने से क्या प्यास मिट सकती है? इस गाथा में 'युष्मदीयेन' पद के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'तुहारेण' पद का प्रयोग करके 'डार - आर' प्रत्यय की साधना की गई है || १ ||
(२) पश्य अरमदीयम् कान्तम् = दिक्खि अम्हारा कन्तु हमारे पति को देखो । यहाँ पर भी 'अस्मदीयम्' के स्थान पर 'अम्हारा' पद को प्रस्थापित करके 'डार - आर' प्रत्यय की सिद्धि की गई है।
(३) भगिनि! अस्मदीय : कान्तः - बहिणि ! महारा कन्तु - महारा कन्तु -हे बहिन ! मेरे पति । इस उदाहरण में 'महारा' पद में 'आर' प्रत्यय आया हुआ है । यों सर्वत्र 'डार-आर' प्रत्यय की स्थिति को समझ लेना चाहिये ।।४-४३४।।
अतोर्डेत्तुलः।।४-४३५ ।।
अपभ्रंशे इदं-किं-यत्-यद् - एतद्भ्यः परस्य अतोः प्रत्ययस्य डेत्तुल इत्यादेशौ भवति ।।
तुलो | केतुलो । जेत्तुलो। एत्तुलो ।।
अर्थः- संस्कृत- सर्वनाम शब्द 'इदम् ' किम्, यत् और एतत्' में जुड़ने वाले परिमाण - वाचक प्रत्यय 'अतु-अत्' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'डेत्तुल' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'डेत्तुल' में 'डकार' 'वर्ण' इत्संज्ञक है; तदनुसार इस 'डेत्तुल= एत्तुल' प्रत्यय की प्राप्ति होने के पूर्व उक्त सर्वनामों में रहे हुए अन्त्य हलन्त व्यजन का तथा उपान्त्य स्वर का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् ही शेष रूप से रहे हुए हलन्त शब्दों में इस 'एतुल' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे कि:- ( १ ) इयत् = एत्तुलो = इतना । (१) कियत् = केत्तुलो = कितना । (३) यावत्-जेत्तुलो=जितना। ( ४ ) तावत् - तेत्तुलो = उ - उतना और ( ५ ) एतावत् = एत्तुलो-इतना । । ४ - ४३५ ।। त्रस्य डेत्तहे ॥ ४-४३६।।
अपभ्रंशे सर्वादेः सप्तम्यन्तात् परस्य त्र प्रत्ययस्य डेत्तहे इत्यादेशौ भवति ।। एत तेत्त वारि घरि लच्छि निसण्ठुल धाइ ॥
पिअ - पब्भट्ट व गोरडी निच्चल कहिं वि न ठाइ ॥ १ ॥
अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध सर्वनाम शब्दों में सप्तमी बोधक जो 'त्रप्' प्रत्यय लगता है; उस 'त्रप्' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'डेत्तहे' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डेत्तहे' में अवस्थित 'डकारवर्ण' इत्संज्ञावाला है; तदनुसार इस 'डेत्तहे' प्रत्यय की संप्राप्ति होने के पूर्व सर्वनाम शब्दों में स्थित अन्त्य व्यजन का और उपान्त्य स्वर का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् ही इस 'डेत्तहे= एत्तेहे' प्रत्यय का संयोग होता है । जैसे:
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384 : प्राकृत व्याकरण
(१) सर्वत्र-सव्वेत्तहे सब स्थानो पर। (२) कुत्र-केत्तहे-कहाँ पर। (३) यत्र-जेत्तहे-जहाँ पर। (४) तत्र-तेत्तहे-वहाँ पर। (५) अत्र-एत्तहे यहाँ पर। गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : अत्र तत्र द्वारो गृहे लक्ष्मीः विसंष्ठुला भवति।।
___प्रिय-प्रभ्रष्टे गौरी निश्चला कापि न तिष्ठति।। हिन्दी:-जैसे पति से भ्रष्ट हुई स्त्री कहीं पर भी स्थिर होकर निश्चल रूप से नहीं ठहरती हैं; वैसे ही अस्थिर प्रकृतिवाली लक्ष्मी भी घर-घर में और द्वार-द्वार पर यहाँ वहां घूमती रहती है। इस गाथा में 'अत्र', 'तत्र' शब्दों के स्थान पर 'एत्तहे और तेत्तहे' शब्दों का प्रयोग करते हुए 'त्रप' प्रत्यय के स्थान पर आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'डेतहे एत्तहे' की साधना की गई है। इस 'डत्तहे एत्तहे' प्रत्यय की सर्वनाम-शब्दों में संप्राप्ति होने के पश्चात् ये शब्द अव्यय रूप हो जाते हैं; यह बात ध्यान में रहनी चाहिये।।४ - ४३६।।
त्व-तलोः प्पणः।।४-४३७।। अपभ्रंशे त्व तलोः प्रत्ययोः प्पण इत्यादेशौ भवति।। वड्डप्पणु परि पाविअइ।। प्रायोधिकारात्। वड्डत्तणहो तणेण।।
अर्थः-ग्रंथकार ने अपने संस्कृत-व्याकरण में (हेम७-१ में) भाव-वाचक अर्थ में 'त्व और तल्' प्रत्ययों की प्राप्ति का संविधान किया है; उन्हीं 'त्व और तल्' प्रत्ययों के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'प्पण' प्रत्यय की आदेश होती है। जैसे:- भद्रत्वं भल्लप्पणु=भद्रता-सज्जनता। (२) महत्त्व पुनः प्राप्तये वड्डप्पणु परि पाविअइ-बड़प्पन तभी प्राप्त किया जा सकता है। इन उदाहरणों में 'त्व' के स्थान पर 'प्पण' प्रत्यय को प्रस्थापित किया है। अपभ्रंश में अनेक नियम ऐसे हैं, जोकि 'प्रायः करके लागू हुआ करते हैं; तदनुसार 'प्पण' प्रत्यय के स्थान पर प्रायः करके 'तण' प्रत्यय (२-१५४ के अनुसार) भी आया करता है। जैसे:- (१) भद्रत्वम्भ ल्लत्तणु-भद्रता-सज्जनता। (२) महत्त्वस्य कृते वड्डत्तणहो तणेण-बड़प्पन प्राप्त करने के लिये। यों 'प्पण' और 'त्तण' दोनों प्रत्ययों की प्राप्ति 'त्व तथा तल्' प्रत्ययों के स्थान पर देखी जाती है।।४-४३७||
तव्यस्य इएव्वउं एव्वउँ एवा।।४-४३८।। अपभ्रंशे तव्य प्रत्ययस्य इएव्वउं एव्वउं एवा इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति।। एउ गृणहेप्पिणु धुं मई जइ प्रिउ उव्वारिज्जइ।। महु करिएव्वउं किं पि णवि मरिएव्वउं पर देज्जइ।।१।। देसुच्चाडणु सिहि-कढणु घण-कट्टणु जं लोइ।। मंजिट्टए अइरत्तिए सव्वु सहेव्वउँ होइ।। २।। सोएवा पर वारिआ, पुप्फवईहिं समाणु।। जग्गेवा पुणु को धरइ, जइ सो वेउ पमाणु।। ३।।
अर्थः-'चाहिये' इस अर्थ में संस्कृत-भाषा में 'त्तव्य' की प्राप्ति होती है; इस अर्थ में प्राप्त होने वाले 'त्तव्य' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में तीन प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति हुआ करती है; जो कि क्रम से इस प्रकार है:
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 385
(१) इएव्वउं, (२) एव्वउं और (३) एवा। जैसे:-कर्त्तव्यम् करिएव्वउं, करेव्वउं और करेवा करना चाहिये। तीनों प्रत्ययों को समझाने के लिये वृत्ति में जो गाथाएं दी गई हैं, उनका अनुवाद क्रम से यों है:संस्कृत : एतद् गृहीत्वा यन्मया यदि प्रियः उद्वार्यते।।
मम कर्तव्यं किमपि नापि मर्तव्यं परं दीयते।।१।। हिन्दी:-(कोई सिद्ध पुरूष-विशेष अपनी विद्या की सिद्धि के लिये किसी नायिका-विशेष को धन आदि देकर उसके बदले में बलिदान के लिये उसके पति को लेना चाहता है; इस पर वह नायिका कहती है कि) यदि यह (धन-संपत्ति) ग्रहण करके में अपने पति का परित्याग कर देती हूँ तो फिर मेरा कुछ भी कर्त्तव्य शेष नहीं रह जाता है, सिवाय इसके कि मैं मृत्यु का आलिंगन कर लूँ। अर्थात् तत्पश्चात् मुझे मर जाना ही चाहिये। इस गाथा में कर्त्तव्यं
और मर्त्तव्यं' पदों में आये हुए 'तव्यं' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में 'इएव्वउं' आदेश-प्राप्त प्रत्यय का प्रयोग किया गया है और ऐसा करते हुए 'करि-एव्वउं और मरिएव्वउं' पदों का निर्माण किया गया है।।१।। संस्कृत : देशोच्चाटनं, शिखि-कथनं, धन-कुट्टनं यद् लोके।।
मञ्जिष्ठया अतिरक्तया, सर्व सोढव्यं भवति।। २।। हिन्दी:-मंजिष्ठ नाम वाला एक पौधा होता है, जो कि अत्यधिक लाल वर्ण वाला होता है और इस लालिमा के कारण से ही वह जन साधरण द्वारा आकर्षित किया जाकर सर्व प्रथम तो जड़-मूल से ही उखाड़ा जाता है और तत्पश्चात् अग्नि पर क्वाथ के रूप में खूब ही पकाया जाता है; एवं इसके बाद 'रंग-प्राप्ति के लिये लोहे के भारा घन से कूटा जाता है; यों अपनी रक्त-वर्णता के कारण से उसे सब-कुछ सहन-करने योग्य स्थिति बनना पडता है।
इस गाथा में संस्कृत-पद 'सोढव्यं के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में 'सहेव्वउं पद का प्रयोग करते हुए यह समझाया गया है कि 'तव्यं' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में द्वितीय प्रत्यय 'एव्वउं' की आदेश-प्राप्ति हुई है।। २।। संस्कृत : स्वपितव्यं परं वारितं पुष्पवतीभिः समानम्।।
जागरितव्यं पुनः कः धरति ? यदि स वेदः प्रमाणम्।। ३।। हिन्दी:-ऋतुमती स्त्रियों के साथ 'सोना चाहिये' इसका निषेध किया गया है। तो फिर ऐसा कौन है? जिसको जागता हुआ रहना चाहिये। इसके लिये वेद ही प्रमाण-स्वरूप है। इस गाथा में 'स्वपितव्यं और जागरितव्यं' पदों में आये हुए 'तव्यं' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में तृतीय प्रत्यय 'एवा' का प्रयोग करते हुए 'सोएवा और जग्गेवा' पद-रूपों का निर्माण किया गया है।। ३।।
यों संस्कृत-प्रत्यय 'तव्यं' के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में उक्त प्रकार से तीन प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति की स्थिति को समझ लेना चाहिये। 'चाहिये' अर्थक इस कृदन्त का संस्कृत-व्याकरण में 'विधि-कृदन्त' के नाम से उल्लेख किया जाता है। अग्रेजी में इसको (Potential Passples Participles) कहते है।।४-४३८।।
क्त्व इ-इउ-इवि-अवयः।।४-४३९।। अपभ्रंशे कत्वा प्रत्ययस्य इ इउ अवि इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति।। इ।। हिअडा जइ वेरिअ, धणा तो किं अब्भि चडाहु।।
अम्हाहिं बे हत्थडा जइ पुणु मारि मराहुं॥१॥ इउ। गय-घड भज्जिउ जन्ति।। इवि।। रक्खइ सा विस-हारिणी, बे कर चुम्बिवि जीउ।। पडिविम्बिअ-मुंजालु जलु जेहिं अहोडिअ पीउ।। २।।
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386 : प्राकृत व्याकरण
अवि।। बाह विछोडवि जाहि तुहुं, हउं तेवइ को दोसु।। हिअय-ट्टिउ जइ नीसरहि जाणउं मुञ्ज सरोसु।। ३।।
अर्थ:-'करके' इस अर्थ में सम्बन्ध कृदन्त का विधान होता है। यह कृदन्त विश्व की सभी अर्वाचीन और प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध है। संस्कृत और अपभ्रंश आदि भाषाओं में भी नियमानुसार इसका अस्तित्व है। तदनुसार संस्कृत-भाषा में इस अर्थ में 'क्त्वा' प्रत्यय का संविधान होता है और अपभ्रंश भाषा में इस 'कत्वा' प्रत्यय के स्थान पर आठ प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है; इन आठ प्रत्ययों में से चार प्रत्ययों की व्यवस्था तो इसी सूत्र में की गई है और शेष चार प्रत्ययों का संविधान सूत्र-संख्या ४-४४० में पृथक-रूप से किया गया है। इसमें यह कारण है कि वे शेष चार प्रत्यय संबंध-कृदन्त में भी प्रयुक्त होते हैं और हेत्वर्थ-कृदन्त में भी काम में आते हैं; यों उनकी स्थिति उभय रूप वाली है इसलिये उनका विधान पृथक् सूत्र की रचना करके किया गया है। इस सूत्र में सबंध-कृदन्त के अर्थ में जिन चार प्रत्ययों की रचना की गई है। वे क्रम से इस प्रकार हैं:
(१) इ, (२) इउ (३) इवि और (४) अवि।। जैसे:-कृत्वा=(१) करि, (२) करिउ, (३) करिवि और (४) करवि-करके! लब्ध्वा =(१) लहि, (२) लहिउ, (३) लहिवि और (४) लहवि-प्राप्त करके-पा करके। वृत्ति में चारों प्रत्ययों को समझाने के लिये चार गाथाऐं उद्धृत की गई है। उनका अनुवाद क्रम से यों हैं:संस्कृत : हृदय ! यदि वैरिणो घनाः, तत् कि अभ्रे आरोहाभः।।।
अस्माकं द्वौ हस्तौ यदि पुनः मारयित्वा भ्रियामहे ।।१।। हिन्दी:- हे हृदय ! यदि ये मेघ (बादल-समूह) (विरह-दुःख उत्पादक होने से) शत्रु रूप हैं तो क्या इन्हे नष्ट करने के लिये आकाश में ऊपर चढ़े? अरे ! हमारे भी दो हाथ हैं, यदि मरना ही है तो प्रथम शत्रु को मार करके पीछे हम मरेंगे।।१।। इस गाथा में 'मारयित्वा' पद के स्थान पर 'मारि' पद का उपयोग करते हुए क्त्वा' प्रत्यय के अर्थ में अपभ्रंश में 'इ' प्रत्यय का प्रयोग समझाया गया है।।
(२) संस्कृतः-गज-घटान् भित्त्वा गच्छन्ति गय-घड भज्जिउ जन्ति-हाथियों के समूह को भेद कर के जाते हैं।। यहाँ पर 'भित्त्वा' के स्थान पर 'भज्जिउ' लिख करके द्वितीय प्रत्यय 'इउ' का स्वरूप प्रदर्शित किया गया है। संस्कृत : रक्षति सा विषहारिणी, द्वौ करौ चुम्बित्वा जीवम्।।
प्रतिबिम्बित मुजालं जलं, याभ्यामनघगहितं पीतम्॥ ३॥ हिन्दी:-(जिसके आलिंगन करने से काम-विकार रूप विष दूर होता है ऐसी) विष को हरण करने वाली वह नायिकाविशेष अपने दोनों हाथों का चुम्बन करके अपने जीवन की रक्षा कर रही है। क्योंकि इन दोनों हाथों ने जल के अन्दर डूबकी लगाये बिना ही उस जल का पान किया है। जिसमें कि मुञ्ज राजा का (अथवा मुञ्ज नामक घास विशेष का) प्रतिबिम्ब पड़ा है। इस छंद में 'चुम्बित्वा' पद में रहे हुए संबंध-कृदन्त वाचक प्रत्यय ‘क्त्वा' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'चुम्बिवि' पद का निर्माण करके तदर्थक 'इवि' प्रत्यय का संयोग सूचित किया गया है।। ३।। संस्कृत : बाहू विच्छोट्य याहि तवं, भवतु तथा को दोषः ?
हदय स्थितः यदि निः सरसि, जानामि मुजः सरोषः।।४।। हिन्दी:-अरे मुञ्ज ! यदि तुम भुजाओं को छुड़ा करके जाते हो तो इससे कौन सा दोष है ? अथवा कौनसी हानि है ? क्योंकि तुम मेरे हृदय में बसे हुए हो और ऐसा होने पर यदि तुम मेरे हृदय में से निकल कर भागो तो मैं जानूँ कि मुञ्ज मुझसे रूष्ट है। यहाँ पर संबंध कृदन्त-अर्थ में 'विच्छोट्य' पद आया हुआ है; जिसको भाषान्तर अपभ्रंश भाषा में 'विछोडवि' पद के रूप में किया है और ऐसा करते हुए संबंध-कृदन्त-अर्थ-वाचक-प्रत्यय 'अवि' का प्रयोग किया गया है।।४।। यों चारों प्रकार के प्रत्ययों की स्थिति को समझ लेना चाहिये।।४-४३९।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 387
एप्प्येप्पिण्वेव्येविणवः।।४-४४०।। अपभ्रंशे क्त्वा प्रत्ययस्य एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविणु इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति। जेप्पि असेस कसाय-बल देप्पिणु अभउ जयस्सु।। लेवि महव्वय सिवु लहहिं झाएविणु तत्तस्सु।।१।। पृथग्योग उत्तरार्थः।
अर्थ:-इस सूत्र में भी संबंध-कृदन्त-वाचक प्रत्ययों का ही वर्णन है। ये प्रत्यय हेत्वर्थ-कृदन्त के अर्थ में भी प्रयुक्त होते है; इसलिये इन प्रत्ययों को एक साथ पूर्व-सूत्र में नहीं लिखते हुए पृथक्-सूत्र के रूप में इनका विचार किया गया है। इस अर्थ को प्रदर्शित करने के लिये वृत्ति में 'पृथक-योग' और 'उत्तरार्थः' ऐसे दो पद खास तौर पर दिये गये हैं। 'पृथक्-योग' का तात्पर्य यही है कि इन प्रत्ययों का सम्बन्ध अन्य कृदन्त (अर्थात् हेत्वर्थ-कृदन्त। के लिये भी है।। 'उत्तरार्थः' पद का यह अर्थ है कि इन प्रत्ययों का वर्णन और सम्बन्ध आगे के सूत्र में भी जानना। यों संबंध कृदन्त के अर्थ में (और हेत्वर्थ-कृदन्त के अर्थ में भी) जो चार प्रत्यय (विशेष) होते हैं, वे क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) एप्पि, (२) एप्पिणु, (३) एवि और (४) एविणु। जैसे:- कृत्वा करेप्पि, करेप्पिणु, करेविणु और करेवि-करके। (हेत्वर्थ-कृदन्त के अर्थ में 'करने के लिये' ऐसा तात्पर्य उद्भूत होगा)। वृत्ति में जो गाथा उद्धृत की गई है, उसमें उक्त प्रत्ययों को क्रम से इस प्रकार से व्यक्त किया है:
(१) जित्वा-जेप्पि-जीत करके। (२) दत्त्वा=देप्पिणु-दे करके। (३) लात्वा-लेवि-ले करके अथवा ग्रहण करके। (४) ध्यात्वा-झाएविणु ध्यान करके-चिंतन करके। पूरी गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : जित्वा अशेशं कषाय-बलं, दत्त्वा अभयं जगतः।।
लात्वा महाव्रतं शिवं लभन्ते ध्यात्वा तच्वम्।।१।। हिन्दी:-भव्य प्राणी अथवा मुमुक्षु प्राणी सर्व प्रथम सम्पूर्ण कषाय-समूह को जीत करके, तत्पश्चात् विश्व-प्राणियों को अभयदान देकर के एवं महाव्रतों को ग्रहण करके अन्त में वास्तविक द्रव्य रूप तत्त्वों का ध्यान करके मोक्ष-पद को प्राप्त कर लेते है।।४-४४०।।
तुम एवमणाणाहमणहिं च॥४-४४१।। अपभ्रंशे तुमः प्रत्ययस्य एवं, अणु, अणहं, अणहिं इत्येते चत्वारः, चकारात् एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविणु इत्येते, एवं चाष्टावादेशा भवन्ति।।
देवं दुक्करू निअय-धणु करण न तउ पडिहाइ।। एम्वइ सुहु भुञ्जणह, मणु पर भुञ्जणहिं न जाइ।।१।। जेप्पि चएप्पिणु सयल धर लेविणु तवु पालेवि।। विणु सन्ते तित्थेसरेण, को सक्कइ भुवणे वि।। २।।
अर्थ:-'के लिये इस अर्थ में हेत्वर्थ-कृदन्त का प्रयोग होता है और यह कृदन्त भी विश्व की सभी भाषाओं में पाया जाता है; तदनुसार संस्कृत-भाषा में इस कृदन्त के निर्माण के लिये 'तुम्' प्रत्यय का विधान किया गया है
और इस प्राप्त प्रत्यय 'तुम' के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में आठ प्रत्ययों का संविधान किया गया है, जो कि आदेशप्राप्ति के रूप में कहे जाते हैं; वे आदेश-प्राप्त आठों ही प्रत्यय क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) एवं, (२) अण, (३)
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388 : प्राकृत व्याकरण
अहं, (४) अणहिं, (५) एप्पि, (६) एप्पिणु (७) एवि और (८) एविणु । इन आठ प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय को धातु में जोड़ देने पर उसका 'के लिये' ऐसा अर्थ प्रतिध्वनित हो जाता है। जैसे :- (१) त्यक्तुं = चएवं = छोड़ने के लिये । (२) भोक्तुं भुञजण - भोगने के लिये। (३) सेवितुं - सेवणहं-सेवा करने के लिये । (४) मोक्तुं मुञ्चणहिं=छोड़ने के लिये। (५) कर्त्तुम्=करेवि=करने के लिये । (६) = करेविणु-करने के लिये। (७) कर्तु करेप्पि और (८) करेप्पिणु = करने के लिये । वृत्ति में प्रदत्त गाथाओं में उपरोक्त आठों प्रकार के प्रत्ययों का प्रयोग क्रम से यों किया गया है:
(१)' एवं ' प्रत्यय; दातुं देवं = देने के लिये ।
(२) 'अण' प्रत्यय; कर्तु = करण = करने के लिये ।
(३) 'अणहं' प्रत्यय; भोक्तुं भुञ्जणहं भोगने के लिये ।
(४) 'अणहिं' प्रत्यय; भोक्तुं भुञ्जणहिं भोगने के लिये । (५) 'एप्पि' प्रत्यय; जेतुं - जेप्पि= जीतने के लिये ।
(६) ‘एप्पिणु' प्रत्यय; त्यक्तुं चएप्पिणु छोड़ने के लिये । (७) 'एवि' प्रत्यय; पालयितुम् = पालेवि = पालन करने के लिये । (८) 'एविणु' प्रत्यय; लातुं - लेविणु = लेने के लिये ।
उक्त दोनों गाथाओं का पूरा अनुवाद क्रम से यों है:
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संस्कृत : दातुं दुष्कर निजक धन, कर्तु न तपः प्रतिभाति ।। एवं सुखं भोक्तुं मनः, परं भोक्तुं न याति ॥ १ ॥
हिन्दी:-अपने धन को दान में देने के लिये दुष्करता अनुभव होती है; तप करने के लिये भावनाऐं नहीं उत्पन्न होती हैं और मन सुख को भोगने के लिये व्याकुल सा रहता है; परन्तु सुख भोगने के लिये संयोग नहीं प्राप्त होते हैं | १ || इस गाथा में हेत्वर्थ - कृदन्त के रूप में प्रयुक्त किये जाने वाले चार प्रत्यय व्यक्त किये गये हैं; जो कि दृष्टान्त रूप से ऊपर लिख दिये है || १ ||
संस्कृत :
जेतु त्यक्तुं सकलां धरां, लातुं तपः पालयितुम् ॥
विना शान्तिना तीर्थेश्वरेण, कः शक्नोति भुवनेऽपि ॥ २ ॥
हिन्दी:- सर्व प्रथम सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने के लिये और तत्पश्चात् पुनः उसका (वैराग्य पूर्ण रीति से) परित्याग करने के लिये एवं व्रतों को ग्रहण करने के लिये तथा तप को पालने के लिये (यों क्रम से असाधारण कार्यो को करने के लिये) भगवान् शान्तिनाथ प्रभु के लिये सिवाय दूसरा कौन इस विश्व में समर्थ हो सकता है। इस गाथा में त्वर्थ - कृदन्त के अर्थ में प्रयुक्त किये जाने वाले शेष चार प्रत्ययों की उपयोगिता है; जो दृष्टान्त रूप से ऊपर लिखे जा चुके हैं ।।४-४४१ ।।
गमेरेप्पिणवेप्पयोरेर्लुग् वा।।४-४४२।।
अपभ्रंशे गर्शर्धातोः परयोरेप्पिणु एप्पि इत्यादेशयो रेकारस्य लुग् भवन्ति वा ।
गम्प्पिणु वाणरसिहिं, नर अह उज्जेणिहिं गम्प्पि || मुआ परावहिं परम-पउ, दिव्वन्तरइं म जम्पि॥ | १ || पक्षे ।
मङ्ग गमेप्पिणु जो मुअइ, जो सिव- तित्थ गमेप्पि।। कीलदि तिदसावास, गउ, सो जम-लोउ जिणेप्पि॥ २ ॥
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 389 अर्थ :- अपभ्रंश-भाषा में 'जाना, गमन करना' अर्थक धातु 'गम्' में संबंध-कृदन्त अर्थक प्रत्यय 'एप्पिणु और एप्पि' की संयोजना होने पर इन प्रत्ययों में अवस्थित आदि स्वर 'एकार' का विकल्प से लोप हो जाता है। जैसे:- गत्वा गम्प्पिणु अथवा गमोप्पिणु और गम्प्पि अथवा गमेप्पि जाकर के। इन्हीं चारों का प्रयोग वृत्ति में दी गई गाथाओं में किया गया है; जिनका अनुवाद इस प्रकार से है:संस्कृत : गत्वा वाराणसी नराः अथ उज्जयिनीं गत्वा।।
मृताः प्राप्नुवन्ति परमं पदं, दिव्यान्तराणि मा जल्प।।१।। हिन्दी:-मनुष्य सर्वप्रथम बनारस तीर्थ को जाकर के और तत्पश्चात् उज्जयिनीतीर्थ को जाकर के मृत्यु प्राप्त करने पर सर्वोत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं; इसलिये अन्य पवित्र तीर्थों की बात मत कर। इस गाथा में 'एप्पिणु और एप्पि' प्रत्ययों में अवस्थित आदि स्वर 'एकार' का लोप-स्वरूप प्रदर्शित किया गया है।।१।। संस्कृत : गङ्गां गत्वा यः म्रियते शिवतीर्थ गत्वा।।
क्रीडति त्रिदशावासगतः, स यमलोकं जित्वा॥ २॥ हिन्दी:-जो पवित्र गंगा नदी के स्थान पर जाकर मृत्यु प्राप्त करता है अथवा जो शिवतीर्थ-बनारस में जाकर मृत्यु प्राप्त करता है; वह यमलोक को जीतकर इन्द्रादि देवताओं के रहने के स्थान को प्राप्त करता हुआ परम सुख का अनुभव करता है। इस गाथा में 'गमेप्पिणु और गमेप्पि' पदों में रहे हुए ‘एप्पिणु तथा पप्पि' प्रत्ययों में आदि 'एकार' स्वर का अस्तित्व ज्यों का त्यों व्यक्त किया गया है। यों वैकल्पिक-स्थिति को समझ लेना चाहिये।।४-४४२।।
तृनोणअः।।४-४४३॥ अपभ्रंशे तृनः प्रत्ययस्य अणअ इत्यादेशौ भवति।। हत्थि मारणउ, लोउ बोल्लणउ, पडहु वज्जणउ, सुणउ भसणउ॥ __ अर्थः-'के स्वभाव वाला' अथवा 'वाला' अर्थ में एवं 'कर्तृ' अर्थ में संस्कृत-भाषा में 'तृच्-त' प्रत्यय की प्राप्ति होती है;, तदनुसार इस 'तच्' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में 'अणअ ऐसे प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति का संविधान है। जैसे:- कर्तु-करणउ-करने वाला अथवा करने के स्वभाव वाला। मारयितृ=मारणअ मारने वाला अथवा मारने के स्वभाव वाला। अज्ञातृ-अजाणउ=नहीं जानने वाला। यह 'अणअ' प्रत्यय धातुओं में जुड़ता है और धातुओं में जुड़ने के पश्चात् वे शब्द संज्ञा-स्वरूप वाले बन जाते हैं; एवं उनके रूप आठों विभक्तियों में नियमानुसार चलाये जा सकते हैं। वत्ति में प्रदत्त उदाहरणों का स्पष्टीकरण यों हैं:
(१) हस्ती मारयिता-हत्थि मारणउ-हाथी मारने के स्वभाव वाला है। (२) लोकः कथयिता-लोउ बोल्लणउ-जन-साधारण बोलने के स्वभाव वाला है। (३) पटहः वादयिता पडहु वज्जणउ ढोल आवाज अथवा प्रतिध्वनि करने के स्वभाव वाला है। (४) शुनकः भषिता=सुणउ भसणउ-कुत्ता भौंकने के स्वभाव वाला है।।४-४४३।।
इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणवः।।४-४४४॥ अपभ्रंशे इव शब्दस्यार्थे नं नउ नाइ, नावइ, जणि, जणु इत्येते षट् भवन्ति।। न।। नं मल्ल-जुज्झु ससि राहु करहि।। नउ।। रवि-अत्थमणि समाउलेण कण्ठि विइणणु न छिण्णु।। चक्के खण्डु मुणालिअहे नउ जीवलु दिण्णु।।१।। नाइ।। वलियावलि-निवडण-भएण धण उद्धब्भुअ जाइ।। वल्लह-विरह-महादहहो थाह गवे सइ नाइ।। २।।
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390 : प्राकृत व्याकरण
नावइ।। पेक्खेविणु मुहु जिण-वरहो दीहर-नयण सलोणु।। नावइ गुरू-मच्छर-भरिउ, जलणि पवीसइ लोणु।। ३।। जणि।। चम्पय-कुसुमहो मज्झि सहि भसलु पइट्ठर।। सोहइ इन्द नीलु जणि कणइ बइठ्ठउ।।४॥ जणु। निरूवम-रसु पिएं पिएवि जणु॥
अर्थ:-'के समान' अथवा 'के जैसा' अर्थ में संस्कृत भाषा में 'इव' अव्यय-शब्द का प्रयोग होता है; तदनुसार इस 'इव' अव्यय शब्द के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में छह शब्दों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है:- (१) नं, (२) नउ, (३) नाइ, (४) नावइ, (५) जणि और (६) जणु। इनके उदाहरण यों है:- (१) पशुरिव-नं पसु पशु के समान, पशु के जैसा। (२) निवेशितः इवनउ निवेसिउ-स्थापित किये हुए के समान। (३) विलिखितः इव-नाइ लिहिउ- (पत्थर पर) खुदे हुए के समान। (४) प्रतिबिम्बितः इव=नावइ पडिबिम्बिउ-प्रतिछाया के समान। (५) स्वभावः इव जणि सहजु-स्वभाव के समान; और (६) लिखितः इव जणु लिहिउ-लिखे हुए के समान। वृत्ति में आये हुए उदाहरणों का अनुवाद क्रम से यों हैं:
(१) संस्कृतः-मल्ल-युद्धं इव शशि राहू कुरूतः=नं मल्ल-जुज्झु ससि-राहु करहिं पहलवानों की लड़ाई के समान चन्द्रमा और राहू दोनों ही युद्ध करते हैं। यहाँ पर 'इव' अर्थ में आदेश-प्राप्त शब्द 'नं' का प्रयोग किया गया है। (२)संस्कृत : रव्यस्तमने समाकुलेन कण्ठे वितीर्णः न छिन्नः।।
चक्रेण खण्डः मृणालिकायाः ननु जीवार्गलः दत्तः।।१।। हिन्दी:-सूर्य-देव के अस्त हो जाने पर धबड़ाये हुए चकवा नामक पक्षी के द्वारा कमलिनी का टुकड़ा यद्यपि मुख में ग्रहण कर लिया गया है; परन्तु उसको गले के अन्दर नहीं उतारा है; मानो इस बहाने उसने अपने जीवन की रक्षा के लिये अर्गला-भागल' के समान कमलिनी के टुकड़े को धारण किया हो। इस गाथा में 'इव' अर्थक द्वितीय शब्द 'नउ' को प्रदर्शित किया है।।१।। (३)संस्कृत : वलयावलीनिपतनभयेन धन्या ऊर्ध्व-भुजा याति।।
वल्लभ-विरह-महाहृदस्य स्ताधं गवेषतीव।। २।। हिन्दी:-वह धन्य स्वरूपा सुन्दर नायिका 'अपनी चूड़ियाँ कहीं नीचे नहीं गिर जाये' इस आशंका से अपनी भुजा को ऊपर उठाये हुए ही चलती है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि मानों वह अपने प्रियतम के वियोग रूपी महाकुंड के तलिये की स्थिति का अनुसंधान कर रही हो। यहाँ पर 'इव' के स्थान पर आदेश-प्राप्त तृतीय शब्द 'नाइ' को प्रयुक्त किया गया है।। २।। (४)संस्कृत : प्रेक्ष्य मुखं जिनवरस्य दीर्घ-नयनं सलावण्यम्।।
ननु गुरू मत्सर भरितं, ज्वलने प्रविशति लवणम्॥ ३॥ __हिन्दी:-भगवान् जिनेन्द्रदेव के सुदीर्घ आँखों वाले सुन्दरतम मुख को देख करके मानों महान् ईर्ष्या से भरा हुआ लवण-समुद्र बड़वानल नामक अग्नि में प्रवेश करता है। लवण-समुद्र अपनी सौम्यता पर एवं सुन्दरता पर अभिमान करता था, परन्तु जब उसे जिनेन्द्रदेव के मुख कमल की सुन्दरता का अनुभव हुआ तब वह मानो लज्जा-ग्रस्त होकर अग्नि-स्नान कर रहा हो; यों प्रतीत होता है। इस छन्द में 'इव' अवयय के स्थान पर प्राप्त चौथे शब्द 'नावई' के प्रयोग को समझाया गया है।।४।। (५)संस्कृत : चम्पक-कुसुमस्य मध्ये सखि ! भ्रमरः प्रविष्टः।।
शोभते इन्द्रनीलः ननु कनके उपवेशितः।।४।।
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 391 हिन्दी:-हे सखि ! (देखो यह) भँवरा चम्पक-पुष्प में प्रविष्ट हुआ है; यह इस प्रकार से शोभायमान हो रहा है कि मानों इन्द्रनील नामक मणि सोने में जड़ दी गई है। यहाँ पर पाँचवें शब्द 'जणि' के प्रयोग को प्रदर्शित किया गया है।। ५।।
(६) संस्कृतः-निरूपम-रसं प्रियेण पीत्वा इव-निरूवम-रसु पिएं जणु प्रियतम पति के द्वारा अद्वितीय रस का पान करके इसके समान। यहाँ पर 'इव' अर्थ में छठा शब्द 'जणु' लिखा गया है।।४ - ४४४।।
लिंगमतन्त्रम्।।४-४४५।। अपभ्रंशे लिङगमतन्त्रम व्यभिचारि प्रायो भवति।। गयकुम्भई दारन्तु। अत्र पुल्लिंगस्य नपुंसकत्वम्।। अब्भा लग्गा डुङ्गरिहिं पहिउ रडन्तउ जाइ।। जा एहा गिरि-गिलण-मणु सो किं धणर्हे घणाइ।।१।। अत्र अब्भा इति नपुंसकस्य पुंस्त्वम्।। पाइ विलग्गी अन्त्रडी सिरू ल्हसिउं खन्धस्सु।। तो वि कटारइ हत्थडउ बलि किज्जउं कन्तस्सु।। २।। अत्र अन्त्रडी इति नपुंसकस्य स्त्रीत्वम्।। सिरि चडिआ खन्ति, प्फलई पुणु डालई मोडन्ति।। तो वि महहुँ सउणाहं अवराहिउ न करन्ति।। ३।। अत्र डालई इत्यत्र स्त्रीलिङ्गस्य नपुंसकत्वम्।।
अर्थः-अपभ्रंश-भाषा में शब्दों के लिंग के सम्बन्ध में दोष-युक्त व्यवस्था पाई जाती है; तदनुसार पुल्लिंग को कभी-कभी नपुंसकलिंग के रूप में व्यक्त कर दिया जाता है और कभी कभी नपुंसकलिंग वाले शब्द को पुल्लिंग के रूप में लिख दिया जाता है। इसी प्रकार से स्त्रीलिंग वाले शब्द को भी प्रायः नपुंसकलिंग के रूप में प्रदर्शित कर दिया जाता है और नपुंसकलिंग वाले शब्द को भी स्त्रीलिंग वाले के रूप में प्रयुक्त किया जाता हुआ देखा जाता है; यों प्रायः होने वाली इस व्यवस्था को ग्रंथकार ने वृत्ति में 'व्यभिचारी व्यवस्था के नाम से कहा है। इस दोष-यक्त परिपाटी को समझाने के लिये वृत्ति में जो उदाहरण दिये गये हैं; उनका अनुवाद क्रमशः इस प्रकार से है:
(१) संस्कृतः- गजानों कुम्भान् दारयन्तम्-गय-कुम्भई दारन्तु-हाथियों के गण्ड-स्थलों को चीरते हुए को। यहाँ पर 'कुम्भ' शब्द को नपुंसकलिंग के रूप में व्यक्त कर दिया है; जबकि यह शब्द पुल्लिंग है। (२) संस्कृत : अभ्राणि लग्नानि पर्वतेषु, पथिकः आरटन याति।।
यः एषः गिरिग्रसनमनाः स किं धन्यायाः घृणायते।।१।। हिन्दी:-पर्वतों के शिखरों पर लगे हुए अथवा झुके हुए बादलों को (लक्ष्य करके) यात्री यह कहता हुआ जा रहा है कि- 'यह मेघ (क्या) पर्वतों को निगल जाने की कामना कर रहा है अथवा (क्या) यह उस सौभाग्य-शालिनी नायिका से घृणा करता है। (क्योंकि इस घन-श्याम मेघ वाला को देखने से उस नायिका के चित्त में काम-वासना तीव्र रूप से पीड़ा पहुँचानें लगेगी) इस छन्द में मेघ वाचक शब्द 'अब्भ' को पुल्लिंग के रूप में लिखा है; जबकि वह नपुंसकलिंग वाला है।।१।। (३)संस्कृत : पादे विलग्नं अन्नं, शिरः स्त्रस्तं स्कन्धात्॥
तथापि कटारिकायां हस्तः बलि क्रियते कान्तस्य।। २॥ ____ हिन्दी:-कोई एक नायिका अपनी सखि से अपने प्रियतम पति को रण-क्षेत्र में प्रदर्शित वीरता के सम्बन्ध में चर्चा करती हुई कहती है कि 'देखो ! युद्ध करते-करते उसके शरीर की आन्तड़ियाँ बाहिर निकल कर पैरों तक जा
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392 : प्राकृत व्याकरण
लटकी है और सिर धड़ से लटक सा गया है। फिर भी उसका हाथ कटारी पर (छोटी सी तलवार पर) शत्रु को मारने के लिये लगा हुआ है; ऐसे वीर पति के लिये मैं बलिदान होती हूँ। 'इस गाथा में 'अन्त्रडी' शब्द को स्त्रीलिंग के रूप में बतलाया है; जबकि यह नपुंसकलिंगवाला है।। २।। (४)संस्कृत : शिरसि आरूढ़ाः खादन्ति फलानि; पुनः शाखा मोटयति।।
तथापि महाद्रमाः शकुनीनां अपराधितं न कुर्वन्ति।। ३।। हिन्दी:-देखो ! पक्षीगण महावृक्षों की सर्वोच्च शाखाओं पर बैठते हैं; उनके फलों को रूचिपूर्वक खाते हैं तथा उनकी डालियों को तोड़ते हैं-मरोड़ते हैं; फिर भी उन महावृक्षों की कितनी ऊंची उदारता है कि वे न तो उन पक्षियों को अपराधी ही मानते हैं और न उन पक्षियों के प्रति कुछ भी हानि पहुँचाने की कामना ही करते हैं। (यही वृत्ति सज्जन-पुरूषों के प्रति होती है)। इस गाथा में 'डालई शब्द आया है, जो कि मूल रूप से स्त्रीलिंग वाला है फिर भी उसका प्रयोग यहाँ पर नपुंसकलिंग के रूप में कर दिया गया है। यों अपभ्रंश-भाषा में अनेक स्थानों पर पाई जाने वाली लिंग सम्बन्धी दुर्व्यवस्था की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये।।४-४४५।।
शौरसेनीवत्।।४-४४६।। अपभ्रंश प्रायः शौर-सेनीवत् कार्य भवति।। सीसि सेहरू खणु विणिम्मविदु; खणु कण्ठि पालम्बु किदु रदिए।। विहिदु खणु मुण्ड-मालिए जं पणएण; तं नमहु कुसुम-दाम-कोदण्डु कामहो।॥१॥
अर्थः-शौरसेनी भाषा में व्याकरण-संबंधित जो नियम-उपनियम एवं संविधान है; वे सब प्रायः अपभ्रंश- भाषा में भी लागू पड़ते है। यों शौरसेनी-भाषा के अनुसार प्रायः अनेक कार्य अपभ्रंश-भाषा में भी देखे जाते है।। जैसे:
(१) निवृर्ति-निव्वुदि-आरम्भ-परिग्रह से रहित वृत्ति को। (२) विनिर्मापितम्-विणिम्मविदु-स्थापित किया हुआ है, उसको। (३) कृतम् किदु किया हुआ है। (४) रत्याः =रदिए-कामदेव की स्त्री रति के। (५) विहितं विहिदु-किया गया है। इन उदाहरणों में शौरसेनी-भाषा से संबधित नियमों के अनुसार कार्य हुआ है। पूरी गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : शीर्श शेखर क्षणं विनिर्मापितम्।।
क्षणं कण्ठे प्रालम्बं कृतं रत्याः।। विहितं क्षणं मुण्ड-मालिकाया।।
तत्रमत कुसुम-दाम-कोदण्डं कामस्य।।१।। हिन्दी:-कामदेव ने नीलकण्ठ भगवान् शंकर को अपनी तपस्या से डिगाने के लिये पुष्पों से निर्मित धनुष को उठाया। सर्वप्रथम उसने क्षण भर के लिये उसको अपने सिर पर आभूषण के रूप में प्रस्थापित किया; तत्पश्चात् रति के कण्ठ में क्षण भर के लिये उसको लटकाये रक्खा और अन्त में शंकर के गले में पड़ी हुई मुण्ड-माला पर क्षण भर के लिये उसकी स्थापना की; ऐसे कामदेव के पुष्पों से बने हुए धनुष को तुम नमस्कार करो।।१।।४ - ४४६।।
व्यत्ययश्च।।४-४४७।। प्राकृतादिभाषालक्षणानां व्यत्ययश्च भवति।। यथा मागध्या 'तिष्ठश्चिष्ठ' इत्युक्तं तथा
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 393 प्राकृत-पैशाची-शौरसेनीष्वपि भवति। चिष्ठदि। अपभ्रंशे रेफस्याधो वा लुगुक्तो मागध्यामपि भवति। शद-माणुश-मंश-मालके कुम्भ शहअ-वशाहे शचिदे इत्याद्यन्ययपि दृष्टव्यम्।। न केवलं भाषालक्षणानां त्याद्यदेशानामपि व्यत्ययो भवति। ये वर्तमाने काले प्रसिद्धास्ते भूतेपि भवन्ति। अह पेच्छइ रहु-तणओ।। अथ प्रेक्षांचक्रे इत्यर्थः।। आभासइ रयणीअरे। आबभाषे रचनीचरा-नित्यर्थः।। भूते प्रसिद्धा वर्तमानेपि। सोहीअ एस वणठो। शृणोत्येष वणठ इत्यर्थः।। ___ अर्थः-प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश भाषाओं में व्याकरण सम्बन्धी जो नियम उपनियम आदि विधि-विधान हैं, उनका परस्पर में व्यत्यय अर्थात् उलट-पुलट पना भी पाया जाता है। जैसे मागधी-भाषा में 'तिष्ठ' के स्थान पर सूत्र-संख्या ४-२९८ के अनुसार 'चिष्ठ' रूप की आदेश-प्राप्ति होती है; उसी प्रकार 'प्राकृत, पैशाची और शौरसेनी' भाषाओं में भी होता है। जैसे:-तिष्ठति चिष्ठुदि-वह बैठता है। अपभ्रंश-भाषा में सूत्र-संख्या ४-३९८ में ऐसा विधान किया गया है कि-अधो रूप में रहे हुए रेफ रूप 'रकार' वर्ण का विकल्प से लोप हो जाता है; यही नियम मागधी भाषा में भी देखा जाता है। भाषाओं से सम्बन्धित यह व्यत्यय केवल नियमोपनियमों में ही नहीं होता है किन्तु काल बोधक प्रत्ययों में भी व्यत्यय देखा जाता है; तदनुसार वर्तमानकाल वाचक प्रत्ययों के सद्भाव में भूतकाल-वाचक अर्थ भी निकाल लिया जाता है और इसी प्रकार से भूतकाल-बोधक प्रत्ययों के सद्भाव में वर्तमानकाल-वाचक अर्थ भी समझ लिया जाता है। जैसे:
(१) अथ प्रेक्षांचक्रे रघु-तनयः अह पेच्छइ रहु-तणओ=इसके बाद में रघु के लड़के ने देखा। (२) आबभाषे रचनीचरान् आभासइ रयणीअरे-राक्षसों को कहा।
इन उदाहरणों में वर्तमानकाल-वाचक 'इ' प्रत्यय का अस्तित्व है; परन्तु 'अर्थ' भूतकाल-वाचक कहा गया है; यों काल-वाचक व्यत्यय इन भाषाओं में देखा जाता है। भूतकाल का सद्भाव होते हुए भी अर्थ वर्तमानकाल का निकाला जाता है; इस सम्बन्धी उदाहरण यों हैं: शृणोति एष वण्ठः सोहीअ एस वण्ठो यह बौना (वामन) सुनता है। इस उदाहरण में 'सोहीअ क्रियापद में भूतकालीन प्रत्यय 'हीअ' की प्राप्ति हुई है; परन्तु अर्थ वर्तमानकालीन ही लिया गया है।। यों काल-बोधक प्रत्ययों में भी व्यत्यय-स्थिति इन भाषाओं में देखी जाती है।।४-४४७।।
शेषं संस्कृतवत् सिद्धम्।।४-४४८।। शेषं यदत्र प्राकृतादि भाषासु अष्टमे नोक्तं तत्सप्ताध्यायी निबद्ध संस्कृतवदेव सिद्धम्।। हेट्ट-ट्ठिय-सूर-निवारणाय, छत्तं अहो इव वहन्ती।। जयइ ससेसा वराह-सास-दूरूक्खुया पुहवी।।१॥
अत्र चतुर्थ्या आदेशो नोक्तः स च संस्कृतवदेव सिद्धः। उक्तमपि कचित् संस्कृतवदेव भवति। यथा प्राकृते उरस् शब्दस्यसप्तम्येक वचनान्तस्य उरे उरम्मि इति प्रयोगौ भवतस्तथा कचिदुरसीत्यपि भवति।। एवं सिरे। सिरम्मि। सिरसि।। सरे। सरम्मि। सरसि।। सिद्ध-ग्रहणं मङ्गलार्थम्। ततो ह्यायुष्मच्छोतृकताम्युदयश्चेति।।
अर्थः-इस आठवें अध्याय में प्राकृत, शौरसेनी आदि छह भाषाओं का व्याकरण लिखा गया है और इन भाषाओं की विशेषताओं के साथ-साथ अनेक नियम तथा उपनियम समझाये गये हैं; इनके अतिरिक्त यदि इन भाषाओं में संस्कृत भाषा के समान पदों की, प्रत्ययों की, अव्ययों की आदि बातों की समानता दिखलाई पड़े तो उनकी सिद्धि संस्कृत भाषा में उपलब्ध नियमोपनियमों के अनुसार समझ लेनी चाहिये। तदनुसार संस्कृत-भाषा सम्बन्धी सम्पूर्ण व्याकरण की रचना इस आठवें अध्याय के पूर्व रचित सातों अध्यायों में की गई है। ऐसी भलामण ग्रन्थकार इस सूत्र की वृत्ति में कर रहे हैं; सो ध्यान में रखी जानी चाहिये। ग्रन्थकार कहते हैं कि-'प्राकृत आदि छह भाषाओं से सम्बन्धित जिस विधि-विधान का उल्लेख इस आठवें अध्याय में नहीं किया गया है; उस सम्पूर्ण विधि-विधान का कार्य संस्कृत-व्याकरण के अनुसार ही सिद्ध हुआ जान लेना चाहिये।' जैसे:-अधः स्थित सूर्य-निवारणाय हेट्ठि-ट्ठिय
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394 : प्राकृत व्याकरण
सूर-निवारणाय-नीचे रहे हुए सूर्य की गरमी को अथवा धूप को रोकने के लिये। इस उदाहरण में 'निवारणाय' पद में संस्कृत-भाषा के अनुसार चतुर्थी विभक्ति के एक वचनार्थक प्रत्यय 'आय' की प्राप्ति हुई है। इस प्राप्त प्रत्यय 'आय' का संविधान प्राकृत भाषा में कहीं पर भी नहीं है। फिर भी प्राकृत-भाषा में इसे अशुद्ध नहीं माना जाता है इसलिये इसकी सिद्धि संस्कृत-भाषा के अनुसार कर लेनी चाहिये। प्राकृत-भाषा में छाती-अर्थक 'उर' शब्द है; जिसके दो रूप तो सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्राकृत-भाषा के अनुसार होते हैं और एक तृतीय रूप संस्कृत-भाषा के अनुसार भी होता है। जैसे:- उरसि-उरे और उरम्मि अथवा उरसि छाती पर छाती में दूसरा उदाहरण यों है:-शिरसि सिरे और सिरम्मि अथवा सिरसि-मस्तक में अथवा मस्तक तालाबा पर। तीसरा उदाहरण वृत्ति के अनुसार इस प्रकार से है:-सरसि=सरे और सरम्मि अथवा सरसि तालाब में अथवा पर। यों संस्कृत भाषा के अनुसार प्राकृत आदि भाषाओं में उपलब्ध पदों की सिद्धि संस्कृत के समान ही समझ कर इन्हें शुद्ध ही मानना चाहिये।
सूत्र के अन्त में 'सिद्धम्' ऐसे मंगल वाचक पद की रचना 'मंगलाचरण' की दृष्टि से की गई है। इससे यही प्रतिध्वनित होता है कि इस ग्रन्थ के पठन-पाठन करने वालों का जीवन दीर्घायुवाला और स्वस्थ रहने वाला हो तथा वे अपने जीवन में अभ्युदय अर्थात् सफलता तथा यश प्राप्त करे।। आचार्य हेमचन्द्र ऐसी पवित्र-कामना के साथ इस अत्युत्तम ग्रन्थ की समाप्ति करते हैं:वृत्ति में दी हुई गाथा का पूरा अनुवाद क्रम से यों हैं:संस्कृत : अधः स्थित-सूर्य-निवारणाय; छत्रं अधः इव वहन्ति।।
जयति सशेषाश्वाह-श्रास-दूरोत्क्षिप्ता पृथिवी।।१।। हिन्दी:-वराह-अवतार के तीक्ष्ण श्वास से दूर फेंकी हुई पृथ्वी शेषनाग के फणों के साथ जय शील होती है। नीचे रहे हुए सूर्य के कारण से उत्पन्न होने वाले ताप को रोकने के लिये मानों शेष-नाग के फणों को ही छत्र रूप में परिणत करती हुई एवं इन्हें नीचे वहन करती हुई जय-विजयशील होती है।।४-४४८।
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र विरचितायां सिद्ध हेम
चन्द्राभिधान-स्वोपज्ञ-शब्दानुशासन वृत्तावष्टमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः
समाप्तः।
इति श्री हेमचन्द्र आचार्य द्वारा बनाई गई "सिद्ध हेमचन्द्र" नामक प्राकृत-व्याकरण समाप्त हुई। इसमें आठवें अध्याय का चौथा पाद भी समाप्त हुआ। इसकी वृत्ति भी
मूल ग्रंथकार द्वारा ही बनाई गई है।
समाप्ता चेयं सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासनावृत्तिः
"प्रकाशिका" नामेति।
मूल ग्रन्थकार द्वारा ही इस अष्टाध्यायी "सिद्ध हेमचन्द्र"
नामक व्याकरण पर जो वृत्ति अर्थात् टीका बनाई गई हैं; उसका नाम "प्रकाशिका" टीका
है; वह भी यहाँ पर समाप्त हो रही है।
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आसीत्वशां पतिरमुद्र चतुः समुद्रमुद्राङ्कितक्षितिभरक्षमबाहुदण्डः ।। श्री मुलराज इति दुर्धर वैरि कुम्भि || कण्ठीरवः शुचि चुलुक्य कुलावतंसः ॥१॥ तस्यान्वये समजनि प्रबल - प्रतापतिग्मघुतिः क्षितिपति र्जयसिंहदेवः । येन स्व- वंष-सवितर्य परं सुधांषौ, श्री सिद्धराज इतिनाम निजं व्यलेखि॥ २ ॥ सम्यग् निषेव्य चतुरश्चतुरोप्युपायान् । जित्वोपभुज्य च भुवं चतुरब्धि काश्चीम | विद्या चतुष्टय विनीत मति र्जितात्मा, काष्ठामवाप पुरूषार्थ चतुष्टये यः ।। ३ ।। तेनातिविस्तृत दुरागम विप्रकीर्णशब्दानुशासन-समूह कदर्थितेन । अभ्यार्थितो निरवमं विधिवत् व्यधत्त, शब्दानुशासनमिदं मुनि हेमचन्द्रः ॥ ४ ॥
(ग्रन्थ- कर्ता द्वारा निर्मित प्रशस्ति)
- चौलुक्य वंश में प्रबल प्रतापी मूलराज नाम वाला प्रख्यात नृपति हुआ है। इसने अपने बाहुबल के आधार पर इस पृथ्वी पर राज्य-शासन चलाया। इसी वंश में महान् तेजस्वी जयसिंहदेव नामक राजा हुआ है; जो कि "सिद्धराज" उपाधि से सुशोभित था। यह अपने सूर्य-सम कांति वाले वंश में चन्द्रमा के समान सौम्य, शान्त और विशिष्ट प्रभाववाला नरराज हुआ है।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 395
इस चतुर सिद्धराज जयसिंह ने राजनीति सम्बन्धी चारों उपायों- 'साम, दाम, दण्ड और भेद' का व्यवस्थित रूप से उपयोग किया और इस धरती पर समुद्रान्त तक विजय प्राप्त करके राज्यलक्ष्मी का उपभोग किया। चारों विद्याओं द्वारा अपनी शुद्ध बुद्धि को विनय-शील बनाई और अन्त में चारों पुरुषार्थो की साधना करके यह जितात्मा देव बना ।
प्राकृत :
संस्कृत :
अति विस्तृत, दुर्बोध और विप्रकीर्ण व्याकरण-ग्रन्थों के समूह से दुःखी हुए श्री सिद्धराज जयसिंह ने सर्वांग पूर्ण एक नूतन शब्दानुशासन अर्थात् व्याकरण की रचना करने के लिये आचार्य श्री हेमचन्द्र से प्रार्थना की और तदनुसार आचार्य हेमचन्द्र ने इस सिद्ध हेम शब्दानुशासन नामक सुन्दर, सरल, प्रसाद- गुण सम्पन्न नई व्याकरण की रचना विधि पूर्वक सम्पन्न की।
(प्राकृत-व्याकरण-: 1- ग्रंथ का परिमाण २१८५ श्लोकों जितना है)
हिन्दी - व्याख्याता का मंगलाचरण
चत्तारि अटू - दस- दोय, वंदिया जिणवरा चउव्वीसा ।। परम-निट्ठि - अट्ठा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ १ ॥ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।।
"
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग् भवेत् ॥ २ ॥
भूयात् कल्याणं- भवतु च मंगलम्
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परिशिष्ठ-भाग
अनुक्रमणिका १. प्रत्यय-बोध २. संकेत-बोध ३. तृतीय-पाद-शब्द-कोष-रूप-सूची ४. चतुर्थ-पाद-शब्द-कोष-रूप-सूची ५. शुद्धि-पत्र
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प्रत्यय-बोध
संस्कृत-भाषा के संज्ञा-शब्दों में तथा सर्वनाम-वाचक शब्दों में एवं धातुओं में जो विभक्ति-बोधक प्रत्यय जोड़े जाते हैं; उन विभक्ति-बोधक प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत भाषा में आदेश - प्राप्ति होती है; तदनुसार उन मूल प्रत्ययों की क्रमिक-सूची इस प्रकार से है:
(2)
संज्ञा - सर्वनाम - संबंधित - प्रत्यय :
विभक्ति
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतुर्थी
पंचमी
(२)
नोट :
षष्ठी
सप्तमी
पुरूष
उत्तम
मध्यम
अन्य
:
(१)
धातु-प्रत्यय- वर्तमान-कालिक :
परस्मैपदी
एक वचन
सि
एकवचन
मि
सि
अम्
टा (आ)
डे (ए)
ङसि (असि)
ङस् (अस्)
ङि (इ)
बहुवचन
मस्
थ
अन्ति
पुरूष
उत्तम
मध्यम
अन्य
बहुवचन
जस् (अस्)
शस् (अस्)
भिस्
भ्यस्
भ्यस्
आम्
सु
आत्मनेपदी
एकवचन
इ
turt
प्राकृत भाषा में द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का ही प्रयोग किया जाता है, अतः यहाँ पर द्विवचन संबंधी मूल संस्कृत-प्रत्ययों को लिखने की आवश्यकता नहीं है; यह ध्यान में रहे।
बहुवचन महे
ध्वे
अन्ते
(२) वर्तमान-काल के अतिरिक्त शेष काल-बोधक तथा विभिन्न लकार-बोधक - संस्कृत-प्रत्ययों के स्थान पर सामान्य रूप रूप से और समुच्चय- रूप से प्राकृत भाषा में विशिष्ट प्रत्ययों की संप्राप्ति प्रदर्शित की गई है; अतः उन विशिष्ट और अविशिष्ट लकारों के संस्कृत प्रत्ययों की सूची भी यहाँ पर नहीं लिखी गई है।
(३) "युष्मद् और अस्मद्" सर्वनामों के तथा अन्य सर्वनामों के सिद्ध हुए विभक्ति-प्रत्यय सहित अखंड पदों के स्थान पर प्राकृत भाषा में विशिष्ट आदेश - प्राप्ति होने का संविधान है; तदनुसार उन मूल संस्कृत-सर्वनाम-संबंधी पदों का स्वरूप संस्कृत - व्याकरण ग्रन्थों से जान लेना चाहिये।
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अ.
अक.
अप.
उप.
उभ.
कर्म.
क. वकृ.
कृ.
कृद.
क्रि.
क्रि.वि.
चू. पै.
त्रि.
दे.
न.
पुं.
पु.न.
पुं. स्त्री.
पै.
प्रयो.
ब.
भ. कृ.
भवि.
भू. का.
भू.कृ.
मा.
व.कृ.
वि.
शौ.
सर्व.
सं.कृ.
सक.
स्त्री.
स्त्री. न.
हे . कृ.
संकेत-बोध
अव्यय ।
अकर्मक धातु
अपभ्रंश भाषा ।
उपसर्ग ।
सकर्मक तथा अकर्मक धातुः । अथवा दो लिंग वाला। कर्मणि- वाच्य | कर्मणि-वर्तमान-कृदन्त ।
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कृत्य-प्रत्ययान्त।
कृदन्त ।
क्रियापद ।
क्रिया - विशेषण |
चूलिका पैशाची भाषा |
त्रिलिंग |
देशज ।
नपुंसकलिंग पुल्लिंग |
पुल्लिंग तथा नपुंसकलिंग ।
पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग |
पैशाची भाषा ।
प्रेरणार्थक - णिजन्त ।
बहुवचन |
भविष्यत् कृदन्त।
भविष्यत् काल ।
भूतकाल । भूतकृदन्त मागधी भाषा । वर्तमान-कृदन्त।
विशेषण | शौरसेनी भाषा ।
सर्वनाम |
सम्बन्ध कृदन्त ।
सकर्मक धातु ।
स्त्रीलिंग |
स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग । हेत्वर्थ-कृदन्त ।
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________________ संस्थान-परिचय आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान आचार्य श्री नोनालालजी म.सा, के 1681 के उदयपुर वर्षावास की स्मृति में जनवरी 1983 में स्थापित किया गया। संस्थान का मुख्य उद्देश्य जैन-विद्या एवं / प्राकृत के विद्वान तैयार कर्ना, अप्रकाशित जैन साहित्य का प्रकाशन करना, जैन-विद्या में रुचि रखने वाले. विद्यार्थियों को अध्ययन की सुविधा प्रदान करना, जैन-संस्कृति की सुरक्षा के लिये जैने आचार, दर्शन और इतिहास पर वैज्ञानिक दृष्टि से ग्रंथ तैयार कर प्रकाशित करवाना एवं जैन-विद्या के प्रसार की दृष्टि से संगोष्ठियाँ, भाषण, समारोह आदि आयोजित करना है। यह संस्थान श्री अ.भा.सा.जैन संघ, बीकानेर की एक मुख्य प्रवृत्ति है। संस्थान राजस्थान सोसायटीज़ एक्ट 1658 के अंतर्गत रजिस्टर्डे है तथा संस्थान को अनुदान के रूप में दी गई धनराशि पर आयकर अधिनियम की धारा 80G) और 12 (A) के अंतर्गत छूट प्राप्त है। जैन-धर्म और संस्कृति के इस पुनीत कार्य में आप इस प्रकार सहभागी बन सकते हैं:११. व्यक्ति यो संस्था रु. एक लाख या इससे अधिक देकर परम संरक्षक सदस्य बन सकते हैं। ऐसे सदस्यों के नाम अनुदान तिथि कम से संस्थान के लेटरपेड पर दर्शाये जाते हैं। रु. 51000 देकर संरक्षक सदस्य बन सकते हैं। रु.२००० देकर हितेषी सदस्य बन सकते हैं। 4. रु. 11000 देकर सहायक सदस्य बन सकते हैं। रु. 1000 देकर साधारण सदस्य बन सकते हैं। संघ, ट्रस्ट, बोर्ड, सोसायटी आदि जी एक साथ रु.२०,००० का अनुदान प्रदान करती है वहे संस्था संस्थान परिषद की संस्था सदस्य होगी। अपने बुजुर्गों की स्मृति में भवन निर्माण हेतु क अन्य आवश्यक यंत्रादि हेतु अनुदान देकर आप इसकी सहायता कर सकते हैं। अपने घर पर पड़ी प्राचीन पांडुलिपियाँ, आगेम-साहित्य व अन्य उपयोगी साहित्य प्रदान कर सहायता कर सकते हैं। आपका यह सहयोग ज्ञान साधना के रथ को प्रगति के पथ पर अग्रसर करेगा।