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170 : प्राकृत व्याकरण
अंग की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'वसुआइ' सिद्ध हो जाता है।
उद्वासि संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप वसुआइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४- ११ से संस्कृत मूल धातु 'उद्द्वा' के स्थान पर प्राकृत में 'वसुआ' रूप धातु अंग की प्राप्ति और ३-१४० वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के समान प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतीय क्रियापद का रूप वसुआसि सिद्ध हो जाता है।
'होइ' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १- ९ में की गई है।
भवसि संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप होसि होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४–६० से संस्कृत मूल धातु 'भू- भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१४० से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के समान ही प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय की प्राप्त होकर प्राकृत रूप होसि सिद्ध हो जाता है।
'हसइ' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - १३९ में की गई है। 'हससि' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-१४० में की गई है। 'वेवइ' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - १३९ में की गई है।
'वेवसि' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३ – १४० में की गई है । । ३ - १४५ ।।
सिनास्तेः सिः ।। ३-१४६।।
सिना द्वितीय त्रिकादेशेन सह अस्तेः सिरादेशो भवति ।। निट्टुरो जं सि । । सिनेतिकम् से आदेशे सति अत्थि तुमं ।।
अर्थः- संस्कृत में ‘अस्’= होना ऐसी एक धातु है जिसका वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' की संयोजना होने पर 'असि' रूप बनता है। इस संस्कृत प्राप्त रूप 'असि' = (तू है) के स्थान पर प्राकृत में उक्त वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में सूत्र - संख्या ३ - १४० से प्रत्यय 'सि' और 'से' में से जब 'सि' प्रत्यय की संयोजना हो रही हो, तो उस समय में 'अस्' +सि' में से ' अस्' का लोप होकर शेष प्राप्त रूप 'सि' ही उक्त 'असि' रूप के स्थान पर प्राकृत में प्रयुक्त होता है । उदाहरण इस प्रकार है:- निष्ठुरो यत् असि=निठुरो जं सि- (अरे) ! तू निष्ठुर है। यहां पर संस्कृत धातु 'असि' के स्थान पर प्राकृत में 'सि' रूप की आदेश प्राप्ति प्रदर्शित की गई है।
प्रश्न:- मूल सूत्र में 'सि' ऐसा निश्चयात्मक उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तरः- वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचन में सूत्र - संख्या ३ - १४० के अनुसार प्राकृत धातुओं में 'सि' और 'से' यों दो प्रकार के प्रत्ययों की संयोजना होती है। तदनुसार जब 'अस्' धातु में 'सि' प्रत्यय की संयोजना होगी; तभी 'अस्+सि' के स्थान पर प्राकृत में सि रूप की आदेश प्राप्ति होगी; अन्यथा नहीं यदि अस् धातु में उक्त सि प्रत्यय की संयोजना नहीं करके 'से' प्रत्यय की संयोजना की जाएंगी तो उस समय में सूत्र - संख्या ३-१४८ के अनुसार संस्कृत रूप 'अस्+सि ं=प्राकृत रूप 'अस्+ से' के स्थान पर प्राकृत में 'अस्थि' रूप की आदेश प्राप्ति होगी । यों 'सि' से सम्बन्धित विशेषता को प्रदर्शित करने के लिये ही मूल सूत्र में 'सि' का उल्लेख किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है:- त्वमसि=अत्थि तुमं=तू है। यहां पर 'आसि' के स्थान पर 'सि' रूप की आदेश प्राप्ति नहीं करके 'अत्थि' रूप का प्रदर्शन किया गया है; इसका कारण प्राकृत प्रत्यय 'सि' का प्रयोग नहीं किया जाकर 'से' का प्रयोग किया जाना ही है। यों अन्यत्र भी ध्यान में रखना चाहिये ।
'निठुरो' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २५४ में की गई है। 'जं' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १२४ में की गई है।
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