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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 171 असि संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सि' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४६ से सम्पूर्ण संस्कृत पद 'असि' के स्थान पर प्राकृत में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के एकवचनार्थ में सूत्र-संख्या ३-१४० के आदेशानुसार 'सि' और 'से' प्रत्ययों में से 'सि' प्रत्यय की 'अस्' धातु में संयोजना करने पर प्राकृत में केवल 'सि' आदेश प्राप्ति होकर 'सि' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ असि संस्कृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त अकर्मक क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप अत्थि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४८ से सम्पूर्ण संस्कृत क्रियापद असि' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१४० के निर्देशानुसार एवं ३-१४६ की वृत्ति के आधारानुसार प्राकृत प्रत्यय 'से' की संयोजना होने पर अत्थि रूप सिद्ध हो जाता है।
त्वम् संस्कृत का युष्मद् सर्वनाम का प्रथमाविभक्ति का एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) रूप है। इसका प्राकृत रूप तुमं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-९० से प्रथमाविभक्ति के एकवचन में तथा तीनों लिंगों में समान रूप से ही प्रथमा विभक्तिबोधक प्रत्यय 'सि' की संयोजना होने पर सम्पूर्ण संस्कृत पद 'त्वम् के स्थान पर प्राकृत में 'तुम रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१४६।।
मि-मो-मै-हि-म्हो-म्हा वा।। ३-१४७ अस्तेर्धातोः स्थाने मि मो म इत्यादेशैः सह यथासंख्यं म्हि म्हो म्ह इत्यादेशा वा भवन्ति।। एस म्हि। एषो स्मीत्यर्थः॥ गय म्हो। गय म्ह। मकारस्याग्रहणादप्रयोग एव तस्येत्यवसीयते। पक्षे अस्थि अहं। अस्थि अम्हे। अस्थि अम्हो॥ ननु च सिद्धावस्थायां पक्ष्म रम-ष्म-स्मयां म्हः (२-७४) इत्यनेन म्हादेशे म्हो इति सिध्यति। सत्यम्। किंतु विभक्ति-विधौ प्रायः साध्यमानावस्थाङ्गीक्रियते। अन्यथा वच्छेण। वच्छेसु। सव्वे। जे। ते। के। इत्यादर्थ सूत्राण्यनारम्भणीयानि स्युः। ___ अर्थ:-'अस्' धातु के साथ में जब सूत्र-संख्या ३-१४१ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचनात्मक प्रत्यय 'मि' की संयोजना की जाय तो वैकल्पिक रूप से धातु 'अस्' और प्रत्यय 'मि' दोनों ही के स्थान पर 'म्हि' पद की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- एषोऽस्मि-एस म्हि=मैं हूं। वैकल्पिक पक्ष होने से जहां पर 'म्हि नहीं किया जाएगा वहाँ पर सूत्र-संख्या ३-१४८ के आदेश से संस्कृत रूप 'अस्मि' के स्थान पर 'अत्थि' पद की प्राप्ति होगी। इसी प्रकार से इसी 'अस्' धातु के साथ में जब सूत्र-संख्या ३-१४४ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचनात्मक प्रत्यय 'मो' एवम् 'म' की संयोजना की जाय तो वैकल्पिक रूप से धातु 'अस्' और प्रत्यय 'मो' एवं 'म' दोनों के स्थान पर क्रम से 'म्हो' तथा 'म्ह' पद की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- गताः स्मः गय म्हो-हम गये हुए हैं। यों वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृत धातु 'अस्' से 'मस्' प्रत्यय की संयोजना होने पर प्राप्त संस्कृत पद 'स्मः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'मो और म' प्रत्ययों के सद्भाव में 'म्हो तथा म्ह' पद की आदेश-प्राप्ति जानना। वैकल्पिक पक्ष होने से जहां पर 'म्हो तथा म्ह ' रूपों की प्राप्ति नहीं होगी; वहाँ पर सूत्र-संख्या ३-१४८ के आदेश से संस्कृत रूप 'स्मः' के स्थान पर 'अत्थि' आदेश प्राप्त पद की प्राप्ति होगी।
सूत्र-संख्या ३-१४४ में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचनार्थ में धातुओं में जोड़ने योग्य तीन प्रत्यय 'मो, मु और म' बतलाये गये हैं; जिनमें से इस सूत्र में अस्' धातु के साथ में जुड़ने योग्य केवल दो प्रत्यय 'मो तथा म' का ही उल्लेख किया है और शेष तृतीय प्रत्यय 'मु' को छोड़ दिया है। इस पर से निश्चयात्मक रूप से यही जानना चाहिए कि 'अस्' धातु के साथ में 'मु प्रत्यय का प्रयोग नहीं किया जाता है। ___ अहम् अस्मि अहं अस्थि-मै हूं; वयम् स्मः अम्हे अस्थि =हम हैं; वयम् स्म-अम्हो अत्थि हम हैं। यों अस्मि और स्मः' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१४८ के आदेशानुसार 'अत्थि' पद की आदेश प्राप्ति का सद्भाव होता है।
शंका- पहले सूत्र-संख्या २-७४ में आपने बतलाया है कि 'पक्ष्म शब्द के संयुक्त व्यंजन के स्थान पर तथा 'श्म, ष्म, स्म और ह्य' के स्थान पर प्राकृत में 'म्ह' रूप की आदेश प्राप्ति होती है तदनुसार 'अस्मि' क्रियापद में और 'स्मः' क्रियापद में स्थित पदांश 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश प्राप्ति होकर इष्ट पदांश 'म्ह' की प्राप्ति हो जाती है; तो ऐसी अवस्था में इस सूत्र-संख्या ३-१४७ को निर्माण करने की कौन-सी आवश्यकता रह जाती है?
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