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172 : प्राकृत व्याकरण
उत्तरः- यह सत्य है; परन्तु जहाँ विभक्तियों के संबंध में विधि-विधानों का निर्माण किया जा रहा हो; वहाँ पर प्रायः साध्यमान अवस्था ही (सिद्ध की जाने वाली अवस्था ही) अंगीकृत की जाती है। यदि विभक्तियों से सम्बन्धित विधि विधानों का निश्चयात्मक विधान निर्माण नहीं करके केवल व्यंजन एवं स्वर वर्णो के विकार से तथा परिवर्तन से सम्बन्धित नियमों पर ही अवलम्बित रह जायेंगें तो प्राकृत भाषा में जो विभक्ति-बोधक स्वरूप संस्कृत के समान ही पाये जाते हैं; उनके विषय में अव्यवस्था जैसी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी; जैसे कि कुछ उदाहरण इस प्रकार है:- वृक्षेन-वच्छेण; वक्षेष-वच्छेसः सर्वे सव्वे: ये-जे:ते-ते: के-के: इत्यादिः इन विभक्तियक्त पदों की साधनिका प्रथम एवंम द्वितीय पादों में वर्णित वर्ण-विकार से सम्बन्धित नियमों द्वारा भली भांति को जा सकती है। परन्त ऐसी स्थित में भी ततीय पाद में इन पदों में पाये जाने वाले प्रत्ययों के लिये स्वतन्त्र रूप से विधि-विधानों का निर्माण किया गया है। जैसे वच्छेण पद में सूत्र-संख्या ३-६ और ३-१४ का प्रयोग किया जाता है; वच्छेसु पद में सूत्र-संख्या ३-१५ का उपयोग होता है; 'सव्वे, जे,ते, के पदों में सूत्र-संख्या ३-५८ का आधार है; यों यह निष्कर्ष निकलता है कि केवल वर्ण-विकार एवं वर्ण-परिवर्तन से सम्बन्धित नियमोपनियमों पर ही अवलम्बित नहीं रहकर विभक्ति से सम्बन्धित विधियों के सम्बन्ध में सर्वथा नूतन तथा पृथक नियमों का ही निर्माण किया जाना चाहिये; अतएव आपकी उपर्युक्त शंका अर्थ शून्य ही है। यदि आपकी शंका को सत्य माने तो विभक्ति स्वरूप बोधक सूत्रों का निर्माण 'अनारम्भणीय' रूप हो जायेगा; जो कि अनिष्टकर एवं विघातक प्रमाणित होगा। ग्रन्थकार द्वारा वृत्ति में प्रदर्शित मन्तव्य का ऐसा तात्पर्य है। 'एस' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है।
अस्मि संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप म्हि होता है। इस में सूत्र-संख्या ३-१४१ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में 'अस्' धातु में प्राकृत प्रत्यय 'मि' की प्राप्ति और ३-१४७ से प्राप्त रूप 'अस्+मि' के स्थान पर 'म्हि' रूप की सिद्धि हो जाती है। ___ गताः संस्कृत का पुंल्लिंग विशेषण का रूप है। इसका प्राकृत रूप गय है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से पदान्त विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोप; १-१७७ से 'त्' व्यञ्जन का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' व्यञ्जन के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' स्वर के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त वर्ण'या' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे संयुक्त व्यञ्जन 'म्हो' का सद्भाव होने से हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर गय रूप की सिद्धि हो जाती है। __ स्मः संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का बहुवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'म्हो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४४ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में 'अस्' धातु में प्राकृत प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति और ३-१४७ से प्राप्त रूप 'अस्+मो' के स्थान पर 'म्हो' रूप की सिद्धि हो जाती है।
'गय' (विशेषणात्मक) रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
स्मः संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का बहुवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'म्ह' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४४ से वर्तमानकाल में तृतीय पुरुष के बहुवचन में 'अस्' धातु में प्राकृत प्रत्यय 'म' की प्राप्ति और ३-१४७ से प्राप्त रूप अस्+म' के स्थान पर 'म्ह' रूप की सिद्धि हो जाती है।
अस्मि संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अत्थि' भी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४१ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में 'अस' धातु में प्राकृत प्रत्यय 'मि' की प्राप्ति और ३-१४८ से प्राप्त रूप 'अस्+मि' के स्थान पर 'अत्थि' रूप सिद्धि हो जाती है। 'अहं' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१०५ में की गई है।
स्थः संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का बहुवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप'अत्थि' भी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४४ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के बहुवचन में अस' धातु में प्राकृत प्रत्यय 'मो-मु-म' को प्राप्ति और ३-१४८ से प्राप्त रूप 'अस्+मो-मु-म' के स्थान पर 'अत्थि' रूप की सिद्धि हो जाती है।
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