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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 125 प्रत्यय 'सुप-सु के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति एवं द्वितीय से पंचम रूपों में सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे सप्तमी बहुवचन बोधक प्रत्यय 'सु' का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति होकर क्रम से पांच रूप 'तुसु, तुवेसु, तुमेसु, तुहेसु और तुब्भेसु सिद्ध हो जाते हैं।
छटे और सातवें रूपों में सूत्र-संख्या ३-१०४ के विधान से उपर्युक्त पांचवें प्राप्तांग में स्थित 'ब्भ' अंश के स्थान पर क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'म्ह' और 'ज्झ' अंश की प्राप्ति होने से 'तुम्ह और तुज्झ' अंग रूपों की प्राप्ति एवं शेष साधनिका की प्राप्ति उपर्युक्त सूत्र-संख्या ३-१५ तथा ४-४४८ से होकर छट्ठा तथा सांतवा रूप तुम्हेसु और तुज्झेसु भी सिद्ध हो जाते हैं। ____ आठवें रूप से लगाकर तेरहवें रूप तक में सूत्र-संख्या ३-१०३ की वृत्ति से पूर्वोक्त सातों अंग रूपों में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्त 'ए' की निषेध-स्थित; एवं यथा-प्राप्त अंग रूपों में ही सूत्र-संख्या ४-४४८ से सप्तमी के बहुवचनार्थ में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आठवें रूप से तेरहवें रूप तक की अर्थात् 'तुवसु, तुमसु, तुहसु, तुब्भसु, तुम्हमु और तुज्झसु' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
शेष चौदहवें रूप से लगाकर सोलहवें रूप में सूत्र-संख्या ३-१०३ की वृत्ति से पूर्वोक्त प्राप्तांग 'तुब्भ, तुम्ह और तुन्झ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; यों प्राप्तांग आकारान्त रूपों में सूत्र-संख्या ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचनार्थ में 'सु' प्रत्यय की संप्राप्ति होकर चौदहवीं पन्द्रहवां और सोलहवां रूप 'तुब्मासु, तुम्हासु और तुज्झासु' भी सिद्ध हो जाते हैं।।३-१०३।।
ब्भो म्ह-ज्झौ वा ॥ ३-१०४॥ युष्मदादेशेषु यो द्विरुक्तो भस्तस्य म्ह ज्झ इत्येतावादेशौ वा भवतः।। पक्षे स एवास्ते। तथैव चोदाहतम्॥
अर्थः-उपर्युक्त सूत्र-संख्या ३-९१, ३-९३, ३-९५, ३-९६, ३-९७, ३-९८, ३-९९, ३-१००, ३-१०२ और ३-१०३ में ऐसा कथन किया गया है कि संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'तुब्भ' अंग रूप की आदेश प्राप्ति हुआ करती है; यों प्राप्तांग 'तुब्भ' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ब्भ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से एवं क्रम से 'म्ह' और 'ज्झ' अंश रूप की प्राप्ति इस सूत्र ३-१०४ से हुआ करती है। तदनुसार 'तुब्भ' अंग रूप के स्थान पर 'तुम्ह' और 'तुज्झ' अंग रूपों की भी क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से संप्राप्ति जानना चाहिये। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में युष्मद्' के स्थान पर 'तुब्भ' अंग रूप का अस्तित्व भी कायम रहता ही है। इस विषयक उदाहरण उपर्युक्त सूत्रों में यथावसर रूप से प्रदर्शित कर दिये गये हैं; अतः यहां पर इनकी पुनरावृत्ति करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है; इस प्रकार वृत्ति और सूत्र का ऐसा तात्पर्य है। ३-१०४।।
अस्मदो म्मि अम्मि अम्हि हं अहं अहयं सिना।।३-१०५।। अस्मदः सिना सह एते षडादेशा भवन्ति।। अज्ज म्मि हासिया मामि तेण।। उन्नम न अम्मि कुविआ। अम्हि करेमि। जेण हं विद्धा। किं पम्हटुम्मि अहं। अहयं कयप्पणामो।।
अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' की संयोजना होने पर प्राप्त रूप 'अहम्' के स्थान पर प्राकृत में (प्रत्यय सहित मूल शब्द के स्थान पर) क्रम से (तथा वैकल्पिक रूप से) छह रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे आदेश प्राप्त छह रूप इस प्रकार हैं:- (अस्मद्+सि) अहम् ‘म्मि, अम्मि, अम्हि, हं, अह और अहयं अर्थात् मैं। इन आदेश प्राप्त छह रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- अद्य अहम् हासिता हे सखि! तेन अज्ज म्मि हासिआ मामि तेण अर्थात् हे सखि! आज मैं उससे हसाई गई याने उसने आज मुझे हंसाया। यहां पर 'अहम्' के प्राकृत रूपान्तर में 'म्मि' का प्रयोग किया गया है। यह प्रयोग प्रेरणार्थक भाव रूप है। उन्नम! न अहम् कुपिता-उन्नम! न अम्मि कुविआ अर्थात् उठ बैठो! (याने अनुनय-विनय-प्रणाम आदि मत करो; क्योंकि) मैं (तुम्हारे पर) क्रोधित (गुस्से वाली) नहीं हूं। यहां पर 'अहम् के स्थान पर प्राकृत में अम्मि' रूप का प्रदर्शन कराया गया है।
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