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________________ दुःखे णिव्वरः ||४-३।। दुःखविषयस्य कथेणिव्वर इत्यादेशो वा भवति ।। णिव्वरइ दुःखं कथयतीत्यर्थः ॥ अर्थ:- 'दुख को कहना, दुःख को प्रकट करना इस अर्थ में प्राकृत में विकल्प से 'णिव्वर' इस प्रकार के धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे- दुःखं कथयति णिव्वरइ = वह दुःख को कहता है; दुःख को प्रकट करता है ।।४-३।। जुगुप्से झुण-दु गुच्छ-दुगुञ्छाः ।।४-४।। प्रेय आदेशा वा भवन्ति ।। झुणइ । दुगुच्छ । दुगुञ्छइ । पक्षे। जुगुच्छइ ।। गलोपे। दुउच्छइ । दुउञ्छइ । जुउच्छइ ।। अर्थः- ‘घृणा करना, निन्दा करना' इस अर्थ में प्रयुक्त होने वाली संस्कृत - धातु 'जुगुप्स' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से तीन प्रकार की धातुओं की आदेश प्राप्ति होती है। वे क्रम से यों हैं: (१) झुण, (२) दुगुच्छ और (३) दुगुञ्छ। उदाहरण इस प्रकार है:- जुगुप्सति - झुणइ, दुगुच्छइ, दुगुञ्छइ = वह घृणा करता है अथवा वह निन्दा करता है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में जुगुच्छइ ऐसा रूप भी होगा । प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 229 सूत्र - संख्या १ - १७७ से मूल धातु जुगुच्छ में से विकल्प से 'ग' का लोप होने पर पूर्वोक्त तीनों रूपों की क्रम से वैकल्पिक प्राप्ति यों होगी :- (१) दुउच्छइ, (२) दुउञ्छइ और (३) जुउच्छइ = वह घृणा करता है अथवा निन्दा करता है।।४-४।। बुभुक्षि- वीज्योर्णीरव-वोज्जौ ।।४-५।। बुभुक्षेराचार क्विबन्तस्य च वीजेर्यथासंख्यमेतावादेशौ वा भवतः ।। णीरवइ । बहुक्ख इ। वोज्जइ । वीजइ । । अर्थ:- 'भूख' अर्थक संस्कृत धातु 'बुभुक्ष' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'णीरव' धातु की आदेश प्राप्ति होती है; यों' बुभुक्ष' के स्थान पर बुहुक्ख और णीरव दोनों धातुओं का प्रयोग होता है। जैसे- बुभुक्षति - णीरवइ अथवा बुहुक्ख-वह भूख अनुभव करता है अथवा वह भूखा है। इसी प्रकार से 'हवा के लिये पंखा करना' इस अर्थवाली और आचार अर्थक क्विप् प्रत्ययान्त वाली धातु 'वीज्' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'वोज्ज' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे - वीजयति = वोज्जइ अथवा वीजइ = वह पंखा करता है। यों क्रम से दोनों धातुओं के स्थान पर विकल्प से उपर्युक्त धातुओं की आदेश प्राप्ति जानना चाहिये । । : ४-५ ॥ ध्या - गो र्झा - गौ ॥४-६।। अनयोयथा -संख्यं झा गा इत्यादेशौ भवतः झाइ । झाअइ । णिज्झाइ । णिज्झाअइ । निपूर्वोदर्शनार्थः । गाइ । गाय । झांण । गाणं ।। अर्थः- संस्कृत धातु 'ध्यै' के स्थान पर प्राकृत में 'झा' धातु को नित्य रूप से आदेश प्राप्ति होती है इसी प्रकार से गायन करने अर्थक धातु 'गे' के स्थान पर भी नित्य रूप से 'गा' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे- ध्यायति=झाइ अथवा झाअइ = वह ध्यान करता है। ध्यान पूर्वक देखने के अर्थ में जब 'ध्यै' धातु के पूर्व में 'निर' उपसर्ग की प्राप्ति होती है, उस समय में भी 'ध्यै' के स्थान पर 'झा' धातु-रूप की ही आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-निर्ध्यायति णिज्झाइ अथवा णिज्झाअइ = वह ध्यान पूर्वक देखता है। 'गै' धातु का उदाहरण यों है:- गायति-गाइ अथवा गायइ-वह गाता है- गायन करता है। इसी सूत्र - सिद्धान्त से संस्कृत शब्द 'ध्यान' और (गायन अथवा ) 'गान' के स्थान पर प्राकृत में 'झाण' और 'गाण' शब्दों की क्रम से प्राप्ति होती है। जैसे- ध्यानम् = झाणम् और गानम् = गाणं। ये दोनों शब्द नपुंसकलिंग होने से इनमें सूत्र - संख्या ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। सूत्र - संख्या १ - २३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से झाणं और गाणं रूपों की सिद्धि हो जाती है । ४-६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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