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________________ 56 : प्राकृत व्याकरण संस्कृत प्राप्तय प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप और ३-१४ से प्राप्त तथा लुप्त शस् प्रत्यय के कारण से प्राप्तांग भत्तार' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकार तृतीय रूप भत्तारे सिद्ध हो जाता है। _ भर्ना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तुणा और भत्तारेण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७९ से र का लोप २-८९ से लोप हुये 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त्' को द्वित्त्व 'त्त की प्राप्ति, ३-४४ से अन्त्य ऋ के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति और ३-२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय टा-आ के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तुणा सिद्ध होता है। द्वितीय रुप-(भा=) भत्तारेणं में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्त्' की प्राप्ति; ३-४५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय 'टा आ' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ 'भत्तार' अंग के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भत्तारेण सिद्ध हो जाता है। भर्तृभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तूहिं और भत्तारेहिं होते हैं इनमें से प्रथम रूप में भर्तृ =भत्तु' अंग की साधनिका इसी सूत्र में ऊपर कृतवत्; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या-३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय भिस् के स्थान पर प्राकृत में हिं' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१६ से प्राप्त प्रत्यय 'हिं के पूर्वस्थ 'भत्तु' अंग में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तूहिं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (भर्तृभिः) भत्तारेहिं में भर्तृ=भत्तार अंग की साधनिका इसी सूत्र में ऊपर कृतवत्; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'हिं' के पूर्वस्थ 'भत्तार' अंग में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भत्तारेहिं सिद्ध हो जाता है। भर्तृः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तुणो, भत्तूओ, भत्तूउ, भत्तूहि, भत्तूहिन्तो, तथा भत्ताराओ भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्ताराहिन्तो और भत्तारा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में भत्तु' अंग की साधनिका इसी सूत्र में ऊपर कृतवत; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२३ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत 'ङसि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तुणो सिद्ध हो जाता है। __ द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ और पंचम रूपों में -अर्थात् भत्तूओ, भत्तूउ, भत्तूहि और भत्तूहिन्तो में भत्तु' अंग की प्राप्ति इसी सूत्र में कृत साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल प्राप्त-अंग 'भत्तु' में स्थित हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति और ३-८ से तथा ३-२३ की वृत्ति से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर क्रम से 'ओ-उ-हि-हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप- (रसेप तक) भत्तूआ, भत्तूउ, भत्तूहि, और भत्तूहिन्तो सिद्ध हो जाते हैं। छटे से दशवें रूपों में अर्थात्-(भर्तुः=) भत्ताराओ, भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्ताराहिन्तो और भत्तारा में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्' की प्राप्ति; ३-४५ से मूल शब्द 'भर्तृ में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; यों प्राप्त-अंग 'भत्तार' में ३-१२ से अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-८ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से-औ-उ-हि-हिन्तो और लुक्' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से भत्ताराओ, भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्ताराहिन्तो, एवं भत्तारा रूप सिद्ध हो जाते हैं। __ भर्तु; संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तुणो, भत्तुस्स और भत्तारस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त्त्' को द्वित्व 'त्' की प्राप्ति; ३-४४ से मूल शब्दस्थ अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'उ' आदेश की प्राप्ति और ३-२३ से प्राप्तांग भत्तु में षष्ठी विभक्ति के एकवचन संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तुणो सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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