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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 55 सूत्र-संख्या ३-४७ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अर' की प्राप्ति भी होती है और ऐसा होने पर इन शब्दों की रूपावलि अकारान्त शब्दों के अनुसार होती है जैसे:-पितृ जस्-पितरः= पिअरा; इत्यादि। प्रश्नः-'सि' 'औ और अम्' प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर ऋकारान्त शब्दों में 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति क्यों नहीं होती है? उत्तरः- 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'पितृ+सि-पिता का प्राकृत रूपान्तर 'पिआ होता है; 'अम्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'पितृ अम्=पितरम्' का प्राकृत रूपान्तर पिअरं होता है; तथा प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति के द्विवचन में औ' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'पितृ औ=पितरौ' का प्राकृत रूपान्तर 'पिअरा' होता है; अतएव 'सि' 'अम्'और 'औ' प्रत्ययों को इस विधान के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता है। __ भर्तारः- संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तू, भत्तुणो, भत्तउ, भत्तओ और भत्तारा होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'भर्तृ में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति; ३-४४ से अन्त्य 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'उ' स्वर की प्राप्ति और ३-४ से तथा ३-२० की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय का लोप एवं ३-१२ से प्राप्त लुप्त (जस् प्रत्यय के कारण) अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'भत्तू' सिद्ध होता है। ___द्वितीय रूप- (भर्तारः=) भत्तुणो में भत्तु' अंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् और ३-२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत-प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से ‘णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'भत्तुणो' सिद्ध हो जाता है। - तृतीय रूप- (भर्तारः-) भत्तउ में भत्तु' अंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत्; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत रूप में 'डउ' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डउ' में 'इ' इत्संज्ञक होने से 'भत्तु' अंग में स्थित अन्त्य स्वर 'उ' की इत्संज्ञा हो जाने से इस'उ' का लोप; एवं प्राप्त अंग 'भत्त्' में 'डउ अउ' प्रत्यय की संयोजना होकर तृतीय रूप 'भत्तउ' भी सिद्ध हो जाता है। चतुर्थ रूप (भर्तारः=) भत्तओ में 'भत्तु' अंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् और शेष साधनिका तृतीय रूप के समान ही सूत्र-संख्या ३-२० से होकर एवं डओ=अओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चतुर्थ रूप भत्तओ भी सिद्ध हो जाता है। पंचम रूप- (भर्तारः=) भत्तारा में सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत रूप 'भर्तृ में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३-४५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहवचन में संस्कत प्रत्यय 'जस' का प्राकत में लोप और ३-१२ से प्राप्त एवंलप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर पंचम रूप भत्तारा सिद्ध हो जाता है। भर्तृन् संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्तू, भत्तुणो और भत्तारे होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्' की प्राप्ति; ३-४४ से मूल संस्कृत शब्द 'भर्तृ' में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'उ' आदेश की प्राप्ति; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय शस् का प्राकृत में लोप और ३-१८ से प्राप्त एवं एवं लुप्त प्रत्यय शस् के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तू सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय-रूप-भर्तुन्-भत्तुणो में भत्तु' रूप अंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् और ३-२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय; 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से ‘णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भत्तुणो सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप- (भर्तृन्-) भत्तारे में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-४५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आर' की प्राप्ति; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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