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x : हेम प्राकृत व्याकरण प्रतिष्ठा-पात्र मुनिवर थे; यही कारण है कि स्थानकवासी समाज के सभी मुनिराजों ने आपके स्वर्गारोहण हो जाने पर हार्दिक श्रद्धांजलि प्रकट की थी; आपके यशो-पूत गुणों का अभिनंदन किया था और आपके अभाव में उत्पन्न समाज की क्षति को अपूरणीय बतलाया था। इसी प्रकार से सैकड़ों गांवों, कस्बों तथा शहरों के जैन श्री संघों ने शोक-सभाएं करके आपके गुणानुवाद गाये थे; और हार्दिक खिन्नता-सूचक शोक प्रस्ताव पारित किये थे। उन शोक-प्रस्तावों का सारांश उपाध्याय श्री प्यारचंदजी महाराज के जीवन-चरित्र' से नीचे उद्धृत किया जा रहा है-'आप गम्भीर, शांत स्वभावी, सरल प्रकृति के संत थे। सौजन्य, सादगी एवं भव्यता की आप प्रतिमूर्ति थे। आपकी मंगल वाणी हदय में अमृत उडेल देती थी। आपके सजीव व्याख्यानों का श्रोताओं के हदय पर तलस्पर्शी प्रभाव पड़ता था। आप प्रभावशाली एवं महान उपकारी संत थे। वाणी, व्यवहार और विचार की समन्वयात्मक त्रिवेणी से उपाध्याय जी महाराज का व्यक्तित्व सदैव भरापरा रहता था। उपाध्याय जी महाराज आगम-ज्ञाता थे, पण्डित थे, मिलनसार, शांत गम्भीर प्रतिज्ञावान और विचक्षण प्रतिभा सम्पन्न थे। आप अनुभवी, निस्पृही, त्यागी, उदार और चारित्रवान मुनिराज थे। वे एक महान संत थे; उनका जीवन-आदर्श तथा उच्च था। यथानाम तथागुण के अनुसार वे प्यार की मूर्ति थे। वे सरल स्वभावी और पर उपकारी थे। उपाध्याय जी महराज अपने जीवन में समाज को स्नेह का सौरभ और विचारों के प्रकाश निरन्तर देते रहे थे आप जैन समाज में एक चमकते हुए सितारे थे। आपका दिव्य जीवन प्रकाश स्तम्भ समान था। आप बहुत ही मिलनसार तथा प्रेम मूर्ति थे। समाज के आप महान मूक सेवक थे। “स्वकृत सेवा के फल से प्राप्त होने वाले यश से दूर रहना" यह आपके सुन्दर जीवन की एक विशिष्ट कला थी। आपका जीवन ज्योतिर्मय, विकसित और विश्व-प्रेम की सुवासना से सुवासित था। आप समाज में एक आदर्श कार्यकर्ता थे इत्यादि-इत्यादि रूप से उक्त शोक सभाओं में आपके मौलिक एवं सहजात गुणों पर प्रकाश डाल गया था।
विक्रम संवत 2016 में पौष शुक्ला दशम शुक्रवार को दिन के 9.15 बजे आपने भावना पूर्वक सहर्ष 'व्रत' के रूप में आहार पानी ग्रहण करने का सर्वथा ही परित्याग कर दिया था; ऐसे व्रत को जैन परिभाषा में संथारा व्रत' कहा जाता है। ऐसे इस महान व्रत को अंतिम समय आदर्श साधना के रूप में ग्रहण करके आप ईश-चिंतन में संलग्न हो गये थे; धर्म-ध्यान और उत्कृष्ट आत्म चिंतन में ही आप तल्लीन हो गये थे। यह स्थिति आधे घंटे तक रही एवं उसी दिन 9.45 बजे जैन समाज तथा अपने प्रिय शिष्यों से एवं मुनिवरों से सभी प्रकार का भौतिक संबंध परित्याग करके स्वर्ग के लिए अन्तर्ध्यान हो गये।
आपकी अंतिम रथ-यात्रा में लगभग बीस हजार की मानव भेदिनी उपस्थित थी; जो कि अनेक गांवों से आ-आकर एकत्र हुई थी। इस प्रकार इस प्राकृत-व्याकरण के हिन्दी व्याख्याता अपने भौतिक शरीर का परित्याग करके तथा अपनी अमर यशोगाथा की 'चारित्र-साहित्य-सेवा और त्याग' के क्षेत्र में परिस्थापना करके परलोकवासी हो गये। ___ आशा है कि प्राकृत व्याकरण के प्रेमी आपकी शिक्षा-प्रद यशोगाथा से कुछ न कुछ शिक्षा अवश्यमेव ग्रहण करेंगे। इति शुभम
उदय मुनि (सिद्धात शास्त्री)
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