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________________ स्पृशे रिछप्पः।।४-२५७।। स्पृशतेः कर्म-भावे छिप्पादेशौ वा भवति, क्य लुक् च ।। छिप्पइ । छिविज्जइ ॥ अर्थः- “छूना, स्पर्श करना" अर्थक संस्कृत - धातु 'स्पर्श' का प्राकृत - रूपान्तर "छिव" होता है; परन्तु कर्मणि-भावे-प्रयोग में इस "स्पृश्" धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में "छिप्प" ऐसे धातु रूप की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है; तथा ऐसी वैकल्पिक आदेश प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे अर्थ-बोधक प्रत्यय "अ अथवा इज्ज" का प्राकृत रूपान्तर में लोप हो जाता है; यों जहाँ पर "ईअ अथवा इज्ज" प्रत्ययों का लोप हो जायगा वहां पर "स्पृर्श" के स्थान पर 'छिप्प' धातु रूप का प्रयोग होगा और जहाँ पर 'ईअ अथवा ईज्ज' प्रत्ययों का लोप नहीं होगा वहां पर ‘स्पृश' के स्थान पर 'छिव' धातु रूप का उपयोग किया जायगा । दोनों प्रकार के दृष्टान्त यों हैं:स्पृश्यते=छिप्पइ अथवा छिविज्जइ (अथवा ) छिवीअइ- छूआ जाता है, स्पर्श किया जाता है।।४-२५७।। क्तेनाप्फुण्णादयः।।४-२५८।। अप्फुण्णादयः शब्दा आक्रमि-प्रभृतीनां धातुनाम् स्थाने क्तेन सह वा निपात्यन्ते ।। अप्फुण्णो । आक्रान्तः ॥ अक्कोस।। उत्कृष्टम्।। फुड || स्पष्टम् ।। बोलीणो । अतिक्रांतः । वोसट्टीः । विकसितः । निसुट्टो । निपातितः ।। लुग्गो । रूग्णः।। ल्हिक्को। नष्टः।। पम्हुट्टो । प्रमृष्टः । प्रमुषितो वा ।। विढत्त ।। अर्जितम्।। छित्त ।। स्पृष्टम् ।। निमिअ।। स्थापितम्।। चक्खिअ।। आस्वादितम्। लुअ ।। लुनम्॥ जढ। त्यक्तम्।। झोसिअ । क्षिप्तम्। निच्छुढ॥ उद्वृत्तम्॥ पल्हर्थं पलोट्टं च।। पर्यस्तम् । हीसमण ।। हेषितम् । इत्यादि।। अर्थः- संस्कृत-भाषा में धातुओं के अन्त में 'तकार' - 'क्त' प्रत्यय के जोड़ने से कर्मणि भूत कृदन्त के रूप बन जाते हैं और तत्पश्चात् ये बने बनाये शब्द ' विशेषण' जैसी स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं तथा संज्ञा - शब्दों के समान ही इनके रूप भी विभिन्न विभक्तियों में तथा वचनों में चलाये जा सकते है। जैसे- गम् से गत = गया हुआ । मन् से मत-माना हुआ । इत्यादि । प्राकृत भाषा में भी इसी तरह से कर्मणि - भूत- कृदन्त के अर्थ में संस्कृत भाषा समान ही धातुओं में 'क्त=त' के स्थान पर 'अ' प्रत्यय की संयोजना की जाती है। जैसे:- गतः = = गओ = गया हुआ । मतः =मओ=माना हुआ। प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 283 अनेक धातुओं में 'त=अ' प्रत्यय जोड़ने के पूर्व इन धातुओं के अन्त्य स्वर 'अकार' को 'इकार' की प्राप्ति हो जाती है; जैसे:- पठितम् = पढिअं पढा हुआ । श्रुतम् - सुणिअं सुना हुआ । यों रूप बन जाने पर इनके अन्य रूप भी विभिन्न विभक्तियों में बनाये जा सकते है ।। - उपर्युक्त संविधान का प्रयोग किये बिना भी प्राकृत भाषा में अनेक शब्द ऐसे हैं, जो कि बिना प्रत्ययों के ही कर्मणि- भूत- कृदन्त के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। ऐसे शब्दों की यह स्थिति वैकल्पिक होती है और ये 'निपात से सिद्ध हुए' माने जाते है ।। विभिन्न विभक्तियों में तथा दोनों वचनों में इन शब्दों के रूपे चलाये जा सकते है ।। ऐसे शब्द 'विशेषण की कोटि' को प्राप्त कर लेते हैं, इसलिये ये तीनों लिंगों में प्रयुक्त किये जा सकते है ।। इस प्रकार से ये शब्द 'आर्ष' जैसे ही है । 'आक्रम्' आदि संस्कृत धातुओं के स्थान पर 'क्त=त=अ' प्रत्यय सहित प्राकृत में विकल्प से जिन धातुओं ने आदेश-स्थिति को निपात रूप से ग्रहण किया है, उन धातुओं में से कुछ एक धातुओं के रूप (बने बनाये रूप में READY MADE रूप में) नीचे दिये जा रहे है ।। यही इस सूत्र का तात्पर्य है । Jain Education International (१) आक्रान्तः-अप्फुण्णो दबाया हुआ । (२) उत्कृष्टम् = उक्कोसं उत्कृष्ट, अधिक से अधिक । (३) स्पष्टम्=फुडं=स्पष्ट अथवा व्यक्त, साफ। (४) अतिक्रान्तः = वोलोणो-व्यतीत हुआ, बीता हुआ। (५) विकसितः=वोसट्टो=विकास पाया हुआ, खिला हुआ। (६) निपातितः- निसुट्टो - गिराया हुआ । (७) रूग्ण: =लुग्गो=भाग्न, = For Private & Personal Use Only = www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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