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________________ 282 : प्राकृत व्याकरण व्याहगे हिप्पः।।४-२५३।। व्याहरतेः कर्म-भावे वाहिप्प इत्यादेशो वा भवति।। तत्संनियोगे क्यस्य च लुक।। वाहिप्पइ। वाहरिज्ज्इ।। अर्थः- 'बोलना, कहना अथवा आह्वान करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'व्या+ह' का प्राकृत-रूपान्तर 'वाहर' होता है; परन्तु कर्मणि-भावे-प्रयोग में उक्त धातु 'व्याह' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में वाहिप्प' ऐसे धातु रूप की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है तथा ऐसी वैकल्पिक आदेश-प्राप्ति होने पर प्राकृत-भाषा में कर्मणि-भावे-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। यों जहाँ पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप हो जायगा वहाँ पर 'व्याह' के स्थान पर 'वाहिप्प' का प्रयोग होगा और जहां पर 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप नहीं होगा वहां पर 'व्याह' के स्थान पर 'वाहर' का प्रयोग होगा। जैसे:- व्याहियते-वाहिप्पइ अथवा वाहहिरज्ज्इ बोला जाता है, अथवा कहा जाता है अथवा आहान किया जाता है।।४-२५३।। आरभेराढप्पः ।।४-२५४।। आङ् पूर्वस्य रभेः कर्म-भावे आढप्प इत्यादेशो वा भवति। क्यस्य च लुक्॥ आढप्पइ। पक्षे। आढवीअइ।। अर्थः- 'आ' उपसर्ग सहित 'रभ्' धातु संस्कृत-भाषा में उपलब्ध है, इसका अर्थ 'आरम्भ करना, शुरू करना' ऐसा होता है। इस 'आरम्भ' धातु का प्राकृत-रूपान्तर 'आढव' होता है; परन्तु कर्मणि-भावे-प्रयोग में संस्कृत-धातु 'आरम्भ' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'आढप्प' ऐसे धातु रूप की आदेश-प्राप्ति विकल्प से हो जाती है; तथा ऐसी वैकल्पिक आदेश-प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का प्राकृत-रूपान्तर में लोप हो जाता है। यों जहाँ पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप हो जायगा वहाँ पर 'आ+रम्' के स्थान पर 'आढप्प' का प्रयोग होगा और जहां पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप नहीं होगा वहां पर 'आरम्भ' के स्थान पर 'आढव' धातु रूप का उपयोग किया जाएगा। जैसे:- आरभ्यते=आढप्पइ अथवा आढवीअइ =आरंभ किया जाता है, शुरू किया जाता है।।४-२५४॥ स्निह-सिचोः सिप्पः।।४-२५५।। अनयोः कर्म-भावे सिप्प इत्यादेशो भवति, क्यस्य च लुक।। सिप्पइ। स्निह्यते। सिच्यते वा।। अर्थः- 'प्रीति करना, स्नेह करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'स्निह' के और 'सींचना, छिटकना' अर्थक संस्कृत-धातु 'सिच्' के स्थान पर कर्मणि-भावे प्रयोगार्थ में प्राकृत-रूपान्तर में 'सिप्प' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है; और ऐसी आदेशप्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे-प्रयोग वाचक प्राकृत-प्रत्यय "ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। उदाहरण यों है:- (१) स्निह्यते सिप्पइ-प्रीति की जाती है, स्नेह किया जाता है। (२) सिच्यते-सिप्पइ-सींचा जाता है, छिटका जाता है। यों " स्निह" और "सिच्" दोनों धातुओं के स्थान पर "सिप्प" इस एक ही धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है परन्तु दोनों अर्थ प्रसंगानुसार समझ लिये जाते है।।४-२५५।। ग्रहेर्पप्पः ।।४-२५६॥ ग्रहेः कर्मभावे घेप्प इत्यादेशो वा भवति, क्यस्य च लुक्॥ घेप्पइ। गिण्हिज्जइ।। अर्थः- "ग्रहण करना, लेना' अर्थक संस्कृत-धातु "ग्रह" का प्राकृत-रूपान्तर "गिण्ह" होता है; परन्तु कर्मणि-भावे-प्रयोग में इस "ग्रह" धातु के स्थान पर प्राकृत-भाषा में "घेप्प" ऐसे धातु रूप की आदेश-प्राप्ति विकल्प से होती है; तथा ऐसी वैकल्पिक आदेश-प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे-अर्थबोधक प्रत्यय "ईअ अथवा इज्ज'' का प्राकृत रूपान्तर में लोप हो जाता है; यों जहाँ पर "ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप हो जाएगा वहां पर 'ग्रह' के स्थान पर 'घेप्प' का प्रयोग होगा और जहां पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप नहीं होगा वहाँ पर "ग्रह" के स्थान पर "गिण्ह" धातु-रूप का उपयोग किया जायेगा। जैसे:- ग्रह्यते-घेप्पइ अथवा गिण्हिज्जइ (अथवा गिण्हीअइ)-ग्रहण किया जाता है, लिया जाता है।।४-२५६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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