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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 281 अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है यों इन 'ईअ अथवा ईज्ज' प्रत्ययों का लोप होने पर ही 'विढप्प अथवा विढव' धातु रूप की विकल्प से आदेश प्राप्ति जानना । तत्पश्चात् काल बोधक-प्रत्ययों की इस आदेश-प्र -प्राप्त धातु रूप से संयोजना की जाती है। जहाँ 'अर्ज' का प्राकृत रूपान्तर 'अज्ज' यदि रहेगा तो कर्मणि भावे - प्रयोगार्थ में इस 'अज्ज' धातु में 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्यय की संयोजना करके तत्पश्चात् ही काल-बोधक-प्रत्ययों की संयोजना की जा सकेगी। जैसे:अर्ण्यते= विढप्पइ (अथवा विढवइ) अथवा अज्जिज्जइ-उपार्जन किया जाता है, पैदा किया जाता है। यों 'विढप्प अथवा विढव' में 'ईअ, इज्ज' प्रत्यय का लोप है, जबकि 'अज्ज' में 'इज्ज' प्रत्यय का सद्भाव है। 'बहुलम् ' सूत्र के अधिकार से कहीं-कही पर 'विढव' आदेश प्राप्त धातु में भी 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्यय का सद्भाव देखा जाता है। जैसा कि वृत्ति में उदाहरण दिया गया है कि:- अर्ज्यते = विढविज्जइ-पैदा किया जाता है, उपार्जन किया जाता है । । ४ - २५१ ।। ज्ञो णव्व-ज्जौ ॥४-२५२॥ जानातेः कर्म-भावे णव्व णज्ज इत्यादेशौ वा भवतः ।। तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् ।। णव्वइ, गज्जइ । पक्षे । जाणिज्जइ। मुणिज्जइ।। प्रज्ञो र्णः ।। ( २- ४२ ) इति णादेशे तु । णाइज्जइ । । नञपूर्वकस्य । अणाइज्जइ ॥ - अर्थः- 'जानना' अर्थक संस्कृत धातु 'ज्ञा' के प्राकृत रूपान्तर में कर्मणि - भावे प्रयोग में 'ज्ञा' के स्थान पर 'णव्व और णज्ज' ऐसे दो धातु-रूपों की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है । यों आदेश प्राप्ति होने पर कर्मणि - भावे अर्थ-बोधक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है केवल 'णव्व अथवा णज्ज' में काल-बोधक प्रत्यय जोड़ने मात्र से ही कर्मणि भावे - बोधक- अर्थ की उत्पत्ति हो जाती है। दोनों के क्रम से उदाहरण यों हैं:- ज्ञायते = णव्वइ अथवा णज्जइ-जाना जाता है। सूत्र - संख्या ४- २४२ से प्रारम्भ करके सूत्र - संख्या ४- २५७ तक कुछ एक धातुओं के कर्मणि भावे - अर्थ में नियमों का संविधान किया जा रहा है और इस सिलसिले में 'क्यस्य च लुक् ऐसे शब्दों का भी प्रयोग किया जा रहा है, तद्नुसार 'क्य=य' प्रत्यय संस्कृत भाषा में कर्मणि भावे - अर्थ में धातुओं के मूल स्वरूप ही जोड़ा जाता है और इसी ‘क्य=य' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत भाषा में सूत्र - संख्या ३ - १६० से 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्यय - की प्राकृत-धातु में संयोजना करके कर्मणि भावे - अर्थक प्रयोग का निर्माण किया जाता है; परन्तु कुछ एक धातुओं में इस 'य' प्रत्यय बोधक 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप हो जाने पर भी कर्मणि भावे - अर्थ प्रकट हो जाता है; ऐसा 'क्य च लुक्' शब्दों से समझना चाहिये। ऊपर 'ज्ञा' धातु के 'णव्व और णज्ज' रूपों की आदेश-प्राप्ति वैकल्पिक बतलाई गई है; अतः पक्षान्तर में 'ज्ञा' धातु के सूत्र - संख्या ४-७ से 'जाण और मुण' प्राकृत धातु रूप होने से इनके कर्मणि भावे - अर्थ में क्रियापदीय रूप यों होगें :- ज्ञायते=जाणिज्जइ अथवा मुणिज्जइ जाना जाता है। 'णव्वइ तथा गज्जइ' में 'इज्ज' प्रत्यय का लोप है, जबकि ‘जाणिज्जइ और मुणिज्जइ' में 'इज्ज' प्रत्यय का सद्भाव है, इस अन्तर को ध्यान में रखना चाहिये । किन्तु इन चारों क्रियापदों का अर्थ तो 'जाना जाता है' ऐसा एक ही है। सूत्र - संख्या २- ४२ से 'ज्ञा' के स्थान पर 'णा' रूप की भी आदेश प्राप्ति होती है और ऐसा होने पर 'ज्ञायते' का एक प्राकृत-रूपान्तर 'णाइज्जइ' का अर्थ भी 'जाना जाता है' ऐसा ही होगा। यदि 'नहीं' अर्थक प्रत्यय 'न अथवा अ' 'ज्ञा' धातुओं में जुड़ा हुआ होगा तो इसके क्रियापदीय रूप यों होंगे :- न ज्ञायते=अज्ञायते=अणाइज्जइ नहीं जाना जाता है। यों 'ज्ञा' धातु के प्राकृत भाषा में कर्मणि भावे - अर्थ में क्रियापदीय - स्वरूप जानना चाहिये ॥ ४ - २५२ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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