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________________ 280 : प्राकृत व्याकरण या इज्ज' प्रत्यय ही रहेगा। जैसे:- (११) गम्यते= गम्मइ अथवा गमिज्जइ-जाया जाता है। (२) हस्यते-हस्सइ अथवा हसिज्जइ-हँसा जाता है। (३) भण्यते भण्णइ अथवा भणिज्जइ-कहा जाता है, बोला जाता है। (४) छुप्यते छुप्पइ अथवा छुविज्जइ-स्पर्श किया जाता है। सूत्र-संख्या ४-२२६ में विधान किया गया है कि 'रूद् और नम्' धातुओं के अन्त्य अक्षर को 'वकार' अक्षर की आदेश प्राप्ति हो जाती है। तद्नुसार यहां पर संस्कृति धातु 'रूद्' को 'रूव' रूप प्रदान करके इसका उदाहरण दिया जा रहा है। (५) रूद्यते-रूव्वइ अथवा रूविज्जइ रोया जाता है -रूदन किया जाता है। (६) लभ्यते-लब्भइ अथवा लहिज्जइ-प्राप्त किया जाता है। (७) कथ्यते कत्थइ अथवा कहिज्जइ कहा जाता है। इन 'लभ् और कथ' धातुओं में इसी सूत्र से प्रथम बार तो 'द्वित्व' 'भ्म और थ्य' की प्राप्ति हुई है और पुनः सूत्र-संख्या २-६० से 'ब्भ तथा त्थ' की प्राप्ति होने से उपर्युक्त उदाहरणों में 'लब्भ तथा कत्थ' ऐसा स्वरूप प्रदर्शित किया गया है। (८) भुज्यते भुज्जइ अथवा भुजिज्जइ-खाया जाता है, भोगा जाता है। यहां पर 'भुज्' को 'भुंज्' की प्राप्ति सूत्र-संख्या ४-११० से हुई है, यह ध्यान में रखना चाहिये। ___ भविष्यत्-कालीन दृष्टान्त इस प्रकार से है:- गमिष्यते गम्मिहिइ अथवा गमिहिइ जाया जायगा; इत्यादि रूप से समझ लेना चाहिये।।४-२४९।। ह-क-तु-ज्रामीरः॥४-२५०।। एषामन्त्यस्य ईर इत्यादेशो वा भवति।। तत्सनियोगे च क्य-लुक्।। हीरइ। हरिज्जइ।। कीरइ। करिज्जइ।। तीरइ। तरिज्जइ। जीरइ। जरिज्जइ।। अर्थः-प्राकृत-भाषा में (१) हरना, चोरना' अर्थक धातु 'ह' के, (२) 'करना' अर्थक धातु 'कृ' के, (३) 'तरना, पार पाना' अर्थक धातु 'तृ' के, और (४) 'जीर्ण होना' अर्थक धातु 'रॉ' के कर्मणि भावे-प्रयोग में अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'ईर' अक्षरावयव की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है; अर्थात् 'ह का हीर', 'कृ का कीर', 'तृ का तीर' और 'का जीर' हो जाता है और ऐसा होने पर कर्मणि-भावे-प्रयोगाथक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। यों जहाँ पर इन धातुओं में 'ईअ अथवा इज्ज' का सद्भाव है वहाँ पर इन धातुओं के अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'ईर' आदेश की प्राप्ति नहीं होती है। 'ईर' आदेश की प्राप्ति होने पर ही 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप होता है; यह स्थिति वैकल्पिक है उक्त चारों प्रकार की धातुओं के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- हियते-हीरइ अथवा हरिज्जइ-हरण किया जाता है अथवा चुराया जाता है। (२) क्रियते कीरइ अथवा करिज्जइ-किया जाता हैं। (३) तीर्यते-तीरइ अथवा तरिज्जइ-तैरा जाता है, पार पाया जाता है, और (४) जीर्यते-जीरइ अथवा जरिज्जइ-जीर्ण हुआ जाता है। कर्मणि-भावे-प्रयोगार्थ में उक्त चारों धातुओं की यों उभय स्थिति को सम्यक् प्रकार से समझ लेना चाहिये।।४-२५०॥ अर्जेविढप्पः ।।४-२५१।। अन्त्यस्येति निवृत्तम्। अर्जेविढप्प इत्यादेशौ वा भवति।। तत्सनियोगे क्यस्य च लुक् विढप्पइ। पक्षे। विढविज्जइ। अज्जिज्जइ।। ___ अर्थः- उपर्युक्त सूत्र-संख्या ४-२५० तक अनेक धातुओं के अन्त्यक्षर को आदेश प्राप्ति होती रही है; परन्तु अब इस सूत्र से आगे के सूत्रों में धातुओं के स्थान पर वैकल्पिक रूप से अन्य धातुओं की आदेश-प्राप्ति का संविधान किया जाने वाला है, इसलिये अब यहाँ से अर्थात् इस सूत्र से 'अन्त्य' अक्षर की आदेश प्राप्ति का संविधान समाप्त हुआ जानना। ऐसा उल्लेख इसी सूत्र की वृति के आदि शब्द से समझना चाहिये। 'उपार्जन करना, पैदा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'अर्ज' का प्राकृत-रूपान्तर 'अज्ज' होता है; परन्तु इस प्राकृत-धात् 'अज्ज' के स्थान पर कर्मणि-भावे-प्रयोगार्थ में प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'विढप्प अथवा विढव' धातु-रूप की आदेश-प्राप्ति होती है और ऐसी आदेश प्राप्ति विकल्प से होने पर कर्मणि-भावे-बोधक प्रत्यय 'ईअ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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