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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 279 प्रत्यय जुड़ने के पूर्व 'ज्झ' अक्षरावयव की विकल्प से प्राप्ति होती है तथा ऐसा होने पर कर्मणिभावे-अर्थक प्राकृत-प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। यदि 'न्ध' के स्थान पर 'ज्झ नहीं किया जायगा तो ऐसी स्थिति में ईअ अथवा इज्ज' प्रत्यय का सद्भाव अवश्य रहेगा। जैसेः- बध्यते-बज्झइ अथवा बन्धिज्जइ=बांधा जाता है। भविष्यत्-कालीन उदाहरण यों है:- बन्धिष्यते बज्झिहिइ अथवा बन्धिहिइ=बांधा जायगा।
'बन्धिहिइ क्रियापद कर्मणि-भावे-प्रयोग में प्रर्दशित करते हुए भविष्यत्-काल में लिखा गया है और ऐसा करते हुए कर्मणिभावे अर्थ वाले प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का जो लोप किया गया है, इस संबंध मे।। सूत्र-संख्या ३-१६० की वृत्ति का विधान ध्यान में रखना चाहिय। इसमें यह स्पष्ट रूप से बतलाया है कि 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से कहीं-कहीं पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का विकल्प से लोप हो जाता है और ऐसा होने पर कर्मणि-भावे अर्थ की उपस्थिति हो सकती है।
सूत्र-संख्या ४-२४३ से ४-२४९ तक में प्रर्दशित भवष्यित्-कालीन उदाहरणों के संबंध में भी यहीं बात ध्यान में रखनी चाहिये। इनमें विकल्प से 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप करके भी कर्मणि-भावे अर्थ में भविष्यत्-काल प्रदर्शित किया गया है, तदनुसार इसका कारण उक्त सूत्र-संख्या ३-१६० की वृत्ति ही है।।४-२४७।।
समनूपाद्र्धेः ॥४-२४८॥ समनूपेभ्यः परस्य रूधेरन्त्यस्य कर्म-भावे ज्झो वा भवति।। तत्सनियोगे क्यस्य च लुक्। संरुज्झइ। अणुरूज्झइ। उवरुज्झइ। पक्षे। संरून्धिज्जइ।। अणुरून्धिज्जइ। उवरून्धिज्जइ। भविष्यति। संसज्झिहिइ। संरून्धिहिइ। इत्यादि।।
अर्थः- 'सं, अनु, और उप' उपसर्गों में से कोई भी उपसर्ग साथ में हो तो 'रूध-रून्ध' धातु के अन्त्य अवयव 'रूप 'न्ध' के स्थान पर कर्मणि-भावे प्रयोगार्थ में विकल्प से 'ज्झ' अवयव रूप अक्षरों की आदेश प्राप्ति होती है तथा इस प्रकार के 'ज्झ' की आदेश प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे-अर्थ-बोधक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। यों 'न्ध' के स्थान पर 'उझ' की आदेश प्राप्ति नहीं है वहां पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्यय का सद्भाव अवश्यमेव रहेगा। जैसे:- संरूज्झइ अथवा संरूधिज्जइ-रोका जाता है, अटकाया जाता है। अनुरूध्यते अणुरूज्झइ अथवा अणुरून्धिज्जइ अनुरोध किया जाता है, प्रार्थना की जाती है अथवा अधीन हुआ जाता है, सुप्रसन्नता की जाती है। उपरुध्यते-उवरूज्झइ अथवा उवरुन्धिज्जइरोका जाता है, अड़चने डाली जाती है अथवा प्रतिबन्ध किया जाता है। भविष्यत-कालीन दष्टान्त यों है:-संरून्धिष्यते-संरूज्झिहिड अथवा संरून्धिहिड-रोका अटकाया जायेगा। इत्यादि रूप से शेष प्रयोगों को स्वयमेव समझ लेना चाहिये। 'सरून्धिहइ क्रियापद भविष्यत्-कालीन होकर कर्मणि-भावे अर्थ में बतलाया जाने पर भी 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप विधान सूत्र- संख्या ३-१६० की वृत्ति से किया गया है। इसको नहीं भूलना चाहिये।।४-२४७।।
___ गमादीनां द्वित्वम्।।४-२४९।। गमादीनामन्त्यस्य कर्म-भावे द्वित्वं वा भवति।। तत्सनियोगे क्यस्य च लुक्॥ गम्। गम्मइ। गमिज्जइ। हस्। हस्सइ। हसिज्ज्इ।। भण् भण्णइ। भणिज्जइ।। छुप्। छुप्पइ। छुविज्इ।। रूद-नमो वः (४-२२६) इति कृतवकारादेशो रूदिरत्र पठयते। यव् रूव्वइ। रूविज्जइ।। लम्। लब्मइ। लहिज्जइ।। कथ् कत्थइ। कहिज्जइ। भुज्। भुज्जइ भुज्जिइ।। भविष्यति। गम्मिहिइ। गमिहिइ। इत्यादि।।
अर्थः- 'गम्, हस, भण, छुव' आदि कुछ एक प्राकृत धातुओं के कर्मणि-भावे-अर्थक प्रयोगों में इन धातुओं के अन्त्य अक्षर को द्वित्व अक्षर की प्राप्ति विकल्प से हो जाती है। यों द्वित्व-रूपता की प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे-बोधक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। जहां पर 'ईअ अथवा इज्ज' प्रत्ययों का सद्भाव रहेगा वहाँ पर उक्त द्वित्व-रूपों की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। यों दोनों में से या तो द्वित्व-अक्षरत्व रहेगा अथवा 'ईअ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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