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278 : प्राकृत व्याकरण
"बहुलम्" सूत्र के अधिकार से "हन्' धातु के कर्तरि-प्रयोग में अन्त्य "नकार" व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर द्वित्व "म्म" की प्राप्ति विकल्प से हो जाती है। जैसे:- हन्ति-हम्मइ अथवा (हणइ) वह मारता है। कहीं कहीं पर उक्त रीति से प्रदर्शित "नकार" के स्थान पर द्वित्व "म्म" की प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:- हन्तव्यम् हन्तव्वं मारने योग्य है, अथवा मारा जाना चाहिये हत्वा हन्तूण मार करके। हतः हओ-मारा हुआ; इत्यादि। यों "हन् और खन्" धातुओं के प्राकृत-रूपान्तर में प्रयोग-विशेषों में प्राप्तव्य द्वित्व "म्म" की वैकल्पिक-स्थिति को जानना चाहिये।।४-२४४।।
ब्भो दुह-लिह-वह-रूधामुच्चतः।।४-२४५॥ दुहादीनामन्त्यस्य कर्म भावे-द्विरुक्तो 'भो' वा भवति।। तत् संनियोगे क्यस्य च लुक्। वहे रकारस्य च उकारः।। दुब्मइ दुहिज्जइ। लिब्भइ लिहिज्जइ। बुब्मइ वहिज्जइ। रूब्मइ रून्धिज्जइ। भवविष्यति। दुभिहिइ दुहिहिइ इत्यादि।।
अर्थः- प्राकृत-भाषा में 'दुह, लिह, वह और रुध(सूत्र-संख्या ४-२१८ से ) रून्ध धातुओं के अन्त्य व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर कर्मणि-भावे प्रयोग में द्विरुक्त अथवा द्वित्व भ्म= (सूत्र-संख्या २-९० से) 'ब्भ' की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है और इस प्रकार से आदेश प्राप्ति होने पर कर्मणि-भावे-प्रयोग संबंधी प्राकृत-प्रत्यय 'ईअ और इज्ज का लोप हो जाता है। कर्मणि-भावे अर्थ में यों इन उपरोक्त धातुओं में कभी तो 'ब्भ' होता है और कभी 'ईअ अथवा इज्ज होता है। यह भी ध्यान रहे कि उपरोक्त 'वह' धातु में 'ब्भ' की प्राप्ति होने पर 'व' में स्थित 'अकार' को 'उकार' की प्राप्ति होकर 'वु' स्वरूप का सद्भाव हो जाता है। इन धातुओं के दोनों प्रकार क्रम से इस प्रकार से है:- (१) दुह्यते दुब्भइ अथवा दुहिज्जइ-वह दूहा (दूध निकाला) जाता है। (२) लिह्यते-लिब्भइ अथवा लिहिज्जइ वह चाटा जाता है। (३) उह्यते वुब्भइ अथवा वहिज्जइ-उठाया जाता है अथवा वह ले जाया जाता है। (४) रूध्यते रूब्भइ अथवा रून्धिज्जइ-वह रोका जाता है। इन उदाहरणों को ध्यान पूर्वक देखने से विदित होता है कि 'दुह, लिह, वह और रूध" के अन्त्य अक्षर "ह तथा ध" के स्थान पर कमणि-भावे प्रयोगार्थ में "ब्भ" की आदेश प्राप्ति विकल्प से हुई है। जहां "ब्भ" नहीं है वहां पर "इज्ज' प्रत्यय आ गया है। भविष्यत्काल संबंधी उदाहरण इस प्रकार हैं:- धोक्ष्यते=ढब्भिहिइ अथवा दुहिहिइ-वह दूहा जायेगा। इत्यादि।।४-२४५।।
दहो ज्झः॥४-२४६॥ दहोऽन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो झो वा भवति।। तत्संनियोगे क्यस्य च लुक्। डज्झइ। डहिज्जइ। भविष्यति। डज्झिहिइ। डहिहिइ॥
अर्थः- जलाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'दह' का प्राकृत-रूपान्तर 'डह' होता है; इस प्रकार के प्राप्त 'डह' धातु के कर्माणि- भावे प्रयोग में काल-बोधक प्रत्यय जोड़ने के पूर्व 'डह' धातु के अन्त्य व्यञ्जनाक्षर 'हकार' के स्थान पर द्विरुक्त अथवा द्वित्व 'झ=(सूत्र संख्या २-६०) से 'ज्झ' की आदेशप्राप्ति विकल्प से होती है तथा ऐसा होने पर कर्मणि-भावे अर्थक प्राकृत-प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप हो जाता है। यदि 'हकार' के स्थान पर 'ज्झ नहीं किया जायगा तो ऐसी स्थिति में 'ईअ अथवा इज्झ' प्रत्यय का सद्भाव अवश्य रहेगा। जैसे:- दह्यते-डज्झइ अथवा डहिज्ज्ड्=जलाया जाता है। भविष्यत्-कालीन दृष्टान्त यों है:- दहिष्यते-डज्झिहिइ, डहिहिइ-जलाया जायगा।।४-२४६।।
बन्धो न्धः।।४-२४७॥ बन्धेर्धातोरन्त्यस्य न्ध इत्यवयवस्य कर्मभावे ज्झो वा भवति।। तत्सनियोगे क्यस्य च लुक्॥ बज्झइ। बन्धिज्जइ भवष्यिति। बज्झिहिइ। बन्धिहिइ।।
अर्थः- 'बांधना' अर्थक धातु 'बन्ध' के अन्त्य अक्षर अवयव 'न्ध' के स्थान पर कर्मणिभावे-अर्थ में काल-बोधक
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