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380 : प्राकृत व्याकरण
(१)संस्कृत :विरहानल-ज्वाला-करालितः पथिकः पथि यद् दृष्टः।।
तद् मिलित्वा सर्वैः पथिकैः स एव कृतः अग्निष्ठः।।१।। हिन्दी:- जब किसी एक यात्री को मार्ग में विरह रूपी अग्नि की ज्वालाओं से प्रज्वलित होता हुआ अन्य यात्रियों ने देखा तो सभी यात्रियों ने मिल करके उसको (मृत अवस्था को प्राप्त हुआ जान करके) अग्नि के समपर्ण कर दिया।
(२) मम कातस्य द्वौषौ-महु कन्तहो बे दोसडा-मेरे प्रियतम के दो दोष (त्रुटियाँ) है।। इस गाथा-चरण में 'दोसडा' पद में 'डड अड' इस स्वार्थिक प्रत्यय की प्राप्ति हुई है।
(३) एफा कुटी पश्चमिः रूद्धा-एक्क कुडुल्ली पञ्चेहि रूद्धी-एक (छोटी सी) झोंपड़ी पाँच से रूंधी (रोकी) गई है। इस गाथा-पाद में 'कुडुल्ली पद में 'डुल्ल उल्ल' ऐसे स्वार्थिक प्रत्यय की संयोजना हुई है।।४-४२९।।
योग जाश्चैषाम्॥४-४३०॥ अपभ्रंशे अडडडुल्लानां योगभेदेभ्यो ये जायन्ते डडअ इत्यादयः प्रत्ययाः ते पि स्वार्थे प्रायो भवन्ति।। डड। फोडेन्ति जे हिअडउं अप्पणउ।। अत्र 'किसलय' (१-२६९) इत्यादिना-यलुक्।। डुल्ल। चुडल्लउ चुन्नी होइ सइ।। डुल्लडड।
सामि-पसाउ सलज्जु पिउ सीमा-संधिहिं वासु॥ पेक्खिवि बाहु-बलुल्लडा धण मेल्लइ नीसासु।।१।। अत्रामि। "स्यादौ दीर्घ-हस्वौ" ( ४-४३०) इति दीर्घः। एवं बाहुबलुल्लडउ। अत्र त्रयाणां योगः।।
अर्थः-सूत्र-संख्या ४-४२९ में 'अ, डड, डुल्ल' ऐसे तीन स्वार्थिक प्रत्यय कहे गये है; तदनुसार अपभ्रंश भाषा में संज्ञाओं में कभी कभी इन प्रत्ययों में से कोई भी दो अथवा कभी-कभी तीनों भी एक साथ संज्ञाओं में जुड़े हुए पाये जाते हैं। यों किन्हीं दो के अथवा तीनों के एक साथ जुड़ने पर भी संज्ञाओं के अर्थ में कोई भी अन्तर नहीं पडता है। इस प्रकार से तीनों स्वार्थिक प्रत्ययों के योग से. समस्त रूप से तथा व्यक्त रूप से विचार करने पर कल स्वार्थिक प्रत्ययों की संख्या सात हो जाती है; जो कि क्रम से इस प्रकार लिखे जा सकते है:- (१) अ, (२) डड, (३) डुल्ल, (४) डडअ, (५) डुल्लअ, (६) डुल्लडड, (७) डुल्लडड। इनके उदाहरण इस प्रकार से हैं:
(१) ते कर्णका धन्याः ते धन्ना कन्नुल्लडा-वे कान धन्य है।। इस उदाहरण में 'डुल्लडड' प्रत्ययों की संप्राप्ति है। (२) तानि हृदयकानि कृतार्थानि-हियउल्ला ति कयत्थ-वे हृदय कृतार्थ (सफल) है।। इसमें 'अडल्ल' प्रत्यय है। (३) नवान् श्रतार्थान् धरन्ति नवुल्लडअ सुअत्थ धरहि-नूतन श्रुत-अर्थ (शास्त्र-तात्पर्य) को धारण करते है।।
इसमें तीनों स्वार्थिक प्रत्यय आये हैं: जो कि इस प्रकार से हैं:- डल्लडडअ-उल्लड।। वत्ति में आये हए उदाहरणों का स्वरूप क्रम से इस प्रकार है:(१) स्फोट्यतः यौ हृदयं आत्मीयं-फोडेन्ति जे हिअडउं अप्पणउं-जो (दोनों स्तन) अपने खुद के हृदय को
ही विदारण करते है।। इस चरण में 'हिअडउं' पद में 'डडउ' ऐसे दो स्वार्थिक प्रत्ययों की एक साथ
प्राप्ति हुई है। 'हृदय' शब्द में अवस्थित ‘यकार' का सूत्र-संख्या १-२६९ से लोप हुआ है। (२) कङ्कणं चूर्णी भवति स्वयं-चूडल्लउ चुन्नी होइ सइ (हाथ में पहिना हुआ) कंकण अपने आप ही टुकड़े
टुकड़े होकर चूर्ण रूप हुआ जाता है। इस गाथा-पाद में 'चुड्डल्लउं पद में 'डुल्लअ-उल्लअं' ऐसे दो
प्रत्ययों की प्राप्ति स्वार्थिक-प्रत्ययों के रूप में एक साथ हुई है। संस्कृत : स्वामि-प्रसादं सलज्जं प्रियं सीमासंधौ वासम्।।
प्रेक्ष्य बाहुबलं धन्या मुञ्चिति निश्वासम्।।१।। हिन्दी:-कोई एक नायिका विशेष अपने प्राण पति की इस प्रकार की स्थिति को देख करके अपने आपको धन्य-स्वरूप समझती हुई परम शांति के गम्भीर निश्वास लेती है कि उसके पति के प्रति सेनापति की कृपा-दृष्टि
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