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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 379
संस्कृतः-अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायां अवस न सुअहि सुहच्छिअहिं-जरूर ही (निश्चय ही) वे सुख-शैय्या पर नहीं सोते है।। इस गाथा-चरण में 'अवश्यम्' के स्थान पर 'अवस' रूप का प्रयोग करते हुए यह प्रमाणित किया है कि 'अवश्यम्' अव्यय के रूपान्तर में स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'ड=अ' प्रत्यय की संयोजना होती है।।४-४२७।।
एकशसो डि।।४-४२८।। अपभ्रंशे एकशश्शब्दात् स्वार्थे डि भवति।। एक्कसि सील-कलंकि अहं देज्जहिँ पच्छित्ताइ।। जो पुणु खण्डइ अणुदिअहु, तसु पच्छित्ते काइ।।१।।
अर्थ:-'एक बार' इस अर्थ में कहा जाने वाला संस्कृत-अव्यय 'एक्शः' है। इसका रूपान्तर अपभ्रंश- भाषा में करने पर इसमें स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'डि' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डि' में 'डकार' इत्संज्ञक होने से 'एकशः-एक्कस अथवा इक्कस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अकार' का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् प्राप्त हलन्त रूप 'एक्कस् अथवा इक्कस्' में 'डि-इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर व्यवहार-योग्य रूप 'एक्कसि अथवा इक्कसि' की सिद्धि हो जाती है। जैसे:-एकश: एक्कसि और इक्कसि एक बार। गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : एकशः शीलकलकितानां दीयन्ते प्रायश्चित्तानि।।
___ यः पुनः खण्डयति अनुदिवसं, तस्य प्रायश्चित्तेन किम्।। हिन्दी:-जिन व्यक्तियों द्वारा एक बार शील-व्रत का खंडन किया गया है, उनके लिये प्रायश्चित रूप दंड का दिया जाना ठीक है; परन्तु जो व्यक्ति प्रतिदिन शील-व्रत का खण्डन करता है; उसके लिये प्रायश्चित रूप दंड का विधान करने से क्या लाभ है ? वह तो पूर्ण पापी ही है। यहाँ पर 'एकशः' के स्थान पर 'एक्कसि' शब्द रूप का प्रयोग किया गया है।।४-४२८।।
अ-डड-डुल्लाः स्वार्थिक-क-लुक् च।।४-४२९।। अपभ्रंशे नाम्नः परतः स्वार्थे अ, डड डुल्ल, इत्येते त्रयः प्रत्यया भवन्ति; तत्सन्नि-योगे स्वार्थे क प्रत्ययस्य लोपश्च।। विरहानल-जाल-करालिअउ, पहिउ पन्थि जं दिट्ठउ।। तं मेलवि सव्वहि।। पन्थिअहिं सो जि किअउ अग्गिट्ठर।। डउ। महु कन्तहो बे दोसडा।। डुल्ल। एक्क कुडुली पञ्चहि रूद्धी।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध संज्ञा-शब्दों का रूपान्तर अपभ्रंश भाषा में करने पर उनमें स्वार्थिक प्रत्ययों के रूप में तीन प्रत्ययों की प्राप्ति हुआ करती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है:- (१) अ, (२) डड और (३) डुल्ल। इन 'अ अथवा डड अथवा डुल्ल' प्रत्ययों की सं-प्राप्ति संज्ञा-शब्दों में हो सकती है। 'डड और डुल्ल' प्रत्ययों में अवस्थित अन्त्य स्वर का लोप हो जाता है और बाद में रहे हुए हलन्त संज्ञा-शब्दों में इन 'डड-अड' और 'डुल्ल-उल्ल' प्रत्ययों का संयोग किया जाता है। यों स्वार्थिक प्रत्ययों की संघटना की जाती है। जैसे:(१) भव-दोषौ-भव-दोसडा-जन्म-मरण रहना रूप संसार-दोषों का। यहाँ पर 'दोष' शब्द में अड' प्रत्यय की
प्राप्ति हुई है। (२) जीवितकं जीवियअउ जिन्दा रहना-प्राण धारण करना। यहाँ पर संस्कृत स्वार्थिक प्रत्यय 'क' का लोप होकर __ अपभ्रंश भाषा में स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। (३) काय-कुटी-काय-कुडुल्ली-शरीर रूपी झोंपड़ी। इसमें 'डुल्ल-उल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। यह 'कुटी'
शब्द स्त्रीलिंग वाचक होने से प्राप्त प्रत्यय 'डुल्ल-उल्ल में स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'ई' की प्राप्ति सूत्र-संख्या ४-४३१ से हुई है। वृत्ति में दिये उदाहरणों का अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:
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