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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 103 और ३-७५ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में सस्कृत प्रत्यय 'ङि' की प्राप्ति होने पर मूलांग 'इम' में स्थित 'म' और प्राप्त प्रत्यय 'ङि' इन दोनों के स्थान पर 'ह' की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप इह सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप इमस्सि की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६० में की गई है। तृतीय रूप (अस्मिन्-) इमम्मि में 'इम' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-विधानानुसार एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से प्राप्तांग 'इम' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप इमम्मि भी सिद्ध हो जाता है।।३-७५ ।। न त्थः ॥३-७६॥ इदमः परस्य डेः स्सि म्मि त्थाः (३-५९) इति प्राप्तः त्थो न भवति।। इह। इमस्सि। इमम्मि।। __ अर्थः-सूत्र-संख्या ३-५९ में ऐसा विधान किया गया है कि अकारान्त सर्व-सव्व आदि सर्वनामों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'डि' के स्थान पर 'स्सि' म्मि-त्थ' ऐसे तीन प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होती है; तद्नुसार प्राप्त इन तीनों प्रत्ययों में से अतिम तृतीय प्रत्यय 'त्थ' की इस 'इदम् सर्वनाम के प्राकृत प्राप्तांग 'इम' में प्राप्ति नहीं होती है। अर्थात् 'इम' में केवल उक्त तीनों प्रत्ययों में से प्रथम और द्वितीय प्रत्यय 'स्सि' और 'म्मि' की ही प्राप्ति होती है। जैसे:- अस्मिन् इमस्सि और इमम्मि। सूत्र-संख्या ३-७५ के विधान से 'इम+ङि' इह, ऐसे तृतीया रूप का अस्तित्व भी ध्यान में रखना चाहिए। 'इह' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-७५ में की गई है। 'इमस्सि' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६० में की गई है। 'इमम्मि' रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या ३-७५ में की गई है। ३-७६ ।। णोम्-शस्टा भिसि ।। ३-७७॥ इदमः स्थाने अम् शस्टा भिस्सु परेषु ण आदेशो वा भवति।। णं पेच्छ। णे पेच्छ। णेण। णेहि कयं। पक्षे। इम। इमे। इमेण। इमेहि।। ___ अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्' के प्राकृत रूपान्तर में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'अम्'; द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'शस्'; तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' और तृतीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस्' के स्थानीय प्राकृत प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर वैकल्पिक रूप से 'ण' अंग रूप की प्राप्ति हुआ करती है। यों संपूर्ण 'इदम्' शब्द के स्थान पर 'ण' अंग रूप की प्राप्ति होकर तत्पश्चात् प्राकृत उक्त विभक्तियों के स्थानीय प्रत्ययों की संयोजना होती है। जैसेः- इमम् पश्य=णं पेच्छ अर्थात् इसको देखो। इमान् पश्य=णे पेच्छ अर्थात् इनको देखो। अनेन=णेण अर्थात् इसके द्वारा। एभिःकृतम्=णेहि कयं अर्थात् इनके द्वारा किया गया है। ये उदाहरण क्रम से द्वितीया और ततीया विभक्तियों के एकवचन के तथा बहवचन के हैं। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में 'ण' के साथ 'इम': 'णे के साथ 'इमे': 'ण' के साथ 'इमेण' और 'णेहि के साथ 'इमेहि रूपों का सदभाव की ध्यान में रखना चाहिये। इमम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'णं' और इमं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७७ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्' के स्थान पर 'ण' अंग रूप की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रथम रूण 'णं' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'इम' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-७२ में की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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