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________________ 310 : प्राकृत व्याकरण चाहिये। जैसेः- तांद्दष्टवा चिन्तितं राज्ञा का एषा भविष्यति-तं तदून चिन्तितं रक्षा का एसा हुवेय्य चित्र को देख कर के राजा से सोचा गया (की) ऐसी स्त्री कौन होगी? यहाँ पर 'भविष्यति' पद के स्थान पर 'हुवेय्य' ऐसे पद-रूप की प्राप्ति हुई है।।४-३२०।। अतो उसे र्डातो-डातु॥४-३२१ ।। पैशाच्यामकारात् परस्य उसेर्डितो आतो आतु इत्यादेशौ। भवतः।। ताव च तीए तूरा तो य्येव तिट्ठो। तूरातु। तुमातो। तुमातु। ममातो। ममातु॥ ___ अर्थः- पैशाची-भाषा में पंचमी-विभक्ति के एकवचन में अकारान्त शब्दों में 'डातो आतो' और 'डातु-आतु' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होती है। 'डातो और डातु' प्रत्ययें में 'डकार' इत्संज्ञक होने से अकारान्त-शब्दों में रहे हुए अन्त्य 'अकार' लोप हो जाता है। तत्पश्चात् हलन्त रूप में रहे हुए शब्दों में 'आतो और आतु' प्रत्ययों की संयोजना की जाती है। जैसेः- (१) तावत् च तया दुरात् एवं दृष्टः=ताव च तीए तूरातो य्येव तिट्ठो-और तब तक दूर से ही उस (स्त्री) से देखा गया (२) दुरात्-तुरातु-दुर से। (३) त्वत्-तुभातो, तुमातु-तेरे से-तुझ से। (४) मतु-ममातो, ममातु-मेरे से-मुझ से।।४-३२१।। त दिदमोष्टा नेन स्त्रियां तु नाए।।४-३२२।। पैशाच्यां तदिदमोः स्थाने टा प्रत्ययेन सह नेन इत्यादेशो भवति।। स्त्री लिंगे तु नाए इत्यादेशो भवति।। तत्थ च नेन कत-सिनानेन।। स्त्रियाम्। पूजितो च नाए पातग्गकुसुमप्पतानेन।। टेति किम्। एवं चिन्तयन्तो गतो सो ताए समीप। अर्थः-पैशाची-भाषा में 'तद' सर्वनाम और 'इदम्' सर्वनाम के पुल्लिग रूप में तृतीया-विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रत्यय सहित अर्थात् 'अंग+प्रत्यय' के स्थान पर 'नेन' रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) तद्+टा तेन नेन-उस (पुरूष) से। (२) इदम+टा=अनेन नेन इस (पुरूष) से।। इसी प्रकार से उक्त तद् और इदम्' सर्वनामों के स्त्री लिंग-रूप में तृतीया-विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रत्यय दोनों के स्थान पर) 'नाए' रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसेः- (१) तद्+टा-तया=नाए-उस (स्त्री) से। (२) इदम्+ टा=अनया=नाए-इस (स्त्री) से।। अन्य उदाहरण इस प्रकार से है:- (१) तत्र च तेन कृतस्नाने तत्थ च नेन कत-तिनानेन और वहाँ पर स्नान किए हुए उस (पुरूष) से। (२) पूजितश्च तया पादान (प्रत्यग्र)-कुसुम-प्रदानेन-पूजितो च नाए पताग्ग-कुसुम-प्पतानेन-और वह पैरों के अग्र-भाग में फूलों के समर्पण द्वारा उस (स्त्री) से पूजा गया। प्रश्नः-मूल-सूत्र में 'टा' ऐसे तृतीया-विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय को क्यों संग्रहित किया गया है? उत्तरः- 'तद् और 'इदम्' सर्वनामों की अन्य-विभक्तियों में इस प्रकार 'अंग और प्रत्यय' के स्थान पर उक्त रीति सेबने बनाये 'रूपों की प्राप्ति नहीं होती है; इसलिये जिस विभक्ति में बनती हो, उसी विभक्ति का उल्लेख किया जाना चाहिये; तदनुसार तृतीया-विभक्ति में ऐसा होने से मूल-सूत्र में यों तृतीया-विभाक्ति के एकवचन के सूचक 'टा' प्रत्यय का संग्रह किया गया है। उदाहरण यों हैं:- एवं चिन्तयतो गतो सः तस्याः समीपं एवं चिन्तयन्तो गतो सो ताए समीपं इस प्रकार से विचार करता हुआ वह उस (स्त्री) के पास में गया। यहाँ पर 'ताए' में षष्ठी विभक्ति है अतः 'नाए' रूप की प्राप्ति यहाँ पर नहीं हुई है। यों 'नाए' रूप की प्राप्ति केवल 'टा' प्रत्यय के साथ में ही जानना चाहिये।।४-३२२।। शेष शौरसेनीवत्॥४-३२३।। पैशाच्यां यदुक्तं ततोन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनी वद् भवति।। अध ससरीरो भगवं मकर-धजो एत्थ परिब्ममन्तो हुवेय्य। एवं विधाए भगवतीए कधं तापस-वेस-गहनं कत।। एतिसं अतिट्ठ-पुरवं महा धनं तदून। भगवं यति मं वरं पयच्छसि राजं चदाव लोक। ताव चतीए तूरातो य्येव तिट्ठो सो आगच्छमानो राजा।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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