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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 311
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अर्थः- पैशाची - भाषा में अन्य भाषाओं की अपेक्षा से जो कुछ विशेषताऐं है; वे सूत्र संख्या ४-३०३ से ४-३२२ तक के सूत्रों में बतला दी गई है। शेष सभी विधि विधान शौरसेनी-भाषा के समान ही जानना चाहिये । शौरसेनी - भाषा में भी जिन अन्य भाषाओं के विधि विधानों के अनुसार जो कार्य होता है; उस कार्य की अनुवृत्ति भी इस पैशाची - भाषा में विवेक- पूर्वक कर लेनी चाहिये। जो विधि-विधान पैशाची भाषा में लागू नहीं पड़ने वाला है; उसका कथन आगे आने वाले सूत्र - संख्या ४- ३२४ में किया जाने वाला है । वृत्ति में पैशाची भाषा और शौरसेनी भाषा की तुलना करने के लिये कुछ उदाहरण दिये गये हैं; उन्हीं को यहाँ पर पुनः उद्धृत किया जा रहा है; जिससे तुलनात्मक स्थिति का कुछ आभास को सकेगा । (१) अथ सशरीरो भगवान् मकरध्वजः अत्र परिभ्रमन्तो भविष्यति अध ससरीरो भगवं मकर - धजो एत्थ परिब्भमन्तो हुवेय्य - अब इसके बाद मूर्तिमन्त होकर भगवान् कामदेव यहाँ पर परिभ्रमण करते हुए होंगे। (२) एवं विधया भगवत्या कथं तापस-वेश-ग्रहणं कृतम् = एवं विधाए भगवतीए कधं तापस - वेस - गहनं कतं - इस प्रकार की आयु और वैभव वाली) भगवती से ( राजकुमारी आदि रूप विशेष स्त्री से) कैसे तापस वेश (साध्वीपना) ग्रहण किया गया है। (३) ईद्दरां अद्दष्टपूर्वं महाधनं दृष्ट्वां= एतिसं अतिट्ट - पूरवं महा धन तद्धून = जिसको पहिले कभी भी नहीं देखा है, ऐसे महाधन को । (विपुल मात्रा वाले और बहुमूल्य वाले धन को ?) देख करके । (४) हे भगवान्! यदि माम् वरं प्रयच्छसि राज्यं च तावत् लोकम् = भगवं यात मं वरं पयच्छसि राजं च ताव लोक = हे भगवान्! यदि आप मुझे वरदान प्रदान करते हैं तो मुझे लोकारान्त तक का राज्य प्राप्त होवे । (५) तावत् च तया दूरात् एव द्दष्टः सः आगच्छमानो राजा=ताव च तीए तूरातो य्येव तिट्ठो सो आगच्छमानो राजा - तब तक आता हुआ वह राजा उससे दूर से ही देख लिया गया। इन उदाहरणों से विदित होता है कि पैशाची भाषा में शेष सभी प्रकार का विधि-विधान शौरसेनी के समान ही होता है ।।४-३२३ ।।
न-क-ग-च-जादि - षट् - शम्यन्तसूत्रोक्तम् ।
पैशाच्यां क-ग-च-ज-त-द- प-य-वा।।४–३२४।।
प्रायो लुक् (१-१७७) इत्यारभ्य षट् - शमी - भाव- सुधा-सत्पपर्णेवादेरछ: ( १ - २६५ ) इति यावद्यानि सूत्राणि तैर्यदुक्तम् कार्य तन्न भवति ।। मकरकेतू । सगर - पुत्त- वचन ।। विजय सेनेन लपित ।। मतन ।। पाप ।। आयुध ।। तेरो ।। एवमन्यसूत्राणामप्युदाहरणानि द्दष्टव्यानि ।।
अर्थः-प्राकृत भाषा में सूत्र - संख्या १ - १७७ से प्रारम्भ करके सूत्र - संख्या १ - २६५ तक जो विधि-विधान एवं लोप आगम आदि की प्रवृत्ति होती है, वैसी प्रवृत्ति तथा वैसा लोप- आगम आदि सम्बन्धी विधि-विधान पैशाची भाषा में नहीं होता है। इसका बराबर ध्यान रखना चाहिये। उदाहरण यों है:- (१) मकर - केतुः = मकरकेतू। इस उदाहरण में प्राकृत भाषा के समान 'क' वर्ण स्थान पर 'ग' वर्ण की प्राप्ति नहीं हुई है। (२) सगर - पुत्त - वचनं सगर - पुत्त - वचनं सगर राजा के पुत्र के वचन । यहाँ पर भी 'ग' कार तथा 'चकार' वर्ण का लोप नहीं हुआ है। (३) विजयसेतेन लपितं - विजयसेनेन लपितं - विजयसेन से कहा गया है। इस मे 'जकार' वर्ण का लोप नहीं हुआ है। (४) मदनं =मतनं= मदन काम देव को । यहाँ पर 'दकार' वर्ण का लोप नहीं हुआ है, परन्तु सूत्र - संख्या ४-३०७ से 'द' वर्ण के स्थान पर 'त' वर्ण की प्राप्ति हुई है। (५) पापं पापं पाप । यहाँ पर भी 'पकार' वर्ण के स्थान पर 'वकार' वर्ण की प्राप्ति नहीं हुई है। आयुधं आयुधं शस्त्र विशेष। यहां पर 'यकार' वर्ण के स्थान पर 'यकार' वर्ण ही कायम रहा है। (७) देवर:- तेवरे = पति का छोटा भाई । यहां पर भी 'दकार' के स्थान पर सूत्र - संख्या ४- ३०७ से 'त' कार वर्ण की प्राप्ति हुई है। यों अन्यान्य उदाहरणों की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये। इस प्रकार से सूत्र - संख्या १ - १७७ से सूत्र - संख्या १ - २६५ तक में वर्णित विधि-विधानों का पैशाची भाषा में निषेध कर दिया गया है ।।४-३२४ ।। इति पेशाची - भाषा-व्याकरण- समाप्त
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