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________________ 200 : प्राकृत व्याकरण स्थान पर केवल दो रूपों की आदेश प्राप्ति हो जाती है। वे रूप इस प्रकार हैं:-आसि और अहेसि। इन आदेश-प्राप्त दोनों रूपों में से प्रत्येक रूप द्वारा भूतकालिक लकार के सभी पुरुषों के सभी वचनों का अर्थ प्रतिध्वनित हो जाता है। सारांश रूप से तात्पर्य यह है कि भूतकाल में अस् धातु के केवल दो रूप होते हैं:- १ आसि और २ अहेसि; ये ही रूप सभी पुरुषों में तथा सभी वचनों में प्रयुक्त होते हैं। उदाहरण इस प्रकार हैं :- सः आसीत्, त्वम् आसीः, अथवा अहम् आसम्-सो, तुमं अहं वा आसि अथवा अहेसि-वह था अथवा तू था अथवा मैं था; इस उदाहरण में यह बतलाया गया है कि 'आसीत् आसीः और आसम्' प्रथम द्वितीय तृतीय पुरुष के एकवचन के क्रियापद के रूपों के स्थान पर प्राकृत में केवल एक ही क्रियापद का 'आसि अथवा अहेसि' का प्रयोग होता है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- ये आसन्–जे आसि अथवा अहेसि=जो थे; यह उदाहरण बहुवचनात्मक है; फिर भी इसमें एकवचन के समान ही किसी भी प्रकार के पुरुष भेद का विचार किये बिना ही 'आसन्' संस्कृत रूप के स्थान पर 'आसि अथवा अहेसि' का प्रयोग कर दिया गया हैं। यों वचन का अथवा पुरुष का और प्रत्यय भेद का विचार नहीं करते हुए समुच्चय रूप से संस्कृत तीनों लकारों के अर्थ में प्राकृत में आदेश-प्राप्त रूप 'आसि अथवा अहेसि' का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार से प्राकृत में भूतकाल के अर्थ में लकारों की दृष्टि से मर्यादा-भेद की अत्यधिक न्यूनता पाई जाता है; जो कि ध्यान देने योग्य है। ___ आसीत, आसीः और आसम संस्कृत के भूतकाल के प्रथम-द्वितीय-तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूपान्तर आसि और अहेसि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१६४ से मूल संस्कृत धातु 'अस्' के साथ में भूतकालवाचक प्राकृत प्रत्ययों की संयोजना होने पर दोनों के ही स्थान पर 'आसि अथवा अहेसि रूपों को आदेश प्राप्ति होकर प्राकृत के रूप 'आसि और अहेसि सिद्ध हो जाते हैं। 'से' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८६ में की गई है। 'तुम' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-९० में की गई है। अहं सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१०५ में की गई है। 'वा' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६७ में की गई है। 'जे' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५८ में की गई है। आसन् संस्कृत के भूतकालवाचक लङ् लकार के प्रथमपुरुष के बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत-रूपान्तर आसि और अहेसि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१६४ से मूल संस्कृत-धातु 'अस्' के साथ में भूतकालवाचक प्राकृत -प्रत्ययों की संयोजना होने पर दोनों के ही स्थान पर 'आसि और अहेसि' रूपों की आदेश प्राप्ति होकर प्राकृत-रूप 'आसि और अहेसि' सिद्ध हो जाते हैं। ३-१६४।। ज्जात्सप्तम्या इर्वा ॥३-१६५॥ सप्तम्यादेशात् ज्जात्पर इर्वा प्रयोक्तव्यः।। भवेत्। होज्जइ। होज्ज। __ अर्थः- यहाँ पर 'सप्तमी' शब्द से 'लिङ्लकार' का तात्पर्य है। यह लिङ्लकार छह प्रकार के अर्थों में प्रयुक्त होता है। जो कि इस प्रकार है:- १ विधि, २ निमन्त्रण, ३ आमन्त्रण, अथवा निवेदन ४ अधीष्ट अथवा अभीष्ट अर्थ, ५ संप्रश्न और ६ प्रार्थना। प्राकृत भाषा में मूल धातु के आगे 'ज्ज' प्रत्यय की संयोजना कर देने से सप्तमी का अर्थात् लिङ्लकार का रूप बन जाता है। यह प्रत्यय तीनों प्रकार के पुरुषों के दोनों वचनों में प्रयुक्त होता है। वैकल्पिक रूप से 'ज्ज' प्रत्यय के आगे कभी-कभी 'इ' की प्राप्ति भी होती है। जैसेः- भवेत्-होज्जइ अथवा होज्ज-होवे। इस विषयक विशेष वर्णन आगे सूत्र-संख्या ३-१७७ और ३-१७८ में किया जा रहा है। ___ भवेत् संस्कृत का लिङ्लकार का प्रथमपुरुष का एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप होज्जइ और होज्ज होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू=भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग-रूप की आदेश प्राप्ति; ३-१७७ से विधि-अर्थ में 'ज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१६५ से प्राप्त प्रत्यय 'ज्ज' के पश्चात् वैकल्पिक रूप से इ' की प्राप्ति प्राकृत रूप होज्जइ और होज सिद्ध हो जाते हैं। ३-१६५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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