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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 291 अर्थः अव्ययी रूप सम्बन्ध भूत कृदन्त के अर्थ में संस्कृत-भाषा में धातुओं में 'क्त्वा-त्वा' प्रत्यय का योग होता है। ऐसा होने पर धातु का अर्थ 'करके अर्थ वाला हो जाता है। जैसे :-खा करके, पी करके, इत्यादि। शौरसेनी भाषा में संबंध-भूत-कृदन्त के अर्थ में संस्कृत-प्रत्यय 'त्वा' के स्थान पर विकल्प से 'इय अथवा दूण' ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में संस्कृत प्रत्यय 'त्वा' के स्थान पर सूत्र-संख्या २-७९ से तथा २-८९ से 'व' का लोप होकर द्वित्व 'त्ता' की प्राप्ति होने से इस 'त्ता' प्रत्यय को ही संबंध भूत-कृदन्त के अर्थ में संयोजित कर दिया जाता है। जैसे:- भूत्वा भविय, भोदूण, हविय और होदूण अथवा होत्ता-होकर के। पढित्वा=पढिय, पढिदूण, अथवा पढित्ता=पढ करके-अध्ययन करके। रन्त्वा-रमिय, रन्दूण अथवा रन्तारमण करके; खेल करके।।४-२७१।। कृ-गमो डडुअः।।४-२७२।। आभ्यां परस्य क्त्वा प्रत्ययस्य डित् अडुअ इत्यादेशौ वा भवति।। कडु। गडु। पक्षे। करिय। करिदूण। गच्छिय गच्छिदूण।। __अर्थः- संस्कृत धातु 'कृ=करना' और 'गम् गच्छ-जाना' के संबंध भूत कृदन्त के रूप शौरसेनी भाषा में बनाना हो तो सूत्र संख्या ४-२७१ में वर्णित प्रत्यय 'इय, दूण और त्ता' के अतिरिक्त विकल्प से 'डडुअ-अडुअ' प्रत्यय की भी आदेश-प्राप्ति होती है। 'डडुअ' प्रत्यय में आदि 'ड्' इत् संज्ञा वाला होने से 'कृ' धातु के अन्त्य स्वर 'ऋ' का और 'गम्' धातु के अन्त्य वर्ण 'अम्' का लोप हो जाता है, एवं तत्पश्चात् शेष रहे हुए धातु अंश 'क्' और 'ग' में क्त्वा-त्वा=अर्थक 'अडुअ' प्रत्यय की भी विकल्प से संयोजना की जाती है। जैसे-कृत्वा-कडुअ-करके। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'करिय, करिदूण अथवा करित्ता' रूप भी बनेंगे।। गम् गच्छ का उदाहरण:गत्वा=गडुअ-जाकर के। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'गच्छिय, गच्छिदूण' रूप भी बनेगे।।४-२७२।। दि रि चे चोः।।४-२७३।। त्यादिनामाद्य त्रयस्याद्यस्येचेचो (३-१३९) इति विहितयोरिचेचोः स्थाने दिर्भवति॥ वेति निवृत्तम्। नेदि। देदि। भोदि। होदि।। ___ अर्थः- वर्तमानकाल-बोधक, तृतीय पुरूष वाचक एक वचनीय प्रत्यय 'ति' अथवा 'ते' के स्थान पर प्राकृत भाषा में सूत्र-संख्या ३-१३९ से 'इ अथवा ए' प्रत्यय की प्राप्ति कही गई है, तद्नुसार प्राकृत-भाषा में प्राप्त इन 'इ अथवा ए' प्रत्ययों के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'दि' प्रत्यय की नित्यमेव आदेश-प्राप्ति होती है। वृत्ति में 'वा इति निवृतम्' शब्दों का तात्पर्य यही है कि वैकल्पिक-स्थिति' का यहाँ पर अभाव है और इसलिये 'दि' प्रत्यय की प्राप्ति नित्यमेव सर्वत्र जानना। जैसे:- नयति-नेदि वह ले जाता है। ददाति देदि वह देता है। भवति-भोदि अथवा होदि-वह होता है।।४-२७३।। अतो देश्च।।४-२७४।। अकारात् परयोरिचेचोः स्थाने देश्चकाराद् दिश्च भवति। अच्छदे। अच्छदि। गच्छदे। गच्छदि। रमदे। रमदि। किज्जदे। किज्जदि।। अत इति किम् वसुआदि। नेदि। भोदि।। ___ अर्थः-अकारान्त धातुओं में प्राकृत-भाषा में वर्तमान-काल के तृतीय पुरुष के अर्थ में लगने वाले एक वचनीय प्रत्यय 'इ अथवा ए के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'दे' प्रत्यय का प्रयोग होता है। मूल-सूत्र में उल्लिखित 'चकार' से यह अर्थ समझना कि -'उक्त 'दे' प्रत्यय के अतिरिक्त 'दि' प्रत्यय का भी प्रयोग होता है। इस विषयक उदाहरण क्रम से यों है:(१) आस्ते अच्छदे अथवा अच्छदि-वह बैठता है। (२) गच्छति गच्छदि अथवा गच्छदे वह जाता है। (३) रमते-रमदे अथवा रमदि-वह क्रीड़ा करता है:- वह खेलता है। (४) करोति-किज्जदे अथवा किज्जदि-वह करता है; इत्यादि। प्रश्नः- अकारान्त धातुओं में ही प्रत्यय 'इ अथवा ए' के स्थान पर 'दे' अथवा दि होता है; ऐसा क्यों कहा गया है ? www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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