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292 : प्राकृत व्याकरण
उत्तरः- जो धातु अकारान्त नहीं है; उनमें लगने वाले प्रत्यय 'इ अथवा ए' के स्थान पर 'दे' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है; परन्तु केवल 'दि' प्रत्यय की ही प्राप्ति होती है; ऐसा जानना चाहिये इसलिये 'अकारान्त धातु' शब्द का उल्लेख किया गया है। जैसे:- उद्वाति-वसु आदि-वह सूखता है- वह शुष्क होता है। नयति-नेदि-वह ले जाता है। भवति-भोदि वह होता है। इन उदाहरणों में वसुआ, ने और भो' धातु क्रम से 'अकारान्त, एकारन्त ओकारान्त 'हैं; इसलिये इन धातुओं में शौरसेनी भाषा में 'दि' प्रत्यय की ही प्राप्ति हुई है तथा 'दे' प्रत्यय की प्राप्ति इनमें नहीं होगी। यों अकारान्त के सिवाय अन्य स्वरान्त धातुओं में भी 'दि' प्रत्यय की ही प्राप्ति होगी, न कि 'दे' प्रत्यय की प्राप्ति होगी।।४-२७४।।
भविष्यति स्सिः ।।४-२७५।। शौरसेन्यां भविष्यदर्थे विहिते प्रत्यये परे स्सि भवति। हिस्साहामपवादः।। भविस्सिदि। करिस्सिदि। गच्छिस्सिदि।
अर्थः- प्राकृत-भाषा में सूत्र-संख्या ३-१६६ में तथा ३-१६७ में ऐसा विधान किया गया है कि भविष्यत्-काल-वाचक विधि में धातुओं में वर्तमानकाल-वाचक प्रत्ययों के पूर्व 'हि, अथवा स्सा अथवा हा' प्रत्ययों को जोड़ने से वह क्रियापद भविष्यत्-काल-बोधक बन जाता है। इस सूत्र में शौरसेनी भाषा के लिये उक्त विधान का अपवाद किया गया है और यह निर्णय दिया गया है कि शौरसेनी भाषा में भविष्यत् काल वाचक अर्थ में वर्तमान
प्रत्ययों के पहिले केवल 'स्सि' प्रत्यय की ही प्राप्ति होकर बन जाता है। तदनुसार शौरसेनी भाषा में भविष्यत्काल बोधक अर्थ के लिये धातुओं में वर्तमान-काल-वाचक प्रत्ययों के पूर्व 'हि, अथवा स्सा अथवा हा' विकरण प्रत्ययों की प्राप्ति नहीं होगी। उदाहरण यों है:-(१) भविष्यति भविस्सिदि-वह होगा अथवा वह होगी। (२) करिष्यति करिस्सिदि-वह करेगा अथवा वह करेगी। (३) गमिष्यति=गच्छिस्सिदि-वह जावेगा अथवा वह जावेगी।।४-२७५।।
अतो उसे र्डा दो-डा दू॥४-२७६।। अतः परस्य उसेः शौरसेन्या आदो आदु इत्यादेशोडितो भवतः।। दूरादो य्येव। दूरादु।।
अर्थः- अकारान्त संज्ञा शब्दों के पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'उसि' के स्थान पर शौरसेनी-भाषा में 'आदो और आदु' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। यह आदेश भी 'डित' स्वरूप वाली होने से उक्त 'आदो
और आदु' प्रत्ययों की संयोजना होने के पूर्व उन अकारान्त शब्दों के अन्त्य 'अकार' का लोप हो जाता है और तदनुसार शेष रहे हुए व्यञ्जनान्त शब्दों में इन 'आदो तथा आदु' प्रत्ययों की संयोजना की जाती है। जैसे:- दूरात् एव-दूरादोय्येव-दूर से ही, दूरात्-दूरादु-दूर से। प्राकृत-भाषा में पंचमी विभक्ति के एकवचन में सूत्र-संख्या ३-८ से 'त्तो, दो, दु, हि, हिन्तो और लुक्' ऐसे छह प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होती है; किन्तु शौरसेनी भाषा में तो 'आदो और आदु' ऐसे दो प्रत्ययों की ही आदेश प्राप्ति जाननी चाहिये।।४-२७६ ।।
इदानीमो दाणि।।४-२७७॥ शौरसेन्यामिदानीमः स्थाने दाणिं इत्यादेशो भवति।। अनन्तर करणीयं दाणि आणवेदु अय्यो।। व्यत्ययात् प्राकृते ऽपि। अन्नं दाणिं बोहि।।
अर्थ:- संस्कृत अव्यय 'इदानीम्' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में केवल 'दाणि' ऐसे शब्द रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः- अनन्तर करणीयं इदानीम् आज्ञापयतु हे आर्य! अनन्तर-करणीयं दाणिं आणवेदू अय्यो हे महाराज! अब आप इसके बाद में करने योग्य (कार्य का) आदेश फरमावे।। प्राकृत-भाषा में 'इदानीम्' के स्थान पर तीन शब्द रूप पाये जाते है:- (१) एण्हि, (२) एत्ताहे और (३) इआणि।। किन्तु शौरसेनी-भाषा में तो केवल 'दाणिं' रूप की ही उपलब्धि है। कहीं-कहीं पर 'दाणि और दाणी' रूप भी देखे जाते है।।
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