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________________ 290 : प्राकृत व्याकरण प्राप्त सकता हो, अथवा फैसला करने वाला न्यायधीश। इन उदाहरणों में पदों के आदि में रहने वाले "थकार" के स्थान पर न तो "धकार" की प्राप्ति ही होती है और न "हकार" की प्राप्ति ही। यों "थकार" के स्थान पर "धकार" की अथवा "हकार" की प्राप्ति को जानना चाहिये।।४-२६७।। इह-हचोर्हस्य।।४-२६८॥ इह शब्द संबंधिनो मध्यमस्येत्था-हचौ (३-१४३) इति विहितस्य हचश्च हकारस्य शौरसेन्यां धो वा भवति।। इध। होध। परित्तायध।। पक्षे। इह। होह। परित्तायह।। ___ अर्थः-संस्कृत शब्द 'इह' में रहे हुए 'हकार' के स्थान पर शौरसेनी-भाषा में विकल्प से 'धकार' की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसेः-इह-इध अथवा इह। यहां पर सूत्र-संख्या ३-१४३ में वर्तमान-काल-बोधक मध्यम-पुरूष-वाचक बहुवचनीय प्रत्यय 'इत्या और ह' कहे गये हैं, तदनुसार उक्त 'हकार' प्रत्यय के स्थान पर भी शौरसेनी-भाषा में विकल्प से 'धकार' रूप प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। यों 'हकार' के स्थान पर विकल्प से 'धकार' की प्राप्ति जानना चाहिये। जैसे:- (१) भवथ होध अथवा होह-तुम होते हो। (२) परित्रायध्वे-परित्तायध अथवा परित्तायह-तुम संरक्षण करते हो अथवा तम पोषण करते हो।।४-२६८।। भुवो भः॥४-२६९।। भवते हंकारस्य शौरसेन्या भो वा भवति।। भोदि होदि सुवदि।। भवदि। हवदि।। अर्थः- संस्कृत-भाषा में 'होना' अर्थक 'भू-भव' धातु है; इस 'भव्' धातु के स्थान पर प्राकृत-भाषा में सूत्र-संख्या ४-६० से विकल्प से 'हव' 'हो' और 'हुव' धातु रूपों की आदेश-प्राप्ति होती है; तदनुसार इन आदेश गत रूपों में स्थित 'हकार के स्थान पर शौरसेनी भाषा में विकल्प से 'भकार' की प्राप्ति होती है और ऐसा होने पर 'हव का भव', 'हो का भो' तथा 'हुव का भुव' विकल्प से हो जाता है। जैसेः- भवति-(१) भोदि, (२) होदि, (३) भुवदि, (४) हुवदि, (५) भवदि और (६) हवदि-वह होता है। सूत्र-संख्या ४-२७३ से वर्तमानकाल-वाचक तृतीय पुरुष बोधक एक वचनीय प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'दि' की प्राप्ति होती है, जैसा कि ऊपर के उदाहरणों में बतलाया गया है। अतएव क्रियापदों में यह ध्यान में रखना चाहिये।।४-२६९।। पूर्वस्य पुरवः ४-२७०॥ शौरसेन्यां पूर्व शब्दस्य पुरव इत्यादेशौ वा भवति।। अपुरवं नाडय।। अपुरवागदं।। पक्षे। अपुव्वं पदं।। अपुव्वागदं। अर्थः- संस्कृत शब्द 'पूर्व' का प्राकृत-रूपान्तर 'पुव्व' होता है, परन्तु शौरसेनी भाषा में 'पूर्व' शब्द के स्थान पर विकल्प से 'पुरव' शब्द की आदेश-प्राप्ति होती है; यों शौरसेनी भाषा में 'पूर्व के स्थान पर 'परव' और 'पुव्व' ऐसे दोनों शब्द रूपों का प्रयोग देखा जाता है। प्राकृत-भाषा में सूत्र-संख्या २-१३५ से 'पूर्व' के स्थान पर 'पुरिम' ऐसा रूप भी विकल्प से उपलब्ध होता है। शौरसेनी भाषा संबंधी 'परव' और 'पव्व' शब्दों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है :- (१) अपर्वम नाटकम अपरवं नाडयं अथवा अपव्वं नाडयं-अनोखा नाटक, अदभुत खेल। (२) अपर्वम अगदम अपरवागंद अथवा पव्वागदं अनोखी औषधि अथवा अद्भुत दवा। (३) अपूर्वम् पदम् अपुव्वं पद अथवा अपुरवं पदं अनोखा पद, अद्भुद शब्द। इत्यादि।।४-२७०।। क्त्व इय-दणौ।।४-२७१।। __ शौरसेन्यां क्त्वा प्रत्ययस्य इय दूणइत्यादेशो वा भवतः।। भविय, भोदूण॥ हविय, होदूण। पढिय, पढिदूण। रमिय, रन्दूण। पक्षे। भोत्ता। होत्ता। पढित्ता। रन्ता।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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