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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 289 महावीरे=श्रमण-महासाधु भगवान महावीर ने। (४) प्रज्वलितः भगवान् हुताशनः पज्जलिदो भयवं हुदासणो=उज्जवल रूप से जलता हुआ भगवान् अग्निदेव। इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि 'भवत्' और 'भगवत्' शब्दों के प्रथमान्त एक वचन में बने हुए संस्कृतीय पद 'भवान् तथा 'भगवन्' का शौरसेनी भाषा में क्रम से 'भवं और भगवं' (अथवा भयवं)' हो जाता है। ___ कभी कभी ऐसा भी देखा जाता है जबकि अन्य पदों में भी प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अन्त्य हलन्त 'नकार' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में अनुस्वार की प्राप्ति हो जाती है तथा प्रथमा-विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'सु-सि' का लोप हो जाता है। जैसे:- मघवान् पाक शासनः मघवं पाग सासणे=देव राज इन्द्र ने। यहाँ पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन में मघवान् का रूपान्तर 'मघवं' बतलाया है। दूसरा उदाहरण यों है:- संपादितवान् शिष्यः संपाइअवं सीसो पढ़ाये हुए शिष्य ने यहाँ पर भी प्रथमा विभक्ति के एकवचन पद 'संपादितवान्' का रूपान्तर शौरसेनी भाषा में 'सपाइअवं' किया गया है। (३) कृतवान्कायवं=मैं करने वाला हूँ अथवा मैं करूगाँ यों हलन्त 'नकार' के स्थान पर प्रथमा-विभक्ति एकवचन में अनुस्वार की प्राप्ति का स्वरूप जानना।।४-२६५।। न वा यो य्यः।।४-२६६॥ शौरसेन्यां यस्य स्थाने य्यो वा भवति।। अय्यउत्त पय्याकुलीकदम्हि। सुय्सो। पक्षे। अज्जो। पज्जाउलो। कज्ज-परवसो।। अर्थः-शौरसेनी भाषा में संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर विकल्प से द्वित्व (अथवा द्विरुक्त) 'य्य' की प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में संयुक्त 'र्य के स्थान पर सूत्र-संख्या २-२४ से तथा २-८९ से द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति भी होती है। (१) हे आर्यपुत्र!-पर्याकुलीकृतास्मि हे अय्यउत्त! (अथवा हे अज्जउत!) पय्याकुलीकदम्हि (अथवा पज्जाकुलीकदम्हि) हे आर्य पुत्र! मैं दुःखी कर दी गई हूँ। (२) सूर्यः सुय्यो अथवा सुज्जो-सूरज। (३) आर्यः अय्यो अथवा अज्जो आर्य, श्रेष्ठ। (४) पर्याकुलः पय्याउलो अथवा पज्जाउलो अथवा पज्जाउलो-घड़ाबया हुआ, दुःखी किया हुआ। (५) कार्य परवशः कज्ज-परवसो अथवा कय्य-परवसो कार्य करने में दूसरों के वश में रहा हुआ। यों शौरसेनी भाषा में 'र्य' के स्थान पर 'य्य' अथवा 'ज्ज' की प्राप्ति विकल्प से होती है।।४-२६६।। थो धः।।४-२६७॥ ___ शौरसेन्यां थस्य धो वा भवति।। कधेदि, कहेदि।। णाधो णाहो। कधं कह। राजपधो, राजपहो।। अपदादावित्येव। थाम थेओ।। __ अर्थः- संस्कृत-भाषा से शौरसेनी भाषा में रूपान्तर करने पर संस्कृत शब्दों में रहे हुए 'थकार' व्यञ्जन के स्थान पर विकल्प से 'धकार' व्यञ्जन की प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या १-१८७ से 'थकार' के स्थान पर 'हकार' की भी प्राप्ति हो सकती है।। जैसेः- (१) कथयति-कधेदि अथवा कहेदि वह कहता है वह कथन करता है। इस उदाहरण में 'ति' के स्थान पर 'दि' की प्राप्ति सूत्र-संख्या ४-२७३ से जानना। (२) नाथ:=णाधो अथवा णाहो-नाथ, स्वामी, ईश्वर। (३) कथम् कधं अथवा कह कैसे, किस तरह से। (४) राज-पथः-राज-पधो अथवा राज-पहो,मुख्य मार्ग, धोरी मार्ग, मुख्य सड़क। इन उदाहरणों में 'थकार' के स्थान पर 'धकार' की अथवा 'हकार' की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। सूत्र-संख्या ४-२६० से यह अधिकृत-सिद्धान्त जानना चाहिये कि उक्त 'थकार' के स्थान पर 'धकार' की अथवा 'हकार' की प्राप्ति पद के आदि में रहे हुए 'थकार' के स्थान पर नहीं होती है और इसीलिये इसी सूत्र की वृत्ति में 'अपदादौ' अर्थात पद के आदि में नहीं, ऐसा उल्लेख किया गया है। वृत्ति में इस विषयक दो उदाहरण भी क्रम से इस प्रकार दिये गये हैं:- (१) स्थाम=थाम-बल, वीर्य, पराक्रम। "स्थामन्" शब्द नपुसंक लिंगी है, इसलिये प्रथमा विभक्ति के एक वचन में "स्थामन्" का रूप "स्थाम" बनता है। (२) स्थेयः=थेओ=रहने योग्य अथवा जो रह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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