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342 : प्राकृत व्याकरण
अम्हहं भ्यसाम्-भ्याम्॥४-३८०।।
अपभ्रंशे अस्मदो भ्यसा आमा च सह अम्हहं इत्यादेशो भवति ।। अम्हहं होन्तउ आगो । । आमा । अह भग्गा अम्हहं तणा ।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'मैं - हम' वाचक सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के साथ में पंचमी विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय 'भ्यस्' का सम्बन्ध होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'भ्यस्' दोनों ही के स्थान पर 'अम्मह ऐसे पद-रूप की नित्यमेव आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- अस्मत्-अम्हां - हमारे से अथवा हमसे । । इसी प्रकार से इसी सर्वनाम शब्द ‘अस्मद्' के साथ में चतुर्थी बहुवचन बोधक प्रत्यय 'भ्यस्' का तथा षष्ठी विभक्ति के बहुवचन के द्योतक प्रत्यय 'आम्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और इन प्रत्ययों के स्थान पर हमेशा ही 'अम्मह' ऐसे पद-रूप की आदेश प्राप्ति का संविधान है जैसे:- अस्मभ्यम् = अम्हहं = हमारे लिये और अस्माकम् (अथवा नः) = अम्हहं=हमारा, हमारी, हमारे ।। सूत्र में और वृत्ति में 'चतुर्थी विभक्ति' का उल्लेख नहीं होने पर भी सूत्र - संख्या ३ - १३१ के संविधानानुसार यहाँ पर चतुर्थी विभक्ति का भी उल्लेख कर दिया गया है सो ध्यान में रहे । वृत्ति में आये हुए उदाहरणों का भाषान्तर यों है :- (१) अस्मत् भवतु आगतः = अम्हहं होन्तउ आगदो - हमारे से आया हुआ होवे। (२) अथ भग्नाः अस्मदीयाः तत् = अह भग्गा अम्हहं तणा= यदि हमारे पक्षीय (वीर- गण ) भाग खड़े हुए हों तो वह (पूरी गाथा ४- ३७९ में दी गई है ) ।। यों पंचमी बहुवचन में और षष्ठी बहुवचन में 'अम्हह पद रूप की स्थिति को जानना चाहिये ।।४-३८० ।।
सुपा अम्हासु।।४-३८१।।
अपभ्रंशे अस्मदः सुपा सह अम्हासु इत्यादेशौ भवति ।। अम्हासु ठिअ ।।
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में ‘मैं- हम' वाचक सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के साथ में सप्तमी विभक्ति के बहुवचन के द्योतक प्रत्यय 'सुप्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'सुप' दोनों ही के स्थान पर नित्यमेव 'अम्हासु' ऐसे पद-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- अस्मासु स्थितम् = अम्हासु ठिअं= हमारे पर अथवा हमारे में रहा हुआ है। । ४ - ३८१ ।। त्यादेराद्य त्रयस्य संबन्धिनो हिं न वा ।।४-३८२।।
त्यादीनामाद्य त्रयस्य संबन्धिनो बहुष्वर्थेषु वर्तमानस्य वचनस्यापभ्रंशे हिं इत्यादेशौ वा भवति ।। मुह - कबरि-बन्ध तहे सोह धरहि ।।
नं मल्ल - जुज्झु ससि - राहु-करहि ।।
त सहहिं कुरल भमर - उल - तुलिअ ।
नं तिमिर - डिम्भ खेल्लन्ति मिलिअ ॥१॥
अर्थः- सूत्र - संख्या ४- ३८२ से ४- ३८८ तक में क्रियाओं में जुड़ने वाले काल-बोधक प्रत्ययों का वर्णन किया है। यों सर्व सामान्य रूप से तो जो प्रत्यय प्राकृत भाषा के लिये कहे गये हैं, लगभग वे सब प्रत्यय अपभ्रंश भाषा में भी प्रयुक्त होते हैं। केवल वर्तमानकाल में, आज्ञार्थ में और भविष्यत्काल में ही थोड़ा सा अन्तर है; जैसा कि इन सूत्रों में बतलाया गया है।
वर्तमानकाल में 'वह-वे' वाचक अन्य पुरूष के बहुवचन में अपभ्रंश भाषा में प्राकृत भाषा में वर्णित प्रत्ययों के अतिरिक्त एक प्रत्यय 'हिं' की प्राप्ति विशेष रूप से और विकल्प रूप से अधिक होती है। जैसे:- कुर्वन्ति = करिहिं- वे करते हैं। धरतः धरहिं - वे दो धरण करते है ।। रोभन्ते = सहहिं - वे शोभा पाते हैं । । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'न्ति, न्ते और इरे' प्रत्ययों की प्राप्ति भी होगी। जैसे:- क्रीड़न्ति खेल्लन्ति, खेल्लन्ते और खेल्लिरे = वे खेलते हैं अथवा वे क्रीड़ा करते हैं ।। वृत्ति में प्रदत्त छन्द का अनुवाद यों है:
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