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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 343
संस्कृत : मुख-कबरी-बन्धौ तस्याः शोभा धरतः।।
ननु मल्ल-युद्धं शशिराहू कुरूतः।। तस्याः।। शोभन्ते कुरलाः भ्रमर-कुल-तुलिताः।।
ननु भ्रमर-डिम्भाः क्रीड़न्ति मिलिताः।।१।। हिन्दी:-उस नायिका के मुख और केश-पाशों से बंधी हुई वेणी अर्थात् चोटी इस प्रकार की शोभा को धारण कर रही है कि मानों 'चन्द्रमा और राहू' मिलकर के मल्ल-युद्व कर रहे हो।। उसके बालों के गुच्छे इस प्रकार से शोभा को धारण कर रहे है कि मानों भंवरो के समूह ही संयोजित कर दिये हो।। अथवा मानों छोटे छोटे बाल-भ्रमर-समूह ही मिल करके खेल कर रहे हो।।४-३८२।।
मध्य-त्रयस्याद्यस्य हिः॥४-३८३॥ त्यादीनां मध्यत्रयस्य यदाद्यं वचनं तस्यापभ्रंयरो हि इत्यादेशो वा भवति।। बप्पीहा पिउ पिउ भणवि कित्तिउ रूअहि हयास।। तुह जलि महु पुणु वल्लहइ बिहुँ वि न पूरिअ आस।।१।। आत्मने पदे। बप्पीहा कई वोल्लिअण निग्घिण वार इ वार।। सायरि भरिअइ विमल-जलि लहहि न एक्कइ धार।। २।। सप्तम्याम्। आयहिं जम्महिं अन्नहिं वि गोरि सुदिज्जहि कन्तु॥ गय-मत्तहं चत्तंकुसहं जो अब्भिडइ हसन्तु।। ३।। पक्षे। रूअसि। इत्यादि।।
अर्थः-वर्तमानकाल में मध्यम पुरूष में एकवचन के अर्थ में प्राकृत भाषा में वर्णित प्रत्ययों के अतिरिक्त अपभ्रंश भाषा में एक प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति अधिक रूप से और वैकल्पिक रूप से होती है। जैसे:- रादिषि रूअहि-तू रोता है। पक्षान्तर में 'रूअसि =तू रोता है; ऐसा रूप भी होगा। आत्मनेपदीय द्दष्टान्त यों है: लभसे-लहहि-तू प्राप्त करता है। पक्षान्तर में लहसि-तू प्राप्त करता है; ऐसा भी होगा। सप्तमी-अर्थ में अर्थात् विनति अर्थक सामन्य वर्तमानकाल में भी मध्यम-पुरूष के एकवचन के अर्थ में विकल्प से 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति अधिक रूप से होती हुई देखी जाती है। जैसा कि:- दद्याः दिज्जहि-तू देना अर्थात् देने की कृपा करना। गाथाओं का अनुवाद क्रम से यों हैं:संस्कृत : चातक ! 'पिउ, पिउ': (पिबामि, पिबामि, अथवा प्रिय ! प्रिय! इति)
भणित्वा कियद्रोदिषि हताश।।
तव जले मम पुनर्वल्लभे द्वयोरपि न पूरिता आशा।।१।। हिन्दी:-नायिका विशेष अपने प्रियतम के नहीं आने पर 'चातक' पक्षी को लक्ष्य करके कहती है कि-हे चातक! पानी पीने की तुम्हारी इच्छा जब पूरी नहीं हो रही है तो फिर तुम 'मैं पीऊंगा' ऐसा बोलकर क्यों बार-बार रोते हो? मैं भी प्रियतम, प्रियमतम' ऐसा बोलकर निराश हो गई हूँ।। इसलिये तुम्हें तो जल-प्राप्ति में और मुझे प्रियतम-प्राति में, दोनों के लिये आशा पूर्ण होने वाली नहीं है।।१।। संस्कृत : चातक ! किं कथनेन निर्घण वारं वारम्।।
सागरे भृते विमल-जलेन, लभसे न एकामपि धाराम्॥ हिन्दी:-अरे निर्दयी चातक ! (अथवा हे निर्लज्ज चातक!) बार-बार एक ही बात को कहने से क्या लाभ है? जबकि समुद्र के स्वच्छ जल से परिपूर्ण होने पर भी, उससे तू एक बूंद भी नहीं प्राप्त कर सकता है; अथवा नही पाता है।।२।।
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