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________________ 344 : प्राकृत व्याकरण संस्कृत : अस्मिन् जन्मनि अन्यस्मिन्नपि गौरि! तं दद्याः कांतम्।। - गजानां मत्तानां त्यक्तांकुषानां य संगच्छते हसन्।। ३॥ हिन्दी:-कोई एक नायिका विशेष अपने प्रियतम की रण-कुशलता पर मुग्ध होकर पार्वती से प्रार्थना करती है कि 'हे गौरि ! इस जन्म में भी और पर जन्म में भी उसी पुरुष को मेरा पति बनाना; जो कि ऐसे मदोन्मत्त हाथियों के समूह में भी हँसता हुआ चला जाता है; जिन्होने कि-(जिन हाथियों ने कि) अंकुश के दबाव का भी परित्याग कर दिया है।। ३।।४-३८३।। बहुत्वे हुः।।४-३८४॥ त्यादीनां मध्यमत्रयस्य संबन्धि बहुष्वर्थेषु वर्तमानं यद्वचनं तस्यापभ्रंशे हु इत्यादेशौ वा भवति।। बलि अब्भत्थणि महु-महणु लहुई हुआ सोइ।। जइ इच्छहु वड्डत्तणउं देहु म मग्गहु कोइ।।१॥ पक्षे। इच्छह। इत्यादि।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में वर्तमानकाल के मध्यम पुरूष के बहुवचन के अर्थ में प्राकृत-भाषा में प्राप्तव्य प्रत्ययों के अतिरिक्त एक प्रत्यय 'हु' की विकल्प से और विशेष रूप से आदेश प्राप्ति होती है प्राकृत-भाषा में इसी अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इत्था' और 'ह' प्रत्ययों की प्राप्ति अपभ्रंश भाषा में भी नियमानुसार होती है। जैसे:इच्छथ-इच्छहु-तुम इच्छा करते हो। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षांतर में 'इच्छित्था और इच्छह' रूपों की प्राप्ति भी होगी। ददध्वे-देहु-तुम देते हो। पक्षान्तर में 'देह' और 'देइत्था' रूप भी बनते हैं।। पूरी गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : बलेः अभ्यर्थने मधुमथनों लघुकीभूतः सोऽपि।। __ यदि इच्छथ महत्त्वं (वड्डत्तणउं) दत्त, मा मार्गयत कमपि।।१।। हिन्दी:-मधु नामक राक्षस को मथने वाले भगवान् विष्णु को भी बलि राजा से भीख मांगने की दशा में छोटा अर्थात् 'वामन' होना पड़ा था; इसलिये यदि तुम महानता चाहते हो तो देओ; परन्तु किसी भी मांगो मत।।१।।४-३८४।। अन्त्य-त्रयस्यादयस्य उ॥४-३८५॥ त्यादीनामन्त्र्यस्य यदाद्यं वचनं तस्यापभ्रंशे उं इत्यादेशो वा भवति।। विहि विणडउ पीडन्तु गह मं धणि करहि विसाउ।। संपइ कड्कउं वेस जिवँ छुड्ड अग्घइ ववसाउ।।१।। बलि किज्जउं सुअणस्सु।। पक्षे कडामि इत्यादि।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में वर्तमानकाल के अर्थ में 'मैं' वाचक उत्तम पुरूष के एकवचन में प्राकृत भाषा में प्राप्तव्य प्रत्यय के अतिरिक्त एक प्रत्यय 'उ' की आदेश प्राप्ति विकल्प रूप से और विशेष रूप से होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'मि' प्रत्यय की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- कर्षामिकड्ढउं=मैं खींचता हूँ। पक्षान्तर में 'कड्ढामि' रूप भी होगा। बलिं करोमि सुजनस्य-बलि किज्जउं सुअणस्सु-सज्जन पुरूष के लिये मैं (अपना) बलिदान करता हूँ।। पक्षान्तर में 'किज्जउं के स्थान पर 'किज्जमि' रूप भी होगा। गाथा का भाषान्तर इस प्रकार है:संस्कृत : विधि विनाटयतु ग्रहाः पीडयन्तु मा धन्ये ! कुरू विषादम्॥ संपदं कर्षामि वेषमिव, यदि अर्घति (=स्यात्) व्यवसायः॥१॥ हिन्दी:-मेरा भाग्य भले ही प्रतिकुल होवे, और ग्रह भी भले ही मुझे पीड़ा प्रदान करें; परन्तु हे मुग्धे ! हे धन्ये! तू खेद मत कर। जैसे मैं अपने कपड़ों को-(ड्रेस को-वेष को (आसानी से पहिन लेता हूं, वैसे ही धन-सम्पत्ति को भी आसानी से आकर्षित कर सकता हूँ-खीचं सकता हूँ; यदि मेरा व्यवसाय अच्छा है-यदि मेरा धन्धा फलप्रद है तो सब कुछ शीघ्र ही अच्छा ही होगा।।४-३८५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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