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356 : प्राकृत व्याकरण
__ हिन्दी:- जैसे-जैसे दोनों नेत्रों की वक्रता को। यहाँ पर 'यथा, यथा के स्थान पर 'जिवं, जिवँ, का प्रयोग किया गया है। संस्कृत : तथा तथा मन्मथः निजक-शरान।।
___ अपभ्रंशः-ति तिवं वम्महु निअय-सर।। हिन्दी:- वैसे-वैसे कामदेव अपने बाणों को। इस चरण में तथा, तथा' की जगह पर 'ति तिवँ' ऐसे आदेश-प्राप्त रूप लिखे गये है।। संस्कृत : मया ज्ञातं प्रिय ! विरहितानां कापि धरा भवति विकाले।।
केवलं (=परं) मृगाङ्कोकपि तथा तपति यथा दिनकरः क्षयकाले।।५।। हिन्दी:-हे प्रियतम ! मुझसे ऐसा जाना गया था कि प्रियतम के वियोग से दुःखित व्यक्तियों के लिये संध्या-काल में शायद कुछ भी सान्त्वना का आधार प्राप्त होता होगा; किन्तु ऐसा नहीं है। 'देखो ! चन्द्रमा भी मध्यकाल में उसी प्रकार से उष्णता प्रदान करने वाला प्रतीत हो रहा है; जैसा कि सूर्य उष्णतामय ताप प्रदान करता रहता है। इस गाथा में 'तथा' अव्यय के स्थान पर 'तिह' रूप की आदेश-प्राप्ति हुई है और 'यथा' पर 'जिह आदेश प्राप्त अव्यय रूप लिखा गया है।। ५।।
इसी प्रकार से 'कथं, यथा और तथा' अव्यय पदों के स्थान पर आदेश-प्राप्ति के रूप में प्राप्त होने वाले अन्य रूपों के उदाहरणों की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये; ऐसी ग्रन्थकार की सूचना है।।४-४०१।।
याद्दक्ताद्दक्कीद्दगीदशां दादे र्डे हः।।४-४०२।। अपभ्रंशे याद्दगादीनां दादेरवयवस्य डित् एह इत्यादेशो भवति।। मई भणिअउ बलिराय ! तुहुँ केहउ मग्गण एहु।। जेहु तेहु न वि होइ, वढ ! सई नारायणु एहु।।१।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'याद्दा, तादृक्, कीदृक् और ईदृक् शब्दों में अवस्थित अन्त्य भाग 'दृकू के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'डित्-पूर्वक' 'एह अंश-रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। 'डित् पूर्वक कहने का तात्पर्य यह है कि 'दृक् भाग के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए 'या, ता, की और ई के अन्त्य स्वर 'आ,
और ई का भी लोप हो जाता है और तत्पश्चात् ही 'एह' अंश रूप की आदेश प्राप्ति होकर एवं संधि अवस्था प्राप्त होकर क्रम से यों आदेश प्राप्त रूपों की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- यादृक-जेह-जिसके समान; ताद्दक-तेह उसके समान; कीदृक्-केह-किसके समान और ईदृक-एह इसके समान। आदेश प्राप्त रूप विशेषण होने से विशेष्य के समान ही विभक्तियों में भी इनके विभिन्न रूप बन जाते हैं।। गाथा का भाषान्तर यों है:संस्कृत : मया भणितः बलिराज ! त्वं कीदृग् मार्गणः एषः।।
___ यादृक्-तादृक् नापि भवति मूर्ख ! स्वयं नारायणः ईदृक् ।।१।। हिन्दी:-हे राजा बलि ! मैंने तुम्हे कहा था कि यह मांगने वाला किस प्रकार का भिखारी है ? हे मूर्ख ! यह ऐसा वैसा भिखारी नहीं हो सकता है; किन्तु इस प्रकार 'भिखारी' के रूप में स्वयं भगवान् नारायण-विष्णु है।।१।। यों इस गाथा में ‘यादृक् तादृक्, कीदृग् और ईदृक् के स्थान पर क्रम से 'जेहु, तेहु, केहउ और एहु' रूपों का प्रयोग किया गया है।।४-४०२।।
अता डइसः।।४-४०३।। अपभ्रंशे याद्दगादीनामदन्तानां यादृष-तादृष-कीदृषेदृषानां दादेरवयस्य डित् अइस इत्यादेशौ भवति।। जइसो।। तइसो। कइसो। अइसो।।
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