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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 355 अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'कथं, यथा और तथा' अव्ययों में स्थित 'थं' और 'था' रूप अक्षरात्मक अवयवों के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'एम, इम, इह और इध' अक्षरात्मक आदेश-प्राप्ति क्रम से होती है। यह आदेश-प्राप्ति 'डित् पूर्वक होती है। इससे यह समझा जाता है कि उक्त तीनों अव्ययों में 'थं और 'था' भाग के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए 'क', 'य' और 'त' भाग में अवस्थित अन्त्य स्वर 'अ' का भी 'एम, इम, इह और इध' आदेश-प्राप्ति के पूर्व लोप हो जाता है और तदनुसार 'कथं' के स्थान पर 'केम, किम, किह और किध' रूपों की प्राप्ति होती है। 'यथा' के स्थान पर 'जेम, जिम, जिध और जिह' रूप होगें और इसी प्रकार से 'तथा' की जगह पर 'तिम, तेम, तिध और तिह' रूप जानना चाहिये। सूत्र-संख्या ४-३९७ के संविधानानुसार 'केम, किम, जेम, जिम, तेम, तिम' में स्थित 'मकार के स्थान पर विकल्प से अनुनासिक सहित 'व' की आदेश-प्राप्ति भी हो जाने से इनके स्थान पर क्रम से 'केवँ, किवँ, जेवँ, जिवँ, तिवँ, तेवँ, रूपों की आदेश-प्राप्ति भी विकल्प से होगी। यो। 'क), यथा और तथा अव्यायों के क्रम से छह छह रूप अपभ्रंश-भाषा में हो जायगे। वृत्ति में दी गई गाथाओं में अव्यय-रूपों का प्रयोग किया गया है; तदनुसार इनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:___ संस्कृत : कथं समाप्यतां दुष्टं दिनं, कथं रात्रिः शीघ्रं (छुडु) भवति।। नव-वधू-दर्शन-लालसकः वहति मनोरथान् सोऽपि।।१।। हिन्दी:-किस प्रकार से (कब शीघ्रता पूर्वक) यह दुष्ट (अर्थात् कष्ट-दायक) दिन समाप्त होगा और कब रात्रि जल्दी होगी; इस प्रकार की मनो-भावनाओं की 'नई ब्याही हुई पत्नी को देखने की तीव्र लालसावाला' वह (नायक-विशेष) अपने मन में रखता है अथवा मनोरथों को धारण करता है। इस गाथा में 'कथ' अव्यय के स्थान पर आदेश-प्राप्त 'केम और किध' अव्यय रूपों का प्रयोग किया गया है।।१।। संस्कृत : ओ गौरी-मुख-निर्जितकः, वार्दले निलीनः मृगाङकः।। अन्योऽपि यः परिभूततनुः, स कथं भ्रमति निःषङकम्।। २॥ हिन्दी:-ओह ! (सूचना-अर्थक-अव्यय) गौरी (नायिका-विशेष) के मुख-कमल की शोभा से हार खाया हुआ यह चन्द्रमा बादलों में छिप गया है। दूसरे से हारा हुआ अन्य कोई भी हो, वह निडरता पूर्वक (सम्मान पूर्वक) कैसे परिभ्रमण कर सकता है ? इस गाथा मे 'कथं के स्थान पर 'किव' आदेश-प्राप्त रूप का प्रयोग किया गया है।। २।। संस्कृत : बिम्बाधरे तन्व्याः रदन-व्रणः कथं स्थितः श्री आनंद।। निरूपम रसं प्रियेण पीत्वेव शेषस्य दत्ता मुद्रा।। ३।। हिन्दी:-हे श्री आनन्द ! सुन्दर शरीर वाली (पतले शरीर वाली) नायिका के लाल लाल होठों पर दांतों द्वारा अकित चिह्न किस प्रकार-शोभा को धारण कर रहा है ? मानों प्रियतम पति देव से अद्वितीय अमृत-रस का पान किया जाकर के (होठों में) अवशिष्ट रस के लिये सील-मोहर लगा दी गई है; (जिससे कि इस अमृत-रस का अन्य कोई भी पान नहीं कर सके) इस गाथा में 'कथं अव्यय के स्थान पर 'किह' आदेश-प्राप्ति रूप का प्रयोग किया गया है।। ३।। संस्कृत : भण सखि ! निभृतकं तथा मयि यदि प्रियः दृष्टः सदोषः।। यथा न जानाति मम मनः पक्षापतितं तस्य।।४।। हिन्दी:-हे सखि ! यदि मेरे विषय में मेरा प्रियतम तुझ से सदोष देखा गया है तो तू निस्संकोच होकर (प्राइवेट रूप में) मुझे कह दे।। मुझे इस तरीके से कह कि जिससे वह यह नहीं जान सके कि मेरा मन उसके प्रति अब पक्षपात पूर्ण हो गया है। इस गाथा में 'तथा' के स्थान पर 'तेवं लिखा गया है और 'यथा' के स्थान पर 'जेव' का प्रयोग किया गया है।।४।। संस्कृत : यथा यथा वक्रिमाणं लोचनयोः।। अपभ्रंशः-जिवँ जिवं बङिकम लोअणह।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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