________________
354 : प्राकृत व्याकरण
उत्तरः-अनेक पदों में कभी तो रेफ रूप 'रकार' की आगम-प्राप्ति हो जाती है और कभी नहीं भी होती है; इसलिये क्वचित् अव्यय का उपयोग किया गया है। जैसे:- व्यासेनापि भारत स्तम्भे बद्धम् वासेण वि भारह-खम्भि बद्ध-व्यास ऋषि के द्वारा भी भारत रूपी स्तम्भ में बांधा गया है-कहा गया है। इस उदाहरण में 'वासेण' पद में रेफ-रूप 'रकार' का आगम नहीं हुआ है। (१) व्याकरणम् वागरण और वागरण व्याकरण शास्त्र। इस तरह से रेफ-रूप 'रकार' की आगम स्थिति को जानना चाहिये।।४-३९९ ।।
आपद्विपत्-संपदां द इः।।४-४००।। अपभ्रंशे आपद्-विपद्-(संपद)-इत्येतेशां दकारस्य इकारो भवति।। अणउ करन्तहो पुरिसहो आवइ आवइ।। विवइ। संपइ।। प्रायोधिकारात्। गुणहिं न संपय कित्ति पर।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'आपद्, विपद्-संपद्' शब्दों में उपस्थित अन्त्य व्यञ्जन 'दकार' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'इकार' स्वर की आदेश प्राप्ति (कभी-कभी) हो जाती है। जैसे :- (१) आपद्-आवइ-आपत्ति-दुख। (२) विपद्-विवइ-विपत्ति-संकट। (३) संपद्-सैपद-संपत्ति-सुख।। गाथा के चरण का रूपान्तर यों है:__अनयं कुर्वतः पुरूषस्य आपद् आयाति-अणउ करन्तहो पुरिसहो आवइ आवइ-अनीति को करने वाले पुरूष के (लिये) आपत्ति आती है।
'प्रायः' अव्यय के साथ उक्त विधान का अल्लेख होने से कभी-कभी 'आपद्-विपद्-संपद्' में रहे हुए अन्त्य व्यञ्जन 'दकार' के स्थान पर 'इकार' रूप की आदेश-प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:-आपद्-आवय अथवा आवया। (२) विपद्=विवय अथवा विवया और (३) संपद्=संपय अथवा संपया।। गाथा के चरण का रूपान्तर यों है:-गुणैः न संपत् कीर्तिः परं-गुणहिं न संपय किर्त्ति पर गुणों से संपत्ति (धन-द्रव्य) नहीं (प्राप्त होती है-होता है) परन्तु कीर्ति (ही प्राप्त होती है) इस दृष्टान्त में 'सपद्' के स्थान पर 'संपइ' पद का प्रयोग नही किया जाकर 'संपय' पद का प्रयोग किया गया है। यों सर्वत्र समझ लेना चाहिये।।४-४००।।
कथं यथा-तथां थादेरेमेमेहेधा डितः।।४-४०१।। अपभ्रंशे कथं यथा तथा इत्येतेशां थादेरवयवस्य प्रत्येकम् एम इम इह इध इत्येते डितश्रत्वार आदेशा भवन्ति।
केम समप्पउ दुटु दिणु किध रयणी छुडु होइ।।। नव-वहु-दंसण-लालसउ वहइ मणोरह सोइ।।१।। ओ गोरी-मुह-निज्जिअउ वद्दलि लुक्कु मियङकु।। अन्नु विजो परिहविय-तणु सो किवँ भवइ निसङकु।। २।। बिम्बाहरि तणु रयण-वणु किह ठिउ सिरि आणन्द।। निरूवम-रसु पिएं पिअवि जणु सेसहो दिण्णी मुद्द।। ३।। भण सहि ! निहुअउं तेवं मई जइ पिउ दिओ सदोसु।। जेवं न जाणइ मज्झु मणु पक्खावडिअंतासु।।४।। जिवँ जिव॑ वडिकम लोअणह।। ति तिवं वम्महु निअय-सर।। मई जाणिउ प्रिय विरहिअहं कविधर होइ विआली।। नवर मिअङकु वितिह तवइ जिह दिणयरू खय-गालि।। ५।। एवं तिध-जिधावुदाहार्यों।।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org