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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 353 उत्तर:- यदि ‘मकार' पद के आदि में रहा हुआ हो तो उसके स्थान पर 'वकार' की आदेश प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:मदन-मयणु-मदन-कामदेव। यहाँ पर 'मकार' के स्थान पर 'वकॉर' नहीं होगा। क्योंकि यह मकार आदि में स्थित है। प्रश्नः-'असंयुक्त रूप से रहे हुए ‘मकार' के स्थान पर ही 'वकार' होगा; ऐसा भी क्यों का गया है ? उत्तरः- 'संयुक्त रूप से रहे हुए 'मकार' के स्थान पर 'वकार' की आदेश प्राप्ति नहीं होती है; ऐसी अपभ्रंश-भाषा में परंपरा है; इसलिये 'संयुक्त' मकार के लिये 'वकार' की प्राप्ति का निषेध किया गया है। जैसे:- जन्म-जम्मु-जन्म होना- उत्पत्ति होना। यहाँ पर 'मकार' संयुक्त रूप से रहा हुआ है इसलिये 'वकार' की यहाँ पर आदेश प्राप्ति नहीं हो सकती है। तस्य परं सफलं जन्म-तसु पर सभलउ जम्मु उसका जन्म बड़ा ही सफल है। (पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३९६ में दी गई है)।।४-३९७।। वाधो रो लुक्।।४-३९८।। ___ अपभ्रंशे संयोंगादधो वर्तमानो रेफो लुग् वा भवति।। जइ केवइ पावीसु पिउ (देखो-४-३९६) पक्षे। जइ मग्गा पारक्कडा तो सहि! मज्झु प्रियेण।। अर्थः-संस्कृत भाषा के किसी भी पद में यदि रेफ-रूप 'रकार' संयुक्त रूप से और वर्ण में परवर्ती रूप से अर्थात् अधो रूप से रहा हुआ हो तो उस रेफ रूप 'रकार' का अपभ्रंश-भाषा में विकल्प से लोप हो जाता है। जैसे:-यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियंजई केवँइ पावीसु पिउ-यदि किसी भी तरह से प्रियतम पति को प्राप्त कर लूँगी। इस उदाहरण में 'प्रिय' के स्थान पर 'पिउ' पद को लिख करके 'प्रियं' में स्थित रेफ रूप 'रकार' का लोप प्रदर्शित किया गया है। पक्षान्तर में जहाँ रेफ रूप 'रकार' का लोप नहीं होगा, उसका उदारहरण इस प्रकार से है:यदि भग्नाः परकीयाः तत्-सखि ! मम प्रियेण जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि ! मज्झु प्रियेण हे सखि ! यदि शत्रु पक्ष के लड़वैये (रण-क्षेत्र को छोड़कर) भाग खड़े हुए हैं तो मेरे पति (की वीरता के कारण) से (ही) ऐसा हुआ है। इस दृष्टान्त में 'प्रियेण' के स्थान पर 'प्रियेण' पद का ही उल्लेख करके यह समझाया है कि रेफ रूप 'रकार' का लोप कहीं पर होता है और कहीं पर नहीं भी होता है। यों यह स्थिति उभय-पक्षीय होकर वैकल्पिक है।।४-३९८।। अभूतोपि क्वचित।।४-३९९।। अपभ्रंशे क्वचिदविद्यमानो पि रेफो भवति।। वासु महारिसि ऍउ भणइ जइ सुइ-सत्थु पमाणु।। मायहं चलण नवरन्ताहं दिवि दिवि गङगा-हाणु।।१।। क्वचिदितिकिम्। वासेण वि भारह-खम्भि बद्ध।। अर्थः-संस्कृत भाषा के किसी पद में यदि रेफ रूप 'रकार' नहीं है तो भी अपभ्रंश-भाषा में उस पद का रूपान्तर करने पर उस पद में रेफ-रूप 'रकार' की आगम प्राप्ति कभी-कभी हो जाया करती है। जैसे:-व्यासः वासु व्यास नामक ऋषि-विशेष। पूरी गाथा का रूपान्तर यों है:संस्कृत : व्यास-महर्षिः एतद् भणति यदि श्रुति-शास्त्रं प्रमाणम्।। मातृणां चरणौ नमतां दिवसे दिवसे गङ्गा स्नानम्।।१॥ हिन्दी:-महाभारात के निर्माता व्यास नामक बड़े ऋषि फरमाते है कि यदि वेद और शास्त्र सच्चे हैं याने प्रमाण रूप हैं तो यह बात सच है कि जो विनीत आत्माएं प्रतिदिन प्रातःकाल में अपनी पूजनीय माताओं के चरणों में श्रद्धा पूर्वक नमस्कार प्रणाम करते हैं तो उन विनीत महापुरूषों को बिना गंगा स्नान किये भी 'गङ्गा' में स्नान करने से उत्पन्न होने वाले पुण्य जितने पुण्य की प्राप्ति होती है।।१।।। प्रश्नः- क्वचित् अर्थात् कभी-कभी ही रेफ रूप 'रकार' की आगम प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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