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352 : प्राकृत व्याकरण
इस उदाहरण में 'क के स्थान पर ग' वर्ण की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। यों शेष अन्य उक्त व्यंजनों के संबंध में भी स्वयमेव कल्पना कर लेनी चाहिये। (पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३५७ में प्रदान की गई है।)
वृत्ति में ग्रन्थकार ने 'प्रायः अव्यय का प्रयोग करके यह भावना प्रदर्शित की है कि इन व्यञ्जनों के स्थान पर प्राप्तव्य व्यञ्जनों की आदेश-प्राप्ति कभी-कभी नहीं होती है। जैसे कि अकतं-अकिआ नहीं किया हआ। नवके नवइ-नये मे।। इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि 'क' वर्ण स्वर के पश्चात् रहा हुआ है, अनादि में स्थित है और असंसुक्त भी है, फिर भी इसके स्थान पर आदेश रूप से प्राप्तव्य 'ग' वर्ण की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्य उक्त शेष व्यञ्जनों के संबंध में भी 'प्रायः' अव्यय का ध्यान रखते हुए जान लेना चाहिये कि सभी स्थानों पर आदेश-प्राप्ति का होना जरूरी नहीं है। वृत्ति में उल्लिखित चौथी एवं पाँचवीं गाथा का भाषान्तर क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियं अकृतं कौतुकं करिष्यामि।
पानीयं नवके शरावे यथा सर्वाङगेण प्रवेक्ष्यामि।।४।। हिन्दी:-यदि किसी प्रकार से संयोग वशात् मेरी अपने प्रियतम से भेंट हो जायगी तो मैं कुछ ऐसी आश्चर्य जनक स्थिति उत्पन्न कर दूँगी; जैसा कि पहिले कभी भी नहीं हुई होगी। मैं, अपने संपूर्ण शरीर को अपने प्रियतम के शरीर के साथ में इस प्रकार से आत्म-सात् (एकाकार) कर दूँगी; जिस प्रकार कि नये बने हुए मिट्टी के शरावले में पानी अपने आपको आत्म-सात् कर देता है।।४।। संस्कृत : पष्य ! कर्णिकारः प्रफुल्लितकः काञ्चन कांति प्रकाशः।
गौरी वदन-विनिर्जितकः ननु सेवते वनवासम्।। ५।। हिन्दी:-इस कर्णिकार नामक वृक्ष को देखो ! जो कि ताजे फूलों से लदा हुआ होकर परम शोभा को धारण कर रहा है; सोने के समान सुन्दर कांति से देदीप्यमान हो रहा है। गौरी के (नायिका विशेष के) आभापूर्ण सौम्य मुख-कमल की शोभा से भी अधिक शोभायमान हो रहा है। फिर भी आश्यर्च है कि यह वन-वास ही सेवन कर रहा है; वन में रहता हुआ ही अपना कालक्षेप कर रहा है। इस गाथा में 'कर्णिकारः और प्रकाशः पदों में 'क' वर्ण के स्थान पर 'ग' वर्ण की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। 'प्रफुल्लितकः और विनिर्जितकः' पदों में भी क्रम से प्राप्त 'फ' वर्ण तथा 'त' वर्ण के स्थान पर भी क्रम से प्राप्तव्य 'भ' वर्ण की और 'द' वर्ण की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। यों अनेक स्थानों पर 'प्रायः' अव्यय से सूचित स्थिति को हृदयंगम करना याहिये।। ५।।४-३९६ ।।
मोनुनासिको वो वा।।४-३९७।।। अपभ्रंशेऽनादौ वर्तमानस्यासंयुक्तस्य मकारस्य अनुनासिका वकारो वा भवति।। कवलु कमलु। भवरू भमरू। लाक्षणिकस्यापि। जिएँ। तिव। जेवँ।। अनादावित्येव। मयणु।। असंयुक्तस्येत्येव। तसु पर सभलउ जम्मु॥ । ___ अर्थः-संस्कृत भाषा के पद में रहे हुए 'मकार' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में रूपान्तर करने पर अनुनासिक सहित 'वकार' की अर्थात् 'व' की आदेश प्राप्ति विकल्प से उस दशा में हो जाती है जबकि वह 'मकार' पद के आदि में भी नहीं रहा हुआ हो तथा संयुक्त रूप से भी नही रहा हुआ हो। जैसे:-कमलम्=कवलु अथवा कमलु-कमल-फूल।। भ्रवरः भवँरू अथवा भमरू= भँवरा। इन उदाहरणों में 'मकार' पद के आदि में भी नहीं है तथा संयुक्त रूप से भी नहीं रहा हुआ है। व्याकरण सम्बन्धी नियमों से उत्पन्न हुए 'मकार' के स्थान पर भी अनुनासिक सहित 'व' की उत्पत्ति भी विकल्प से देखी जाती है। जैसे:-यथा जिम अथवा जिवँ जिस प्रकार जिस तरह से। तथा तिम अथवा तिव-उस प्रकार से अथवा उस तरह से। यथा जेम अथवा जेवँ जिस प्रकार अथवा जिस तरह से। तथा तेम अथवा तेवँ-उस प्रकार अथवा उस तरह से।।
प्रश्नः-'अनादि' में स्थित 'मकार' के स्थान पर ही 'व' की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है? Jain Education International For Private & Personal Use Only
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