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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 175 'ए' की प्राप्ति और ३- १३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकृत धातु 'कारे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्त 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कारेइ सिद्ध हो जाता है। राव एवं करावे में सूत्र - संख्या ३ - १४९ से मूल प्राकृत धातु 'कर' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक-भाव में संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से ' आव और आवे' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से मूल धातु 'कर' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के साथ में आगत प्रत्यय ' आव एवं आवे' में स्थित आदि दीर्घ स्वर 'आ' की संधि होकर अंगरूप 'कराव और करावे' की प्राप्ति और ३- १३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकृत धातु अंगों में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय और तृतीय रूप क्रम से करावइ और करावेइ दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं। हासयति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसके प्राकृत रूप हासेइ, हसावइ और हसावेइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३ - १५३ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित आदि हस्व 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक-क्रिया-बोधक-प्रत्यय 'अत्' अथवा 'एत्' का लोप होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; ३ - १५८ से प्राप्त प्रेरणार्थक-धातु अंग ‘हास' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमानकाल - बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकृत धातु-अंग 'हासे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हासेइ सिद्ध हो जाता है। हसाव और हसावेइ में सूत्र - संख्या ३ -१४९ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक भाव में संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'आव और आवे' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से मूल - धातु 'हस' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के साथ में आगत प्रत्यय 'आव एवं आवे' में स्थित आदि दीर्घ स्वर 'आ' की संधि होकर अंग-रूप 'हसाव और हसावे' की प्राप्ति और ३- १३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकृत धातु अंगों में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय और तृतीय रूप क्रम से हसावइ और हसावे दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं। उपशामयति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसके प्राकृत रूप उवसामेइ, उवसमावइ और उवसमावेइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - २३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १ - २६० से 'शू' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-१४९ से णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक भाव में संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकृत धातु अंग 'उवसामे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप उवसामेइ सिद्ध हो जाता है। उवसमावइ और उवसमावेइ में सूत्र - संख्या १ - २३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १ - २६० से 'श' के स्थान पर ‘स्' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्राप्त प्राकृत धातु 'उवसम्' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक भाव में संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से दोनों रूपों में 'आव और आवे' प्रत्ययों की प्राप्ति; यों प्राप्त प्रेरणाथक रूप उवसमाव और उवसमावे में सूत्र- संख्या ३ - १३९ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में दोनों रूपों में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप उवसमावइ और उवसमावेइ सिद्ध हो जाते हैं। ज्ञापयति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसको प्राकृत रूप जाणावेइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४-७ से मूल संस्कृत धातु 'ज्ञा' के स्थान पर प्राकृत में 'जाण' रूप की आदेश प्राप्ति; ३ - १४९ से प्राप्त रूप 'जाण्' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक-भाव में संस्कृत प्राप्त 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'आव' प्रत्यय की प्राप्ति और ३- १३९ से प्राप्त क्रिया रूप जाणावे में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय प्राप्ति होकर प्राकृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप जाणावेइ सिद्ध हो जाता है। पाययति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत- रूप पाएइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ -१४९ से मूल प्राकृत धातु 'पा' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक-भाव संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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