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________________ 176 : प्राकृत व्याकरण और ३-१३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक क्रिया रूप पाए' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप पाएइ सिद्ध हो जाता है। भावयति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप भावेइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१० से मूल प्राकृत धातु भाव में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का आगे णिजन्त बोधक प्रत्ययात्मक स्वर 'ए' का सद्भाव होने से लोप; ३-१४९ से प्राप्त हलन्त प्रेरणार्थक-क्रिया 'भाव' में संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में णिजन्त-बोधक प्रत्यय 'ए' की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्त प्रेरणार्थक क्रिया रूप'भावे में वर्तमानकाल के प्रथमपरु में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप भावेइ सिद्ध हो जाता है।।३-१४९।। गुर्वादेरविर्वा।।३-१५०॥ गुर्वादेणेः स्थाने अवि इत्यादेशो वा भवति।। शोषितम्। सोसविआ सोसि। तोषितम् तोसविअंतोसि। __ अर्थः- जिन धातुओं में आदि-स्वर गुरु अर्थात् दीर्घ होता है, उन धातुओं में णिजन्त-अर्थ में अर्थात् प्रेरणार्थक-भाव के निर्माण में उपर्युक्त सूत्र-संख्या ३-१४९ में वर्णित णिजन्त-बोधक प्रत्यय 'अत, एत् आव और आवे' में से कोई भी प्रत्यय नहीं जोड़ा जाता है; किन्तु केवल एक ही प्रत्यय 'अवि' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। तदनुसार आदि-स्वर दीर्घ वाली धातुओं में णिजन्त-अर्थ में कमी ‘अवि' प्रत्यय जुड़ता भी है और कभी किस भी प्रकार के प्रत्यय को नहीं जोड़ करके णिजन्त-अर्थ प्रदर्शित कर दिया जाता है। उदाहरण इस प्रकार है:- शोषितम्-सोसविअं अथवा सोसिअं-सुखाया हुआ; तोषितम्=तोसविअं अथवा तोसिअं-संतुष्ट कराया हुआ। इन उदाहरणों में अर्थात् सोसविअं और तोसविअं में तो णिजन्त अर्थ में 'अवि' प्रत्यय जोड़ा गया है, जबकि द्वितीय क्रम वाले 'सोसिअं और तोसिअं' में णिजन्त अर्थ में 'अवि' प्रत्यय की वैकल्पिक स्थित बतलाते हुए एवं अभाव-स्थित प्रदर्शित करते हुए किसी भी प्रकार के णिजन्त-बोधक प्रत्यय की संयोजना नहीं करके भी इन क्रियाओं का रूप णिजन्त-अर्थ सहित प्रदर्शित कर दिया गया है; यों अन्य आदि स्वर दीर्घ वाली धातुओं के सम्बन्ध में भी णिजन्त अर्थ के सद्भाव में 'अवि' प्रत्यय की वैकल्पिक-स्थिति को समझ लेना चाहिये तथा णिजन्त अर्थबोधक प्रत्यय का अभाव होने पर भी ऐसी धातुओं में णिजन्त अर्थ का सद्भाव जान लेना चाहिये। शोषितम् संस्कृत प्रेरणार्थक-क्रिया का रूप है। इसके प्राकृत रूप सोसविअं और सोसिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२६० से मूल संस्कृत धातु 'शोष' में स्थित दोनों प्रकार के 'श' और 'ष' के स्थान पर प्राकृत में 'स् की प्राप्ति; ३-१५० से प्राप्त रूप सोस्' में आदि स्वर दीर्घ होने से प्रेरणार्थक-भाव में प्राकृत 'अवि' प्रत्यय की प्राप्ति; ४-४४८ से भूत-कृदन्त अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी प्राप्त रूप 'सोसवि' में 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्येय 'त' में से हलन्त 'त्' व्यंजन का लोप; ३-२५ से प्राप्त रूप सोसविअ में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत भूतकृदंतीय एकवचनान्त प्रेरणार्थक क्रिया का प्रथम रूप सोसविअं सिद्ध हो जाता है। सोसिअं में सूत्र-संख्या १-२६० से मूल संस्कृत रूप शोष में स्थित 'श्' और ' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-१५० से प्रेरणार्थक भाव का सद्भाव होने पर भी प्रेरणार्थक प्रत्यय 'अवि' का वैकल्पिक रूप से अभाव; ४-२३९ से प्राकृत हलन्त रूप 'सोस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे भूत-कृन्दत-अर्थक प्रत्यय 'त' का सद्भाव होने से 'इ' प्राप्ति; ४-४४८ से भूत-कृन्दत अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त त' वर्ण में से हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; यों प्राप्त रूप 'सोसिअ में शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र-संख्या ३-२५ और १-२३ से प्राप्त होकर द्वितीय रूप सोसिअं भी सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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