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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 177 तोषितम् संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया का रूप है। इसके प्राकृत रूप तोसविअं और तोसिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२६० से मूल संस्कृत धातु तोष्' में स्थित मूर्घन्य ‘ष्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्' की प्राप्ति; ३-१५० से प्राप्त रूप'तोस' में आदि स्वर दीर्घ होने से प्रेरणार्थक भाव में प्राकृत में अवि' प्रत्यय की प्राप्ति; ४-४४८ से भूतकृदन्त अर्थ में संस्कत के समान ही प्राकत में भी प्राप्त रूप 'तोसवि' में 'त' प्रत्यय की प्राप्ति: १-१७७ से प्राप्त वर्ण 'त' में से हलन्त व्यंजन 'त' का लोप; ३-२५ से प्राप्त रूप तोसविअ में प्रथमा-विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत भूत कृदन्तीय एकवचनान्त प्रेरणार्थक क्रिया का प्रथम रूप तोसविअंसिद्ध हो जाता है। तोसिअं में सूत्र-संख्या १-२६० से मूल संस्कृत धातु तोष में स्थित 'ष' के स्थान पर 'स् की प्राप्ति; ३-१५० से प्रेरणार्थक-भाव का सद्भाव होने पर भी प्रेरणार्थक-प्रत्यय 'अवि' का वैकल्पिक रूप से अभाव; ४-२३९ से प्राकृत हलन्त रूप 'तोस में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे भूत-कृदन्त अर्थक प्रत्यय 'त' का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से भूत-कृदन्त अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'त' वर्ण में से हलन्त-व्यंजन 'त्' का लोप; यों प्राप्त रूप 'तोसिअ' में शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र-संख्या ३-२५ और १-२३ से प्राप्त होकर द्वितीय रूप तोसिअं भी सिद्ध हो जाता है।।३-१५०।। भ्रमै राडो वा ।। ३-१५१॥ भ्रमेः परस्य णेराड आदेशो वा भवति॥ भमाडइ। भमाडेइ। पक्षे। भामेइ। भमावइ। भमावेइ।। अर्थः- संस्कृत-भाषा की धातु भ्रम् के प्राकृत रूप भ्रम् में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक-भाव के अर्थ में संस्कृत प्राप्त प्रेरणार्थक प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'आड' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:- भ्रामयति=भमाडइ अथवा भमाडेइ वह घुमाता है। वैकल्पिक-पक्ष का सद्भाव होने से प्रेरणार्थ भाव में जहां भम धात में 'आड' प्रत्यय का अभाव होगा वहाँ पर सत्र-संख्या ३-१४९ के अनुसार प्रेरणार्थक भाव में अत. एत. आव और आवे प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय का सद्भाव होगा। जैसे-भ्रामयति भामइ, भामेइ, भमावइ और ममावेइ वह घुमाता है। यों प्राकृत धातु 'भम्' के प्रेरणार्थक भाव में छह रूपों का सद्भाव होता है। तत्पश्चात् इष्ट काल-बोधक प्रत्ययों को संयोजना होती है। भ्रामयति संस्कृत प्रेरणार्थक-क्रिया का रूप है। इसके रूप भमाडइ, भमाडेइ, भामइ, भामेइ, भमावइ और भभावेइ होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत-धातु 'भ्रम्' में स्थित 'र' व्यंजन का लोप; ३-१५१ से प्राप्तांग भम्' में प्रेरणार्थक-भाव में संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में आड' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; ३-१५८ से द्वितीय रूप में प्राप्त प्रत्यय आड' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति; यों प्राप्तांग 'भमाड और भमाडे' में सूत्र-संख्या ३-१३९ से वर्तमानकल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' की प्राप्ति होकर भमाडइ और भमाडेइ प्रेरणार्थक रूप सिद्ध हो जाते हैं। भामइ में सूत्र-संख्या २-७९ से संस्कृत धातु -'भ्रम्' में स्थित र् व्यंजन का लोप; ३-१५३ से प्राप्तांग 'भम्' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक-बोधक-प्रत्यय का वैकल्पिक रूप से लोप कर देने से 'आ' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्तांग; भाम् में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्तांग 'भाम' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचनार्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप भामइ भी सिद्ध हो जाता है। भामेइ में भाम' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त तृतीय रूप में वर्णित साधनिका के समान ही होकर सूत्र-संख्या ३-१५८ से अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१३९ से तृतीय रूप के समान ही 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चतुर्थ रूप भामेइ सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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