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________________ 274 : प्राकृत व्याकरण ___ अर्थः- संस्कृत-भाषा में उपलब्ध हस्व स्वर वाली 'रुष्' आदि ऐसी कुछ धातुऐं है, जिनका प्राकृत रूपान्तर होने पर इनमें अवस्थित 'हस्व स्वर' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'दीर्घ स्वर' की आदेश प्राप्ति हो जाती है। जैसे:रुष-रूस। तुष-तूस। शुष्-सूस। दुष-दूस। पुष्=पूस। और शिष्=सीस आदि-आदि। इनके क्रियापदीय उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) रुष्यति-रूसइ-वह क्रोध करता है। (२) तुष्यति-तूसइ-वह खुश होता है। (३) शुष्यति-सूसइ-वह सूखता है। (४) दूष्यति दूसइ-वह दोष देता है अथवा वह दूषण लगाता है। (५) पुष्यति-पूसइ-वह पुष्ट होता है अथवा वह पोषण करता है और (६) शेषति (अथवा शेषयति)-सीसइ-वह शेष रखता है, बचा रखता है। (अथवा वह वध करता है, हिंसा करता है)।।४-२३६।। युवर्णस्य गुणः।।४-२३७॥ धातोरिवर्णस्य च क्ङित्यपि गुणो भवति । जेऊण। नेऊण। नेइ। नेन्ति। उड्डेइ। उड्डेन्ति मोत्तूण। सोऊण। क्वचिन्न भवति। नीओ। उड्ढीणो॥ ___ अर्थः- संस्कृत-धातुओं के प्राकृत-रूपान्तर में 'कित् अथवा उित्' अर्थात् कृदन्त वचक और कालबोधक प्रत्ययों की संयोजना होने पर भी प्राकृत-भाषा में धातुओं रहे हुए 'इ वर्ण' का और 'उ वर्ण' का गुण हो जाता है। जैसे:जित्वा जेउण-जीत करके। नित्वा नेउण-ले जा करके। नयति नइ-वह ले जाता है। नयन्ति-नेन्ति-वे ले जाते है। 'डी' धातु का उदाहरणः- उत्+डयते-उड्डयते-उड्डेइ वह आकाश में उड़ता है। उत्+डयन्ते-उड्डयन्ते उड्डेन्ति वे अकाश में उड़ जाते है।। इन उदाहरणों में 'जि' का 'जे'; 'नी' का 'ने' तथा 'डी' का 'डे' स्वरूप प्रदर्शित करके यह वतलाया गया है कि इनमें 'इ वर्ण के स्थान पर 'ए' वर्ण की गुण रूप से प्राप्ति हुई है। अब आगे 'उ' वर्ण के स्थान पर 'ओ' वर्ण की गुण रूप से प्राप्ति प्रदर्शित की जाती है। जैसे:- मुक्त्वा -मोत्तूण-छोड़ करके। श्रुत्वा-सोऊण-सुन करके। यों 'इ' वर्ण का गुण 'ए' और 'उ' वर्ण का गुण 'ओ' होता है; इस स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये। कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है जबकि 'इ' वर्ण के स्थान पर 'ए' वर्ण की और 'उ' वर्ण के स्थान पर 'ओ' वर्ण की गुण-प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- नीतः=नीओले जाया हुआ। उड्डीन' =उड्डीणो-उड़ा हुआ। यहां पर 'नी' में स्थित और 'ड्डी' में स्थित 'इ' वर्ण को 'ए' वर्ण' के रूप में गुण-प्राप्ति नहीं हुई है। __ मूल-सूत्र में उल्लिखित 'यु वर्ण के आधार से 'इ' वर्ण तथा 'उ' वर्ण की प्रति ध्वनि समझी जानी चाहिये और इसी प्रकार से वृत्ति में प्रदर्शित 'इ' वर्ण के आगे 'च वर्ण' के आधार से सूत्र संख्या ४-२३६ की श्रङ्खलानुसार 'उ वर्ण' की संप्राप्ति समझी जानी चाहिये।।४-२३७।। स्वराणा स्वरः।।४-२३८॥ धातुषु स्वराणां स्थाने स्वरा बहुलं भवन्ति। हवइ। हिवइ।। चिणइ। चुणइ।। सद्दहण।। सद्दहाण।। धावइ। धुवइ।। रूवइ। रोवइ।। क्वचिन्नित्यम्। देइ।। लेइ। विहेइ। नासइ।। आर्षे। बेमि।। अर्थः- संस्कृत-भाषा की धातुओं में रहे हुए स्वरों के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में अन्य स्वरों की आदेश-प्राप्ति बहुतायत रूप से हुआ करती है। जैसेः- (१) भवति-हवइ और हिवइ-वह होता है, (२) चयति चिणइ और चुणइ-वह इकट्ठा करता है। (३) श्रद्धानं सद्दहणं और सद्दहाणं श्रद्धा अथवा विश्वास। (४) धावति धावइ और धुवइ-वह दौड़ता है। (५) रोदिति-रूवइ और रोवइ वह रोता है, वह रूदन करता है। इन उदाहरणों को देखने से विदित होता है कि संस्कृतीय धातुओं में अवस्थित स्वरों के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विभिन्न स्वरों की आदेश प्राप्ति हुई है। यों अन्य धातुओं के सम्बन्ध में भी स्वयमेव कल्पना कर लेनी चाहिये। ___ कभी-कभी ऐसा भी पाया जाता है कि संस्कृतीय धातुओं में रहे हुए स्वरों के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में नित्य रूप से अन्त्य स्वर की उपलब्धि आदेश रूप से हो जाती है। जैसे:- ददाति (अथवा दत्ते)=देइ-वह देता है, वह सौंपता है। लाति-लेइ-वह लेता है अथवा ग्रहण करता है। बिभेति-विहेइ-वह डरता है, वह भय खाता है। नश्यति-नासेइ-वह नाश पाता है अथवा वह नष्ट होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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