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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 275 आर्ष प्राकृत में स्वरों के स्थान पर अन्य स्वरों की प्राप्ति देखी जाती है। जैसे:- ब्रवीमि बेमि-मैं कहता हूँ अथवा प्रतिपादन करता हूँ।।४-२३८|| व्यञ्जनाददन्ते।।४-२३९।। व्यञ्जनान्ताद्धातोरन्ते अकारो भवति।। भमइ। हसइ। कुणइ। चुम्बइ। भणइ। उवसमइ। पावइ। सिञ्चइ। रून्धइ। मुसइ। हरइ। करइ।। शबादीनां च प्रायः प्रयोगो नास्ति।। __ अर्थ:- जिन संस्कृत-धातुओं के अन्त में हलन्त व्यञ्जन रहा हुआ है, ऐसी हलन्त व्यञ्जनान्त धातुओं के प्राकृत-रूपान्तर में अन्त्य हलन्त व्यञ्जन में विकरण प्रत्यय के रूप से 'अकार' स्वर की आगम प्राप्ति हुआ करती है; यों व्यञ्जनान्त धातु प्राकृत-भाषा में अकारान्त धातु बन जाती है तथा तत्पश्चात् इसी प्रकार से बनी हुई अकारान्त प्राकृत-धातुओं में काल-बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जाती है।। जैसे:- भम्=भम। हस्-हस। कुण-कुण और चुम्ब-चुम्ब इत्यादि। क्रियापदीय उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) भ्रमति=भमइ-वह घुमता है, वह परिभ्रमण करता है। (२) हसति हसइ-वह हँसता है। (३) कराति-कणइ वह करता है। (४) चम्बति-चम्बइ वह चम्बन है। (५) भणति भणइ-वह पढ़ता है। वह कहता है। (६) उपशाम्यति-उवसमइ-वह शांत होता है, वह क्रोध रहित होता है। (७) प्राप्नोति-पावइ-वह पाता है। (८) सिञ्चति-सिंचइ-वह सींचता है। (९) रूणद्धि-रून्धइ-वह रोकता है। (१०) मुष्णाति-मुसइ-वह चोरी करता है। (११) हरति हरइ वह हरण करता है। (१२) करोति-करइ-वह करता है। इन व्यञ्जनान्त धातुओं के अन्त में 'अकार' स्वर का आगम हुआ है। यों अन्यत्र व्यञ्जनान्त धातुओं के सम्बन्ध में भी 'अकार' आगम की स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये। 'शप्' आदि अन्य विकरण प्रत्ययों का आगम प्रायः प्राकृत--भाषा की धातुओं में नहीं हुआ करता है।।४-२३९।। स्वरादनतो वा।।४-२४०।। अकारान्तवर्जितात् स्वरान्ताद्धातोरन्ते अकारागमो वा भवति।। पाइ पाअइ। धाइ धाअइ। जाइ जाअइ। झाइ झाअइ। जम्भाइ जम्भाअइ। उव्वाइ उव्वाअइ। मिलाइ मिलाअइ। विक्केइ विक्केअइ। होउण होउऊण। अनत इति किम् चिइच्छइ। दुगुच्छइ।। अर्थः- प्राकृत-भाषा में अकारान्त धातुओं को छोड़कर किसी भी अन्य स्वरान्त-धातु के अन्त में काल-बोधक प्रत्यय जोड़ने के पूर्व विकल्प से विकरण प्रत्यय के रूप में 'अकार' स्वर की आगम-रूप से प्राप्ति हुआ करती है। यों अकारान्त धातु के सिवाय अन्य स्वरान्त धातु और काल-बोधक प्रत्यय के बीच में 'अकार' स्वर की प्राप्ति विकल्प रूप से हो जाया करती है। जैसेः- पाति-पाइ अथवा पाअइ-वह रक्षण करता है। धावति-धाइ अथवा धाअइ-वह दौड़ता है। याति जाइ अथवा जाअइ-वह जाता है। ध्यायति-झाइ अथवा झाअइ-वह ध्यान करता है। जृम्भति-जम्भाइ अथवा जम्भाअइ-वह जम्हाई (जॅम्भाई) लेता है। उद्वाति-उव्वाइ अथवा उव्वाअइ-वह सूखता है, वह शुष्क होता है। म्लायति-मिलाइ अथवा मिलाअइ-वह म्लान होता है, वह निस्तेज होता है। विक्रीणाति-विक्केइ अथवा विक्केअइ-वह बेचता है। भूत्वा होऊण अथवा होअऊण होकर के। यों उपर्युक्त उदाहरण में अकारान्त धातु के सिवाय अन्य स्वरान्त धातुओं का प्रयोग करके 'धातु तथा प्रत्यय' के बीच में 'अकार' स्वर का आगम विकल्प से प्रस्तुत किया गया है। इस आगम रूप से प्राप्त 'अकार' स्वर के आ जाने से भी अर्थ में कोई अन्तर नहीं आता है। इस प्रकार की स्थिति को अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये। प्रश्न:- 'अकारान्त धातुओं में उक्त रीति से प्राप्तव्य आगम-रूप 'अकार' स्वर की प्राप्ति का निषेध क्यों किया गया है? उत्तर:- प्राकृत-भाषा का रचना-प्रवाह ही ऐसा है कि अकारान्त धातु और काल-बोधक प्रत्ययों के बीच में कभी-कभी आगम रूप से 'अकार' स्वर की प्राप्ति नहीं होती है और इसलिये अकारान्त धातुओं को छोड़ करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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