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276 : प्राकृत व्याकरण
अन्य स्वरान्त धातुओं के लिये ही विकल्प से 'अकार' रूप स्वर की आगमन-प्राप्ति का विधान किया गया है। जैसे:चिकित्सति का 'चिइच्छइ' ही प्राकृत - रूपान्तर होगा; न कि 'चिइच्छअइ' होगा। इसी प्रकार से जुगुप्सति का प्राकृत-रूपान्तर ‘दुगुच्छइ' ही होगा, न कि 'दुगुच्छअइ' । दोनो उदाहरणों का हिन्दी अर्थ क्रम से इस प्रकार है:(१) वह दवा करता है और (२) वह घृणा करता है, वह निन्दा करता है ।।४-२४०।। चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो ह्रस्वश्च ।।४-२४१।।
चयादीनां धातुनामन्ते णकारागमो भवति, एषां स्वरस्य च ह्रस्वो भवति ।। चि। चिणइ । जि। जिइ । श्रु । सुणइ। हु। हुणइ। स्तु। थुणइ। लू। लुणइ। पू। पुणइ । धुग् । धुणइ ।। बहुलाधिकारात् स्वचित् विकल्पः । उच्चिणइ । उच्चेइ। जेऊण । जिणिऊण । जयइ । जिइ । । सोऊण । सुणिऊण ।।
अर्थः- ‘(१) चि= (चय)=इकट्ठा करना, (२) जि=(जय्) जीतना, (३) श्रु-सुनना, (४) हु = हवन करना, (५) स्तु=स्तुति करना, (६) लू-लुणना, छेदना, (७) पू= पवित्र करना, और (८) धू= धुनना- कंपना, इन संस्कृत धातुओं के प्राकृत रूपान्तर में काल-बोधक प्रत्यय को जोड़ने के पूर्व 'णकार' व्यञ्जनाक्षर की आगमन-प्राप्ति होती है तथा धातु के अन्त में यदि दीर्घ स्वर रहा हुआ हो तो उसको ह्रस्व स्वर की प्राप्ति हो जाती है तथा धातु के अन्त में यदि दीर्घ स्वर रहा हुआ हो तो उसको ह्रस्व स्वर की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार की स्थिति से इनका प्राकृत रूपान्तर यों हो जाता है :- (१) चिण, (२) जिण, (३) सुण, (४) हुण (५) थुण, (६) लुण, (७) पुण, और (८) धुण, क्रियापदीय उदाहरण क्रम से यों हैं: - (१) चिनोति - चिणइ = वह इकट्ठा करता है, (२) जयति = जिणइ = वह जीतता है, (३) शृणोति = सुणइ = वह सुनता है, (४) जुहोति=हुणइ = वह हवन करता है, (५) स्तौति = थुणइ = वह स्तुति करता है, (६) लुनाति = लुणइ-वह लूणता है, वह काटता है, (७) पुनाति = पुणइ = वह पवित्र करता है और (८) धुनाति = धुणइ - वह धुनता है, वह कँपता है।
'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से कहीं-कहीं पर प्राकृत रूपान्तर में उक्त धातुओं में प्राप्तव्य 'णकार' व्यञ्जनाक्षर की आगम प्राप्ति विकल्प से भी होती है। जैसे:- उच्चिनोति = उच्चिणइ अथवा उच्चेइ-वह (फूल आदि को तोड़कर) इकट्ठा करता है। जित्वा=जेऊण अथवा जिणिऊण जीत करके, विजय प्राप्त करके । श्रुत्वा = सोऊण अथवा सुणिऊण-सुन करके, श्रवण करके। इन उपर्युक्त उदाहरणों में 'णकार' व्यञ्जनाक्षर की आगम-प्राप्ति विकल्प से हुई है। यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये । । ४ - २४१ ।।
नवा कर्म-भावे व्व क्यस्य च लुक् ॥४- २४२।।
पादीनां कर्मणि भावे च वर्तमानामन्ते द्विरुक्तो वकारागमो वा भवति, तत्संनियोगे च क्यस्य लुक् ।। चिव्वइ चिणिज्जइ । जिव्वइ जिणिज्जइ । सुव्वइ । सुणिज्जइ । हुव्वइ हुणिज्जइ । थुव्वइ थुणिज्जइ । लुव्वइ लुणिज्जइ । पुव्वइ पुणिज्जइ । धुव्वइ धुणिज्जइ । । एवं भविष्यति । चिव्विहिइ । इत्यादि ।।
अर्थः- संस्कृत भाषा में कर्मवाच्य तथा भाववाच्य बनाने के लिये धातुओं में आत्मनेपदीय काल- बोधक प्रत्यय जोड़ने के पूर्व जैसे 'यक्' =य' प्रत्यय जोड़ा जाता है। वैसे ही प्राकृत भाषा में भी कर्म - वाच्य तथा भाव - वाच्य बनने के लिये धातुओं में काल बोधक-प्रत्यय जोड़ने के पूर्व 'ईअ' अथवा 'इज्ज' प्रत्यय जोड़े जाते हैं, यह एक सर्व-सामान्य नियम है, परन्तु 'चि, जि, सु, हु, थु, लु, पु, और धु' इन आठ धातुओं में उपर्युक्त कर्मणि-भावे प्रयोग वाचक प्रत्यय 'इअ अथवा इज्ज' के स्थान पर द्विरुक्त अर्थात् द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति भी विकल्प से होती है और तत्पश्चात् वर्तमानकाल, भविष्यकाल आदि के कालबोधक प्रत्यय जोड़े जाते हैं यों 'ईअ अथवा इज्ज' का लोप होकर इनके स्थान पर केवल 'व्व' प्रत्यय की विकल्प से आदेश प्राप्ति हो जाती है।
वृत्ति में 'च क्यस्य लुक' ऐसे जो शब्द लिखे गये है, इनमे 'च' अव्यय से यह तात्पर्य है बतलाया गया है कि इन धातुओं में 'व्व' प्रत्यय जुड़ने पर सूत्र संख्या ४- २४१ से प्राप्त होने वाले 'णकार' व्यञ्जनाक्षर की आगम-प्राप्ति नहीं होगी । 'क्यस्य' पद यह विधान किया गया है कि 'ईअ और इज्ज' प्रत्ययों का लोप हो जाएगा। ऐसा अर्थबोध 'लुक्' विधान से जानना ।
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