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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 273 प्रश्न:- 'प्र' आदि उपसर्गों के साथ ही विकल्प से द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होती है, ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि 'मिल्' धातु के पूर्व में 'प्र' आदि उपसर्ग नहीं जुड़े हुए होगें तो इस 'मिल्' धातु में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जनाक्षर ‘लकार' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:- मीलति = मीलइ = वह मूंदता है, वह बन्द करता है । यों एक ही रूप 'मीलइ' ही बनता है :- इसके साथ 'मिल्लइ' रूप नहीं बनेगा । । ४ - २३२ ।। उवर्णास्यावः ४-२३३॥ धातोरन्त्यस्योवर्णस्य अवादेशो भवति ।। न्हुङ् । निण्हवइ ।। हु । निहवइ । च्युङ् । चवइ ।। रू। रवइ ।। कु । कवइ।। सू।। सवइ । पसवइ । अर्थ:- 'संस्कृत धातुओं में स्थित अन्त्य स्वर 'उ' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'अव' की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे :- निन्हुते - निण्हवइ = वह अपलाप करता है, वह निंदा करता है । निन्हुते - निहवइ = वह अपलाप करता है। च्यवति=चवइ-वह मरता है, वह जन्मान्तर में जाता है। रौति = रवइ = वह बोलता है, वह शब्द करता है अथवा वह रोता है। कवति=कवइ-वह शब्द करता है, वह आवाज करता है। सूते-सवइ वह उत्पन्न करता है, वह जन्म देता है। प्रसूते=पसवइ=वह जन्म देता है अथवा उत्पन्न करता है। उपर्युक्त उदाहरण में ‘नि+न्हु-निण्हव, नि+हु-निहव, च्यु - चव, रू-रव, कु= कव, और सू- सव' धातुओं को देखने से विदित हो जाता है कि इनमें 'उ' अथवा 'ऊ' स्वर के स्थान पर 'अव' अक्षरांश की प्राप्ति हुई है ।।४-२३३ ।। ऋवर्णास्यारः ४-२३४॥ धातोरन्त्यस्य ऋवर्णस्य आरादेशो भवति ।। करइ । धरई । मरइ । वरइ । सरइ । हरइ । तरइ । जरइ || अर्थः- ‘संस्कृत-धातुओं में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'अर' अक्षारांश की प्राप्ति होती है | जैसे:- कृ=कर | धृ = धर । मृ-मर । वृ=वर | सृ-सर । ह हर । तृ-तर। और जू-जर । क्रियापदीय उदाहरण इस प्रकार हैं:- (१) करोति=करइ=वह करता है । (२) धरति = धरइ = वह धारण करता है। (३) म्रियते = मरइ = वह मरता है अथवा वह देह त्याग करता है। वृणोति-वरइ अथवा वह पंसद करता है वह सगाइ- संबन्ध करता है अथवा वह सेवा करता है। (४) सरति=सरइ=वह जाता है, वह सरकता है। (५) हरति - हरइ = वह चुराता है, वह ले जाता है (६) तरति = तरइ = वह पार जाता है अथवा वह तैरता है । (७) जरति- जरइ - वह अल्प होता है अथवा वह छोटा होता है।।४-२३४।। वृषादीनामरिः । । ४ - २३५।। वृष इत्येवं प्रकाराणां धातूनाम् ऋवर्णस्य अरिः इत्यादेशौ भवति ।। वृष । वरिसइ । । कृष । करिसइ ।। मृष मरिसइ।। हृष् हरिसइ।। येषामरिरादेशौ दृश्यते ते वृषादयः ।। अर्थः- ‘संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'वृष् आदि ऐसी कुछ धातुऐं हैं, जिनका प्राकृत रूपान्तर होने पर इनमें अवस्थित 'ऋ' स्वर के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'अरि' अक्षरांश की आदेश प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- वृष-वरिस । कृष्=करिस। मृष् मरिस। हृष्-हरिस। इस आदेश - संविधान के अनुसार जहाँ-जहाँ पर अथवा जिस-जिस धातु में 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'अरि' आदेश रूप अक्षरांश दृष्टिगोचर होता हो तो उन-उन धातुओं को 'वृषादय' धातु- श्रेणी में अथवा धातु- गण के रूप में समझना चाहिये । वृत्ति में आये हुए धातुओं के क्रियापदीय उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) वर्षति=वरिसइ=बरसता है, वृष्टि करता है। (२) कर्षति = करिसइ - वह खिंचता है। (३) मर्षति = मरिसइ = वह सहन करता 'अथवा वह क्षमा करता है। (४) हृष्यति - हरिसइ - वह खुश होता है, वह प्रसन्न होता है । । ४ - २३५ ।। रुषादीनां दीर्घः ।।४–२३६॥ रुष इत्येवं प्रकराणां धातूनां स्वरस्य दीर्घो भवति ।। रूस । तूसइ । सूसइ । दूसइ । पूसइ । सीसइ । इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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