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________________ 272 : प्राकृत व्याकरण सृजोरः।।४-२२९॥ सृजो धातोरन्त्यस्य रो भवति।। निसिरइ। वोसिरइ। वोसिरामि।। अर्थः- संस्कृत-धातु 'सृज' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ज' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'र' व्यञ्जनाक्षर की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) निसृजति=निसिरइ-वह बाहिर निकलता है अथवा वह त्याग करता है। (२) व्युत्सृजति वोसिरइ=वह परित्याग करता है। अथवा वह छोड़ता है। (३) व्युत्सृजामि-वोसिरमि=मैं परित्याग करता हूँ अथवा मैं छोड़ता हूँ।।४-२२९।। शकादीनां द्वित्वम्।।४-२३०॥ षकादीनामन्त्यस्य द्वित्वं भवति।। षक। सक्कइ।। जिम्। जिम्मइ।। लग। लग्गइ।। मम्। मग्गइ।। कुप। कुप्पइ।। नष्। नस्सइ।। अट्। परिअट्टइ।। लुट्। पलोट्टइ।। तुट। तुट्टइ।। नट्। नट्टइ।। सिव। सिव्वइ।। इत्यादि।। अर्थः- 'संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'शक्' आदि कुछ एक धातुओं के अन्त्य व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत भाषा में उसी व्यञ्जन को द्वित्व रूप की प्राप्ति होती है। जैसे:-(१) शक्नोति सक्कड-वह समर्थ होता है। (२) जेमति (अथवा जेमते)-जिम्मइ-वह खाता है अथवा वह भक्षण करता है। (३) लगति लग्गइ-संयोग होता है, मिलाप होता है। (४) मगति= भग्गइ-वह गमन करता है, वह चलता है। (५) कुप्यति कुप्पइ-वह क्रोध करता है। (६) नश्यति=नस्सइ-वह नष्ट होता है। (७) परिअट्टति-परिअट्ठइ वह परिभ्रमण करता है, वह चारों ओर घूमता है। (८) प्रलुटतिपलोट्टइ-वह लौटता है। (९) तुटति-तुट्टइ वह झगड़ता है अथवा वह दुःख देता है, (१०) नटति नट्टइ-वह नृत्य करता है वह नाचता है। सीव्यति-सिव्वइ-वह सीता है, वह सीवण करता है। इत्यादि रूप से अन्य उपलब्ध प्राकृत-धातु का स्वरूप भी इसी प्रकार से 'द्वित्व' रूप में समझ लेना चाहिये।।४-२३०।। स्फुटि-चलेः॥४-२३१॥ अनयोरन्त्यस्य द्वित्वं वा भवति।। फुट्टइ। फुडइ। चल्लइ। चलइ।। अर्थः- 'विकसित होना, खिलना अथवा टूटना-फूटना अर्थक संस्कृत-धातु 'स्फुट' के अन्त्य व्यत्रजन 'टकार' के स्थान पर और 'चलना, गमन करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'चल' के अन्त्य व्यञ्जन 'लकार' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'विकल्प से इसी व्यञ्जन को 'द्वित्व' रूप की प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) स्फुटति-फुटइ अथवा फुडइ-वह विकसित होता है, वह खिलता है अथवा वह टूटता है-वह फूटता है। (२) चलति-चल्लइ अथवा चलइ=वह चलता है अथवा वह गमन करता है।।४- २३१।। प्रादेर्मीलेः।।४-२३२।। प्रादेःपरस्य मीलेरन्त्यस्य द्वित्वं वा भवति।। पमिल्लइ। पमीलई। निमिल्लइ। निमीलइ। समिल्लइ। समीलइ। उम्मिल्लइ। उम्मीलइ। प्रादेरिति किम्। मीलइ। अर्थः- 'मूंदना, बन्द करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मील' के पूर्व में यदि 'प्र, नि, सं, उत्' आदि उपसर्ग जुड़े हुए हो तो 'मील्' धातु के अन्त्य हलन्त व्यञ्जनाक्षर 'लकार' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) प्रमिलति-पमिल्लइ अथवा पमीलइ-वह संकोच करता है, वह सकुचाता है। (२) निमिलति-निमिल्लइ अथवा निमीलइ-वह आँख मूंदता है अथवा वह आँख मींचता है। (३) संमीलति-संमील्लइ अथवा समिलइ-वह सकुचाता है अथवा संकोच करता है। (४) उन्मीलति-उम्मिल्लइ अथवा उम्मिलइ-वह विकसित होता है, वह खुलता है अथवा वह प्रकाशमान होता है। यों अन्य उपसर्गों के साथ में भी 'मिल्ल और मील की स्थिति को समझ लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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