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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 271 मूल-सूत्र में 'स्विदां' ऐसे बहुवचनान्त पद के प्रयोग करने का कारण यही है इस प्रकार की द्वित्व 'ज्ज' वाली धातुएं प्राकृत-भाषा में अनेक हैं जो कि 'दकारान्त' संस्कृत-धातुओं से संविधानुसार प्राप्त हुई है।।४-२२४।।
व्रज-नृत-मदां च्चः।।४-२२५।। एषामन्त्यस्य द्विरुक्तश्चो भवति।। वच्चइ। नच्चइ। मच्चइ।। अर्थः- 'जाना, गमन करना' अर्थक स।। स्कृत-धातु 'व्रज' 'नाचना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नृत्' और 'गर्व करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मृद्' के अन्त्य हलन्त व्यञजन के स्थान पर प्राकृत-भाषा में द्वित्व रूप से 'च्च' आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- व्रजति-वच्चइ वह जाता है, वह गमन करता है। नृत्यति-नच्चइ-वह नाचता है। माद्यति मच्चइ वह गर्व करता है, अथवा वह थकता है वह प्रमाद करता है।।४-२२५ ।
रूद-नमोर्वः॥४-२२६।। अनयोरन्त्यस्य वो भवति।। रूवइ। रोवइ। नवइ।। अर्थः- 'रोना' अर्थक संस्कृत-धातु 'रूद्' और 'नमना, नमस्कार करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नम्' के अन्त्य
पर प्राकृत-भाषा में 'व' व्यञ्जनाक्षर की प्राप्ति होती है। जैसे:- रोदितिरुवइ अथवा रोवइ-वह रोता है, वह रुदन करता है। नमति नवइ-वह नमता है अथवा वह नमस्कार करता है।।४-२२६ ।।
उद्विजः ४-२२७॥ उद्विजतेरन्त्यस्य वो भवति।। उव्विवइ। उव्वेवो।।
अर्थः- 'उद्वेग करना, खिन्न होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'उद्-विज्' =उद्विज' के अन्त्य व्यञ्जनाक्षर 'ज' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'व' व्यञ्जनाक्षर की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- उद्विजति (अथवा उद्विजते)=उव्विवइ-वह उद्वेग करता है, वह खिन्न होता है। उद्वेगः उव्वेवो वह शोक करता है, वह रंज करता है।।४-२२७।।
खाद-धावो लुक।।४-२२८।। अनयोरन्त्यस्य लुग् भवति।। खाइ। खाअइ। खाहिइ। खाउ। धाइ धाहिइ। धाउ।। बहुलाधिकारात् वर्तमाना भवष्यित्विधि-आदि-एकवचन एवं भवति।। तेनेह न भवति।। खादन्ति। धावन्ति।। क्वचिन्न भवति। धावइ पुरओ।।
अर्थः- 'भोजन करना, खाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'खाद्' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का और 'दौड़ना' अर्थक संस्कृत धातु 'धाव्' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'व' का प्राकृत-भाषा में लोप होकर केवल 'खा' और 'धा' ऐसे धातु रूप की ही प्राप्ति होती है।
सूत्र-संख्या ४-२४० से उपर्युक्त रीति से प्राप्त धातु 'खा' और 'धा' आकारान्त हो जाने से इनमे कालबोधक प्रत्यय लगने के पहिले विकरण रूप से 'अ' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होती है। उदाहरण यों हैं:खादिति-खाइ-अथवा खाअइ-वह खाता है। (२) खादिष्यति खाहिइ-वह खावेगा। (३) खादतु-खाउ-वह खावे। (४) धावति-धाइ और धाअइ-वह दौड़ता है। (५) धाविष्यति धाहिइ-वह दौड़ेगा। (६) धावतु-धाउ-वह दौड़े। _ 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार-सामर्थ्य से 'खाद्' का 'खा' और 'धाव्' का 'धा' वर्तमानकाल, भविष्यत्काल और विधिलिङ आदि लकारों के एकवचन में ही होता है। इस कारण से बहुवचन में 'खा' और 'धा' ऐसा धातु रूप नहीं होकर 'खाद्' तथा 'धाव्' ऐसा धातु रूप ही होगा। जैसे:- खानन्ति खादन्ति-वे खाते है और धावन्ति धावन्ति-वे दौड़ते है।। __ कहीं-कहीं पर संस्कृत-धातु 'धाव्' के स्थान पर 'धा' रूप की प्राप्ति एक वचन में नहीं होकर 'धाव' रूप की प्राप्ति भी देखी जाती है। जैसे:- धावति पुरतः धावइ पुरओ-वह आगे दौड़ता है।।४-२२८।।
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