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________________ 346 : प्राकृत व्याकरण अर्थः- हे गजराज ! हे हस्ति - रत्न ! 'सल्लकी' नामक स्वादिष्ट पौधों को मत याद कर और (उनके लिए ) गहरे जो पौधे (खाद्य रूप से ) प्राप्त हुए हैं, उन्ही को खा और अपने सम्मान वास मत छोड़ भाग्य के कारण से को - आत्म- गौरव को मत छोड़ ॥ १ ॥ संस्कृत : भ्रमर ! अत्रापि निम्बके कति (चित् ) दिवसान् विलम्बस्व ॥ धनपत्रवान् छाया बहुलो फुल्लति यावत् कदम्बः ॥ २॥ हिन्दी:- हे भँवर ! अभी कुछ दिनों तक प्रतीक्षा कर और इसी निम्ब वृक्ष (के फूलों) पर (आश्रित रह) जब तक कि सघन पत्तों वाला और विस्तृत छाया वाला कदम्ब नामक वृक्ष नहीं फूलता है; (तब तक इसी निम्ब वृक्ष पर आश्रित होकर रह ) || २|| संस्कृत : प्रिय ! एवमेव कुरू भल्लं, करे त्यज त्वं करवालम् ॥ येन कापालिका वराकाः लान्ति अभग्नं कपालम् ॥ ३॥ हिन्दीः-कोई नायिका विशेष अपने प्रियतम की वीरता पर मुग्ध होकर कहती है कि -'हे प्रियतम ! तुम भाले को अपने हाथ में इस प्रकार थामकर शत्रुओं पर वार करो कि जिससे वे मृत्यु को तो प्राप्त हो जाये परन्तु उनका सिर अखंड ही रहे, जिससे बेचारे कापालिक (खोपड़ी में आटा मागंकर खाने वाले) अखंड खोपड़ी को प्राप्त सके। तुम तलवार को छोड़ दो- तलवार से वार मत करो।।४-३८७।। वर्त्स्यति - स्यस्य सः ।।४-३८८ ।। अपभ्रंशे भविष्यदर्थ-विषययस्य त्यादेः स्यस्य सो वा भवति ।। दिअहा जन्ति झडप्पडहिं पडहिं मणोरह पच्छ ।। जं अच्छइ तं माणिअइ होसइ करतु म अच्छि ॥१॥ पक्षे | होहि || अर्थः- प्राकृत भाषा में जैसे भविष्यत्काल के अर्थ में वर्तमानकाल वाचक प्रत्ययों के पहिले 'हि' की आगम-प्राप्ति होती है; वेसे ही अपभ्रंश भाषा में भी भविष्यत्काल के अर्थ में उक्त 'हि' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से वर्तमानकाल वाचक प्रत्ययों के पहिले 'स' की आगम प्राप्ति होती है। जैसे:- भविष्यति होसइ अथवा होहिइ = वह होगा। गाथा का अनुवाद यों है: संस्कृत : दिवसा यान्ति वेगै; पतन्ति मनोरथाः पश्चात् ॥ यदस्ति तन्मान्यते भविष्यति (इति) कुर्वन् मा आश्व॥ १ ॥ हिन्दी:-दिन प्रतिदिन अति वेग से व्यतीत हो रहे हैं और मन - भावनाऐं पीछे पड़ती जा रही हैं अर्थात् ढीली पड़ती जा रही है अथवा लुप्त होती जा रही है। 'जो होना होगा अथवा जो है सो हो जायगा' ऐसी मान्यता मानता हुआ आलसी होकर मत बैठे जा।।४-३८८ ।। Jain Education International क्रियेः कीसु । । ४ - ३८९ ।। क्रिये इत्येतस्य क्रियापदस्यापभ्रंशे कीसु इत्यादेशौ वा भवति ।। सन्ता भोग जु परिहरइ, तसु कन्तहो बलि कीसु ॥ तसु दइवेण विमुण्डियउं, जसु खल्लि हडउं सीसु ॥ १ ॥ पक्षे। साध्यमानावस्थात् क्रिये इति संस्कृत शब्दादेश प्रयोगः । बलि किज्जउं सुअणस्सु ।। अर्थ:-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'क्रिये' क्रियापद के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में विकल्प से 'किस' ऐसे क्रियापद की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'किज्जउ' ऐसे पद रूप की भी प्राप्ति होगी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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