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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 347
जैसे:-क्रिये-कीसु अथवा किज्जउं-मैं करता हूँ मैं करती हूँ। साध्यमान अवस्था में 'क्रिये' का रूप 'किज्ज' होगा। जिसकी सिद्धि इस प्रकार से की जायेगी:- "क्रिय' में स्थित 'र' का सूत्र-संख्या २-७९ से लोप और १-२४८ से 'य' के स्थान पर द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति होकर 'क्रिय' के स्थान पर 'किज्ज' रूप की आदेश प्राप्ति जानना चाहिये। 'कीसु' क्रियापद को समझने के लिये जो गाथा दी गई है, उसका अनुवाद यों है: संस्कृत : सतो भोगान् यः परिहरति तस्य कान्तस्य बलिं क्रिये।।
तस्य देवेनैव मुण्डितं, यस्य ख्ल्वाटं शीर्षम्॥१॥ हिन्दी:-मैं अपनी श्रद्धांजलि उस प्रिय व्यक्ति के लिये समर्पित करता हूँ; जो कि भोग-सामग्री के उपस्थित होने पर- विद्यमान होने पर उसका त्याग करता है। किन्तु जिसके पास भोग सामग्री है ही नहीं; फिर भी जो कहता है कि-'मैं भोगों को छोड़ता हूँ।' ऐसा व्यक्ति तो उस व्यक्ति के समान है, जिसका सिर गंजा है और भाग्य ने जिसको पहिले से ही 'केश-विहीन कर दिया है अर्थात् जिसका मुण्डन पहिले ही कर दिया गया है।।१।।
'कीसु' के वैकल्पिक रूप 'किज्जलं' का उदाहरण यों है:- बलिं करोमि सुजनस्य बलिं किज्जउं सुअणस्सु=मैं सज्जन पुरूष के लिये बलिदान करता हूँ। (सूत्र-संख्या ४-३३८ में यह गाथा पूरी दी गई है)।।४-३८९।।
भुवः पर्याप्तौ हुच्चः ।।४-३९०।। अपभ्रंशे भुवो धातोः पर्याप्तावर्थे वर्तमानस्य हुच्च इत्यादेशौ भवति।। अइत्तुंगत्तणु जं थणहं सोच्छयउ, न हु लाहु।। सहि ! जइ केवइ तुडि-वसेण, अहरि पहुच्चइ, नाहु।।१।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में संस्कृत धातु 'भु-भव' के स्थान पर 'समर्थ हो सकने' के अर्थ में अर्थात् 'पहुँच सकने' के अर्थ में 'हुच्च' रूप की आदेश प्राप्ति होती है।। जैसे:- (१)प्रभवति-पहुच्चइ-वह समर्थ होता है-वह पहुँच सकता है। (२) प्रभवन्ति पहुच्चहिँ वे समर्थ होते हैं- वे पहुँच सकते हैं।। गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : अतितुङगत्वं यत्स्तनयोः सच्छेदकः न खलु लाभः।
सखि । यदि कथमपि त्रटिवशेन अधरे प्रभवति नाथः॥१॥ हिन्दी:-हे सखि ! दोनों स्तनो की अति ऊँचाई हानि रूप ही है न कि लाभ रूप है। क्योंकि मेरे प्रियतम अधरों तक (होठों का अमृत-पान करने के लिये) कठिनाई के साथ और देरी के साथ ही पहुँच सकने में समर्थ होते है।।४-३९०।।
ब्रगो ब्रू वो वा।।४-३९१।। अपभ्रंशे ब्रूगा धातो बूंव इत्यादेशौ वा भवति।। ब्रूवह सुहासिउ कि पि॥ पक्षे। इत्तउं ब्रोप्पिणु सउणि, ट्ठिउ पुणु दूसासणु ब्रोप्पि।। तोहउं जाणउं एहो हरि जइ महु अग्गइ ब्रोप्पि।।१।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'बोलना' अर्थक धातु 'ब्र' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में विकल्प से 'ब्रूव' ऐसे धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'ब्रू रूप की भी प्राप्ति होगी। (१) जैसे:- ब्रूते-ब्रूवइ और ब्रूइ-वह बोलता है। (२) ब्रूत सुभाषितं किचित्-ब्रूवह सुहासिउ किपि-कुछ भी सुन्दर अथवा अच्छा भाषण बोलो। गाथा का अनुवाद इस प्रकार से है:संस्कृत : इयत् उक्त्वा शकुनिः स्थितः पुनर्दु शासन उक्त्वा।।
तदा अहं जानामि, एष हरिः यदि ममाग्रतः उक्त्वा ।।१।। हिन्दी:-दुर्योधन कहता है कि शकुनि इतना कहकर रूक गया है, ठहर गया है। पुनः दुष्शासन (भी) बोल करके (रूक गया है)। तब मैनें समझा अथवा समझता हूँ कि यह श्रीकृष्ण है; जो कि मेरे सामने बोल करके खड़े हैं। यों इस गाथा में 'ब्रू' धातु के अपभ्रंश में तीन विभिन्न क्रियापद-रूप बतलाये गये है।।४-३९१ ।।
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